Saturday 30 June 2018

फांसी दो, फांसी दो !



ठट्ठ-के-ठट्ठ लोग - उन्माद से भरे अौर अाक्रोश से कांपते-गरजते : फांसी दो, फांसी दो ! किसे फांसी दो ? बलात्कारी को ! यह मध्यप्रदेश का मंदसौर है. बच्ची 8 साल की थी. स्कूल में छुट्टी हो गई, सारे बच्चे घर चले गये, यह बच्ची अंटक गई क्योंकि घर से कोई लेने नहीं पहुंचा. जब पहुंचा तब तक बच्ची को ले कर कोई अौर ही चला गया था. घर वाले परेशान हाल पुलिस के पास पहुंचे अौर पुलिस वाले इस बिन बुलाई अाफत को टालने की हर संभव कोशिश कर के भी जब टाल नहीं पाये तो बच्ची की गुमशुदगी दर्ज हुई. जब वह बच्ची किसी झाड़ी में फेंकी मिली तो सबने कहा - यह दिल्ली के निर्भया कांड से भी अागे की दरिंदगी है. कैसी विडंबना है कि हमने िनर्भया कांड को अपना पैमाना बना लिया है. 

यह सारा घटना-क्रम कैसे चला, मैं न तो जानता हूं अौर न जानना चाहता हूं. मैं ठीक वहीं अंटका हुअा हूं जहां भीड़ ऐसी है अौर समवेत स्वर है :  फांसी दो, फांसी दो; अौर मैं यही सोचने-समझने में लगा हूं कि मंदसौर जैसी  छोटी जगह में यदि इतने सारे लोग बलात्कार जैसी घटना से सच में इस कदर उद्वेलित हो रहे हैं तो क्या मुझे यह नहीं पूछ लेना चाहिए कि भाई, फिर अापके यहां बलात्कार हुअा कैसे ? जिस समाज में इतने सारे लोग- पुरुष लोग - बलात्कार जैसी वारदात को इस तरह घृणित अौर निंदनीय मानते हैं उस समाज में कोई बलात्कार की हिम्मत ही कैसे कर सकता है ? इसलिए मैं मानता हूं कि बलात्कार के अाईना में अाप चाहें तो अपने समाज को देख सकते हैं. 

बलात्कारी हमारे समाज का अादमी है. वह देखता अौर जानता है  कि हम सबके लिए भी लड़की खेलने या मनबहलाव का साधन भर है. हम सब भी अपने घरों में या अपने समाज में लड़की की स्वतंत्र हैसियत, उसकी अाजादी अौर उसकी स्वीकृति को स्वीकार नहीं करते हैं. क्या हमार घरों में लड़की महफूज है ? अौर समाज में ? कहते हैं कि लड़की से सबसे ज्यादा मनमानी घर में होती है अौर वह भी रिश्तेदारों. यह सब वह बलात्कारी भी देखता है अौर जानता है कि ये लोग थोड़ा हल्ला-गुल्ला मचाएंगे अौर फिर सब जैसा है वैसा ही हो जाएगा. उसे याद है कि जब उसने निर्भया का काम तमाम किया था तब भी ऐसा ही अाक्रोश उमड़ा था, वर्मा कमीशन भी बना था अौर देखते-देखते सरकार को उस कमीशन की सिफारिशों में पानी मिलाने की जरूरत दिखाई देने लगी थी. ‘लड़कों से कुछ गलतियां हो जाती हैं’ जैसा घटिया तर्क चलाया जाने लगा था. उनसे देखा है कि बलात्कार के बारे में हमारा नजरिया इस पर निर्भर करता है कि बलात्कार किसका हुअा है अौर बलात्कारी कौन है - धर्म भी अौर जाति भी अौर शिकार व शिकारी की हैसियत भी देखी जाती है. कठुअा के बाद का अालम क्या बलात्कारी ने नहीं देखा; कि उन्नाव के बाद उसने अांखें बंद कर ली थीं ? उसे यह भी पता है कि निर्भया के बाद भी दिल्ली में बलात्कार रुके नहीं अौर अगली वारदातों में कुछ वे लोग भी उसके साथ थे कि जो इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जला रहे थे. मोमबत्तियां जब तक भीतर भी कुछ नहीं जलाती हैं तब तक रोशनी नहीं, धुअां उगलती हैं.  

फांसी देने से न्याय कैसे होता है, मैं नहीं जानता हूं. फांसी से किसी गुनाह में कमी अाती है, अनुभव अौर अांकड़े ऐसा नहीं बताते हैं. फांसी-फांसी से हमारा गुस्सा प्रकट होता है क्योंकि वह हमेशा दूसरे के लिए होता है. कहां सुनते हैं हम कि किसी ने अपने भाई से, अपने पति से, अपने पिता से नाता ही तोड़ लिया अौर उनकी फांसी की मांग करने लगा क्योंकि वह बलात्कारी है ? फांसी की मांग कहीं एक अाड़ तो नहीं है कि जिसके पर्दे में हम खुद को छिपाना चाहते हैं ? एक मुख्यमंत्री तब कितना जाहिल दिखाई देता है जब वह कानून-व्यवस्था बनाये रखने की अपनी विफलता छिपाने के लिए फांसी-फांसी चिल्लाने लगता है ? 

कभी भारतीय जनता पार्टी के वाचाल नेता रहे लालकृष्ण अाडवाणी संसद में अौर बाहर एक ही राग अलापते थे कि अफजल गुरू को फांसी क्यों नहीं चढ़ाते ? चढ़ा तो दिया लेकिन उस फांसी ने कितने नये अफजल गुरु पैदा किए कभी इसका भी हिसाब लगाएंगे हम ? अपराध की सजा ऐसी हो िक अपराधी अपराध से बाज अाए अौर दूसरे उस रास्ते जाने से भय खाएं. अगर इन दोनों में से कुछ भी नहीं होता हो तो उसे सजा कैसे कहें हम ? फिर तो हमें सजा की परिभाषा ही बदलनी होगी न ! 

हमारे संविधान में अौर कानून में जब तक फांसी की सजा स्वीकृत है तब तक फांसी होगी. उसका फैसला हम अदालत पर छोड़ दें. उन्मादी भीड़ जब फांसी-फांसी की अावाज उठाती है अौर कुर्सीखोर राजनीितज्ञ अपना निकम्मापन छिपाने के लिए भीड़ को                                                                                                                                               उकसाते हैं, तो उससे समाज का सामूहिक पतन होता है, उसका पाशवीकरण होता है अौर तब वही समाज निर्भया से भी ज्यादा क्रूर कर्म कर गुजरता है. यह दूसरा कोई नहीं, हम ही हैं जो किसी अाशाराम या दाती मदन को भगवान बना कर बलात्कार का अाश्रम बनाने देते हैं अौर उसमें सेवादार या भजनकार बन जाते हैं. हम तब तक चुप रहते हैं जबतक भांडा नहीं फूटता है. मतलब बलात्कार हमारे भीतर हाहाकार नहीं मचाता है. अगर फांसी पड़नी ही है तो अपने भीतर के इस रेगिस्तान को फांसी दें हम. तब फंदा भी हमारा होगा अौर गला भी हमारा.( 30.06.2018)                                     

                 

जो थी नहीं वह सरकार गई



पहले जम्मू-कश्मीर का सरकारी युद्धविराम समाप्त कर दिया गया अौर फिर सरकार ही समाप्त कर दी गई ! लेकिन न युद्धविराम हुअा, न सरकार गई ! अब वहां सरकार भारतीय जनता पार्टी की है जो सीधे दिल्ली के निर्देश पर चल रही है: अौर अब वहां युद्ध तो नया ही छिड़ गया है - भारतीय जनता पार्टी बनाम महबूबा का युद्ध ! युद्ध की घोषणा अार.एस.एस. के राम माधव ने दिल्ली में की, उस पर मुहर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने कश्मीर पहुंच कर लगाई. रणनीति साफ थी - राम माधव अपने अौकात की बात करेंगे; अमित शाह ने वह सारा जहर उगलेंगे जिससे हिंदुत्व के अागे की राह बनती है. अब देखना है कि तीसरा मुख क्या कहता है. कांग्रेस अौर नेशनल कांफ्रेंस ने भी अपनी-अपनी बात कह कर, कश्मीर से अपना पल्ला झाड़ लिया. अब कश्मीर में एक होगा जो खुद को अधिकाधिक हिंदुत्ववादी दिखाएगा; दूसरा चाहे, न चाहे, अधिकाधिक कट्टरपंथियों के पास या साथ जाएगा.

कश्मीर का दुर्दैव यह है िक उसके बारे में हमारे पास कोई दूरगामी नीति नहीं है - कश्मीर की त्रासदी से जूझते हुए अौर कांग्रेस व जनसंघ की शुतुरमुर्गी चालबाजियों के वार झेल-झेल कर घायल हुए जयप्रकाश नारायण ने सालों पहले यह बात कही थी. १९ जून २०१८ को यही इबारत फिर से लिखी गई अौर भारत के प्रधानमंत्री अौर कश्मीर की मुख्यमंत्री जोकरों की तरह दिखाई दिए. कभी दोनों का दावा रहा था कि कश्मीर के ताले की चाबी हमारे पास है. अाज हम देख रहे हैं कि चाबी भी किसी दूसरे के पास है अौर ताला भी किसी दूसरे का लगा है. 

  जैसे छुछुंदर के सिर में चमेली का तेल या फिर बंदर के हाथ में मोतियों की माला कुछ वैसा ही है हमारे हाथ में कश्मीर ! इतिहास बताता है कि अाजादी के तुरंत बाद जिस जवाहरलाल को कश्मीर चाहिए ही था उनके हाथ से वह करीब-करीब फिसल चुका था; जिस सरदार का भाव यह था कि कश्मीर नहीं तो नहीं सही, उसे ही हाथ से फिसलते कश्मीर को  मुट्ठी में करने की भूमिका निभानी पड़ी थी. कश्मीर के बारे में इतना भिन्न नजरिया था दोनों का. अाजादी के बाद मिले रक्तरंजित, विकलांग देश को संभालने वाले दोनों पुरोधाअों को यह पता नहीं था कि कश्मीर उन्हें क्यों चाहिए. एक गांधी ही थे जो कश्मीर के बारे में स्पष्ट थे. वे अपने भावी भारत का चेहरा कश्मीर के अाईने में भी देखते थे अौर इसलिए अाजादी से कुछ पहले ही, पहली व अंतिम बार कश्मीर जा कर कह अाए थे कि उनका हिंदुस्तान राजशाही का विरोध करता है अौर लोकतांत्रिक कश्मीर की लड़ाई लड़ रहे शेख अब्दुल्ला का समर्थन करता है. सांप्रदायिक उन्माद जगा कर जब सभी अपनी-अपनी ताकत तौल रहे थे, बूढ़े गांधी ने कहा था कि उन्हें कश्मीर के सांप्रदायिक सद्भाव में भारतीय समाज के लिए अाशा की किरण दिखाई देती है. लेकिन हमें अाशा की किरण नहीं, कुर्सी की चमक दिखाई देती रही अौर हमने कश्मीर का कबाड़ा कर दिया. 

शेख अब्दुल्ला, फारूख अब्दुल्ला, अोमर अब्दुल्ला तथा अब्दुल्ला-खानदान के दूसरे चिरागों ने, मुफ्ती परिवार ने, दिल्ली में बनी हर सरकार ने अौर शयामाप्रसाद मुखर्जी से ले कर नरेंद्र मोदी तक ने कितना कश्मीर को संभालने का काम किया अौर कितना अपना सिक्का जमाने का, अाज का कश्मीर इसका ही जवाब बन कर खड़ा है. अाज का कश्मीर हमारी राजनीतिक ईमानदारी अौर प्रशासकीय कुशलता तथा सामाजिक नेतृत्व के दिवालियेपन का दस्तावेज है. 

अब मोदी सरकार ने कह दिया है िक उसे कश्मीर से फौजी जबान में बात करनी है. लालकिले से गाली-गोली नहीं गले लगाने वाली प्रधानमंत्री की जुमलेबाजी कितनी नकली थी, उनकी ही सरकार अाज इसे प्रमाणित कर रही है.  लेकिन इसके साथ ही यह भी तो प्रमाणित हो रहा है कि गलेबाजी अौर जुमलेबाजी से अाप सरकार बना सकते हैं, देश चला नहीं सकते हैं. इन चार सालों में दूसरा कुछ हुअा हो कि न हुअा हो, यह तो साबित हो ही गया है कि यह सरकार देश चलाना नहीं जानती है. प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता अौर सरकार का इकबाल अाज निम्नतम स्तर पर है अौर 2019 अगर इसी का बटन दबा दे तो किसी को हैरान नहीं होनी चाहिए. अाखिर गठबंधन की इस सरकार की हर पहल, हर घोषणा, हर जुमला अाज अौंधे मुंह गिरा नजर अा रहा है तो क्यों ? कुछ जवाब अाप देंगे, कुछ महबूबा अौर बहुत सारा 2019 में मतदाता देगा.

महबूबा-मोदी के तीन साल से ज्यादा चले गठबंधन में वे एक-दूसरे से शह अौर मात का खेल खेलने में लगे रहे अौर एक-दूसरे को इस्तेमाल करते रहे. इसलिए हमने देखा कि जितनी भी प्रधानमंत्री महबूब के कश्मीर गये, उनके हुजूर में कसीदे पढ़ के अाए अौर महबूबा ने तो कह दिया कि मोदीजी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो कश्मीर की समस्या हल कर सकते हैं. न कभी राम माधव ने कहा अौर न कभी अमित शाह ने कहा कि महबूबा-सरकार मुस्लिम अाबादी का पोषण कर रही है अौर गैर-मुस्लिम अाबादी की उपेक्षा ! महबूबा ने भी कभी देश को यह नहीं बताया कि गठबंधन में उन पर जोर डाला जा रहा है कि वे दमन की काररवाई तेज करें अौर न यही कि भारतीय जनता पार्टी गठबंधन धर्म का पालन नहीं कर रही है. फिर रातोरात सारा कुछ बदल कैसे गया ? शायद इसलिए कि दोनों ने यह समझ लिया कि अब इस रिश्ते को बहुत निचोड़ कर भी कुछ पाया नहीं जा सकता है. 

