Wednesday 24 August 2022

इतिहास के जोकर : जोकरों का इतिहास


अंधा
 चकाचौंध का मारा 

क्या जाने इतिहास बेचारा

साक्षी हैं उनकी महिमा के 

सूर्य चंद्र भूगोल खगोल 

कलम आज उनकी जय बोल … 

 

            आजादी के संघर्ष में आम आदमी के त्याग-बलिदान को दर्ज करते हुए दिनकर’ ने जब यह कविता लिखी थी तब वे इतिहास की लघुता व असमर्थता को रेखांकित कर रहे थे. तब उन्हें यह अंदाजा भी कहां रहा होगा कि कभी उसी बेचारे इतिहास’ को विदूषकों यानी जोकरों के हाथ का खिलौना भी बनना होगा और उन्हें भी अपने पन्नों पर दर्ज करना होगा.  

            हिस्ट्री चैनल पर अनुपम खेर का एक कार्यक्रम लालकिले से गूंज’ देख कर यह तीखी अनुभूति भी हुई और विकलांग मानसिकता के एक अल्पबुद्धि व्यक्ति के दंभपूर्ण किंतु खोखले अभिनय को बर्दाश्त करने की पीड़ा भी हुई. समय व सार्वजनिक संसाधनों की ऐसी बेहिसाब बर्बादीइतिहास के साथ ऐसा भद्दा सलूक और इतिहास व उसकी घटनाओं की ऐसी बेसिर-पैर की प्रस्तुति को राष्ट्रीय अपराध मानना चाहिए.  ऐसे आयोजनों के लिए एक खास किस्म की अंधता जरूरी होती है. मोदी-भक्तों में वैसी अंधता व वैसा उन्माद आज भी हैशायद यही प्रमाणित करने के लिए अनुपम खेर को मैदान में उतारा गया. मोदीजी की छवि चमकाने की चमचागिरी भरी कोशिशों के तीन मानक थे अब तक : एकवह इंटरव्यू जो न्यूजनेशन के दीपक चौरसिया ने लिया था. दूसरा वह लाइव इंटरव्यू जो विज्ञापनबाजी करने तथा सिनेमा के लिए गीत लिखने वाले प्रसून जोशी ने अमरीका में किया थातीसरा वह जो अभिनेता अक्षय कुमार ने किया था आम खाने वाला ! अनुपम खेर बहुत कर के भी अब तक कहीं पहुंच नहीं पाए हैंसो यह चौथा कार्यक्रम उन्होंने लपक लिया. इस तरह से यह क्षद्म दरबारी चतुर्भुज पूरा हुआ. 

            लेकिन जब नीयत भी गलत होतथ्य भी और पटकथा भी गलत हो तब न गलत इरादे छिप पाते हैंन असत्य में सत्य की खुशबू पैदा हो पाती है. फिल्मी लोगों की दिक्कत कुछ अलग व ज्यादा ही बड़ी होती है. यहां चेहरा भर ही उनका होता है बाकी वे दूसरों के सहारे ही जिंदा होते हैं. अनुपम खेर के साथ भी यही त्रासदी हुई है. उनका इरादा भी अच्छा नहीं थाउनको जो लिखकर दिया गया था वह भी अच्छा नहीं था और जिस संग्रहालय में घूम-घूम कर वे यह प्रस्तुति कर रहे थेवह संग्रहालय भी अच्छे मनोभाव का प्रतीक नहीं था. हम जब भी इतिहास का इस्तेमाल करते हैं तब उसकी एक नजाकत भूल जाते हैं. इतिहास तथ्य व सत्य से बनता हैझूठ व बनावट से बिखर जाता है. झूठा इतिहास दरअसल इतिहास होता ही नहीं है. राजा-महाराजाओंतानाशाहोंसाम्यवादियों-दक्षिणपंथियों आदि-आदि सबनेअपनी-अपनी तरह का इतिहास बहुत-बहुत लिखवाया लेकिन अंतत: वह सब रेत पर लिखी लिखाई ही साबित हुआ और देर-सवेर इतिहास ने सच की अपनी असली जमीन पकड़ ली. 

            अनुपम खेर दावा करते हैं कि लालकिले के प्राचीर से अब तक जितने प्रधानमंत्रियों ने देश को संबोधित किया हैउन सभी संबोधनों का विश्लेषण है यह कार्यक्रम ! वे ऐसा कर पाते तो एक बड़ा काम होता लेकिन इसके लिए सिनेमाई ग्लैमर नहींइतिहास का गहरा अध्ययनऐतिहासिक प्रवाहों की समझविश्लेषणों को जांचने-परखने का कौशलऔर इन सबके साथ-साथ सत्य व तथ्यों के साथ ईमानदार तटस्थता चाहिए जो अनुपम खेर के पास न थीन है. 

