Sunday 19 September 2021

एक कायर दुनिया का शर्मनाक चेहरा

ऐसी दुनिया कभी थी कि नहीं जहां न्याय होशांति हो और नागरिकों का सम्मान होयह तो कहना मुश्किल है लेकिन जैसी दुनिया आज हैवैसी दुनिया कभी होनी नहीं चाहिएयह तो निश्चित ही कहा जा सकता हैकहा जाना चाहिए. आज हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं कि जिसमें सत्ताओं ने आपस में दुरभिसंधि कर ली है कि उन्हें जनता की न सुननी हैन उसकी तरफ देखना है. जिसके कंधों पर उनकी सत्ता की कुर्सी टिकी हैउस पर किसी की आंख नहीं टिकी है. यह हमारे इतिहास का बेहद कायर और क्रूर दौर है. इतने सारे देशों मेंइतने सारे लोगइतनी सारी सड़कों पर कब उतरे हुए थे मुझे पता नहींलेकिन मुझे यह भी पता नहीं है कि कब इतने सारे लोगों कीइतनी सारी व्यथा और इतने सारे हाहाकार कोइतने सारे शासकों व इतनी सारी सरकारों ने अपने-अपने स्वार्थों के चश्मे से देख करउसकी अनदेखीअनसुनी की थी.      


   लेकिन हमारे पास भी तो एक चश्मा होना चाहिए कि जो सत्ता को नहींसमाज को देखता हो ! इतिहास में कभी भारत का हिस्सा रहे अफगानिस्तान को हमें किसी दूसरे चश्मे से नहींअफगानी नागरिकों के चश्मे से ही देखना चाहिए— उन नागरिकों के चश्मे से जिससे हमने कभी सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान की छवि देखी थी. हमें म्यांनमार की तरफ भी उसी चश्मे से देखना चाहिए जिस चश्मे से कभी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने उसे देखा था और जापान की मदद सेअंग्रेजों को हराते हुए भारत की सीमा तक आ पहुंचे थे. इसी चश्मे से उसे शतरचंद्र चटर्जी ने देखा था और संसार का साहित्य-संसार धनवान हुआ था. म्यांनमार तब भारत का आंगन हुआ करता था. आज वह अफगानिस्तान भीऔर वह म्यांनमार भी घायल व ध्वस्त पड़ा है और सारी महाशक्तियां व उनके पुछल्ले अपने स्वार्थों का लबादा ढ़ेलाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए मुंह सीए पड़े हैं. नहींयह भी सही नहीं कह रहा हूं मैं. सारी दुनिया की सरकारेंअधिनायक तालिबानी बंदूक से दोस्ती कर अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं.  


   यह खेल नया नहीं है.  न्याय व समस्याअओं का मानवीय पहलू कभी भी महाशक्तियों की चिंता का विषय नहीं रहा है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तथाकथित मित्रों राष्ट्रों ने पराजित राष्ट्रों के साथ जैसा क्रूर व चालाक व्यवहार किया थावह भूला नहीं जा सकता है. अरबों के सीने पर इसराइल किसी नासूर-सा बसा दिया गया और कितने ही देशों का ऐसा विभाजन कर दिया गया कि वे इतिहास की धुंध में कहीं खो ही गए. महाशक्तियों ने संसार को अपने स्वार्थगाह में बदल लिया. अफगानिस्तान के बहादुर व शांतिप्रिय नागरिकों के साथ भी महाशक्तियों ने वैसा ही कायरतापूर्णबर्बर व्यवहार किया - सबसे पहले वैभव के भूखे  ब्रितानी साम्राज्यवाद नेफिर साम्यवाद की खाल ढ़ कर आए रूसी खेमे ने और फिर लोकतंत्र की नकाब पहने अमरीकी खेमे ने. यदि अंतरराष्ट्रीय शर्म जैसी कोई संकल्पना बची है तो आज का अफगानिस्तान दुनिया के हर लोकतांत्रिक नागरिक के लिए शर्म का विषय है. 


   रूसी चंगुल से निकाल कर अफगानिस्तान को अपनी मुट्ठी में करने की चालों-कुचालों के बीच अमरीका ने आतंकवादियों की वह फौज खड़ी की जिसे तालिबान या अलकायदा या अल-जवाहिरी या ऐसे ही कई नामों से हम जानते हैं. अमरीकी राष्ट्रपति बार-बार इसका हिसाब देते हैं कि अफगानिस्तान पर किस तरह अमरीका ने अरबों-अरब रुपये खर्च किएहथियार दिएअफगानियों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया. वे कहना यह चाहते हैं कि अफगानियों में अपनी आजादी बचाने का जज्बा ही नहीं हैतो अमरीका कब तक उनको अपनी पीठ पर ढोये तो कोई पूछे बाइडन साहब से कि अमरीका जब जनमा था तब अफगानिस्तान था या नहीं अगर अफगानी अमरीका के जन्म से पहले से धरती पर थे तो यही बताता है कि वे अपना देश बनाते भी थे और चलाते भी थे. अमरीकी अब तक यह नहीं समझ सके हैं कि उन्मादी नारोंभाड़े के हथियारों और उधारी की देशभक्ति से देश न बनते हैंन चलते हैं. अगर यह सच नहीं है तो कोई यह तो बताए कि अमरीका को अफगानिस्तान छोड़ना ही क्यों पड़ा अमरीका कलिंग युद्ध के बाद का सम्राट अशोक तो है नहीं ! बहादुर अफगानियों को गुलाम बनाए रखने की तमाम चालों के विफल होने के बाद अमरीकी उसे खोखला व बेहाल छोड़ कर चले गएक्योंकि उनके लिए वहां टिकना संभव नहीं रहा. आर्थिक संकट से उनकी अपनी कमर टूटी जा रही हैऔर अफगानिस्तान को दबोच कर रखने का कोई नैतिक आधार उनके पास न थान है. 


