Friday 27 July 2018

इमरान का पहला अोवर



हाथ की रेखाएं पढ़ने वाला ज्योतिषी किसी टेढ़े हाथ को देख कर, जिसके बारे में कुछ भी बोलना ‘हक’ में नहीं होगा ऐसा उसे लगता है,  अक्सर ऐसा कहता मिलता है कि अभी रेखाएं पूरी बनी नहीं हैं, तो क्या पढूं ! ऐसा ही है पाकिस्तान की राजनीति का चेहरा भी। अभी इतना बना ही नहीं है कि उसे पढ़ा जा सके अौर कुछ कहा जा सके। इसलिए बात पाकिस्तान की राजनीति की नहीं, इस चुनाव से उभरे इमरान खान की करें गे हम जिन्हें पाकिस्तान के फौजी प्रतिष्ठान ने अपना अादमी मान कर सामने किया, उनका माहौल बनाया है अौर उनके लिए वोट बटोरे। इस तरह इमरान पाकिस्तान के वजीरे-अाजम बन गये हैं। पाकिस्तान के इतिहास में यह दूसरी घटना है जब एक चुनी हुई सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया है अौर वह दूसरी चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंप रही है। इमरान पाकिस्तानी राजनीति की पिच पर बड़ी शिद्दत से अपना पहला अोवर फेंकने में जुटे हैं। वे अपनी भावी सरकार का नीति वक्तव्य भी दे रहे हैं जबकि उन्हें भी अौर दूसरे किसी को भी नहीं मालूम है कि एक मुल्क के नाते पाकिस्तान कहां खड़ा है अौर किधर जा रहा है। यह भी सवाल खड़ा है कि उनकी सरकार कौन चलाएगा।  
यह सब खासा दिलचस्प है- अौर खासा खतरनाक भी। भारतीय उप-महाद्वीप में इमरान की दो ही छवियां है - एक है अाला क्रिकेटर की अौर दूसरी है एक बिगड़ैल शोहदे की। ये दोनों छवियां राजनीति में उन्हें कोई मजबूत पहचान नहीं देती हैं। क्या इमरान की कोई राजनीतिक पहचान है भी ? वे एक अात्ममुग्ध इंसान रहे हैं जिसने जीवन को भी खिलंडरे  की तरह खेला है। उनके साथी खिलाड़ी भी उनके खिलाड़ी रूप के अलावा दूसरी कोई बात करते नहीं हैं अौर उनकी अब तक जितनी बीवियां रही हैं उनमें से कोई भी उनकी एक अच्छी व गैरतमंद छवि की गवाही नहीं देती हैं। फिर पाकिस्तान ने उन्हें क्यों चुना ? इमरान को इस सवाल का जवाब खोजना है क्योंकि इस जवाब में ही वह चुनौती छिपी है जिसका सामना वजीरे-अाजम की कुर्सी पर बैठते ही उनको करना है। 
यह हर तरफ से घिरा-पिटा-घबराया तथा अपमानित पाकिस्तान  है जिसे एक खुली संास की जुस्तजू है। लगातार फौजी बूटों से कुचली जाती अात्मा का यह मुल्क हर तरह से बेहाल कर दिया गया है। अशिक्षा-कुशिक्षा, गरीबी-जहालत, धार्मिक-जातीय उन्माद, अांतरिक अशांति अौर भारत का भूत, बेहिसाब राजनीतिक भ्रष्टाचार अौर फौजी हुक्मरानों का स्वार्थी गंठजोड़ - पाकिस्तान इन्हीं तत्वों से बनाया गया था, इन्हीं के हाथों बर्बाद होता रहा। पश्चिमी ताकतों ने इसका राजनीतिक दोहन किया, तो पाकिस्तानी हुक्मरानों ने इसे व्यापार में बदल लिया। मुहम्मदअली जिन्ना ने भारत से अपना मुल्क कुछ इस तरह छीना कि छीना-झपटी इसकी कुंडली में ही लिख गया। सिया-सुन्नी, मुजाहिर, अफगानी, सिंधी, हाफिज सईद जैसे सब इस मुल्क से छीनते ही रहे। बाकी सारी कसर भारत से हुए एक-के-बाद-दूसरे युद्धों ने निकाल दी। तिकड़मों से मुल्क पर कैसे काबिज होते हैं, यह कला अापको सीखनी हो तो अापको पाकिस्तान जाना चाहिए।  पाकिस्तान के अवाम के अागे हमें सर झुकाना चाहिए कि उसने ऐसे  हालात में बसर करते हुए भी जब भी किसी ने जम्हूरियत का नारा लगाया, उसने अागे बढ़ कर उसका साथ दिया। वह हर बार छला गया है अौर हर बार वह धूल झाड़ कर उठ खड़ा हुअा। इस चुनाव में इमरान ने ‘नया पाकिस्तान’ का नारा बुलंद किया  था। लेकिन इमरान की अपनी झोली में क्या नया था ? पाकिस्तान के लिए क्रिकेट का विश्वकप जीतने के बाद इमरान ने अपना रास्ता बदला, क्योंकि क्रिकेट से जितना निजी गौरव निचोड़ा जा सकता था, उन्होंने निचोड़ लिया था। अपनी पहचान का नया पन्ना खोलने के लिए उन्होंने अपनी अम्मी की याद में अस्पताल बनवाने का अभियान चलाया अौर उसमें अपने सारे