            यह कार्यक्रम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए भी बनाया गया हो तो भी इसे ज्यादा गहराईईमानदारी व ज्यादा तथ्यों की जरूरत थी. यह गलतफहमी आम तौर पर रहती है कि प्रचार का सत्य से लेना-देना नहीं होता है जबकि सच यह है कि असत्य कभी भीकहीं भी सामने आता है तो उसे सत्य का आवरण ओढ़ना ही पड़ता है. तो अगर लालकिले से प्रधानमंत्रियों के दिए गए भाषणों का विश्लेषण करना हो और आपको यह साबित करना हो कि सबसे खराब भाषण प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के थे और सबसे अच्छेनगीने समान भाषण वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के होते हैं तब भी आप यह तथ्य छिपा तो नहीं सकते कि जवाहरलाल ने 1947 से 1963के बीच 17 सालों तक लगातार लालकिले से देश को संबोधित किया. दूसरा स्थान इंदिरा गांधी का है जिन्होंने 1966 से 1984 के बीच दो टुकड़ों में 16 बार और मनमोहन सिंह ने 2002 से 2014 तक लगातार 10 साल देश को संबोधित किया. इन तीन के बाद ही नरेंद्र मोदी का नाम आता है. 2014 से 2022 तक के 9 साल वे देश को संबोधित कर चुके हैं. इसमें मैं उनका वह एक भाषण नहीं जोड़ रहा हूं जो गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप मेंअहमदाबाद में नकली लालकिला बनवा करउस पर से प्रधानमंत्री होने का स्वांग धरते हुए उन्होंने दिया था. यह किस साल की बात है अनुपम खेर की रिसर्च टीम भी थोड़ा काम करेइसलिए मैं यह उनके लिए छोड़ता हूं.  

            ये आंकड़े क्यों जरूरी हैं इसलिए ये आंकड़े ही उन दौरों की नई-नई सच्चाइयां बयान करने लगते  हैं. जब अनुपम खेर अपने कार्यक्रम में जवाहरलाल पर लगाए अपने मूर्खतापूर्ण आरोपों को पुष्ट करने के लिएजवाहरलाल के किन्हीं दो भाषणों में से दो-एक पंक्तियां उठा लेते हैंसंदर्भ से काट कर उनका मनमाना अर्थ हमें बताने लगते हैं तब ये आंकड़े उपहास में खिलखिला उठते हैं. ये आंकड़े ही कहने लगते हैं कि इस तरह तो बाइबिल के यहां-वहां से वाक्यों को उठा-जोड़ कर आप यह भी साबित कर सकते हैं कि ईसा शैतान के पैरोकार थे. पूरा संघ-परिवार इसी तरह तो यह प्रचारित करता रहता है कि महात्मा गांधी हिंसा को नीति के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाजत देते थे. लोग खाने के अन्न की बर्बादी न करें व श्रम किए बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता हैजवाहरलाल की इन दो बातों का अनुपम ने जैसा फूहड़ व अशोभनीय इस्तेमाल किया हैउस पर कोई टिप्पणी काम खुद का अपमान करने जैसा होगा. 

            जवाहरलाल का उपहास करने में अनुपम इतने छिछले स्तर पर उतर जाते हैं कि यह विवेक भी नहीं रख पाते हैं कि वे जिसकी बात कर रहे हैं वह कुर्सी पर बैठ जाने के कारण ही देश का प्रधानमंत्री नहीं था बल्कि अपने दौर काविश्व का एक मान्य बौद्धिक व इतिहास की गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति था. वह भारत की स्वतंत्रता के जनकों में सबसे अहम भूमिका निभाने वाला मोहक नायक था. हम उससे किसी मामले में ( या हर मामले में !) असहमत हो सकते हैं लेकिन उसे अपमानित करखारिज नहीं कर सकते. उसे खारिज करने की योग्यता पाने के लिए भी नरेंद्र मोदीअनुपम खेर या व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के दूसरे दिग्गजों को बहुत-बहुत मेहनत करनी होगी. 