अब वह भी होगा कि जिसकी तरफ महात्मा गांधी ने सांप्रदायिक दंगों के दौरा, 1948 में कहा था : "  कानाफूसी सुनी है कि कश्मीर को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. इनमें से जम्मू हिंदुअों के हिस्से अाएगा अौर कश्मीर मुसलमानों के हिस्से. मैं ऐसी बंटी हुई वफादारी की अौर हिंदुस्तान की रियासतों के कई हिस्सों में बंटने की कल्पना भी नहीं कर सकता. मुझे उम्मीद है कि सारा हिंु्तान समझदारी से काम लेगा अौर कम-से-कम उन लाखों हिंदुस्तानियों के लिए, जो लाचार शरणार्थी बनने के लिए बाध्य हुए हैं, तुरंत ही इस गंदी हालत को टाला जाएगा. 

( दिल्ली डायरी, पृ 169) 

छेड़ें शांति का युद्ध



अभी ईद हुई ही थी अौर ईदी की खुशी तारी भी नहीं हो पाई थी कि अब कोई दुष्यंत कुमार कहीं जिंदा नहीं हैं कि जो कहें कि कैसे-कैसे मंजर सामने अाने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं. अब तो अखबारों-चैनलों के सुरक्षित, वातानुकूलित कमरों में बैठ कर सरकार-फौज-सुरक्षा बलों को ललकारते एंकरों-पत्रकारों की अावाजें ही हैं कि जो माहौल को किसी भी हद तक अश्लील बनाने से गुरेज नहीं करती हैं; उतनी ही अश्लीलता गृहमंत्री की उस शातिर हंसी में भी थी कि जब वे युद्धविराम खत्म होगा कि जारी रहेगा जैसे प्रश्न के जबाव में इतना कह कर निकल जा रहे थे कि इसका जवाब मैं कल दूंगा ! शांति की संभावना वाले ये कुछ दिन सब पर इतने भारी पड़ रहे थे कि जैसे सांस घुटती जा रही हो. अब फिर वही कश्मीर है, वही खूनी, वहशी लोगों का जमावड़ा है. मारते-मरते फौजी हैं; मरते-मारते नागरिक हैं. नया कुछ भी नहीं है. जिंदा लोगों को गोलियां अौर जांबाज जवानों को पत्थरों की बारिश जब लाशों में बदलती है तब किसी भी तरह की संभावना जन्म नहीं लेती है. मौत हमेशा बंजर होती है फिर वह चाहे व्यक्ति की हो या समाज की या राष्ट्र की ! 

ये अपने लोग हैं या दुश्मन ? अगर दुश्मन हैं तब यह गंदा, कमजोर युद्ध क्यों, इससे बड़ी विनाशक ताकत से यह खेल खत्म क्यों नहीं करते ? ७० सालों से मार-मार कर भी जिन्हें हम मार नहीं पाये हैं, वे या तो मारने लायक ही नहीं है या फिर हम जीने लायक नहीं हैं. ऐसे मंजर में हम अपनी जिस नई पीढ़ी का लालन-पालन कर रहे हैं, चाहे कश्मीर में हो कि कन्याकुमारी में, उसके मन में इंसानी जान, नागरिक के सम्मान, लोकतंत्र की मर्यादा अादि के बारे में कैसा भाव जड़ जमा रहा होगा ? जवाब नहीं है मेरे पास लेकिन हालात जवाब दे रहे हैं जिसे मैं भी देख-सुन रहा हूं अौर अाप भी. 

कहा जा रहा है कि युद्धविराम की यह पहल ही गलत थी. कहा जा रहा है कि ऐसा करके अापने दुश्मन को सज्जित होने का अवसर दे दिया; कहा जा रहा है कि हमारी ऐसी कमजोरी का फायदा घुसपैठियों ने उठाया; कहा जा रहा है कि इस दौरान अातंकी हमले बढ़ गये; कि इसी का फायदा उठा कर पत्रकार-संपादक शुजात बुखारी की हत्या की गई; कि इसी युद्धविराम से शह पा कर फौजी अौरंगजेब अौर विकास गुरुंग की नृशंस हत्या की गई. कहा जा रहा है कि युद्धविराम की इसी कायरता से उत्साहित युवाअों ने अाखिरी दिनों में श्रीनगर, बारामूला, सोपोर, अनंतनाग अौर कुपवारा में भयंकर पत्थरबाजी की.  मैं बगैर किसी प्रतिवाद के यह सब स्वीकार करता हूं. मुझे अगर कुछ कहना है तो सिर्फ इतना कि यह सब जो हुअा, क्या यही सब पहले भी नहीं होता रहा है ? पत्थरबाजी से हमारी सेना कब बेहाल नहीं रही है ? क्या शुजात बुखारी जैसे शानदार पत्रकारों को पहले भी नहीं मारा गया है ? इस वर्ष युद्धविराम से पहले तक ६० अौर पिछले साल भर में १२४ घुसपैठिये मारे गये थे. मतलब यह कि कम या अधिक संख्या में घुसपैठ की कोशिश करना, उस कोशिश में मारे जाना अौर फिर भी जिसकी सींग जिधर समाये उधर घुस जाना वहां की सामान्य वारदात है. कभी हमें यह भी तो बताया जाए कि इसी अवधि में हमारे कितने जवान मारे गये? जिसे अाप सर्जिकल स्ट्राइक कहते हैं, उसके बाद से अब तक जवानों को रोज-रोज जिस तरह मारा जा रहा , वैसा तो पहले कभी नहीं था. सच, कश्मीर की हालत बहुत बुरी है. जीवनरक्षक मशीनों के भरोसे ही जब मरीज जिंदा रखा जाता है तब उसका जीना मौत से भी बुरा होता है. कश्मीर की हालत वैसी ही है. 

युद्धविराम कोई हथियार नहीं है, न जादू की छड़ी है. यह शांति के प्रति हमारी प्रतिबद्धता है. यह अापको विकल्प खोजने का मौका देता है, उसका वातावरण देता है अौर यह संभावना पैदा करता है कि सामने वाला भी इसी भाषा में जवाब देगा. यदि मन सच्चा है, तो फिर अाप इसे सफलता तक पहुंचाने का रास्ता खोजने लगते हैं. समाज में संवाद की प्रक्रिया तेज करते हैं, समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने का काम तेजी से चल पड़ता है. अाप सावधानी से वे सारी राजनीतिक डोरियां ढीली करने लगते हैं जिनसे लोगों का गला घुटा जाता है. इनमें से हमने क्या-क्या किया ? कुछ भी नहीं ! हमने तो यह भी नहीं किया कि युद्धविराम खत्म करने से पहले कश्मीर में व्यापक विमर्श चलाया, अौर सबकी रजामंदी से भले न हो लेकिन सबको बता कर युद्धविराम समाप्त किया. दिल्ली जब तक राजकीय घोषणाअों वाला अपना तेवर बदलती नहीं है, हमारे संघीय ढांचे को संभालना कठिनतर होता जाएगा. 

युद्धविराम की बात है तो दूर नहीं, पड़ोस के अफगानिस्तान को देखिए. वहां तालीबानी अातंकी सरकार से युद्ध कर रहे हैं. हमारी तरह ही मरने-मारने का अंतहीन सिलसिला है. वहां भी ईद को केंद्र में रख कर तीन दिनों का युद्धविराम किया गया था. अौर उन तीन दिनों में जैसे सारे बंधन खुल गये थे. सीमा पर अपने हथियार जमा करवा कर, निहत्थे तालीबानी अातंकी अफगानिस्तान में दाखिल होते गये अौर सड़कों पर जाम लग गया. हर कोई गले लग रहा था, एक-दूसरे को बांहों में भर रहा था. काबुल पुलिस को इन तीन दिनों में कहीं हस्तक्षेप नहीं करना पड़ा. काबुल के ‘राजनाथ सिंह’ वाइस अहमद बरमाक खुद जा कर तालीबानी अातंकियों से मिले अौर युद्धविराम के दौरान नि:शंक काबुल अाने का अामंत्रण दिया. कितनी ही खूनी वारदातों का गवाह रहा कुंदुज शहर का मुख्य चौराहा गले लगने अौर लगाने की उष्मा से भरा था. जाबुल की कॉलेज का युवा क्वैस लिलवाल कहता है, “ ऐसी शांत ईद तो कभी देखी ही नहीं थी. यह पहली बार ही था कि मैं खुद को एकदम महफूज पा रहा था. मैं इस खुशी को बयान नहीं कर सकता.” सीमा के दोनों तरफ से लोगों ने अपील की है कि यह युद्धविराम अौर अागे बढ़ाया जाए. 


जैसे युद्ध की एक कीमत होती है, शांति की भी एक कीमत होती ही है. वह मुफ्त में, प्लेट पर रखी नहीं मिलती है. जो समाज शांति की कीमत चुकाने लायक हिम्मत जुटाता है, वह अपनी संभावनाअों का दरवाजा बड़ा करता है. अापने एक बार वह दरवाजा खोला तो पूरी कायनात उसे बड़ा व स्थाई करने में जुट जाती है. जो दरवाजे बंद रखते हैं उनके दरवाजों पर सिर्फ मौत व विनाश ही दस्तक देते हैं. हम हिम्मत के साथ अपने कश्मीर का दरवाजा खोलें, इसके अलावा कोई िवकल्प है नहीं. ( 18.06.2018)  

मजबूत सरकार : कमजोर अास्थाएं



अगर मैं यह कहूं कि जब हम मजबूत सरकार की बात करते हैं तब हम एक कमजोर समाज की बात भी कर रहे होते हैं, तो अापको कैसा लगेगा ? किसी को यदि यह तुलना नागवार न गुजरे तो मैं कहना चाहता हूं कि अाप जितना बड़ा, खूंखार कुत्ता अपने घर की सुरक्षा के लिए पालते हैं, अपनी स्वतंत्रता से उतना ही अधिक समझौता करते हैं. फिर अाप अपने घर से निकलने की भी अौर अपने घर में मेहमानों के अाने की भी, छुट्टियों में बाहर जाने की भी अौर किसी दूसरे को घर में बुलाने की भी मनचाही योजना नहीं बना पाते हैं. डर, सुरक्षा, परावलंबन अौर अाजादी का रिश्ता जरा पेंचीदा है. ऐसी ही पेंचीदा है कमजोर व मजबूत सरकार के बारे में हमारी समझ ! 

जो समाज चाहता है कि उसकी सारी सार्वजनिक जिम्मेवारी दूसरे पूरी करें, उसकी हर तरह की सुरक्षा दूसरों के मातहत हो, घर भी अौर पड़ोस भी दूसरों की निगहबानी में रहे; अौर हमसे अपेक्षा बस इतनी हो कि हम उस सुरक्षित पर्यावरण में रहें, तो गुलामी का जीवन जीने की इससे पक्की अवधारणा हो ही नहीं सकती है. अाप परेशान न हों यदि अाप पाएं कि दुनिया में जो समाज जितना सुरक्षित माना जाता है, वह उतना ही कम स्वतंत्र है. लंबे समय से अमरीका में रह रहे एक भारतीय ने इसे इस तरह से व्यक्त किया कि ९/११ की घटना के बाद अमरीका में एक भी बड़ी अातंकी वारदात नहीं हुई. यहां सब कहते हैं कि इससे पता चलता है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां िकतनी कुशलता व सजगता से अपना काम कर रही हैं- “ मुझे भी ऐसा ही लगता था लेकिन अब मैं धीरे-धीरे यह समझ पा रहा हूं कि ९/११ के बाद के अमरीकी समाज में स्वतंत्रता, विश्वास, भरोसा, खुलापन कितना संकुचित हुअा है, अौर होता जा रहा है. गैर-अमरीकी भावना ज्यादा तीखी अौर अाक्रामक हुई है, अौर हम सभी - अमरीकी भी अौर गैर-अमरीकी भी - इसके दर्शक मात्र रह गये हैं.” 

मजबूत सरकार से मतलब उस सरकार से है जो बड़े बहुमत से बनी हो, जिसने बहुत सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये हों, जो सदन में अपार बहुमत रखती हो अौर उस बहुमत के जोर से संविधानसम्मत दूसरी व्यवस्थाअों के काम व प्रभाव को सीमित करती हो. ऐसी अपनी तीन सरकारों की बात जरा देखें. पहली सरकार जवाहरलाल नेहरू की; दूसरी उनकी बेटी इंदिरा गांधी की अौर तीसरी नरेंद्र मोदी की. जवाहरलाल नेहरू की सरकार स्वतंत्र भारत की पहली सरकार थी जिसके पास सर्वस्वीकृत अौर सर्वप्रिय नेतृत्व था, अच्छा-खासा बहुमत था, स्वतंत्रता के अादर्शों से भरा-पूरा वातावरण था, लोकतंत्र की नींव बनाने व उसे मजबूत करने की जिम्मेवारी थी. वह सरकार हमारे देश की सबसे मजबूत सरकार थी क्योंकि उससे पहले की किसी मजबूत सरकार का हमारे पास उदाहरण नहीं था. जब अाप ही पहले होते हैं तब दो संभावनाएं एक साथ उभरती हैं - अाप मनमानी की सरकार चलाएं या फिर अाप चलाएं नहीं, हवा में बहते रहें. नेहरू की सरकार ने इन दोनों रास्तों को छोड़ कर एक जिम्मेवार सरकार की भूमिका स्वीकार की अौर गजब की प्रतिबद्धता से उसे निभा ले गये. देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं अौर लोकतांत्रिक परंपराएं तभी गढ़ी गईं, अौर जो गढ़ी गईं उनका पालन भी किया गया. विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका अौर प्रेस - लोकतंत्र के ये चारों खंभे बने, खड़े हुए अौर मजबूत हुए क्योंकि केंद्र में एक मजबूत सरकार थी. इस सरकार का नैतिक अाधार मजबूत था, इसकी वैधानिक स्थिरता के बारे में कोई शंका नहीं थी, इसकी उपस्थिति कश्मीर से कन्याकुमारी तक इसकी सरकार थी याकि इसकी मजबूत उपस्थिति थी. जवाहरलाल ने रूप में इसे ऐसा प्रधानमंत्री मिला था जो अपनी कुर्सी से बड़ी हैसियत रखता था. 