   अमरीका किसी भी हाल मेंअफगानिस्तान का कैसा भी हाल बना कर वहां से निकला तो यह सौदा भी सस्ता ही होता लेकिन अफगानी नागरिकों का दुर्भाग्य ऐसा है कि अब उनके ही लोगवैसी ही हैवानियत के साथउन्हीं हथियारों के बल पर उसके सीने पर सवार हो गए हैं. तालिबान किसी जमात का नहींउस मानसिकता का नाम है जो मानती है कि आत्मसम्मान के साथ आजाद रहने के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन हिंसा के बल पर किया जा सकता है. इस अर्थ में देखें तो महाशक्तियों का चेहरा तालिबानियों से एकदम मिलता है. सारी दुनिया की सरकारें कह रही हैं कि अफगानिस्तान से हम अपने एक-एक नागरिक को सुरक्षित निकाल लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.  लेकिन कोई यह नहीं बोल रहा है कि अफगानिस्तान के नागरिकों का क्या उनकी सेवा व उनके विकास के नाम पर ये सभी वहां संसाधनों की लूट करने में लगे थे और आज सभी दुम दबा कर भागने में लगे हैं. हमें अफगानिस्तान से निकल भागने में लगे अफगानियों की तस्वीरें खूब दिखाई जाती हैं लेकिन अपनी कायरता की तस्वीर छुपा ली जाती है. लेकिन इतिहास गवाह है कि चाहे ब्रितानी हो कि रूसी कि अमरीकी कि हिंदुस्तानीऐसी ताकतें न कभी स्थायी रह सकी हैंन रह सकेंगी.


   म्यांनमार में तो फौजी तानाशाही से लड़ कर जीते लोकतंत्र का शासन था न ! शू ची न महाशक्तियों की कठपुतली थींन आतंकवादियों की. उनकी अपनी कमजोरियां थीं जरूर लेकिन म्यांनमार की जनता नेफौजी तिकड़मों के बावजूदउन्हें अपार बहुमत से दो-दो बार चुना था. भरी दोपहरी में उनकी सरकार का गला घोंट कर फौज ने सत्ता हथिया ली. इसके बाद की कहानी जैसी अफगानिस्तान में है वैसी ही म्यांनमार में है. वहां तालिबान के खिलाफतो यहां फौजी गुंडागर्दी के खिलाफ आम लोग - महिलाएं-बच्चे-जवान- सड़कों पर उतर आए और अपना मुखर प्रतिरोध दर्ज कराया. दुनिया के हुक्मरान देखते रहेसंयुक्त राष्ट्रसंघ देखता रहा और वे सभी तिल-तिल कर मारे जाते रहेमारे जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ आज यथास्थिति का संरक्षण करते हुए अपना अस्तित्व बचाने में लगा एक सफेद हाथी भर रह गया है. उसका अब कोई सामयिक संदर्भ बचा नहीं है. आज विश्व रंगमंच पर कोई जयप्रकाश है नहीं कि जो अपनी आत्मा का पूरा बल लगा कर यह कहता फिरे कि लोकतंत्र किसी भी देश का आंतरिक मामला नहीं होता है.      


   म्यांनमार व अफगानिस्तान की इस करुण-गाथा में भारत की सरकारों की भूमिका किसी मजबूत व न्यायप्रिय पड़ोसी की नहीं रही है. राष्ट्रहित के नाम पर हम समय-समय पर म्यांनमार और अफगानिस्तान को लूटने वाली ताकतों का ही साथ देते रहे हैं. हम यह भूल ही गए हैं कि ऐसी कोई परिस्थिति हो नहीं सकती है जिसमें किसी दूसरे का अहित हमारा राष्ट्रहित हो.  


   शायद समय भी लगे और अनगिनत कुर्बानियां भी देनी पड़ें लेकिन अफगानिस्तान की बहादुर जनता जल्दी ही अपने लोगों के इस वहशीपन पर काबू करेगीअपनी स्त्रियों की स्वतंत्रता व समानता तथा बच्चों की सुरक्षा की पक्की व स्थाई व्यवस्था बहाल करेगी. सू ची फौजी चंगुल से छूटें या नहींफौजी चंगुल टूटेगा जरूर ! हम खूब जानते हैं कि अपने पड़ोस में स्वतंत्रसमतापूर्ण और खुशहाल म्यांनमार व अफगानिस्तान हम देखेंगे जरूर लेकिन हम यह नहीं जानते कि इतिहास हमें किस निगाह से देखेगा.  