ताल्लुकात का इस्तेमाल किया। यह छवि बदलने का अभियान था जिसका अगला कदम राजनीति में पड़ना ही था जो १९९६ में पड़ा अौर पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी का जन्म हुअा। हर अात्ममुग्ध, अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति को राजनीतिक सत्ता अपनी पहचान स्थापित करने का सबसे अासान व निश्चित रास्ता दिखाई देता है - इमरान खान से नरेंद्र मोदी तक। पार्टी बनी तो अगला मुकाम चुनाव ही हो सकता था, सो गाजे-बाजे के साथ इमरान ने १९९७ का चुनाव लड़ा । नतीजा यह अाया कि इमरान ‘१९९७ के हाफिज सईद’ साबित हुए। फिर तो हर घिसे-पिटे राजनीतिज्ञ की तरह इमरान का भी यही काम बन गया - चुनाव लड़ना ! २००२ में बमुश्किल अपनी सीट निकल पाए थे इमरान। तब से अाज तक पाकिस्तान के असली सवालों से जैसे कोई नहीं हुअा वैसे ही इमरान अौर उनकी पार्टी भी रू-ब-रू हुई ही नहीं। बेनजीर भुट्टो, अासिफ जरदारी, परवेज मुशरर्फ, नवाज शरीफ - ये सब-के-सब पाकिस्तान के एनअारपी शासक रहे - जब तक गद्दी रही पाकिस्तान में रहे; गद्दी गई तो विदेश में धरी अपनी अकूत दौलत वाले अालीशान अारामगाहों में रहने लगे। इमरान पर अब तक ऐसी नौबत अाई ही नहीं है क्योंकि शिखर पर तो वे अभी ही पहुंचे हैं। लेकिन उनका एक पांव हमेशा ही विदेश में रहता रहा है।     
चुनाव में उनका नारा था - नया पाकिस्तान ! अब यही नारा उनके गले की फांस बन सकता है या फिर उन्हें अासमान में पहुंचा सकता है। कोई जानता नहीं है कि पाकिस्तान के नया बनाने की कोई परिकल्पना इमरान के पास है।  अपनी जीत के बाद वे जब लोगों से मुखातिब हुए तो कहा कि पाकिस्तान के मजलूमों के हालात कैसे सुधरेंगे यह जानने के लिए वे स्वंय चीन जाना अौर ‘अपने’ लोगों को चीन भेजना चाहेंगे ताकि समझ सकें कि चीन वालों ने किस तरह अपने करोड़ों गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया है। उनके पूर्ववर्तियों ने नये पाकिस्तान की खोज मुख्यत: अमरीका में की; कभी रूस में की; अभी चीन का नंबर है। इमरान भी पाकिस्तान की खोज चीन में करेंगे। पाकिस्तान की अपनी धरती में, अपने लोगों में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे नये पाकिस्तान के निर्माण में मदद मिल सके ? बाहरी ध्यान-ज्ञान तभी काम का होता है जब अपनी जमीन तैयार हो। चीन गये बिना ही चीन से यह सीखा जा सकता है। 
पाकिस्तान के सामाजिक जीवन में बहुत बड़े पैमाने पर राजनीतिक-सामाजिक हस्तक्षेप की जरूरत है। शिक्षा का पूरा ढांचा नया करना है,  वहां के लोक उद्योगों को प्रोत्साहित कर खड़ा करना है। फौज की पकड़ कमजोर करनी है, कठमुल्लों को उनकी जगह बतानी है, अापराधिक धंधों में लिप्त युवाअों को उससे विरत करना है। अवैध हथियार व नशे का व्यापार इसे खोखला किए जा रहा है। अातंकी कारोबार पाकिस्तान से जोंक की तरह चिपका हुअा है। उसका अॉपरेशन ही करना होगा जिसके रास्ते में फौज अाएगी। तो जिसके कंधे पर बैठ कर अाप इस कुर्सी तक पहुंचे हैं, उससे कैसे निबटेंगे ? 
फिर भारत का सवाल मुंह बाये खड़ा है। भारतविरोध वहां के हर राजनीतिज्ञ के लिए संजीवनी बूटी माना जाता है। इमरान भी उसका ही सेवन करते रहे हैं। इसलिए उन्होंने अपने पहले संबोधन में कश्मीर की बात की। अगर भारत से चीं बुलवाने की मंशा न हो तो कश्मीर अब कोई मुद्दा ही नहीं है। वक्त ने खुद ही उसे सुलझा दिया है। जरूरत है दोनों तरफ से राजनीतिक ईमानदारी व निर्णय लेने के साहस की। लेकिन अपने चुनावी प्रचार में इमरान ने जो भूमिका ली उसमें ऐसी कोई संभावना दिखाई नहीं देती है। इस मनोभूमिका में से नया पाकिस्तान नहीं निकलेगा। नया वजीर-ए-अाजम या नई सरकार से देश नया नहीं बनता है। नये सपनों से देश नया बनता है। इमरान ने ऐसे सपने देखे हैं कभी ? इमरान ने असल पाकिस्तान देखा है कभी ? 
( 27.07.2018)        

