आपातकाल का अंधेरा
अंधकार की भी आंखें होती हैं ! इतिहास उन्हीं आंखों से अंधकार के पार देखता है और नया इतिहास लिखता है. आपातकाल हमारे लोकतांत्रिक इतिहास का ऐसा ही अंधेरा है, भारत का मतदाता जिसके पार देख सका था और नया इतिहास रच भी सका था. लेकिन अंधकार को भेदने वाली आंखों का एक सच यह भी है कि वे अंधी न हों. भला सोचिए न, अंधी आंखें क्या तो देखेंगी, क्या तो समझेंगी !
26 जून 1975 को आपातकाल का अंधेरा सारे देश का आसमान लील गया था. ऐसा अंधेरा देश ने देखा नहीं था कभी. भारतीय लोकतंत्र को आपातकाल की चादर तले ढक कर, उसका दम घोंटने की यह अत्यंत गर्हित कोशिश श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने की थी; याकि पार्टी को शून्य बना कर इंदिराजी ने की थी. कांग्रेस ने तो अपना नाम भी बदल कर कांग्रेस (इं) कर लिया था ताकि आंखों की शर्म भी क्यों रहे.
उस आपातकाल के 50 साल पूरे हुए. इसे देखने के भी दो नजरिये हैं : एक कहता है कि आपातकाल के 50 साल पूरे हुए; मैं कहता हूं कि एकाधिकारवादी राजनीतिक ताकतों को चुनौती दे कर परास्त करने के 50 साल पूरे हुए. न लोकतंत्र पर वैसा हमला हुआ था पहले कभी, न पार्टियों को पीछे छोड़ती हुई जनता ने कभी उठ कर अपने लोकतंत्र के संरक्षण की वैसी लड़ाई लड़ी थी कभी. ये दो तस्वीरें नहीं हैं, एक ही तस्वीर को देखने की दो नजर है. यह तस्वीर है संपूर्ण क्रांति आंदोलन की !
यह भूलना राजनीतिक अंधता है कि आपातकाल आसमान से टपका नहीं था बल्कि एक अभूतपूर्व जनांदोलन का मुकाबला करने के लिए, संविधान को तोड़-मरोड़ कर निकाला गया वह हथियार था जिसकी धार इस देश के अनपढ़, अशिक्षित व असंगठित मतदाता ने पहला मौका मिलते ही कुंद कर दी. कोई 15 महीने चले इस आंदोलन को भूल कर या भुला कर आपातकाल के विषय में निकाला गया हर निष्कर्ष रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक है.
सत्ताधीशों के लिए 1947 में भी जरूरी हो चला था कि गांधी की लोकक्रांति की अवधारणा को जनता की नज़र से हटा कर, एक ऐसा परिदृष्य खड़ा कर दिया जाए कि गांधी दीवार पर लटके फ़्रेम से बाहर न आ सकें. यह काम उन लोगों ने किया जो गांधी को अपराधी नहीं मानते थे, उनको अपमानित नहीं करते थे, दिल से उनकी इज़्ज़त करते थे लेकिन उन्हें आज़ाद भारत के लिए अनुपयोगी मानते थे.
1977 में भी सत्ताधीशों के लिए जरूरी हो गया कि जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति की अवधारणा को जनता की नजर से ओझल कर, एक ऐसा परिदृष्य खड़ा कर दिया जाए कि वे लोकविहीन लोकनायक भर रह जाएं. यह तुलना जयप्रकाश को गांधी बनाने की फूहड़ कोशिश नहीं है बल्कि क्रांति व सत्ता के रिश्ते को सफ़ाई से समझने का उद्यम है.
आजादी के साथ ही जिनके लिए लोकतंत्र, संविधान, जनता, समता, समानता, सादगी, मितव्ययिता आदि किताबी अवधारणाएं मात्र रह गईं और एकमात्र सच सत्ता ही बची, उनकी एक नजर है; दूसरी नजर उनकी है जो लोकतंत्र को लोक के संदर्भ में संविधान से बंधी निरंतर विकासशील वह अवधारणा मानते-समझते व जीते हैं जिसके लिए कैसी भी सत्ता व किसी की भी सत्ता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है. ऐसी अविचलित आस्था की घोषणा जयप्रकाश ने 1974 में नहीं, 1922 में कर दी थी: “ स्वतंत्रता मेरे जीवन का आकाश-दीप बन गई. वह आज तक वैसी ही बनी हुई है. समय जैसे-जैसे बीतता गया वैसे-वैसे स्वतंत्रता का अर्थ केवल अपने देश की स्वतंत्रता नहीं रहा बल्कि उससे आगे बढ़ कर, उसका अर्थ हो गया मनुष्य मात्र की सब प्रकार के बंधनों से मुक्ति ! इससे भी आगे बढ़ कर वह मानवीय व्यक्तित्व की स्वतंत्रता में, विचारों की और आत्मा की स्वतंत्रता में परिणत हो गया. स्वतंत्रता मेरे लिए ऐसी जीवन-निष्ठा बन चुकी है जिसका सौदा मैं कभी भी रोटी, सत्ता, सुरक्षा, समृद्धि, राज्य प्रदत्त मान-सम्मान अथवा दूसरी किसी भी चीज के लिए नहीं कर सकता.” तो सिर्फ आपातकाल के नहीं, इस आस्था से जीने व लड़ने के भी 50 साल पूरे हुए, यह भूला कैसे जा सकता है !
इसलिए आपातकाल के 50 साल पूरा होने का जश्न जिस तरह मनाया गया, अखबारों ने उसे जिस तरह प्रस्तुत किया, वह हमें बता गया कि अंधी आंखों से देखा गया इतिहास कितना खोखला व अर्थहीन होता है. मजा यह भी देखिए कि आपातकाल एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सत्ता पक्ष व विपक्ष एक ही स्वर में बोलते हैं : आपातकाल की भर्त्सना ! 1977 के बाद से, इसकी आड़ में सभी तीसमारखां बने जाते हैं जबकि इनमें से अधिकांश न संपूर्ण क्रांति के आंदोलन से सहमत थे, न उसके सिपाही थे; न आपातकाल से भिड़े थे, न उससे किसी स्तर पर समझौता न करने का जिनका प्रण था. बरसाती मेंढकों का ऐसा प्रहसन पहली बार नहीं हो रहा है. 1947 न आए, इसके लिए रात-दिन काम करने वाले कितने की ‘योग्य’ जन थे जिन्होंने 1947 के आते ही कपड़े बदल कर, आजादी के नारे लगाने शुरू कर दिए. हमने देखा कि जवाहरलाल गुलामी के मनकों से आजादी का बंदनवार सजाने में जुट गए, सरदार गुलामी को पुख्ता बनाने में जुटी नौकरशाही की फौज ले कर आजादी का राजमार्ग बनाने में लग गए. फिर जो बना, वह कहानी फिर कभी.
