Monday 14 November 2022

‘सेवा’ वाली ‘इला’

पढ़ कर यह जानना-समझना पूरी तरह संभव नहीं है कि गांधी की गढ़ी महिला कैसी होती थी !  क्योंकि गांधी तो अब हैं नहीं - पिछले 75 सालों से नहीं हैं - कि जो बनाते जाते और हम देखते जाते कि कैसी बनीं थीं मृदुला साराभाई या सरोजिनी नायडू या सुशीला नैयर या आभा या मनु या प्रभावती कैसे जानें हम कि ये सब कैसी बनी थींऔर फिर यह भी कि ये सब कैसे बनी थीं किताबों के अलावा हमारे पास कुछ दूसरा होता ही कैसे हम तो उनके बहुत बाद पैदा हुए हैं. गांधी भी तो हम किताबों में ही खोजते-पाते रह जाते यदि गांधी कुछ ऐसे लोगों को अपने नमूने की तरह हमारे बीच छोड़ न जाते कि जिनको देखो तो कुछ अंदाजा लगा सकोगे कि गांधी के गढ़े आदमी कैसे होते थे! और यह बारीक बात भी तो वे ही हमसे कह गए न कि अब ऐसा कोई एक व्यक्ति तो होगा नहीं कि जो मेरा पूरा प्रतिनिधित्व कर सके लेकिन कुछ लोग ऐसे होंगे कि जो मेरा कुछ अंशों में प्रतिनिधित्व कर सकेंगे. तो विनोबाजयप्रकाशकाका साहबदादा धर्माधिकारीधीरेंद्र मजूमदार जैसे कुछ और जवाहरलालसरदारलोहियाराजेंद्र बाबू जैसे कुछ नमूने हमने देखे. जो किताबों में पाया हमने और जो इनमें देखा हमने उससे कुछ अंदाजा लगाया कि गांधी की चाक कैसे चलती थी व कैसा गढ़ती थी. 

  सेवा वाली इला भी ऐसा ही एक नमूना थीं. गांधी ने सीधे उन्हें नहीं गढ़ा थागांधी ने उन्हें छुआ था वैसे ही जैसे महानात्माएं हमें दूर से छूती हैं और गहरे आलोकित करती हैं. जहां तक मैं जानता हूं7 सितंबर 1933 को जनमी और 2 नवंबर 2022 को जिस इला भट्ट का अवसान हुआउन्हें कभी गांधी का सीधा साथ नहीं मिला और न वे गांधी आंदोलन में शरीक ही रहीं. होना संभव भी नहीं था. वकील पिता तथा महिलाओं के सवालों पर सक्रिय मां की बेटी इला तब 15 साल की थीं और स्कूलों-कॉलेजों की सीढ़ियां चढ़ रही थीं जब गांधी मारे गए. इसलिए उनके जीवन में गांधी को किसी पिछले दरवाजे से ही दाखिल होना था. वे उसी तरह दाखिल हुए भी. उनके साथ मिल-बैठ करबातें करते हुए मुझे सहज महसूस होता था कि यह गांधी की आभा से दीपित आत्मा है. वे छोटी कद-काठी की थींधीमी,मधुर आवाज में बोलती थीं जिसमें तैश नहींतरलता होती थी लेकिन आस्था की उनकी शक्ति न दबती थीन छिपती थी. बहस नहीं करती थीं बल्कि बहसें उन तक पहुंच कर विराम पा जाती थीं क्योंकि आत्मप्रत्यय से प्राप्त एक अधिकार उनकी बातों में होता था. वे तर्कवानों की बातों की काट नहीं पेश करती थीं. काटना या तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने जैसे हथियारों का वजन उठाना उनके व्यक्तित्व के साथ शोभता ही नहीं था लेकिन एक मजबूत इंकार की अभिव्यक्ति में वे चूकती भी नहीं थीं. सादगी की गरिमा अौर आत्मविश्वास का साहस उनमें कूट-कूट कर भरा था. 

  साबरमती आश्रम को ले कर विवाद खड़ा हुआ था. तब हुआ यूं था कि अचानक ही आज की सरकार ने 12 सौ करोड़ रुपयों की थैली साबरमती आश्रम में शांत-निर्द्वंद्व  सोये गांधी के सिरहाने रख दी थी और शोर मचा दिया कि यहां से उठिए श्रीमान मोहनदास करमचंद गांधीजी कि हम इस आश्रम को वर्ल्ड क्लास’ बना कर ही दम लेंगे ! शोर उठाशोर का आयोजन करवाया गया. ऐसी विषाक्त हवा बनी कि जो आश्रम के ट्रस्टी थे वे गांधी के ट्रस्ट’ की कीमत परसरकार का ट्रस्ट’ खरीदने को तैयार हो गए. गांधी का ट्रस्टी’ होना एक नैतिक दायित्व को वहन करने के साहस का नाम हैयह वे भूल ही गए. वे किसी व्यावसायिक कंपनी की मुनीमगिरी में लग गए. जब गांधी की नैतिकता का जुआ ढोने का साहस व कूवत न बची हो तो गांधी को प्रणाम करस्वंय को पीछे कर लेने का विवेक कहां से बचेगा ! 

   गांधी जैसे थे और जैसे हैं वैसे ही वर्ल्ड क्लास हैंकि हम सरकार के साथ मिल कर उन्हें वर्ल्ड क्लास बनाने का आयोजन करेंगे ? मेरे सवाल पर वे कहीं गहरे में विचलित हुईं. वे ही साबरमती आश्रम ट्रस्ट की अध्यक्ष थीं. वैधानिक दायित्व भी उनका ही था और नैतिक दायित्व भी !  लेकिन मैं क्या करूं?उनकी आवाज की व्यग्रता मैं सुन भी रहा थासमझ भी रहा था  उम्र इतनी हो गई हैशक्ति बची नहीं हैट्रस्टी-मंडल में मैं एकदम अकेली पड़ जाती हूं. मुझे ये लोग सारी बातें बताते भी भी नहीं हैं, आवाज में दर्द भी थालाचारी भी आपके साथ दौड़ना चाहिए मुझे लेकिन मैं चल भी नहीं पा रही हूं. मैंने कहा:  आप अकेली नहीं हैं. ट्रस्टी मंडल से आप हट जाएंगी तो वे सब अकेले पड़ जाएंगे जो आज अपनी संख्या का बल गिन रहे हैं. यह पूरी मंडली आपकी नैतिक पूंजी से ताकत पाती है. आप एक बार देश व गुजरात को बता दें कि इन लोगों से असहमत हो कर मैं इनसे अलग हो रही हूं तो फिर रास्ता इन्हें खोजना होगाआपको नहीं. मैं क्या कह रहा था और किससे कह रहा थामैं जानता था. वे मेरे कहे का सारा दर्द झेल रही थीं आप जो कह रहे हैं वह तो रास्ता है लेकिन मैं यहां से हटूंगी तो इनका रास्ता और  आसान हो जाएगा. मैं वहां रह कर प्रतिरोध करूंगी लेकिन मेरा अपना तरीका होगा. मैं सबको साथ ले कर चलूंगी फिर जिसे अलग होना होहो. उन्होंने वैसा कुछ किया भी और प्रतिरोध के साथ सामने आईं भी. मेरे एक निजी पत्र के जवाब में उन्होंने इतना ही कहा कि आप मुझसे निराश नहीं होंगे. 

  गांधी के संघर्ष से उनका नाता कभी रहा नहीं तो स्वभाव में भी वह नहीं रहा. समाज-सरकार सबसे तालमेल बिठा कर वे सारा जीवन काम करती आईं तो इस सांध्यबेला में रास्ता बदलना बहुत असहज था. कानून की पढ़ाईशिक्षा-संस्थानों में नौकरीसरकारी नौकरी आदि रास्तों को पार करती 1972 में उन्होंने उस सेवा’ की स्थापना की जो कालांतर में असंगठित कामगार महिलाओं का देश का - संसार का भी संभवत: - सबसे बड़ा संगठन बन गया. महिलाओं को नेतृत्व में लाने का ऐसा व्यापक प्रयास दूसरा हुआ हो तो मुझे ध्यान नहीं आता है. इसके पीछे भी कहीं गांधी खड़े थे. बिहार के चंपारण का किसान आंदोलन खड़ा कर गांधी वहां से सीधे पहुंचे अहमदाबाद जहां एक मजदूर आंदोलन की खिंचड़ी पक रही थी. साराभाई-परिवार के कपड़ा मिलों का साम्राज्य तब बहुत बड़ा था. यहां के मजदूरों के संघर्ष की कमान गांधी ने संभाली. वह पूरी कहानी छोड़ कर इतना ही कि उस संघर्ष के गर्भ से पैदा हुआ मजूर-महाजन संगठन मजदूर आंदोलनों के इतिहास में गांधी की अपनी देन है. इला की सेवा’ के पीछे मजूर-महाजन संगठन से मिला अनुभव था. 

