Monday 14 November 2022

‘सेवा’ वाली ‘इला’

पढ़ कर यह जानना-समझना पूरी तरह संभव नहीं है कि गांधी की गढ़ी महिला कैसी होती थी !  क्योंकि गांधी तो अब हैं नहीं - पिछले 75 सालों से नहीं हैं - कि जो बनाते जाते और हम देखते जाते कि कैसी बनीं थीं मृदुला साराभाई या सरोजिनी नायडू या सुशीला नैयर या आभा या मनु या प्रभावती कैसे जानें हम कि ये सब कैसी बनी थींऔर फिर यह भी कि ये सब कैसे बनी थीं किताबों के अलावा हमारे पास कुछ दूसरा होता ही कैसे हम तो उनके बहुत बाद पैदा हुए हैं. गांधी भी तो हम किताबों में ही खोजते-पाते रह जाते यदि गांधी कुछ ऐसे लोगों को अपने नमूने की तरह हमारे बीच छोड़ न जाते कि जिनको देखो तो कुछ अंदाजा लगा सकोगे कि गांधी के गढ़े आदमी कैसे होते थे! और यह बारीक बात भी तो वे ही हमसे कह गए न कि अब ऐसा कोई एक व्यक्ति तो होगा नहीं कि जो मेरा पूरा प्रतिनिधित्व कर सके लेकिन कुछ लोग ऐसे होंगे कि जो मेरा कुछ अंशों में प्रतिनिधित्व कर सकेंगे. तो विनोबाजयप्रकाशकाका साहबदादा धर्माधिकारीधीरेंद्र मजूमदार जैसे कुछ और जवाहरलालसरदारलोहियाराजेंद्र बाबू जैसे कुछ नमूने हमने देखे. जो किताबों में पाया हमने और जो इनमें देखा हमने उससे कुछ अंदाजा लगाया कि गांधी की चाक कैसे चलती थी व कैसा गढ़ती थी. 

  सेवा वाली इला भी ऐसा ही एक नमूना थीं. गांधी ने सीधे उन्हें नहीं गढ़ा थागांधी ने उन्हें छुआ था वैसे ही जैसे महानात्माएं हमें दूर से छूती हैं और गहरे आलोकित करती हैं. जहां तक मैं जानता हूं7 सितंबर 1933 को जनमी और 2 नवंबर 2022 को जिस इला भट्ट का अवसान हुआउन्हें कभी गांधी का सीधा साथ नहीं मिला और न वे गांधी आंदोलन में शरीक ही रहीं. होना संभव भी नहीं था. वकील पिता तथा महिलाओं के सवालों पर सक्रिय मां की बेटी इला तब 15 साल की थीं और स्कूलों-कॉलेजों की सीढ़ियां चढ़ रही थीं जब गांधी मारे गए. इसलिए उनके जीवन में गांधी को किसी पिछले दरवाजे से ही दाखिल होना था. वे उसी तरह दाखिल हुए भी. उनके साथ मिल-बैठ करबातें करते हुए मुझे सहज महसूस होता था कि यह गांधी की आभा से दीपित आत्मा है. वे छोटी कद-काठी की थींधीमी,मधुर आवाज में बोलती थीं जिसमें तैश नहींतरलता होती थी लेकिन आस्था की उनकी शक्ति न दबती थीन छिपती थी. बहस नहीं करती थीं बल्कि बहसें उन तक पहुंच कर विराम पा जाती थीं क्योंकि आत्मप्रत्यय से प्राप्त एक अधिकार उनकी बातों में होता था. वे तर्कवानों की बातों की काट नहीं पेश करती थीं. काटना या तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने जैसे हथियारों का वजन उठाना उनके व्यक्तित्व के साथ शोभता ही नहीं था लेकिन एक मजबूत इंकार की अभिव्यक्ति में वे चूकती भी नहीं थीं. सादगी की गरिमा अौर आत्मविश्वास का साहस उनमें कूट-कूट कर भरा था. 

  साबरमती आश्रम को ले कर विवाद खड़ा हुआ था. तब हुआ यूं था कि अचानक ही आज की सरकार ने 12 सौ करोड़ रुपयों की थैली साबरमती आश्रम में शांत-निर्द्वंद्व  सोये गांधी के सिरहाने रख दी थी और शोर मचा दिया कि यहां से उठिए श्रीमान मोहनदास करमचंद गांधीजी कि हम इस आश्रम को वर्ल्ड क्लास’ बना कर ही दम लेंगे ! शोर उठाशोर का आयोजन करवाया गया. ऐसी विषाक्त हवा बनी कि जो आश्रम के ट्रस्टी थे वे गांधी के ट्रस्ट’ की कीमत परसरकार का ट्रस्ट’ खरीदने को तैयार हो गए. गांधी का ट्रस्टी’ होना एक नैतिक दायित्व को वहन करने के साहस का नाम हैयह वे भूल ही गए. वे किसी व्यावसायिक कंपनी की मुनीमगिरी में लग गए. जब गांधी की नैतिकता का जुआ ढोने का साहस व कूवत न बची हो तो गांधी को प्रणाम करस्वंय को पीछे कर लेने का विवेक कहां से बचेगा ! 

