Friday 29 January 2021

रिपोर्ताज आंखों देखा गणतंत्र दिवस : 2021

          आजादी के बाद का यह पहला गणतंत्र दिवस था कि जब राजधानी दिल्ली में दो परेड हुई - सदा की तरह एक सरकारी छतरी के नीचेदूसरी ट्रैक्टरों की छतरी के नीचे. 72वें गणतंत्र दिवस के आते-आते देश इस तरह बंटा हुआ मिलेगाकिसने सोचा था ? यह आज किसानों और गैर-किसानों मेंपक्ष और विपक्ष मेंलोक और तंत्र में ही बंटा हुआ नहीं है. यह तन और मन से इतनी जगहों परइतनी तरह से बंटा हुआ है कि आप उसका आकलन करते हुए घबराने लगें. तिरंगा भी एक नहीं रहा है अन्यथा किसी को लाल किले पर कोई दूसरा झंडा ले कर चढ़ने की जरूरत ही क्यों होती !

         आइटीओ चौराहे पर भावावेश में कांपते उत्तरप्रदेश के किसान सतनाम सिंह ने यही कहने की कोशिश की : “ आप बताओगणतंत्र कहते हैं तो गण यहां है कहां ? आप हमें अपनी राजधानी में आने से रोकने वाले कौन हैं ? हमने ही आपको बनाया है और कल हम ही किसी दूसरे को बना देंगेतो आप नहीं रहोगे लेकिन हम तो रहेंगे. आप हमारा ही अस्तित्व नकार रहे हो?… इतना उत्पात होता ही क्यों अगर आप हमें बेरोक-टोक आने देते. हम बेरोक-टोक आ पाते तो खुद ही परेशान हो जाते कि यहां आ कर करना क्या ? क्या कर लेते यहां आ कर हम ? लेकिन आपने रोक करहमारे ट्रैक्टर तोड़ करहमारी गाड़ियों के शीशे चूर करहम पर लाठियां बरसा कर हमें वह सारा काम दे दिया जिसे अब आप प्रचारित कर रहे हो !” सतनाम सिंह बड़ी भावुकता से बोले : “ इन्होंने उत्तरप्रदेश में हिंदू और सिखों के बीच दरार डालने की कोई कोशिश बाकी नहीं रखी. हिंदुओं के मन में यह विष डालने की कोशिश हुई कि हम सिख लोग किसान आंदोलन की आड़ में खालिस्तान बनाएंगे. हम तो हिंदू भाइयों को लख-लख धन्यवाद देते हैं कि उन्होंने इस विष का पान नहीं कियाउगल दिया. इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत यह है आज कि यह हिंदू-सिख-मुसलमान-पारसी-दलित सबको जोड़ कर एक मंच पर ले आया है. भाई साहबमैं कहता हूं कि हमारा मक्का-मदीनाकाबा-कैलाशखालिस्तान सब यही हिंदुस्तान है. हम दूसरा न कुछ चाहते हैंन मांगते हैं.” 

         किसान संगठनों ने समांतर ट्रैक्टर रैली की घोषणा कीबड़ी सावधानी से उसकी तैयारी भी की थी लेकिन उन्हें भी अंदाजा नहीं था कि कितने किसानकितने ट्रैक्टरों के साथ आ जाएंगे. अंदाजा सरकार को भी नहीं था कि इस किसान आंदोलन की जड़ें कितनी गहराई तक जा चुकी हैं. इसलिए गणतंत्र दिवस की सुबह जब दोनों आंखें मलते उठे तो सूरज सर पर चढ़ चुका था. दिल्ली-गाजीपुर सीमा पर लगा किसान मोर्चा दिल्ली पुलिस से हुई संधि तोड़ कर निकल चुका था - उसने निर्धारित समय और निर्धारित रास्ते का पालन नहीं किया.  वह सीधा दिल्ली की तरफ मुड़ गया. एक टोली मुड़ी तो बाकी ने भी वही किया. इसे ही भीड़ कहते हैं. 

         ट्रैक्टरों का काफिला कैसा होता हैयह न किसानों को मालूम थान पुलिस को. किसानों ने बहुत देखा था तो दो-चार-दस ट्रैक्टरों को खेतों में जाते देखा थापुलिस ने तो महानुभावों के कारों की रैली भर देखी थी या फिर अपने साहबों के वाहनों की रैली. इसलिए जब किसानों की ट्रैक्टर रैली दिल्ली की सीमा में घुसी तो हैरानी व अविश्वास से अधिक या अलग कोई भाव पुलिस अधिकारियों के चेहरों पर नहीं था. 

         ट्रैक्टर क्या कहिएमिनी टैंक बने सारे ट्रैक्टर फिर रहे थे. रास्ते में लगे लोहे की कई स्तरों वाली बैरिकेडें इस तरह ढह रही थीं कि मानो ताश के पत्तों की हों. पुलिस द्वारा लगाए अवरोधों की ऐसी अवमानना किसी मीडिया वाले को बेहद खली और उसने एक संदर्भहीन लेकिन तीखी टिप्पणी की. मुझे तो राजधानी की एेसी घेराबंदी हमेशा ही बहुत खलती रही हैअश्लील लगती रही है. और सत्ता की ताकत से की गई ऐसी हर घेराबंदी खुलेआम चुनौती उछालती है कि कोई इसे तोड़े. इस बार किसानों ने उसे तोड़ ही नहीं दियापुलिस-प्रशासन का यह भ्रम भी तोड़ दिया कि यह कोई अनुल्लंघनीय अवरोध है. लोहे के अवरोध हों कि कानून केतभी तक मजबूत होते हैं और उतने ही मजबूत होते हैं जिस हद तक लोग उसे मानते हैं. एक बार इंकार कर दिया तो लोग एवरेस्ट भी सर कर जाते हैं. शासक-प्रशासन इन गणतंत्र दिवस का यह संदेश याद रखें तो गण का भी और तंत्र का भी भला होगा. 

         लेकिन दिल्ली के ह्रदय-स्थल आइटीओ पहुंचने के बाद राजपथ और लालकिला जाने की जैसी बेसुध होड़ किसानों और उनके ट्रैक्टरों ने मचाईवह शर्मनाक ही नहीं थाबेहद खतरनाक भी था. कानून-व्यवस्था बनाए रखने का जिम्मा जिन पुलिस वालों पर था वे संख्या में भी और मनोबल में भी बेहद कमतर थे. नौकरी बजाने और आंदोलन का सिपाही होने का मनोबल कितना अलग-अलग होता हैयह साफ दिखाई दे रहा था. सही आंकड़ा तो पुलिस विभाग ही  दे सकता है लेकिन दिखाई दे रहा था कि 500-700 किसानों पर एक पुलिस का अौसत भी शायद नहीं था. संख्या का यह असंतुलन ही ऐसा था कि कैसी भी पुलिस काररवाई बेअसर होती. लेकिन यह भी कहना चाहिए कि पुलिस अधिकारियों ने यह संयम भरासमझदारी का फैसला किया कि उन्मत्त किसानों को बहुत हद तक मनमानी करने दी. यह नहीं हुआ होता तो 26 जनवरी 2021 को राजधानी दिल्ली का आइटीओ चौक,ठीक गणतंत्र दिवस के दिन, 4 जून 1989 का बीजिंग का ताइमान चौक बन सकता था. हमें इसके लिए सरकार और प्रशासन की प्रशंसा करनी चाहिए. 