यह अादमी है कि जिसकी संभावना कभी खत्म नहीं होती


        मुझे अात्मकथाएं बहुत भाती हैं, क्योंकि मुझे अादमी बहुत भाते हैं. अगर कहीं, कोई ईश्वर है तो मैं उसकी इस कारगुजारी पर बहुत हैरान हुअा नहीं रहता हूं कि उसने इतने सारे इंसान बनाए बल्कि इस बात से हैरान हुअा रहता हूं कि उसने कैसे रची होगी इतनी भिन्नता ? हर अादमी अपनी सोच में, अपने व्यवहार में, अपनी अभिव्यक्ति में कितना अलग होता है ! अरबों-खरबों लोगों में से किसी दो अादमी के अंगूठे का निशान एक नहीं होता है, ऐसा कहते हैं लेकिन दो अादमी भी तो एक-से नहीं होते हैं ! 
कोशिश करें तो शायद अाप भी मेरी तरह हो जाएंगे. अादमी कौन है, इस पर नहीं, सारा ध्यान इस पर रहता है मेरा कि अादमी कैसा है, कैसे सोचता है, प्रतिकूलताअों से कैसे निबटता है अौर कैसे रचता है अपना वह संसार जिसमें वह राजा तो होता है लेकिन दूसरे सबके लिए भी अफरात जगह बनाता है. अादमी को देखने का यही कौतूहल मुझे अात्मकथाअों, संस्मरणों अौर ऐतिहासिक हस्तियों से ले कर अाम अादमियों तक ले जाता है अौर वे मुझे अपने साथ बहा ले जाते हैं. ऐसे ही मुझे हमेशा बहा ले जाते हैं नेल्सन मंडेला जिनकी शताब्दी का यह वर्ष है अौर दुनिया में यहां-वहां उनकी याद की जा रही है.
मुझे अक्सर, जीवन की संकरी-घुमावदार सड़कों से गुजरते हुए यह अादमी याद अाता है. जिंदगी अाखिर तो एक सफर ही है न जिसमें हम सब अकेले चलते हुए अनगिनत के साथ होते हैं. लेकिन जेल का एकाकी जीवन कभी भुगता है ? वहां कोई नहीं होता है साथ, अौर जो होते हैं साथ वे अपनी तमाम कुरुपताअों के साथ होते हैं. मंडेला से तब नया ही परिचय हुअा था. वह सब जान-पढ़ चुका था जो जानना-पढ़ना किसी बड़े अादमी के बारे में जरूरी होता है अौर फिर किसी दिन मैं बंदी मंडेला के संस्मरण पढ़ने बैठा था - २७ साल लंबी कैद के बाद की यादें ! पढ़ने से पहले भी मैंने याद किया था कि कभी गांधी नहीं रहे इतनी लंबी जेल में लेकिन यह अादमी रहा; अौर गांधी की तरह अहिंसा, सत्य, संयम ... कहूं कि अभिनव क्रांति की ऊष्मा से दीपित कोई कवच भी नहीं था उसके पास ! ... हिंसा अौर बदले की भावना से भरा, अातंकवादी रास्तों का राही था वह जब जेल पहुंचा था. इसलिए मैं उसकी किताब में कुछ दूसरा ही खोज रहा था कि मैंने पढ़ा - वे लिख रहे हैं -  रोबेन द्वीप की जेल की उस एकांत सेल में इतने साल बिताने के बाद भी, जहां मुझे पूरे साल में एक ही अादमी से मिल सकने की अौर छह माह में मात्र एक पत्र ही पाने की इजाजत थी, मनुष्य स्वभाव की अच्छाइयों पर से मेरा भरोसा कभी कमजोर नहीं पड़ा ! ... मैंने पढ़ा अौर मैं रुक गया - फिर से पढ़ा कि कहीं मैंने पढ़ने में या समझने में गलती तो नहीं की लेकिन जो लिखा था वह इतनी पवित्रता से लिखा था कि न लिखने में अौर न समझने में कोई चूक संभव ही थी. 
मैंने अपने भीतर इस वाक्य की सनसनाहट सुनी ! जिसके साथ कभी किसी ने अच्छा बर्ताव किया ही नहीं, जो अपनी चमड़ी के रंग के कारण ही छोटी उम्र से प्रताड़ित, अपमानित अौर दमित किया जाता रहा; गोरी चमड़ी की अहमन्यता से जूझने में जिसने कभी साधनों की पवित्रता अादि का विचार किया नहीं, उसका मनुष्य स्वभाव की अच्छाइयों पर विश्वास बना कैसे ? अौर २७ सालों तक टिका कैसे !! ... इस अादमी ने जैसे झकझोर कर जगाया था मुझे ! ... यह अादमी जब रोबेन द्वीप की जेल के भीतर पहुंचाया गया था तब उस पर वसंत उतरा हुअा था... लंबा कद, गठा हुअा कसरती बदन, मजबूत मुक्का अौर लंबी टांगों के बल पर तेज चलती काया ! इस अश्वेत नेता के नाम से डरते थे लोग !! अौर जब २७ सालों की लंबी, शारीरिक श्रम से टूटती एकाकी जेल काट कर यह अादमी बाहर अाया तब तक वसंत जा चुका था, लंबा कद कुछ झुक कर चलने लगा था, तुर्शी की जगह पूरे व्यक्तित्व में सनसनाहट भरी उत्कंठा दौड़ने लगी थी, अौर सुबह की चमकीली धूप-सी खेलती अपनत्व भरी मुस्कान जैसे उनका पूरा चेहरा चुनती थी. 