1977 में आई ‘दूसरी आजादी’ की पहली सुबह ही बीमार व इंच-इंच मौत की तरफ़ खिसकते जयप्रकाश ने सर्वोदय के अपने साथियों से जो कहा सो कहा, नई सरकार में कुर्सी संभालने जा रहे लोगों को सामने बिठा कर दो बातें कहीं : सत्ता की कुर्सी बहुत खतरनाक होती है. इसलिए जब कभी आपकी सत्ता व जनता के बीच आमने-सामने की स्थिति बने, तो इंदिराजी ने जैसा व्यवहार किया, मैं आशा करता हूं कि मोरारजी देसाई वैसा व्यवहार नहीं करेंगे. यह व्यक्तिगत शील भर की बात नहीं थी, सीधा संदेश था कि संवैधानिक शक्तिओं का इस्तेमाल करते हुए, वे सारी व्यवस्थाएं आप कीजिए जिससे भविष्य में कोई आपातकाल की तलवार जनता पर न चला सके. दूसरी बात उन्होंने इनसे बाद में कही : एक साल के लिए देश के सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर दीजिए और ऐसी योजना बनाइए कि पढ़ने व पढ़ाने वाले दोनों ही भारत के लाखों गांवों में बिखर जाएं, असली भारत को देखें-पहचानें तथा उसके साथ जीना व चलना सीखें. दूसरी तरफ, इसी अवधि में देश भर के शिक्षाविद् सर जोड़ कर बैठें व हमारी शिक्षा की नई व्यवस्था का खाका तैयार करें. जिन्हें याद न हो, उनको याद कराता हूं कि ‘शिक्षा में क्रांति’ संपूर्ण क्रांति की संकल्पना का एक अहम आयाम था. आजाद भारत में नये मन का, नया नागरिक तैयार करने की यह वही तड़प थी जिससे बेचैन गांधी ने 2 फरवरी 1948 को अपने सेवाग्राम आश्रम में ‘अपने ख़ास सिपाहियों का सम्मेलन’ बुलाया था जिसमें आज़ाद भारत की सरकार का एक भी व्यक्ति उन्होंने शरीक नहीं किया था. लेकिन 2 फरवरी के आने से पहले आई 30 जनवरी और 3 गोलियों से गांधी को चुप करा दिया गया; 1977 के आते ही जयप्रकाश को प्रधानमंत्री ने सावधान कर दिया : जयप्रकाश बाहर के आदमी हैं. हम उनके प्रति जवाबदेह नहीं हैं.
आपातकाल के अंधेरे में इतिहास के ये दोनों पन्ने खो न जाएं, इसकी सावधानी हमें रखनी है.
1977 के बाद से हम देख रहे हैं कि आपातकाल को 26 जून में महदूद कर दिया गया है. हर साल 26 जून को इसकी आड़ में कांग्रेस पर निशाना साधा जाता है. 2014 के बाद से यह खेल ज्यादा ही वीभत्स व फूहड़ हो चला है. कांग्रेस की इतिहास की समझ ऐसी पैदल है कि वह या तो चुप्पी साध बैठती है या आपातकाल से पहले की एनार्की की तस्वीर खींच कर, आपातकाल का औचित्य बताने लगती है. दोनों ही कांग्रेस की पराजित मनोभूमिका की चुगली खाते हैं. क्या कांग्रेस को याद नहीं है कि इंदिरा गांधी ने भी, राजीव व मनमोहन सिंह ने भी ‘आपातकाल’ को अपनी की तरह क़बूल किया था. आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहने वाले विनोबा भावे ने भी, आपातकाल के बाद अपने साथियों के साथ बैठ कर कहा था कि बाबा से भी कई गलतियां हुई हैं. आप उसे भूल कर आगे बढ़िए !
कांग्रेस के मन में यदि चोर नहीं है तो उसे पूरे विश्वास से, हर बार संघ परिवार के झूठे तेवर का खंडन करना चाहिए और कहना चाहिए कि 50 साल पहले लिया गया वह निर्णय हमारी चूक थी जिससे हम बहुत दूर निकल आए हैं. यह एकदम वैसी ही चूक है जैसी वामपंथियों की गांधी-आंदोलन को साम्राज्यवाद की दलाली बताने व उसे कमजोर करने वाली चूक थी याकि संघ परिवार की आजादी के आंदोलन को लगातार धोखा देने और सांप्रदायिकता को उभार कर सत्ता पाने की चालबाजी थी. ऐसी ही चूक सीपीआई ने की; सर्वोदय के गिनती भर के उन लोगों ने की जिन्होंने विनोबा की आड़ में सत्ता से तालमेल बिठाया. इन सारी बातों को किनारे कर यदि हम आगे चल रहे हैं, तो कांग्रेस को उसकी चूक की याद दिला कर आगे चलने में क्या गलत है? आगे चल रहे हैं इसका मतलब यह नहीं है कि आपके पिछले कारनामों को भूल गए हैं. आपको हर नाजुक परिस्थिति में यह साबित करना होगा कि आप अपनी उस गलती से सीख कर आगे निकल आए हैं. इतिहास ने ऐसे सभी लोगों के कंधों पर यह उधार रख छोड़ा है.
