Monday 9 November 2020

बाइडन के बाद

 सभी राहत की सांस ले रहे हैं - जो बाइडन भी, कमला हैरिस भी, सारा अमरीका भी; भारत में हम सब भी ! राहत इस बात की कि अमरीका में अब वह सब नहीं होगा जो पिछले चार सालों से हो रहा था - जिसने अमरीका को दुनिया भर में जोकर भी बना दिया था अौर किसी हद तक वितृष्णा का पात्र भी. अगर बाइडन इतना भी न कर सके कि अमरीका की धरती से वे सारे नक्श-निशान मिटा दें कि जो ट्रंप की याद दिलाते हैं तो वे अमरीका के लालू प्रसाद यादव ही कहलाएंगे जो असीम संभावनाअों के दरवाजे पर खड़े थे लेकिन असीम विफलता के प्रतीक बन गये. 

      77 साल की सबसे बड़ी उम्र में अमरीका के राष्ट्रपति का पद हासिल करने वाले बाइडन को यह भूलना नहीं चाहिए कि उनकी कुर्सी के नीचे  उन 2.30 लाख अमरीकों के शव दफन हैं जो ट्रंप के कोविड के शहीद हुए. यह संख्या बाइडन-काल में बढ़ेगी. इसलिए मास्कसुरक्षित दूरी अौर सस्ती-से-सस्ती स्वास्थ्य-सेवा बाइडन-काल की पहचान कैसे बनेयह पहली चुनौती है. इसके लिए जरूरी होगा कि बाइडन अमरीकी समाज का विश्वास जीतें. यह अासान नहीं है. अगर करीब-करीब अाधा अमरीका बाइडन के साथ है तो अाधा अमरीका वह भी तो है जो ट्रंप के साथ है. लेकिन यह भी सच हैअौर यह सच बाइडन को पता है कि ट्रंप के साथ अमरीका का भरोसा कमउन्माद अधिक था. उस उन्मादित जमात में यदि बाइडन भरोसा जगा सकेंगे तो सस्ती स्वास्थ्य-सेवा के साथ जुड़ कर अमरीका मास्कसुरक्षित दूरी भी व्यापक तौर पर अपना लेगाअौर तब तक कोविड का वैक्सीन भी परिस्थिति को संभालने के लिए मैदान में होगा. तो पहली चुनौती घर में ही है - खाई को पाटना ! 


      अोबामाकेयर की पुनर्जीवित करना लोगों तक सस्ती स्वास्थ्य-सेवा पहुंचाने का रास्ता है. अमरीका को यह भरोसा दिलाना कि अोबामाकेयर अश्वेतों का ही नहींसभी अल्पसाधनों वालों का मजबूत सहारा हैएक चुनौती है. बाइडन के लिए यह यह अपेक्षाकृत अासान होगा क्योंकि उनके साथ कमला हैरिस खड़ी होंगी. ट्रंप की तुलना में अपनी उदारवादी छवि बनाना अासान थाउदारवादी नीतियों का निर्धारण करना अौर उन पर मजबूती से अमल करना गहरी व व्यापक सहमति के बिना संभव नहीं होगा. महिलाअोंअल्पसंख्यकोंउम्रदराज व युवा अमरीकियोंट्रंप को ले कर असमंजस में पड़े मतदाताअों अौर अंतत: अपनी पार्टी का दामन छोड़ने वाले रिपब्लिकन मतदाताअों ने बाइडन को विजेता बनाया. हुअा तो यह भी कि चुनाव परिणाम को अस्वीकार करने की ट्रंप की निर्लज्ज बचकानी बयानबाजी का उनकी पार्टी के सांसद भी अालोचना करने लगे. यह वह अाधार है जिस पर बाइडन को भरोसे की नींव डालनी है. 


           लेकिन इतना काफी नहीं है. अमरीका को अब यह अंतिम तौर पर समझने की जरूरत है कि वह न तो दुनिया का चौकीदार हैन थानेदार ! संसार में कहीं भी बेबुनियाद तर्कों से युद्ध छेड़नेदूसरों के हर फटे में टांग डालने अौर दूसरों की स्वायत्तता का सम्मान न करने की अमरीकी नीति उसे कमजोर ही नहीं बना रही है बल्कि उसकी अंतरराष्ट्रीय किरकिरी भी करवा रही है. अोबामा के खाते में ही कम-से-कम छह युद्ध दर्ज हैं जबकि ट्रंप ने अपनी बतकही से अमरीका की जितनी भी किरकिरी करवाई होउन्होंने कहीं युद्ध नहीं बरपाया. अोबामा-काल के इन युद्धों से बाइडन खुद को अलग नहीं कर सकते. बाइडन को अपनी अौर अमरीका की इस छवि को तोड़ना पड़ेगा. 