  सेवा’ का काम जितनी गति से बढ़ा और जैसा वृहदाकार उसका बनावह इला की संगठन-सूझसंवेदनादृढ़ता व काम करने की जबर्दस्त लगन का स्मारक ही बन गया. सफलता भी मिलीअनगिनत सम्मान भी मिले तो मुश्किलें भी आईंचुनौतियां भी खड़ी हुईं. 1986 में सरकार ने पद्म-भूषण’ से सम्मानित कर इला के जीवन पर अपनी मुहर तो लगा दी लेकिन उनके काम को आसान नहीं बना सकी. उनका सारा काम व्यवस्था से बारीक तालमेल बिठा कर तथा बाजवक्त उसे चुनौती दे कर ही संभव हुआ था. इसमें कमलादेवी चट्टोपाध्याय के साथ से मिली दृष्टिअहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन तथा बुच साहब से मिला सहयोग अहम था. इसरायल जाने व तेल अबीब के एफ्रो-एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ लेबर एंड कोऑपरेटिव्स में पढ़ाई करने का अवसर इला को वह बना गया जो हमने उनके बाकी के सारे जीवन में आकार लेते देखा. यह कहानी परिपूर्ण नहीं होगी यदि हम रमेश भट्ट का जिक्र न करें जिनसे 1956 में उनका विवाह हुआ. रमेश भाई इला की सेवा’ में ऐसे रमे कि अंतिम सांस तक उबरे नहीं. 

  इला बेन दुनिया में हर कहीं गईंदुनिया की नामचीन हस्तियों के साथ मिल कर बहुत सारे मंचों का निर्माण भी कियाकाम भी किया लेकिन खादी की साड़ी में लिपटी उतनी ही सहज-सरल बनी रहीं. 18 जुलाई 2007 को नेल्सन मंडेलाडिसमांड टूटू आदि ने मिल कर एक अनोखी ही पहल की और वरिष्ठ जनों का एक ऐसा ग्रुप बनाया - इ एल्डर्स- जिसका खाका नेल्सन मंडेला के शब्दों में इस प्रकार उभरा :  हमारी यह टोली स्वतंत्रता व साहस के साथ बोलेगीचाहे सामने आ कर हो या नेपथ्य सेजब जैसा जरूरी  होगाकाम करेगी. हम मिल कर जहां भय है वहां साहस को सहारा देंगेजहां मतभेद हैं वहां सहमति की तलाश करेंगे तथा जहां निराशा है वहां आशा का संचार करेंगे. इस स्वप्नदर्शी पहल में उन्होंने इला को साथ जोड़ा. इला ऐसी जुड़ीं इससे कि सारी दुनिया में कहां-कहां नहीं टोली ले कर पहुंचीं. 2010 में अपने वरिष्ठों को ले कर वे गाजा पहुंची थीं और तब उन्होंने अपनी टोली की तरफ से लिखा था :  जुल्म के खिलाफ अहिंसक संघर्ष में हिंसक युद्ध से अधिक जान झोंकनी पड़ती है और वे कायर होते हैं जो हथियारों का सहारा लेते हैं.

  स्वास्थ्य व उम्र ने उन्हें बांधा तो जरूर था लेकिन वे अंत-अंत तक अपनी ही इस कसौटी पर खुद को आजमाती रहीं. गुरु गांधी ने ही सिखलाया था कि जहां असहमति व विरोध से बात न बने अौर सीधी लड़ाई की क्षमता न हो वहां असहकार का अहिंसक हथियार इस्तेमाल करना. इसलिए जब साबरमती आश्रम तथा गुजरात विद्यापीठ के सभी जनों ने उनका हाथ छोड़ दिया और वे एकाकी पड़ गईं तो उन्होंने इस हथियार का सहारा लिया और जीवन से त्यागपत्र देने से पहले अध्यक्षता से त्यागपत्र दे दिया. किसी को लगा होगा कि वे गईं लेकिन दरअसल तो हम सब गए ! 

  अब हमारे खाली हाथों में उनके दोनों त्यागपत्र हैंऔर उससे भी खाली व सूनी आंखों से हम गहराते अंधकार को देख रहे हैं. ( 04.11.2022)

सुनक और हमारी सनक

पिछले 210 साल के ब्रितानी इतिहास में सबसे कम - 42 साल - उम्र केअश्वेतहिंदू धर्मावलंबी ऋषि सुनक को इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बनाना इंग्लैंड के लिए अौर भी अौर कंजरवेटिव पार्टी के लिए भी संतोष भरे गर्व का विषय होना चाहिए. अपने सामाजिक-अार्थिक-राजनीतिक जीवन के एक अत्यंत नाजुक दौर मेंपार्टी ने हर तरह के भेद को भुला करअपने बीच से एक ऐसा अादमी खोज निकाला है जो उसे लगता है कि उसके लिए अनुकूल रास्ता खोज सकता है. उसका यह चयन कितना सही हैयह समय बताएगा लेकिन यह खोज ही अपने अाप में इंग्लैंड को विशिष्ट बनाती है. सुनक की कंजरवेटिव पार्टी भारत के लिए बहुत अनुकूल नहीं रही है लेकिन अाज की बदलती दुनिया मेंपुरानी छवियां खास मतलब नहीं रखती हैं. अाज जो है वही अाज के मतलब का है. भारत को भी अौर इंग्लैंड को भी जरूरत है एक-दूसरे से नया परिचय करने की अौर सुनक इसे शायद अासान बना सकेंगे. 

  सुनक के इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बनने का भारतीय संदर्भ में इतना ही मतलब है -न इससे ज्यादान इससे कम ! लेकिन सुनक के प्रधानमंत्री बनते ही जैसी सनक भारतीय मन व मीडिया पर छाई है- अाम लोगों से ले कर अमिताभ बच्चन तक !-  वह अफसोसजनक बचकानी है. ऐसा कुछ भाव बनाया जा रहा है मानो सुनक के बहाने अब भारत इंग्लैंड पर वैसे ही राज करने जा रहा है जिस तरह कभी इंग्लैंड ने हम पर राज किया था. किसी ने इसे बदला’ बताया है तो किसी ने स्वाभाविक न्याय’. मुंगेरीलाल के हसीन सपनों में बावलापन थाहमारी इन प्रतिक्रियाअों में घटिया काइंयापन है.   

  सुनक एक प्रतिबद्धसमर्पित ब्रितानी नागरिक हैं जैसा कि उन्हें होना चाहिए.  उनका विवाह एक भारतीय लड़की से हुअा है. उस भारतीय लड़की का परिवार- नारायण-सुधामूर्ति परिवार- भारत के सबसे प्रतिष्ठित व संपन्न परिवारों में ऊंचा स्थान रखता है. इस लड़की से शादी के बाद सुनक इंग्लैंड के सबसे अमीर 250 लोगों में गिने जाते हैं. इसके अलावा सुनक का कोई तंतु भारत से नहीं जुड़ता है. न ऋषि सुनक भारत में जनमे हैंन उनके माता-पिता,यशवीर व उषा सुनक का जन्म भारत में हुअा है. उनके दादा-दादी जरूर अविभाजित भारत के पंजाब के गुजरानवाला में पैदा हुए थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया. दादा-दादी परिवार ने भी अर्से पहले गुजरानवाला छोड़ दिया था अौर अफ्रीका जा बसे थे जहां से 1960 मेंअर्द्ध-शताब्दी पहले वे इंग्लैंड जा बसे. जिस तरह अमरीका के राष्ट्रपति बराक अोबामा केन्या में जनमे थे अौर ईसाई धर्म में अास्था रखते हैंठीक वैसे ही सुनक इंग्लैंड में जनमेहिंदू धर्म में अास्था रखते हैं. हमें अपनी सोनिया गांधी से सुनक को समझना चाहिए जिनका जन्म इटली में हुअाजो जन्ममना ईसाई धर्म की अनुयायी हैं लेकिन एक भारतीय लड़के से शादी कर भारतीय बनीं तो अाज उनका कोई भी तंतु इटली से पोषण नहीं पाता है. धर्म की परिकल्पना एक संकीर्ण बाड़े के रूप में करने वालों के लिए सोनिया व सुनक जैसे लोग एक उदाहरण बन जाते हैं कि धर्म निजी चयन व अास्था का विषय हैहोना चाहिए लेकिन उससे नागरिकता या पहचान तय नहीं की जा सकती है. सुनक के मामले में ऐसा कर के हम इंग्लैंड के अंग्रेजों में मन में नाहक संकीर्णता का वह बीज बो देंगे जो कहीं है नहीं. यह न भारत के हित में हैन इंग्लैंड के. 

  रंग-धर्म-जाति-लिंग-भाषा अादि के मामले में दुनिया का मन जरा-जरा-सा बदल रहा है. हम उसे पहचानें तथा उसका सम्मान करेंयह हमारे व संसार की हमारी भावी पीढ़ियों के हित में है. 

   पूर्णकालिक राजनीतिक बनने से पहले सुनक इन्वेस्टमेंट बैंकर रहेफिर गोल्डमैन सांच तथा हेज फंड पार्टनर रहे हैं. अार्थिक जगत में बड़ा मुकाम रखने वाली कुछ अन्य कंपनियों से भी उनका नाता रहा. मतलब यह कि प्रारंभ से ही वे पैसों की दुनिया में चहलकदमी करते रहे हैं. विडंबना यह है कि पैसे वालों की दुनिया ने ही अाज पैसे का बुरा हाल कर रखा है जिससे दुनिया का बुरा हाल है. सवाल उठता है कि क्या अब इस बदहाल दुनिया को संभालने-संवारने का काम सिर्फ पैसों के खिलाड़ी कर सकते हैं हमने मनमोहन सिंह को देश की बागडोर थमा कर यह प्रयोग किया था. अार्थिक संकट को संभालने में वे किसी हद तक कामयाब भी हुए थे. लेकिन मनमोहन-काल देश को समग्रता में संवारने के लिए नहींबिगाड़ने के लिए याद किया जाता है. उसी विफलता में से अाज का शासन सामने अाया जिसके पास न अार्थिक समझ हैन भारतीय समाज की समग्र समझ ! 