आपातकाल की याद हमें इस तरह करनी चाहिए कि सत्ताएं हमेशा सारी शक्ति अपने हाथ में समेटने की युक्ति खोजती रहती हैं. लोकतंत्र, संविधान आदि नहीं, सत्ता उनकी निष्ठा की पहली व अंतिम कसौटी होती है. इसलिए यह याद रखने की ज़रूरत है कि यदि जयप्रकाश नाम का यह एक आदमी न होता तो 1974 से शुरू हुआ सारा संघर्ष, लोकतंत्र में उजागर हुई लोक की भूमिका, वोट को हथियार की तरह बरतने का तेवर, संपूर्ण क्रांति के संदर्भ में समाज परिवर्तन के आयामों को समझने की दृष्टि, दलों की नहीं, निर्दलीय शक्ति की लोकतांत्रिक भूमिका, एक व्यापक लोकतांत्रिक संघर्ष के मद्देनजर गांधी की सामयिकता, युवाओं की गत्यात्मकता, शांतिमयता से अहिंसा तक की यात्रा आदि-आदि कितने ही अमूल्य मोती जो हमें मिले, नहीं मिले होते. अगर जयप्रकाश नहीं होते तो संसदीय लोकतंत्र की आड़ में मुंह छिपाए बैठी तानाशाही, सत्ता व पूंजी की आपसी साठगांठ व अपरिमित भ्रष्टाचार, निहित स्वार्थों का भयंकर क्रूर व काइयां गंठजोड़, हमारे सामाजिक-पारिवारिक ढांचे में तथाकथित उच्च जातियों व पुरुष-वर्चस्व आदि को हर स्तर पर वैसी चुनौती नहीं मिलती जिससे बिलबिला कर आपातकाल की तोप दागी गई थी. जो आपातकाल को विपक्ष व इंदिरा गांधी के बीच की रस्साकशी की तरह देखना व समझना चाहते हैं, वे जड़ को भूल कर पत्ते गिन रहे हैं. आराम से वक्त काटने का यह तरीका हमारे तथाकथित बौद्धिकों को रास आता है लेकिन यह अर्थहीन है. इसलिए तो आपातकाल का पहला नतीजा हमने देखा कि यह वर्ग सबसे पहले शरणागत हुआ फिर चाहे व कलमधारी रहा हो कि रंग-ब्रश वाला कि अखबारी कि सभ्यता-संस्कृति का झंडाबरदार ! इन सबके ही सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि थे न जो प्रतिनिधिमंडल ले कर इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की बधाई देने पहुंचे थे; और इनमें से ही कई थे जो 1977 में जनता पार्टी की सफलता के बाद जयप्रकाश को बधाई देने भी पहुंचे थे.ऐसे लोग लोकतंत्र के लोक के साथ नहीं, तंत्र के साथ रहने में सुख पाते हैं. यदि जयप्रकाश नहीं होते तो 1974 को मुट्ठी भर ऊधमी छात्रों का तमाशा बता कर दबा-बिखरा दिया गया होता, पटना व दिल्ली की सत्ता हमें झांसा देकर, ख़रीद कर, डरा कर सब कुछ डकार गई होती. इतिहास में हमारे हिस्से दो पंक्तियां भी दर्ज नहीं होतीं.
जयप्रकाश ने हमारे छोटे-से, आधे-अधूरे प्रयास को अपनी हथेली पर इस तरह संभाला कि वह विराटतर होता गया और हम आसमान में उतने ऊपर उड़ सके जितना इंसान उड़ सकता है. यह काव्य नहीं है. कभी जयप्रकाश ने विह्वल हो कर बताया था कि कैसे गांधी नाम के उस एक आदमी ने सारे देश की सामूहिक चेतना को झकझोर कर, उसे उस दिशा में सक्रिय कर दिया था जिसे आजादी की दिशा कहते हैं - राष्ट्र की आजादी से ले कर मानव-मात्र की आजादी ! ऐसी संपूर्ण आजादी का अहसास भी तब कहां था ?
एक आदमी ! यहीं पहुंच कर तो जयप्रकाश अपनी आस्था के दर्शन मार्क्सवाद से विलग हुए थे जो एक आदमी की भूमिका को खारिज करता है और व्यक्ति की विशिष्ठ क्षमता व अवदान को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की वेदी पर बलि चढ़ा देता है. अगर भौतिकता की गति से ही सब कुछ निर्धारित होता है, तब व्यक्ति की अपनी भूमिका का, उसके पुरुषार्थ का कोई मतलब बचता ही कहां है ? जयप्रकाश ने ही पूछा था कि अगर ऐसा है तो फिर किसी आदमी के भीतर अच्छाई की प्रेरणा का आधार क्या है ? मार्क्स ने जवाब नहीं दिया, गांधी ने दिया - अपनी शांत किंतु अकंपित आवाज में उन्होंने कहा : इतिहास की गति भी इंसान ही तय करता है. इसलिए इतिहास के सर्जन में, संस्कृति के संस्कार में, समाज की चेतना को आकार देने में व्यक्ति के अभिक्रम की निश्चित व निर्णायक भूमिका है. बस, सावधानी यह रखनी है कि व्यक्ति का सारा अभिक्रम सामाजिक अभिक्रम को उत्प्रेरित करने वाला हो. वह नहीं हो तो व्यक्तिपूजा व एकाधिकारशाही पनपती है; वह हो तो लोक की हैसियत बनती व बढ़ती है.
यही भूमिका तब जयप्रकाश ने निभाई. हमने भी कहां कभी देखा-सुना-पढ़ा याकि अनुभव किया था कि एक आदमी अपने वक्त की हवा बना भी देता है, बदल भी देता है. धर्मवीर भारती ने अंधायुग में इसे पहचानने की कोशिश की थी: भगवान श्रीकृष्ण ने “ विशादग्रस्त अर्जुन से कहा - मैं हूं परात्पर ! / जो कहता हूं करो/ सत्य जीतेगा / मुझसे लो सत्य, मत डरो ! … जब भी कोई मनुष्य / अनासक्त हो कर चुनौती देता है इतिहास को/ उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है /नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित/ उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है.”
अंधायुग जब मैंने जयप्रकाश को एक रेलयात्रा के दौरान पढ़ कर सुनाई. कृष्ण का जैसा रूपाकार भारतीजी ने उभारा है, उससे वे एकदम आर्द्र हो उठे थे. दूसरी सुबह किताब मांग कर, खुद उसे फिर से पढ़ा और फिर किताब मुझे सौंपते हुए स्वत: ही बुदबुदाए … पता नहीं इंसान में ऐसी क्षमता कैसे आती है …
हमने अपनी आंखों देखा और अपने प्राणों उसे जिया कि कैसे एक आदमी के नि:स्वार्थ अभिक्रम से समाज में अनीति व अन्याय के प्रतिकार की क्षमता पैदा होती है. संपूर्ण क्रांति का पूरा दर्शन व उसकी रणनीति जयप्रकाश की निष्कलुष साधना व साहसिक प्रयोग का अभियान था. इसी अभियान के दौरान हमारी समझ में आया कि दलों की जीत-हार से आगे भी कोई लोकतंत्र होता है, और उस लोकतंत्र को साकार करने का काम बड़ा ही पित्तमार है. गांधी अपनी आत्मा का अंतिम सत्व होम कर जिन लोगों तक यह स्वप्न पहुंचा सके, जयप्रकाश उनमें सबसे निराले व आकर्षक थे. इसलिए गांधी ने लिखा भी कि “ मैं जयप्रकाश को हज़म करना चाहता हूं… क्यों कि मैं जानता हूं कि मेरे बाद वह मेरी भाषा बोलेगा.”
1974 से हम जयप्रकाश को खोजने-पहचानने बैठैंगे तो भूल भी करेंगे व विफल भी होंगे. जयप्रकाश ने गांधी की वह भाषा सीखी-समझी ही नहीं, उसे उन्नत व सर्वग्राही भी बनाया. 1974 आते-आते उन्हें यह अहसास हो चला था कि वक्त की छन्नी में उनके लिए बहुत थोड़ी रेत बची है. वह पूरी तरह खाली हो जाए इससे पहले वे अपने समानधर्मा तरुणों को यह अहसास करा देना चाहते थे कि लोकशक्ति लोकतंत्र की मूल शक्ति है जिसे संगठित व सक्रिय करना क्रांति की सही दिशा है.