            मैं उस अादर्श विश्व की बात नहीं कर रहा हूं कि जिसमें युद्ध होंगे ही नहीं बल्कि उस संसार की बात कर रहा हूं कि जिसने अापसी सहमति से युद्ध की अनुमति देने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ नाम की एक संस्था बना रखी है. अमरीका अपनी सुविधा अौर शेखी के लिए उसका इस तरह इस्तेमाल करता अाया है कि दुनिया के दूसरे देश भी उसे पांवपोंछ की तरह बरतने लगे हैं. बाइडन को अमरीका की इस छवि को भी तोड़ना होगाअौर इसमें कोई शक ही नहीं है कि अमरीका जिस दिन से संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुशासन को अपनी मर्यादा के रूप में स्वीकार कर लेगादुनिया के दूसरे देशों के लिए उस लक्ष्मण-रेखा को पार करना मुश्किल हो जाएगा. 


            बाइडन को एक द्रविडप्रणायाम भारत के संदर्भ में भी करना होगा. वे अौर डेमोक्रेटिक पार्टी भारत से अच्छे रिश्तों की बात करती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें बधाई देते हुए रिश्तों को अौर मजबूत बनाने की बात की है. लेकिन बाइडन को दिक्कत यह अाएगी कि जब भी भारत सरकार भारतीय संविधान की मर्यादाअों को अपनी बेड़ियां समझेगी अौर उन्हें कुचल कर अागे जाएगी तब उनकी सरकार क्या करेगी भारत के अांतरिक मामलों में दखलंदाजी कोई भी भारतीय स्वीकार नहीं करेगा लेकिन अांतरिक मामलों का तर्क दे कर मानवीय अधिकारों व लोकतांत्रिक मर्यादाअों का हनन भी कैसे पचाया जा सकेगा अोबामा को बराक’ बना कर इस सरकार ने यही खेल करना चाहा था अौर अोबामा इस जाल में किसी हद तक फंसे भी थे. अाते-जाते मौकों पर उन्होंने कभी इस सरकार कर रवैये पर थोड़ी तेजाब डाली हो तो डाली होअधिकांशत: वे बच निकलने में ही लगे रहे. फिर तो हाउदी मोदी’ अौर जश्न-ए-ट्रंप’ का दौर अा गया अौर सब कुछ धूलधूसरित हो गया. बाइडन क्या करेंगे वे भारत के संदर्भ अाज से ही नट की तरह रस्सी पर चलना शुरू करेंगे तो कहीं कोई संतुलन साध सकेंगे. अपने संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई तो हमें ही लड़नी है. सवाल रह जाता है तो बस इतना कि इस लड़ाई की अनुगूंज विश्व बिरादरी में उठती है या नहींउठनी चाहिए या नहीं बाइडन को इसका जवाब देना है. वे ट्रंप नहीं बन सकते अौर अोबामा बनने का वक्त निकल गया है. 

                                                                        

यह तो अागाज भर है. रास्ता लंबा व कांटों से भरा है. ( 08.11.2020)

                                                                           

Tuesday 3 November 2020

यह फ्रांस का आंतरिक मामला है

    फ्रांस अभी लहूलुहान है. असीम शांति अौर प्यार के प्रतीक नोट्रडम चर्च के सामने की सड़क पर गिरा खून अभी भी ताजा है. वहां जिसकी गर्दन रेत दी गई अौर जिन मासूम लोगों की हत्या कर दी गईउन अपराधियों के गैंग को दबोचने में लगी फ्रांस की सरकार अौर प्रशासन को हमारा नैतिक समर्थन चाहिए. यह खुशी अौर संतोष की बात है कि भारत में भी अौर दुनिया भर में भी लोगों ने ऐसा समर्थन जाहिर किया है. कोई भी मुल्क जब अपने यहां की हिंसक वारदातों को संभालने व समेटने में लगा हो तब उसका मौन-मुखर समर्थन सभ्य राजनीतिक व्यवहार है. यह जरूर है कि इसे बारीकी से जांचने की जरूरत होती है कि कौन सा मामला अांतरिक हैसंकीर्ण राज्यवाद द्वारा बदला लेने की हिंसक काररवाई नहीं है अौर नागरिकों की न्यायपूर्ण अभिव्यक्ति का गला घोंटने की असभ्यता नहीं है. फ्रांस की अभी की काररवाई इसमें से किसी भी अारोप से जुड़ती नहीं है. 