  सुनक करोना-काल में इंग्लैंड के वित्तमंत्री थे. उन्होंने इंग्लैड को तब जिस तरह संभालाउसकी सर्वत्र तारीफ भी हुई. लेकिन कई दूसरी बातें भी हुईं जो बताती हैं कि उनके पास वह समग्र सोच नहीं है जिसके बगैर इंग्लैंड अाज के संकट से पार नहीं पा सकता है. ब्रेक्जिट से निकलने के बाद से हम देख रहे हैं कि इंग्लैंड अार्थिक रूप से  किसी हद तक निराधार हो गया है अौर गहरी राजनीतिक अस्थिरता से घिर गया है. 2008 से छाई वैश्विक मंदी का गहरा परिणाम वह भुगत रहा है. उत्पादक सूचकांक लगातार गिरता जा रहा है तथा रोजगार तेजी से सिकुड़ता जा रहा है. महंगाई अौर बेरोजगारी चरम पर है. ऊर्जा संकट उसे अंधकार में खींच रहा है तो यूक्रेन-रूस युद्ध उसके वैकल्पिक  रास्ते बंद करता जा रहा है. 

  बोरिस जान्सन की खिलंदड़ी राजनीति ने इंग्लैंड को इस तरह डरा दिया कि उसे रूस से अपनी सुरक्षा की चिंता होने लगी. परिणामत: उसका रक्षा बजट अंधाधुंध बढ़ने लगा जो अाज भी जारी है अौर उसे खोखला कर रहा है. कंजरवेटिव पार्टी भीतर से बिखरी हुईगुटों में टूटी हुई तथा अवसरवादियों से भरी हुई है. लेबर पार्टी के पास भी कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं है. सुनक के पास विकल्प कितने कम हैंइसे हम इस तरह पहचान सकते हैं कि सुनक ने अपने मंत्रिमंडल में उन मुख्य लोगों को बनाए रखा है जिन्हें 45 दिनों की प्रधानमंत्री लिज ट्रस चुना था अौर जिनकी सलाह व मदद से उन्होंने वह मिनी-बजट पेश किया था जिसने उनकी सरकार व उनके राजनीतिक भविष्य को ही लील लिया. ऐसी विकल्पहीनता में से सुनक को खुद को बेहतर विकल्प साबित करना है.  

  राजनीतिक व सामाजिक चुनौतियों के समक्ष सुनक नये भी पड़ेंगे अौर अकेले भी. उनका यह कार्यकाल ब्रितानी जनता द्वारा प्रमाणित नहीं हैइसका दवाब भी उन्हें झेलना होगा. मतलब यदि कांटों का ताज जैसी कोई उपमा होती है तो सुनक ने अागे बढ़ कर वह ताज स्वंय अपने माथे पर रख लिया है. हम उस माथे के लिए भी अौर उस ताज के लिए भी सहानुभूति रखते हैं अौर शुभकामनाएं भी भेजते हैं. ( 28.10.2022)

50वां न्यायाधीश और 75 साल का भारत

         संगीत में कुछ है ऐसा रहस्य कि जब आप शिखर पर पहुंचते हैं तो वह वहां आपकी बांह थामने को खड़ा मिलता है. वहां पहुंच कर ही संगीत का असली मतलब समझ में आता है - संग चलने वाला गीत ! हमारा भौतिक जीवन भी दूसरा कुछ नहींसंगीत का ही एक तेज आलाप है. इसलिए इसमें हैरान होने जैसा कुछ भी नहीं है कि हमारी सभ्यता ने जिन लोगों के कंधों पर बैठ कर अपने कई सोपान चढ़े हैंवे सब कहीं-न-कहींकिसी-न-किसी तरह संगीत से आप्लावित रहे हैं - फिर चाहे आइंस्टाइन रहे हों कि रोमैं रोलां कि रवींद्रनाथ कि अलबर्ट स्वाइत्जर कि गांधी ! यह बात कम ही उभरी है कि अहमदाबाद में बंद पड़ गए संगीत विद्यालय को फिर से शुरू करवाने की जद्दोजहद में गांधी ऐसे लगे थे मानो आजाद भारत का संगीत ही कहीं खो गया हो ! वे भातखंडे तक दौड़े थेअौर हमें बता गए:  हम संगीत का ऐसा संकुचित अर्थ न करें कि वह सधे हुए कंठ सेशुद्ध स्वर मेंताल के साथ गाने-बजाने का अभ्यासमात्र है. जीवन में एकरागता अौर एकतानता होने पर ही सच्चा संगीत प्रकट होता है. जब तक वह संगीत प्रकट नहीं हुआ हैतब तक देश में अराजकता या कुराजकता रहने ही वाली है अौर गुलामी से हमारा छुटकारा संभव नहीं है.  

           सर्वोच्च न्यायालय के हमारे 50वें मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ का संगीत-प्रेम भी किसी से छुपा नहीं है. वे जिस महत्वपूर्ण जिम्मेवारी को एक अत्यंत नाजुक घड़ी में अंगीकार करने जा रहे हैंउस जगह कभी उनके पिताश्री यशवंत वी. चंद्रचूड़ विराजते थे. पिता यशवंत प्रशिक्षित शास्रीय संगीतज्ञ थे. धनंजय चंद्रचूड़ ने कानून की बारहखड़ी जब भी पढ़ी होघर में संगीत की बारहखड़ी बचपन से ही सुनी-पढ़ी है. उनकी मां को शास्रीय गायन सिखाने उनके घरदूसरा कोई नहींकिशोरी अमोनकर आती थीं. संगीतवह भी किशोरी अमोनकर सेयशवंत चंद्रचूड़ में जैसे घुट्टी में मिला है. उन्होंने ही बताया है हमें कि जब एक बार उन्होंने किशोरी अमोनकर से अॉटोग्राफ मांगा तो किशोरी अमोनकर ने लिखा :  संगीत हमें संगीतमय करता हुआ मौन तक पहुंचाता है : म्यूजिक म्यूजिकली लीड्स अस टू साइलेंस ! न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से यह देश अौर इसकी लोकतांत्रिक आत्मा अाज बस एक ही मांग करती है कि वह संगीतमय न्याय की नजरों से हमें देखे अौर संगीतमय मौन की भाषा में अपना फैसला सुनाए. यह देश आज जितना बेसुरा हुआ है उतना पहले कभी नहीं था. पहले भी यह संगीत विशारद तो नहीं था लेकिन रियाज में लगा हुआ था. आज तो बेसुरे को ही तानसेन साबित करने व मनवाने की हवा बहाई जा रही है. जब विधायिका बेसुरा गाने लगती है तो कार्यपालिका फटे बांस-सा राग अलापती है. यही वह नाजुक व घातक घड़ी है अाज जब न्यायपालिका सारे संसदीय तंत्र को राग बदलने परसंवैधानिक आलाप लेने पर तरीके से मजबूर करे.  

         हमारे संविधान से लोकतंत्र का दो चेहरा उभरता है : एकसंसदीय लोकतंत्र हैदूसरा संवैधानिक लोकतंत्र है. संसदीय लोकतंत्र एक ढांचा हैअावरण है जिसके भीतर संसद चलती हैकानून बनते हैंअदालतें चलती हैंझंडा लहराता हैलाल किले से अभिभाषण होते हैंफौजी परेड अादि होती है.  यह सब पहले भी इसी तरह होता था - 1947 से पहले भी ! तब भी यह सब था लेकिन जो नहीं थी वह थी आजादी ! अाजादी के बिना यह सारा तामझाम व्यर्थ था. उस एक आजादी को पाने में इतने सारे बलिदान हुए अौर तब कहीं जा कर यह संभावना पैदा हुई कि हम संसदीय लोकतंत्र को ज्यादा आत्मवान बना सकें. इस संभावना की सिद्धि के लिए संविधान सामने आया. हमने नियति से वादा किया कि हम भारत के लोग संविधान के रास्ते चल करअपने संसदीय लोकतंत्र को संवैधानिक लोकतंत्र से जोड़ेंगे. हम मानते थे कि इस साझेदारी में से वह आजादी जन्म लेगी व संपुष्ट होती चलेगी जिसके बिना संसदीय लोकतंत्र एक अौपचारिकता बन कर रह जाता है. संवैधानिक लोकतंत्र संसदीय लोकतंत्र को रास्ता भी बताता है अौर भटकने से भी रोकता है. पूछा तब भी गया थाआज भी पूछा जाता है कि संवैधानिक लोकतंत्र भटके तो इसकी संभावना नगण्य है क्योंकि इसकी नकेल संविधान के खूंटे से बंधी होती है. संविधान लिखित हैखुला हुआ हैसबके देखने-जांचने के लिए वह 24Xउपलब्ध हैअौर संसदीय लोकतंत्र यदि समर्थ व सावधान है तो उसकी नकेल भी काम करती ही है. हमारे संविधान की ऐसी कुशल संरचना है कि इसका कोई भी शक्ति-तंत्र अपने में स्वयंभू नहीं है. सभी परस्परावलंबी हैं. लेकिन संसदीय तंत्र अपनी संख्या व अपने तंत्र के बल पर हमेशा स्वंयभू बनने की कोशिश में रहता है.  