बेटी इंदिरा गांधी की वैधानिक स्थिति पिता जवाहरलाल से कहीं मजबूत थी. एक भीड़वादी राजनीतिक लोकप्रियता भी उनके पास थी. वह कांग्रेस पार्टी, जिसे जवाहरलाल साधते तो थे लेकिन जो पूरी तरह उनकी मुट्ठी नहीं थी, उस कांग्रेस पार्टी का भग्नावशेष ही था जो इंदिरा को मिला था. वे उसे भी संभाल नहीं सकीं. पार्टी व सरकार को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में रखने की लालसा में उन्होंने पार्टी तोड़ ली, हैसियतदार नेताअों को बाहर का रास्ता दिखा दिया अौर जो बचे उन्हें शराणागत होने पर विवश कर दिया. लोकतंत्र के चारों खंभों को तोड़-कतर कर ऐसा बना दिया कि जिससे कोई उन्हें चुनौती न दे सके. नारों, अांकड़ों, घोषणाअों, कार्यक्रमों की झड़ी के बीच उन्होंने देश के सामने अपना उत्तराधिकारी भी रख दिया अौर पार्टी व सरकार से कह दिया कि वह उनके बेटे को ही अपना असली सरदार मान कर चलें. यह एक सत्तालोलुप व्यक्ति की डरी हुई सरकार थी जिसे अपना मजबूत चेहरा देश के सामने पेश करते रहता था. लेकिन जो दिखाना पड़े वह असली चेहरा नहीं होता है. इसलिए सत्ता की राजनीति व अाकांक्षा से दूर, एक अलग किस्म की क्रांति की खोज में लगे जयप्रकाश नारायण ने जब इंदिरा गांधी की नीतियों अौर नेकनियती पर सवाल खड़े किए तो वे एकदम बिफर उठीं. वे डर गईं. वे समझ ही नहीं पाईं कि ऐसे अादमी का मुकाबला कैसे किया जाए कि जिसकी बातों का जवाब उनके पास है नहीं अौर जिसकी नैतिक ऊंचाई का मुकाबला वे कर नहीं सकती हैं. १९७७ में जयप्रकाश ने मजबूत सरकार का मुखौटा हटा दिया. तब हमने देखा कि यह तो शेर का खाल पहने भेंड़ वाली कहानी थी. 

अब हमारे सामने अपनी मजबूती का इश्तेहार लिए खड़ी है नरेंद्र मोदी की सरकार ! इतिहास जैसे पुराने रास्तों पर जा लगा है. यहां हम फिर इंदिरा गांधी वाली मजबूत वैधानिक स्थिति पाते हैं, उन जैसी ही सत्तालोलुपता पाते हैं, उन जैसी ही भीड़तंत्र वाली लोकप्रियता का माहौल पाते हैं. लेकिन यहां एक अौर तत्व जुड़ गया है. लोकतंत्र की मदद से सत्ता में पहुंची यह सरकार एक ऐसे दर्शन की हामी है जो लोकतंत्र में भरोसा नहीं करती है. इसकी खुली घोषणा है कि इसे हमारा संविधान, विधान, राष्ट्रगान, राष्ट्र-ध्वज अौर राष्ट्रपिता कुछ भी मंजूर नहीं है. इसे यह भी पता है कि ७० सालों की निरंतर कोशिश के बाद, अपना असली उद्देश्य सबसे छिपा कर यह कई संयोगों के परिणामस्वरूप सत्ता पा गई है. यह मौका इसे हाथ से जाने नहीं देना है अौर कुछ ऐसा करना है कि अगला चुनाव भी यह जीत सके ताकि हमारी राष्ट्र-राज्य व्यवस्था का अपना स्वरूप रच सके. अाप ेखें कि अपनी उपलब्धियों के बखान मेंय सच-झूठ का फर्क नहीं मानतीह, योजनाअों-घोषणाअों की लगातार बारोश ऐसी चल रही है कि किसी को यह पूछने का अवकाश ही न रहे कि किस घोषणा का अौर किस योजना का, क्या फायदा लोगों को मिला ? भारतीय समाज में कभी इतनी असुरक्षा का भाव नहीं था जितना इस सरकार कर अाने के बाद हुअा है. असुरक्षित वे ही नहीं हुए हैं किजो अल्पसंख्यक या हमारे समाज के कमजोर वर्गों से अाते हैं बल्कि बहुसंख्यक समाज असुरक्षित हुअा है. व्यापारी भी, छोटा दूकानदार भी, नौकरी-पेशा लोग भी, रोजगार की तलाश कर रही नई पीढ़ी भी, नौकरशाह भी, पड़ोसी मुल्क भी सभी इस सरकार े अाशंकित हैं. हमारी विदेश-नीति अाज रूस-अमरीका-चीन की ठकुरसुहाती से अलग कुछ बची नहीं है. संसद की बैठकें छोटी भी होती जा रही हैं अौर अप्रासांगिक भी. यह है हमारी मजबूत सरकार का सच ! यह भी उसी श्रेणी की सरकारों में जा बैठी है जो अपनी अांतरिक कमजोरी को िछपाने के लिए बाहरी मजबूती का स्वंाग करती हैं. 


ऐसी सभी सरकारें संवैधानिक व्यवस्थाअों को निचोड़ कर अपनी शक्ति का अाभास पैदा करती हैं. इसलिए ऐसी सभी सरकारों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं भार लगती हैं, अपनी तेज दौड़ में बाधा लगती हैं. ये नैतिक रूप से खोखली होती हैं जिसे प्रशासनिक तेवर से छिपाने में लगी रहती हैं. मजबूत सरकारें अपने अांतरिक बल से चलती हैं, कमजोर सरकारें बाहरी उपक्रमों से अपना बल प्रदर्शित करती हैं. 

अामने-सामने



ऐसा पहले भी हुअा है लेकिन हाल के वर्षों में हुअा नहीं था. मैं यह भी कहूंगा कि हाल के वर्षों में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने ऐसी गलत बिसात बिछाई नहीं थी जैसी उसने पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को अपने वार्षिक समारोह में बुला कर बिछाई. चाल बहुत साफ थी. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रात-दिन एक कर जिस जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल पर कालिख पोतने की विफल कोशिश में लगे रहते हैं, उसी जवाहरलाल नेहरू के भारत-विमर्श को अंधेरे में ठेलने का यह अायोजन था. सालों-साल से संघ-परिवार इसी कोशिश में लगा रहा है. उसे यह भी पता है कि मोदी का शासन-काल उसका स्वर्ण-काल है. सत्तालोलुप राजनीति के पेशेवर खिलाड़ी व सत्ताभीरू लोगों की भीड़ को इसी दौर में अपनी तरफ खींचा जा सकता है. ऐसे ही कांग्रेसियों व दूसरे दलों के लोगों को अपनी तरफ खींच कर नरेंद्र मोदी ने अपनी भाजपा बना ली है, तो मोहन भागवत अपना संघ क्यों न बना लें. संघ को सत्ता में जाना नहीं है लेकिन मजबूत रिमोट से अपनी सरकार चलानी जरूर है. इसलिए संघ चेहरे बदल-बदल कर उन सबमें सेंध लगाने की रणनीति पर चल रहा है जिनमें कभी न उसकी पैठ थी, न उसके दर्शन में कभी उनकी जगह थी- गांधी से ले कर अांबेडकर तक हम यही देखते हैं. प्रणव मुखर्जी इसी रणनीति के तहत बुलाए गये थे. लेकिन प्रणव मुखर्जी ने इस जाल को काटा अौर ‘मोहन’ व ‘महात्मा’ को अामने-सामने कर दिया. 

महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था अौर तब से ही वे उस जातीय-श्रेष्ठता से अलग, अपना एक भारत-दर्शन तैयार करते मिलते हैं जिसे सावरकर-हेडगवार-गोलवलकर अादि ने अागे बढ़ाया था. 1909 में, अपनी कालजयी रचना ‘हिंद-स्वराज्य’ में गांधी ने पहली बार इस दर्शन को खुली चुनौती दी. तब से लेकर 30 जनवरी 1948 को उनकी गोली खा कर मरने तक गांधी अपनी जगह से इंच भर भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुए. दोनों तरफ से तलवारें खिंची रहीं. गांधी वैचारिक वार करते ही रहे, संघ के पास विचार तो था नहीं, तो वह शारीरिक वार करता रहा, अौर पांच कोशिशों के बाद, अपनी छठी कोशिश में वह शरीर की हत्या करने में सफल हुअा. लेकिन शरीर की हत्या करने से विचारों की हत्या नहीं की जा सकती है, यह रहस्य जब तक उस पर खुला, महात्मा गांधी व्यक्ति के चोले से निकल कर, विचार का बाना पहन, अनंत हो चुके थे. विचारों की ऐसी लड़ाई की कोई पूंजी संघ-परिवार के पास कभी नहीं थी. जो उसके पास थी नहीं, वह वह अपने स्वंयसेवकों को अौर संघ-परिवार जनों को देता भी कैसे ! यह दरिद्रता उसे पामाल किए जाती है जिसे अनुशासन, अापदा में सेवा, धर्म, संस्कृति, भारतीयता अादि-अादि के उन्मादी नारों अौर हिंदुत्व खतरे में है के भय की चादर तले छिपाने की उसकी कोशिश चलती रहती है. उसका यह दृढ़ विश्वास है यथास्थितिवादी सुविधाप्राप्त वर्ग अौर अाम लोगों की भीड़ ऐसे नारों की गहराई में जाने की हिम्मत व क्षमता नहीं रखती है. इसलिए उसका काम धर्म व देशभक्ति के अधकचरा ज्ञान से चल जाएगा. इसलिए यह अकारण नहीं है कि गांधी को न मानने वाले व न जानने वाले संघ ने उन्हें अपने प्रात:स्मरणीय लोगों की सूची में दाखिल कर लिया अौर मोदी सरकार ने गांधी के हाथ में झाडू पकड़ा कर, गांधी के प्रति अपनी निष्ठा का अंत कर लिया. 

लेकिन अामना-सामना है कहां ? वह यहां है कि सावरकर कहते हैं कि एक देश में दो धर्म नहीं रह सकते, इसलिए मुसलमानों को उनकी जमीन दे कर अलग कर देना चाहिए; गांधी कहते हैं कि देश धर्मों से नहीं संस्कृतियों से बनते हैं, इसलिए एक देश में दो ही नहीं, अनेक धर्म रह सकते हैं. संघ के विचारक कहते हैं कि धर्म राजनीति करने का हथियार है; गांधी कहते हैं कि धर्म निजी अास्था का विषय है जिसका राजनीतिक व्यापार नहीं किया जाना चाहिए. संघ कहता है कि लक्ष्य ही है जो चाहे जिस रास्ते हो, प्राप्त किया जाना चाहिए; गांधी कहते हैं कि लक्ष्य शुभ है या  नहीं, इसकी कसौटी यह है कि वह मानवीय तरीकों से प्राप्त हो सकता है नहीं, इसे जांचा जाए, क्योंिक अशुद्ध साधनों से किसी शुद्ध लक्ष्य की प्राप्ति की अाशा वैसी ही असंगत है जैसी यह अाशा कि बबूल का पेड़ लगाएंगे अौर इसमें से अाम का फल खाएंगे. गांधी कहते हैं कि इस भारत-भूमि पर जिसने जन्म लिया अौर जिसने इसे अपना वतन माना, वे सब संविधानसम्मत सारे अधिकारों-अवसरों के समान रूप से अधिकारी हैं; संघ कहता है कि हिंदू सबसे अधिक संख्या में हैं इसलिए वे यहां की अाजादी, अवसर, अधिकार, संपदा अादि के पहले अधिकारी हैं, बाकी सबके बारे में फैसला हिंदू ही करेंगे. गांधी कहते हैं कि सत्ता अौर संपत्ति के उद्गम अौर संवर्धन को यथासंभव विकेंद्रित करना होगा तभी भ्रष्टाचार अौर शोषण पर अंकुश लगाया जा सकेगा; संघ कहता है कि हिंदू सत्ता अौर समाज पर हावी होंगे तो यह सब अाप-से-अाप रुक जाएगा. गांधी कहते हैं कि स्त्री किसी के अधिकार या भय के अधीन रहे, यह मुझे किसी हाल में कबूल नहीं; संघ कहता है कि स्त्री किसके अधीन है या किसके द्वारा जलील की जा रही है, इसे देखने के बाद ही यह फैसला हो सकता है कि यह अपराध है या  नहीं अौर इसके लिए कोई दंड विधान होना चाहिए या नहीं. गांधी कहते हैं कि जिस ग्रामाधारित स्वराज्य की मैं परिकल्पना करता हूं, उसमें गो-रक्षा जरूरी है लेकिन वह किसी भी इंसान की जान ले कर नहीं की जानी चाहिए. मतलब यह कि वे गाय को बचाने के लिए अपनी जान देने को तो तैयार हैं लेकिन वे दूसरे किसी की जान ले कर गाय बचाने को तैयार नहीं हैं; संघ कहता है कि गाय धर्म का प्रतीक है, इसलिए चाहे जहां, जितने गैर-हिंदू मारें जाएं, मारे जाएं लेकिन हमें गाय को बचाना है. गांधी कहते हैं कि हमें खेतिहर समाज की विभावना अौर दर्शन के लिए सारे देश में स्वीकृति बनानी है;संघ कहता है कि देश का विकास तेजी से अौद्योगिकीकरण के बिना संभव नहीं है. गांधी कहते हैं कि अतीतजीवी होना न तो सभ्यता है, न संस्कृति; संघ अपने काल्पनिक अतीत से न खुद को, न देश को मुक्त करना चाहता है. यह है अामना-सामना ! यह वह खिड़की है जिससे गांधी को देखा व समझा जा सकता है; यह वह खिड़की है कि जिसे संघ हमेशा-हमेशा के लिए बंद करना चाहता है. प्रणव मुखर्जी ने इस खिड़की की बात संघ के वार्षिक समारोह में की. अब सब गिन रहे हैं कि कितनी खिड़कियां खुलीं अौर कितनी बंद हुईँ. ( 08.06.2018) 


राजकिशोर का शून्य



हम सभी दुनिया की भीड़ के हिस्से हैं. जब दुनिया छोड़ कर जाते हैं तो भीड़ कम कर जाते हैं. राजकिशोर भी दुनिया खाली कर गये तो एक अादमी की भीड़ कम तो हो गई लेकिन एक बड़ी जगह खाली भी हो गई. एक शून्य ! किसके जाने से कहां, कितनी जगह खाली छूट जाती है, शायद एक यह पैमाना हो सकता है यह अांकने का जो गया उसकी हमारे वक्त में क्या भूमिका थी. 