         लेकिन इस बात की प्रशंसा कदापि नहीं करनी चाहिए कि उसने ऐसे हालात पैदा होने दिए. किसानों का आंदोलन 2020के जून महीने से गहरी सांसें भरने लगा था जो पिछले कोई 60 दिनों से गरजने लगा था. दिल्ली प्रवेश के तमाम रास्तों पर किसान जमा ही नहीं थेउन्होंने किसान-नगरी बसा रखी थी.  शहर की एक किलाबंदी सरकारी निर्देश से पुलिस ने कर रखी थीदूसरी किसानों ने कर रखी थी. कोई राजधानी इस तरह अप्रभावी शासकों और बेसमझ प्रशासकों के भरोसे कैसे छोड़ी जा सकती है ? लेकिन दिल्ली छोड़ दी गई.  देश का सर्वोच्च न्यायालय इस बचकानी व गैर-जिम्मेवारी भरी टिप्पणी के साथ हाथ झाड़ गया कि यह पुलिस पर है वह इनसे कैसे निबटती है. उसे कहना तो यह चाहिए था कि शासन-प्रशासन का यह मामला शासन-प्रशासन निबटे लेकिन आपने कोई संवैधानिक मर्यादा तोड़ी तो हम बैठे हैं ! लेकिन वह आंख-कान-दिमाग व संविधान की किताब बंद कर जो बैठी तो बैठी ही रह गई. सरकारी अमला जितनी मूढ़ताक्रूरता व काइयांपने से चल सकता थाचलता गया. किसानों के तेवर रोज-ब-रोज कड़े-से-कड़े होते जा रहे थे. निर्णय ले सकने की सरकारी अक्षमता वे समझ गये थे. 10 दौरों की बातचीत में उन्होंने देख लिया था कि सरकार के पास कोई सूझ नहीं है. वार्ता में बात इतनी ही चलती रही कि किसनेक्या खायाकिसने किसका खाया और अगली बैठक कब होगी. किसान पहले दिन से एक ही बात कह रहे थे और अंतिम दिन तक वही कहते रहे कि तीनों कृषि कानून वापस लीजिए और हमें घर जाने दीजिए. किसानों का यह रवैया सही था या गलत बात इसकी नहीं हैसरकार का कोई निश्चित रवैया था नहींबात इसकी है. ‘ कानून वापस नहीं होंगे’ कहने के पीछे कोई सरकार का कोई तर्क नहीं था. उसने फर्जी किसान संगठनों को आगे  किया गयाखुद को किसानों का असली हितचिंतक बताया गया और प्रधानमंत्री को अलादीन के चिराग का जिन बताया गया.  हर दिन सरकार यह कह कह निकल जाती रही कि अगली बात फलां याकि फलां तारीख को होगी. लेकिन बात क्या है कि जिसकी बात करनी हैयह बात किसी को मालूम नहीं थी. 

         किसानों को भी मालूम नहीं था कि 26 जनवरी को करना क्या है. जो दीख रहा था वह था किसानों का दिशाहीन जमावड़ा और उन पर बेतरह लाठियां बरसातीअश्रुगैस के गोले दागती पुलिस ! किसानों ने भी जहां जो हाथ लगा उससे पुलिस पर हमला किया. लेकिन ऐसे वाकये उंगलियों पर गिने जा सकते हैं. ये किसान कौन थे ? निश्चित ही ये किसान आंदोलन के प्रतिनिधि किसान नहीं थे. वैसा होता तो इनको पता होता कि दिल्ली पहुंच कर इन्हें करना क्या है. तोड़फोड़ की बात भी होती तो वह भी ज्यादा व्यवस्थित व योजनाबद्ध होती. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो किसानों के हाथ में हथियार सरकारी व्यवस्था ने ही मुहैया कराए. लोहे व स्टील के अनगिनत अवरोधों को तोड़-तोड़ कर युवा किसानों ने डंडे बना लिए थे. उन डंडों से कुछ मार-पीट की और कुछ पुलिस वाहनों के शीशे तोड़े. लेकिन कहीं आगजनी नहीं हुईकहीं गाड़ियां नहीं फूंकी गईंकहीं पुलिस पर योजनाबद्ध हमले नहीं हुए. जगह-जगह हमें बुजुर्गअनुभवी किसान ऐसे भी मिले जो लगातार अपने उन्मत्त युवाओं को रोक रहे थेउनके हाथ से लोहे के डंडे छीन कर फेंक रहे थे. 

         आइटीओ से लालकिला जाने वाली सड़क के किनारे थके-भरमाए किसानों ने अपने ट्रैक्टर खड़े कर रखे थे. संगरूर से आए किसानों के ऐसे ही एक ट्रैक्टर से मैंने पूछा : “ यह क्या हुआ ? ऐसा करने का कार्यक्रम तो नहीं था ?” एक बुजुर्ग किसान शांति से लेकिन तपाक से बोले : “ था जीलालकिला पर झंडा लहराने का कार्यक्रम तो पक्का ही था.” मैंने कहा: “ अच्छा !… मुझे तो यह पता नहीं था. देश को तो यही मालूम था कि किसानों की ट्रैक्टर रैली दिल्ली शहर में प्रवेश नहीं करेगीसरकारी आयोजन में बाधा नहीं डालेगी.  निश्चित अवधि मेंनिश्चित रास्तों से गुजरती हुई वह अपनी निश्चित जगहों पर लौट जाएगी. आपने वैसा नहीं कर के अपने आंदोलन के पांव पर ही कुल्हाड़ी मारी है.” जो माहौल था और किसानों के जैसे तेवर थे उसमें मेरी ऐसी टिप्पणी पर उन्हें हमलावर हो जाना चाहिए था लेकिन उन्होंने मेरी पूरी बात सुनीबोले कुछ नहीं लेकिन सहमति में लगातार सर हिलाया. 

         गाजीपुर के किसान जमघट का एक ग्रुपजिसे सतनाम सिंह पन्नू का ग्रुप कहा जा रहा थादीप सिद्दू तथा ऐसे ही दो-एक दूसरे ग्रुप अलग राग अलाप रहे थे. यहीं बड़ी चूक हुई. संयुक्त किसान मोर्चा ने कभी बयान जारी कर इन्हें स्वंय से अलग नहीं किया. वे किसान आंदोलन की इसी बड़ी छतरी में घुसे पनाह पाते रहे. ये भी इतने ईमानदार तो थे कि संयुक्त किसान मोर्चा से अपनी असहमति छिपाई नहीं. पुलिस से हुआ समझौता भी इन्हें कबूल नहीं था और आंदोलन को भी और पुलिस को भी इन्होंने बता दिया था कि वे किसी समझौते से बंधे नहीं हैं- “ हम 26 जनवरी को दिल्ली में प्रवेश करेंगेलालकिला जाएंगे.” संयुक्त किसान मोर्चा को उनके इस रुख की जानकारी देश को देनी चाहिए थीपुलिस को लिखित देनी चाहिए थी कि ये लोग हमारे प्रतिनिधि किसान नहीं हैंआप इनसे निबटिए. ऐसा न करना आंदोलन की चूक थी. 

          सरकार-प्रशासन की चूक हुई कि उसने इनसे निबटने की कोई अलग योजना बनाई ही नहीं. इन सबको 25 जनवरी की रात को ही गिरफ्तार किया जा सकता था. 26 जनवरी की सुबह इनकी ऐसी नाकाबंदी की जा सकती थी कि ये वहां से निकल ही न सकें. प्रशासन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. क्यों ? क्या कोई धागा था जो इन्हें और सरकार को जोड़ता था ? आंदोलकारी नेतृत्व के मन का चोर शायद यह था कि इनकी ताकत का कोई फायदा आंदोलन को मिल सके तो मिले. सरकारी मन का चोर शायद यह था कि इनकी लाठी से ही आंदोलन को पीटा जाए. इन दो कमजोरियों ने मिल कर वह किया जिसने देश शर्मसार हुआ. किसान नेता योगेंद्र यादव ने घटना के बाद कहा कि हम इनसे स्वंय को अलग करते हैं. यह कहना शोभनीय नहीं था. यह कह कर उन्होंने सयानेपन का परिचय दिया कि हम इसकी नैतिक जिम्मेवारी से बरी नहीं हो सकते. यह लोकतंत्र का बुनियादी पाठ है कि जो लोगों को सड़कों पर उतार लाता है उन्हें अनुशासित रखने की पूरी व एकमात्र जिम्मेवारी उसकी ही है. उसमें विफलता हुईइसकी माफी देश से मांग लेना सत्याग्रह-धर्म है. 

         26 जनवरी को ही सारे अखबारोंचैनलों ने यह लिखना-कहना शुरी कर दिया कि आंदोलन भटक गयाकि उसका असली चेहरा सामने आ गया. यह 27 को भी जारी रहा. लेकिन कोई यह नहीं लिख रहा हैकोई यह कह नहीं कह रहा है कि संसार भर में क्रांतियां तो ऐसे ही होती हैं. खून नहीं तो क्रांति कैसी ? फ्रांस और रूस की क्रांति का इतना महिमामंडन होता है. उनमें क्या हुआ था ? यह तो गांधी ने आ कर हमें सिखाया कि क्रांति का दूसरा रास्ता भी है. इसलिए किसान आंदोलन का यह टी-20 वाला रूप हमें भाया नहीं है. लेकिन गांधी की कसौटी अगर आपको प्रिय है तो उसे किसानों पर ही क्योंसरकार पर भी क्यों न लागू करते और प्रशासन पर भी ? किसानों ने आइीटीओ पर पुलिस पर छिटफुट हमला किया इसका इतना शोर है लेकिन पिछले महीनों में दिल्ली आते किसानों पर पुलिस का जो गैर-कानूनीअसंवैधानिक हमला होता रहा उस पर किसनेक्या लिखा-कहा ? सार्वजनिक संपत्ति का कुछ नुकसान 26 जनवरी को जरूर हुआ लेकिन प्रशासन ने सड़कें काट करपेड़ काट करलोहे और सीमेंट के अनगिनत अवरोध खड़े कर केचाय-पानी की दूकानें बंद करवा करकरोड़ों रुपयों का डीजल-पेट्रोल फूंक कर पुलिस व दंगानिरोधक दस्तों को लगा कर सार्वजनिक धन की जो होली पिछले महीनों में जलाईक्या उस पर भी किसी ने लिखा-कहा कुछ ? जिस तरह ये तीनों कानून चोर दरवाजे से ला कर देश पर थोप दिए गएक्या उसे भी हिसाब में नहीं लेना चाहिए ? क्या यह भी दर्ज नहीं किया जाना चाहिए कि किसानों ने पहले दिन से ही इन कानूनों से अपनी असहमति जाहिर कर दी थी और फिर कदम-दर-कदम वे विरोध तक पहुंचे थे ? सरकार ने हमेशा उन्हें तिनके से टालना और धोखा देना चाहा. सबसे पहले शरद पवार ने यह सारा संदर्भ समेटते हुए कहा कि यह सब जो हुआ हैउसकी जिम्मेवारी सरकार की है. 