गांधी की बात छोड़ दें हम तो इस सदी में क्षमा की शक्ति का ऐसा अाराधक मंडेला के सिवा दूसरा कोई मिलेगा नहीं. कुल ९५ साल की जिंदगी में से २७ साल जेल में कटे अौर ५ साल सत्ता में ! बाकी के ६३ साल अविराम यात्रा के रहे; अौर यह यात्रा बहुत कुछ सिंदबाद की तरह रही. जिसे अंधेरे में चलना कहते हैं अौर खुद ही रोशनी तलाशते हुए, रोशनी बनना कहते हैं, मंडेला की यह यात्रा ऐसी ही रही. गांधी को भी मंडेला ने खोजा तो अपनी इसी अनुभव-यात्रा के क्रम में ! अौर ऐसी यात्रा में जो मिलता है वही पाथेय बन कर ताउम्र साथ निभाता है. अौर इस यात्रा की पूरी अवधि में कितना काम किया इस अादमी ने ! तूफानों के बीच, गिरती मस्तूलों को थामने से ले कर नई मस्तूलें बांधने से लेकर अपना कंपास स्थिर करने तक का काम ! …अथक काम !!  एक ऐसे मुल्क में, जहां रंगभेद को बनाए रखना ही एकमात्र नागरिक गतिवििध हो, किसी अश्वेत नाराज युवा का जीवन कैसा रहा होगा, इसकी कल्पना करनी हो तो हम मंडेला की जीवनी ‘अाजादी की अोर एक लंबा सफर’ पढ़ें. 
यह अादमी २७ साल लंबी जेल से निकल कर बाहर अाया था… होना तो यह चाहिए था कि अपनी उम्र अौर अपने स्वास्थ्य की फिक्र करते हुए इसे घर बैठ जाना चाहिए था. लेकिन राष्ट्रपति बन कर यह अादमी हर खाई-खंदक में पांव डाल रहा था - विष भी पी रहा था, खाइयों को पाट भी रहा था. अल्पसंख्यक गोरों के वर्चस्व में दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत नागरिक लंबे समय से गुलामी, अपमान अौर जहालत की जिंदगी जी रहे थे. क्रोध, घृणा अौर बदला लेने की भावना गहरे पैठी हुई थी... सामने से श्वेत तेवर भी उतना ही हिंस्त्र था. इन सबको खुले खेलने देने का एक ही मतलब होता कि हिंसा के सागर में डूबता-उतराता यह मुल्क टूट जाता - बहुत कुछ वैसे ही जैसे हमने अपना हिंदुस्तान तोड़ा था !... उस शोकांतिका से बचना था. पता नहीं कैसी नजरों से देखा उसने इस सवाल को अौर सोचा कि क्या खेल के मैदान में एक ऐसा खेल नहीं खेला जा सकता है जो मुल्क में विष कम कर सके, इसे जोड़ने की ताकत बन सके ? ... १९९५ में रग्बी वर्ल्ड कप का फाइनल था दक्षिण अफ्रीका की पूर्ण गोरे खिलाड़ियों की स्प्रिंगबोक्स टीम अौर न्यूजीलैंड की विश्वविजेता टीम के बीच ! राष्ट्रीय स्वाभिमान का मुकाबला था अौर यह अादमी इसी उधेड़-बुन में था कि क्या करे कि अाज इस खाई को पाटने का प्रारंभ हो. 
दक्षिण अफ्रीका का गोरा कप्तान फ्रंकोइस भी गहरे तनाव में था- उसे राष्ट्रपति के, एक अश्वेत अादमी के सामने सर झुका कर ट्रॉफी लेनी होगी - चाहे जीत की ट्रॉफी हो या रनर-अप की ! उसे ऐसा लग रहा था कि उसके लिए दोनों तरफ पराजय ही है... अौर फिर वह अनपेक्षित घटा कि दक्षिण अफ्रीका ने विश्वकप जीत लिया ! …सारा उल्लास जैसे अासमान फाड़ कर बरस पड़ा...भावावेश में सनसनाता फ्रंकोइस टॉफी लेने पहुंचा अौर उसे प्यार अौर गर्व में डूबी अावाज सुनाई दी : थैंक्यू फ्रंकोइस ... अाज तुमने अपने इस देश की शान बढ़ा दी है !! ... अौर तब मैंने देखा कि मंडेला सामने खड़े थे - ट्रॉफी उनके हाथ में थी अौर किसी बच्चे की पुलक से वे उसे निहार रहे थे... अौर फिर अचानक मैंने देखा  - यह क्या, वे ६ नंबर की मेरी ही हरे रंग की जर्सी पहन कर खड़े थे ! मंडेला... राष्ट्रपति मंडेला मुझ गोरे खिलाड़ी की मामूली-सी हरी जर्सी पहने सामने खड़े थे अौर मुझे प्यार से वह ट्रॉफी सौंप रहे थे जिसे उनके हाथ से लेने को लेकर न मालूम िकतनी अाशंकाएं थीं मेरे मन में ! ... मेरे दिमाग में कितनी सारी बातें कौंध गईं - मेरा देश रक्तरंजित नहीं हुअा, तो इसी एक अश्वेत अादमी के कारण !… इसी एक अश्वेत अादमी के कारण मेरा देश एक बना रहा …अौर हम गोरों को उसने कितनी सहजता से अपने साथ कर लिया था... क्षमा करने की कोई हद होती ही नहीं है, यह मैं उनमें साकार देख पा रहा था ... इस अादमी ने अपनी इस एक पहल से उस सारे देश को मेरे पीछे खड़ा कर दिया जो पहले कभी एक था ही नहीं ! खेल से लोग जोड़े जा सकते हैं, खाइयां पाटी जा सकती हैं यह तो मैंने भी कभी सोचा नहीं था ! ... 
इसलिए ही तो मुझे अादमियों में इतनी गहरी दिलचस्पी है क्योंकि जो हमने कभी सोचा भी नहीं था वह वह कर गुजरता है.( 20.07.2018) 