राजकिशोर उन बिरले पत्रकारों में एक थे जो खबरों के मोहताज नहीं थे. राजकिशोर खबरों की भीड़ में से विचार चुन लेते थे या कहूं कि खबरों को विचारों से सींचने की अनोखी प्रतिभा थी उनमें. तपती कच्ची धरती पर बारिश की बूंदें जैसी सोंधी गमक से वातावरण सींच देती हैं, राजकिशोर के लेखन से वैसी सोंधी खुशबू उठती थी. वे विचार की लड़ाई लड़ने वाले कलम के सिपाही थे. कलम का सौदा अौर शब्दों की तिजारत के इस दौर में राजकिशोर मुझे किसी दूसरे ग्रह से अाए प्राणी लगते थे.

मेरा बहुत नजदीक का तो नहीं, बहुत लंबे समय का नाता था उनसे. मैंने जिस गांधी से मूल्य-बोध पाया था उससे उनका नाता दूर का भी था अौर किसी हद तक टेढ़ा भी. वे समाजवाद वाले - लोहिया वाले - पत्रकार थे. तो एक-दूसरे को पढ़ते रहते थे हम, अौर उनके कोलकाता के ‘रविवार’ अौर बाद के दिनों में ऐसा भी हुअा कि उन्होंने मुझसे कई लेख लिखवाए. फिर ऐसा हुअा कि १९७४ के दौर में जेपी का ज्वार ऐसा उठा कि उसमें कितनी सारी दीवारें गिरीं. कितनी ही प्रतिमाएं भू-लुंठित हुईं, स्थापनाएं गिरीं, हर राजनीतिक दल टूटा. विनोबा अौर जयप्रकाश भी टूटे. राजकिशोर भी इस ज्वार में बहे अौर बदले. जयप्रकाश के साथ बह कर राजकिशोर गांधी तक पहुंचे. इस विचार-यात्रा ने हम दोनों को काफी करीब ला दिया. राजकिशोर ने इसे कबूल करते हुए कहा भी कि मुझे गांधी का ठौर मिला, तो इसमें कहीं अापका दाय भी है. मैंने कहा : नहीं, विचार के प्रति अापकी प्रतिबद्धता ने अापको गांधी तक पहुंचाया है. 

वे हिंदी पत्रकारिता में प्रथम पंक्ति में थे लेकिन व्यक्ति राजकिशोर कभी अागे अाने की मशक्कत करता नहीं मिला. यही उनका व्यक्तित्व अौर उनकी शैली थी. लंबे समय से उनका शरीर मन का साथ नहीं देता था जिसका असर उनकी कलम पर भी होता था. इसका मुझे अफसोस होता था. फिर वे मानसिक संताप में पड़ कर अवसाद से घिरते गये. कुछ ऐसा चक्र था उनके जीवन का कि वह बहुत वक्र चलता था. वे सबको मन के किसी कोने में दबा कर रखते जाते थे जबकि जरूरत थी कि उन्हें गंदे कपड़ों की  तरह उतार व निकाल फेंका जाए. लेकिन हम हमेशा ऐसा कर कहां पाते हैं ! राजकिशोर भी नहीं कर पाये. अवसाद से निकलते थे तो इसी अाशंका में सतर्क जीते थे कि फिर यह कब धर दबोचेगा. लेकिन इन सब के बीच उनकी कलम रास्ता खोज लेती थी. वे लिखते रहते थे. िफर लखनऊ के ‘रविवार’ से उनका जुड़ाव हुअा. एक बार फिर मैंने उन्हें सक्रिय होते देखा. उनके अाग्रह पर मैंने भी वहां कुछ लिखा. लेकिन वह जुड़ाव भी टूटा. बड़े बुझे मन से इसकी खबर दी उन्होंने अौर मेरे इस दिलासे पर वे खामोश रहे कि अब मुक्त मन से कुछ बड़ी चीजें लिखिए. 


तब मैं कहां जानता था कि वे मुक्त मन से नहीं, दुनिया से ही मुक्ति सोच रहे हैं. अभी ही, कुछ माह पहले जयप्रकाश नारायण पर मेरा ही वह व्याख्यान था जिसकी अध्यक्षता उन्होंने की थी. जाते हुए मुझसे कह गये : यह व्याख्यान होना जरूरी था अौर मुझे बहुत संतोष है कि मैं यहां रहा. मैं सोच रहा हूं : वे राजकिशोर जो कल तक थे, अाज कहां हैं ? एक शून्य है कि जिसमें मैं उन्हें खोजता हूं अौर पाता हूं कि वे वहीं हैं जहां होना उन्हें सबसे पसंद था - विचारों के धागे सुलझाते अौर उनसे उलझते ! ( 04.06.2018) 

महात्मा गांधी की इतनी याद क्यों अाती है राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को



उन्होंने तो कहा ही था कि वे मर कर भी चुप नहीं रहेंगे बल्कि अपनी कब्र में से भी अावाज लगाते रहेंगे; हमने भी तै किया है कि बिरला भवन में उन्हें गोली मारने अौर राजघाट पर उनका अग्निदाह कर देने के बाद भी हम उन्हें शांति से रहने नहीं देंगे ! महात्मा गांधी कुछ ऐसी ही किस्मत लेकर अाए थे. अब तो 4 साल से भी अधिक हुए कि राजधानी दिल्ली में तथा अधिकांश राज्यों में सरकार उनकी है जो जुमलेबाजी की कलाबाजी में कभी गांधी के साथ हों तो हों, भाव में गांधी के धुर विरोधी अौर अास्था में गांधी से एकदम विपरीत रहे हैं, अौर हैं. तो अब तो ऐसा होना चाहिए था कि गांधी को हाशिये पर डाल दिया जाए. लेकिन हो यह रहा है कि भले उनके हाथ में झाड़ू पकड़ा कर, उन्हें अपनी कल्पना की किसी ‘स्मार्ट सिटी’ की सड़क किनारे खड़ा कर दिया गया हो, किसी-न-किसी बहाने उन्हें बीच बहस में ला कर खड़ा किया जाता है ताकि कहा जा सके कि जो हो रहा है अौर जो होगा सबकी सम्मति गांधी से पहले ही ली जा चुकी है. इस अादमी के साथ ऐसा खेल इतिहास पहली बार नहीं खेल रहा है. दक्षिण अफ्रीका से 1915 में लौटने के बाद से 30 जनवरी1948 को हमारी गोली खा कर गिरने तक वे सारे लोग, जो गांधी से असहमत रहे, उनके विरोधी रहे, उनसे अपनी दुश्मनी मानते रहे वे सब भी कोशिश यही करते रहे, यही चाहते रहे कि गांधी को खारिज करने की स्वीकृति भी उन्हें गांधी से ही मिले. 

अभी-अभी उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी ऐसा ही किया. नानाजी देशमुख स्मृति व्याख्यानमाला में बोलते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का बचाव किया अौर कहा कि संघ के मूल्यों, अादर्शों अौर इसकी कार्यप्रणाली को तो महात्मा गांधी की स्वीकृति प्राप्त है ! संघ-परिवार के किसी भी व्यक्ति के लिए इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना इतना ही अासान होता है, क्योंकि उनका अपना कोई इतिहास है ही नहीं. िजनके इतिहास नहीं होते हैं, उनका वर्तमान से रिश्ता हमेशा जीभ भर का होता है. पूरा संघ-परिवार अाज इसी त्रासदी से गुजर रहा है. 

उप-राष्ट्रपति ने जो कहा वह कोई भोली टिप्पणी नहीं है, संघ-परिवार की सोची-समझी, लंबे समय से चलाई जा रही रणनीति है. अगर संघ-परिवार ईमानदार होता, अात्मविश्वास से भरा होता तो उसे करना तो इतना ही चाहिए था कि गांधी गलत थे, देश-समाज के लिए अभिशाप थे यह कह कर उन्हें खारिज कर देता अौर अपनी सही, सर्वमंगलकारी विचारधारा तथा कार्यधारा ले कर अागे चल पड़ता. लेकिन सारी परेशानी यहीं है कि वह जानता है कि वह जो कहता है अौर करता है वह गलत अौर अमंगलकारी है. इस गलत व अमंगलकारी चेहरे पर  गांधी का पर्दा उसे चाहिए क्योंकि भारतीय समाज अाज भी महात्मा गांधी को ही मानक मानता है, किसी सावरकर या गोलवलकर को नहीं. 

अाज विवाद फिर से उठा है, क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 7 जून 2018 के अपने विशेष कार्यक्रम में, अपने स्वंयसेवकों को संबोधित करने के लिए नागपुर बुलाया है. प्रणव मुखर्जी ने यह अामंत्रण स्वीकार भी कर लिया है अौर 7 जून की तारीख निकट अाती जा रही है. कांग्रेस की पेशानी पर बल पड़े हैं तो विपक्ष को यह समझ में नहीं अा रहा है कि वह इस मामले में कहां, किसके साथ खड़ा हो. जब सारे देश में संघ-परिवार के खिलाफ माहौल बना हुअा है, कांग्रेस ने अपना सीधा मोर्चा खोल रखा है, पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी सांप्रदायिकता को जड़ से उखाड़ फेंकने का अाह्वान करते सारे देश में घूम रहे हैं, विपक्ष साथ भी अा रहा है अौर एक अावाज में बोल भी रहा है, मतदाता जगह-जगह संघ-परिवार की खटिया खड़ी कर रहा है, ऐसे में प्रणव दा का संघ-परिवार के मातृ-स्थल पर मेहमान बन कर जाना कांग्रेस के लिए भी अौर सारे विपक्ष के लिए भी एक बड़ा झटका साबित हो सकता है. सवाल प्रणव मुखर्जी नाम के एक व्यक्ति का नहीं है बल्कि सांप्रदायिकता के दर्शन से संघर्ष के उस पूरे इतिहास का है, जिसके प्रणव मुखर्जी किसी हद तक प्रतीक हैं. वह इतिहास नागपुर जा कर कहीं शरणागत न हो जाए, इसकी अाशंका है, अौर असत्य को सत्य का जामा पहनाने में सिद्धहस्त संघ-परिवार के हाथ में एक नया हथियार न अा जाए, इसकी कुशंका है. अाखिरकार कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताअों ने कह ही दिया कि अाजन्म कांग्रेसी रहे तथा हमेशा संघ-परिवार की अालोचना करने वाले प्रणव दा को नागपुर नहीं जाना चाहिए. अब संघ-परिवार को डर यह सता रहा है कि ऐसे दवाब में अा कर कहीं प्रणव दा अपना कार्यक्रम न रद्द कर दें. इसलिए महात्मा गांधी को प्रणव दा की नागपुर यात्रा के समर्थन में ला खड़ा किया गया है. लेकिन इस मामले में इतिहास कहां खड़ा है, यह भी हम देखेंगे या नहीं ? 

महात्मा गांधी किसी भी प्रकार की संकीर्णता के खिलाफ लड़ने वाले सदी के सबसे बड़े योद्धा थे, अौर अाज भी सारी दुनिया में फैले अमनपसंद, उद्दात्त मानस के लोग उनसे प्रेरणा पाते हैं. यह सोचना व समझना असंभव है कि दुनिया जिसे पिछली शताब्दी में पैदा हुअा सबसे बड़ा इंसान मानती है वह सबसे कमजोर, दलित, अल्पसंख्यक, उपेक्षित, अौरत अौर अपमानित जमातों के खिलाफ किसी के साथ, किसी भी स्थिति में खड़ा होगा. लेकिन संघ-परिवार उसकी ऐसी छवि पेश कर अपने लिए वैधता पाना चाहता है. इसलिए जरूरी हो जाता है कि जब-जब असत्य का ऐसा घटाटोप रचा जाए तब-तब सत्य को लोगों के सामने उजागर किया जाए. इसलिए थोड़ी-सी बातें. 

महात्मा गांधी इतिहास के उन थोड़े से लोगों में एक हैं जिन्होंने अपने मन, वचन अौर कर्म में ऐसी एकरूपता साध रखी थी कि किसी भ्रम या अस्पष्टता की गुंजाइश बची नहीं रहे बशर्ते कि अाप ही कुछ मलिन मन से इतिहास के पन्ने न पलट रहे हों. सांप्रदायिक हिंसावादियों अौर हिंसक क्रांतिकारियों से उनका सामना लगातार होता रहा अौर उन व्यक्तियों का पूरा मान रखते हुए भी उन्होंने उनकी विचारधारा को बड़ी कड़ाई अौर सफाई से खंडित किया. 

अारएसएस का सीधा संदर्भ लेते हुए गांधी ने कुछ कहा है, तो वैसा पहला जिक्र 9 अगस्त1942 को मिलता है जब तत्कालीन दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष अासफ अली उन्हें संघ की शिकायत करने वाला एक पत्र भेजते हैं. 9 अगस्त, 1942 के ‘हरिजन’ में (पृष्ठ 261) गांधीजी लिखते हैं : “ शिकायती पत्र उर्दू में है. उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके 3,000 सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- ‘पहले अंग्रेजों को निकाल बाहर करो, उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे. अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे.’ बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसी ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है. नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते. इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है. आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा, और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा. धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं. जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे. अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता. वह स्वराज्य नहीं होगा.”  हम गौर करें कि यहां गांधीजी हिंदुत्व के पूरे दर्शन को िसरे से खारिज करते हैं, अौर यह भी बता देते हैं कि हर संगठित धर्म के बारे में उनकी भूमिका ऐसी ही है. संख्या या संगठन बल के अाधार पर कोई भी धर्म अाजाद हिंदुस्तान का भाग्यविधाता नहीं होगा बल्कि जनता द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधि ही भारत का विधान बनाएंगे व चलाएंगे, यह अवधारणा भारत के अाजाद होने, संविधान सभा बनने अौर संविधान बनाने से काफी पहले ही उन्होंने कलमबद्ध कर दी थी. 