          यही असली संकट है. संसदीय तंत्र तख्ततिजोरी व तलवार के गर्हित त्रिकोण में घिर गया है. कल तक जिन बाहुबलियों के बल पर सत्ता पाई जाती थीउन्होंने दूसरों के लिए काम करना बंद करवहां खुद की जगह बना ली है. जो कुछ दूसरे बचे-खुचे सांसद हैंवे भी उन्हीं की क्षत्रछाया में जीना पसंद करते हैं. हर दूसरे दिन वह अांकड़ा प्रकाशित होता है कि इस लोकसभा में कितने सांसद ऐसे हैं जिन पर आपराधिक आरोप दर्ज हैं. अांकड़े तो अाते हैं लेकिन एक उदाहरण भी ऐसा नहीं है कि जब किसी पार्टी ने अपने अपराधी सांसद से इस अाधार पर छुट्टी पाई हो. ऐसा ही विधायकों के साथ भी है. अब तो राज्यसभा आदि में जो मनोनयन हो रहे हैं उनमें भी ऐसे लोगों की मौजूदगी अाम है. जिसे अंग्रेजी में हेट स्पीच’ कह कर थोड़ा सौम्य बनाने का प्रयास होता है अौर उसकी अाड़ में यह बहस भी खड़ी की जाती है कि अाप कैसे फैसला करेंगे कि किसे हेट स्पीच’ कहेंगेकिसे नहींवह सीधे तौर पर संविधान से घृणा की घोषणा है. हम संविधान का वह सब कुछ हजम कर जाते हैं जो हमारे अनुकूल पड़ता हैउन सबकी धज्जियां उड़ाते हैं जो हमारी मनमानी में राई भर भी बाधा खड़ी करता है. यही वह जगह है जहां संवैधानिक लोकतंत्र को अपनी मजबूत उपस्थिति बनानी व बतानी चाहिए. लेकिन वह ऐसी जिम्मेवारी के निर्वाह में विफल हो जाता है.          

         लच्छेदार भाषणों तथा कातर बयानों की अाड़ में अाप इस विफलता को छिपा नहीं सकते हैं बल्कि ऐसा रवैया संविधान के संदर्भ में अपराध है. अदालतों मेंसर्वोच्च अदालत में भीऐसा होता रहता है. यह वह बेसुरा राग है जिसमें से अशांति व अविश्वास पैदा होता है. अदालत का काम समाधान बताना नहींसंविधान की कसौटी पर सही या गलत बताना है. समाधान बताने का गलत रास्ता पकड़ने के कारण अदालतों ने अपनी प्रतिष्ठा व अपनी सामयिकता खोई है. अदालतें जब कभी ऐसी टिप्पणी करती हैं कि पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में इन्हें’ रिहा किया जाता हैतो दरअसल वे अपराध या अपराधी की नहींअपने कर्तव्यच्युत होने की घोषणा करती हैं. अदालत की सार्थकता ही यह है कि वह तथ्यों की तह तक जाए अौर फिर संविधान की तुला पर उसे तौल करसही व गलत का फैसला दे. यदि वह तथ्यों तक पहुंची ही नहीं है तो उसे फैसला सुनाने की जल्दीबाजी क्यों है वह उन अधिकारियोंपुलिसमंत्रियों अादि के खिलाफ कोई कदम क्यों नहीं उठाती है जिनके कारण तथ्यों तक पहुंचने में वह समर्थ नहीं हुई अौर न्याय की पड़ताल में वह विफल रही ?    

          अदालत सही-गलत का निर्णय देने से पहले किसी का मुंह जोहेमुंहदेखी बात कहेक्या कहने से क्या प्रतिफल मिलेगा इसका हिसाब करेतो वह न्यायालय नहींबाजार है. बाजार में हर जिंस की कीमत होती हैतो आपके निर्णय की भी कीमत लगाई जाती हैअौर अदा भी की जाती है. इस तरह अदालत फरमाइशी गीतों का कार्यक्रम बन जाती है. हम यह भी देखते हैं कि अदालतें सामाजिक सवालों पर कभी-कभार सत्ता की मान्य धारा से भिन्न कोई रुख ले भी लेंलेकिन राजनीतिक सवालों पर निरपवाद रूप से सत्ता के साथ जाती हैं. इससे न्यायपालिका का पूरा चरित्र विदूषक-सा बन जाता है अौर समाज गहरे हतोत्साहित हो जाता है.  

         ऐसे मुकाम पर 75 साल का यह महान देश अपने 50वें न्यायाधीश से संगीत की वह तान सुनना चाहता है जो लोकतंत्र की अात्मा को छुए तथा उसके पांव मजबूत करे. ( 20.10.2022) 

 

मुंह और मुखौटों की आवाज

   मुखौटे बहुत खतरनाक होते हैं लेकिन बड़े काम के होते हैं. जो आप मुंह से नहीं बोल पाते हैं, मुखौटा वह आसानी से बोल सकता है. मतलब हींग, ना फिटकरी, रंग फिर भी चोखा ! 

   जो जानते हैं वे जानते हैं कि कब मुंह बोल रहा हैकब मुखौटाजो नहीं जानते हैं वे मुंह की कम सुनते हैंमुखौटे की ज्यादा. यह खेल तब तक मजे से चलता है जब तक आप मुखौटे को मुखौटा कह करउसका मुखौटा छीनने नहीं लगते हैं. ऐसा खतरनाक खेल हुआ है 80 के दशक में. भारतीय राजनीति में चाणक्य होने का मुगालता पालने वाले एक आचार्यजी नेभारतीय संस्कृति की अलंबरदार पार्टी के शीर्ष नेता को मुखौटा कह दिया. उन्हें भरोसा था कि मुखौटा जिस मुंह का मुखौटा थावह असली मुंह उनकी रक्षा करेगा. लेकिन मुखौटा-शास्त्र का प्राथमिक पाठ वे भूल गए कि जो असली मुंह होता हैवह मुखौटे की कीमत जानता है. वह मुखौटे को कभी अरक्षित नहीं छोड़ता है. 

   ठीक भी है नमुखौटा खिसक जाए तो फिर तो मुंह ही बचेगाऔर वह मुंहमुंह दिखाने लायक नहीं होगा तभी तो मुखौटे की जरूरत पड़ी. तो मुंह मुखौटा को ही बचाएगामुखौटा-चोर को नहीं. सोतब हुआ यूं कि मुंह भी बचा रहा और मुखौटा भीरेगिस्तान-बियाबान में जो गया वह मुखौटा-चोर थाऔर ऐसा गया कि आज तक उसकी घर वापसी नहीं हुई है. 

   आज हमारे सामने 2014 के बाद वाले मुखौटे हैं. लेकिन आगे की बात करने से पहले मैं बता दूं कि आधुनिक विज्ञान के युग में मुंह कौन और मुखौटा कौनयह स्थिर सत्य नहीं होता है. कभी मुंह मुखौटा बन जाता हैकभी मुखौटा मुंह बन जाता है. बहुत ज्ञानी लोग ही जान पाते हैं कि कौनकब किसका मुखौटा है और कौनकिसेकब मुंह बनने की अनुमति दे रहा है. तो यूं समझ लीजिए कि होते तो दोनों मुखौटा ही हैंमुंह बनने का खेल खेलना पड़ता है.

   तो अब बात की बात पर आते हैं. एक है राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और एक हैं दत्तात्रेय होसबाले ! संघ परिवार ने एक को काम दिया है समाज को बेहोश रखने काहोसबाले साहब को काम दिया है इस सरकार को होश में लाने व रखने का. आप समझ ही सकते हैं कि जिस काम पर होसबाले लगाए गए हैंवह काम वे तभी कर सकते हैं जब सरकार उसके लिए रजामंद हो. इसे मुखौटा निर्माण की प्रक्रिया कहते हैं. तो बात कुछ इस तरह तै हुई कि जब होसबाले होश में रहेंगे तो मुंह रहेंगेजब होश छोड़ देंगे तो मुखौटा बन जाएंगे. 80 के दशक वाला हादसा फिर न होइसलिए यह सावधानी जरूरी है. तो आइएअब कहानी पर आते हैं.  होसबाले साहब ने कहा कि देश में भयंकर गरीबी हैबेरोजगारी है तथा विषमता का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है. उन्होंने भारतीय संस्कृति का सहारा लिया और बोले कि ये सब दानव हैं जिनका सामना देश कर रहा है. बात को विज्ञान का बल देना भी जरूरी होता हैसो वे बोले : देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जो गरीबी की रेखा के नीचे हैं जिन्हें देख कर बेचारे होसबाले दुखी हो जाते हैं. फिर उन्होंने कहा कि 23 करोड़ लोग ऐसे हैं कि जो प्रतिदिन 375 रुपयों से कम कमाते हैं. उनके मुताबिक देश में 4 करोड़ बेरोजगार हैं. फिर वे एक कदम आगे जाते हैं : कहा जाता है कि हमारा देश संसार की 6 सबसे बडी अर्थ-व्यवस्था में एक है. लेकिन क्या यह बड़ी सुखद स्थिति है कि देश के सबसे ऊपर के 1 फीसदी लोग देश की राष्ट्रीय आय के 20 फीसदी के मालिक हैं जबकि देश के 50 फीसदी के पास मात्र 13 फीसदी है. वे और आगे गए कि देश की बड़ी आबादी को पीने का साफ पानी व पौष्टिक आहार नहीं मिलता है. 

   किस्सा तमाम यह कि देश का यह हाल देख कर होसबाले साहब का होश गुम है. मैं सोच रहा हूं कि क्या देश का असली हाल बताने वाले ये आंकड़े ऐसे नये हैं कि जिन्हें पहली-पहली मर्तबा संघ-परिवार की विशेषज्ञ समिति ने खोज निकाला है नहींऐसे आंकड़े तो पता नहीं कब से हमारे सामने हैं. िफर आज इनकी बात क्यों यहां मुखौटा अपने खेल खेलता है. केंद्र व राज्य के कई चुनाव सामने हैं और संघ व पार्टी में कई सारों को सारे पासे जगह पर दिखाई नहीं दे रहे. सभी सावधान हैं कि कोई अनहोनी हो न जाए ! ऐसे में संघ-परिवार को एक तीर से कई शिकार करने हैं. 