ये किस देश के लोग हैं


वह नज्म लिखी तो अलम्मा इकबाल ने थी जिसमें हर बंद के बाद वे कहते थे - मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है ! मैं जितनी बार उस नज्म को पढ़ता या मन-ही-मन दोहराता हूं, तो भीतर से कोई पूछता है कि इकबाल ने तो अपने वतन की पहचान कर ली थी अौर डंके की चोट पर कहा था कि मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है, अब बताअो, तुम अपने वतन की पहचान क्या अौर कैसे करते हो ? जवाब नहीं दे पाता हूं मैं ! मैं किस तरह अपने वतन को समझूं ( याकि समझाऊं !) कि जहां अकारण स्वामी अग्निवेश की पिटाई हुई, शशि थरूर के घर पर हमला हुअा अौर सरकार नाम का जो सफेद हाथी हमने पाल रखा है उसकी कोई अावाज सुनाई ही नहीं दी ? अगर देश-समाज ऐसे ही चलना है तो किसी चलाने वाले की जरूरत ही क्यों है ? 
अखबार देखता हूं तो हर कोई, जिसे भ्रम है कि वह नेता है, इस देश को बताने में लगा है कि अाप देश हो तो क्या हो अौर क्यों हो. प्रधानमंत्री कहीं गरज कर ललकारते हुए पूछ रहे थे कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमान नामदार बताएं कि उनकी पार्टी मुसलमान पुरुषों की ही पार्टी है कि उसमें मुसलमान स्त्रियों की भी जगह है ? मुझे मालूम नहीं कि प्रधानमंत्री ने ‘नामदार’ विशेषण का इस्तेमाल किस भाषाविशेषज्ञ की सलाह से किया लेकिन यह उनका अपना ‘दिव्यांग’ हो तो भी मुझे कहना ही चाहिए कि राहुल गांधी के अपमान का यह तरीका निहायत ही बोदा अौर कुरूप था. अपनी कहूं तो मुझे तो इस संदर्भ में ‘नामदार’ का मतलब भी पता नहीं है. जवाब में कांग्रेस की एक प्रवक्ता कह रही थीं कि प्रधानमंत्री की भाषा अौर तर्क अब सारी मर्यादाएं खो रही है. उन्हें लगा होगा कि क्या जवाब दिया है ! लेकिन यह कोई जवाब नहीं हुअा. बताना तो पड़ेगा ही न कि कांग्रेस इस देश में रहने वाले सभी जायज नागरिकों की पार्टी है कि किसी एक धर्म या मतवादियों की पार्टी है ? कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि वह राजनीतिक जमीन हड़पने की बेजा कोशिश में अपनी जमीन खो रही है. कांग्रेस जितना जनऊ पहनेगी, मंदिरों में माथा टेकेगी, मुसलमानों को अपना बताएगी उतनी ही खोखली होती जाएगी. 
दूसरी तरफ खबर है कि शशि थरूर ने जो कहा कि यदि 2019 में भारतीय जनता पार्टी ही फिर से सत्ता में वापस अाती है तो भारत के ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनने का पूरा खतरा है, उसे ले कर भाजपा के समर्थक किन्ही सुमीत चौधरी ने कोलकाता की किसी अदालत में धार्मिक भावनाअों को अाहत करने तथा संविधान का अपमान करने का केस दर्ज किया अौर उस अदालत ने थरूर साहब को समन भी भेजा है कि वे 14 अगस्त को पेश हों. अब हमें बता सकें तो हमारे न्यायतंत्र के मुखिया दीपक मिश्रा बताएं कि जिस न्याय-व्यवस्था ने लाखों मुकदमों को सालों से अधर में लटकाये रखा है, उसके पास इतनी फुर्सत भी है अौर कूवत भी कि वह ऐसे अर्थहीन मुकदमों को सुनने के लिए समय निकाले ? अगर ‘हां’ तो फिर इस पूरे न्यायतंत्र पर ही यह मुकदमा क्यों न चलाया जाए कि इसने सारे देश को अंधेरे में रख कर सिर्फ अाराम किया है, काम नहीं ?   
हम देख रहे हैं कि 2014 से जो दल भाजपा के साथ कदमताल कर रहे थे, वे अचानक ‘पीछे मुड़’ करने लगे हैं. कुछ वहां से निकल अाए हैं, कुछ निकलने के चक्कर में हैं. यह डूबते जहाज से चूहों का भागना है ? दूसरी तरफ बिखरा विपक्ष अपना सर जोड़ कर, एक मंच पर अाने की कोशिश कर रहा है. इस कोशिश को सफलता मिलेगी या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि कोशिश कौन कर रहा है अौर कितनी कर रहा है. अभी तो यही दिखाई दे रहा है कि सभी यह कोशिश कर रहे हैं कि वही एकता बने जिसकी धुरी वे रहें. मैं जानता हूं कि राजनीति में जो दीखता नहीं है, वह होता नहीं है, ऐसा मानना खतरनाक होता है फिर भी अपने विपक्ष पर मुझे पूरा भरोसा है. ये इतने कूढ़मगज हैं कि एक-दूसरे का रास्ता काटने में यह देख ही नहीं सकेंगे कि उनके अपने सारे रास्ते बंद होते जा रहे हैं. 
लेकिन रास्ता बंद होने का डर कहीं दूसरी जगह व्याप रहा है. घबराये प्रधानमंत्री विपक्ष पर ‘गंभीर अारोप’ लगाते घूम रहे हैं कि ये सब मुझे हटाने के लिए एक हो रहे हैं. तो मैं जानना चाहता हूं कि श्रीमान, इसमें गलत क्या है ? क्या यह उनका जायज, संविधानसम्मत अधिकार नहीं है ? क्या यही वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं है जिस पर चल कर प्रधानमंत्री बनने को बेहाल मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कितने ही दलों से समझौते किए थे अौर मनमोहन सिंह को कुर्सी से हटाया था ? विपक्ष का काम ही यही है अन्यथा वह विपक्ष नहीं है. हम देखेंगे तो सिर्फ इतना कि ऐसा करने के चक्कर में विपक्ष कोई अनैतिक या असंवैधानिक काम तो नहीं कर रहा है ? इसी के साथ हम यह भी देखेंगे कि सत्ताधारी दलों का गंठजोड़ भी तो कोई अनैतिक या असंवैधानिक करतब नहीं कर रहा है ? एक सावधान, सजग लोकतांत्रिक जनता के लिए यह सब देखना अौर अांकना इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों का अंतिम सत्य एक ही है : सत्ता; जनता का अंतिम सत्य भी एक ही है : संस्कार अौर संविधान. इसलिए प्रधानमंत्री की यह अापत्ति कि ये सब मिल कर मुझे सत्ता से हटाना चाहते हैं, बचकानी है अौर भयभीत मन की चुगली खाती है. 
अपनी सत्ता के ख्याल से इतने भयभीत हैं ये लोग कि जनता अौर उसके सवाल अब गलती से भी इनकी जबान पर नहीं अाते. उत्तरप्रदेश जा कर कोई एनार्की की बात न करे; सारे देश में महिलाअों के साथ हो रहे अकल्पनीय दुराचार की बात किए बिना कोई अपनी उपलब्धियों का बखान करे; खेती-किसानी को दी जा रही ‘रिकार्ड छूट’ के लिए अपनी पीठ ठोकते लोग पल भर भी न झिझकें कि पिछले ९० दिनों में ६०० से ज्यादा किसानों ने अात्महत्या कर ली है अौर अात्महत्या का दायरा राष्ट्रव्यापी होता जा रहा है, तो पूछना ही पड़ता है : ये किस देश के लोग हैं ?  किसान-मजदूर-छोटे व्यापारियों की अात्महत्या अब किसी एक राज्य की बात नहीं रह गई है. नागरिक जीवन विकृतियों अौर विद्रूपताअों से इस तरह गजबजा रहा है कि सामान्य जीवन जीना ही महाभारत की लड़ाई लड़ना बन गया है. अाप भले सड़क पर न चलते हों - क्योंकि अाप तभी चलते हैं जब सड़कें बंद कर दी जाती हैं - लेकिन सड़क पर चलने वाला अाम नागरिक बेहद परेशान है. जीविका भी नहीं बची है, जीवन भी नहीं बचा है. बाजार में उन सारी चीजों के दाम बढ़ते ही चले जा रहे हैं जिनसे उसका घर चलता है. वह परेशान अाम अादमी अपने धैर्य की अंतिम बूंद तक निचोड़ कर जीने की कोशिश में लगा है, अाप कानूनी, गैर-कानूनी तमाम रास्तों को अंतिम हद तक निचोड़ कर अपनी सरकार बनाने में लगे हैं. अापकी सभाअों में, अापके अायोजनों में, अापकी जीवन-शैली में अौर अापकी चिंताअों में कहीं यह देश है भी क्या, यह पूछने का मन करता है लेकिन कहीं पूछने की जगह ही नहीं बची है. 
गांधी ने हमारे शासकों को एक ताबीज दिया था : कोई भी फैसला करने से पहले अपने अहंकार का शमन करो अौर उस सबसे गरीब व्यक्ति का चेहरा सामने रखो कि जिसे तुमने देखा हो; अौर फिर खुद से पूछो कि तुम जो फैसला करनेे जा रहे हो उससे इस अादमी की किस्मत में कोई फर्क पड़ेगा ? जवाब हां हो तो निर्द्वंद अागे बढ़ो, जवाब ना हो तो उस फैसले को रद्द कर दो. अब यह ताबीज बेअसर हो गया है क्योंकि अब अापकी स्मृति में वह चेहरा बचा ही कहां है जिसे याद करने की बात गांधी कहते हैं. ( 18.07.2018) 