         गांधी ने भी एकाधिक बार अंग्रेजों से कहा था कि जनता को हिंसा के लिए मजबूर करने के अपराधी हैं आप ! यही इस सरकार से भी कहना होगा. पिछले कई सालों से समाज को झूठगलतबयानीक्षद्म की खुराक पर रखा गया है. उन्हें हर मौके परहर स्तर पर बांटने-तोड़ने-भटकाने का सिलसिला ही चला रखा गया है. यह जो हुआ है वह इसकी ही तार्किक परिणति है. आप संविधान को साक्षी रख कर गोपनीयता की शपथ लें और अर्नब गोस्वामी से सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामलों की जानकारी बांटेंतो देश का मन कैसा बना रहे हैं आप ? आप मनमानी करें क्यों आपके पास संसद में टुच्चा-सा बहुमत हैतो वह जनताजो बहुमत की जनक हैवह मनमानी क्यों न करे ? देश-समाज का एक उदारउद्दात्त व भरोसा कायम रखने वाला मन बनाना पड़ता है जो कुर्सी पर से उपदेश देने से नहीं बनता है. यह बहुत पित्तमार काम है. जनता भीड़ नहीं होती है लेकिन उसके भीड़ में बदल जाने का खतरा जरूर होता है. लोकतंत्र जनता को सजग नागरिक बनाने की कला है. वह कला भले आपको या उनको न आती हो लेकिन जनता को भीड़ में बदलना वह गर्हित खेल है जो समाज का पाशवीकरण करता हैलोकतंत्र को खोखला बनाता है. वह खेल पिछले सालों में बहुत योजनापूर्वक और क्रूरता से खेला गया है. ऐसे खेल में से तो ऐसा ही समाज और ऐसी ही सरकार बन सकती है. 

          पता नहीं कैसे-कैसे खेल खेल कर आप सत्ता की कुर्सी पा गए हैं. फिर आप लालकिला पहुंच जाएं तो वह गरिमापूर्ण हैपिट-पिटा कर किसान लालकिला पहुंचे तो वह गरिमा का हनन हैमीडिया का यह तर्क कैसा है भाई ? मुझे इस बात से कोई एतराज नहीं है कि कोई युवक झंडे के खंभे पर जा चढ़ा और उसने वहां किसानों का झंडा फहरा दिया. एतराज इस बात से हैऔर गहरा एतराज है कि उसने खालसा पंथ का झंडा भी लगा दिया. यह तो समाज को बांटने के सत्ता के उसी खेल को मजबूत बनाना हुआ न जो धर्म,संप्रदाय आदि को चाकू की तरह इस्तेमाल करती है. किसानों का झंडा देश की खेतिहर आत्मा का प्रतीक है. लालकिला के स्तंभ पर किसी वक्त के लिए उसकी जगह हो सकती है. लेकिन किसी धर्म या संप्रदाय का झंडा लालकिला पर नहीं लगाया जा सकता है. वह किसी नादान युवक की मासूम नादानी थी याकि किसी एजेंट की चाल यह तो पुलिस और किसान आंदोलन के बीच का मामला बन गया है. किसान आंदोलन को आरोप लगा कर छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि इसकी जांच करसप्रमाण देश को बताना चाहिए. लालकिला के शिखर पर फहराता तिरंगा किसी ने छुआ नहींयह भला हुआ. 

         हमें यह भी याद रखना चाहिए कि गाजीपुर सीमा से चला किसानों का जत्था जिस तरह आदर्शों से भटकादूसरे किसी स्थान से चला किसानों का जत्था भटका नहीं. सबने निर्धारित रास्ता ही पकड़ा और अपना निर्धारित कार्यक्रम पूरी शांति व अनुशासन से पूरा किया. देश भर में जगह-जगह किसानों ने ट्रैक्टर रैली की.कहीं से भी अशांति की एक खबर भी नहीं आई. सारे देश में इतना व्यापक जन-विरोध आयोजित हुआ और सब कुछ शांतिपूर्वक निबट गयाक्या किसान आंदलन को इसका श्रेय नहीं देंगे हम ?गाजीपुर की चूक शर्मनाक थी. उसकी माफी किसान आंदोलन को मांगनी चाहिए. माफी की भाषा और माफी की मुद्रा दोनों में ईमानदारी होनी चाहिए. हमें भी उसी तरह किसानों की पीठ ठोकनी चाहिए. जैसे पानी में उतर कर ही तैरना सीखा जाता हैवैसे ही उत्तेजना की घड़ी में ही शांति का पाठ पढ़ा जाता है. किसान भी वह पाठ पढ़ रहा है. हम भी पढे़ं. 

         अब सड़क खाली हो चुकी है. किसानों के कुछ ट्रैक्टर यहां-वहां छूटे पड़े हैं. सड़क पर लाठी व हथियारधारी पुलिस का कब्जा है. वह फ्लैगमार्च कर रही है. जीवन की नहींआतंक की हवा भरी जा रही है. गणतंत्र दिवस बीत चुका है.  ( 27.01.2021)

 

यह अमरीका : वह अमरीका

                    राजनीतिक रूप से अत्यंत अप्रभावीसामाजिक रूप से बेहद विछिन्न और आर्थिक रूप से लड़खड़ाते अमरीका के 46 वें राष्ट्रपति बनने के बाद कैपिटल हिल की ऐतिहासिक सीढ़ियों पर खड़े हो कर जो बाइडेन ने जो कुछ कहा वह ऐतिहासिक महत्व का है. क्यों ? इसलिए कि अमरीका के इतिहास का ट्रंप-काल बीतने के बाद बाइडन को जो कुछ भी कहना था वह अपने अमरीका से ही कहना थाऔर ऐसे में वे जो भी कहते वह ऐतिहासिक ही हो सकता था. जब इतिहास अपने काले पन्ने पलटता है तब सामने खुला नया पन्ना अधिकांशत: उजला व चांदनी समान दिखाई देता है. इसलिए तब खूब तालियां बजीं जब बाइडेन के कहा कि यह अमरीका का दिन हैयह लोकतंत्र का दिन है. यह एकदम सामान्य-सा वाक्य था जो ऐतिहासिक लगने लगा क्योंकि पिछले पांच सालों से अमरीका ऐसे वाक्य सुनना और गुनना भूल ही गया था. यह वाक्य घायल अमरीकी मन पर मरहम की तरह लगा. उनके ही नहीं जिन्होंने बाइडेन को वोट दिया था बल्कि उनके लिए भी यह मरहम था जो पिछले पांच सालों से चुप थे याकि वह सब बोल रहे थे जो उन्हें बोलना नहीं थाजिसका मतलब भी वे नहीं जानते थे. जिन लोगों को उन्मत्त कर ट्रंप ने अमरीकी संसद में घुसा दिया था और जिन्हें लगा था कि एक दिन की इस बादशाहत का मजा लूट लें उन्हें भी नई हवा में सांस लेने का संतोष मिल रहा होगा. लोकतंत्र है ही ऐसी दोधारी तलवार जो कलुष को काटती हैशुभ को चालना देती है. यह अलग बात है कि तमाम दुनिया में लोकतंत्र की आत्मा पर सत्ता के भूख की ऐसी गर्द पड़ी है कि वह खुली सांस नहीं ले पा रहा है. तंत्र ने उसका गला दबोच रखा है.   