( 16.09.2021)

Saturday 28 August 2021

क्या भूलूं, क्या याद करूं ?

    मुझे एकदम प्रारंभ में ही कह देना चाहिए कि मैंने इस आलेख का शीर्षक बच्चनजी से नहीं लिया है. मुझे तो याद भी नहीं है कि हरिवंश राय बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा के पहले खंड के इस शीर्षक के साथ प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया था या नहीं लेकिन मैं जान-बूझकर यह प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहा हूं . मेरे सम्मुख प्रश्न यह है कि किसी भी मुल्क को अपना वर्तमान गढ़ने के लिए अतीत का क्या कुछ याद रखना चाहिए और क्या कुछ भूल जाना चाहिए, भूलते जाना चाहिए ? इतिहास के कूड़ाघर में वक्त ने जितना कुछ फेंक रखा है, वह सब-का-सब संजोने लायक नहीं होता है. जो जाति या मुल्क वह सारा कुछ संजोते हैं, वे इतिहास के सर्जक नहीं, इतिहास के कूड़ाघर बन कर रह जाते हैं. 

   यह इसलिए कहना पड़ रहा है कि स्वतंत्रता दिवस को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि राष्ट्र ने तय किया है कि आगे से 14 जनवरी का दिन वह विभाजन विभीषिका स्मृति दिन के रूप में मनाएगा. सुन कर पहली बात तो यही उठी मन में कि किसी प्रधानमंत्री को यह अधिकार कैसे मिल गया कि वह राष्ट्र की तरफ से ऐसी घोषणा कर दे प्रधानमंत्री को राष्ट्र ने चुना नहीं है. राष्ट्र ने उन्हें बस एक सांसद चुना हैउन्हें प्रधानमंत्री तो उनकी पार्टी के सांसदों ने चुना है. जैसे राष्ट्र की तरफ से ऐसी घोषणा का अधिकार किसी सांसद का नहीं हो सकता हैवैसे ही प्रधानमंत्री का भी नहीं हो सकता है. यह अधिकार तो केवलऔर केवल संसद का है कि वह ऐसे मामलों पर खुला विमर्श करेदेश में जनमत के दूसरे माध्यमों को भी उस पर सोचने-समझने का पूरा मौका दे और फिर आम भावना को ध्यान में रख कर फैसला करे. ऐसे निर्णयों की घोषणा भी संसद में ही होनी चाहिए भले बाद में प्रधानमंत्री लालकिले से उसका जिक्र करें. और यह भी समझने की जरूरत है कि संसद को भी दूसरी संवैधानिक व्यवस्थाअों से बंध कर ही चलना चाहिए. हमारा संविधान स्वयंभू जैसी हैसियत किसी को नहीं देता है. इसलिए भी 15 अगस्त की गई यह अटपटी घोषणा ज्यादा ही अटपटी लगी. 


   हर आदमी का और हर मुल्क का इतिहास स्याह व सफेद पन्नों के मेल से बना है. दोनों पन्ने सच हैं. फर्क है तो इतना ही कि स्याह पन्नों पर आप न कुछ पढ़ सकते हैंन दूसरा नया कुछ लिख सकते जबकि सफेद पन्ने आपको पढ़ने और  लिखने का आमंत्रण देते हैं. स्याह पन्नों में छिपाने जैसा कुछ नहीं होता हैक्योंकि आखिर वह सच तो होता ही है. लेकिन उसमें भुलाने जैसा बहुत कुछ होता हैक्योंकि वह सारा अमंगल होता है. जो इतिहासकार हैं वे दोनों पन्नों को संजो कर रखते हैंक्योंकि उनकी जिम्मेवारी होती है कि वे इतिहास के प्रति सच्चे रहें. सामान्य नागरिक इतिहासकार नहीं होता है. उसकी जिम्मेवारी होती है कि अपना देश ईमानदारी व प्रेम से गढ़ेआगे बढ़ेऔर इस पुरुषार्थ में इतिहास से जितनी मदद मिलती होउतनी मदद ले. 


   देश का विभाजन हमारे इतिहास का वह स्याह पन्ना है जिस पर हमारी सामूहिक विफलता की कहानी लिखी है. केवल विफलता की नहींहमारी पशुता कीदरिंदगी की और मनुष्य के रूप में हमारे अकल्पनीय पतन की. हमारी आजादी के नेतृत्व का कोई भी घटक नहीं है कि जिसके दामन पर इस विभाजन का दाग नहीं है - महात्मा गांधी भी नहीं. दूसरी तरफ वे अनगिनत स्याह सूरतें भी हैं जो हमारी सामूहिक विफलता और पतन का कारण रही हैं. प्रधानमंत्री ने जिसे विभाजन की विभीषिका कहा हैवह प्रकृतिरचित नहींमानवरचित थी. कवि अज्ञेय’ ने तो सांप से पूछा है : सांप/ तुम सभ्य तो हुए नहीं/ नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया/  एक बात पूछूं/ उत्तर दोगे/ फिर कैसे सीखा डंसना/ विष कहां पाया ?” विभाजन के पन्ने पलटें हम तो अज्ञेय’ का यही सवाल हमें इंसानों से पूछना पड़ेगा. और ऐसा भी नहीं है कि इंसानों का ऐसा पतन हमारे इतिहास में ही हुआ है. सारी दुनिया के इतिहासों में ऐसी पतन-गाथा दर्ज है. बहुत गिर-गिर कर उठे हैं हम इंसान और तब यहां तक पहुंचे हैं. पतनशीलता आज भी कई लोगों की जेहनियत में घुल गई हैकई लोगों की जीवन-शैली बन गई है. 