सूखे की बारिश




किसान खुशहाल हो गया ! अब सारे किसान नेता अपने-अपने अांदोलन वापस ले लें. उन्होंने जो कभी सपने में भी न देखा, न सोचा था वही धरती पर तारी हो गया है, सूखे अांकड़ों की ऐसी बारिश हुई है कि धरती का कोना-कोना अाप्लावित हो गया है. प्रधानमंत्री ने कबीर-भूमि पर जा कर कई शताब्दियों का ऐसा कॉकटेल बनाया कि इतिहास अौर इतिहासकार सभी चारो खाने चित्त हो गये. फिर उन्होंने ‘मेरे किसान भाइयो’ की तरफ नजर घुमाई अौर फिर एक ऐसी लकीर खींच दी कि किसान इधर अौर समस्याएं उधर रह गईं. किसानों को कर्जमाफी का इंतजार था, प्रधानमंत्री ने उनके खेतों में ‘द्रौपदी का बटुअा’ गाड़ दिया ! मौका इतना बड़ा माना गया कि छुटभैय्यों को नहीं, प्रेस से बात करने खुद गृहमंत्री को ला बिठाया गया. 
गृहमंत्री ने इतिहास को टांग मारते हुए, बिना लाग-लपेट के कहा कि किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में इतनी बड़ी वृद्धि कभी नहीं की गई थी ! हमने इतिहास का पन्ना फड़फड़ाया तो तथ्य यह निकला कि हर अाम चुनाव से पहले ‘द्रौपदी का बटुआ’ इसी तरह खोला जाता रहा है अौर अपनी सुविधा की फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाता रहा है. 2008-09 में अौर फिर  2012-13 के चुनावी-दौर में भी ऐसी ही बड़ी वृद्धि की गई थी. यह जरूर है कि उनकी सुविधा की 11 फसलें कुछ दूसरी थीं, इस सरकार की सुविधा की 6 फसलें दूसरी हैं. इस सरकार ने जिन फसलों को चुना है - गेहूं, सोयाबीन, मक्का, दलहन, कपास अौर बाजरा - ये वे ही फसलें हैं जिनकी पैदावार उन इलाकों में ज्यादा होती हैं जिनमें चुनाव अासन्न हैं. अपनी लड़ाई के उपयुक्त हथियार चुनने का अधिकार सबको है बशर्ते अाप लड़ने में ईमानदार तो हों. 
बाजरा, रागी, मूंग, तूवर अादि की खरीदी सरकार कितना करती रही है, यह अांकड़ा देखें हम तो इन घोषणाअों की पोल खुल जाती है. न्यूनतम मूल्य तो सरकार देने वाली है न, बाजार नहीं. सरकार जिसे खरीदती नहीं है या कम खरीदती है अौर बाजार जिनकी खरीद में सबसे ज्यादा लूट करता है उसकी खरीद के न्यूनतम मूल्य में वृद्धि कितना बड़ा धोखा है ! सरकार में इतनी भी शक्ति नहीं है कि वह अपनी नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके, तो उससे यह उम्मीद ही कैसे की जा सकती है कि वह बाजार अौर नौकरशाही की मिलीभगत से चलने वाली लूट को रोक सकेगी ? तो मतलब सीधा है कि सरकार ने न्यूनतम मूल्य में वृद्धि इस लूट को ज्यादा फलप्रद बनाने के लिए अौर उन शक्तिमान किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए की है जिनके बारे में कहा जाता है कि किसान अांदोलनों की चोटी इनके हाथ में है. 
हमारे देश का किसान अांदोलन इस बुरी तरह टूटा हुअा है कि राजनीतिक दलों की बैसाखी लगाए बिना चल ही नहीं पाता है. कोटा ( राजस्थान) में हड़ौती किसान संघ लंबे समय से चल रहा किसानों का प्रभावी संगठन है. उसके अामंत्रण पर जब मैं उस इलाके की एक किसान सभा में बार-बार किसानों को उनकी भूमिका बदलने के लिए सजग कर रहा था तब एक संभ्रांत किसान ने उठ कर मुझसे कहा था : किस किसान को अाप संबोधित कर रहे हैं ! यहां किसान कोई नहीं है. यहां कांग्रेसी किसान हैं, भाजपाई किसान हैं, समाजवादी व बहुजन समाज पार्टी के किसान हैं लेकिन अाप जिस किसान को खोज रहे हैं वैसा किसान अब खोजे नहीं मिलेगा ! लेकिन मैंने अापको तो खोज लिया !, कह कर मैंने बात भटकने नहीं दी लेकिन यही वह सत्य है  जिसे सरकार ने निशाने पर रख कर न्य़नतम समर्थन मूल्य का निर्धारण भी किया है अौर घोषणा भी की  है. 
अाप ही सोचिए न कि प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं कि उनके गद्दीनशीं होने के बाद से रोजगार तो बहुत बढ़ा है लेकिन समस्या यह है कि उसके अांकड़े हमारे पास नहीं हैं. मैं नहीं जानता हूं कि प्रधानमंत्री ऐसा कह कर कहना क्या चाहते हैं लेकिन इससे जो भयंकर सत्य बाहर अाता है वह यह है कि सरकार के पास अांकड़े जमा करने अौर उन अांकड़ों के अाधार पर गणित बनाने का तंत्र नहीं है. फिर हमें यह पूछना ही चाहिए कि जिस सकार के पास अांकड़े जमा करने का तंत्र भी नहीं है अौर ज्ञान भी नहीं वह करोड़ों-करोड़ किसान भाइयों के कृषि-खर्च, बीज-खाद-पानी की जरूरत, कर्ज की अावश्यकता, खेती में हुए नुकसान, भरपाई की हैसियत अौर अात्महत्या के शिकारों के अांकड़े कैसे प्राप्त करती है अौर उस अाधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य भी तै कर लेती है ? क्या यह सच नहीं है कि हमारा किसान जिस जमीन पर जीता-मरता-पसीने बहाता-अन्न उगाता है अौर फिर लाखों की संख्या में अात्महत्या कर लेता है उस गांव-जमीन तक सरकार की कोई पहुंच नहीं है ? अौर क्या यह भी उतना ही बड़ा सच नहीं है कि गांव-कस्बे की जिस मंडी में जीवन-मौत का यह सौदा होता है वहां सरकार की कोई हैसियत नहीं है ? नौकरशाही प्रायोजित दौरों से, हैलिकॉप्टरों के हवाई सर्वेक्षणों से अौर चमकीली चुनावी रैलियों से जो गांव देखे जाते हैं उनका असलियत से कोई रिश्ता होता नहीं है.   सच यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल 6% किसानों तक पहुंचता हैं. 94% फीसदी किसान इस सरकारी तंत्र तक पहुंच भी नहीं पाते हैं अौर न उनमें इतनी ताकत होती है कि मंडी में किसी तरह लाया अपना अनाज बिन बिका वापस ले जाएं अौर तब तक उसे घर पर रोके रखें जब तक बाजार का दम न टूट जाए अौर वह उन्हें वाजिब कीमत न अदा करे. देश के सारे गांवों-कस्बों में ऐसे दलालों की दुरभिसंधि खुले अाम बनी हुई है जो लाचार किसानों को कहती है कि न्यूनतम मूल्य बाजार में मिलेगा नहीं, न्यूनतम मूल्य की घोषणा करने वाली सरकारी व्यवस्था बनी नहीं है, कब अौर कैसे बनेगी हम जानते नहीं हैं. नकद पैसा चाहिए तो हमारी कीमत पर अनाज उतार जाअो अौर नकद पैसा ले कर घर जाअो. सौदा हो जाता है, किसान अपना कफन खरीद कर लौट जाता है. फिर उसी दिन देर रात से या अगले दिन मुफीद समय पर यही चंडालचौकड़ी लाचारी में बेचा वही अनाज अपनी टीम के ‘सरकारी अधिकारी’ को न्यूनतम मूल्य पर बेचता है अौर दोनों अपने-अपने हिस्से की कमाई संभालते घर जाते हैं. 
यह अगर सच नहीं है तो न्यूनतम मूल्य की घोषणा करने वाली बहादुर सरकार हमें बताए कि किसानों की अात्महत्या में न्यूनतम गिरावट भी क्यों नहीं अा रही है ? पैदावार बढ़ी है लेकिन बाजार में अनाज की जगह क्यों नहीं है ? सरकारों का भोग-विलास अविश्वसनीय सीमा छू रहा है लेकिन गांव-किसान-किसानी की दरिद्रता का चक्र थम नहीं रहा है, तो सरकारी विशेषज्ञ क्या नया रास्ता निकाल रहे हैं ? जवाब एक ही है : चुनाव के मद्देनजर ऐसे सवाल पूछे नहीं जाते हैं ! सूखे में हो रही इस बारिश का यही सच है. ( 08.07.2018 )              