            67 सालों की कड़ी मेहनत से खड़ी की गई लोकतंत्र व विकास की इमारत में अपनी जगह हथिया लेने जैसी आज की बात वह नहीं थी. जवाहरलाल की आधी कहानी गुलामी से लड़ने और आधी कहानी आजाद हिंदु्तान के जन्म के पीड़ा से जुड़ी है. वह एक-एक ईंट जोड़नेबुनियाद खोदने व नक्शा गढ़ने जैसी चुनौती की कहानी है. हम उस अभागे देश के लोग हैं जो रक्त की नदी तैर कर आजादी के दरवाजे पहुंचे थे. गृहयुद्ध की कगार पर खड़ा वह पगलाया देश जवाहरलाल ने हाथ सौंपा गया था जिसका विभाजन हो चुका थागरीबी-सांप्रदायिकता-जातीयता-अंधविश्वास आदि से जिसकी आंतरिक ताकत चूकती जा रही थीउद्योग-धंधों का कोई ढांचा मुक्कमल नहीं थाफौज-पुलिस सब बिखरे हाल में थेसैकड़ों सालों की गुलामी ने जिसका मन-मस्तिष्क गुलाम बना डाला था. ऐसे देश को बिखरने से बचाने-चलाने के लिएकल तक जो नौकरशाही गुलामी को मजबूत करने में लगी थीवही आधार एकमात्र था उनके पास.  तन व मन दोनों से क्षत-विक्षत देश जिसे देख कर आशा व विश्वास पाता थाउसका वह महानायक अभी-अभी गोलियों से बींध कर मार डाला गया था. इस पूरे काल में विफलताएं भी हुईंगलतियां भी हुईंबेईमानियां भी हुईं लेकिन इसी काल में देश को शनै-शनै खड़ा भी किया गया. लालकिले से हुए जवाहरलाल के 17 भाषणों में आप वह सारा श्रमवह सारी पीड़ावह सारी आस्था पहचान सकते हैं. इस कठिन ऐतिहासिक दौर को अनुपम दो भाषणों केदो असंबद्ध वाक्यों से निबटा कर अपना एजेंडा तो पूरा कर लेते हैं लेकिन इस कोशिश में जवाहरलाल को नहींखुद को इतिहास का जोकर बना डालते हैं. 

            जवाहरलाल के पास लफ्फाजी और जुमलेबाजी का न अवकाश थान गांधी उन्हें इसकी इजाजत देते थे. लोकतंत्र के मूल्यों व मिजाजों की उनकी जितनी समझ थीविकास का जो पैमाना दुनिया भर में मान्य व प्रतिष्ठित था और जो उन्हें भी लुभाता थाउन सबको भारतीय जमीन पर बोने में उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा झोंक दी. हम उनसे सहमत-असहमत हो सकते हैं लेकिन उनकी सोचयोजनाप्रयत्न आदि से आंखें नहीं मूंद सकते. इन सारी चुनौतियों काउनको पाने की कोशिशों का जिक्र वे लालकिले के अपने भाषणों में भी करते रहे लेकिन अनुपम खेर की खैर नहीं रह जाती यदि वे उनका जिक्र भी करते. यह अज्ञान अनुपम के लिए वरदान साबित हुआ. 

            लालकिले की प्राचीर से यह संबोधन और वहां से उठती जय हिंद’ की तीन पुकार जवाहरलाल की ही शुरू की हुई है जिससे उनका इतिहास-बोध समझा जा सकता है. इसे नागरिकों का समारोह बनाने तथा बच्चों की विशेष उपस्थिति की परंपरा भी उनकी ही शुरू की हुई है जो आज सिकुड़ते-सिकुड़ते आत्म-मुग्धता का प्रतीक मात्र रह गई है. आज यह याद दिलाना जरूरी-सा हो जाता है कि जिस जवाहरलाल पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने नेताजी सुभाष बोस को श्रेयहीन किया, ‘जय हिंद’ का यह नारा जवाहरलाल ने उनसे ही लिया था. अगर उन्होंने इसे लालकिले की प्राचीर से भारत की पुकार में बदल न दिया होता तो नेताजी का यह नारा इतिहास की गर्द में कहीं खो ही जाता. 

            प्रधानमंत्री बनते ही जवाहरलाल ने देश का लस्त-पस्त मन झकझोर कर उसे नया बनाने की दिशा में क्या-क्या किया इसकी सूची कोई बनाए तो उसे आजाद भारत की कुंडली लिखने का अहसास होगा.  राष्ट्रीय जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं था कि जिसे स्वतंत्रता का स्पर्श देने का प्रयत्न उन्होंने नहीं किया. आजादी की पौ फटते ही जवाहरलाल को कश्मीर हड़पने के साम्राज्यवादी षड्यंत्र का सामना करना पड़ा. वे जरा भी डगमगाते तो कश्मीर हाथ से गया ही था. लेकिन जिन्ना को सामने कर जो ब्रिटिश-अमरीकी-रूसी दुरभिसंधि भारत के सामने खड़ी की गई थीउसे धता बताते हुएराजा हरि सिंह के साथ कश्मीर के भारत में विलय की जो संधि हुईवह जवाहरलाल व उनकी सरकार की सबसे नायाब कूटनीतिक जीत की गाथा है. वह कश्मीर नासूर क्यों बन गयाइसे समझने के लिए जो प्रधानमंत्री व अनुपम खेर समान लोग कश्मीर फाइल्स’ देखते हैं वे दया के पात्र हैं. लेकिन अनुपम करें भी तो क्याउन्होंने न इतिहास पढ़ा हैन उसकी बारीकियों को समझा है. वे जिस प्रचार के लिए मैदान में उतारे गए हैं उसमें इतिहास की मूढ़ता बड़ा गुण मानी जाती है.  