          

        जिस फ्रांसीसी शिक्षक ने समाज विज्ञान की अपनी कक्षा में मुहम्मद साहब का वह कार्टून दिखला कर अपने विद्यार्थियों को अपना कोई मुद्दा समझाने की कोशिश की वह इतना अहमक तो नहीं ही रहा होगा कि जिसे यह भी नहीं मालूम होगा कि यह कार्टून फ्रांस में भी अौर दुनिया भर में कितने बबाल का कारण बन चुका है. फिर भी उसे जरूरी लगा कि अपना विषय पढ़ाने व स्पष्ट करने के लिए उसे इस कार्टून की जरूरत है तो इसका सीधा मतलब है कि फ्रांस में उस कार्टून पर कोई बंदिश नहीं लगी हुई है. मतलब उसने फ्रांस के किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया. उसने जो किया वह विद्या की उस जरूरत को पूरा करने के लिए किया जो उसे जरूरी मालूम दे रही थी. उसका गलाउसके ही एक मुसलमान शरणार्थी विद्यार्थी ने खुलेअामबीच सड़क पर काट दिया अौर वहां मौजूद लोगों ने उसे अल्लाह-हो-अकबर’ का उद्घोष करते सुना. ऐसा ही नोट्रडम चर्च के सामने की वारदात के वक्त भी हुअा. फ्रांस का कानून इसे अपराध मानता है अौर वह उसे इसकी कानूनसम्मत सजा दे तो इस पर हमें या किसी दूसरे को कैसे अापत्ति हो सकती है इसलिए सवाल मुहम्मद साहब का कार्टून बनाने व दिखाने का दिखाने का नहीं है.


         फ्रांस में किसी भी देवी-देवतापैगंबर-नबीअवतार-गुरू का कार्टून बनाने पर प्रतिबंध नहीं है. वहां कार्टूनों की प्रतिष्ठित पत्रिकाएं चलती हैं जो सबकीसभी तरह की संकीर्णताअों को अाड़े हाथ लेती हैं. फ्रांसीसी समाज की अपनी कुरीतियों अौर मूढ़ताअों परईसाइयों के अहमकाना रवैये पर सबसे अधिक कार्टून बनते व छपते हैं. अब तक कभी भी उन पर यह अारोप नहीं लगा कि वे कार्टून किसी के पक्षधर हैं या किसी के खिलाफ ! यह परंपरा व यह कानूनी छूट कि अाप किसी का भी कार्टून बना सकते हैंफ्रांस का निजी मामला है. हम उससे असहमत हो सकते हैं अौर उस असहमति को जाहिर भी कर सकते हैं. लेकिन उसके खिलाफ जुलूस निकालनाफ्रांसीसी राजदूतों की हत्या के लिए उकसानाराष्ट्रपति मैंक्रों की तस्वीर को पांवों तले कुचलनाफ्रांसीसी सामानों के बहिष्कार का अाह्वान करना - अौर यह सब सिर्फ इसलिए करना कि अाप मुसलमान हैंदुनिया भर के धार्मिक अल्पसंख्यकों की जिंदगी को शक के दायरे में लाना अौर खतरे में डालना है. यह संकीर्ण सांप्रदायिकता का सबसे पतनशील उदाहरण है. यह फ्रांस के अांतरिक मामले में शर्मनाक दखलंदाजी है अौर अपने देश की संवैधानिक उदारता का सबसे बेजा इस्तेमाल है.                                                                            