 

   तो क्या भूलेंक्या याद करें विभाजन क्यों हुआयह भूलने जैसा नहीं है. उससे हम सीखेंगे कि आदमी कहां और क्यों इस तरह कमजोर पड़ जाता है कि इतिहास की प्रतिगामी शक्तियां उसे अशक्त  करअपना मनमाना करवा लेती हैंगांधी जैसा दुर्धर्ष व्यक्ति भी पूरी कोशिश कर जिसे रोक नहीं पायाभारतीय समाज की और मानव-मन की वह कौन-सी कमजोरी थीइसे गहराई से समझना है और उससे सावधान रहना है. गांधी की विफलता इसी मानी में इतनी उदीप्त और उज्ज्वल है कि वह हमें पतन की तरफ नहीं ले जाती है.  आसमान छूने की कोशिश में विफल होने में और नर्ककुंड रचने में सफल होने में जो फर्क हैवही फर्क है गांधी की विफलता और सांप्रदायिक ताकतों की सफलता में. हिंदू-मुसलमान दोनों के कायर सांप्रदायिक तत्व इसलिए इतिहास के कठघरे में हमेशा मुजरिम की तरह खड़े रहेंगे कि वे गांधी की कोशिशों को विफल करने की अंधी कोशिश करते रहे और अंतत: देश ही नहीं तोड़ बैठे बल्कि सर्वभक्षी घृणा का ऐसा समंदर रच दिया उन्होंने कि आज भी वह ठाठें मारता है. इसलिए यह जरूरी है कि गांधी की कोशिशों को हम हमेशा याद करेंकरते रहें क्योंकि आगे का रास्ता वहीं से खुलता है. 


   हम क्या भूलें उस दरिंदगी को भूलें जिसे विभीषिका कहा जा रहा है. वह विभीषिका नहीं थीक्योंकि वह आसमानी नहींइंसानी थी. उसे इतिहास के किसी अंधेरे कोने में दफ्न हो जाने देना चाहिए क्योंकि वह हमें गिराता हैघृणा के जाल में फंसाता हैजोड़ता नहींतोड़ता है. दोनों तरफ की सांप्रदायिक मानसिकता के लोग चाहते हैं कि वह याद बनी रहेबढ़ती रहेफैलती और घुमड़ती रहे ताकि जो जहर गांधी ने पी लिया थावह फिर से फूटे और भारत की धरती को अभिशप्त करेइस महाद्वीप के लोगों को आदमकद नहींवामन  बना कर रखे. उनके लिए ऐसा करना जरूरी है क्योंकि वे इसी का रसपान कर जीवित रह सकते हैं. लेकिन कोई मुल्क सभ्यतासंस्कृति और उद्दात्त मानवता की तरफ तभी चल पाता है जब वह अपना कलुष मिटाने व भूलने को तैयार होता है. सभ्यता व संस्कृति की यात्रा एक उर्ध्वगामी यात्रा होती है. वह नीचे नहीं उतरती हैहमें पंजों पर खड़े होकर उसे छूना व पाना होता है. जो ऐसा नहीं कर पाते हैं वे सारे समाज को खींच कर रसातल में ले आते हैंफिर उनका नाम जिन्ना हो कि सावरकर कि उनके वारिस. इसलिए हम उन सांप्रदायिक ताकतों को याद रखें कि जिनके कारण देश टूटाअनगिनत जानें गईंअपरिमित बर्बादी हुई और पीढ़ियों तक रिसने वाला घाववैसा घाव जैसा महाभारत युद्ध में अंत में अश्त्थामा को मिला थाइस महाद्वीप के मन-प्राणों पर लगा. जिस मानसिकता के कारण वह घाव लगाहम उसे न भूलें लेकिन जितनी जल्दी हो सकेउस घाव को भूल जाएं. 


   याद रखना ही नहींभूल जाना भी ईश्वर प्रदत्त आशीर्वाद है. इसलिए 15 अगस्त को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाने की उल्लास भरी मानसिकता बनाने के लिए जरूरी लगता हो तो हम 14 अगस्त को प्रायश्चित व संकल्प  दिवस के रूप में मनाएं. प्रायश्चित इसका कि हम इतने कमजोर पड़े कि अपना यह सामूहिक पतन रोक नहीं सकेऔर संकल्प यह कि आगे कभी अपने मन व समाज में ऐसी कमजोरी को जगह बनाने नहीं देंगे हम. महा संबुद्ध बुद्ध को साक्षी मान कर हम 14 अगस्त को गाएं : ले जा असत्य से सत्य के प्रति/ ले जा तम से ज्योति के प्रति/ मृत्यु से ले जा अमृत के प्रति. विश्वगुरु बनना जुमला नहींआस्था हो तो इस देश का मन नया और उद्दात्त बनाना होगा. 