            कश्मीर के षड्यंत्र की काट खोजने वाले जवाहरलाल ने तभी-के-तभी आजाद भारतीय समाज में विष समान देवदासी प्रथा की समाप्ति का एक्ट बनवाया. गांधी की हत्या का निजी व सामाजिक दर्द झेला उन्होंने इतना ही नहींसांप्रदायिक ताकतें जिस तरह की एनार्की फैला कर सत्ता हथियाना चाहती थींउसे काबू में रखा और देश में किसी प्रकार की व्यापक अशांति भड़कने नहीं दीयह उनकी प्रशासनिक क्षमता व निजी प्रतिबद्धता की मिसाल है. हम याद रखें कि यह तब की कहानी है जब चारणों की भीड़ पैदा नहीं हुई थीराष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पैदा नहीं हुआ थागुप्तचर एजेंसियों का आज जैसा जाल नहीं बिछा था.

              देश के योजनाबद्ध विकास का नक्शा बनता रहेइसलिए पंचवर्षीय योजनाओं की तस्वीर बनाने वाले योजना आयोग का गठन किया. विकास की मुहिम के प्रतीक स्वरूप दामोदर घाटी विकास परियोजना की शुरूआत की तथा 15 साल की आदिवासी किशोरी बुधनी मेझान के हाथों उसका प्रारंभ करवाया. संप्रभु गणतंत्र के रूप में भारत ने उसी काल में अपना संविधान अंगीकार किया और दुनिया ने जैसा वृहद चुनाव देखा नहीं थावैसा प्रथम आम चुनाव करवाया. इसके लिए स्वायत्त चुनाव आयोग का गठन करवाया. आधुनिक विज्ञान का केंद्र खड़ा करने के क्रम में खड्गपुर में भारत का पहला आईआईटी बनवाया. प्रेस की स्वतंत्रता और उसके अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था की. फिल्म्स डिविजन की स्थापना की. सिनेमा व रंगमंच को खुला आसमान व स्वतंत्र अस्तित्व दिया. सत्यजित रायबिमल रायऋत्विक घटकमृणाल सेनराज कपूर आदि इसी दौर में खिले. सांस्कृतिक चेतना को आकार देने के लिए संगीत नाटक अकादमीललित कला अकादमी तथा साहित्य अकादमी की स्थापना हुई. भाषावार प्रांतों को देश की भौगोलिक संरचना का आधार बनाया गया. आजादी मिलने के चौथे साल में ही भारत में पहले एशियाई खेलों का आयोजन करवायामिडडे मिल की जिस योजना की आज इतनी चर्चा होती है उसका प्रारंभ तमिलनाड के कांग्रेसी मुख्यमंत्री के. कामराज ने 1956 में किया जिसे जवाहरलाल का पूरा समर्थन मिला. इसी दौर में आकाशवाणी और दूरदर्शन की स्थापना हुई. महात्मा गांधी की 90वीं जयंती पर राजस्थान से पंचायती राज की शुरुआत हुई. एक तरफ फिल्म इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई तो दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्गुट राष्ट्रों का संगठन शीतयुद्ध से दुनिया को बाहर निकालने का विकल्प बना. इसी दौर में अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र की नींव रखी गईपरमाणु ऊर्जा का पहला केंद्र स्थापित किया गया. यह सब जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व के पहले दौर में ही साकार हो गया. लालकिला इन सबका साक्षी रहा. हांइतना जरूर था कि तब लालकिला अपना ढोल पीटने का अड्डा नहीं थादेश को भरोसा देने व विश्वास में लेने का पवित्र स्थल था.       

            मोदी-दौर में पहुंचते ही अनुपम जिस तरह उपमाओं की बारिश करने लगते हैंक्या वैसी ही उदारता जवाहरलाल के लिए भी नहीं दिखा सकते थे नहींनहीं दिखा सकते थे क्योंकि यह उनके एजेंडा की हवा ही निकाल देता. इसलिए मोदीजी का बखान करते हुए अनुपम बड़ी चालाकी से लालकिला से बाहर निकल गए और मोदीजी की उन बातों-घोषणाओं की कसीदाकारी में लग गए जिनका लालकिले के भाषणों से कोई रिश्ता नहीं है. अनुपम खेर ने हाथ में थमा दी गई पटकथा को पढ़ तो दिया कि नरेंद्र मोदी के भाषणों में आंकड़ों व तथ्यों ( डेटा / डिटेल्स) की भरमार होती हैकि वे हर वर्ष अपनी  पिछली घोषणाओं की प्रगति की जानकारी भी देते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री के लाल किले के भाषणों से अंश दिखा कर वे अपने इस दावे को प्रमाणित नहीं कर सके. वे ऐसा करते तो उनके लिए यह छिपाना कठिन हो जाता कि लालकिले के भाषणों को गलत आंकड़ोंआधारहीन घोषणाओं और अपनी वाहवाही का मंच बनाने का जैसा करतब मोदीजी ने दिखलाया हैवैसा जवाहरलाल की तो जाने ही देंकोई दूसरा प्रधानमंत्री भी नहीं कर सका. यह शिफत सिर्फ एक ही प्रधानमंत्री के पास है. 