किधर हैं गांधी अौर किधर है उनका अंतिम अादमी




हमारे देश में कुछ मनपसंद शगल हैं जिनमें से एक महात्मा गांधी भी हैं ! अाप देखेंगे कि बुद्धिवादियों की बुद्धि जब काम नहीं देती है तब वे एक सेमीनार या व्याख्यान या वर्कशॉप अायोजित करते हैं जिसका विषय होता है : क्या महात्मा गांधी अाज भी प्रासांगिक हैं ? जब महात्मा गांधी थे तब भी अौर जब महात्मा गांधी नहीं रहे तब भी अौर अाज जब उनका काम तमाम किए ७० साल से अधिक हो रहे हैं तब भी, शब्द या वाक्य बदल-बदल कर इसी अाशय के सवाल खड़े किए जाते हैं. जवाब कहीं होता नहीं है, सो फिर अगले साल यही सवाल लौट अाता है. अाप देखेंगे कि जिन राहबरों को अपना रास्ता न दिखाई देता है, न सुझाई देता है वे जब-तब यही सवाल खड़ा करते हैं कि हम खोजें कि अाज देश में गांधी कहां हैं ? मैं कहता हूं कि हम बंद करें गांधी की सामयिकता समझने की यह कसरत; हम बंद करें देश में गांधी कहां हैं, इसकी पड़ताल ! अगर समझना जरूरी ही है तो हम यह क्यों न समझने की कोशिश करें कि हमारे जिस संसदीय लोकतंत्र की उम्र ७० साल की हो रही है उस लोकतंत्र में हमारी, लोकतंत्र के नागरिक की, मतदाता की कोई सामयिकता बची है क्या ? अगर खोजने का ही शौक हो तो हम गहराई अौर ईमानदारी से खोजें कि ७० साल के सफर में वह अादमी कहां छूट गया है जिसे गांधी ‘अंतिम अादमी’ कहते थे ? गांधी के लिए वही ‘अंतिम अादमी’ अाजादी का मकसद भी था अौर अाजादी की असलियत को परखने की कसौटी भी. अाप खोजें कि वह ‘अंतिम अादमी’ कहीं छूट गया है ? कि कहीं खो गया है कि खत्म ही हो गया है ? नहीं, गांधी की नहीं, खुद की कसौटी करें; गांधी को नहीं, उनके अंतिम अादमी को खोजें. 

गांधी में शिफत है कि वे अपनी बात बहुत कम शब्दों में अौर बड़ी सरल भाषा में कह देते हैं. यह सरलता उन सबको बहुत कठिन जान पड़ती है जो गांधी को जी कर नहीं, पढ़ कर समझना चाहते हैं. गांधी ने जो जिया नहीं, वह कहा नहीं; हमने जो कहा उसे कभी जिया नहीं, जीना चाहा भी नहीं. उन्होंने कहा : सबके भले में अपना भला है ! उन्होंने कहा : वकील अौर नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि अाजीविका पाने का हक दोनों को एक-सा ही है. उन्होंने कहा : मजदूर अौर किसान का सादा जीवन ही सच्चा जीवन है. अाजादी के बाद कुर्सी पर बैठने वालों से उन्होंने कहा : इस पर मजबूती से बैठो लेकिन इसे हल्के से पकड़ो - सिट अॉन इट टाइटली बट होल्ड इट लाइटली ! कहा कि सत्ता की कुर्सी पर पूरे अात्मविश्वास व इरादे से बैठ कर अपनी जिम्मेवारी निभाअो लेकिन उससे चिपके मत रहो ! लेकिन हम कहां हैं ? सभी मानते हैं, अपने बच्चों को सिखाते हैं कि संसार में जो कुछ है, हमारे लिए ही है अौर अपनी सोचो, दूसरों की नहीं ! नई अाकांक्षा के पंख फड़फड़ाते युवा से कहते हैं : तू ही अाया है क्या महात्मा गांधी बनने ! वकील अौर नाई की कौन कहे, अापसी अार्थिक असमानता इतनी बढ़ी है कि कोई ३० दिन अपना पूरा अस्तित्व घिस कर भी इतना नहीं कमा पाता है कि परिवार के लिए दोनों शाम का खाना जुटा सके; दूसरी तरफ लोग हैं कि जो दिनों में नहीं, घंटों में कमाते हैं अौर वह कमाई भी लाखों में होती है. सत्ता अौर संपत्ति का ऐसा गठबंधन तो कल्पना में भी नहीं था. कहां मजबूती से बैठो अौर हल्के से पकड़ो की सीख अौर कहां अाज का अालम कि जो जहां पहुंच गया है वहीं चिपक गया है : तुझसे पहले जो यहां सत्तानशीं था/ उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीं था. एक राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष बार-बार ललकारते हैं अपने ‘भाड़े के कार्यकर्ताअों’ को कि हमें अगले २५ साल तक जीतते ही जाना है, ऐसी तैयारी करनी है.  
    
