Tuesday 24 March 2020

फांसी का जश्न


 वह हो गया जिसकी कोशिश पिछले 7 से ज्यादा सालों से की जा रही थी - निचली अदालतउच्च न्यायालयसर्वोच्च न्यायालयराष्ट्रपति अादि-अादि की अत्यंत जटिल प्रक्रिया से गुजरती हुई निर्भया वह पा सकी जिसकी कातर मांग उसने तब बार-बार की थी जब वह इंच-दर-इंच मौत केकरीब जा रही थी. 23 साल की कच्ची उम्र की उस लड़की का16 दिसंबर 2012 को जिस वहशियाना बर्बरता सेचलती बस में 6 युवकों ने बलात्कार किया अौर उसे मौत तक असह्य पीड़ा अौर अकथनीय अपमान के समुंदर में धकेल दिया13 दिनों की वह कहानी अाजाद हिंदुस्तान केइतिहास के सबसे शर्मनाक पन्नों में दर्ज है. अब उन 6 अपराधियों में से 5 जीवित नहीं हैं - निर्भया भी नहीं ! 

 अब हम हिसाब लगाएं कि किसनेक्या पायाकिसने क्या खोया ! निर्भया की मां-पिता ने अपनी बेटी खोई अौर ऐसा जख्म पाया जो इस फांसी के बाद भी उन्हें पीड़ा देता रहेगा. लेकिन उन्हें यह संतोष जरूर मिला कि उन्होंने अपनी बेटी के हत्यारों से वह बदला ले लिया जिसकी मांग उनकीबेटी ने की थी. दूसरी तरफ देखता हूं कि उन पांचों हत्यारों के परिवारजनों को कोई अपराध-बोध हुअा क्या वे समझ सके कि उनके बच्चों ने कैसा अमानवीय अपराध किया था क्या वे समझ सके कि ऐसे अपराध की जैसी सजा हमारा कानून देता है वैसी सजा उन्हें ठीक ही मिली शायद नहींशायद हां ! क्या कानून का पेशा करने वालों को इसका थोड़ा भी अहसास हुअा कि कानून के दांव-पेंच की अपनी जगह है लेकिन ऐसे मामलों में सामाजिक नैतिकता का तकाजा सबसे अहम होता है ?  कानून का पेशा करने वाले क्या यह समझ सके कि जिस तरह इन हत्यारों को बचाने की कोशिशकी गई उससे यह पेशा कलंकित हुअा है संविधान में किसी की जान बचाने की जितनी व्यवस्थाएं की गई हैं उन सबको अाजमाने का अधिकार अपराधी को भी है हीअौर काले कोट वालों को भी. लेकिन कोट का काला रंग मन को भी कलुषित करने लगेयह इस पेशे के लिए शर्मनाक है.       

 अाज मेरे हाथ के जिस अखबार में इस फांसी की खबर छपी हैमैं देख रहा हूं कि उसी अखबार में देश भर से कम-से-कम 10 बलात्कार की खबरें अाई हैं. अाज के अखबार में जो नहीं अा सकी हैंउनकी बात तो कौन जानता है ! इन सभी खबरों में कोई-न-कोई निर्भया मरी हैया जीते जी मररही है. 16 दिसंबर 2012 से अाज तक का हिसाब लगाएंतो कोई हिसाब ही नहीं है कि कहांकितनी निर्भया मरी या मर रही है. क्या इस फांसी का उन सब पर कोई असर हुअा ? … होगा ? … किसी के पास कोई जवाब नहीं है. तो क्या इसलिए पहली निर्भया के हत्यारों को फांसी नहीं होनीचाहिए थी नहींमैं ऐसा नहीं कह रहा हूं. फांसी की सजा अपने अाप में ही गलत हैअर्थहीन है अौर बांझ भी हैयह मानने वाले मेरे जैसे जितने भी लोग हैं उन सबको पता है कि हमारा देश जिस संविधान से चल रहा है उसमें फांसी की सजा है अौर हमारी अदालतें जिन मामलों को जांच-परख करउस प्रावधान के भीतर पाती हैं अौर फांसी की सजा देती हैंउनको फांसी होगी ही. इसलिए यह मुद्दा है ही नहीं कि फांसी होनी चाहिए या नहीं. यहां मुद्दा यह है कि क्या अपराधियों को फांसी देने का मतलब देश के विवेक को भी फांसी देना होना चाहिए क्या हम ऐसा एक समाज बनाना चाहते हैंकि जो लाशों को देख कर तृप्त होता है ?