26.08.2021)     

Wednesday 11 August 2021

देशद्रोहियों का देश

 पेगासस जासूसी के मामले में कौन किस तरफ खड़ा हैयह पता कब चलेगा यह तो पता नहीं लेकिन इससे यह तो पता चला ही है कि देश के हर कोने में देशद्रोही जड़ जमाए बैठे हैं. अगर सरकार नहीं तो कोई है जो विदेशी ताकतों की मदद से देशी देशद्रोहियों का काम तमाम करने में लगा है. लेकिन सरकार की जानकारी के बिना यदि कोई ऐसा कर पा रहा है तो खतरा यह है कि वह देश का काम ही तमाम कर देगा. 

दो सौ से ज्यादा सालों तक हमारे ऊपर बलपूर्वक शासन करनेवाले अंग्रेज खोज कर भी जितने देशद्रोही नहीं खोज पाए थेहमने महज सात सालों में उससे ज्यादा देशद्रोही पैदा कर दिए. अब तो शंका यह होने लगी है कि इस देश में देशभक्त ज्यादा हैं या देशद्रोही कहीं यह देश देशद्रोहियों का देश तो नहीं बन गया है फिर मन में यह बात उठती है कि जिस सरकार से समाज तौबा कर लेता हैउसे वह बदल डालता हैतो जिस समाज से सरकार तौबा कर ले उसे क्या करना चाहिए सीधा जवाब तो यही सूझता है कि उस सरकार को भी अपना समाज बदल लेना चाहिए. जैसे जनता नई सरकार चुनती हैसरकार को भी नई जनता चुन लेनी चाहिए.

देशद्रोह का यही सवाल हमारे सर्वोच्च न्यायालय को भी परेशान कर रहा है. संविधान में हमने माना है कि संप्रभु जनता हैसरकार नहीं. सरकार जनता द्वारा बनाई वह संरचना है जो बहुत हुआ तो पांच साल के लिए है. हमने उसका संवैधानिक दायित्व यह तै किया है कि वह अपना काम इस तरह करे कि संप्रभु जनता का इकबाल बना भी रहे व बढ़ता भी रहे. फिर हमने न्यायपालिका की कल्पना की. वह इसलिए कि जब भी और जहां भी सरकार खुद को संप्रभु मानने लगेवहां न्यायपालिका अंपायर बन कर खड़ी हो. उसे जिम्मेवारी यह दी है हमने कि वह देखे कि इन दोनों के बीच लोकतंत्र का हर खेल खेल के नियम से हो. खेल के नियम क्या हैं तो उसकी एक किताब बना कर हमने इसे थमा दी : संविधान ! उसे संविधान के पन्ने पलटने थे और इस या उस पक्ष में सीटी बजानी थी. इस भूमिका में वह विफल हुई है. उसके सामने खेल के नियम तोड़े ही नहीं जाते रहे बल्कि कई मौकों पर नियम बदल ही दिेए गएऔर ऐसे बदले गए कि खेल ही बदलता गया. बनाना था लोकतंत्रबन गया तंत्रलोक ! 

हमारे मुख्य न्यायपालक एन.वी. रमण ने अभी-अभी यह सवाल खड़ा किया है कि भारतीय दंडसंहिता की धारा 124ए का आजादी के 70 सालों के बाद भी बने रहने का औचित्य क्या है 1870 में यह धारा भारतीय दंडसंहिता में उस औपनिेवेशिक ताकत ने दाखिल की थी जो न भारतीय थीन लोकतांत्रिक. भारत की लोकतांत्रिक आकांक्षा को कुचलने के एकमात्र उद्देश्य से बनाई गई यह धारा उन सबको देशद्रोही करार देती रहीजेलों मेंकालापानी में बंद करती रही जिनसे हमने लोकतंत्र व देशभक्ति का ककहरा सीखा है. लेकिन यह सब तब हुआ जब न हमारे पास आजादी थीन लोकतंत्रन संविधान. जब हमारे पास यह सब हो गया तब भी न्यायपालकों ने अंपायर की भूमिका नहीं निभाई बल्कि सत्ता की टीम की तरफ से खेलने लगे. धारा 124ए का चरित्र ही राक्षसी नहीं है बल्कि इसका अधिकार-क्षेत्र भी इतना दानवी है कि इसकी आड़ में पुलिस का अदना अधिकारी भी मनमानी करता रहे. इसलिए गोरे साहबों की खैरख्वाही में भूरे व काले साहबों ने आजादी के सिपाहियों के साथ कैसी-कैसी मनमानी की इसकी कहानी शर्म से आज भी हमारा सर झुका देती है. 