  महात्मा गांधी का जीवन बहुत कठिन था, क्योंकि वे जिनके साथ जीते थे वे उनके साथ जीते नहीं थे; वे जिन मूल्यों के लिए मरते थे वे उन मूल्यों के लिए मरते नहीं थे अौर फिर भी सभी उन्हें ‘महात्मा’ कहते थकते नहीं थे. प्रशंसकों-समर्थकों की बहुत बड़ी भीड़ में अपने विश्वासों के साथ अकेले खड़े रहना विराट अास्था की मांग करता है. उनकी अास्था इतनी गहरी अौर मजबूत थी कि वे अपने लिए कह सके कि मैं बीमार-जर-ज्वराग्रस्त मरूं तो अागे अा कर हिम्मत से दुनिया को बताना कि यह नकली महात्मा था. किसी हत्यारे की गोली से मारा जाऊं अौर गोली खा कर भी मेरे मुंह से रामनाम निकले तब मानना कि मुझमें कुछ महात्मनापना था. वे अपनी कसौटी पर जी कर अौर मर कर गये. लेकिन वे जिसके लिए जिये अौर मरे वह अादमी - अंतिम अादमी - कहां रहता है ? क्या खाता-पीता-अोढ़ता-बिछाता है ? व्यवस्था ही बताती है कि पिछले १० सालों में ३ करोड़ से ज्यादा किसानों ने किसानी से तौबा कर ली है, मतलब जिस किसान का जीवन गांधी सच्चा जीवन मानते थे उसने उस किसानी को छोड़ दिया है. ३ करोड़ किसान खेत से बाहर निकल गया है तो इसका एक मतलब तो यह हुअा न कि राष्ट्र-जीवन का ईंधन अनाज पैदा करने वाले हाथ कम हुए ! तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इसी अवधि में —— किसानों ने अात्महत्या कर ली है. अात्महत्या का सीधा मतलब है कि वह जीवन व जीविका दोनों से बेजार हो चुका था. 

व्यवस्था हर समस्या का हल पैसों में निकालती है अौर उसके हर हल का निशाना वोट होता है. इसलिए सरकार ने अभी-अभी कई फसलों के लिए न्यूनतम मूल्य की घोषणा की है. वह कह रही है कि किसानों की मदद में इतनी बड़ी मूल्य-वृद्धि कभी नहीं की गई थी. जानकार कह रहे हैं कि पिछले १० से ज्यादा हो गये कि  किसानों को कैसी भी राहत नहीं दी गई थी. अगर सालों का हिसाब करें तो यह वृद्धि अपना संदर्भ ही खो बैठती है. लेकिन इस संकट का दूसरा पहलू तो अौर भी भयंकर है. जहां न सरकार की अांख पहुंचती है अौर न हाथ, उन गांवों-कस्बों की मंडियों में जब किसान अपना अनाज ले कर पहुंचता है तो सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मूल्य देने वाला वहां कोई नहीं होता है. वहां बड़े किसानों-व्यापारियों-सरकारी अधिकारियों का मजबूत त्रिभुज खड़ा होता है जो किसानों को मजबूर कर देता है कि वे उनकी बताई दरों पर अपना अनाज बेंच दें अौर घर लौटें. यही तिकड़ी है जो किसानों से सस्ते में अनाज खरीद लेती है अौर फिर सरकार को उसके न्यूनतम दर पर बेंच देती है. यह कारोबार अरबों रुपयों का है जिसमें सभी बराबरी के हिस्सेदार हैं. किसानों से लूटा पैसा निर्बाध दिल्ली तक पहुंचता है. 

        सरकारी अध्ययन कहता है कि मात्र ६% किसान हैं कि जो अपनी फसल का न्यूनतम मूल्य प्राप्त कर पाते हैं. बाल्टी फूटी हो तो उसमें कुछ भी उड़ेलो अौर कितना भी उड़ेलो वह खाली ही रह जाती है. जब सरकार भूमि अधिग्रहण का कानून बना कर सारे अधिकार अपने हाथ में कर लेती है अौर कारपोरेट-बिल्डर तथा माफिया को विकास के नाम पर जमीन देने लगती है तब किसान अात्महत्या करे कि शहरी फुटपाथ पर पहुंच कर नर्क वास करे, क्या फर्क पड़ता है.
           
गणतंत्र का यह कैसा महाभंजक स्वरूप उभर रहा है कि जिसमें तंत्र किसी अंधे हाथी की तरह उत्पात मचा रहा है अौर गण किसी महावत की भूमिका में तो दूर, किसी हरकारे की भूमिका में भी नहीं है ? यह अपशकुन की घड़ी है ! इतिहास फिर उन्हीं गलियों से गुजर रहा है जिनसे तब गुजरा था जब गुलामी का अंधेरा था. लहूलुहान देश अंग्रेजों की मिली-भगत से निष्प्राण हुअा जा रहा था. एक अकेले गांधी थे जो अपने मन-प्राणों का पूरा बल जोड़ कर इस दुरभिसंधि के खिलाफ तब तक अावाज उठाते रहे जब तक तीन गोलियों से बींध नहीं दिए गए. 

हमें यह हिसाब लगाना ही चाहिए कि ७० साल पहले हमने जो गणतंत्र बनाया अौर उसके साथ जो सपने देखे, वे कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे ? सवाल अांकड़ों का नहीं है अौर न इस या उस सरकार को जिम्मेवार ठहराने या बचाने का है. सवाल यह कि हमारा गणतंत्र ७० साल जवान हुअा है या ७० साल बूढ़ा ? जवानी अौर बुढ़ापे में उम्र का फर्क नहीं होता है, उम्मीदों अौर अात्मविश्वास का फर्क होता है ! तो हम यह सवाल गांधी के अंतिम अादमी से भी पूछते हैं अौर उस अंतिम अादमी के हाथ में हमने लोकतंत्र की जो गीता - संविधान - थमाई है, उससे भी पूछते हैं कि भैया, कैसे हो तुम ? 

इसका एक जवाब- अौर कहूं तो दो टूक जवाब - बाबा साहब अांबेडकर ने संविधान सभा की काररवाई को समेटते हुए दिया था : हमने एक संविधान तो बना दिया है अौर अपनी तरफ से अच्छा ही संविधान बनाया है लेकिन अाप सब यह याद रखें कि कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या उतना ही बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग होते हैं ! ….गांधी ने कहा था : अादमी बनाअो; हमने कहा : संविधान बनाअो ! संविधान बन गया, अादमी नहीं बना. अंतिम अादमी अंतिम ही रह गया.
 ( 05.07.2018)