   केंद्र में यह सरकार वापस लौटेउसे यह देखना है क्योंकि संघ-परिवार जानता है कि उसके लिए भारतीय जनता पार्टी से अधिक अनुकूल सरकार हो ही नहीं सकती है. लेकिन वह महसूस करता है कि मोदी-सरकार उस तरह इनके इशारे पर चलती नहीं है कि जिस तरह ये चाहते हैं. संघ चाहता है कि खेल के नियम वह तय करें,सरकार का काम खेलना भर हो. इसलिए यह मुखौटा सामने लाया गया. इसे दो कामों के लिए आगे किया गया है. ये आंकड़े मतदाताओं के सामने रखे तो गए हैं लेकिन दरअसल यह सरकार को सावधान करने के लिए हैं. इशारा यह है कि लाइन पर आअोनहीं तो सरकारी प्रचार की पोल खोली जा सकती है. होसबाले साहब को बारीकी से सुनेंगे तो पाएंगे कि वे यह भी बताते चलते हैं कि इस सरकार की किस योजना सेकौन-सी समस्या हल होगी. जहां वे गरीबी व शिक्षा व्यवस्था की बुरी दशा की बात करते हैं वहीं यह भी कहते हैं कि इसलिए ही नई शिक्षा-नीति का प्रारंभ किया गया है. स्वावलंबी भारत अभियानस्किल डेवलपमेंट आदि का उल्लेख भी करते हैं. वे कोरोना काल में मिली इस सीख की भी बात करते हैं कि ग्रामीण रोजगार गांव में ही विकसित हो तथा यह भी कि आयुर्वेदिक दवाओं के विकास की दिशा में सही कदम बढ़ाया जा रहा है. मतलबमुखौटा हटाएंगे तो आपको सरकार से नाराज होने जैसा कुछ नहीं मिलेगा. एक तेवर है जो सरकार को सावधान करता है कि हमसे बना कर चलो.

   आप देखेंगे कि संघ प्रमुख भागवत भी लगातार कुछ ऐसा कहते रहते हैं कि जो सरकार की दिशा से एकदम-से मेल नहीं खाता है. लगता हैरास्वंसं को सरकार से न केवल परेशानी हो रही है बल्कि उसके पास ज्यादा फलदायी दूसरी दिशा भी है. लेकिन यह भी गौर करने लायक है कि ये सब मिल कर डोर उतनी ही और वहीं तक खींचते हैं कि जहां से वह टूटने न लगे. सब कुछ जैसा है वैसा ही चलता रहे लेकिन एक हवा ऐसी बनी रहे कि कोई है जो अंकुश लगाने का काम कर रहा है. लेकिन न तो अंकुश लगता हैन लगाया जाता हैन सरकार की दशा-दिशा में कोई फर्क पड़ता है. ऐसा ही हाल हमारे सड़क कल्याण मंत्री का है. वे भी कुछ अलग व तीखा कहने की मुद्रा में बोलते हैं लेकिन मर्यादा का ध्यान रखते हैं. मर्यादा का ध्यान रखना भी चाहिए. मुखौटों ने मर्यादा तोड़ी तो वे टूट ही जाते हैं. फिर उनकी कोई राजनीतिक दशा बचती नहीं है. 

   इसलिए हम मुखौटों की बात सुनें जरूर लेकिन यह ध्यान रखें कि मुंह और मुखौटे में फर्क होता हैऔर कब मुंह बोल रहा है और कब मुखौटायह फर्क करने की तमीज अनुभव के बाद ही आती है. ( 06.10.2022)     

Thursday 6 October 2022

जो तोड़ने से भी न टूटे वह गांधी है

             गांधी सारी दुनिया में हैं - मूर्तियों में ! एक जानकारी बताती है कि कोई 70 देशों में गांधीजी की प्रतिमा लगी है. भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन में गांधी 1917 में प्रवेश करते हैं और फिर अनवरत कोई 31 सालों तक, अहनिर्श संघर्ष की वह जीवन-गाथा लिखते हैं जिसे हिंदुत्व की धारा में कु-दीक्षित नाथूराम गोडसे की तीन गोलियां ही विराम दे सकीं. लेकिन एक हिसाब और भी है जो हमें लगाना चाहिए: कितने देशों में गांधी-प्रतिमा को खंडित करने की वारदात हुई है ? संख्या बड़ी है. गांधी के चंपारण में,  मोतिहारी के चर्खा पार्क में खड़ी गांधी की मूर्ति पिछले दिनों ही खंडित की गई है. ऐसे चंपारण दुनिया भर में हैं. अमरीका में अश्वेतों ने भी, ‘ब्लैकलाइफ मैटर्स जुंबिश के दौरान गांधी-प्रतिमा को नुकसान पहुंचाया था. ऐसी घटनाओं से नाराज या व्यथित होने की जरूरत नहीं है. फिक्र करनी है तो हम सबको अपनी फिक्र करनी है जो लगातार गहरी फिक्र का बायस बनती जा रही है.

            गांधी की प्रतिमाओं के खिलाफ एक लहर तब भी आई थी जब 60-70 के दशक में नक्सली उन्माद जोरों पर था. गांधी की मूर्तियों पर हमले हो रहे थे- वे तोड़ी जा रही थींविकृत की जा रही थींअपशब्द आदि लिख कर उन्हें मलिन करने की कोशिश की जा रही थी. तब यहां-वहां चेयरमैन माओ के समर्थन में नारे भी लिखे व लगाए जा रहे थे. मूर्तियों से लड़ने के इसी उन्मादी दौर मेंबिहार के जमशेदपुर में गांधी की मूर्ति का विभंजन हुआ था.  तब जयप्रकाश नारायण ने अपनी गांधी-बिरादरी को संबोधित करते हुए लिखा था कि गांधी से इन लोगों को इतना खतरा महसूस होता है कि वे इनकी मूर्तियां तोड़ने में लगे हैंइसे मैं आशा की नजरों से देखता हूं. यह हम गांधीजनों को सीधी चुनौती है जो अपनी-अपनी सुरक्षित दुनिया बना कर जीने लगे हैं. चुनौती नहीं तो गांधी नहींऐसा भाव तब जयप्रकाश ने जगाया था जो शनै-शनै उस लहर में बदला जिसे इतिहास में जयप्रकाश आंदोलन या संपूर्ण क्रांति आंदोलन कहा जाता है. 

            आज गांधी के खिलाफ एक दूसरा ध्रुव उभरा है जो हिंदुत्व के नाम से काम करता है. नक्सली आज भी हैं. अपनी बची-खुची ताकत समेट कर नक्सली हमलों व हत्याओं की खबरें भी यहां-वहां से आती रहती हैं लेकिन यह साफ है कि राज्य की हिंसा अब उन पर भारी पड़ रही है. हिंसा का यह दुष्चक्र नया नहीं है बल्कि यही इसका शास्र है कि बड़ी हिंसा छोटी हिंसा को खा जाती है और छोटी हिंसा बड़ी बनने की तिकड़म में लगातार हमले करती रहती है. इन दो हिंसाओं के बीच समाज पिसता रहता है. 

            जब मैं हिंदुत्व की बात कहता हूं तब मेरा आशय अंध-संकीर्णता से है. यह संकीर्णता भी दुनिया भर में फैली हैबढ़ रही है. इंग्लैंड ने ऋषि सुनक की जगह लिज़ ट्रस को प्रधानमंत्री चुनना ऐसी ही संकीर्णता का ताजा उदाहरण है. कंजरवेटिव दल के सदस्य श्वेत चमड़ी व ब्रिटिश मूल की अवधारणा से चिपके हैं जबकि ब्रिटिश जनता ज्यादा उदारता से सोचती व बरतती है. सभी जानते हैं कि यदि ब्रिटेन में आज आम चुनाव हो जाए तो सुनक की जीत होगी. सुनक अच्छे प्रधानमंत्री होंगे कि ट्रससवाल यह है ही नहीं. सवाल यह है कि संकीर्णता फैल रही है कि उदारता लगता है कि सारी दुनिया में यह दौर संकीर्णता को सर पर उठाए घूम रहा है. यह संकीर्णता सत्ता की ताकत पा कर ज्यादा हमलावर व ध्वंसकारी होती जा रही है. इसी ने तो गांधी को गोली भी मारी थी न ! गोली से गांधी मरे नहींबहुत व्यापक हो गए. उनकी सांस्कृतिक व सामाजिक-राजनीतिक स्मृतियां भारतीय मन में जड़ जमा कर बैठ गईँ. संकीर्ण सांप्रदायिकता ने ऐसे परिणाम की आशा नहीं की थी. इसलिए अब सत्ताप्रेरित संकीर्णता उनकी उन सारी स्मृतियों को पोंछ डालना चाहते हैं जिससे उसकी क्षुद्रता-विफलता सामने आती है. गांधी के खिलाफ तब वामपंथियों ने चेयरमैन माओ का प्रतीक खड़ा किया थाहिंदुत्व वाले नाथूराम गोडसे का प्रतीक खड़ा करने में जुटे हैं. हम याद रखें कि इन सबके अपने-अपने गोडसे हैं. सब अपने प्रतीक को खड़ा कर रहे हैं लेकिन जो खड़ा नहीं हो पा रहा है और जिसे खड़ा करने में किसी की दिलचस्पी भी नहीं है वह है लोकतंत्र का आम नागरिक. गांधी इसी की हैसियत बनाने व बढ़ाने में जीवनपर्यंत लगे रहे.   