  1962 में 124 ए की वैधानिकता का सवाल अदालत के सामने आया था. तब अदालत ने न इसकी पृष्ठभूमि देखीन लोकतांत्रिक वैधानिकता की कसौटी पर इसे कसा बल्कि जजों की बेंच ने फैसला यह दिया कि यह धारा सिर्फ उस व्यक्ति के खिलाफ इस्तेमाल की जाएगी जो सामाजिक असंतोष भड़काने का अपराधी होगा. जजों को जमीनी हकीकत का कितना कम पता होता है ! सामाजिक असंतोष भड़काना’ ऐसा मुहावरा है जिसकी आड़ में किसी को फंसाना या फंसवाना एकदम सरल है. कोई कुटिल व्यक्ति चाहे तो जस्टिस रमण को भी असंतोष भड़काने वाला साबित कर दे सकता है.  


आपातकाल का पूरा काल न्यायपालिका के लिए कालिमामय है. 1976 के हैबियस कॉरपस मामले में जिस तरह अदालत ने पलक झपकाए बिना यह फैसला दिया कि राज्य नागरिकों के जीने के अधिकार पर भी हाथ डाल सकता हैवह तो संविधान का अपमान ही नहीं थावैधानिक कायरता का चरम था. नागरिक अधिकारों का गला घोंटने वाला एनएसए जैसा भयंकर कानून 1977 में मिली दूसरी आजादी के तुरंत बाद ही1980 में पारित हुआ. 1994 में सत्ता एक कदम और आगे बढ़ी और हमारी झोली में टाडा आया. 1996 में उसने एक कदम और आगे बढ़ाया और आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट बना. 2004 में फिर एक कदम आगे : पोटा ! इसने वह रास्ता साफ किया जिस पर चल कर ऊपा या यूएपीए नागरिकों की गर्दन तक पहुंचा. ये सारे कानून सत्ता के कायर चरित्र व न्यायपालिका के शुतुरमुर्ग बन जाने की शर्मनाक कहानी कहते हैं.  

                 

गांधीजी ने न्यायपालिका के चरित्र को रेखांकित करते हुए कहा था कि जब भी राज्य के अनाचार से सीधे मुकाबले की घड़ी आएगीन्यायपालिका यथास्थिति की ताकतों के साथ खड़ी मिलेगी. तब हमने अपने भोलेपन में समझा था कि गांधीजी विदेशी न्यायपालिका के बारे में कह रहे हैं जबकि वे देशी-विदेशी नहींसत्ता व सत्ता की कृपादृष्टि की याचक सभी संरचनाओं के बारे में कह रहे थे. राष्ट्रद्रोह और राज्यद्रोह में गहरा और बुनियादी फर्क है. महात्मा गांधी ने खुली घोषणा कर रखी थी कि वे राज के कट्टर दुश्मन हैं क्योंकि वे राष्ट्र को दम तोड़ती कायर भीड़ में बदलते नहीं देख सकते.


सत्ता को सबसे अधिक डर असहमति से लगता है क्योंकि वह सत्ता को मनमाना करने का लाइसेंस समझती है. इसलिए असहमति उसके लिए बगावत की पहली घोषणा बन जाती है. विडंबना देखिए कि लोकतंत्र असहमति के ऑक्सीजन पर ही जिंदा रहता हैसत्ता के लिए असहमति कार्बन गैस बन जाती है. दुखद यह है कि ये सारे कानून न्यायपालिका की सहमति से ही बने व टिके हैं.


124 ए से हाथ धो लेने की चीफ जस्टिस रमण की बात के जवाब में एटॉर्नी जेनरल के.के. वेणुगोपाल अदालत में ठीक वही कह रहे हैं जो सत्ता व न्यायपालिका ने अब तक नागरिक अधिकारों के पांव काटने वाले हर कानून को जन्म देते वक्त कहा है : सावधानी से इस्तेमाल करें ! यह कुछ वैसा ही जैसे बच्चे के हाथ में खुला चाकू दे दें हम लेकिन उस पर एक पर्ची लगा दें: सावधानी से चलाएं ! अबोध बच्चा उससे अपनी गर्दन काट ले सकता हैकाइयां सत्ता उससे अपनी छोड़हमेशा ही असहमत नागरिक की गर्दन काटती है. यह इतिहाससिद्ध भौगोलिक सच्चाई है. फिर न्यायपालिका इतनी अबोध कैसे हो सकती है कि सत्ता के हाथ में बड़े-से-बड़ा चाकू थमाने की स्वीकृति देती जाए 


जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ कहते हैं कि जब भीजहां भी बहुमतवादी मानसिकता सर उठाती नजर आएतभी और वहीं उससे रू-ब-रू होना चाहिए, “ ऐसा न करना हमारे पुरुखों ने भारत को जिस संवैधानिक गणतंत्र के रूप में स्वीकार किया थाउस पवित्र अवधारणा से छल होगा.” जिसके हाथ में संविधानप्रदत्त शक्ति हैउस न्यायपालिका के लिए चुनावी बहुमत और संवैधानिक बहुमत का फर्क करना और उसे अदालती फैसले में दर्ज करना आसान है क्योंकि संविधान की संप्रभु जनता ऐसे हर प्रयास में उसके साथ व उसके पीछे खड़ी रहेगी. हम सब जानते हैं कि खड़ा तो अपने पांव पर ही होना होता हैफिर परछाईं भी आपको सहारा देने आ जाती है. ( 20.07.2021)