        यह अौर भी शर्मनाक व कायरता भरा काम है कि कुछ लोगों नेजो मुसलमान हैंइस कत्ल के समर्थन में बयान जारी किए. वे सामाजिक कार्यकर्ता हैंसाहित्य-संस्कृति से जुड़े हैंराजनीतिज्ञ हैं यह सब भुला दिया गया. याद रखा गया तो सिर्फ इतना कि वे मुसलमान हैं. फ्रांस में मुसलमानों को उनकी गैर-कानूनी हरकतों की सजा मिले तो भारत का मुसलमान सड़कों पर उतर कर अल्लाह-हो-अकबर’ का घोष करेअौर खून को जायज ठहराए अौर दूसरों का खून करने का अाह्वान करेतो प्रशासन का क्या दायित्व है भारत के प्रशासन का ही नहींदुनिया भर के प्रशासन का दायित्व है कि पूरी सख्ती से इसे दबाया जाए. इसे जड़ से ही कुचलने की जरूरत है. यह फ्रांस के अांतरिक मामले का सम्मान भी होगा अौर अपने लोगों को यह संदेश भी कि सड़कों पर कैसी भी एनार्की सह्य नहीं होगी. 


         सड़कों पर उतरने अौर लोगों को उतारने का संवैधानिक दायित्व यह है कि वह किसी दूसरे के अांतरिक मामले में हस्तक्षेप न होकिसी दूसरे के प्रति हिंसा को उकसाता न होवह धार्मिक संकीर्णता को बढ़ावा न देता हो अौर धार्मिक ध्रुवीकरण को प्रेरित न करता हो. ऐसा न हो तो सड़कों को सबकी अावाजाही के लिए खुला रखनासड़कों से चलते हुए कहीं भी पहुंच सकने की अाजादी बरकरार रखना अौर सड़कों पर लोगों की अावाज को बेरोक-टोक उठने देना सरकार व प्रशासन का दायित्व है. इस पर हमारे यहां भी अौर दुनिया में सभी जगहों पर नाजायज बंदिशें लगी हैं. लेकिन इन नाजायज बंदिशों का विरोध नाजायज जुलूसों द्वारा किया जा सकता है क्या बल्कि नाजायज जुलूस इन नाजायज बंदिशों का अौचित्य ही प्रमाणित करते हैं. हमारी सड़कों पर या संसार की किसी भी सड़क पर फ्रांस के खिलाफ निकला हर जुलूस ऐसा ही नाजायज जुलूस है जिसका जायज प्रतिरोध सरकार व समाज की जिम्मेवारी है. ( 1.11.2020)     

दिल ही तो है, नहीं संग-ओ-खिश्त …

            5 अगस्त को दिल इतनी जोर से धड़का था कि छलक पड़ा था ! कहते हैं न कि दिल की कटोरी गहरी होनी चाहिए ताकि न छलके, न दीखे. लेकिन कितनी गहरी ? बहुत शोर तो हम भी सुनते थे दिल का, जब चीरा तो कतरा-ए खूं निकला ! मतलब कितना गहरा ?  कतरा भर; अौर उस पर वार-पर- वार; घाव- पर- घाव ! छलकना ही था. 

      अब हिसाब करता हूं कि कितना तो जज्ब किया था. पूरे छह से ज्यादा सालों से एक दिन भी नहीं गुजरा जब कोई नया घाव न लगा हो. एक अभी भरा भी नहीं कि दूसरा - पहले से भी गहरा ! उसे भी संभाला नहीं कि तीसरा … ऐसा भी कैसे कर सकते हैं आप आपके हाथ में खंजर है तो कहीं दिल भी तो होगा उसने कुछ नहीं कहा सुनता हूंखंजर वाले हाथ दिल की नहीं सुनते. इतने बौने होते हैं कि उनकी पहुंच दिल तक होती ही नहीं है. दिल भी कमबख्त सबका धड़कता कहां है 


             5 अगस्त के बाद नींद कहीं खो गई. रात के अंधेरे में कहां-कहां नहीं भटकता रहा - उन सब निषिद्ध स्थानों तक गया जहां संस्कारी लोग जाते नहीं हैं. रात-रात भरजागे-अधजाने कितना गलीज रौंदाउनमें उतरापार करने की कोशिश की. कितने लोगों से मिला - अनायासनिष्प्रयोजन लेकिन कितने सवाल थे जो बहस में बदलते रहे अौर मैं फिर-फिर लौटता रहा. जानता था कि जवाब इनसे मिलेगा नहीं लेकिन जाता रहा बार-बार. हिंदुत्व की कोई परिभाषा तो बने ऐसी जिस पर मैं भी अौर वे भी टिक सकें लेकिन ऐसा कुछ नहीं था सिवा गालियों अौर अारोपों के. वे सब वही थे जो अाजादी से पहले के थे. कहीं कोई विकास नहींकोई नई सोच नहीं. सपनों में भी इतनी जड़ता तभी कोविड ने भी दबोच लिया. दिल को देखते डॉक्टर ठिठक गये. अब 