   गांधी जैसे थे और जैसे हैं वैसे ही वर्ल्ड क्लास हैंकि हम सरकार के साथ मिल कर उन्हें वर्ल्ड क्लास बनाने का आयोजन करेंगे ? मेरे सवाल पर वे कहीं गहरे में विचलित हुईं. वे ही साबरमती आश्रम ट्रस्ट की अध्यक्ष थीं. वैधानिक दायित्व भी उनका ही था और नैतिक दायित्व भी !  लेकिन मैं क्या करूं?उनकी आवाज की व्यग्रता मैं सुन भी रहा थासमझ भी रहा था  उम्र इतनी हो गई हैशक्ति बची नहीं हैट्रस्टी-मंडल में मैं एकदम अकेली पड़ जाती हूं. मुझे ये लोग सारी बातें बताते भी भी नहीं हैं, आवाज में दर्द भी थालाचारी भी आपके साथ दौड़ना चाहिए मुझे लेकिन मैं चल भी नहीं पा रही हूं. मैंने कहा:  आप अकेली नहीं हैं. ट्रस्टी मंडल से आप हट जाएंगी तो वे सब अकेले पड़ जाएंगे जो आज अपनी संख्या का बल गिन रहे हैं. यह पूरी मंडली आपकी नैतिक पूंजी से ताकत पाती है. आप एक बार देश व गुजरात को बता दें कि इन लोगों से असहमत हो कर मैं इनसे अलग हो रही हूं तो फिर रास्ता इन्हें खोजना होगाआपको नहीं. मैं क्या कह रहा था और किससे कह रहा थामैं जानता था. वे मेरे कहे का सारा दर्द झेल रही थीं आप जो कह रहे हैं वह तो रास्ता है लेकिन मैं यहां से हटूंगी तो इनका रास्ता और  आसान हो जाएगा. मैं वहां रह कर प्रतिरोध करूंगी लेकिन मेरा अपना तरीका होगा. मैं सबको साथ ले कर चलूंगी फिर जिसे अलग होना होहो. उन्होंने वैसा कुछ किया भी और प्रतिरोध के साथ सामने आईं भी. मेरे एक निजी पत्र के जवाब में उन्होंने इतना ही कहा कि आप मुझसे निराश नहीं होंगे. 

  गांधी के संघर्ष से उनका नाता कभी रहा नहीं तो स्वभाव में भी वह नहीं रहा. समाज-सरकार सबसे तालमेल बिठा कर वे सारा जीवन काम करती आईं तो इस सांध्यबेला में रास्ता बदलना बहुत असहज था. कानून की पढ़ाईशिक्षा-संस्थानों में नौकरीसरकारी नौकरी आदि रास्तों को पार करती 1972 में उन्होंने उस सेवा’ की स्थापना की जो कालांतर में असंगठित कामगार महिलाओं का देश का - संसार का भी संभवत: - सबसे बड़ा संगठन बन गया. महिलाओं को नेतृत्व में लाने का ऐसा व्यापक प्रयास दूसरा हुआ हो तो मुझे ध्यान नहीं आता है. इसके पीछे भी कहीं गांधी खड़े थे. बिहार के चंपारण का किसान आंदोलन खड़ा कर गांधी वहां से सीधे पहुंचे अहमदाबाद जहां एक मजदूर आंदोलन की खिंचड़ी पक रही थी. साराभाई-परिवार के कपड़ा मिलों का साम्राज्य तब बहुत बड़ा था. यहां के मजदूरों के संघर्ष की कमान गांधी ने संभाली. वह पूरी कहानी छोड़ कर इतना ही कि उस संघर्ष के गर्भ से पैदा हुआ मजूर-महाजन संगठन मजदूर आंदोलनों के इतिहास में गांधी की अपनी देन है. इला की सेवा’ के पीछे मजूर-महाजन संगठन से मिला अनुभव था. 

  सेवा’ का काम जितनी गति से बढ़ा और जैसा वृहदाकार उसका बनावह इला की संगठन-सूझसंवेदनादृढ़ता व काम करने की जबर्दस्त लगन का स्मारक ही बन गया. सफलता भी मिलीअनगिनत सम्मान भी मिले तो मुश्किलें भी आईंचुनौतियां भी खड़ी हुईं. 1986 में सरकार ने पद्म-भूषण’ से सम्मानित कर इला के जीवन पर अपनी मुहर तो लगा दी लेकिन उनके काम को आसान नहीं बना सकी. उनका सारा काम व्यवस्था से बारीक तालमेल बिठा कर तथा बाजवक्त उसे चुनौती दे कर ही संभव हुआ था. इसमें कमलादेवी चट्टोपाध्याय के साथ से मिली दृष्टिअहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन तथा बुच साहब से मिला सहयोग अहम था. इसरायल जाने व तेल अबीब के एफ्रो-एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ लेबर एंड कोऑपरेटिव्स में पढ़ाई करने का अवसर इला को वह बना गया जो हमने उनके बाकी के सारे जीवन में आकार लेते देखा. यह कहानी परिपूर्ण नहीं होगी यदि हम रमेश भट्ट का जिक्र न करें जिनसे 1956 में उनका विवाह हुआ. रमेश भाई इला की सेवा’ में ऐसे रमे कि अंतिम सांस तक उबरे नहीं. 