लेकिन सांप्रदायिकता का उन्माद जगा कर सत्ता की राजनीति का खेल तब शुरू हुअा जब दो राष्ट्रों का सिद्धांत सामने रखा गया अौर उसे बड़े शातिर तरीके से सारे देश में फैलाया जाने लगा. इसके बाद से मारे जाने तक हम गांधी को सांप्रदायिक व राजनीतिक हिंसा के कुचक्र के बीच से अाजादी की लड़ाई  को निकाल ले जाने का दुर्धर्ष व करुण संघर्ष करते पाते हैं. सबसे पहले यह जहर सावरकर बोते हैं अौर फिर मुस्लिम लीग के सभी बड़े-छोटे नेतागण, मुहम्मद इकबाल अादि उसमें खाद-पानी पटाते हैं अौर जिन्ना उसकी फसल काटते हैं. कांग्रेस के कई नेताअों ने भी इस अाग में घी डालने की कायर कोशिश की है. लेकिन सभी यह जानते हैं कि महात्मा गांधी अपनी अंतिम सांस तक इससे असहमत हैं, रहेंगे अौर लड़ते भी रहेंगे. इसलिए इस पूरे दौर में प्रत्यक्ष व परोक्ष गांधी इन सबके िनशाने पर रहे हैं; अौर गांधी भी अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगा कर इन्हें ललकारते अौर इनसे दो-दो हाथ करते हमें मिलते हैं.

  फिर हमें 16 सितंबर 1947 का प्रसंग मिलता है जब अारएसएस के दिल्ली प्रांत प्रचारक वसंतराव अोक महात्मा गांधी को भंगी बस्ती की अपनी शाखा में बुला ले जाते हैं. यह पहला अौर अंतिम अवसर है कि गांधी संघ की किसी शाखा में जाते हैं. विरोधी हो या विपक्षी, गांधी किसी से भी संवाद बनाने का कोई मौका कभी छोड़ते नहीं हैं. वसंतराव ओक का अामंत्रण भी वे इसी भाव से स्वीकारते हैं. अपने स्वंयसेवकों से गांधीजी का परिचय कराते हुए मेजबान उन्हें  ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ कहते हैं. गांधीजी को तब ऐसे किसी परिचय की जरूरत ही नहीं थी लेकिन ऐसा परिचय दे कर संघ उन्हें अपनी सुविधा व रणनीति के एक निश्चित खांचे में डाल देना चाहता था. गांधीजी ऐसे क्षुद्र खेलों को पहचानते भी हैं अौर उनका जवाब देने से कभी चूकते नहीं हैं. महात्मा गांधी के अंतिम काल का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज लिखा है उनके अंतिम सचिव प्यारेलाल ने. अपनी इस अप्रतिम पुस्तक ‘ पूर्णाहुति’ ( मूल अंग्रेजी ग्रंथ का नाम ‘ लास्ट फेज’ है ) में इस प्रसंग को दर्ज करते हुए प्यारेलाल लिखते हैं कि गांधीजी ने अपने जवाबी संबोधन में कहा : ‘मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है, लेकिन मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी. हिंदू धर्म की विशिष्टता, जैसा मैंने उसे समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है. अगर हिंदू यह मानते हों कि भारत में अ-हिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दर्जे से संतोष करना होगा तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही है कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है, तो उसका परिणाम बुरा होगा।’ यहां गांधी दो बातें साफ करते हैं : वे संघ मार्का हिंदुत्व को हिंदू धर्म मानने को तैयार नहीं हैं, वे उससे खुद को जोड़े जाने से सर्वथा इंकार करते हैं अौर यह चेतावनी भी देते हैं कि संघ जिस दिशा में जा रहा है वह हिंदू धर्म विरोधी दिशा है अौर इस कोशिश का परिणाम बुरा होगा. अागे वे कहते हैं : ‘ कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली से संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आई हैं. गुरुजी ने मुझे बताया कि वे संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते लेकिन संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र है, किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाना नहीं. उन्होंने मुझे बताया कि संघ आक्रमण में विश्वास नहीं रखता है हालांकि अहिंसा में भी उसका विश्वास नहीं है.’ यहां गांधीजी फिर सावधानीपूर्वक गोलवलकरजी से हुई अपनी बातचीत का सार सार्वजनिक कर देते हैं ताकि वे या संघ उससे मुकर न सकें तथा संघ के उस वैचारिक क्षद्म को भी उजागर कर देते हैं जिसमें बात तो गहरे अनुशासन की की जाती है लेकिन अपने सदस्यों के अाचरण की जिम्मेवारी नहीं ली जाती. वे तभी-के-तभी यह भी जता देते हैं कि अगर अाप अहिंसा में विश्वास नहीं रखते हैं तो लड़ाई में हिंसा अौर अाक्रमण के अलावा विकल्प ही क्या है ? 

उस दिन गांधीजी से कुछ ऐसे सवाल पूछे गये जो संघ का वैचारिक अधिष्ठान बनाते अाए हैं.  इनसे संघ की दुविधा खुल कर सामने अा गई अौर गांधीजी को अपनी भूमिका स्पष्ट करने का अनायास ही मौका मिल गया. पूछा गया कि ‘गीता’ के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण कौरवों का नाश करने का जो उपदेश देते हैं, उसकी व्याख्या अाप कैसे करेंगे? गांधीजी ने कहा, ‘ हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है? दूसरे शब्दों में कहूं तो हमें दोषी को सजा देने का अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं.  एक पापी दूसरे पापी का न्याय करे या उसे फांसी पर लटकाने का अधिकारी हो जाए, यह कैसे माना जा सकता है ! अगर यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो उस अधिकार का इस्तेमाल कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही कर सकती है न ! आप ही न्यायाधीश और अाप ही जल्लाद, ऐसा होगा तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे. अाप उन्हें अपनी सेवा करने का अवसर दीजिए. कानून को अपने हाथ में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए.’ (संपूर्ण गांधी वांड्ंमय, खंड: 89) यहां गांधी ईसा की उस अपूर्व उक्ति पर अपनी मुहर लगाते हैं कि पहला पत्थर वह मारे जिसने कोई पाप न किया हो. फिर वे यह भी रेखांिकत करते हैं कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को पूरा मौका देना चाहिए कि वह सार्वजनिक विवादों का रास्ता खोजे. साफ मन से कोई भी खोजेगा तो उसे इन सारे कथनों में संघ की बुनियादी अवधारणाअों की काट मिलेगी. इसमें संघ को बदनाम करने या उसे कठघरे में खड़ा करने की बात नहीं है बल्कि अपनी गलतियों को सुधारने की बात है. गांधीजी की बातों में अालोचना का दंश नहीं, रचनात्मक सहायता का भाव ही भरा होता था.
   
प्यारेलालजी लिखते हैं कि भंगी बस्ती की शाखा से लौटने के बाद गांधीजी के साथ उनके साथियों की बात हो रही है तो एक साथी कहता है कि संघ में गजब का अनुशासन है. थोड़ी कड़ी अावाज में, छूटते ही गांधी कहते हैं, “ लेकिन हिटलर के नाजियों में और मुसोलिनी के फासिस्टों में भी ऐसा ही अनुशासन नहीं है क्या ?” गांधी साफ कर देना चाहते हैं कि अनुशासन अपने-अाप में कोई मूल्यवान गुण नहीं है अगर अनुशासन क्यों अौर कैसे स्थापित किया जा रहा है, इसकी विवेकसम्मत विवेचना न की जाए. हम न भूलें कि इसी हिंदुस्तान ने 1975-77 में अापातकाल का वह नारा भुगता था जो कड़े अनुशासन की बात करता था. जनता का विवेक अौर उसकी स्वतंत्रता का हनन करने वाले सबसे पहले इसी अनुशासन का गुणगान करते हैं. प्यारेलालजी उस दिन गांधीजी की बातों का भाव शब्दबद्ध करते हुए लिखते हैं कि ‘उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया.

अारएसएस का दूसरा सीधा प्रसंग हमें 21 सितंबर, 1947 को उनके प्रार्थना-प्रवचन में मिलता है जहां गांधीजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरु गोलवलकर से अपनी और डॉ. दिनशा मेहता की बातचीत का जिक्र करते हुए कहते हैं कि मैंने गुरुजी से कहा कि मैंने सुना है कि इस संस्था के हाथ भी खून से सने हुए हैं. गुरुजी ने मुझे विश्वास दिलाया कि यह बात झूठ है. उन्होंने कहा कि उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है.  उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहीं है. वह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती है. उसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है. गुरुजी ने मुझसे यह भी कहा कि मैं उनके विचारों को सार्वजनिक कर दूं. गुरुजी की बातें सार्वजनिक करने से समाज को गुरुजी अौर अारएसएस को जांचने का क ऐसा अाधार मिल गया जो अाज तक काम अाता है. अागे गांधीजी एक दूसरा अहिंसक हथियार भी काम में लेते हैं. वे यह कह कर संघ के कंधों पर एक बड़ी नैतिक जिम्मेवारी डाल देते हैं कि संघ के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैं, उन्हें अपने अाचरण व काम से गलत साबित करने की जिम्मेवारी संघ की है. मतलब यह कि वे उन अारोपों को खारिज नहीं करते हैं,संघ को उससे बरी नहीं करते हैं बल्कि संघ से ही कहते हैं कि वह अपने को निर्दोष साबित करे. 


अारएसएस अाज तक अपनी कथनी व करनी द्वारा अपने कंधों पर रखा वह नैतिक बोझ उतार नहीं पाया है. गांधी किसी बेताल की तरह अारएसएस के कंधों पर सवार हैं अौर इसलिए वह लौट-लौट कर किसी चालबाजी से गांधी को अपने कंधों से झटकना चाहता है. लेकिन सत्य सिर्फ सत्य से ही काटा जा सकता है, चालाकी या दगाबाजी से नहीं, यह वेद-सत्य वह भूल जाता है. क्या पता, प्रणव मुखर्जी ही उसे यह फिर से याद दिला दें !  (03.06.2018 )   

चुनाव अायोग को नींद कैसे अाती है


अभी-अभी अाए 14 चुनाव परिणामों ने ( 10 विधानसभा के अौर 4 लोकसभा के ) कितने चेहरों को नंगा कर दिया है अौर कितने पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी है ! भारतीय दलीय राजनीति की यह अांतरिक सुनामी है. 2018 में 2019 का ऐसा नक्शा बनेगा, इसकी उम्मीद न नरेंद्र मोदी मार्का भारतीय जनता पार्टी को थी, न अपनी जोड़-तोड़ का नक्शा बनाते विपक्ष को थी. अब चुनावी महाभारत में अामने-सामने खड़ी दोनों सेनाअों के महारथियों के पास खासा वक्त है कि वे अपनी लड़ाई अौर फौज का नया नक्शा बनाएं. लेकिन इन चुनावों का एक संकेत अौर भी है जिसे न समझ पाना या जिसकी उपेक्षा करना हमें बहुत भारी पड़ सकता है क्योंकि चुनावों में लड़ती तो पार्टियां हैं लेकिन कसौटी पर हमेशा चुनाव अायोग होता है.  

महाभारत के महारथी कर्ण के रथ का चक्का उनके अभिशाप की कीच में ऐसा फंसा था कि उनकी जान ले कर ही बीता. हमारे चुनावी महाभारत के ‘कर्ण’ हमारे चुनाव अायोग की विश्वसनीयता का चक्का, उसकी अपनी कमजोरियों की कीच में ऐसा फंसता जा रहा है कि कहीं उसे ले न डूबे ! हमारा चुनाव अायोग हमारे लोकतंत्र की मशीन का एक पुर्जा मात्र नहीं है, वह हमारे संसदीय लोकतंत्र का ऐसा प्रहरी है जिसकी स्वतंत्र हैसियत है. यह हम तब तक अच्छी तरह जान व समझ नहीं पाये थे जब तक हमें मुख्य चुनाव अायुक्त के रूप में टी.एन. शेषन नहीं मिले थे. भले उनकी खोपड़ी कुछ उल्टी थी लेकिन चुनाव अायोग को सीधा खड़ा करने का काम उन्होंने जिस तरह किया उस तरह पहले किसी ने नहीं किया था. शेषन साहब ने हमारे चुनाव अायोग को खड़ा होने लायक पांव भी दिया अौर उसकी रीढ़ भी सीधी की. लेकिन सवाल है कि उनके बाद क्या हुअा ? उनके बाद भी चुनाव अायोग तो है, मुख्य चुनाव अायुक्त भी हैं अौर दूसरे अायुक्तों की भीड़ भी बढ़ी है लेकिन लगता है कि अायोग का शेषन शेष नहीं बचा है. 

अभी-अभी एक खबर अा कर बीत गई अौर बहुत हद तक अचर्चित ही रह गई लेकिन जिसे पहले पृष्ठ पर, पहली सुर्खी मिलनी चाहिए थी. खबर यह थी कि हमारे चुनाव अायोग के सभी उपलब्ध पूर्व मुख्य चुनाव अायुक्तों की एक सम्मिलित बैठक हुई- मतलब की सारे ‘कर्ण’ मिल बैठे. ऐसा संभवत: पहली बार ही हुअा. 9 पूर्व मुख्य अायुक्तों ने, वर्तमान मुख्य चुनाव अायुक्त अोमप्रकाश रावल तथा उनके दोनों सहयोगियों के साथ चर्चा की. अायोग के सबसे वरिष्ठ सदस्य  सुनील अरोरा भी इसमें शामिल थे जो चाहेंगे तो 18 दिसंबर 2018 को भारत के मुख्य चुनाव अायुक्त बन जाएंगे जिनकी देखरेख में 2019 का अाम चुनाव होगा. 