इतने संदर्भों में जो आपातकाल को नहीं देख व समझ सकेंगे वे किसी दूसरे आपातकाल में डरते-भटकते या फिर किसी की चरणवंदना करते मिलेंगे जैसे आज मिल रहे हैं. हम इनमें शामिल नहीं हैं, यह वह उपलब्धि है जो जयप्रकाश को काम्य थी. ( 17.07.2025)
इतिहास को भूलने का खतरा
अपनी स्वतंत्रता की 50वीं वर्षगांठ मना कर बांग्लादेश ने फुर्सत पा ली. प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भारतीय प्रधानमंत्री को मुख्य मेहमान बना कर अपनी राजनीतिक राह आसान करने की कोशिश की तो भारतीय प्रधानमंत्री ने हमेशा की तरह इस मौके से भी अपने लिए राजनीतिक फायदे की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेने की कोशिश की. उन्होंने खुद को बांग्लादेश की आजादी का सिपाही भी घोषित कर लिया और उस भूमिका में अपनी जेलयात्रा का विवरण भी दे दिया जबकि सच तो यह है कि उनकी पार्टी के उस कार्यक्रम में उन जैसे सैकड़ों जनसंघी कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया था. ‘मैं भी उन कार्यकर्ताओं में एक था’, ऐसा कहने की विनम्रता प्रधानमंत्री की विशेषता नहीं रही है. वे उस फिल्मी संवाद के मूर्तिमान स्वरूप हैं कि मैं जहां खड़ा होता हूं, लाइन वहीं से शुरू होती है. और यह भी तथ्य है कि तब शायद ही कोई विपक्षी दल था कि जिसने सरकार के विरोध में वैसे कार्यक्रम न किए हों और गिरफ्तारी न दी हो.
लेकिन इतिहास बताता है कि 50वीं वर्षगांठ के इस ऐतिहासिक मौके पर बांग्लादेश व भारत दोनों ने जाने-अनजाने में बला की ऐतिहासिक निरक्षता का परिचय दिया. 2015 में शेख हसीना की सरकार ने एक बड़ा चमकीला आयोजन किया था और उन सबको ‘बांग्लादेश लिबरेशन एवार्ड’ से सम्मानित किया था जिन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में उल्लेखनीय भूमिका अदा की थी. ऐसे लोगों में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी भी थे. वे तब इतने बीमार थे कि ढाका जा नहीं सकते थे. उनकी तरफ से यह सम्मान ग्रहण करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ढाका पहुंचे थे - मुक्ति संग्राम के सहयोगी सिपाही के रूप में नहीं, किसी अनुपस्थित की जगह भरने !
उस समारोह में एक और भारतीय सम्मानित किया गया था जिसे समर्पित सम्मान-प्रतीक मेरे सामने के टेबल पर धरा रहता है और हमेशा मुझे घूरता रहता है. बंगबंधु शेख मुजीब की प्रधानमंत्री बेटी शेख हसीना भले भूल जाएं और भारत के प्रधानमंत्री आत्ममुग्धता से भले बाहर न निकल सकें लेकिन इतिहास तो जानता है कि पहले दिन से ही बांग्लादेश के संघर्ष को सही संदर्भ में समझने, उसे देश-दुनिया को समझाने और उसके लिए देश-दुनिया की अंतररात्मा को झकझोरने का अनथक काम किसी एक व्यक्ति ने किया था तो उसका नाम जयप्रकाश नारायण था. 50वीं वर्षगांठ के समारोह में किसी ने गलती से भी उस जयप्रकाश को याद न करके अपनी छिछली ऐतिहासिक समझ का परिचय दिया. जयप्रकाश के पास न सत्ता की कोई कुर्सी थी, न सत्ता पर दावा करने वाली कोई पार्टी थी और न पर्दे के पीछे से काम करने वाला कोई एजेंडा था. वे लोकतंत्र की आराधना करने वाले एक ऐसे नागरिक थे जिसने ताउम्र संसार के किसी भी कोने से उठने वाली लोकतांत्रिक आकांक्षा को हमेशा स्वर भी दिया और समर्थन भी.
देश-विभाजन का अंत-अंत तक खुला विरोध करने वाले गिने-चुने नामों में जयप्रकाश का नाम आता है. उन्होंने पाकिस्तान की परिकल्पना का कभी भी स्वागत-समर्थन नहीं किया. सांप्रदायिक राजनीति के कट्टर विरोधियों की किसी भी सूची में उनका नाम दर्ज होगा ही. लेकिन वही जयप्रकाश आजादी के तुरंत बाद से ही, भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद की पहल करने और उसके लिए नागरिक मंच बनाने वालों में हमें सबसे आगे खड़े मिलते हैं. आजादी के तुरंत बाद शांति-सद्भावना के लिए प्रयास करने वालों का एक नागरिक प्रतिनिधि मंडल ले कर पाकिस्तान जाने वाले पहले भारतीय नेता जयप्रकाश ही थे. हम यह भी पाते हैं कि सैनिक बगावत से सत्ता हड़पने वाले पाकिस्तानी जेनरल अयूब खान ने जब ‘बुनियादी लोकतंत्र’ के नाम से एक प्रयोग की बात की तब गलतफहमी का खतरा उठा कर भी जयप्रकाश ने उसे सराहा. गलतफहमी होनी थी, हुई और उन्हें तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ा लेकिन वे समझाते रहे कि मेरा समर्थन अयूब की तानाशाही को नहीं, लोकतंत्र के उनके प्रयोग को है. दोनों दो अलग बातें हैं. राजनीति का संकीर्ण मतलब करने व समझने वालों को ऐसे जयप्रकाश को पचाना हमेशा मुश्किल रहा है. संघ परिवार के लिए तो जयप्रकाश हमेशा ही अबूझ पहेली रहे. नरेंद्र मोदी जिस दल के सदस्य हैं व जिसकी तरफ से प्रधानमंत्री हैं उसने जयप्रकाश को ‘देशद्रोही’ भी कहा था और उन्हें ‘फांसी’ देने की मांग भी की थी. इतिहास में ऐसी कितनी ही गलियां मिलेंगी आपको जिनमें नासमझों की फौज कवायद करती दिखाई देती है. लेकिन अभी बात बांग्लादेश की ही करूंगा.