         हम पहले से जानते थे कि जो बाइडेन ‘अपने राष्ट्रपति’ बराक ओबाका की तरह मंत्रमुग्ध कर देने वाले वक्ता नहीं हैंन वे उस दर्जे के बौद्धिक हैं. वे एक मेहनती राजनेता हैं जो कई कोशिशों के बाद अमरीकी राष्ट्रपति का मुकाम छू पाया हैवह भी शायद इसलिए कि अमरीका को ट्रंप से मुक्ति चाहिए थी. इतिहास ने इस भूमिका के लिए बाइडेन का कंधा चुना. ट्रंप का पूरा काल एक शैतान आत्मा का शापित काल रहा. उन्होंने एक प्रबुद्ध राष्ट्र के रूप में अमरीका की जैसी किरकिरी करवाई वैसा उदाहरण अमरीका के इतिहास में दूसरा नहीं है. तो दूसरा कोई राष्ट्रपति भी तो नहीं है जिस पर दो-दो बार माहाभियोग का मामला चलाया गया हो. ट्रंप बौद्धिक रूप से इतने सक्षम थे ही नहीं कि यह समझ सकें कि जैसे हर राष्ट्रपति का अधिकार होता है कि वह अपनी तरह से अपने देश की नीतियां बनाए वैसे ही उस पर यह स्वाभाविक व पदसिद्ध जिम्मेवारी भी होती है कि वे अपने देश की सांस्कृतिक विरासत व राजनीति शील का पालन करेउसे समुन्नत करे. इन दोनों को समझने व उनका रक्षण करने में विफल कितने ही महानुभाव हमें इतिहास के कूड़ाघर में मिलते हैं. डंपिंग ग्राउंड केवल नगरपालिकाओं के पास नहीं होता हैइतिहास के पास भी होता है. 

         बाइडेन ने दुनिया से कुछ भी नहीं कहा. यह उनके शपथ-ग्रहण भाषण का सबसे विवेकपूर्ण हिस्सा था. इसके लिए अमरीका को भारतीय मूल के विनय रेड्डी और उनकी टीम को धन्यवाद देना चाहिए जो ओबामा से बाइडेन-कमला हैरिस तक के भाषणों का खाका बनाते रहे हैं. शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद राष्ट्र को संबोधित करने की यह परंपरा अमरीका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंग्टन ने 30 अप्रैल 1789 को शुरू की थी और ‘स्वतंत्रता की पवित्र अग्नि’ की सौगंध खाकर ‘एक नई व आजादख्याल सरकार’ का वादा किया था. अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रपतियों द्वारा दिया गया अब तक का सबसे छोटा भाषण दिया था - मात्र 135 शब्दों का. सबसे लंबा उद्घाटन भाषण राष्ट्रपति वीलियम हेनरी हैरिसन ने दिया था - 8455 शब्दों का दो घंटे चला भाषण. यह राजनीतिक परंपरा आज अमरीका की सांस्कृतिक परंपरा में बदल गई है. अमरीका आज भी याद करता है राष्ट्रपति केनेडी का वह भाषण जब उन्होंने अमरीका की आत्मा को छूते हुए कहा था : “ मेरे अमरीकन साथियोयह मत पूछिए कि अमरीका आपके लिए क्या करेगा बल्कि यह बताइए कि आप अमरीका के लिए क्या करेंगे?” 1933 में भयंकर आर्थिक मंदी में डूबे अमरीका से राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहा था : “ आज हमें एक ही चीज से भयभीत रहना चाहिए और वह है भय !” 1861 में गृहयुद्ध से जर्जर अमरीका से कहा था राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने : “ मेरे असंतुष्ट देशवासियोमेरी एक ही इल्तजा है आपसे कि दोस्त बनिएदुश्मन नहीं !” 2009 में ओबामा ने अपने अमरीका से कहा था : “ यह नई जिम्मेवारियों को कबूल करने का दौर है - हमें अपने प्रति अपना कर्तव्य निभाना हैदेश और दुनिया के प्रति अपना कर्तव्य निभाना है और यह सब नाक-भौं सिकोड़ते हुए नहीं बल्कि आल्हादित हो कर करना है.” यह सब दूसरा कुछ नहींराष्ट्र-मन को छूने और उसे उद्दात्त बनाने की कोशिश है. बाइडेन जब कहते हैं कि हम एक महान राष्ट्र हैंहम अच्छे लोग हैं तब वे अमरीका के मन को ट्रंप के दौर की संकीर्णता से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं. जब उन्होंने कहा कि मैं सभी अमरीकियों का राष्ट्रपति हूं- सारे अमरीकियों काहमें एक-दूसरे की इज्जत करनी होगी और यह सावधानी रखनी होगी कि सियासत ऐसी आग न बन जाए जो सबको जलाकर राख कर दे तो वे गहरे बंटे हुए अपने समाज के बीच पुल भी बना रहे थे और अमरीकियों को सत्ता व राजनीति की मर्यादा भी समझा रहे थे. उन्होंने अमरीकी सीमा के बाहर के लोगों से यानी दुनिया से सिर्फ इतना ही कहा कि हमें भविष्य की चुनौतियों से ही नहींआज की चुनौतियों से भी निबटना है. ट्रंप ने आज को ही तो इतना विद्रूप कर दिया है कि भविष्य की बातों का बहुत संदर्भ नहीं रह गया है. 

         बाइडेन के इस सामान्य भाषण में असामान्य था अनुभव की लकीरों से भरे उनके आयुवृद्ध चेहरे से झलकती ईमानदारी. वे जो कह रहे थे मन से कह रहे थे और अपने मन को अमरीका का मन बनाना चाहते थे. वहां शांतिधीरज व जिम्मेवारी के अहसास से भरा माहौल था. उन्होंने गलती से भी ट्रंप का नाम नहीं लिया जैसे उस पूरे दौर को पोंछ डालना चाहते हों. चुनावी उथलापनखोखली बयानबाजीअपनी पीठ ठोकने और अपना सीना दिखाने की कोई छिछोरी हरकत उन्होंने नहीं की. यह सब हमारे यहां से कितना अलग था ! गीत-संगीत व संस्कृति का मोहक मेल था लेकिन कहीं चापलूसी और क्षुद्रता का लेश भी नहीं था. यह एक अच्छी शुरुआत थी. लेकिन बाइडेन न भूल सकते हैं न अमरीका उन्हें भूलने देगा कि भाषण का मंच समेटा जा चुका है. अब वे हैं और कठोर सच्चाइयों के सामने खुला उनका सीना है. इनका मुकाबला वे कैसे करते हैं और अमरीका का मानवीय चेहरा दीपित करते हैंयह हम भी और दुनिया भी देखना चाहती है. हम भी बाइडेन की आवाज में आवाज मिला कर कहते हैं : ईश्वर हमें राह दिखाए और हमारे लोगों को बचाए. ( 20.01.2021)

 

अदालत भाई, जरा समझाओ भाई !

               आंदोलनरत किसानों को जितना सरकार और सरकारी भोंपूओं ने नहीं फटकारा होगा , उसे भी बुरी फटकार देश की सर्वोच्च अदालत ने सरकार को लगाई. उसे सुनते हुए सरकार को क्या लगा पता नहीं लेकिन हमें बारहा मुंह छिपाना पड़ा. सरकार को भी कोई ऐसा कहता है क्या ! केंद्र सरकार के दूसरे नंबर के सबसे बड़े कानूनी नुमाइंदे बेचारे तुषार मेहता के कान भी जब वैसी फटकार से बजने लगे तो वे फट पड़े : “ अदालत सरकार के प्रति बेहद कठोर शब्दों का प्रयोग कर रही है.” 

                  अदालत तो वैसे ही फटी पड़ी थीतुषार बाबू की बात से उसका पारा आसमान जा पहुंचा : “ जैसी सच्चाई सामने हमें दिखाई दे रही है उसमें सरकार के बारे में इससे मासूम कोई धारणा बनाई ही नहीं जा सकती है.” बेचारे तुषार बाबू ठगे से देखते-सुनते रह गये. जब दो नंबरी से बात नहीं बनी तो सबसे बड़े कानूनी नुमाइंदे के.के. वेणुगोपाल को सामने आना पड़ा : “ आप सरकार के बनाए किसी कानून पर रोक कैसे लगा सकते हैं ?… आपको धैर्य रखना होगा क्योंकि किसान संगठनों से सरकार की बातचीत जारी है.” इधर वेणुगोपाल की बात खत्म ही हुई थी कि अदालत वज्र की तरह बोली : “ हमें धैर्य धरने का उपदेश मत दीजिए ! आप कानून के अमल पर रोक नहीं लगाएंगे तो हम लगा देंगेॅ हमने तो पहले ही सरकार से कहा था कि विवादास्पद कानूनों के अमल पर रोक लगाएं तो किसानों से बातचीत की प्रक्रिया हम आरंभ करें. आपने कोई जवाब ही नहीं दिया… हम रक्तपात की संभावना से चिंतित हैं और हम नहीं चाहते हैं कि हमारे दामन पर भी किसी के खून के छींटे पड़ें !” इतना सब हुआ… और फिर अचानक क्या हुआ कि यह अदालती तेवर खोखली दीवार की तरह भहरा गया ?