            गांधी होते तो आजजब मैं यह पंक्ति लिख रहा हूं, 152 साल, 11 माह, 20 दिन के होते.  इतने साल आदमी कहां जीता है ! लेकिन गांधी जी रहे हैं तभी तो हम उनसे सहमत-असहमत ही नहीं होते रहते हैंउनकी मूर्तियों पर हमला कर अपना क्रोध या अपनी असहमति व्यक्त करते हैं. गांधी न कभी सत्ताधीश रहेन व्यापार-धंधे की दुनिया से और न उसके शोषण-अन्याय से उनका कोई नाता रहान उन्होंने कभी किसी को दबाने-सताने की वकालत कीन गुलामों का व्यापार कियान धर्म-रंग-जाति-लिंग भेद जैसी किसी सोच का समर्थन किया. वे अपनी कथनी और करनी में हमेशा इन सबका निषेध ही करते रहे. वे कहते व करते इतना ही रहे कि हमारे निषेध का रास्ता हिंसक नहीं होना चाहिए. उनका तर्क सीधा था और आज भी उतना ही सीधा है कि जितने तरह के शोषणभेद-भावगैर-बराबरीज्यादती चलती हैचलती आई है और आगे भी चल सकती हैउन सबकी जड़ हिंसा में है. 

            हिंसा का मतलब ही है कि आप मनुष्य से बड़ी किसी शक्ति कोमनुष्य का दमन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं फिर चाहे वह शक्ति हथियार की हो कि धन-दौलत या सत्ता की या संख्या या उन्माद की. गांधी ऐसे किसी हथियार का इस्तेमाल मनुष्य के खिलाफ करने को तैयार नहीं होते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि इससे मनुष्य व मनुष्यता का पतन होता है और जिसके खिलाफ हम होते हैंवह बना ही नहीं रहता है बल्कि पहले से ज्यादा क्रूर व घातक हो जाता है. हिंसा हमारे निष्फल क्रोध की निशानी बन कर रह जाती है. इसलिए ही वे कहते हैं कि हिंसा बांझ होती है. 

            अहिंसक रास्ते से मनुष्य व मनुष्यों का समाज अपनी कमियों-बुराइयों से कैसे लड़ सकता हैऔर  कैसे अपनी सत्ता बना सकता हैइसका कोई इतिहास नहीं है. जो और जितना हैवह गांधी का ही बनाया है. तो गांधी एक संभावना का नाम है. कुछ लोग हैं ऐसे जो गांधी के बाद भी इस संभावना को जांचने और  सिद्ध करने में लगे हैं. इसलिए ही तो हम गांधी-विनोबा-जयप्रकाश का त्रिकोण बनाते हैं क्योंकि अहिंसक शोध की दिशा में इतिहास के पास कोई चौथा नाम है नहीं. हम कह सकते हैं कि इन चारों की अपनी मर्यादाएं व कमजोरियां भी हैं जैसी हर मानव की अौर हर मानवीय प्रयास की होती हैं. फिर ऐसे गांधी का और उनकी दिशा में की जा रही कोशिशों का ऐसा घृण्य विरोध क्यों है गांधी के प्रति धुर वामपंथियों का और धुर दक्षिणपंथियों का एक-सा द्वेष क्यों है यह द्वेष आज का नहींजन्मजात है. गांधी को अपने जीवन के प्रारंभ से तीन गोलियों से छलनी होने तक इनका घात-प्रतिघात झेलना पड़ा. ऐसा क्यों इसका कारण समझना किसी जटिल वैज्ञानिक समीकरण को समझने जैसा नहीं है हालांकि विज्ञान ही बताता है कि एक बार ठीक से कुछ भी जान-समझ लें हम तो जटिल या सरल जैसा कुछ नहीं होता है. जो जटिल है वह ज्ञात व अज्ञात के बीच की खाई है. 

            गांधी इस अर्थ में बेहद खतरनाक हैं कि वे कैसी भी गैर-बराबरीकिसी भी स्तर पर भेद-भावकिसी भी तर्क से शोषण-दमन को स्वीकारने को तैयार नहीं है- इस हद तक कि वे इनमें से किसी की मुखालफत करते हुए जान देने को तैयार रहते हैं. दूसरी तरफ यही गांधी हैं कि जो किसी भी तरह बदला लेने या प्रतिहिंसा को कबूल करने को तैयार नहीं हैं. मानव-जाति ने प्रतिद्वंद्वी से निबटने के जो दो रास्ते जाने,माने और लगातार अपनाए भी हैंवे इन्हीं बलों पर आधारित हैं- हिंसा-प्रतिहिंसा-बदला.  कहूं तो हमारी सभ्यता का सारा इतिहास इन्हीं तीन ताकतों का दस्तावेज है. कोई तीसरी ताकत भी हो सकती है जो इस दुष्चक्र से मनुष्यता को त्राण दिला सकती हैइसका अविचल दावा और उस दिशा में लगातार साहसी प्रयास हमें गांधी में ही मिलता है. गांधी से द्वेष का यही कारण है कि गांधी हमेशाहर जगह उनकी जड़ ही काट देते हैं. 

             गांधी से वामपंथियों का विरोध या द्वेष इधर कुछ कम हुआ है. राजनीतिक सत्ता की छीनाझपटी में लगी दलित पार्टियों का गांधी के खिलाफ विषवमन कुछ धीमा पड़ा है तो सोच-समझ रखने वाले दलितों के बीच से सहानुभूति व समन्वय की कुछ आवाजें भी उठने लगी हैं. लेकिन इन सबके पीछे राजनीतिक परिस्थितिजन्य मजबूरी कितनी है और समझ में बदलाव कितना हैयह देखना अभी बाकी है. हम देख ही रहे हैं कि गांधी के अपमान व उनकी मूर्तियों के विभंजन पर इनकी तरफ से कोई खास प्रतिवाद आज भी नहीं होता है. 

            प्रतिवाद में जो आवाजें उठती हैं उनमें हायतौबा ज्यादा होती है. यह भी सच है कि ऐसी घटनाओं  के पीछे दिशाहीन सामाजिक उपद्रवीशराबी-अपराधी किस्म के लोग भी होते हैं लेकिन यह भी सच है कि यह गांधी से विरोध-भाव रखने वाली राजनीतिक-सामाजिक शक्तियों का कारनामा भी है. यथास्थिति बनाए रखने वाली दक्षिणपंथी तथा हिंसा-द्वेष की लहर बहा कर उनकी जगह लेने में लगी वामपंथी ताकतों का यह वही खेल है जो गांधी को अपने हर कदम के इंकार में खड़ा पाता है. गांधी का यह इंकार इतना सशक्ततार्किक व सीधा है कि 70 से अधिक सालों से लगातार अनुपस्थित होने पर भी वे गांधी की कोई सार्थक काट खोज नहीं पाए हैं सिवा छूंछा क्रोध प्रदर्शित करने के. यह असत का सत पर प्रहार है. 

            गांधीवालों में इससे क्रोध या ग्लानि का भाव पैदा नहीं होना चाहिए. मूर्तियों का यह प्रतीक-संसार सारी दुनिया में अत्यंत बेजानअर्थहीन व नाहक उकसाने वाला हो गया है. हमारा हाल तो ऐसा है कि बुद्ध जैसे मूर्तिपूजा के निषेधक की मूर्तियों से हमने जग पाट दिया है. तो गांधी पर हम गांधी वाले रहम खाएं और  मन-मंदिर में भले उन्हें बसाएंउनकी मूर्तियां न बनाएं. हम दृश्य-जगत में उनके मूल्यों की स्थापना का ठोस काम करें. गांधी सामयिक हैंयह बात नारों-गीतों-मूर्तियों-समारोहों-उत्सवों से नहींसमस्याओं के निराकरण से साबित करनी होगी. जो गांधी को चाहते व मानते हैं उनके लिए गांधी एक ही रास्ता बना व बता कर गए हैं : अपने भरसक ईंमानदारी व तत्परता से गांधी-मूल्यों की सिद्धि का काम करें ! इससे उनकी जो प्रतिमा बनेगीवह तोड़े से भी नहीं टूटेगी. हम जयप्रकाश की वह चेतावनी याद रखें : “ गांधी की पूजा एक ऐसा खतरनाक काम है जिसमें विफलता ही मिलने वाली है.” इसलिए गांधी की हर विखंडित प्रतिमा दरअसल हमें विखंडित करती है और हमें ही चुनौती भी देती है. (21.09.2022)  

Monday 19 September 2022

इतिहास के चीते

 70 साल बाद चीते भारत में दिखाई दिए; और वह भी प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर, प्रधानमंत्री के साथ जन्मदिन मनाते हुए; और यह भी कि प्रधानमंत्री ने खुद नामीबिया से चीतों को भारत ला कर मध्यप्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में बसाया है. बना न इतिहास !! ऐसे बनता है इतिहास; और यहां तो रोज-रोज ही बनाए जा रहे हैं इतिहास. आपने नहीं देखा, राजपथ को कर्तव्यपथ बना कर अभी-अभी तो इतिहास बनाया गया. इतने इतिहास बनाए जा रहे हैं कि गिनने की फुर्सत नहीं है कि कौन-सा इतिहास कहां से निकला और कब बे-इतिहास हुए, इतिहास के गर्त में समा गया ! 