Wednesday 7 July 2021

मी लार्ड, हम कुछ कहेंगे

     स्टेन स्वामी की मृत्यु के बाद कुछ भी लिखने-कहने की फूहड़ता से बचने की बहुत कोशिश की मैंने. मुझे लगता रहा कि यह अवसर ऐसा है कि हम आवाज ही नहींसांस भी बंद कर लें तो बेहतर ! लेकिन घुटन ऐसी है कि वैसा कर के भी हम अपने कायर व क्रूर अस्तित्व से बच नहीं पाएंगे तो कुछ बोलना या पूछना जरूरी हो जाता है. और पूछना आपसे है रमण साहब ! 

            मेरे पूछने में थोड़ी तल्खी और बहुत सारी बेबाकी हो तो मैं आशा करता हूं कि आप इसे अदालत की अवमानना नहींलोकतंत्र में लोक की अवमानना की अपमानजनक पीड़ा की तरह समझेंगेक्योंकि इस अदालत की अवमानना भी क्या करना !!  और यह भी शुरू में ही कह दूं कि आपसे यह सब कह रहा हूं तो इसलिए नहीं कि हमारी तथाकथित न्यायपालिका के सबसे बड़े पालक हैं आप ! यह बहुत पीड़ाजनक है और यह कहने में मुझे सचबहुत पीड़ा हो भी रही है और ग्लानि भी लेकिन यही सच है कि अपनी न्यायपालिका के सबसे बड़े पालकों से इधर के वर्षों में कुछ कहने या सुनने की सार्थकता बची ही नहीं थी. लेकिन गांधी ने हमें सिखाया कि एक चीज होती है अंतरात्माऔर वह जब छुई जा सके तब छूने की कोशिश करनी चाहिए. मैं वही कोशिश कर रहा हूं और इसके कारण भी आप ही हैं. अहमदाबाद में आयोजित जस्टिस पी.डी. देसाई मेमोरियल ट्रस्ट के व्याख्यान में अभी-अभी आपने कुछ ऐसी नायाब बातें कहीं कि जिनसे लगा कि कहींकोई अंतरात्मा है जो धड़क रही है. मैं उसी धड़कन के साथ जुड़ने के लिए यह लिख रहा हूं. 


            मी लॉर्ड, 84 साल का एक थरथराता-कांपता बूढ़ाजो सुन भी नहीं पाता थाकह भी नहीं पाता थाचलने-खाने-पीने में भी जिसकी तकलीफ नंगी आंखों से दिखाई पड़ती थी वह न्यापालिका के दरवाजे पर खड़ा होकर इतना ही तो मांग रहा था कि उसे अपने घर मेंअपने लोगों के बीच मरने की इजाजत दे दी जाए ! उसने कोई अपराध नहीं किया थाराज्य ने उसे अपराधी माना था. इस आदमी पर राज्य का आरोप था कि यह राज्य का तख्ता पलटने का षड्यंत्र रच रहा हैकि राज्य-प्रमुख की हत्या की दुरभिसंधि में लगा है. इस आरोप के बारे में हम तो क्या कह सकते हैंकहना तो आपको था. आपने नहीं कहा. हो सकता है कि न्याय की नई परिभाषा में यह अधिकार भी न्यायपालिका के पास आ गया हो कि न्याय करना कि न करना उसका विशेषाधिकार है. हमें तो अपनी प्राइमरी स्कूल की किताब में पढ़ाया गया थाऔर हमें उसे कंठस्थ करने को कहा गया था कि न्याय में देरी सबसे बड़ा अन्याय है. इसलिए स्टेन स्वामी के अपराधी होनेन होने की बाबत हम कुछ नहीं कहते हैं. लेकिन जानना यह चाहते हैं कि जीवन की अंतिम सीढ़ी पर कांपते-थरथराते एक नागरिक की अंतिम इच्छा का सम्मान करनाक्या न्यायपालिका की मनुष्यता से कोई रिश्ता रखता है फांसी चढ़ते अपराधी से भी उसकी आखिरी इच्छा पूछना और यथासंभव उसे पूरा करना न्याय के मानवीय सरोकार को बताता है. अगर ऐसा है तो स्टेन स्वामी के मामले में अपराधी न्यायपालिका है. मी लार्डआपका तो काम ही अपराध की सजा देना हैतो इसकी क्या सजा देंगे आप अपनी न्यायपालिका को 


            आपने अपने व्याख्यान में कहा कि कुछेक सालों में शासकों को बदलना इस बात की गारंटी नहीं है कि समाज सत्ता के आतंक या जुर्म से मुक्त हो जाएगा. आपकी इस बात से अपनी छोटी समझ में यह बात आई कि सत्ता जुर्म भी करती है और आतंक भी फैलाती है. तो फिर अदालत में बार-बार यह कहते स्टेन स्वामी की बात आपकी न्यायपालिका ने क्यों नहीं सुनी कि वे न तो कभी भीमा कोरेगांव गए हैंन कभी उन सामग्रियों को देखा-पढ़ा है कि जिसे रखने-प्रचारित करने का साक्ष्यविहीन मनमाना आरोप उन पर लगाया जा रहा है मी लॉर्डकोई एक ही बात सही हो सकती है - या तो आपने सत्ता के आतंक व जुर्म की जो बात कहीवहया आतंक व जुर्म से जो सत्ता चलती है वह ! स्टेन स्वामी तो अपना फैसला सुना कर चले गएआपका फैसला सुनना बाकी है. 