अदालत ने अब उन तीनों कानूनों के अमल पर रोक लगा दी जिनकी वापसी की मांग किसान कर रहे हैं. लेकिन एक बात समझ में नहीं आई अदालत भाई कि इन कानूनों के अमल पर रोक की मांग किसकी थी ? किसानों ने तो कभी ऐसा कहा-चाहा नहीं. वे तो तीनों कानूनों की वापसी का ही मंत्र जपते आए थेवही मंत्र जपते हुए जमे हुए हैं. उन्होंने सरकार से भी यही कहा : जब तक कानून वापस नहीं तब तक घर वापसी नहीं ! सरकार ने भी कभी कहा नहीं कि वह कानूनों के अमल पर रोक लगाने के अदालत के सुझाव पर विचार भी कर रही है. अदालत का वह अपना ही अरण्य-रोदन था जिसे उसने फैसले की शक्ल दे दी. अदालत ने ऐसा किस अधिकार के तहत किया ? क्या कल को कोई अदालत कानून बनाने का विधायिका का अधिकार भी अपने हाथ में ले लेगी ? अदालत को पूरा अधिकार है कि वह विधायिका द्वारा बनाए किसी भी कानून की संवैधानिक समीक्षा करे और यदि उसे लगे कि इस कानून को बनाने में सरकार ने संविधान की लक्ष्मण-रेखा लांघी हैतो वह उस कानून को निरस्त कर दे. यही तो करना था अदालत को. वह तीनों कानूनों की संवैधानिकता जांचतीसरकार को भी और किसानों को भी अपना पक्ष रखने को आमंत्रित करतीदूसरे जानकारों को भी सुनती और फिर अपना फैसला सुनाती. वह ऐसा करती तो वह सरकार को भी और किसानों को भी और देश को भी विश्वास में ले पाती. फिर उसका फैसला वैसा आधारहीन नहीं होता जैसा आज है. है कहीं कोई पेंच कि सरकार किसानों का वैसा कल्याण करने पर अड़ी हुई है जिसकी किसानों ने कभी मांग नहीं कीअदालत किसानों को वह देने पर आमादा है जिसकी चाहत किसानों ने नहीं की. ये दोनों ऐसी अहेतुक कृपा क्यों कर रहे हैं ? 

               अदालत ने सरकार को फटकारते हुए कहा था कि वह एक समिति बनाएगी जिसकी अध्यक्षता भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश करेंगे.  इसमें किसानों के प्रतिनिधिसरकार के प्रतिनिधि और सार्वजनिक जीवन की कुछ ऐसी हस्तियां होंगी जो खेती-किसानी के मान्य जानकार होंगी. ऐसी समिति की मांग किसकी थी ? किसानों की नहीं थीसरकार की भी नहीं थी. सरकार व किसानों की बीच जमी बर्फ को पिघलाने की यह अदालती युक्ति थी. यह काम कर सकती थी यदि यह सच में वैसी बनती जैसी कही गई थी. लेकिन अदालत ने जो समिति घोषित की उसमें कुछ भी सार नहीं है. ऐसी समिति उसने घोषित ही क्यों की जिसका अध्यक्ष भारत का कोई पूर्व मुख्य न्यायाधीश नहीं हैजिसमें न किसानों के प्रतिनिधि हैंन सरकार केसार्वजनिक जीवन का एक भी ऐसा नाम इस समिति में नहीं है  जिसे खेती-किसानी का मान्य जानकार माना जाता हो. मीलार्डअपने जो कहा था वह तो किया ही नहीं. यह सरकार भी ऐसा ही करती आई है. यह जो कहती हैवह करती नहीं है. आपको उसकी हवा कैसे लग गई ?  हम आपकी समिति के सदस्यों के बारे में कोई निजी टिप्पणी नहीं करेंगे सिवा इसके कि जो समिति आपने बनाई उससे ज्यादा खोखली और बेपेंदे की कोई समिति सोची भी नहीं जा सकती है. इसमें सारे वे ही लोग हैं जो बात का भात खाते रहे हैं और कागजी खेतों में फसलें उगाते व काटते रहे हैं. 

          साहबआपने अपनी चूक ( या चाल ? ) छिपाने के लिए यह सफाई दी कि यह समिति आपने अपनी मदद के लिए बनाई है. यह आजादी तो आपको है ही कि आप अपने सलाहकार खुद चुनें ( वैसे कहते हैं कि किसी भी आदमी की असली पहचान इससे होती है कि उसकी मित्र-मंडली किन लोगों की है ! इसी तरह किसी की असली पहचान इससे भी होती है कि वह किनकी सलाह से चलता है.)  आपने अपनी मदद के लिए जिन लोगों को चुना है उनसे जरूर रात-दिन मदद लीजिए लेकिन आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं कि आपके मददगारों की मदद के लिए किसान भी आगे आएंसमाज भी और मीडिया भी आगे आए ? किसान आंदोलन की ताकतइस आंदोलन का विस्तारइसका शांतिपूर्णकानूनसम्मत चरित्र और इसकी एकसूत्री मांगसरकार का मनमाना रवैया - इन सबका जिस अदालत को थोड़ा भी इल्म होगा क्या वह ऐसा समाधान पेश कर सकता है जिसके पास न आंख है,न कान और न चलने को पांव ?

         अदालत भाईआपने ही कहा है न कि किसानों के आंदोलन में महात्मा गांधी के सत्याग्रह की झलक मिलती है. हम जानना चाहते हैं कि आपने रवैये में गांधी की कोई झलक क्यों नहीं मिल रही है ? गांधी का यदि कोई सकारात्मक मतलब है तो अदालत उससे इतनी दूर क्यों नजर आता है ? अदालत में एटर्नी जेनरल ने जब यह गंदीबेबुनियाद बात कही कि इस आंदोलन में खालिस्तानी प्रवेश कर गए हैंतब आपको गांधीजी की याद में इतना तो कहना ही था कि हमारी अदालत में ऐसे घटिया आरोपों के लिए जगह नहीं है. वेणुगोपालजी को याद होना चाहिए कि वे जिस सरकार की नुमाइंदगी करते हैं उस सरकार में भ्रष्ट भी हैंअपराधी भी. उनमें बहुमत सांप्रदायिक लोगों का है. दल-बदलू भी और निकम्मेअयोग्य लोग भी हैं इसमें. हमने तो नहीं कहा या किसानों ने भी नहीं कहा कि वेणुगोपालजी भी ऐसे ही हैं. यह घटिया खेल राजनीति वालों को ही खेलने दीजिए वेणुगोपालजी. आप अपनी नौकरी भर काम कीजिए तो इज्जत तो बची रहेगी.  किसानों को आतंकवादीदेशद्रोहीखालिस्तानी आदि-आदि कहने में अब तो कम-से-कम शर्म आनी चाहिए क्योंकि यह किसान आंदोलन शांति,सहयोगसंयमगरिमा और भाईचारे की चलती-फिरती पाठशाला तो बन ही गया है. 

         हरियाणा सरकार केंद्र की तिकड़मों से भले कुछ दिन और खिंच जाए लेकिन वह खोखली हो चुकी है. देश के खट्टर साहबों को भी और इनकी रहनुमा केंद्र सरकार को भी अदालत यह नसीहत देती तो भला होता कि किसानों को उकसाने की या उन्हें सत्ता की ऐंठ  की चुनौती न दें. करनाल में जो हुआ वह इसका ही परिणाम था. किसान गांधी के सत्याग्रह के तपे-तपाए सिपाही तो हैं नहीं. आप उन्हें नाहक उकसाएंगे तो अराजक स्थिति बनेगी. गांधी ने यह बात गोरे अंग्रेजों से कही थीआज उनका जूता पहन कर चलने वालों से अदालत को यह कहना चाहिए था. लेकिन वह चूक गई. न्याय के बारे में कहते हैं न कि वह समय पर न मिले तो अन्याय में बदल जाता है. अब अदालत को हम यह याद दिला ही दें कि किसान उसका भरोसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं कि उनके सामने ( और हमारे सामने भी !) सांप्रदायिक दंगों और हत्यायों के सामने मूक बनी अदालत हैउनके सामने कश्मीर के सवाल पर गूंगी बनी अदालत हैउसके सामने वह अदालत भी है जो बाबरी मस्जिद ध्वंस और राम मंदिर निर्माण के सवाल पर अंधी-गूंगी-बहरी तीनों नजर आई.  किसान भी देख तो रहे हैं कि औने-पौने आरोपों पर कितने ही लोग असंवैधानिक कानून के बल पर लंबे समय से जेलों में बंद हैं और अदालत पीठ फेरे खड़ी है. भरोसा व विश्वसनीयता बाजार में बिकती नहीं हैन कारपोरेटों की मदद से उसे जेब में रखा जा सकता है. रात-दिन की कसौटी पर रह कर इसे कमाना पड़ता है. हमारी न्यायपालिका ऐसा नहीं कर सकी है . इसलिए किसान उसके पास नहीं जाना चाहता है. वह सरकार के पास जाता रहा है क्योंकि उसने ही इस सरकार को बनाया है और जब तक लोकतंत्र है वही हर सरकार को बनाएगा-झुकाएगा-बदलेगा. अदालत के साथ जनता का ऐसा रिश्ता नहीं होता है. इसलिए अदालत को ज्यादा सीधा व सरल रास्ता पकड़ना चाहिए जो दिल को छूता हो और दिमाग में समता हो.