      इतिहास के साथ यही परेशानी है. जिसके काल में वह बना दिखाई देता हैउसी के काल में बनता नहीं है. इतिहास की जंजीर काल की सातत्यता से ही बनती है. अब इन चीतों की बात ही लीजिए. 2010 में तब की सरकार ने चीतों के देश से विलुप्त होने की बात पर ध्यान दिया था और बाहर से चीतों को भारत ला कर बसाने की योजना बनाई थी. गुजरातराजस्थानमध्यप्रदेश से जुड़ी जंगलों की वह पट्टी भी तभी चुनी गई थी जिसमें कूनो भी आता है. अब चीते भले बिजली की गति से दौड़ने वाले प्राणी होंसरकारी योजनाएं तो कछुए की गति से भी चलें तो तेज मानी जाती हैं. सो अब जा कर चीते आए हैं. सच्चा इतिहास तो तब बनता न जब यह सारा इतिहास देश के सामने रखा जाता. लेकिन इतिहास के नये चीते इतनी सच्ची-सरल चाल कैसे चलें तो ऐसी तस्वीर बनाई जा रही है मानो सारा कुछ चीते की चाल से 2014 से ही दौड़ने लगा है. 

      ऐसी अंधी दौड़ में यह जरूरी सवाल न कोई पूछ रहा हैन कोई बता रहा कि अपने देश से चीते लुप्त हुए ही क्यों अभी दूसरे लुप्त व लुप्तप्राय प्राणियों-पौधों की बात नहीं करता हूं लेकिन एशियाई चीतों की हमारे यहां अच्छी फसल होती थी. कहा यह जा रहा है कि कोरिया रियासत के महाराज रामानुज प्रताप सिंह देव ने 1947 में उन तीन चीतों का शिकार कर डाला था जो भारत में चीतों के आखिरी वंशज थे. लेकिन क्या यही अंतिम सच है भारत सरकार ने 1952 में कबूल किया कि अब भारत में कोई एशियाई चीता नहीं बचा है. तो कोई पूछे तो कि 1947-52 तक भारत सरकार क्या कर रही थी और उससे पहले क्या कर रही थीऔर उसके बाद क्या करती रही चीता बहुत तेजी से भले भागता है लेकिन है बेहद नाजुक प्राणी - बिल्ली-परिवार के विशालकाय व खतरनाक 7 सदस्यों में चीता ही है कि जो मनुष्यों पर हमलावर नहीं होता हैजंगल में भी बहुत बच-छिप कर रहता हैपालतू बनाया जाता रहा हैऔर घने घास-झाड़ी-झंखाड़ से जुड़े जंगल जिसका सहज निवास हैं. 

      यह सरकार आज जिसे चीख-चीख  कर विकास कहती हैजिसका घटाटोप सब तरफ दिखाई देता हैउस विकास की तेज आंधी में सबसे पहले ऐसे ही जंगलों का विनाश हुआ. चीतों के स्वाभाविक घर नहीं रहे तो उनका छिपना-बचना कठिन होने लगा. उस पर से राज-परिवार केसरकारी-परिवार के कानूनी व पेशेवर गैर-कानूनी शिकारी भी उनके पीछे पड़े थे ही. चीते इनसे तेज नहीं दौड़ सकेतो दम तोड़ गए. विकास की वही अवधारणा आज भी चल रही हैतो चीते नामीबिया से लाएं कि दक्षिण अफ्रीका सेवे बचेंगे कैसेफले-फूलेंगे कैसे प्रधानमंत्री को यदि इतनी फुरसत है कि वे चीतों को जंगल में छोड़ने व उनका फोटो खींचने में वक्त लगा सकेंतो उन्हें थोड़ा वक्त यह सोचने पर भी लगाना चाहिए कि चीते के साथ तालमेल बिठा कर चलने वाला विकास का मॉडल क्या हो सकता है और कैसे चलाया जा सकता हैतब उन्हें यह रहस्य भी समझ में आएगा कि सहज मानवीय ऊष्मा से भरा इंसान ही प्रकृति को भी बचा व संवार सकता है. उस इंसान के संरक्षण का कौन-सा पार्क है हमारे यहां ?  

      ऐसा ही मामला कर्तव्यपथ का भी है. उस दिन भी कहा गया कि हम दासता के इतिहास से मुक्त होएक नए इतिहास का सर्जन कर रहे हैंक्योंकि हम राजपथ का साइनबोर्ड बदल कर कर्तव्यपथ का साइनबोर्ड लगा रहे हैं. साइनबोर्ड बदलने का यह खेल नया नहीं है. इसका इतिहास और वर्तमान भी उलट कर देखना चाहिए. सड़कों-नगरों-संस्थानों-विभागों आदि-आदि के नाम बदलने की दिशाहीन आंधी ही देश में बहाई जा रही है जिसमें इतिहासपरंपराजनबोध सभी बहे जा रहे हैं. सत्ता के जोर पर वक्त की कठपुतलियों को वक्त का जादूगर बता कर स्थापित करने की कोशिश देश का इतिहास-बोध धुंधला व विस्मृत कर रही है. 

      औपनिवेशिक दासता के मानसिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक चिन्हों से मुक्त होने की तुमुल आवाज जिसने उठाई ही नहीं थी बल्कि मुक्ति की उस दिशा में देश को साथ ले कर जो चल पड़ा था उस महात्मा गांधी की हत्या करने का पुण्य कर्तव्य किसने निभाया थावह इतिहास भले आप याद न करिएयह सावधानी तो रखिए कि उस हत्या काउस हत्यारे का व उस हत्यारी मानसिकता का महिमामंडन न हो ! लेकिन परेशानी यह है कि उस हत्या से चला इतिहास सीधा आप तक पहुंचता है तो क्यों आप उसे गले लगाते हैं तो क्यों आपके यहां उनके मंदिर बनते हैं तो क्यों जब वे ही लोग आपके सांसद-विधायक हैंतो आप संविधान व इतिहास के साथ खड़े कैसे हो सकते हैं आपका सारा शासन उसी औपनिवेशिक दासता के पदचिन्हों पर पांव धर-धर कर चलता है. राष्ट्रपतिप्रधानमंत्रीराज्यपालमंत्रिमंडल की सारी अवधारणा व उसका सारा तामझाम दासता के पदचिन्हों को चूमता ही तो है. मुक्ति मन से होती है तब तन परव्यवहार में दिखाई देती है. 

      जिस छतरी पर किंग जार्ज की प्रतिमा स्थापित थीउसी छतरी पर नेताजी सुभाष की प्रतिमा की स्थापनाऔर वह भी फौजी लिबास मेंकिस मानसिकता का प्रतीक है वह फौजी लिबास नेताजी का सामान्य लिबास नहीं थाएक दौर का लिबास था जैसे गांधी भी एक दौर में टाई-सूट में मिलते हैं. देश नेताजी को इस रूप में तब पाता है जब वे आजादी की हमारी सामूहिक लड़ाई से उकता कर निकले थे और दूसरी औपनिवेशिक ताकतों से जा मिले थे. तब गांधी ने उनसे यही तो पूछा था कि एक औपनिवेशिक ताकत से जूझते हुए हम दूसरी औपनिवेशिक ताकत को गले लगाएं यह कैसी बुद्धिमत्ता है सुभाष न तब उसका जवाब दे सके थेन बाद में ही. उनकी उस चूक को आज हम जन-मानस में स्थापित कर क्या किसी आजाद मानसिकता का परिचय दे रहे हैं युद्धों को आल्हादकारी बनाने वाला राष्ट्रीय समर स्मारक संस्कृति का नहींविकृति का प्रतीक बन जाता है क्यों कि उसमें से वीरता व बलिदान का संदेश नहीं मिलता हैन युद्ध के अंत की लालसा पैदा होती है. भारत राष्ट्र का मान तो कल्याण व बलिदान से भरा बनाना है. 

      सत्ता-तालियां-उन्माद-जयजयकार-चाटुकारिता आदि से ऊपर उठ कर जो हासिल होता है उसे विवेक कहते हैं. स्वतंत्र मन का गहरा नाता इसी विवेक से होता है. व्यक्ति और समूह में वह विवेक खोता जा रहा है. विवेकहीनता न दासता से मुक्ति हैन आजादी का सयानापन है. विवेकहीनता गुलामी का ही दूसरा नाम है. मनुष्यों का अपमान-तिरस्कार होता रहे और हम चीतों के स्वागत में खड़े हो जाएंतो यह क्षद्म विवेकहीनता का चरम है. 

      नामीबिया के चीते भारत के कूनो में फले-फूलें और हमें विवेकवान बनाएंआज तो हम इतनी ही प्रार्थना कर सकते हैं. ( 18.09.2022)

                                                                                                                                     

Saturday 3 September 2022

इतिहास गोर्बाचेव को भूल नहीं सकता

उन्हें ठीक इसी तरह जाना था जैसे वे गए - बेआवाज, अचर्चित ! 91 साल की उम्र और लंबी बीमारी से जर्जर शरीर मन को आगे खींचना जब शक्य नहीं रहा तब उन्होंने आंखें मूंद लीं. आंख मूंदने में भला कोई आवाज होती है !! लेकिन यह उस आदमी का आंख मूंदना था जिसने अपने वक्त में, दुनिया को आंखें फाड़ कर अपनी तरफ देखने-समझने पर मजबूर कर दिया था. 1985-91 के उस दौर में आत्मविश्वास संकल्प से भरा वैसा दूसरा कोई नेता विश्व रंगमंच पर नहीं था. वे साम्यवादी सोवियत संघ के वैसे प्रधान थे जिसने साम्यवाद का चश्मा नहीं लगा रखा था और यूरोप-अमरीका की दौलत का आतंक उस पर असर डालता था. वे रूसी किसान परिवार के बेटे थे - ग्रामीण परिवेश से निकले एक ऐसा युवा जिसकी आंखों में अपने देश अपनी दुनिया के बारे में एक सपना था: “ मैंने खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पहचाना था जिसे उन बुनियादी सुधारों की दिशा में काम करना है जिसकी मेरे देश को और यूरोप, दोनों को जरूरत है.”   