1971 में जब पाकिस्तान के आम चुनाव का नतीजा सामने आया और शेख मुजीब की अवामी लीग ने पूर्व पाकिस्तान की 169 सीटों में से 167 सीटें जीत कर पश्चिम पाकिस्तान की दादागिरी को सीधे जमीन पर ला पटका था, तब जयप्रकाश ही थे कि जिन्होंने इसका सही संदर्भ समझा था और इसकी हर खुलती परत पर नजर रखी थी. वे इससे पहले से पाकिस्तान के भीतर उठ रही परिवर्तन की लहरों को देख रहे थे और समझा रहे थे कि हमें इन संकेतों के आधार पर अपनी नीतियां बनानी चाहिए.
शेख मुजीब और जयप्रकाश एक-दूसरे के लिए अजनबी नहीं थे. दोनों आजादी की लड़ाई के दिनों से एक-दूसरे को जानते थे भले सीधे परिचित न हों और अलग-अलग रास्तों के राही हों. लेकिन पूर्व पाकिस्तान के मुजीब संपूर्ण पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनें, सत्ता से पश्चिमी पाकिस्तान का एकाधिकार टूटे, यह जयप्रकाश के लिए यह पाकिस्तान की राजनीति का आंतरिक मामला नहीं, लोकतंत्र के विकास का संकेत था. इसलिए फौजी तानाशाह याहय्या खान व तिकड़मी राजनीतिज्ञ जुल्फिकार अली भुट्टो की जोड़ी ने मिल कर जब शेख मुजीब को उनके इस अधिकार से वंचित करने की चालें शुरू कीं तो जयप्रकाश सावधान हो गए. तब वे देश-दुनिया से प्राय: कटे, बिहार के ठेठ ग्रामीण क्षेत्र मुसहरी में ग्रामस्वराज्य का प्रयोग करने बैठे हुए थे. लेकिन एक सावधान समाजविज्ञानी के नाते वे हर नई हलचल पर नजर रखते थे. शेख मुजीब को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की हर तिकड़म करने के बाद पश्चिम पाकिस्तान ने पूर्व पाकिस्तान पर बाजाप्ता हमला ही बोल दिया. फौजी दमन का ऐसा नृशंस दौर शुरू हुआ कि जिसकी तब भी और आज भी कल्पना कठिन है. मुसहरी की अपनी झोपड़ी के अंधेरे में, ट्रांजिस्टर से वहां की खबरें सुनते जयप्रकाश को पत्तों की तरह कांपते और विह्वल होते मैंने देखा है. उन्होंने बांग्लादेश संकट के एकदम शुरुआती दौर में ही अपने संपर्कों से दिल्ली को खबर भिजवाई थी कि भारत सरकार को पूर्व पाकिस्तान की घटनाओं की तरफ से न चुप रहना चाहिए, न उदासीन. लेकिन दिल्ली की हवा-पानी का ही दोष है शायद कि वह तब भी और आज भी ऊंचा ही सुनती है. जब किसी ने जयप्रकाश से कहा कि यह सब राजनीतिक बातें राजनीतिज्ञों के लिए ही छोड़ देनी चाहिए तब बहुत दर्द से वे बोले थे : मैं क्या करूं, उनकी चीखें मेरे कानों में गूंजती हैं ! पवनार आश्रम से सलाह आई : सरकार के पास ज्यादा जानकारियां होती हैं ! जयप्रकाश ने जवाब भिजवाया : सवाल जानकारी का नहीं, उसे समझने का है.
जयप्रकाश पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पूर्वी पाकिस्तान के दमन को लोकतंत्र के दमन का नाम दिया और शांतिमय जनांदोलन का रास्ता अपनाने के लिए शेख मुजीब का समर्थन किया. तब तक देश-दुनिया इस दमन की दर्शक बनी बैठी थी. शेख मुजीब ने सारे पूर्वी पाकिस्तान को जिस तरह प्रतिकार में खड़ा किया और जैसी राष्ट्रव्यापी हड़ताल आयोजित की उसे देखकर जयप्रकाश झूम उठे और अपने सर्वोदय साथियों से कहने लगे कि यह गांधी की दिशा को उन्नत करने वाला है. पाकिस्तानी दमन देखते-देखते नरसंहार में बदल गया. सड़कों पर, विश्वविद्यालयों में, संस्थानों में निहत्थे लोग थोक के भाव से मारे जाने लगे. घटनाएं इतनी तेजी से घट रही थीं कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी विमूढ़-सी हो रही थीं. विपक्ष के पास कोई दृष्टि नहीं थी. लेकिन यहां देश में भी और वहां दुनिया में भी एक अनोखा विभाजन आकार लेने लगा था : जनता इस दमन के खिलाफ मुखर होती जा रही थी, ‘जनता की सरकारें’ मौन साधे हुई थीं. पश्चिमी देश अधिकांशत: इसे ‘अश्वेतों की असभ्यता’ का नाम दे कर अपनी राजनीतिक चालें चल रहे थे.
संकट आगे बढ़ा तो मुजीब साहब ने पूर्व पाकिस्तान को बांग्ला भाषा व संस्कृति से जोड़ कर एक नया ही संदर्भ खड़ा कर दिया और पूर्व पाकिस्तान की जगह ‘बांग्लादेश’ नाम हवा में तैरने लगा. जयप्रकाश ने इसे नई राजनीतिक दिशा दी और पहली बार यह मांग उठाई कि भारत सरकार बांग्लादेश को राजनीतिक मान्यता दे ! विनोबा समेत कई लोगों को लगा कि जयप्रकाश सर्वोदय की लक्ष्मण-रेखा लांघ रहे हैं. कुछ राजनीतिक विश्लेषकों को लगा कि जयप्रकाश अपरिपक्वता का परिचय दे रहे हैं. लेकिन बांग्लादेश को राजनीतिक मान्यता की जयप्रकाश की मांग ने विश्व जनमत को एक दिशा दे दी. लोकतंत्र में जनमत एक हथियार है, ऐसा कहा था गांधी ने; जयप्रकाश उस हथियार को बनाने में जुट गये. इंदिराजी के लिए यह दवाब खासा मुश्किल साबित हुआ. वे अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन व पश्चिमी देशों के रवैये से घबराई हुई थीं. उन्हें कहीं यह भी लग रहा था कि जयप्रकाश उनसे राजनीतिक पहल छीनते जा रहे हैं. उन्होंने मान्यता का सवाल यह कह कर टाल दिया कि दुनिया भर का माहौल तैयार करने के बाद ही ऐसा करना उचित होगा. उन्होंने सोवियत संघ के साथ शांति-सुरक्षा की संधि कर अमरीका को जवाब देने की कोशिश की. जयप्रकाश इस कूटनीति को समझ भी रहे थे और इसका समर्थन भी कर रहे थे लेकिन वे यह भी कह रहे थे कि भारत को मजबूत राजनीतिक पहल करनी चाहिए.