         अदालत भाईजरा समझा भाई कि आपका दिल-दिमाग से उतना याराना क्यों नहीं है जितना इन खेती-किसानी वालों का है ? ( 14.01.2021)   

 

यह अक्षम्य अपराध है

   अमरीका के 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड जॉन ट्रंप अब केवल 10 दिनों के राष्ट्रपति बचे हैं लेकिन सवाल यह बचा है कि वे कितना बचे हैं ? आज वे हैं फिर भी वे कहीं नहीं हैं. अमरीका भी अौर दुनिया भी उन्हें आज ही अौर अभी ही भुला देने को तैयार बैठी है.  राष्ट्रपति बनने से ले कर राष्ट्रपति का चुनाव हारने तक उनका एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब उन्होंने अमरीका को शर्मिंदा अौर दुनिया को हतप्रभ न किया हो. ऐसा इसलिए नहीं कि अमरीका की आधी आबादी उनसे सहमत नहीं थी. सहमति-असहमति लोकतंत्र में हवा की तरह अाती-जाती रहती है. कुछ असहमतियां जरूर ही इतनी गहरी होती हैं कि जो कभी जाती नहीं हैं. तो लोकतंत्र का मानी ही यह होता है कि ऐसी असहमतियों से जनता को सहमत किया जाए अौर उस सहमति की ताकत से, जिससे असहमति है,उसे शासन से हटाया जाए. डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताअों-कार्यकर्ताअों ने यही किया अौर रिपब्लिकनों को चुनाव में मात दी. पिछली बार यही काम ट्रंप ने किया था अौर डेमोक्रेटों को सत्ता से बाहर किया था. यह लोकतंत्र का खेल है जिसे चलते रहना चाहिए. 

         लेकिन ट्रंप को यह खेल पसंद नहीं है. इसलिए उन्होंने पिछली बार जैसी अशोभनीय अहमन्यता से अपनी जीत का डंका बजाया थाउतनी ही दरिद्रता से इस बार अपनी हार को कबूल करने से इंकार कर दिया. उन्हें यह अहसास ही नहीं है कि वे व्हाइट हाउस में अमरीकी जन व संविधान के बल पर मेहमान हैंउन्होंने व्हाइटहाउस खरीद नहीं लिया है. वैसे भी आम अमरीकी खरीदने-बेचने की भाषा ही समझता हैट्रंप तो इसके अलावा दूसरा कुछ जानते-समझते ही नहीं हैं. इसलिए बाइडेन से अपनी हार को जीत बता-बता कर वे पिछले दिनों में वह सब करते रहे जिसे करने की हिम्मत या कल्पना किसी दूसरे अमरीकी राष्ट्रपति ने नहीं की थी. उन्होंने नये साल को ठीक से अांख खोलने का मौका भी नहीं दिया अौर उसकी अांख में धूल झोंकने का शर्मनाक काम किया. 

         बुधवार 6 जनवरी 2021 को उन्होंने जो किया अौर करवाया वह सिर्फ असंवैधानिक नहीं है बल्कि घोर अलोकतांत्रिक हैवह अक्षम्य ही नहीं है बल्कि ऐसा अपराध है जिसकी सजा उन्हें मिलनी ही चाहिए. क्या है उनका अपराध लोकतंत्र के नागरिक को भीड़ में तब्दील करना वह घृणित अपराध है जिसकी एक ही सजा हो सकती है कि उन्हें उन लोकतांत्रिक अधिकारों व सहूलियतों से वंचित कर दिया जाए जिसके सहारे वे राष्ट्रपति बने फिर रहे हैं. 

         अमरीकी संसद की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी तथा मैसाच्यूसेट्स की सांसद कैथरीन क्लार्क ने इसकी ही बात की है जब उन्होंने कहा कि यदि आज के उप-राष्ट्रपति माइक पेंस संशोधित धारा 25 का इस्तेमाल कर ट्रंप को राष्ट्रपति के रूप में काम करने से रोकते नहीं हैं तो हम उन पर दूसरी बार महाभियोग का मामला चलाएंगे. अमरीका राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप को अस्वीकार करे यही उनकी सबसे उपयुक्त लोकतांत्रिक सजा  है. 

         यह इसलिए जरूरी है कि ट्रंप को 6 जनवरी के कुकृत्यों का कोई पछतावा नहीं है. अमरीकी राष्ट्र को शर्मसार करने के दो दिन बाद तक वे व्हाइटहाउस में खमोश बैठे रहे. उनकी सलाहकार मंडली उन्हें समझाती रही कि उन्हें संसद में प्रवेश कीहिंसा व लूट-मार की अपने समर्थकों की हरकत का निषेध करने वाला बयान तुरंत जारी करना चाहिए लेकिन वे ऐसा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हो रहे थे. जब उन्हें यह अहसास कराया गया कि अमरीकी कानून उन्हें इसकी आपराधिक सजा सुना सकता है तब एक सामान्य अपराधी की तरह वे डर गए अौर बड़े बेमन सेकाफी हीले-हवाले के बाद उस मजमून पर हस्ताक्षर किए जो उनके नाम से दुनिया के सामने अब आया है. यह हमारी अांखों में धूल झोंकने की नई कोशिश से अधिक कुछ नहीं है. उन्होंने यह भी कहा है कि वे 20 जनवरी को नये राष्ट्रपति के शपथ-ग्रहण समारोह में हाजिर नहीं रहेंगे लेकिन यह काम तो अमरीकी संसद को करना चाहिए कि वह राष्ट्रपति ट्रंपउप-राष्ट्रपति माइक पेंस तथा ट्रंप प्रशासन के सभी उच्चाधिकारियों कोजो ट्रंप के कुकृत्यों में बराबरी के साझीदार रहे हैं,  इस समारोह का अामंत्रण भेजने से मना कर दे. यह अमरीका के संसदीय इतिहास की पहली घटना होगी कि जब संसद किसी राष्ट्रपति को राष्ट्रपति मानने से इंकार दे. 

         यह क्यों जरूरी है सारी दुनिया में हम यह नजारा देख रहे हैं कि लोकतांत्रिक  प्रक्रियाअों व संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल करयेनकेनप्रकारेण कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सत्ता में पहुंच जाता है अौर फिर लोकतंत्र की बखिया उधेड़ने लगता है. वह लोकतंत्र को मनमाना करने का लाइसेंस मान लेता है अौर खोखले शब्दजाल में जनता को फंसा करउसे  भीड़ में बदल लेता है. यह खेल हम अपने यहां भी देख रहे हैं. लोकतंत्र मानवीय कमजोरियों को निशाना बना कर सत्ता में पहुंचने व सत्ता से चिपकने का गर्हित खेल नहीं है बल्कि इसकी अात्मा यह है कि लोगों को उनकी संकीर्णताअों से ऊपर उठा करभीड़ से नागरिक बनाया जाए अौर उस नागरिक की सम्मति से शासन चलाया जाए. ट्रंप जैसे लोग न लोकतंत्र समझते हैंन उसमें अास्था रखते हैं. इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र उन्हें अपना पाठ पढ़ाए. अपराधी वे नहीं हैं जो 8 जनवरी को कैपिटल हिल में जा घुसे थे. वह तो उन्मत्त बनाई गई वह भीड़ थी जिसका अायोजन ट्रंप ने किया था. हमारे यहां बंदर को दारू पिलाना’ खासा प्रचलित मुहावरा है. ट्रंप ने यही किया था. अब उन्हें यह बताने का वक्त है कि बंदरों का खेल सड़क पर देखना सुहाता हैराष्ट्रपति भवन में नहीं. ( 09.01.2021)       

        

 

लोकतंत्र से नेपाल का अामना-सामना

             हालिया इतिहास का सबसे अजूबा मंजर यह है कि नेपाल के लोकतंत्र के संरक्षण के लिए दूसरा कोई नहीं,चीन सिपाही बन कर नेपाल के अांगन में उतरा है. लोकतंत्र से चीन का नाता कभी उतना भी नहीं रहा है जितना कौवे का कोयल से होता है. इधर नेपाल के लोकतंत्र का हाल यह है कि उसके 58 साल के इतिहास में अब तक 49 प्रधानमंत्रियों ने उसकी कुंडली लिखी है. दुखद यह है कि इन 49 प्रधानमंत्रियों में से शायद ही किसी का कोई लोकतांत्रिक इतिहास रहा है. 