      नींद पर हमला अौर गहरा हो गया -  वह कहीं गुफा में समा गई ! मैं कहता था - नींद जिस कोण से अादमी में प्रवेश करती हैमेरा वह कोण ही खो गया है ! रात-रात भर जागना अौर अंधेरे में घूमना. अपने उस सफर में पहाड़ों पर भी गयातलहटियों में भी उतरा. जीवन के साधक तो वहीं मिलती हैं न ! लेकिन गांजाभांगचरस अादि से अागे की कोई साधना वहां मिली नहीं. जीवन को  भुलाने की ऐसी अंधाधुंधी मची है वहां  कि जीवन के सवालों के लिए अवकाश ही नहीं रह गया है. लेकिन  रोज रात यह सफर चलता रहा - नींद में नहींजाग्रत अवस्था मेंमैं जानता था कि मैं जागा हुअा हूं लेकिन मन व अवस्था दोनों मेरे बस में नहीं थे. रात भर में घर में घूमता रहता था अौर हर कोने से एक नई कहानी बनती थी जो खिंचती हुई कहां से कहां चली जाती थी. डरा भी. ऐसे सफर भय पैदा करते ही हैं. लेकिन कहीं मन में यह बात घर कर गई थी कि कहीं भी जाऊंगाबेटी खींच लाएगी. बेटियां ऐसी ही होती हैं क्या या इसी के लिए बनी होती हैं. मैं तो गवाही दूंगा. 


            कितनी-कितनी बार वहां भी गया जहां सुनता था कि धड़कते दिल वाले जाते नहीं हैं. वहां सभी थे अौर सबके दिल धड़क रहे थे. भीड़ बहुत थी लेकिन टकराहट नहीं थी. सबसे स्थिर गांधी ही थे. नीचे से गांधी-गांधी’ के अाते हाहाकार को वे असंपृक्त भाव से महादेव देसाई की अोर बढ़ा दे रहे थे. मैंने महादेव भाई से पूछा : आप इनका क्या करते हैं वे बोले : जहां से अाता हैवहीं वापस भेज देता हूं. बापू ने कहा है - सब वापस कर दो. अगर कहीं सेकिसी का कोई जवाब अाएगा तो मुझे बताना अब तक तो कोई अाया नहीं. रोज मेरा एक ही सवालरोज उनका एक ही जवाब. सबसे अलगचुप अौर कुछ पछताते-से जिन्ना साहब थे. उनके पास भी उनके पाकिस्तान से खबरें अाती थीं जिन्हें वे फाड़ फेंकते थे. मैंने टोका : अाप कुछ कहते क्यों नहीं हर बार एक ही जवाब : किससे कहूं ?  कौन सुनेगा ? … मैंने भी कहां किसी की सुनी थी ! जयप्रकाश सबसे उद्विग्न थे. बोलते नहीं थे लेकिन स्वगत कहते जाते थे : बापू ने चाहा था कि अाजादी के बाद की दौड़ में सब बराबरी से दौड़ें लेकिन तब कांग्रेस अपनी अगली कतार छोड़ने को तैयार ही नहीं थी. बापू के बाद मैंने दूसरा रास्ता खोजा. मैंने कांग्रेस की अगली कतार ही खत्म कर दी. मेरा कांग्रेस से कोई वैर नहीं थासवाल लोकतंत्र का था. अब सब बराबरी पर अा गए. मैंने चाहा कि लोकतंत्र की नई दौड़ में सब एक साथ दौड़ कर अपनी जगह बनाएं. लेकिन इन सबकी फिक्र कांग्रेस से अागे निकलने की नहींएक-दूसरे को नहीं दौड़ने देने की थी. सारा खेल बिगाड़ दिया इन निकम्मों ने ! अब फंसे हैं जिस गतालखाने में वहां से निकलने की कोई युक्ति नहीं है इनके पास. मैंने कहा : बताने वाला भी तो कोई नहीं है ! जयप्रकाश हर बार मुंह फेर लेते रहे : बताने वाला कोई नहीं होता हैखोजने वाला होना चाहिए. लेकिन अंधे क्या देखें अौर क्या खोजें !       शेख अब्दुल्ला विचलित ही मिले : कश्मीर का जो हाल किया हैक्या उसे कभी ये काबू कर पाएंगे कोई नहीं बोला भरी संसद में कि धारा 370 कश्मीर ने नहींभारत की संविधान सभा ने बनाई थी. मैं भी था बनाने वालों में. भारत की संविधान सभा नहीं चाहती तो यह धारा बनती क्याअौर तब कश्मीर भारत को मिलता क्या इन्होंने यह भी नहीं समझा कि भूगोल बनाने में पीढ़ियां निकल जाती हैंगंवाने में पल भर ही लगता है… मैं देखता था कि जवाहरलाल बगल से निकल जाते थेबोलते कुछ नहीं थे… यहां तक मैं पहुंचता कैसे था अब याद करता हूं तो उबकाई अाती है. रक्तपीव से सने रास्तों को पार करता जब मैं यहां पहुंचता था तो कहीं खड़े रहने की हालत नहीं होती थी. फिर अचानक दिल पर लगे घावों से रक्त बहने लगता था - दर्दविहीन रक्तस्राव ! मैं वैसे ही इन सबके बीच से गुजरता था. यह समझ पाता था कि इनमें से कोई मुझेमेरे रक्तस्राव को देखता नहीं था. सब स्वगत-सा वह सब बोलते थे जो मुझे टुकड़ों में याद रह आता है. कुछ भूल गया हूं फिर भी कड़ियां जोड़ पाता हूं. दोनों पांव जैसे बहतेबदबूदार परनाले में बदल जाते थे जिनसे मल बहता रहता था … 