जयप्रकाश कह ही नहीं रहे थे , वे आगे बढ़ते जा रहे थे. भारत सरकार जब ऊहापोह में फंसी थी, भारत के जयप्रकाश बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी के साथ तालमेल बना चुके थे और पूर्वी पाकिस्तान की धरती पर जा कर परिस्थिति का आकलन कर आए थे. मुजीब तब तक मंच से गायब कर दिए गए थे लेकिन अवामी लीग के दूसरे नेताओं के साथ जयप्रकाश का सीधा संपर्क बन चुका था, उनमें मंत्रणा चलने लगी थी. जयप्रकाश सरकार से अलग व समानांतर भूमिका में काम कर रहे थे. वे देश में जगह-जगह सभाएं कर रहे थे, प्रेस से बातें कर रहे थे, दुनिया भर से नागरिक स्तर पर संवाद चला रहे थे. उनके अनथक प्रयासों व उनके अकाट्य तर्कों से बांग्लादेश को मान्यता देने का सवाल सत्ताओं के गले की फांस बनता जा रहा था, तो विश्व जनमत को एक केंद्रबिंदु प्रदान कर रहा था.
वे बार-बार यही सवाल पूछते रहे : हम देखते रहें और हमारे पड़ोस में उठी लोकतांत्रिक आकांक्षा को फौजी बूटों तले कुचल दिया जाए तो लोकतंत्र का संरक्षण कैसे होगा ? वे हर मंच से यह साफ करते थे कि सवाल पाकिस्तान का नहीं, लोकतंत्र का है. पाकिस्तान ने खुद को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा लिया है तो उसे ही इससे निकलने की पहल करनी होगी. वे यह भी साफ कह रहे थे कि इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता एक ही है कि पाकिस्तान बंगबंधु मुजीब को वापस मंच पर लाए, उनसे बराबरी में बातचीत करे और उनको पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनाए. वे बार-बार पूछते थे : अपने ही संविधान और अपने ही चुनाव को धता बता कर कोई लोकतंत्र यशस्वी कैसे हो सकता है ? पाकिस्तान संभले, दमन बंद करे व अपना देश संभाले ऐसा कहते हुए वे पाकिस्तान को सावधान भी कर रहे थे कि ऐसा करने का वक्त बीतता जा रहा है. बांग्लादेश की स्वतंत्र भूमिका बनती जा रही है.
इंदिरा गांधी अब समझ रही थीं कि जयप्रकाश की भूमिका देश-दुनिया में लोक-आकांक्षा बन गई है. उन्हें यह भी पता चला कि गांधी-विचार से प्रभावित कई विदेशी समाजशास्त्री अपने मित्र जयप्रकाश को बांग्लादेश के संदर्भ में उनकी भूमिका समझाने के लिए अपने देश में आमंत्रित कर रहे हैं. इंदिराजी को सलाह दी गई कि भारत सरकार जयप्रकाश को भारत का पक्ष समझाने के लिए अपना दूत बना कर भेजे तो वे एक रचनात्मक भूमिका अदा कर सकते हैं. जयप्रकाश ने अपनी स्थिति स्पष्ट की: मैं भारत सरकार की हर संभव मदद करने को तैयार हूं लेकिन उसका दूत या प्रतिनिधि बनकर नहीं. मेरी भूमिका और सरकार की भूमिका अलग-अलग है फिर भी बांग्लादेश को मान्यता देने की अंतरराष्ट्रीय भूमिका बने, यह हम दोनों चाहते हैं. मैं अपनी निजी हैसियत से ही जाऊंगा लेकिन सरकार के लिए सुविधाजनक जमीन बनाने का काम करूंगा. इंदिराजी ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और यह सुविधा भी बना दी कि जयप्रकाश जहां भी जाएंगे वहां का भारतीय दूतावास हर तरह की अनुकूलता बनाने में उनकी मदद करेगा.
जयप्रकाश का स्वास्थ्य ऐसा नहीं था कि वे ऐसी जटिल, कूटनीतिक मुहिम पर निकलते लेकिन अभी मेरे नहीं, देश व लोकतंत्र के स्वास्थ्य का सवाल है, कह कर वे अ-सरकारी- सरकारी प्रतिनिधि की दोहरी भूमिका निभाने का करतब करने 1971 के मध्य में निकल पड़े. पहला पड़ाव काहिरा था. फिर वे यासर अराफात से मिले. युगोस्लाविया में मार्शल टीटो और जर्मनी में अपने पुराने मित्र चांसलर विली ब्रांट से मिले. वे पोप से भी मिले. मास्को, हेलसिंकी, फ्रांस, इंग्लैंड और अमरीका होते हुए वे वापस लौटे. ‘ यह पाकिस्तान का आंतरिक मामला है’, जैसी भूमिका समझाने वालों को उनका यह जवाब अवाक कर गया था कि लोकतंत्र किसी का भी आंतरिक मामला नहीं होता है. दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र लोक का मामला है और उसका दमन हर किसी की चिंता का विषय होना चाहिए. अमरीका में जब उसके काइयां विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने भी ‘आंतरिक मामला’ की ढाल सामने की तो जयप्रकाश ने कहा: मेरे पड़ोसी के घर में लगी आग उसका आंतरिक मामला नहीं हो सकती है क्योंकि उसकी और मेरी छत जुड़ी हुई है. अमरीकी अखबारों ने इसे ही सुर्खी बनाया और यह भी लिखा कि कीसिंजर जयप्रकाश के इस तर्क के सामने निरुत्तर रह गये. उनका कोई 40 दिनों लंबा यह दौरा इस अर्थ में विफल रहा कि वे सरकारों का रवैया नहीं बदल सके लेकिन इस अर्थ में बेहद सफल रहा कि बांग्लादेश को मान्यता देने का नागरिक आंदोलन खूब मजबूत बना. यह दवाब आगे बहुत काम आया. जयप्रकाश ने इस दौरे में तीन बातें पहचानीं : मुस्लिम देश पाकिस्तान की ज्यादतियों की अनदेखी इसलिए करते हैं कि यह मामला इस्लाम का है; पश्चिमी देशों का ‘सफेद चमड़ी का खोखला घमंड’ अब तक गया नहीं है और तीसरा यह कि सारी दुनिया में लोक और तंत्र का आमना-सामना बढ़ता जा रहा है. बाद में इंदिराजी खुद भी 21 दिनों के ऐसे ही मिशन पर निकलीं और जयप्रकाश जैसी ही विफलता के साथ वापस आईं.