            अनुपम खेर ने लालकिले से गूंज तो उठाई लेकिन वे समझ नहीं सके कि वह गूंज कहीं और ही पहुंच गई ! 

21.08.2022) 

 

Saturday 20 August 2022

सन्नाटे की राजनीति : राजनीति का सन्नाटा

     बिहार फिर केंद्र में है. दिल्ली में बिहार को संदेह की गहरी नजरों से देखा जा रहा है; और उसी दिल्ली में, उसी बिहार को संभावनाओं की सावधान नजरों से भी देखा जा रहा है. बिहार जब भी दिल्ली का केंद्र बनता है, खतरे का एक चौखटा बन जाता है. नीतीश-तेजस्वी के समीकरण ने वैसा ही एक चौखटा रच दिया है. क्या यहां से हमारी राजनीति को नया मोड़ लेने जा रही है ? 

 खोजने वाले इस समीकरण में वह सारा अर्थ खोज रहे हैंजो वहां है ही नहीं. दरअसल वहां कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है. अर्थहीन राजनीतिक माहौल में अर्थ की तलाश या तो कोई मूर्ख कर सकता है या फिर कोई उद्भट ज्ञानी ! सामान्यत: हम सब इन दोनों श्रेणियों में नहीं आते हैं. लेकिन अर्थवान राजनीति के पुरोधा लोकनायक जयप्रकाश ने कभी इस राजनीति के लिए कहा था : यह राजनीति तो गिर रही हैअभी और भी गिरेगीटूटेगी-फूटेगीछिन्न-भिन्न हो जाएगीऔर तब उसके मलबे से एक नयी राजनीति का उदय होगा जो दरअसल राजनीति होगी ही नहींवह होगी लोकनीति ! तो क्या जिस तरह दिल्ली से पटना तक राजनीति का राष्ट्रीए पतन हुआ हैउसके बाद बिहार में किसी लोकनीति की संभावना खोजी जा सकती है नहींउसमें किसी लोकनीति की कोई संभावना नहीं है. लेकिन इसे शुद्ध राजनीतिक चालबाजी समझना भी इसे न समझने जैसा ही होगा.

हर सत्ताधारी की मुख्य प्रेरणा अपनी सत्ता का संरक्षण ही होती है और हर राजनीतिज्ञ अपने से ऊपर वाले पायदान का आकांक्षी होता है. आपमें ये दोनों वृत्तियां न हों तो इस खेल में आपके बने रहने का कोई औचित्य नहीं है. इसलिए जो लोग नीतीश कुमार पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने अपनी गद्दी बचाने के लिए यह किया हैया कि जो यह रहस्य खोल रहे हैं कि नीतीश राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखते हैंवे फटा ढोल पीटने की व्यर्थ कोशिश कर रहे हैं. क्या वे ऐसा कहना चाह रहे हैं कि सत्ता की राजनीति में नीतीश कुमार को उद्धव ठाकरे बनकर रहना चाहिए था कि आप कुर्सी पर बैठे रहें और सारा खेत कोई और चर जाए ?  अगर नहीं तो नीतीश को यह श्रेय देना ही होगा कि वे अल्पमत की अपनी सरकार चलाते हुए भी वे इतने सजग थे कि उनका खेत चरने की कोशिश होइससे पहले ही उन्होंने फसल काट ली. भारतीय जनता पार्टी का सारा रोना तो यही है न कि वह काट पाती इससे पहले नीतीश ने कैसे फसल काट ली अपनी हर राजनीतिक अनैतिकता व बेईमानी को सफल रणनीति घोषित करने वाली पार्टी सदमे में है कि उसे उसके ही खेल में किसने कैसे मात दे दी ! 