 इसलिए चिंता समाज के मन की है. निर्भया के साथ जो हुअा उसका जितना गुस्सा देश में उभरा था अगर वह गुस्सा संकल्प बन कर हमारे मन में उतर गया होताहम मन से शर्मिंदा हुए होते तो अब तक महिलाअों की दुनिया बदल गई होती अौर पुरुषों की दुनिया संवर गई होती. लेकिन वहगुस्सा मोमबत्तियां जला कर काफूर हो गया.  न हमारा संकल्प बनान हमें शर्म अाई. जो भी हत्यारे कानून की पकड़ में अाएउन पर मुकदमा चला. हमारा संविधान किसी भी नागरिक को अपने को निर्दोष साबित  करने के जितने भी अवसर देता हैवे सारे अवसर निर्भया के अपराधियों को भी मिले. लेकिन उनका अपराध उन्हें पता थाउसकी सजा हमें पता थी- खास कर वर्मा कमीशन की सिफारिशों को मान्य करने के बाद. इसलिए उनकी तरफ से उनके वकील ने जितनी भी कोशिशें कीं वह अपराधियों को निरपराध साबित करने की नहीं थींउनकी सजा टालने की चालाकी भर थी. हम यहशर्मनाक प्रसंग सात सालों से देखते अा रहे थे कि उनका एक-के-बाद-दूसरा क्षद्म टूटता जाता थाउनकी हर बेईमानी अौंधे मुंह गिर रही थी अौर फिर भी यह निकम्मा मुकदमा खींचा जा रहा था. निर्भया के हत्यारों को भारतीय न्याय-व्यवस्था से जो न्याय मिलना थावह तो मिल चुका था. बस उनकावकील उन्हें बता रहा था कि वह कानून को धोखा देने में सफल होगा. वकालत के पेशे के लिए यह शर्मनाक था. क्या यह दृश्य अापको उदास नहीं करता है कोई मर रहा है या मारा जा रहा हैयह प्रसंग अानंद का कैसे हो सकता है किसी की फांसी तिरंगा लहरानेभारत माता की जय के नारेलगानेजयश्री राम की गूंज उठाने का अवसर कैसे बन सकता है 

 निर्भया की मां की भावना मैं समझता हूं अौर उस दर्द का सम्मान भी करता हूं लेकिन उनसे भी कहना चाहता हूं कि इन अपराधियों की फांसी से अापको अपनी बेटी की अंतिम गुहार पूरी करने का संतोष मिला होगाकहीं बदला लेने का भाव भी तुष्ट हुअा होगा लेकिन फांसी से निर्भया को न्यायकैसे मिल सकता है निर्भया के लिए न्याय तो तभी हासिल होगा जब हमारा समाज इतना सावधान बन जाए कि दूसरी कोई निर्भया न बने ! इस फांसी से ऐसा कोई संकल्प देश के मन मेंयुवाअों के दिल में बना हो या कि बन रहा होऐसा मुझे नहीं लगता है. जब तक ऐसा न हो तब तक निर्भयाको न्याय कैसे मिल सकता है जान के बदले जान या अांख के बदले अांख का मानस समाज के विनाश का मानस हैन्याय का नहीं. 

 यह समाज का पाशवीकरण है. जघन्य-से-जघन्य अपराधी का अंत भी हमें अाल्हादित कैसे कर सकता है हम अौर हमारा समाज अक्षम है कि वह ऐसे अपराधी पैदा होने से रोक नहीं पाते हैंअौर हमारा कानून अभी इनकी हत्या कर देने से अागे का कोई रास्ता खोज नहीं पाया हैइस भाव सेहम इन हत्याअों को सह जाते हैं. लेकिन हम इनका जश्न मनाएंबार-बार इसकी मांग करें कि यह हत्या जल्दी कर दी जाए अौर व्यवस्था के तमाम पुर्जे इसे न्याय हो जाने का नाम दें क्या यह मानवीय हैशोभनीय है क्या यह हमारे भीतर किसी संवेदना का संचार करती है क्या यह हमें हर दूसरे केप्रति उदार बनाती है अगर नहींतो यह उस मानवीय समाज की दिशा नहीं हो सकती है जिसके बिना न वह निर्भया सुरक्षित रहीन अागे की कोई निर्भया सुरक्षित रह सकेगी. 

 हम इस सवाल का कभी सामान तो करें कि अाखिर बलात्कार बुरा क्यों है यह बुरा इसलिए है कि यह बल के बल पर किया जाता है. इसमें स्नेहसंबंध अौर सहमति की कोई जगह ही नहीं है. जहां स्नेहसंबंध अौर सहमति की जगह नहीं हैउसका बेशर्तपूर्ण सम्मान नहीं है वहीं बलात्कारहै. इसलिए यह बलात्कार स्त्री के साथ भी होता हैपत्नी के साथ भीनागरिक के साथ भीविधर्मी के साथ भीमजदूर के साथ भी. हम ठीक से समझें तो पाएंगे कि मॉब लिंचिंग भी बलात्कार ही हैअौर अभी-अभी दिल्ली में जो सांप्रदायिक दंगा हुअा वह भी घनघोर बलात्कार ही था. तो हम सभीतरह के बलात्कार से बचेंउनका निषेध करें अौर बलात्कारी के बलात्कार से भी बचें. यह काम हमने अपनी न्याय-व्यवस्था को सौंपा हैउसे ही यह करने दें - अपने तरीके सेअपनी गति से ! 

( 23.03.2020)