            लोकतांत्रिक इतिहास जरूरी इसलिए होता है कि लोकतंत्र में नियम-कानूनों से कहीं-कहीं ज्यादा महत्ता स्वस्थ्य परंपराअों व उनमें जीवंत अास्था की होती है. इसे समझना भारत अौर नेपाल दोनों के लिए जरूरी है. शासन-तंत्र के रूप में लोकतंत्र एक बेहद बोदी प्रणाली है लेकिन वही अत्यंत प्राणवान बन जाती है जब वह जीवन-शैली में ढल जाती है. अाज हम भी अौर नेपाल भी इसी कमी के संकट से गुजर रहे हैं. फर्क यह है कि जहां हमारे यहां संसदीय लोकतंत्र की जड़ें अत्यंत गहरी हैंनेपाल में अभी उसने जमीन भी नहीं पकड़ी है. उसने 237 साल लंबे शुद्ध राजतंत्र का स्वाद चखा हैराजशाही के नेतृत्व में प्रातिनिधिक सरकार भी देखीपंचायती राज भी देखासंवैधानिक राजशाही भी देखी अौर फिर कम्यूनिस्ट नेतृत्व का लोकतंत्र देखा. इन दिनों वह शुद्ध लोकतंत्र का स्वाद पहचानने की कोशिश कर रहा है.     

            2018 में नेपाल के प्रधानमंत्री बने कम्यूनिस्ट के.पी. अोली अपनी पार्टी अौर अपनी सरकार के बीच लंबी रस्साकशी से परेशान चल रहे थे.  इससे निजात पाने का उन्होंने रास्ता यह निकाला कि देश की पहली महिला राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी से संसद के विघटन की सिफारिश कर दी जबकि अभी उसका कार्यकाल करीब ढाई साल बाकी था. नेपाल के संविधान में संसद के विघटन का प्रावधान नहीं है. संविधान ने इसे राष्ट्रपति के विवेक पर छोड़ दिया है. प्रधानमंत्री अोली के राष्ट्रपति भंडारी से ऐसे मधुर रिश्ते रहे हैं कि इस मामले में दोनों का विवेक एक ही अावाज में बोल उठा अौर संसद भंग हो गई. 

            नेपाल अाज लोकतंत्र के उस चौराहे पर खड़ा है जहां से यदि कोई रास्ता निकलता है तो नये चुनाव से ही निकलता है. प्रधानमंत्री अोली ने यही किया है भले सरकार व पार्टी में उनके कई सहयोगी उन पर वादाखिलाफी का व पार्टी को तोड़ने का अारोप लगा रहे हैं.

            2018 का आम चुनाव नेपाल को ऐसे ही अजीब-से मोड़ पर खड़ा कर गया है. तब किसी भी दल को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला था. वहां की दो वामपंथी पार्टियोंअोली की कम्यूनिस्ट पार्टी अॉफ नेपाल (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) तथा पुष्पकमल दहल प्रचंड’ की कम्यूनिस्ट पार्टी अॉफ नेपाल(माअोवादी) के बीच वोट इस तरह बंटे गये कि दोनों सत्ता से दूर छूट गये. लंबी अनुपस्थिति तथा प्रचंड’ की अगुवाई में हुई क्रूर गुरिल्ला हिंसा में से नेपाल में लोकतंत्र का पुनरागमन हुअा था. प्रचंड’ पहले 2008-09 में अौर फिर 2016-17 में प्रधानमंत्री बने थे. लेकिन इस बार पासा उल्टा पड़ा. अंतत: दोनों कम्यूनिस्ट पार्टियों को साथ अाना पड़ा. फिर दोनों का विलय हो गया. कुछ दूसरे छोटे साम्यवादी दल भी आ जुड़े अौर 275 सदस्यों वाली लोकसभा में दो तिहाई बहुमत (175 सीटें) के साथ नेपाल में तीसरी बार साम्यवादी सरकार बनी. समझौता यह हुअा कि पहले अोली प्रधानमंत्री बनेंगे अौर अाधा कार्यकाल पूरा कर वे प्रचंड’ को सत्ता सौंप देंगे. इसमें न कहीं साम्य थान वादयह शुद्ध सत्ता का सौदा था. 

            ‘प्रचंड’ जब पहले दो बार प्रधानमंत्री बने थे तब भीअौर अोली जब से प्रधानमंत्री बने हैं तब से भी दोनों ही भारत के साथ शतरंज खेलने में लगे रहे. अपनी साम्यवादी पहचान को मजबूत बनाने में इनकी कोशिश यह रही कि चीनी वजीर की चाल से भारत को मात दी जाए. चीन के लिए इन्होंने नेपाल को इस तरह खोल दिया जिस तरह कभी वह भारत के लिए खुला होता था. 

            स्वतंत्र भारत ने एेसा तेवर रखा कि नेपाल को बड़े भाई’ भारत के कुछ कहने के बजाए उसका इशारा समझ कर चलना चाहिए. यह रिश्ता न चलने लायक थान चला. फिर अाई मोदी सरकार. उसने नेपाल को संसार का एकमात्र हिंदू राष्ट्र’ का जामा पहना करअपने अांचल में समेटना चाहा. यह किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र को न स्वीकार्य होना चाहिए थान हुआ. फिर तो नेपाल के साथ भारत के रिश्ते इतने बुरे हुए जैसे पहले नहीं हुए थे. इसलिए भी भारत-नेपाल के फटे में अपना पांव डालने का चीन को मौका मिला. प्रचंड’ अौर अोली ने उसे अासान बनाया. लेकिन दोनों यह भूलते रहे कि भारत-नेपाल का रिश्ता राजनीतिक सत्ता तक सीमित नहीं है. वहां के राजनीतिकअार्थिक व सामाजिक जीवन में भारतवंशियों यानी मधेसियों की बड़ी मजबूत उपस्थिति है. ये वे भारतीय हैं जो कभी नेपाल जा बसे अौर दोनों देशों के बीच मजबूत पुल बन करभारत-नेपाल के सीमावर्ती जिलों में रहते रहे हैं. समय के साथ-साथ अपनी राजनीतिक शक्ति का उनका अहसास मजबूत होता गया. इनका अपना राजनीतिक दल बना जो कई नामों से गुजरता हुअा अाज जनता समाजवादी पार्टी कहलाता है. यह पार्टी संसद में मधेसियों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करती है अौर नेपाल के संविधान में कुछ खास परिवर्तन की मांग भी करती है. यह संगठित भी हैमुखर भी है अौर दोनों साम्यवादी पार्टियों के बीच की खाई का अच्छा इस्तेमाल भी करती है. 

            इन तीन खिलाड़ियों को नेपाल में लोकतंत्र का वह खेल खेलना है जिसे खेलना अभी इन्होंने सीखा नहीं है. जब कभी लोकतंत्र की गाड़ी इस तरह फंसे तो चुनाव- स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव - सबसे वैधानिक व स्वाभाविक विकल्प होता है. अोली ने भले अपना राजनीतिक हित देख कर संसद को भंग करने का फैसला किया होअौर उससे कम्यूनिस्ट पार्टियों में टूट हो रही हो लेकिन यह चुनाव तीनों ही दलों के लिए संभावनाअों के नये द्वार खोलता है. अोली को अलोकतांत्रिक बताने से कहीं बेहतर यह है कि उन्हें चुनाव में बदतर साबित किया जाए. अाखिर तो महान नेपाल की महान जनता ही फैसला करेगी कि इन तीनों में से वह किसे नेपाल को अागे ले जाने के अधिक योग्य मानती है. यही लोकतंत्र है. ( 05.01.2021) 

                                                                                                                                      

राहुल की कोंग्रेस : कोंग्रेस के राहुल

           नीति आयोग के अमिताभकांत को तो लगता है कि जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र हमारे देश की जड़ें खोद रहा है जबकि कांग्रेस के वरिष्ठ जनों को लगता है कांग्रेस में जरूरत से कम लोकतंत्र उसे लगातार कमजोर बनाता जा रहा है. लोकतंत्र है ही है एक ऐसा खिलौना जिससे अमिताभकांत जैसे बच्चे भी अौर कांग्रेस के दादा लोग भी जब जैसे चाहें, वैसे खेलते हैं. लेकिन लोकतंत्र की मुसीबत यह है कि वह कोई खिलौना नहीं, एक गंभीर प्रक्रिया व गहरी अास्था है जिसके बिना यह लोकतंत्र में अास्था न रखने वालों की मनमौज में बदल जाता है.   