विफलता के छूंछे क्रोध में यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा पालते हैंयाकि सुशील छोटे मोदी ने कटाक्ष किया कि वे तो उप-राष्ट्रपति बनना चाहते थे ! तो क्या छोटे मोदी ने पटना से दिल्ली का सफर बिना राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के किया है महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हुई या नहीं हो पा रही हैयह अलग बात हुई लेकिन दौड़ तो उनकी भी वही है न ! याद कीजिए तो याद आएगा कि बड़े मोदी ने तो गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुएगांधीनगर में एक नकली लालकिला बनवाया था और स्वतंत्रता दिवस परउस नकली लालकिला की नकली प्राचीर से राज्य को - राष्ट्र  को - नकली प्रधानमंत्री के रूप में संबोधित कर अपनी कुंठा व अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की घोषणा की थी. तब भारतीय जनता पार्टी में से भर्त्सना की कोई आवाज नहीं उठी थी - बल्कि बाद में हमने देखा कि सारी पार्टी नकली प्रधानमंत्री के सामने नतमस्तक हो गई - जो नहीं हुए वे भू-लुंठित नजर आए. नीतीश कुमार लगातार कह रहे हैं कि उनकी कुछ बनने की महत्वाकांक्षा नहीं है. हम चाहें तो कहें कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को छिपा रहे हैं लेकिन कोई ऐसा कैसे कह सकता है कि ऐसी महत्वाकांक्षा रखना अनैतिक है राजनीति  महत्वाकांक्षा के ऐसे ही ईंधन से चलती है. 

नीतीश-तेजस्वी ने जो किया है उसका एक ही सुपरिणाम हैहोना चाहिए और संभवत: होगा भी कि राजनीति का आज का सन्नाटा टूटेगा. नरेंद्र मोदी की राजनीति लगातार सन्नाटा पैदा करने वाली और उस सन्नाटे की आड़ में मनमाना करने वाली राजनीति है. इसलिए उन्हें विपक्ष पसंद नहीं आता हैअसहमति वे सुनते भी नहीं हैं. उनकी घोषणा है कि वे विपक्षमुक्त भारत बनाएंगे. उनके पैदल सिपाही उनका यह संदेश सुनाते देश भर में घूमते ही रहते हैं. बिहार पहुंच कर नड्डा साहब ने वही संदेश इस तरह सुनाया कि बात बिगड़ गई और बिहार ने इसमें विक्षेप खड़ा कर दिया. नड्डा साहब जहां चूकेवहीं नीतीश-तेजस्वी अचूक रहे. 

अब बिहार बोल रहा है. उसने दो बातें साफ-साफ कही हैं : पहली यह कि नीतीश-तेजस्वी का गठबंधन रातोरात नहीं बना है. इसकी लंबीबारीक प्रक्रिया चली है और सब कुछ तय करने के बाद ही भाजपा के पैरों तले से जमीन खिसकाई गई है. मतलब साफ है कि यह गठबंधन जब तक बना व टिका रहेगाभाजपा के लिए सस्ता-सुंदर व टिकाऊ गठबंधन बनाना मुश्किल होगा. दूसरी बात जो नीतीश कुमार ने कहीवह आगे की तस्वीर बनाती है : जो 2014 में आए थेवे 2024 में रह सकेंगे क्या ?’ यह आवाज पहली बार उठी है. 2014 मेंदिल्ली पहुंचने के बाद हम तो यहां से जाएंगे ही नहीं’, ‘हम तो अगले 20-30 सालों तक राज करेंगे’ की इतनी धूल उड़ाई गई कि विपक्ष इनके जाने की बात करना ही भूल गया था. नीतीश ने फिर से वह बात जिंदा कर दी है. 

बोलते राहुल गांधी भी रहे हैंअशोक गहलोत व भूपेश बघेल भी लेकिन उनकी आवाज में वह गूंज नहीं थी जो अब बिहार से पैदा हो रही हैऔर जिसकी अनुगूंज पूरे देश में सुनाई दे रही है. यह गूंज मोदी-शाह के दांव से उनको ही मात देने की गूंज भर नहीं है बल्कि लंबी चुप्पी के टूटने की गूंज है. तेजस्वी उस दौर की बात कर ही नहीं रहे हैं जब नीतीश भाजपा के साथ थे. बिहार में वह पूरा कालखंड उसी तरह विमर्श से गायब किया जा रहा है जैसे मोदी 2014 से पहले के भारत को गायब करसिर्फ अपनी ही बात करते हैं. 

यह बिहार के लिए भी और देश की विपक्षी राजनीति के लिए भी जरूरी है. सन्नाटे की राजनीति टूटेगी तभी जब रचनात्मक शोर पैदा होगा. रक्षात्मक व बिसुरता हुआ विपक्ष कभी भारतीय जनता पार्टी की सत्ताजनित ताकत व धनबल के आगे खड़ा नहीं हो सकता है. उसे बेहतर संगठनमाकूल रणनीति व सशक्त नेतृत्व का त्रिभुज खड़ा करना होगा. राजनीति का सन्नाटा इसी बल पर टूटेगा. बिहार में नीतीश-तेजस्वी इस शुरुआत के प्रतीक हैं. इसलिए देश इस परिवर्तन का स्वागत कर रहा है लेकिन नीतीश-तेजस्वी को यह कभी भूलना नहीं चाहिए कि देश तेजहीन प्रतीकों के नहींजीवंत व प्रखर प्रतीकों के पीछे चलता है.  ( 15.08.2022)   

हम एक हैं !