इस विमर्श की जितनी खबरें अब तक बाहर अाईं हैं उनसे पता चलता है कि सारे ‘कर्णों’ ने जिन दो बातों की बावत अपनी चिंता व्यक्त की, वे थे वर्तमान चुनाव अायोग की अनुभवहीनता अौर इसकी निष्पक्षता पर गहरी शंका ! भारत के भावी मुख्य चुनाव अायुक्त सुनील अरोरा इसी वर्ष नई पोस्टिंग पर चुनाव अायोग में अाए अाइएएस अधिकारी हैं. वे जब 2019 का अाम चुनाव करवाएंगे तब उनके पास मात्र 10 विधानसभाअों के चुनाव करवाने का अनुभव होगा. उस रोज के विमर्श में मौजूद सारे मुख्यायुक्तों ने एक स्वर से कहा कि इतना-सा अनुभव नाकाफी है राष्ट्रीय चुनाव संपन्न करवाने के लिये. दूसरी चिंता चुनाव अायोग की निष्पक्षता पर पैदा हुई राष्ट्रीय शंका के बारे में थी.  इन दोनों चिंताअों के बारे में देश क्या कहता व करता है, 2019 के चुनाव की कुंडली उसी से लिखी जाएगी. यह खतरे की घंटी है. 

चुनाव की ताकत यह है कि उसके गर्भ से हमारे संसदीय लोकतंत्र के खिलाड़ी पैदा होते है. चुनाव अायोग इसमें मिडवाइफ या नर्स या दाई का काम करता है.  मिडवाइफ या नर्स या दाई कच्ची हो तो जच्चा अौर बच्चा दोनों की जान खतरे में पड़ जाती है. यह काम नीमहकीमों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. तब सवाल उठता है कि हमारे चुनाव अायुक्तों को किस अाधार पर चुना जाता है ? नौकरशाही के बड़े पुर्जे इस मशीन में लगा देने से बात नहीं बनती है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जिनकी अास्था हो अौर जिनमें अावश्यक तटस्थता भी हो वैसे परखे लोगों की जरूरत अायोग में होती है. इसकी कोई सुनिश्चित व्यवस्था बननी चाहिए. 

यह तो व्यक्तियों की बात हुई. दूसरा महत्वपूर्ण पहलू व्यवस्था का है. चुनाव अायोग के पास संवैधानिक ताकत चाहे जितनी भी हो, उसकी असली ताकत उसकी विश्वसनीयता है. हमारे संविधान निर्माताअों ने अनपढ़, गरीब, अशिक्षित अौर अौरत-मर्द का फर्क किए बिना सबके हाथ में एक, अौर केवल एक वोट दे कर ईश्वरीय विधान के बराबर का काम किया. चुनाव अायोग की जिम्मेवारी है कि वह इस विधान की अात्मा को हर हाल में बचाए. जाति-धर्म-पैसा-डंडा सबका जोर लगा कर इसकी अात्मा का हनन होता रहा है अौर कानून के रास्ते इसका मुकाबला करने की कोशिशें भी चलती रही हैं. पहले से स्थिति में सुधार भी हुअा है. लेकिन हमने पाया कि कागज का वोट लूटना भी अासान था, उसकी गिनती में गड़बड़ी भी अासान थी, उसमें होने वाली कागज की भयंकर खपत पर्यावरण का संकट गहरा भी करती थी. इन सारे सवालों का जवाब बन कर इवीएम मशीनें सामने अाईं. इन मशीनों को खरीदने में बहुत सारा पैसा लगा, शेषन साहब ने मतदाता पहचान पत्र बनवाने में बेहिसाब पैसा फूंका लेकिन चुनावी प्रक्रिया में भरोसा बनाने अौर बढ़ाने का सवाल इतना बुनियादी था कि हमने यह सारा बोझा उठाया. मशीनें तटस्थ होती हैं, यह भोली मान्यता ‘शाइनिंग इंडिया’ की विफलता के बाद, सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी के लालकृष्ण अाडवानी ने तोड़ी. उसके बाद से लगातार ऐसा होता रहा कि इवीएम मशीनों की तटस्थता शक के दायरे में अाती गई है. मशीन तटस्थ हो सकती है लेकिन उसके पीछे बैठा अादमी नहीं, यही शंका थी जिसे चुनाव अायोग को निर्मूल करना था. वह इसमें विफल होता रहा. उसने खुद ही ऐसा माहौल बना दिया मानो मशीनों की निष्पक्षता पर सवाल उठाना अायोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाना है. इसने मामला अौर बिगाड़ दिया. 

कई जगहों पर, कई चुनाव परिणाम ऐसे अाये जिनने भी शक गहरा कर दिया. कोई भी बटन दबाएं हम, वोट किसी एक खास पार्टी के पक्ष में दर्ज होता है, ऐसे अनेक उदाहरण मिले. यह तकनीकी गड़बड़ी से ही होता हो तो भी यह भरोसे को जड़ से हिला देता है. अभी कैराना-पालघर अादि के उप-चुनावों में दोनों ही मशीनों का जैसा कबाड़ा हुअा, उसका जवाब अगर चुनाव अायोग यह देता है कि कितनी फीसदी मशीनें गड़बड़ हुईं तो यह बचकाना जवाब है. जिन चुनावों का इतना राजनीतिक महत्व था कि प्रधानमंत्री से लेकर कई भावी प्रधानमंत्री उसमें पिले पड़े थे, उसकी मशीनों में ऐसी गड़बड़ी हो तो श्रीमान, इसे अापकी बर्खास्तगी का अाधार बनाया जा सकता है. 

चुनाव अायोग यह भूल गया कि राजनीतिक दल भले अपना फायदा या नुकसान देख कर इवीएम का समर्थन या विरोध करते हैं, अाम मतदाता तो अापकी प्रक्रिया अौर अापके परिणाम में भरोसा खोजता है. इवीएम मशीनें वह भरोसा खो रही हैं. उसमें अब अापने एक वह वीवीपीएटी मशीन भी जोड़ दी है जो कागज की रसीद भी निकालती है. मतलब अापने यह तो कबूल कर ही लिया कि इवीएम मशीनें गड़बड़ी या विफलता से परे नहीं हैं. इसे विश्वास की एक अौर बैसाखी देना जरूरी है. तो हुअा ऐसा कि इन मशीनों के कारण चुनाव खर्च तो बेहिसाब बढ़ ही गया है, कागज की बर्बादी रुकने का संतोष भी जाता रहा. चुनाव कितने चरणों में कराए जा रहे हैं, अब कोई इसकी चर्चा नहीं करता है लेकिन उससे खर्चा बहुत बढ़ता है अौर विश्वसनीयता नहीं बढ़ती है, इसकी चर्चा तो होनी ही चाहिए. दुनिया के अधिकांश मुल्क ऐसी मशीनों से चुनाव नहीं कराते, तो क्यों, इसका अध्ययन भी देश के सामने रखा जाना चाहिए. यह सब इसलिए कि चुनाव अायोग के पास जो एकमात्र पूंजी है - मतदाता का विश्वास - वह दांव पर लगा है; अौर यह भरोसा टूटा तो चुनाव अायोग किसी भुतहा महल में बदल जाएगा. 


मैं उनमें नहीं हूं कि जो कहते हैं कि हमें पुराने मतपत्रों वाले चुनाव अौर गिनाव पर लौट जाना चाहिए. लेकिन मैं उनमें हूं जो मानते हैं कि इवीएम की इस प्रणाली की बार-बार जांच-परख होनी चाहिए; मतदाताअों की शंकाअों के समाधान का हर संभव रास्ता पारदर्शी तरीके से अपनाया जाना चाहिए. अौर एक सच, जो चुनाव अायोग को हमेशा याद भी रखना चाहिए अौर दोहराते भी रहना चाहिए वह यह कि उसकी विश्वसनीयता इवीएम मशीनों से नहीं बनती है. वह तो बनती है चुनाव में उतरने वाले हर दल व हर अादमी के प्रति उसकी एक सी तटस्थता से ! इसलिए चुनाव अायोग बने तो कबीर बने, न कि ए.के. जोति; अौर सारे देश से कबीर की तरह कहे भी अौर देश देख भी : ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर ! ( 02. 06.2018) 

घर खाली करो



सभी कह रहे हैं कि देश की हवा बदलती-सी लगती है। जरा देखें हम कि कौन-कौन सी हवा, कहां-कहां बदल रही है। 
उत्तरप्रदेश में घर खाली करने की हवा बहती लग रही है।  जिनको लगता था कि जब तक ऊपर वाला ही न बुला ले तब तक वे अपने घर से नहीं जाएंगे, न्यायालय ने उन सबको घर खाली करने का निर्देश दिया है। अौर अाप देखिए कि घर भी वह कि जो कभी घर था ही नहीं, संविधान से मिला डेरा था; मुंबइया जिसे खोली कहता है! खोली ११ महीनों के लिए मिलती है, यह घर बहुत हुअा तो पांच सालों के लिये मिलता है। लेकिन भाईलोगों ने कभी नहीं माना कि संविधान कभी अपने पर भी लागू करने के लिए होता है। तो इन सबने दिल्ली से ले कर इंफाल तक अौर तिरुअनंतपुरम् से ले कर कश्मीर तक एक ही हवा बहाई कि न कुर्सी छोड़ेंगे, न घर; न भत्ता छोड़ेंगे, न पेंशन; अौर जब चाहेंगे खुद ही अपनी वेतनवृद्धि कर लेंगे। अाखिर तो संसद अौर विधानसभा सार्वभौम है, कौन हमें रोक लेगा !! लेकिन संविधान ने ऐसी अपरिवर्तनीय स्थिति किसी को नहीं दी है। वह तो हमेशा नये को अौर नयों को अाजमाने का दस्तावेज है। 

कहां लिखा है संविधान में कि एक बार सांसद या विधायक बनने की तिकड़म सफल हो गई तो बस पेंशन-भत्ता-जमीन अौर हवा का टिकट अौर लेटरहेड पर ‘पूर्व सांसद या विधायक’ लिखने की अाजादी मिल जाती है? कहां कहता है संविधान की जनता के पैसों से सांसद-विधायक निधि बनाअो अौर फिर सड़क बनाअो कि नाला कि मेनहोल का ढक्कन, सब पर अपने नाम का एक भद्दा-सा बोर्ड टांग दो कि फलां ने फलां निधि से यह बनवाया है। बिड़ला मंदिर देखा है न ! उसकी हर दीवार या ईंट पर लिखा मिलता है कि फलां सेठजी ने अपनी फलां धर्मपत्नी की याद में इतने रुपयों का दान दे कर इसे बनवाया है। भगवान के मंदिर को ऐसा बाजार बना दिया हमने अौर लोकतंत्र के मंदिर को सांसदों-विधायकों के मॉल में बदल दिया । यहां सबकी दूकानें हैं अौर जिससे जहां भी संभव हुअा है, उसने वहां अपना नाम लिखवा लिया। कोई पूछे की बंधु, न पैसा अापका, न कुर्सी अापकी, न यह जगह अापकी तो फिर यहां नाम अापका कैसे ? किसी ने कभी यह सोचा क्या कि अपने लेटरहेड पर जब अाप ‘पूर्व’ लिखते  हैं तब अाप संसार को क्या बतला रहे होते हैं ? ‘पूर्व या भूतपूर्व’ लिखने का मतलब यह है कि अाप दुनिया को बतला रहे हैं कि मैं हारा हुअा, पराजित, रिजेक्टेड माल हूं। इसमें क्या गौरव ? लेकिन पराजित सांसदों के लेटरहेड की तो छोड़िए, घर की नामपट्टी पर भी लिखा देखा है मैंने - भूतपूर्व सांसद ! राजनीति में इन पूर्वों की दलाली चलती है। न्यायालय की नजर इनकी तरफ गई अौर उसने सब पूर्वों को छोड़ कर, पूर्व मुख्यमंत्रियों से बात शुरू की : घर खाली करो! िजस अधिकार के कारण घर मिला था वह अधिकार ही जब जनता ने छीन लिया तो अाप घर कैसे रख सकते हैं ? सवाल छोटा-सा पूछा अौर लखनऊ में कितनी ही जानें सांसत में पड़ी हैं। यादव खानदान, मायावती, भारतीय जनता पार्टी के कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह सबके धरों पर ग्रहण लग गये हैं ! अौर अाप राजनीतिक नैतिकता का स्तर देखिए कि मायावती ने अपने घर को रातोरात कांशीराम स्मारक में बदल दिया तो पिता मुलायम सिंह अौर पुत्र अखिलेश सिंह ने अपनी हैसियत अौर अपनी सुरक्षा के अनुकूल व्यवस्था करने के लिए अदालत से मात्र दो साल की मोहलत मांगी है। कोई पूछे कि जब से अाप पद से हटे तब से अाज तक का समय अापको दी गई मोहलत ही तो थी, तब क्या जवाब होगा इनका? न्यायालय को कहना चाहिए कि अाप अगर अब भी उसी घर में रहना चाहते हैं तो राज्य सरकार से अनुमति प्राप्त कर लें अौर बाजार भाव से उसका किराया, सभी किस्म के कर अादि भरें अौर किरायेदार की तरह रहें। मायावतीजी को किसने बताया कि सार्वजनिक भवनों को अाप जब चाहें तब निजी स्मारकों में बदल सकती हैं ? स्मारक कांशीरामजी का हो कि महात्मा गांधी का, सबकी एक कानूनसम्मत व्यवस्था बनी हुई है जिसका पालन जरूरी है। अब तक उसका पालन नहीं हो रहा था तो इसका मतलब यह नहीं कि अागे भी न हो। अब मायावतीजी चाहें तो वे भी राज्य सरकार से अनुमति ले कर एक वैध किरायेदार की तरह उस घर में रहें अौर जब तक यह घर उनके पास किराये से है, वे उस पर कांशीराम स्मृति संस्थान का बोर्ड भी लगाये रख सकती हैं। 


लेकिन एक सवाल ऐसा भी है कि जिसका जवाब अदालत को भी देना बाकी है। यह गाज केवल उत्तरप्रदेश के ही पूर्वों पर क्यों गिरी है ? सारे देश का एक ही अालम है। भले अदालत के सामने यह याचिका उत्तरप्रदेश के मामले से अाई हो, सर्वोच्च न्यायालय किसी राज्यविशेष तक  सीमित क्यों रहे ? उसे सारे देश के लिए एक ही संहिता घोषित करनी चाहिए। ऐसी अभागी स्थिति बनी है देश के लोकतंत्र की कि यहां राजभवन से ले कर सड़क की सफाई तक में अदालत को दखलंदाजी करनी पड़ रही है। हमारे सारे ही राजनीतिक दल लोकतंत्र के संदर्भ में सिरे से अप्रासांगिक हो चुके हैं। उनका लोकतंत्र येनकेणप्रकारेण सत्ता पाने अौर फिर उस सत्ता पर अपना काबू बनाये रखने की तिकड़म करने से अधिक अौर अलग कुछ नहीं रह गया है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका लोकतंत्र के संरक्षक की बन जाती है अौर यह भूमिका उसे संविधान ने ही सौंपी है। इसलिए उत्तरप्रदेश का ‘घर खाली करो’ अभियान सारे देश पर लागू होना चाहिए अौर कहीं, किसी भूतपूर्व को घर या कार्यालय या भवन या स्मृति संस्थान पर कब्जा करने का अधिकार नहीं है, यह बात हमेशा-हमेशा के लिए स्थापित की जानी चाहिए अौर उसे लागू भी कराया जाना चाहिए। ( 31.05.2018) 

नौ दिन चले अढ़ाई कोस



मुझे अाज लालकृष्ण अाडवाणी अौर मुरलीमनोहर जोशी एक साथ याद अा रहे हैं. मैंने इन दोनों की राजनीति को कभी, किसी सकारात्मक कारण से याद नहीं किया है लेकिन दोनों ने एक-एक बार राजनीति से बाहर जा कर ऐसा कमाल किया है कि कोई भी वाह कह उठे. 