आज शायद यह समझना भी मुश्किल हो कि तब की दुनिया की दो महान विकराल महाशक्तियों में एक सोवियत संघ का राष्ट्रपति वहां की कम्युनिस्ट पार्टी का मुखिया होने का मतलब क्या होता था ! मिखाइल सर्गेइविच गोर्बाचेव को भी शायद यह पता नहीं था कि वे जिस कुर्सी पर पहुंचे हैं उसका कद उसका रुतबा क्या होता है. ऐसा इसलिए था कि वे रुतबे से कहीं ज्यादा रिश्ते की अहमियत जानते पहचानते थे. रिश्ते उनकी राजनीति उनकी राजनयिक रणनीति का आधार थी. बहुत छोटी उम्र में वे सोवियत संघ के सर्वेसर्वा बने थे. 15 साल की छोटी उम्र में वे सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के युवा संगठन में शामिल हुए और फिर जैसे दौड़ते हुए ऊपर चढ़े. सोवियत संघ के तत्कालीन विचारक-रणनीतिकार मिखाइल सुस्लोव ने इस युवा का हाथ थामा, इसे आगे बढ़ाया. वे जानते थे कि वे जो बने हैं वहां से उन्हें बनाने की शुरुआत करनी है. वे रूसी समाज के भीतर की खलबलाहट घुटन को पहचानते थे. उनके बुजुर्गों ने साम्यवादी चाबुक झेली थी; शीतयुद्ध की विभीषिका से उन सबका साबका पड़ता रहा था. इसलिए गोर्बाचेव ने बहुत तेजी से, बहुत निश्चित दिशा में काम करना शुरू किया.  

दुनिया भर में राष्ट्राध्यक्षों को गोर्बाचेव से परेशानी हुई. उन्होंने सोवियत संघ का ऐसा सर्वेसर्वा कभी देखा कहां था जो पारदर्शी निश्छल मन सूरत लिए उनके बीच पहुंचता था. जो खुली, मानवीय हंसी हंसता था, संगीत सुनते हुए जिसकी आंखें भींग जाती थीं, जो अपनी पत्नी का भावुक प्रेमी था, जिसे हत्या षड्यंत्र से वितृष्णा थी. यह सब तब भी और आज भी राजनीतिक पकवान के मसाले नहीं माने जाते हैं. गोर्बाचेव के पास दूसरे मसाले थे नहीं. ऐसा नहीं था कि वे सोवियत राजनीति की गलाकाट स्पर्धा और उसके खूनी इतिहास से परिचित नहीं थे और ऐसा ही था कि विश्व राजनीति के घाघ दादाओं को पहचानते नहीं थे. ऐसा भी नहीं था कि वे ताकत की राजनीति और कूटनीतिक चालों को नहीं समझते थे. था तो बस इतना ही कि वे इन सबको खारिज करते थे. वे कुछ दूसरी ताकतों के बल पर सोवियत संघ को बदलना चाहते थे और जानते थे कि सोवियत संघ में कोई भी बदलाव तब तक संभव नहीं है जब तक दुनिया में बदलाव की बयार बहे

यह करने के लिए अपने दो हथियार चुने उन्होंने : ग्लासनोस्त(खुला दरवाजा)और  पेरेस्त्रोइका ( आर्थिक सुधार ). रूसी क्रांति के बाद से ही ये दोनों मनोभाव सोवियत संघ में लगभग बहिष्कृत ही थे. दरवाजा उतना ही और तभी खुलता था जितना और जभी सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के आका इजाजत देते थे; वही उतनी ही आर्थिक दुनिया वहां मान्य थी जितनी आका इजाजत देते थे. इससे अधिक इससे अलग जो कुछ भी था वह सब अमरीकी पूंजीवादी जाल था जो सोवियत संघ के सामान्य नागरिकों के लिए सर्वथा निषिद्ध था. गोर्बाचेव ने इन्हीं दोनों को आगे बढ़ाया - रूसी शासन के दरवाजे खोले और आर्थिक सुधारों की हवा बहाई. ऐसा करते हुए वे सावधान रहे कि दुनिया की दो महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध जारी रहे, उठाने-गिराने की चालें चली जाती रहें तो कोई परिवर्तन संभव नहीं होगा. इसलिए यूरोप-अमरीका के साथ रूसी संबंधों को एक नई  जमीन देने की उन्होंने ऐसी पहल की, और इतनी तेजी से की कि सब अवाक देखते ही रह गये. देखते-देखते रूसी समाज पर स्टालिन के जमाने का इस्पाती पंजा ढीला पड़ने लगा, यूरोप, अमरीका सोवियत संघ घुलने-मिलने लगे, संधियां भी हुईं, कई मर्यादाएं भी तय हुईं. 28 साल पुरानी अभेद्य बर्लिन की दीवार ढह गई, पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया टूटा. वारसा-संधि के देश यहां-वहां हुए. इन सबको रोकने के लिए केजीबी ने पोशीदा बगावत का षड्यंत्र रचा लेकिन वह विफल गया. गोर्बाचेव ने कुर्सी छोड़ दी,सोवियत संघ दरक गया.  

इससे कम गति से यह सब किया ही नहीं जा सकता था. सोवियत संघ के भीतर भी और  दुनिया में भी ऐसे परिवर्तनों की जड़ काटने वाली ताकतें मौजूद हैं, यह मैं जानता था. इसलिए उनकी गति से अधिक तेजी लाने की जरूरत थी. यूरोप समझे इससे पहले तो आण्विक हथियारों पर प्रतिबंध की संधि भी मैंने पूरी कर ली थी,” गोर्बाचेव याद करते थे, “ इतना जरूर अब लगता है मुझे कि पेरेस्त्रोइका को पहले करता मैं ताकि सोवियत नागरिक उससे खूब परिचित हो जाते तब ग्लासनोस्त की शुरुआत करता तो यह जो बिखराव हुआ सोवियत संघ का, वह बचाया जा सकता था.”  ऐसा आत्मसंशय बुनियादी परिवर्तन की कोशिश करने वाले हर आदमी के भीतर कभी--कभी उठता ही है. बिखरता देश, टूटता साम्यवादी तिलिस्म और पश्चिमी आकाओं में सोवियत संघ के कमजोर पड़ने की अमर्यादित खुशी - इन सबका कितना दवाब गोर्बाचेव पर रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है लेकिन वे भीतर से कितने मजबूत दृढ़ रहे होंगे, यह भी समझा जा सकता है. सच तो यह है कि दरवाजा खोलना भर ही आपके हाथ में होता है - फिर खुला दरवाजा अपनी गति दिशा दोनों तय करने लगता है. दवाब, ताकत दमन के जिस ईंट-गारे से सोवियत संघ - और पूरा साम्यवादी खेमा बनाया गया था, उसे बिखरना ही था और इसी तरह बिखरना था. क्या पाकिस्तान सारा जोर लगा कर भी खुद को बिखरने से रोक सका ? पाकिस्तान एक कृत्रिम रचना थी. उसकी जिंदगी उतनी ही लंबी थी. ऐसा ही सोवियत संघ के साथ भी था

सोवियत संघ को बिखरना ही था जैसे यूरोपीय यूनियन को अप्रभावी होना ही था. नाटो जैसी संधियां अर्थहीन होनी ही थीं. गोर्बाचेव के कारण यह बिखराव शांतिपूर्ण स्वाभाविक हुआ अन्यथा इसका स्वरूप बहुत खूनी प्रतिगामी हो सकता था. हम यह भी देख रहे हैं कि सोवियत संघ जिन 8 मुल्कों में टूटा वे सब अबतक अपना ठौर पा चुके हैं, अपनी तरह जी रहे हैं. पुतिन रूस का दर्द वहां पसरी गोर्बाचेव की आलोचना कुछ वैसी ही है जैसी कुछ मुस्लिमों के मन की यह गांठ कि हम तो शासक थे जिन्हें अंग्रेजों ने बेदखल कर दिया ! पाकिस्तान भी बिसूरता ही रहता है कि भारत ने शह दे कर हमें तोड़ा बांग्लादेश बनवाया. अखंड भारत वाले बिसूरते हैं कि हम तो ऐसे थे जिसे ऐसा बना दिया गया. ये सभी इतिहास की गति को नहीं पहचानने वालेफॉसिल्सहैं जो समाज मानव-चेतना की राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा में अवशेष-से छूट गए हैं

गोर्बाचेव इतिहास की उस यात्रा को गति दे कर चले गए. वे महात्मा गांधी नहीं थे लेकिन अपनी कोशिशों अपने लक्ष्यों में वे कोई गांधी-तत्व छिपाए जरूर थे. सांप्रदायिक दंगों के दावानल के सामने महात्मा जिस तरह खड़े-अड़े-लड़े उससे अभिभूत हो कर वाइसरॉय माउंटबेटन ने उन्हेंएक आदमी की फौजकहा था. इतिहास गोर्बाचेव के लिए भी ऐसा ही कहेगा - एक निहत्थे आदमी ने अकेले दम पर मेरी दिशा दशा दोनों बदल दी ! हम अपनी दुनिया कितनी बदल पाएंगे यह तो पता नहीं लेकिन जब कभी दुनिया मनुष्यों के रहने के लिए आज से ज्यादा शांत, उदार न्यायप्रिय बनेगी, वह गोर्बाचेव को याद जरूर करेगी. ( 02.09.2022)