     पता नहीं कब से, कलेजे का पूरा जोर लगा कर हम चिल्लाते रहे : आवाज दो, हम एक हैं; लेकिन हम एक नहीं हुए ! वे कोई आवाज नहीं लगाते, जुलूस नहीं निकालते लेकिन समय पड़ने पर इस तरह एक होते हैं कि समय भी हक्का-बक्का रह जाता है.                 

   श्रीलंका के अपराधीअपदस्थअपमानित व भगोड़े राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे तब अपना देश छोड़ भागे जब सारा देश जल रहा था और उनकी बनाई सारी व्यवस्था ध्वस्त पड़ी थी. यह वैसा दौर था जिसमें कोई देशभक्त देश छोड़ कर भाग नहीं सकता है. उसका भागना ही प्रमाणित करता है कि वह और कुछ भी होदेशभक्त तो नहीं है. देशभक्त होगा तो अपने मन-प्राणों का पूरा बल जोड़ कर हालात को संभालने की कोशिश करेगा और इस कोशिश में होम होना ही बदा हो तो वही स्वीकार करेगा. लेकिन गोटबाया की देशभक्ति ने उसे भागने का रास्ता दिखाया. भागने से पहले वह गायब हो गया था क्योंकि श्रीलंका की सड़कों परसरकारी इमारतों परराष्ट्रपति भवन पर नागरिकों का कब्जा हो गया था. नागरिक यानी लोक जिनसे श्रीलंका का ही नहींसारी दुनिया का लोकतंत्र बनता है. लोकतंत्र की शोकांतिका यह है कि वह बनता लोक से हैचलता तंत्र से है. चलाने वाले वेतनभोगी बड़े-छोटे हर कर्मचारी को अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि वे हैं तो राष्ट्र है. इसलिए जब कभी लोक अपनी हैसियत बताने सामने आता हैतंत्र के होश उड़ जाते हैं वह फौज-पुलिसलाठी-गोलीअश्रुगैस-पानी की तलवारें ले कर मुकाबले को उतर आता है. यही गोटाबाया ने भी कियाऔर जब कोई बस नहीं चला तो भय से कहीं जा छुपा. कहां ?

   यही कहानी मुझे आज आपको सुनानी है. जब श्रीलंका के सागर में उत्ताल लोक लहरें उठ रही थीं और सेना ऐसा दिखा रही थी कि वह लोक से सहानुभूति रखती हैठीक उसी वक्तवही सेना लोकद्रोही गोटाबाया को पनाह भी दे रही थी. इतना ही नहींवह बयान दे रही थी कि हमने गोटाबाया को न तो छुपा रखा हैन छुपने में मदद ही की है. गोटाबाया में थोड़ा भी नैतिक बल होता तो वह तभी-के-तभी इस्तीफा दे देता. सभी गोटाबाया ने ऐसा ही तो किया था. 

   यह भयानक हकीकत हममें से कम लोग ही जानते होंगे कि श्रीलंका की राष्ट्रीय सरकार में गोटाबायों’ की उपस्थिति कैसी व कितनी थी. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने अपने भाई गोटाबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति बनाया थाअपने दूसरे भाई बासिल राजपक्षे को वित्त मंत्रीअपने भतीजे नामाल को खेल व युवा मंत्रीदूसरे भाई चामाल को सिंचाई मंत्रीऔर चामाल के बेटे शाशींद्र को कृषि मंत्री बनाया था. महिंदा ने अपने बेटे योशिथा को प्रधानमंत्री कार्यालय का प्रमुख नियुक्त किया था तो दामाद निशांता विक्रमसिंघे को लंकन एयरलाइंस का प्रमुख बनाया था. ऐसा राष्ट्रीय परिवारवाद क्रूरता व आतंक के सहारे ही टिकाया जा सकता हैयह जानते हुए महिंदा और गोटाबाया ने तमिल लंकाइयों से युद्ध छेड़ दिया और दुश्मनों की तरह उनका खात्मा करवाया. इसके लिए जरूरी था कि लंकाई समाज में चरम घृणा फैलाई जाए ताकि सभी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाएं. इसलिए तमिल बनाम सिंघली का खूनी दौर चलाबौद्ध पंडे-पुजारी राजा के समर्थन में धर्म-ध्वजा ले कर उतर पड़े. सत्ता प्रायोजित इस सामाजिक तांडव में कमजोर व भ्रष्ट विपक्ष बिखर कर रह गया. 