  इला बेन दुनिया में हर कहीं गईंदुनिया की नामचीन हस्तियों के साथ मिल कर बहुत सारे मंचों का निर्माण भी कियाकाम भी किया लेकिन खादी की साड़ी में लिपटी उतनी ही सहज-सरल बनी रहीं. 18 जुलाई 2007 को नेल्सन मंडेलाडिसमांड टूटू आदि ने मिल कर एक अनोखी ही पहल की और वरिष्ठ जनों का एक ऐसा ग्रुप बनाया - इ एल्डर्स- जिसका खाका नेल्सन मंडेला के शब्दों में इस प्रकार उभरा :  हमारी यह टोली स्वतंत्रता व साहस के साथ बोलेगीचाहे सामने आ कर हो या नेपथ्य सेजब जैसा जरूरी  होगाकाम करेगी. हम मिल कर जहां भय है वहां साहस को सहारा देंगेजहां मतभेद हैं वहां सहमति की तलाश करेंगे तथा जहां निराशा है वहां आशा का संचार करेंगे. इस स्वप्नदर्शी पहल में उन्होंने इला को साथ जोड़ा. इला ऐसी जुड़ीं इससे कि सारी दुनिया में कहां-कहां नहीं टोली ले कर पहुंचीं. 2010 में अपने वरिष्ठों को ले कर वे गाजा पहुंची थीं और तब उन्होंने अपनी टोली की तरफ से लिखा था :  जुल्म के खिलाफ अहिंसक संघर्ष में हिंसक युद्ध से अधिक जान झोंकनी पड़ती है और वे कायर होते हैं जो हथियारों का सहारा लेते हैं.

  स्वास्थ्य व उम्र ने उन्हें बांधा तो जरूर था लेकिन वे अंत-अंत तक अपनी ही इस कसौटी पर खुद को आजमाती रहीं. गुरु गांधी ने ही सिखलाया था कि जहां असहमति व विरोध से बात न बने अौर सीधी लड़ाई की क्षमता न हो वहां असहकार का अहिंसक हथियार इस्तेमाल करना. इसलिए जब साबरमती आश्रम तथा गुजरात विद्यापीठ के सभी जनों ने उनका हाथ छोड़ दिया और वे एकाकी पड़ गईं तो उन्होंने इस हथियार का सहारा लिया और जीवन से त्यागपत्र देने से पहले अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया. किसी को लगा होगा कि वे गईं लेकिन दरअसल तो हम सब गए ! 

  अब हमारे खाली हाथों में उनके दोनों त्यागपत्र हैंऔर उससे भी खाली व सूनी आंखों से हम गहराते अंधकार को देख रहे हैं. ( 04.11.2022)

सुनक और हमारी सनक

पिछले 210 साल के ब्रितानी इतिहास में सबसे कम - 42 साल - उम्र केअश्वेतहिंदू धर्मावलंबी ऋषि सुनक को इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बनाना इंग्लैंड के लिए अौर भी अौर कंजरवेटिव पार्टी के लिए भी संतोष भरे गर्व का विषय होना चाहिए. अपने सामाजिक-अार्थिक-राजनीतिक जीवन के एक अत्यंत नाजुक दौर मेंपार्टी ने हर तरह के भेद को भुला करअपने बीच से एक ऐसा अादमी खोज निकाला है जो उसे लगता है कि उसके लिए अनुकूल रास्ता खोज सकता है. उसका यह चयन कितना सही हैयह समय बताएगा लेकिन यह खोज ही अपने अाप में इंग्लैंड को विशिष्ट बनाती है. सुनक की कंजरवेटिव पार्टी भारत के लिए बहुत अनुकूल नहीं रही है लेकिन अाज की बदलती दुनिया मेंपुरानी छवियां खास मतलब नहीं रखती हैं. अाज जो है वही अाज के मतलब का है. भारत को भी अौर इंग्लैंड को भी जरूरत है एक-दूसरे से नया परिचय करने की अौर सुनक इसे शायद अासान बना सकेंगे. 

  सुनक के इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बनने का भारतीय संदर्भ में इतना ही मतलब है -न इससे ज्यादान इससे कम ! लेकिन सुनक के प्रधानमंत्री बनते ही जैसी सनक भारतीय मन व मीडिया पर छाई है- अाम लोगों से ले कर अमिताभ बच्चन तक !-  वह अफसोसजनक बचकानी है. ऐसा कुछ भाव बनाया जा रहा है मानो सुनक के बहाने अब भारत इंग्लैंड पर वैसे ही राज करने जा रहा है जिस तरह कभी इंग्लैंड ने हम पर राज किया था. किसी ने इसे बदला’ बताया है तो किसी ने स्वाभाविक न्याय’. मुंगेरीलाल के हसीन सपनों में बावलापन थाहमारी इन प्रतिक्रियाअों में घटिया काइंयापन है.   