            हर बार वैसे ही रास्तों को पार कर लौटता था - बहुत लंबा रास्ता ! अंधेरा भीबदबू भी अौर असंबद्धता भी! जितना घायल जाता थाउसे ज्यादा घायल लौटता था. विचलित अौर भ्रमित भी. बहुत भ्रम अौर बहुत भय से भरा यह अनुभव था. दिन ऐसी रोशनी से भरा होता था जिसमें चैन का एक पल भी नहीं होता था - घर को अासपास पा कर जो अाश्वस्ति होती थी वही भर ! कमजोरी इतनी कि बताने में ही दम निकल जाए. 


            दिन में रोज नये-नये जख्मों का इजाफा होता था. अौर उतने ही अांसू निकलते थे. घर के सभी अासपास न हों तो घबराहट से सिकुड़ जाता थाबाहर का कोई अाए तो परेशानी से दुबक जाता था. रोशनी राहत भी देती थी अौर डराती भी थी. रात का ख्याल भय से भर देता था कि फिर वही भटकाववहीं गंदगीवहीं बदबू अौर वही बेचैनी ! सोसाइटी के अाहाते में खड़ी हर गाड़ीअाधी रात कोजब मैं घूमता हुअा खिड़की से बाहर देखता थामेरे देखते ही चल देती थी. इतनी रात में यह कहां चली लेकिन गाड़ी ही नहीं चलती थीउसके साथ ही मैं भी चलता था अौर फिर बनती जाती थी एक कहानी- डरावनी-सीअनैतिक-सीअंतहीन सी ! थक कर बिस्तर बने सोफे के कोने में बैठ जाता था- अंधेरा भी साथ ही बैठ जाता था- नाचता हुअागहराता हुअा अौर नींद को झाड़ कर दूर भगाता हुअा. 

  

          अब यह सब याद कर रहा हूं तो पाता हूं कि यह घायल मन की भटकन तो थी हीघाव की पीड़ा भी थी. घाव जो लगातार लग रहे हैंबढ़ रहे हैं. ऐसा लगता है कि अब तो कोई जगह भी बाकी नहीं बची जहां जख्म जगह पा सकें. गालिब की जिद ही सहीमैं उसे पूरा तो रख ही दूं : दिल ही तो है/ नहीं सग-अो-खिश्त/ दर्द से भर न अाए क्यूं/ रोएंगे हम हजार बार/ कोई हमें रुलाए क्यों. ( 23.10.2020)