   जब जन असंतोष उभरने लगा तो उस पर पानी डालने के लिए राष्ट्रपति गोटाबाया ने अपने भाई प्रधानमंत्री महिंदा का इस्तीफा ले लिया और सरकार की पूरी कमान खुद  संभाल ली. जनता को संदेश गया: देखोकैसा राजा हैअपने भाई को भी नहीं छोड़ता है ! हमारे यहां इन दिनों इसे जीरो टॉलरेंस’ कहा जाता है. इस्तीफा देने के बाद प्रधानमंत्री महिंदा कहीं गुम हो गए और ऐसे हुए कि आज तक किसी को पता नहीं है कि वे कहां हैं. इसे हम चाहें तो अज्ञातवास’ की साधना कह सकते हैं. महिंदा के बाद गोटाबाया अज्ञातवासी’ हुए. जनता से द्रोह करने वाले गोटाबाया को फ़ौज ने छुपा कर रखा और फिर मौका पाते ही फौजी विमान से, 5 परिवारजनों के साथ 3सरकारी अधिकारियों की देख-रेख में मालदीव भेज दिया. 

   मालदीव का सत्तापक्ष समझता था कि लंका के सत्तापक्ष का प्रतिनिधि अपना आदमी है. इसलिए उसने श्रीलंका की जनता के द्रोही गोटाबाया को पनाह दी. वहां सरकारी सुरक्षा में बैठ कर गोटाबाया ने अपनी गोटियां बिठायीं और फिर उड़ कर पहुंचा सिंगापुर. सिंगापुर के सत्तापक्ष ने भी स्वधर्म निभाया और एक राजनीतिक भगोड़े के लिए अपना द्वार खोल दिया. कैसा मासूम बयान दिया वहां के सत्तापक्ष ने : न हमने शरण दी हैन उन्होंने शरण मांगी है ! अपने देश से चोरी से भाग निकला कोई साधारण अपराधी  इस तरह घोषणा कर के सिंगापुर आए तो क्या उसे सिंगापुर में प्रवेश व पनाह मिल जाएगी सरकार जवाब नहीं देती हैधमकी देती है : किसी कोकिसी प्रकार का विरोध जताने की सिंगापुर में अनुमति नहीं है ! खबर गर्म है कि गोटाबाया सिंगापुर में जमा व निवेश की गई अपनी अरबों की दौलत को ठिकाने लगाने की व्यवस्था करने में जुटे हैं. सिंगापुर सत्तापक्ष को पता है कि उनकी अर्थ-व्यवस्था ऐसे ही गोटाबायों के दम पर जिंदा हैसो उसे उनका साथ देना ही है. 

   यह है सत्ता प्रतिष्ठान का हम एक हैं! इसमें सत्तापक्ष व विपक्ष जैसा भेद नहीं हैदेश-विदेश का फर्क नहीं है. आप देखिएगोटाबाया की हत्यालूटदमनधोखा और फिर देश की आंखों में धूल झोंक कर भाग निकलने की किसी महाशक्ति ने निंदा की किसी ने मालदीव या सिंगापुर से पूछा कि एक अपराधी को उसने कैसे पनाह दी नहींसभी चुप हैं क्योंकि सभी जानते हैं कि कल अपनी जनता से बचने का ऐसा रास्ता उन्हें भी पकड़ना पड़ सकता है. इसलिए ये सभी मिल कर ऐसा सत्ता प्रतिष्ठान बनाते हैं जिसमें समय-समय पर कारपोरेटन्यायपालिकाकार्यपालिकापुलिस-फौजबैंकिग आदि अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं. 

   गांधी ने बहुत पहलेबहुत गहराई से इसे पहचाना था. न्यायालय के बारे में उन्होंने कहा था कि निर्णायक घड़ी में यह अंतत: सत्ता प्रतिष्ठान के साथ जाएगा और इसलिए लोक को अपने अधिकार के संघर्ष में न्यायालय पर आधार नहीं रखना चाहिए. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अकेले गांधी ही थे कि जिन्होंने फासिज्म के खिलाफ लोकतंत्र का नाम ले कर युद्ध करने वाले मित्र राष्ट्रों से पूछा था कि भारत जैसे महादेश को गुलाम रखकर आप लोकतांत्रिक लड़ाई का नाम भी कैसे ले सकते हैं तब जवाब किसी तरफ से नहीं आया था और गांधी ने भारत छोड़ो’ आंदोलन का ऐसा बिगुल फूंका कि साम्राज्यवाद को भारत छोड़ कर निकलना पड़ा था. तब गांधी ने भी हम एक हैं’ का हाथ बढ़ाया था और  धर्म-जाति-भाषा-वर्ग आदि का भेद पार कर लोगों ने उनका हाथ थामा था. सामने आज़ादी खड़ी थी. 

   ऐसी एकता साधे बिना श्रीलंका को भी और हमें भी थामने वाला कोई नहीं होगा. ( 19.07.2022)