  सुनक एक प्रतिबद्धसमर्पित ब्रितानी नागरिक हैं जैसा कि उन्हें होना चाहिए.  उनका विवाह एक भारतीय लड़की से हुअा है. उस भारतीय लड़की का परिवार- नारायण-सुधामूर्ति परिवार- भारत के सबसे प्रतिष्ठित व संपन्न परिवारों में ऊंचा स्थान रखता है. इस लड़की से शादी के बाद सुनक इंग्लैंड के सबसे अमीर 250 लोगों में गिने जाते हैं. इसके अलावा सुनक का कोई तंतु भारत से नहीं जुड़ता है. न ऋषि सुनक भारत में जनमे हैंन उनके माता-पिता,यशवीर व उषा सुनक का जन्म भारत में हुअा है. उनके दादा-दादी जरूर अविभाजित भारत के पंजाब के गुजरानवाला में पैदा हुए थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया. दादा-दादी परिवार ने भी अर्से पहले गुजरानवाला छोड़ दिया था अौर अफ्रीका जा बसे थे जहां से 1960 मेंअर्द्ध-शताब्दी पहले वे इंग्लैंड जा बसे. जिस तरह अमरीका के राष्ट्रपति बराक अोबामा केन्या में जनमे थे अौर ईसाई धर्म में अास्था रखते हैंठीक वैसे ही सुनक इंग्लैंड में जनमेहिंदू धर्म में अास्था रखते हैं. हमें अपनी सोनिया गांधी से सुनक को समझना चाहिए जिनका जन्म इटली में हुअाजो जन्ममना ईसाई धर्म की अनुयायी हैं लेकिन एक भारतीय लड़के से शादी कर भारतीय बनीं तो अाज उनका कोई भी तंतु इटली से पोषण नहीं पाता है. धर्म की परिकल्पना एक संकीर्ण बाड़े के रूप में करने वालों के लिए सोनिया व सुनक जैसे लोग एक उदाहरण बन जाते हैं कि धर्म निजी चयन व अास्था का विषय हैहोना चाहिए लेकिन उससे नागरिकता या पहचान तय नहीं की जा सकती है. सुनक के मामले में ऐसा कर के हम इंग्लैंड के अंग्रेजों में मन में नाहक संकीर्णता का वह बीज बो देंगे जो कहीं है नहीं. यह न भारत के हित में हैन इंग्लैंड के. 

  रंग-धर्म-जाति-लिंग-भाषा अादि के मामले में दुनिया का मन जरा-जरा-सा बदल रहा है. हम उसे पहचानें तथा उसका सम्मान करेंयह हमारे व संसार की हमारी भावी पीढ़ियों के हित में है. 

   पूर्णकालिक राजनीतिक बनने से पहले सुनक इन्वेस्टमेंट बैंकर रहेफिर गोल्डमैन सांच तथा हेज फंड पार्टनर रहे हैं. अार्थिक जगत में बड़ा मुकाम रखने वाली कुछ अन्य कंपनियों से भी उनका नाता रहा. मतलब यह कि प्रारंभ से ही वे पैसों की दुनिया में चहलकदमी करते रहे हैं. विडंबना यह है कि पैसे वालों की दुनिया ने ही अाज पैसे का बुरा हाल कर रखा है जिससे दुनिया का बुरा हाल है. सवाल उठता है कि क्या अब इस बदहाल दुनिया को संभालने-संवारने का काम सिर्फ पैसों के खिलाड़ी कर सकते हैं हमने मनमोहन सिंह को देश की बागडोर थमा कर यह प्रयोग किया था. अार्थिक संकट को संभालने में वे किसी हद तक कामयाब भी हुए थे. लेकिन मनमोहन-काल देश को समग्रता में संवारने के लिए नहींबिगाड़ने के लिए याद किया जाता है. उसी विफलता में से अाज का शासन सामने अाया जिसके पास न अार्थिक समझ हैन भारतीय समाज की समग्र समझ ! 

  सुनक करोना-काल में इंग्लैंड के वित्तमंत्री थे. उन्होंने इंग्लैड को तब जिस तरह संभालाउसकी सर्वत्र तारीफ भी हुई. लेकिन कई दूसरी बातें भी हुईं जो बताती हैं कि उनके पास वह समग्र सोच नहीं है जिसके बगैर इंग्लैंड अाज के संकट से पार नहीं पा सकता है. ब्रेक्जिट से निकलने के बाद से हम देख रहे हैं कि इंग्लैंड अार्थिक रूप से  किसी हद तक निराधार हो गया है अौर गहरी राजनीतिक अस्थिरता से घिर गया है. 2008 से छाई वैश्विक मंदी का गहरा परिणाम वह भुगत रहा है. उत्पादक सूचकांक लगातार गिरता जा रहा है तथा रोजगार तेजी से सिकुड़ता जा रहा है. महंगाई अौर बेरोजगारी चरम पर है. ऊर्जा संकट उसे अंधकार में खींच रहा है तो यूक्रेन-रूस युद्ध उसके वैकल्पिक  रास्ते बंद करता जा रहा है. 

  बोरिस जान्सन की खिलंदड़ी राजनीति ने इंग्लैंड को इस तरह डरा दिया कि उसे रूस से अपनी सुरक्षा की चिंता होने लगी. परिणामत: उसका रक्षा बजट अंधाधुंध बढ़ने लगा जो अाज भी जारी है अौर उसे खोखला कर रहा है. कंजरवेटिव पार्टी भीतर से बिखरी हुईगुटों में टूटी हुई तथा अवसरवादियों से भरी हुई है. लेबर पार्टी के पास भी कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं है. सुनक के पास विकल्प कितने कम हैंइसे हम इस तरह पहचान सकते हैं कि सुनक ने अपने मंत्रिमंडल में उन मुख्य लोगों को बनाए रखा है जिन्हें 45 दिनों की प्रधानमंत्री लिज ट्रस चुना था अौर जिनकी सलाह व मदद से उन्होंने वह मिनी-बजट पेश किया था जिसने उनकी सरकार व उनके राजनीतिक भविष्य को ही लील लिया. ऐसी विकल्पहीनता में से सुनक को खुद को बेहतर विकल्प साबित करना है.  