पहली बात १९७७ की है. इंदिरा गांधी का अापातकाल खत्म हुअा था अौर दिल्ली में जनता राज अाया था. सभी, सब तरफ उन सबकी बातें करते थे जो उस अंधेरे दौर में, अंधेरे की पक्षधरता करते रहे थे. ऐसी ही काली भूमिका भारतीय प्रेस की भी थी जो अब ‘मीडिया’ कहलाता है. लालकृष्ण अाडवाणी ने, जो जनता पार्टी की सरकार में प्रेस मंत्री बने थे, प्रेस की तब की दयनीय, कायर भूमिका के बारे में एक गजब की बात कही-“ उनसे कहा तो गया था कि झुको लेकिन वे घुटनों के बल रेंगने लगे !” उस दौर में प्रेस की भूमिका के बारे में इससे अच्छा अौर मौजूं कुछ कहा ही नहीं जा सकता था. अाज के अाईने में फिर से मीडिया वैसा ही कायर अौर भयभीत दिखाई दे रहा है. लेकिन बात मुझे मुरलीमनोहर जोशी की करनी है.

नरेंद्र मोदी की सरकार के ४ साल पूरे होने पर, जैसी की रवायत बनी हुई है, सब तरफ ४ सालों का अाकलन करवाया जा रहा है. अाकलन करने अौर करवाने का जो फर्क है, वह यहां भी देखा जा सकता है. तो कभी इलाहाबाद में प्रोफेसर रह चुके भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठतम नेता ( अौर संभवत: इस सरकार के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य ) मुरलीमनोहर जोशी जी से पूछा किसी ने कि अगर अाप परीक्षक हों तो इस सरकार को कितने नंबर देंगे ? जोशीजी ने जवाब में सीधा छक्का ही जड़ दिया ! वे बोले : अरे, परीक्षा की कॉपी में कुछ लिखा हो तब तो नंबर देने की बात अाती है ! कोरी कॉपी हो तो कोई कितने नंबर दे अौर कितने काटे ? सच, नरेंद्र मोदी सरकार के ४ सालों की इससे बेहतर समीक्षा हो ही नहीं सकती है. मैं मानता हूं कि इन दो अाकलनों के लिए, इन दोनों नेताअों को पद्मश्री से भारत-रत्न के बीच जो भी उपलब्ध हो, वह दिया जाना चाहिए. 

४ सालों में जिस सरकार ने परीक्षा की अपनी कॉपी का हर पन्ना भर रखा हो अौर फिर भी वह कोरा ही दिखाई दे, तो अाप उस सरकार की अनदेखी नहीं कर सकते. मुझे लगता है कि जैसे यह सच है कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के लिए गुजरात से दिल्ली की तरफ जैसी दौड़ लगाई वैसी दौड़ अाज तक दूसरे किसी ने कभी नहीं लगाई, उसी तरह यह भी सच है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से अाज तक नरेंद्र मोदी कभी चैन से बैठे नहीं. उनकी दौड़ लगातार जारी है. बस, दिक्कत यह है कि वे दौड़ नहीं रहे हैं, कदमताल कर रहे हैं. कदमताल में अाप अपनी ही जगह पर खड़े रह कर इस तरह पांव चलाते हैं कि दूर से वह दौड़ने का भ्रम पैदा करता है. इसलिए भारतीय जनता पार्टी के कैडर को लगता है कि उनका प्रधानमंत्री दौड़ रहा है. कदमताल करने से जो शोर बनता है अौर जो धूल उड़ती है उसे विकास मान कर, मोदीजी के सारे मंत्रीगण देश को यह समझाने व भरमाने में लगे रहते हैं कि देखो, विकास अा गया है; कि देखो, विकास हो रहा है; कि पहचानो विकास बड़ा हो रहा है! लेकिन कदमताल का सच यह है कि इसमें अापको चलना नहीं, अपनी जगह पर खड़े बस पांव उठाना-गिराना होता है. अाप चले नहीं कि कदमताल टूटा. यही हो रहा है. देश पिछले ४ सालों से एक ही जगह पर, रोज-रोज का यह अनवरत कदमताल देख रहा है. 

मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले ४ सालों में दो ऐसे कीर्तिमान बनाए हैं कि जिसका मुकाबला कोई कर ही नहीं सकता है. पहले दिन से अाज तक इतनी सारी योजनाएं-परियोजनाएं घोषित हुई हैं, इतने सारे ‘ऐप’ बने अौर लांच हुए हैं कि जिनकी गिनती करने के लिए एक नये मंत्रालय की जरूरत होगी. उनका दूसरा कीर्तिमान लगातार विदेश जाने या विदेशी मेहमानों का अपने यहां स्वागत करने का है. पहली को कहा गया गवर्नेंस या विकास; दूसरी को कहा गया विदेश-नीति या भारत को विश्वगुरु बनाना. अगर धुअांधार भाषणों से गरीबों का पेट भर सकता तो सच, देश में कोई भूखा नहीं रह जाता; अगर योजनाअों-परियोजनाअों, ‘ऐप’ अादि से गरीबों की किस्मत बदली जा सकती तो इंदिरा गांधी का गरीबी हटाअो का नारा सिद्ध हो गया होता. अगर नोटबंदी से कालाबाजारी अौर जीएसटी से व्यापार में चोरी रोकी जा सकती तो देश साफ व स्वस्थ हो चुका होता. विदेश जाने अौर विदेशियों को यहां बुलाने, गले लगने-लगाने, झूला झूलने या झुलाने से देश की विदेश-नीति बन सकती अौर मजबूत हो सकती तो दुनिया में हमारी तूती बोलती होती. महात्मा गांधी की दिखावटी प्रशंसा करने अौर नेहरू-परिवार को चीख-चीख कर कोसने से देश की किसी बीमारी का हल निकल सकता तो हम कहते कि चलो, इससे तो निजात मिली. लेकिन सच तो  यह है कि इस तरह न देश बनते हैं अौर न चलते हैं. इसलिए न देश बन रहा है अौर न चल रहा है. 


देश में अापसी टकराहट अौर कर्कशता बढ़ती जा रही है; लोकतंत्र को संभालने वाली संस्थाएं खुद को ही संभाल नहीं पा रही हैं; प्रधानमंत्री को छोड़ कर, मंत्रिमंडल का स्वास्थ्य चिंताजनक हद तक खराब है; मंत्रिमंडल में योग्यता, प्रतिभा अौर कुशलता की सिरे से कमी है जिसकी पूर्ति राजनीतिक चापलूसी से की जा रही है. विदेश नीति जैसी कोई चीज बनी भी नहीं है, बची भी नहीं है. रूस, चीन अौर अमरीका का त्रिभुज हमें किसी संतुलनकारी शक्ति की तरह नहीं, प्यादे की तरह देखता व बरतता है. ४ साल का यह हाल है, तो प्रोफेसर जोशी कहें भी तो क्या कहें ? ( 26.05.2018) 

न्यायपालिका पर उधार हैं तीन बड़े काम



मुझे इस बात की रत्ती भर भी खुशी नहीं है कि कर्नाटक में कांग्रेस समर्थित कुमारस्वामी की सरकार बन गई; मुझे इस बात का रत्ती भर अफसोस नहीं है कि भाजपा की तिकड़म विफल हुई अौर कर्नाटक में येदियुरप्पा दो दिन भी नहीं टिक सके. मुझे इस बात की बेहद खुशी है कि कर्नाटक की इस गलीज से हमारा लोकतंत्र कुछ साफ व शक्तिशाली बन कर निकला है.  मुझे इस बात का बेहद संतोष है कि हमारी न्यायपालिका ने एक बार फिर यह साबित किया है कि अगर वह संविधान की किताब अौर उसकी अात्मा के प्रति वैसी ही ईमानदार रही, जिसकी कल्पना संविधान निर्माताअों ने की है, तो भारतीय लोकतंत्र को घुटने टेकने पर मजबूर करना किसी के लिए भी टेढ़ी खीर है. मैं, भारत के अाम मतदाता का सच्चा प्रतिनिधि, जब इतने सारे मनोभावों से गुजर रहा हूं जो लगता है कि परस्पर विरोधी हैं, तो अाम लोग कितने हैरान व परेशान होंगे ! 
  हमें यह समझना चाहिए कि अाज दिल्ली में अौर देश में जो कुछ चल रहा है, वह भारतीय दलीय राजनीति का 70 सालों में बना असली चेहरा है. यह चेहरा पहले से ही इतना ही दागदार था. भारतीय जनता पार्टी की नरेंद्र मोदी सरकार का योगदान इतना ही है कि उसने सत्ता अौर लोलुपता के बीच जो एक पर्दा हुअा करता था, उसे उतार फेंका है. उसने इस नंग को ही राजनीति करार दिया है. वह कहती है कि जो कुछ है वह राज-नीति है जिसमें राज ही एकमात्र सच है, नीति गंदे कपड़ों की वह गठरी है जिसे जल्दी-से-जल्दी कहीं गहरे दफना देने की जरूरत है. कर्नाटक में वह यही करने में लगी थी लेकिन विफल हुई. फिर सफल कौन हुअा ? जिनकी सरकार बन रही है क्या वे सफल हुए ? अगर सरकार बना ले जाना सफलता है तब तो नरेंद्र मोदी मार्का राजनीति को सबसे सफल मानना होगा, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी को उन्होंने जैसी चुनावी सफलता दिलाई है, वैसी सफलता का तो सपना भी उस पार्टी ने नहीं देखा होगा कभी. सरकार बनाना लोकतंत्र का एक जरूरी पक्ष है लेकिन कैसे बनाना, क्यों बनाना अौर कैसे चलाना भी उतना ही प्रमुख पक्ष है. इस कसौटी पर देखें तो कर्नाटक में सभी राजनैतिक दल मिल कर लोकतंत्र को हराने में लगे थे जिसे वक्ती तौर पर न्यायपालिका ने रोक दिया है. 

मुझे इंतजार इसका नहीं है कि कुमारस्वामी किसे ले कर सरकार बनाते हैं बल्कि मुझे इंतजार अदालत की उस सुनवाई का जिसे वह 15 दिनों बाद करने वाली है जिसमें इस पूरे प्रकरण की गहरी छानबीन की बात उसने कही है. मुझे इंतजार इस बात का है कि कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई वाला को राष्ट्रपति किस दिन हटाते हैं. हर राज्यपाल राज्य के संवैधानिक शील की पहरेदारी करने वाला, राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त पहरेदार है. वजूभाई वाला ने केंद्र के प्रति अपनी अंधी वफादारी का चाहे जितना सबूत दिया हो, संवैधानिक शील को अौर उस बहाने राष्ट्रपति की गरिमा को उन्होंने तार-तार कर दिया है. उनकी यह अशोभनीय विफलता यदि उनकी बर्खास्तगी तक नहीं पहुंचती है तो यह शर्म राष्ट्रपति के खाते में भी लिखी जाएगी. 
कर्नाटक से एक बात शुरू हुई है तो न्यायपालिका को उसे उसके तार्किक परिणाम तक पहुंचाना चाहिए. राष्ट्रपति हो कि राज्यपाल, इनके निर्णय हमेशा ही संवैधानिक दायरे में होने ही नहीं चाहिए बल्कि सूरदास को भी दिखाई दे जाएं, इस तरह होने चाहिए. दिल्ली की सरकारें राज्यपाल या राष्ट्रपति के रूप में जिस तरह अपने एजेंट नियुक्त करने की कोशिश करती हैं, वह संविधान को विफल करने की चालाकी है. किसी भी जीवंत व स्वस्थ संविधान की एक पहचान यह है कि वह जरूरत अाने पर बोलता है अन्यथा चुप रहता जाता है. हमारे लोकतंत्र ने ऐसा ही संविधान न्यायपालिका को सौंपा है. इस तरह न्यायपालिका की कसौटी यह बन गई है कि वह संविधान की चुप्पी को पढ़ने का विवेक रखती है या नहीं. विवेक का मतलब है वह तीसरी अांख जिससे संविधान की चुप्पी को पढ़ा व समझा जा सके. सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर ने जाते-जाते इसी चुप्पी को पढ़ने की कला को जजों का संवैधानिक अवदान कहा था.  संविधान को जहां विवेक का साथ मिलता है, वह अत्यंय मारक दस्तावेज बन जाता है. 