            कांग्रेस के भीतर आज यही मनमौज जोरों से जारी है. कांग्रेस के दादाअों’ को लगता है कि नेहरू-परिवार की मुट्ठी में पार्टी का दम घुट रहा है. सबकी ऊंगली राहुल गांधी की तरफ उठती है कि वे राजनीति को गंभीरता से नहींसैर-सपाटे की तरह लेते हैं. लेकिन उनमें से कौन कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति को गंभीरता से लेता है मोतीलाल नेहरू से शुरू कर इंदिरा गांधी तक नेहरू-परिवार अपनी बनावट में राजनीतिक प्राणी रहा है अौर अपनी मर्जी से सत्ता की राजनीति में उतरा है. संजय गांधी को भी परिवार की यह भूख विरासत में मिली थी. अगर हवाई जहाज की दुर्घटना में उनकी मौत न हुई होती तो नेहरू-परिवार का इतिहास व भूगोल दोनों आज से भिन्न होता.  संजय गांधी की मौत के बाद इंदिरा गांधी समझ सकीं कि उनके वारिस राजीव गांधी में वह राजनीतिक भूख नहीं है जिसके बगैर किसी का राजनीतिक नेतृत्व न बनता हैन चलता है. 

            उन्होंने राजीव गांधी पर सत्ता थोप दी ताकि उनकी भूख जागे. वह पुरानी बात तो है ही कि कुछ महान पैदा होते हैंकुछ महानता प्राप्त करते हैं अौर कुछ पर महानता थोप दी जाती है. अनिक्षुक राजीव गांधी पर मां ने सत्ता थोप दी अौर जब तक वे इसके रास्ते-गलियां समझ पाते तब तक मां की भी हत्या हो गई. अब यह थोपी हुई सत्ता राजीव से चिपक गई अौर धीरे-धीरे राजीव अनिक्षा से बाहर निकल करसत्ता की शक्ति अौर सत्ता का सुखदोनों समझने व चाहने लगे. उनमें मां का तेवर तो नहीं था लेकिन तरीका मां का ही था. तमिलनाड की चुनावी सभा मेंलिट्टे के मानव-बम से वे मारे नहीं जाते तो हम उन्हें अपने खानदान के रंग व ढंग से राजनीति करते देखते. विश्वनाथ प्रताप सिंह की दागी बोफर्स तोप के निशाने से पार पा करवे अपने बल पर बहुमत पाने अौर सत्ता की बागडोर संभालने की तैयारी पर थे. 

            राजीवविहीन कांग्रेस इस शून्य को भरने के लिए फिर नेहरू-परिवार की तरफ देखने लगी लेकिन अब वहां बची थीं सिर्फ सोनिया गांधी -                     

              राजनीति से एकदम अनजान व उदासीनअपने दो छोटे बच्चों को संभालने व उन्हें राजनीति की धूप से बचाने की जी-तोड़ कोशिश में लगी एक विदेशी लड़की ! लेकिन जो राजीव गांधी के साथ उनकी मां ने किया वैसा ही कुछ सोनिया गांधी के साथ कांग्रेस के उन बड़े नेताअों ने किया जो नरसिम्हा रावसीताराम केसरी अादि मोहरों की चालों से बेजार हुए जा रहे थे. उन्होंने सोनिया गांधी पर कांग्रेस थोप दी. फिर सोनिया गांधी ने वह किया जो उनके पति राजीव गांधी ने किया था - राजनीति को समझा भी अौर फिर उसमें पूरा रस लेने लगीं. मुझे पता नहीं कि आधुनिक दुनिया के लोकतांत्रिक पटल पर कहीं कोई दूसरी सोनिया गांधी हैं या नहीं. सोनिया गांधी ने कांग्रेस को वह सब दिया जो नेहरू-परिवार से उसे मिलता रहा था- बस इतहा था कि वे इस परिवार की इटली-संस्करण थीं. सोनिया गांधी ने बहुत संयमगरिमा से बारीक राजनीतिक चालें चलीं. प्रधानमंत्री की अपनी कुर्सी किसी दूसरे को दे देने अौर फिर भी कुर्सी को अपनी मुट्ठी में रखने का कमाल भी उन्होंने कर दिखलाया. 

            राहुल गांधी को उनकी मां ने कांग्रेस-प्रमुख व देश के प्रधानमंत्री की भूमिका में तैयार किया. राहुल भी अपने पिता व मां की तरह ही राजनीति की तालाब के मछली नहीं थे लेकिन उन्हें मां ने चुनने का मौका नहीं दिया. राहुल तालाब में उतार तो दिए गए. जल्दी ही वे इसका विशाल व सर्वभक्षी रूप देख कर किनारे की तरफ भागने लगेआज तक भागते रहते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि राहुल को राजनीति नहीं करनी है या वे सत्ता की तरफ उन्मुख नहीं हैं. अब तो उनकी शुरुआती झिझक भी चली गई है लेकिन कांग्रेस का इंदिरा गांधी संस्करण उनको पचता नहीं है. वे इसे बदलना चाहते हैं लेकिन वह बदलाव क्या है अौर कैसे होगान इसका साफ नक्शा है उनके पास अौर न कांग्रेस के वरिष्ठ जन वैसा कोई बदलाव चाहते हैं. यहीं आ कर कांग्रेस ठिठक-अंटक गई है. 

            मतदाता उसकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा है. वह अपनी मुट्ठी कैसे बंद करेयह बताने वाला उसके पास कोई नहीं है. क्या ऐसी कांग्रेस को राहुल अपनी कांग्रेस बना सकते हैं बना सकते हैं यदि वे यह समझ लें कि अागे का रास्ता बनाने अौर उस पर चलने के लिए नेतृत्व को एक बिंदु से आगे सफाई करनी ही पड़ती है. परदादा जवाहरलाल नेहरू हों कि दादी इंदिरा गांधी कि पिता राजीव गांधीसबने ऐसी सफाई की हैक्योंकि उन्हें कांग्रेस को अपनी पार्टी बनना था. राहुल यहीं आ कर चूक जाते हैं या पीछे हट जाते हैं. वे कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे अौर लगातार आधी से ज्यादा कांग्रेस उन्हें ही अपना अध्यक्ष मानती भी रही है लेकिन राहुल अब तक अपनी टीम नहीं बना पाए हैं. वे यह भी बता नहीं पाए हैं कि वे कांग्रेस का कैसा चेहरा गढ़ना चाहते हैं. कांग्रेस को ऐसे राहुल की जरूरत है जो उसे गढ़ सके अौर यहां से आगे ले जा सके. वह तथाकथित वरिष्ठ कांग्रेसजनों’ से पूछ सके कि यदि मैं कांग्रेस की राजनीति को गंभीरता से नहीं ले रहा हूं तो आपको आगे बढ़ कर कांग्रेस को गंभीरता से लेने से किसने रोका है पिछले संसदीय चुनाव या कि उसके बाद के किसी भी राज्य के चुनाव में इन वरिष्ठ कांग्रेसियों में से एक भी जान लगा कर काम करता दिखाई नहीं दियादिखाई नहीं देता है तो क्यों ऐसा क्यों हुआ कि जब राहुल चौकीदार चोर है !” की हांक लगाते सारे देश में घूम रहे थे तब दूसरा कोई वरिष्ठ कांग्रेसी उसकी प्रतिध्वनि नहीं उठा रहा था अगर ऐसे नारे से किसी को एतराज था तो किसी ने कोई नया नारा क्यों नहीं गुंजाया ?  ऐसा क्यों है कि राहुल ही हैं कि जो अपने बयानों-ट्विटों में सरकार को सीधे निशाने पर लेते हैं बाकी कौनकबक्या बोलता हैकिसने सुना है शुरू में राहुल कई बार कच्चेपन का परिचय दिया करते थे क्योंकि उनके पीछे संभालने वाला कोई राजनीतिक हाथ नहीं था. अब वक्त ने उन्हें संभाल दिया है. 

            इस राहुल को कांग्रेस अपनाने को तैयार हो तो कांग्रेस के लिए आज भी आशा है. राहुल को पार्टी के साथ काम करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए क्योंकि कांग्रेस में आज राजस्थान के मुख्यमंत्री के अलावा दूसरा कोई नहीं है कि जो पार्टी को नगरपालिका का चुनाव भी जिता सके. अशोक गहलोत कांग्रेस के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने खुली चुनौती दे कर भाजपा को चुनाव में हराया अौर फिर चुनौती दे कर सरकार गिराने की रणनीति में उसे मात दी. यह राजनीति का राहुल-ढंग है. ऐसी कांग्रेस अौर ऐसे राहुल ही एक-दूसरे को बचा सकते हैं. ( 22.12.2020)