  राजनीतिक व सामाजिक चुनौतियों के समक्ष सुनक नये भी पड़ेंगे अौर अकेले भी. उनका यह कार्यकाल ब्रितानी जनता द्वारा प्रमाणित नहीं हैइसका दवाब भी उन्हें झेलना होगा. मतलब यदि कांटों का ताज जैसी कोई उपमा होती है तो सुनक ने अागे बढ़ कर वह ताज स्वंय अपने माथे पर रख लिया है. हम उस माथे के लिए भी अौर उस ताज के लिए भी सहानुभूति रखते हैं अौर शुभकामनाएं भी भेजते हैं. ( 28.10.2022)

50वां न्यायाधीश और 75 साल का भारत

         संगीत में कुछ है ऐसा रहस्य कि जब आप शिखर पर पहुंचते हैं तो वह वहां आपकी बांह थामने को खड़ा मिलता है. वहां पहुंच कर ही संगीत का असली मतलब समझ में आता है - संग चलने वाला गीत ! हमारा भौतिक जीवन भी दूसरा कुछ नहींसंगीत का ही एक तेज आलाप है. इसलिए इसमें हैरान होने जैसा कुछ भी नहीं है कि हमारी सभ्यता ने जिन लोगों के कंधों पर बैठ कर अपने कई सोपान चढ़े हैंवे सब कहीं-न-कहींकिसी-न-किसी तरह संगीत से आप्लावित रहे हैं - फिर चाहे आइंस्टाइन रहे हों कि रोमैं रोलां कि रवींद्रनाथ कि अलबर्ट स्वाइत्जर कि गांधी ! यह बात कम ही उभरी है कि अहमदाबाद में बंद पड़ गए संगीत विद्यालय को फिर से शुरू करवाने की जद्दोजहद में गांधी ऐसे लगे थे मानो आजाद भारत का संगीत ही कहीं खो गया हो ! वे भातखंडे तक दौड़े थेअौर हमें बता गए:  हम संगीत का ऐसा संकुचित अर्थ न करें कि वह सधे हुए कंठ सेशुद्ध स्वर मेंताल के साथ गाने-बजाने का अभ्यासमात्र है. जीवन में एकरागता अौर एकतानता होने पर ही सच्चा संगीत प्रकट होता है. जब तक वह संगीत प्रकट नहीं हुआ हैतब तक देश में अराजकता या कुराजकता रहने ही वाली है अौर गुलामी से हमारा छुटकारा संभव नहीं है.  

           सर्वोच्च न्यायालय के हमारे 50वें मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ का संगीत-प्रेम भी किसी से छुपा नहीं है. वे जिस महत्वपूर्ण जिम्मेवारी को एक अत्यंत नाजुक घड़ी में अंगीकार करने जा रहे हैंउस जगह कभी उनके पिताश्री यशवंत वी. चंद्रचूड़ विराजते थे. पिता यशवंत प्रशिक्षित शास्रीय संगीतज्ञ थे. धनंजय चंद्रचूड़ ने कानून की बारहखड़ी जब भी पढ़ी होघर में संगीत की बारहखड़ी बचपन से ही सुनी-पढ़ी है. उनकी मां को शास्रीय गायन सिखाने उनके घरदूसरा कोई नहींकिशोरी अमोनकर आती थीं. संगीतवह भी किशोरी अमोनकर सेयशवंत चंद्रचूड़ में जैसे घुट्टी में मिला है. उन्होंने ही बताया है हमें कि जब एक बार उन्होंने किशोरी अमोनकर से अॉटोग्राफ मांगा तो किशोरी अमोनकर ने लिखा :  संगीत हमें संगीतमय करता हुआ मौन तक पहुंचाता है : म्यूजिक म्यूजिकली लीड्स अस टू साइलेंस ! न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से यह देश अौर इसकी लोकतांत्रिक आत्मा अाज बस एक ही मांग करती है कि वह संगीतमय न्याय की नजरों से हमें देखे अौर संगीतमय मौन की भाषा में अपना फैसला सुनाए. यह देश आज जितना बेसुरा हुआ है उतना पहले कभी नहीं था. पहले भी यह संगीत विशारद तो नहीं था लेकिन रियाज में लगा हुआ था. आज तो बेसुरे को ही तानसेन साबित करने व मनवाने की हवा बहाई जा रही है. जब विधायिका बेसुरा गाने लगती है तो कार्यपालिका फटे बांस-सा राग अलापती है. यही वह नाजुक व घातक घड़ी है अाज जब न्यायपालिका सारे संसदीय तंत्र को राग बदलने परसंवैधानिक आलाप लेने पर तरीके से मजबूर करे.  