इसलिए 70 सालों से तीन बड़े काम न्यायपालिका पर उधार हैं : उसे राष्ट्रपति अौर  राज्यपाल के चयन के तथा राज्यसभा में सरकारी मनोनयन के संवैधानिक अाधार सुनिश्चित करने चाहिए. अभी हमारा लोकतंत्र जहां पहुंचा है उसमें राष्ट्रपति, राज्यपाल व राज्यसभा की व्यवस्था खत्म करना जल्दीबाजी होगी या वैसा ही अर्थहीन कदम होगा जैसा योजना अायोग को भंग कर नीति अायोग बनाना ! ये तीनों ही संवैधानिक व्यवस्थाएं हैं तो उनका अाधार भी संवैधानिक ही होना चाहिए अौर इसलिए यह काम न्यायपालिका के दायरे में उधार पड़ा है. अाज तो इन तीनों जगहों पर चयन ऐसे होते हैं मानो कोई अपने हैट में से खरगोश निकाल कर दिखा दे. राज्यसभा किसी को उपकृत करने की जगह नहीं है. यह लोकसभा पर एक किस्म का नैतिक व बौद्धिक अंकुश रखने की व्यवस्था है.  हमें किसी सचिन या किसी रेखा की वहां जरूरत है ही नहीं लेकिन हमें वहां विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे जावेद अख्तरों की जरूरत है. न्यायपालिका जरूरी समझे तो अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर की अध्यक्षता में एक संविधान पीठ बना दे जिसे अगले 6 माह में इसकी रूपरेखा बना कर पेश करनी हो. क्यों न पक्ष-विपक्ष-न्यायालय-सार्वजनिक जीवन के चुने प्रतिनिधियों की एक स्वतंत्र समिति बने जिसे अधिकार हो कि वह इन जगहों के लिए उपयुक्त नामों की सूची तैयार करती रहे. इस सूची में से सरकारें अपना चयन करें अौर इन पदों को भरे ? इन पदों की अय्याशी कम की जाए, इनका संवैधानिक दायित्व तय किया जाए अौर इनकी अविध एक बार से अधिक की न हो. ये संविधान का पालन करने के लिए हों, न कि केंद्र सरकार के नापाक मंसूबों को अंजाम देने के लिए.  70 सालों बाद किसी भी महल की गहरी सफाई जरूरी होती है. हमारा तो लोकतंत्र का मंदिर है. इसे हम गंदा कैसे छोड़ सकते हैं ! ( 21.05.2018) 

कर्नाटक : कोई नहीं जीता



तो कर्नाटक मेें वह हो रहा है जो किसी ने नहीं चाहा था - न कर्नाटक के मतदाता ने, न भाजपा अौर कांग्रेस ने. वह भी नहीं हो पाया जो मोदी-शाह की अजेय जोड़ी ने दिल्ली में बैठ कर चाहा था; न वही हो पाया जिसकी कोशिश में राज्यपाल वजूभाई वाला ने अपना पूरा केरियर दांव पर लगा दिया; अौर न केजी बोपय्या ही एक दिन के लिए विधानसभा अध्यक्ष( प्रो-टर्म !) बन कर जो करने की सोच रहे थे वही कर सके. सब देखते रह गये अौर अब सब देखते रहेंगे…

अगर किसी ने कुछ चाहा अौर वही हुअा तो वह सर्वोच्च न्यायालय है. ऐसा लगता है कि अाधी रात में न्यायालय को न्याय अधिक साफ दिखाई देता है. 16-17 मई की अाधी रात को, जब सारा देश नींद में सो रहा था, भारतीय न्यायालय अपने कर्तव्यों के प्रति नियति से किया वादा पूरा करने, सजग पहरेदार की तरह जागा हुअा था. उसने किसी पर कोई टिप्पणी किए बिना सबको कठघरे में खड़ा कर दिया - राज्यपाल द्वारा दी गई पंद्रह दिन की मोहलत को काट कर, 24 घंटे की बना दी लेकिन राज्यपाल को शपथ दिलाने अौर येदियुरप्पा को शपथ लेने से नहीं रोका; उसने केजी बोपय्या को प्रो-टर्म अध्यक्ष बनाने पर अापत्ति नहीं की लेकिन उनके पर इस तरह कतर दिए कि वे न उड़ सकते थे, न उड़ा सकते थे. उसने कांग्रेस की कोई दलील कबूल नहीं की लेकिन न्याय की अपनी टेक कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ने दी. अौर यह भी कि उसने यह सब इतने दबंग तरीके से किया कि केंद्र सरकार या सर्वोच्च न्यायाधीश को जुबान खोलने का मौका भी नहीं मिला. अौर अब अाप देखिए कि देश में किसी को इसकी नहीं पड़ी है कि नया मुख्यमंत्री कौन बनता है. अाज कर्नाटक में सत्ता संदर्भहीन हो गई है. 

  सारे देश की नजर जिस चुनाव पर लगी थी, अौर देश के सारे राजनीतिक दलों ने जिसे जीतने में अपनी पूरी ताकत झोंक रखी थी, उस चुनाव के नतीजों के प्रति ऐसी उदासीनता ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को िजस एक राजनीतिक कर्म का विशेषज्ञ माना जाता है उस चुनावी नौटंकी में, उनकी सारी छटाएं देख लेने के बाद भी लोग यह नहीं पूछ रहे हैं कि कर्नाटक में कौन जीता; पूछ यह रहे हैं अौर हतप्रभ से देख भी यही रहे हैं कि कौन, कितने गर्त में गिरता है अौर लोकतंत्र को गिराता है. कर्नाटक में पतन की प्रतियोगिता है. पतन का चरित्र ही यह है कि एक गिर कर जहां पहुंचता है, दूसरा उसकी अगली सीढ़ी तैयार करता है. मोदी-शाह की जोड़ी ने इस पतन के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किए हैं; अब दूसरे भी इसमें योगदान दे रहे हैं.  

वे सारी संवैधानिक संस्थाएं व व्यवस्थाएं एक-एक कर जमींदोज की जा रही हैं जिनकी रचना इसलिए की गई थी कि जब कभी, जब कहीं राजनीतिक चालबाजियां अौर सत्ता की अजगरी भूख लोकतंत्र का भक्षण करने लगे तो उसे रोकने व थामने वाली ताकतें संविधान के भीतर से निकल कर अाप ही सामने अा जाएं. कर्नाटक में ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व का पतन सारी संवैधानिक व्यवस्थाअों को दीमक की तरह चाट गया है. बाबासाहब अांबेडकर ने ऐसे ही नहीं कहा था कि अच्छा-से-अच्छा संविधान भी बुरे लोगों के हाथ में पड़ कर एकदम बुरा साबित होता है. हमारे सारे राजनीतिक दल मिल कर बाबा साहब को सही साबित करने में जैसी निष्ठा से लगे हैं, वह हैरान करने वाला है ! 

कर्नाटक में जो हुअा वह लोकतंत्र का खेल था. 114 सीटों तक पहुंचती भारतीय जनता पार्टी 104 पर ऐसी जा टिकी जैसे अंगद के पांव; अौर कांग्रेस व देवेगौड़ा की पार्टी ने बढ़ कर  सारी खाली जगहें हथिया लीं. दिन भर में बना सारा राजनीतिक समीकरण दोपहर बाद छिन्न-भिन्न हो गया. जो जश्न मना रहे थे उन्हें लकवा मार गया; जो लकवाग्रस्त थे वे दौड़ने लगे. अब पतन की दौड़ दो तरफ शुरू हुई - राजभवन की तरफ अौर फिसलने वाले विधायकों की तरफ. लोकतंत्र ने अपना खेल कर दिया; फिर शुरू हुअा लोकतंत्र से खिलवाड़. इसे राजभवन से एक झटके में रोका जा सकता था लेकिन तभी न जब वहां कोई राज्यपाल होता ! वहां तो राज्यपाल था ही नहीं. वहां बैठा था नाम-गुणविहीन केंद्र का एक अंधसेवक ! राजनीति में जोड़-तोड़ की एक जगह होती ही है लेकिन सारी राजनीति मात्र जोड़-तोड़ तो नहीं है. राजनीति अौर राजनीतिबाजी में फर्क होता है - गहरा फर्क ! जो यह फर्क या तो समझते नहीं हैं या मानते नहीं हैं, वे ही लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल देते हैं. अगर चुनाव धन अौर डंडे का खेल बना दिया जाए, राजभवन में खोज-खोज कर ऐसे लोग बिठाये जाएं जिनकी एकमात्र योग्यता यह हो कि उनका न सर है, व रीढ़, तो अाप लोकतंत्र का पतन रोक नहीं सकते हैं. राज्यपालों से यह पाप कांग्रेस ने खूब करवाया है, अब भाजपा की बारी है. 

फिसलने वाले िवधायकों का हाल यह था कि कांग्रेस व जनता दल(एस) फिसलने वालों की पहचान करने में नहीं, खरीददारों से उन्हें बचाने-छिपाने में जुट गये. किसी को इस पतन का दर्द नहीं था कि 10 करोड़ हो कि 100 करोड़, जो बिकने को तैयार है उसे देश में रखो कि विदेश में, वह बिका ही रहेगा. राजनीति जब बाजार बन जाती है तब वहां भी सब कुछ बिकाऊ होता है. अौर जो बिक सकता है वह जमीर क्या अौर देश क्या, कुछ भी बेंच सकता है. वह बेंच सकता है, अाप खरीद सकते हैं तो पाप न इधर ज्यादा हुअा, न उधर कम ! यह वह नैतिक फिसलपट्टी है जो सिर्फ नीचे की तरफ ही जाती है. 

लोकतंत्र में नैतिकता न हो ( संविधान न हो ! ) तो वह चोरों-बटमारों की िमलीभगत से अलग कुछ भी नहीं है. सौ साल से भी ज्यादा हुअा कि जब महात्मा गांधी ने ‘हिंद-स्वराज्य’ में लिखा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा अादमी देशभक्त होता है, यह कहते मेरी जीभ ऐंठती है.  उनका सीधा मतलब इसी नीतिविहीन राजनीति के शीर्षपुरुष से था. वे जान गये थे कि जो बाजार से खरीद कर लाया गया है, उस लोकतंत्र का शीर्षपुरुष सौदा करने में सबसे घाघ व्यक्ति ही हो सकता है. कहें कि राजनीति का शाइलॉक ! 

न्यायपालिका की भूमिका इसलिए अहम है कि लोकतंत्र ने उसे विवेक व संविधान के अलावा दूसरा कुछ दिया ही नहीं है. न्यायपालिका के संदर्भ में विवेक यानी वह तीसरी अांख जिससे संविधान की उस चुप्पी को भी पढ़ा व समझा जा सके जिसे दूसरे गूंगा या बहरा समझते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर ने जाते-जाते इसी चुप्पी को पढ़ने की कला को न्यायमूर्ति का अवदान कहा था. संविधान को जहां विवेक का साथ मिलता है, वह अत्यंय मारक दस्तावेज बन जाता है. कर्नाटक में हमने यही देखा. 

भारतीय जनता पार्टी ने कर्नाटक में भी लोकतंत्र से वही खिलवाड़ शुरू किया जो उसने गोवा में, मणिपुर में, मेघालय अादि में किया था. मोदी-शाह अब तक इस हेंकड़ी में रहे हैं कि वे जो चाहेंगे वह कर लेंगे अौर वही लोकतंत्र कहलाएगा. लेकिन जैसी कि कहावत है, अाप काठ की हाड़ी को दो बार चूल्हे पर नहीं चढ़ा सकते ! इसलिए पार्टियां कर्नाटक में जब खिलवाड़ कर रही थीं, लोकतंत्र अपना खेल समेट कर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया. अब महत्वपूर्ण यह नहीं है कि किसने क्या किया, क्योंकि पतन की होड़ में कौन, कहां खड़ा था इसकी कहानी कहने से लोकतंत्र का खेल अागे नहीं बढ़ता है. खेल अागे तभी बढ़ेगा जब कोई यह कहेगा कि खेल पटरी से कब उतरा अौर किसने खेल का नियम तोड़ा. न्यायपालिका ने अपने अादेश में इसका सीधा संकेत दे दिया है कि 10 सप्ताह के बाद, मतलब कर्नाटक में लोकतंत्र से खिलवाड़ की धूल जब बैठ जाएगी अौर सारे जश्न पूरे हो चुके होंगे तब वह इस पूरे मामले की व्यापक पड़ताल करेगी अौर अपनी व्यवस्था सुनाएगी. यह वह तलवार है जिसे ले कर लोकतंत्र कर्नाटक से लौटा है. अब यह तलवार न्यायपालिका के ऊपर भी तनी रहेगी. अगर न्यायपालिका भी खेल में नहीं, खिलवाड़ में शामिल हो जाए तो ? धीरज रखिए, लोकतंत्र फिर कोई नया खेल शुरू करेगा. अगर कर्नाटक में जो किया गया वह संिवधानसम्मत था तो फिर गोवा, मणिपुर अादि-अादि के जवाब न्यायालय कैसे देगा ? हत्या कई माह या साल पहले हुई थी इसलिए अपराध प्रमाणित होने व अपराधी के सामने होने पर भी सजा कैसे दी सकती है, न्यायपालिका ऐसा तो नहीं कह सकेगी. तब वह क्या कहेगी ? वह जो भी कहेगी, उससे एक नया खेल शुरू होगा. हम इतने समर्थ खिलाड़ी न हों कि खेल में उतर कर उसे गति व दिशा दे सकें तो इतने धैर्यवान तो बनें कि खेल को ही अपना खेल बनाने दें. 


बस, इतना ही है कि खतरे की एक घंटी नजदीक अाती सुनाई दे रही है. लोकतंत्र अौर भीड़तंत्र के बीच संविधान नाम का जो अंपायर खड़ा होता है यदि वह अनुपस्थित हुअा तो सड़क संसद की जगह ले लेती है. यह भी लोकतंत्र का ही खेल है लेकिन बेहद खतरनाक खेल है. ( 19.05.2018)