जयप्रकाश देख रहे थे कि उनके अपने भारत में भी तंत्र की जड़ता बनी हुई थी. वह बांग्लादेश की मदद कर तो रहा था लेकिन ऐसी निर्णायक लड़ाई में जैसी खुली मदद जरूरी थी, वह मुक्ति वाहिनी को नहीं मिल पा रही थी. जयप्रकाश अपने प्रभाव से हर तरह से मदद जुटाने में लगे थे और सरकार को भी सुझाव दे रहे थे कि वह खुली सैनिक मदद दे. इंदिराजी ने 4 दिसंबर 1971 को जयप्रकाश का दवाब झटकते हुए कहा कि हमें आदेश देना बंद करें लोग; और दो दिन बाद, 6 दिसंबर को बांग्लादेश को मान्यता दे दी. सत्ता इसी तरह हमेशा अपना हाथ ऊंचा दिखाने में लगी रहती है. उसके बाद का इतिहास यहां दोहराने का प्रयोजन नहीं है. सोवियत संघ को साथ ले कर इंदिराजी ने कूटनीतिक बारीकियों के मोर्चे पर भी और युद्ध में भी पाकिस्तान को पराजित किया. यह प्रकारांतर से अमरीका की कूटनीतिक पराजय भी थी. इंदिराजी का यश आसमान पर था. जयप्रकाश ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की. लेकिन यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि पाकिस्तान के फौजी शासन की भोंडी कूटनीति और पश्चिम की खोखली हेंकड़ी के कारण अंटक-अंटक कर चलने वाली इंदिरा गांधी को सफलता मिल तो गई लेकिन यह बाजी उल्टी भी पड़ सकती थी और बांग्लादेश का जन उभार कुचला जा सकता था. जयप्रकाश ने देश-विदेश में जैसी हवा बनाई, उससे इस विफलता से बचने में बहुत मदद मिली.
शेख मुजीब ने जयप्रकाश की इस भूमिका को पहचाना और जब वे अपनी अज्ञात कैद से निकल कर, ढाका जाने के लिए लंदन पहुंचे तो विश्व को अपने पहले संबोधन में उन्होंने जयप्रकाश का अलग से जिक्र किया. इंदिराजी ने इसे पसंद नहीं किया. अपने तरीकों से उन्होंने जयप्रकाश से दूरी बनाए रखने की हिदायत भी शेख मुजीब तक पहुंचा दी. ढाका जाने के लिए लंदन से मुजीब दिल्ली पहुंचे तो भी उन्होंने जयप्रकाश को याद किया. ढाका की अपनी विजय-सभा में मुजीब चाहते थे कि जयप्रकाश भी मौजूद रहें लेकिन दिल्ली ने इसे भी हतोत्साहित किया. संघर्ष के दिनों में अवामी लीग के जिन शीर्ष नेताओं से लगातार विार-विमर्श चलता था, वे अब जयप्रकाश के पास आने से हिचकने लगे. आगे का इतिहास बताता है कि बांग्लादेश बनने के साथ ही इंदिराजी का भी और बंगबंधु का काम भी पूरा हो गया. लेकिन बांग्लादेश बन जाने और शेख साहब के प्रधानमंत्री बन जाने से जयप्रकाश का काम पूरा नहीं हुआ.
इतिहास के पन्नों में जयप्रकाश का वह पत्र दबा मिलता है हमें जो पटना से लिखा गया है और जिस पर 31 जनवरी 1972 की तारीख पड़ी है. यह पत्र बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान को लिखा गया है. पत्र भावुकता से शुरू होता है और फिर शेख मुजीब को उनकी गहरी भूमिका समझाता है. शुरू में जयप्रकाश लिखते हैं : “ अपनी इस उम्र और स्वास्थ्य के कारण मुझ जैसे आदमी के मन में अब इसके अलावा कोई लालसा बची नहीं है कि बगैर किसी लोभ-लालच-आकांक्षा के, शांत व खुश मन से अपने सिरजनहार से मिल सकूं. लेकिन जिस दिन आप लंदन से दिल्ली आए, उस दिन के ऐतिहासिक अवसर पर वहां हाजिर रहने की जबरदस्त इच्छा ने मुझे विवश-सा कर दिया था. आपके दर्शन करने, आपको फूलों की माला पहनाने और पल भर के लिए आपको अपनी पूरी ताकत से गले लगा लेने के लिए मेरा मन मचल उठा था…” फिर पत्र का भाव बदलता है : “ ईश्वर आपको लंबी उम्र व बढ़िया तंदुरुस्ती दे ताकि आप न केवल अपने व अपने साढ़े सात करोड़ बंधुओं के सपनों का सोनार बांग्ला साकार कर सकें बल्कि इस अभागे उपमहाद्वीप को स्वतंत्र, स्वायत्त राष्ट्रों का सुसभ्य, सुबुद्ध, सहयोगी और समृद्ध समुदाय बनाने के ऐतिहासिक कार्य में मददगार हो सकें… विनोबाजी, जवाहरलालजी, राममनोहर लोहिया और मेरे सहित इस देश के कई लोगों का सपना रहा है कि केवल भारतीय उपमहाद्वीप का नहीं बल्कि समूचे दक्षिण एशिया का भविष्य इसमें ही निहित है कि इस क्षेत्र के सभी देश किसी-न-किसी प्रकार के संघ अथवा भाईचारे से बंधे-जुड़े रहें… ऐसा लगता है मानो नियति ने राजनीतिक, आर्थिक और अन्य हितों का एक भाईचारा खड़ा करने के लिए इस क्षेत्र की रचना की है !… इस सपने में आपको साझीदार बनाने का कारण यह है कि मेरे विचार में इस सपने को साकार करने के लिए आवश्यक नैतिक और राजनीतिक व्यक्तित्व आपके पास है… इसके अलावा 51 साल की आपकी उम्र आपको इस ऐतिहासिक, चुनौती भरे काम को अंजाम तक पहुंचाने का भरपूर समय भी देती है… आपने लंदन में खुद को गांधी परंपरा का व्यक्ति बताया था … तो मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि आजकल चलते-फिरते जिस समाजवाद की बात करना फैशन हो गया है उससे गांधीजी का समाजवाद भिन्न था. वे उसे सर्वोदय कहना पसंद करते थे और उनका समाजवाद या सर्वोदय ‘अंत्योदय’ से शुरू होता था… बांग्लादेश की परिस्थितियों के कारण राज्य की सर्वोच्च सत्ता अपने हाथ में लेना आपके लिए अनिवार्य बन गया था लेकिन गांधीजी की रीति इससे भिन्न थी… इसके बावजूद मैं यह उम्मीद रखता हूं कि जिस तरह अपने लड़खड़ाते स्वास्थ्य और प्रशासन पर अपनी पकड़ ढीली होते जाने के बावजूद जवाहरलालजी सत्ता में बने ही रहे, आप वैसा नहीं करेंगे…” वे मुजीब साहब को सावधान करते हैं कि वे भारत की गलतियां न दोहराएं और नौकरशाही को समाजवाद का आधार न बनाएं… “ मैं अपनी तरफ से यह उत्कट आशा रखता हूं कि आपके नेतृत्व में बांग्लादेश को समाजवाद की अपनी खामियों और भूलों को समझने में हमारी तरह चौथाई सदी के बराबर समय नहीं लगेगा… आपको इस तरह लिखने का मुझे कोई अधिकार नहीं है. मेरे समान एक साधारण नागरिक एक महान राष्ट्र के आपके जैसे निर्विवाद महान नेता को सलाह देने की धृष्टता भला कैसे करे ! लेकिन गांधीजनों के एक अदना प्रतिनिधि के रूप में आपके और आपकी बहादुर व धैर्यवान जनता के प्रति अपनी स्नेह-भावना के वशीभूत होकर मैंने यह सब आपको लिखा है.”