         हमारे संविधान से लोकतंत्र का दो चेहरा उभरता है : एकसंसदीय लोकतंत्र हैदूसरा संवैधानिक लोकतंत्र है. संसदीय लोकतंत्र एक ढांचा हैअावरण है जिसके भीतर संसद चलती हैकानून बनते हैंअदालतें चलती हैंझंडा लहराता हैलाल किले से अभिभाषण होते हैंफौजी परेड अादि होती है.  यह सब पहले भी इसी तरह होता था - 1947 से पहले भी ! तब भी यह सब था लेकिन जो नहीं थी वह थी आजादी ! अाजादी के बिना यह सारा तामझाम व्यर्थ था. उस एक आजादी को पाने में इतने सारे बलिदान हुए अौर तब कहीं जा कर यह संभावना पैदा हुई कि हम संसदीय लोकतंत्र को ज्यादा आत्मवान बना सकें. इस संभावना की सिद्धि के लिए संविधान सामने आया. हमने नियति से वादा किया कि हम भारत के लोग संविधान के रास्ते चल करअपने संसदीय लोकतंत्र को संवैधानिक लोकतंत्र से जोड़ेंगे. हम मानते थे कि इस साझेदारी में से वह आजादी जन्म लेगी व संपुष्ट होती चलेगी जिसके बिना संसदीय लोकतंत्र एक अौपचारिकता बन कर रह जाता है. संवैधानिक लोकतंत्र संसदीय लोकतंत्र को रास्ता भी बताता है अौर भटकने से भी रोकता है. पूछा तब भी गया थाआज भी पूछा जाता है कि संवैधानिक लोकतंत्र भटके तो इसकी संभावना नगण्य है क्योंकि इसकी नकेल संविधान के खूंटे से बंधी होती है. संविधान लिखित हैखुला हुआ हैसबके देखने-जांचने के लिए वह 24Xउपलब्ध हैअौर संसदीय लोकतंत्र यदि समर्थ व सावधान है तो उसकी नकेल भी काम करती ही है. हमारे संविधान की ऐसी कुशल संरचना है कि इसका कोई भी शक्ति-तंत्र अपने में स्वयंभू नहीं है. सभी परस्परावलंबी हैं. लेकिन संसदीय तंत्र अपनी संख्या व अपने तंत्र के बल पर हमेशा स्वंयभू बनने की कोशिश में रहता है.  

          यही असली संकट है. संसदीय तंत्र तख्ततिजोरी व तलवार के गर्हित त्रिकोण में घिर गया है. कल तक जिन बाहुबलियों के बल पर सत्ता पाई जाती थीउन्होंने दूसरों के लिए काम करना बंद करवहां खुद की जगह बना ली है. जो कुछ दूसरे बचे-खुचे सांसद हैंवे भी उन्हीं की क्षत्रछाया में जीना पसंद करते हैं. हर दूसरे दिन वह अांकड़ा प्रकाशित होता है कि इस लोकसभा में कितने सांसद ऐसे हैं जिन पर आपराधिक आरोप दर्ज हैं. अांकड़े तो अाते हैं लेकिन एक उदाहरण भी ऐसा नहीं है कि जब किसी पार्टी ने अपने अपराधी सांसद से इस अाधार पर छुट्टी पाई हो. ऐसा ही विधायकों के साथ भी है. अब तो राज्यसभा आदि में जो मनोनयन हो रहे हैं उनमें भी ऐसे लोगों की मौजूदगी अाम है. जिसे अंग्रेजी में हेट स्पीच’ कह कर थोड़ा सौम्य बनाने का प्रयास होता है अौर उसकी अाड़ में यह बहस भी खड़ी की जाती है कि अाप कैसे फैसला करेंगे कि किसे हेट स्पीच’ कहेंगेकिसे नहींवह सीधे तौर पर संविधान से घृणा की घोषणा है. हम संविधान का वह सब कुछ हजम कर जाते हैं जो हमारे अनुकूल पड़ता हैउन सबकी धज्जियां उड़ाते हैं जो हमारी मनमानी में राई भर भी बाधा खड़ी करता है. यही वह जगह है जहां संवैधानिक लोकतंत्र को अपनी मजबूत उपस्थिति बनानी व बतानी चाहिए. लेकिन वह ऐसी जिम्मेवारी के निर्वाह में विफल हो जाता है.          

         लच्छेदार भाषणों तथा कातर बयानों की अाड़ में अाप इस विफलता को छिपा नहीं सकते हैं बल्कि ऐसा रवैया संविधान के संदर्भ में अपराध है. अदालतों मेंसर्वोच्च अदालत में भीऐसा होता रहता है. यह वह बेसुरा राग है जिसमें से अशांति व अविश्वास पैदा होता है. अदालत का काम समाधान बताना नहींसंविधान की कसौटी पर सही या गलत बताना है. समाधान बताने का गलत रास्ता पकड़ने के कारण अदालतों ने अपनी प्रतिष्ठा व अपनी सामयिकता खोई है. अदालतें जब कभी ऐसी टिप्पणी करती हैं कि पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में इन्हें’ रिहा किया जाता हैतो दरअसल वे अपराध या अपराधी की नहींअपने कर्तव्यच्युत होने की घोषणा करती हैं. अदालत की सार्थकता ही यह है कि वह तथ्यों की तह तक जाए अौर फिर संविधान की तुला पर उसे तौल करसही व गलत का फैसला दे. यदि वह तथ्यों तक पहुंची ही नहीं है तो उसे फैसला सुनाने की जल्दीबाजी क्यों है वह उन अधिकारियोंपुलिसमंत्रियों अादि के खिलाफ कोई कदम क्यों नहीं उठाती है जिनके कारण तथ्यों तक पहुंचने में वह समर्थ नहीं हुई अौर न्याय की पड़ताल में वह विफल रही ?    

          अदालत सही-गलत का निर्णय देने से पहले किसी का मुंह जोहेमुंहदेखी बात कहेक्या कहने से क्या प्रतिफल मिलेगा इसका हिसाब करेतो वह न्यायालय नहींबाजार है. बाजार में हर जिंस की कीमत होती हैतो आपके निर्णय की भी कीमत लगाई जाती हैअौर अदा भी की जाती है. इस तरह अदालत फरमाइशी गीतों का कार्यक्रम बन जाती है. हम यह भी देखते हैं कि अदालतें सामाजिक सवालों पर कभी-कभार सत्ता की मान्य धारा से भिन्न कोई रुख ले भी लेंलेकिन राजनीतिक सवालों पर निरपवाद रूप से सत्ता के साथ जाती हैं. इससे न्यायपालिका का पूरा चरित्र विदूषक-सा बन जाता है अौर समाज गहरे हतोत्साहित हो जाता है.  

         ऐसे मुकाम पर 75 साल का यह महान देश अपने 50वें न्यायाधीश से संगीत की वह तान सुनना चाहता है जो लोकतंत्र की अात्मा को छुए तथा उसके पांव मजबूत करे. ( 20.10.2022) 

 

मुंह और मुखौटों की आवाज

   मुखौटे बहुत खतरनाक होते हैं लेकिन बड़े काम के होते हैं. जो आप मुंह से नहीं बोल पाते हैं, मुखौटा वह आसानी से बोल सकता है. मतलब हींग, ना फिटकरी, रंग फिर भी चोखा ! 

   जो जानते हैं वे जानते हैं कि कब मुंह बोल रहा हैकब मुखौटाजो नहीं जानते हैं वे मुंह की कम सुनते हैंमुखौटे की ज्यादा. यह खेल तब तक मजे से चलता है जब तक आप मुखौटे को मुखौटा कह करउसका मुखौटा छीनने नहीं लगते हैं. ऐसा खतरनाक खेल हुआ है 80 के दशक में. भारतीय राजनीति में चाणक्य होने का मुगालता पालने वाले एक आचार्यजी नेभारतीय संस्कृति की अलंबरदार पार्टी के शीर्ष नेता को मुखौटा कह दिया. उन्हें भरोसा था कि मुखौटा जिस मुंह का मुखौटा थावह असली मुंह उनकी रक्षा करेगा. लेकिन मुखौटा-शास्त्र का प्राथमिक पाठ वे भूल गए कि जो असली मुंह होता हैवह मुखौटे की कीमत जानता है. वह मुखौटे को कभी अरक्षित नहीं छोड़ता है. 

   ठीक भी है नमुखौटा खिसक जाए तो फिर तो मुंह ही बचेगाऔर वह मुंहमुंह दिखाने लायक नहीं होगा तभी तो मुखौटे की जरूरत पड़ी. तो मुंह मुखौटा को ही बचाएगामुखौटा-चोर को नहीं. सोतब हुआ यूं कि मुंह भी बचा रहा और मुखौटा भीरेगिस्तान-बियाबान में जो गया वह मुखौटा-चोर थाऔर ऐसा गया कि आज तक उसकी घर वापसी नहीं हुई है. 

   आज हमारे सामने 2014 के बाद वाले मुखौटे हैं. लेकिन आगे की बात करने से पहले मैं बता दूं कि आधुनिक विज्ञान के युग में मुंह कौन और मुखौटा कौनयह स्थिर सत्य नहीं होता है. कभी मुंह मुखौटा बन जाता हैकभी मुखौटा मुंह बन जाता है. बहुत ज्ञानी लोग ही जान पाते हैं कि कौनकब किसका मुखौटा है और कौनकिसेकब मुंह बनने की अनुमति दे रहा है. तो यूं समझ लीजिए कि होते तो दोनों मुखौटा ही हैंमुंह बनने का खेल खेलना पड़ता है.

   तो अब बात की बात पर आते हैं. एक है राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और एक हैं दत्तात्रेय होसबाले ! संघ परिवार ने एक को काम दिया है समाज को बेहोश रखने काहोसबाले साहब को काम दिया है इस सरकार को होश में लाने व रखने का. आप समझ ही सकते हैं कि जिस काम पर होसबाले लगाए गए हैंवह काम वे तभी कर सकते हैं जब सरकार उसके लिए रजामंद हो. इसे मुखौटा निर्माण की प्रक्रिया कहते हैं. तो बात कुछ इस तरह तै हुई कि जब होसबाले होश में रहेंगे तो मुंह रहेंगेजब होश छोड़ देंगे तो मुखौटा बन जाएंगे. 80 के दशक वाला हादसा फिर न होइसलिए यह सावधानी जरूरी है. तो आइएअब कहानी पर आते हैं.  होसबाले साहब ने कहा कि देश में भयंकर गरीबी हैबेरोजगारी है तथा विषमता का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है. उन्होंने भारतीय संस्कृति का सहारा लिया और बोले कि ये सब दानव हैं जिनका सामना देश कर रहा है. बात को विज्ञान का बल देना भी जरूरी होता हैसो वे बोले : देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जो गरीबी की रेखा के नीचे हैं जिन्हें देख कर बेचारे होसबाले दुखी हो जाते हैं. फिर उन्होंने कहा कि 23 करोड़ लोग ऐसे हैं कि जो प्रतिदिन 375 रुपयों से कम कमाते हैं. उनके मुताबिक देश में 4 करोड़ बेरोजगार हैं. फिर वे एक कदम आगे जाते हैं : कहा जाता है कि हमारा देश संसार की 6 सबसे बडी अर्थ-व्यवस्था में एक है. लेकिन क्या यह बड़ी सुखद स्थिति है कि देश के सबसे ऊपर के 1 फीसदी लोग देश की राष्ट्रीय आय के 20 फीसदी के मालिक हैं जबकि देश के 50 फीसदी के पास मात्र 13 फीसदी है. वे और आगे गए कि देश की बड़ी आबादी को पीने का साफ पानी व पौष्टिक आहार नहीं मिलता है. 