जयप्रकाश यह लिख सके; बंगबंधु कोई जवाब नहीं दे सके. इतिहास ने शेख साहब के कंधों पर संभावनाओं की जो गठरी डाल दी थी, वे उससे कहीं छोटे साबित हुए. 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में जो कुछ हुआ उसे दूसरों से एकदम भिन्न धरातल पर जयप्रकाश ने पहचाना था और उसे साकार करने में अपना पूरा बल लगा दिया था. लेकिन मुजीब न वह दिशा समझ सके और न वैसी हैसियत ही बना सके. सत्ता की सबसे बड़ी गद्दी पर पहुंच कर वे खो गये. वे न दूरदर्शी राजनेता साबित हुए, न कुशल प्रशासक. सत्ता की ताकत से देश को मुट्ठी में रखने की कोशिश में वे सारे अधिकार अपने हाथों में समेटते गये और अंतत: 1975 में खुद को प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बना लिया और एक तानाशाह की भूमिका में आ गये. लेकिन उनका अंत बहुत करीब था. 15 जनवरी 1975 को फौजी व राजनीतिक बगावत में वे सपरिवार मार डाले गये. तब जयप्रकाश अपने देश की दिशा मोड़ने के अपने अंतिम अभियान के संचालन के ‘अपराध’ में चंडीगढ़ के अस्पताल में नजरबंद थे. वे नजरबंद तो थे लेकिन उनकी नजर बंद नहीं थी. देश-दुनिया की हलचलों के प्रति वे सावधान थे. चंडीगढ़ की नजरबंदी के दरम्यान वे डायरी लिखते थे. अपनी उस जेल डायरी में, 16 अगस्त 1975 को वे लिखते हैं : “ बांग्लादेश से अत्यंत पीड़ादायक खबर है- अविश्वसनीय की हद तक ! लेकिन जिस तरह मुजीब ने अपनी निजी व दलीय तानाशाही वहां स्थापित कर रखी थी, यह उसका ही नतीजा है. दिल्ली में उन दिनों यह अफवाह गाढ़ी हो चली थी कि मुजीब ने जो किया है उसकी योजना, उनके भरोसे के लोगों के साथ मिल कर दिल्ली में ही बनाई गई थी. उस वक्त अपने एकाधिकार का अौचित्य बताने के लिए मुजीब ने भी वैसे ही कारण दिए थे जैसे अब श्रीमती गांधी दे रही हैं. तब यह बात भी हवा में थी कि यदि श्रीमती गांधी की चली तो वे भी बांग्लादेश के रास्ते ही जाएंगी.” अगले दिन की डायरी में वे फिर बांग्लादेश का सवाल उठाते हैं और मुजीब व बांग्लादेश के प्रति अपनी पुरानी भावनाओं का जिक्र करते हुए लिखते हैं: “ लेकिन जब उन्होंने रंग बदला और एकदलीय शासन की स्थापना कर ली, उनके प्रति मेरे कोमल भाव हवा हो गये. मैं उनकी दिक्कतें समझ रहा था. लेकिन यदि उनमें योग्यता होती तो अपनी जनता पर उनका जैसा गहरा असर और अधिकार था, बहुत कुछ जवाहरलाल जैसा, उसके सहारे वे लोकतंत्र को दफनाए बिना भी परिस्थिति पर काबू कर सकते थे. लेकिन उन्होंने मूर्खता की और विफल हुए. कल जब मैंने उनकी हत्या की खबर पढ़ी तो मैं उदास जरूर हुआ लेकिन मुझे कोई धक्का नहीं लगा, न मेरे दिल में उनके लिए कोई गहरा संताप ही जागा.” 22 अगस्त 1975 की डायरी फिर बांग्लादेश का जिक्र करती है : “ बांग्लादेश की खबरें अधिकाधिक भयावह होती जा रही हैं. बगावत के दिन मुजीब के साथ-साथ उनकी पत्नी, उनके तीन बेटों, दो बहुओं, दो भतीजों जैसे मुजीब के निकटस्थ 18 रिश्तेदारों की हत्या हुई. ऐसी क्रूरता को समझ पाना भी कठिन है… मुजीब को मार कर सारी सत्ता हथिया लेने के बाद अब खोंडकर मुश्ताक अहमद लोकतंत्र की बात कर रहे हैं. मैं यह खेल समझता हूं. सारे तानाशाह ऐसी ही बातें करते हैं. हमारे पास भी तो अपनी श्रीमती गांधी हैं ! लेकिन मुजीब के सारे परिवार को क्यों नष्ट कर दिया ?… जो भी हो, हाल-फिल्हाल के इतिहास का यह सबसे काला कारनामा है.”
अब न जयप्रकाश हैं, न शेख मुजीब, न इंदिराजी. वह बांग्लादेश भी नहीं है जिसे जयप्रकाश ने एक संभावना के रूप में देखा था. आज तमाम देशों की भीड़ में बांग्लादेश भी शरीक है और तमाम भेंड़ियाधसान शासकों की भीड़ में उसकी भी अपनी जगह है. लेकिन आज बांग्लादेश किसी संभावना का नाम नहीं है. वह संभावना क्या थी, कैसे बनी और क्यों खो गई, यह जानना जरूरी इसलिए हो जाता है कि इतिहास इसी तरह वर्तमान को रचता है. यह लेख इसलिए ही लिखा गया. इसलिए नहीं कि जयप्रकाश की भूमिका का गुणगान किया जाए, न इसलिए कि यह खतरा है कि हम जयप्रकाश को भूल जाएं. खतरा यह है कि हम अपना इतिहास ही न भूल जाएं ! बांग्लादेश को भी और हमें भी अपना इतिहास बार-बार पढ़ने की और उसे साफ-साफ समझने की जरूरत है. जो अपना इतिहास भूल जाते हैं वे वर्तमान को न समझ पाते हैं, न बना पाते हैं. हम सब इसी त्रासदी से गुजर रहे हैं. ( 01.04.2021)
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