   किस्सा तमाम यह कि देश का यह हाल देख कर होसबाले साहब का होश गुम है. मैं सोच रहा हूं कि क्या देश का असली हाल बताने वाले ये आंकड़े ऐसे नये हैं कि जिन्हें पहली-पहली मर्तबा संघ-परिवार की विशेषज्ञ समिति ने खोज निकाला है नहींऐसे आंकड़े तो पता नहीं कब से हमारे सामने हैं. िफर आज इनकी बात क्यों यहां मुखौटा अपने खेल खेलता है. केंद्र व राज्य के कई चुनाव सामने हैं और संघ व पार्टी में कई सारों को सारे पासे जगह पर दिखाई नहीं दे रहे. सभी सावधान हैं कि कोई अनहोनी हो न जाए ! ऐसे में संघ-परिवार को एक तीर से कई शिकार करने हैं. 

   केंद्र में यह सरकार वापस लौटेउसे यह देखना है क्योंकि संघ-परिवार जानता है कि उसके लिए भारतीय जनता पार्टी से अधिक अनुकूल सरकार हो ही नहीं सकती है. लेकिन वह महसूस करता है कि मोदी-सरकार उस तरह इनके इशारे पर चलती नहीं है कि जिस तरह ये चाहते हैं. संघ चाहता है कि खेल के नियम वह तय करें,सरकार का काम खेलना भर हो. इसलिए यह मुखौटा सामने लाया गया. इसे दो कामों के लिए आगे किया गया है. ये आंकड़े मतदाताओं के सामने रखे तो गए हैं लेकिन दरअसल यह सरकार को सावधान करने के लिए हैं. इशारा यह है कि लाइन पर आअोनहीं तो सरकारी प्रचार की पोल खोली जा सकती है. होसबाले साहब को बारीकी से सुनेंगे तो पाएंगे कि वे यह भी बताते चलते हैं कि इस सरकार की किस योजना सेकौन-सी समस्या हल होगी. जहां वे गरीबी व शिक्षा व्यवस्था की बुरी दशा की बात करते हैं वहीं यह भी कहते हैं कि इसलिए ही नई शिक्षा-नीति का प्रारंभ किया गया है. स्वावलंबी भारत अभियानस्किल डेवलपमेंट आदि का उल्लेख भी करते हैं. वे कोरोना काल में मिली इस सीख की भी बात करते हैं कि ग्रामीण रोजगार गांव में ही विकसित हो तथा यह भी कि आयुर्वेदिक दवाओं के विकास की दिशा में सही कदम बढ़ाया जा रहा है. मतलबमुखौटा हटाएंगे तो आपको सरकार से नाराज होने जैसा कुछ नहीं मिलेगा. एक तेवर है जो सरकार को सावधान करता है कि हमसे बना कर चलो.

   आप देखेंगे कि संघ प्रमुख भागवत भी लगातार कुछ ऐसा कहते रहते हैं कि जो सरकार की दिशा से एकदम-से मेल नहीं खाता है. लगता हैरास्वंसं को सरकार से न केवल परेशानी हो रही है बल्कि उसके पास ज्यादा फलदायी दूसरी दिशा भी है. लेकिन यह भी गौर करने लायक है कि ये सब मिल कर डोर उतनी ही और वहीं तक खींचते हैं कि जहां से वह टूटने न लगे. सब कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे लेकिन एक हवा ऐसी बनी रहे कि कोई है जो अंकुश लगाने का काम कर रहा है. लेकिन न तो अंकुश लगता हैन लगाया जाता हैन सरकार की दशा-दिशा में कोई फर्क पड़ता है. ऐसा ही हाल हमारे सड़क कल्याण मंत्री का है. वे भी कुछ अलग व तीखा कहने की मुद्रा में बोलते हैं लेकिन मर्यादा का ध्यान रखते हैं. मर्यादा का ध्यान रखना भी चाहिए. मुखौटों ने मर्यादा तोड़ी तो वे टूट ही जाते हैं. फिर उनकी कोई राजनीतिक दशा बचती नहीं है. 

   इसलिए हम मुखौटों की बात सुनें जरूर लेकिन यह ध्यान रखें कि मुंह और मुखौटे में फर्क होता हैऔर कब मुंह बोल रहा है और कब मुखौटायह फर्क करने की तमीज अनुभव के बाद ही आती है. ( 06.10.2022)