            आपने अपने व्याख्यान में यह बड़े मार्के की बात कही कि आजादी के बाद से हुए 17 आम चुनावों में हम नागरिकों ने अपना संवैधानिक दायित्व खासी कुशलता से निभाया है. फिर आप ही कहते हैं कि अब बारी उनकी है जो राज्य के अलग-अलग अवयवों का संचालन-नियमन करते हैं कि वे बताएं कि उन्होंने अपना संवैधानिक दायित्व कितना पूरा किया. तो मैं आपसे पूछता हूं कि न्यायपालिका ने अपनी भूमिका का कितना व कैसा पालन किया न्यायपालिका नाम का यह हाथी हमने तो इसी उम्मीद में बनाया और पाला कि यह हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों की पहरेदारी करेगा. हमने तो आपका काम एकदम आसान बनाने के लिए यहां तक किया कि एक किताब लिख कर आपके हाथ में धर दी कि यह संविधान है जिसका पालन करना और करवाना आपका काम है. तो फिर मैं पूछता हूं कि नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर पाबंदियां डालने वाले इतने सारे कानून बनते कैसे गए ?  


            हमारा संविधान कहता है कि संसद कानून बनाने वाली एकमात्र संस्था है लेकिन वही संविधान यह भी कहता है कि कोई भी कानून संविधानसम्मत है या नहीं यह कहने वाली एकमात्र संस्था न्यायपालिका है. आतंक व जुर्म की ताकत से राज करने वाले कानून संसद बना सकती है लेकिन उसे न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है. फिर ऊपा जैसे कानून कैसे बन गए और न्यायपालिका ने उसे पचा भी लिया जो इसी अवधारणा पर चलती हैं कि इसे न्यायपालिका न जांच सकती हैन निरस्त कर सकती है जो न्यायपालिका को अपना संवैधानिक दायित्व पूरा करने में असमर्थ बना दे ऐसा कानून संविधानसम्मत कैसे हो सकता है भीमा कोरेगांव मामले में जिन्हें पकड़ा गया हैउन सब पर मुकदमा चले और उन्हें कानूनसम्मत सजा होइस पर किसी को एतराज कैसे हो सकता है ?  लेकिन बिना मुकदमे के उनको जेलों में रखा जाए और हमारी न्यायपालिका वर्षों चुप रहे यह किस तर्क से समझा जाए ?  फिर तो हमें कहना पड़ेगा कि संविधान के रक्षक संविधान पढ़ने की पाठशाला में गए ही नहीं ! 


            हजारों-हजार लोग ऐसे हैं जो जेलों की सलाखों में बिना अपराध व मुकदमे के बंद रखे गए हैं. जेलें अपराधियों के लिए बनाई गई थींन कि राजनीतिक विरोधियों व असहमत लोगों का गला घोंटने के लिए. जेलों का गलत इस्तेमाल न होयह देखना भी न्यायपालिका का ही काम है. जिस देश की जेलों में जितने ज्यादा लोग बंद होंगेवह सरकार व वह न्यायपालिका उतनी ही विफल मानी जाएगी.  और सरकारी एजेंसियां लंबे समय तक लोगों को जेल में सड़ा कर रखती हैंजिंदा लाश बना देती हैं और फिर कहीं अदालत कहती है कि कोई भी पक्का सबूत पेश नहीं किया गया इसलिए इन्हें रिहा किया जाता है. यह अपराध किसका है उनका तो नहीं ही जो रिहा हुए हैं. तो आपकी न्यायपालिका इस अपराध की सजा इन एजेंसियों को और इनके आकाओं को क्यों नहीं देती नागरिकों के प्रति यह संवैधानिक जिम्मेवारी न्यायपालिका की है या नहीं दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभी-अभी कहा है कि सरकार अदालत में झूठ बोलती है. अदालत में खड़े हो कर सरकार झूठ बोले तो यह दो संवैधानिक व्यवस्थाओं का एक साथ अपमान हैउसके साथ धोखाधड़ी है. इसकी सजा क्या है बस इतना कि कह देना कि आप झूठ बोलते हैं फिर झूठी गवाहीझूठा मुकदमा सबकी छूट होनी चाहिए न ?  ऐसी आपाधापी ही यदि लोकतंत्र की किस्मत में बदी है तो फिर संविधान का और संविधान द्वारा बनाई इन व्यवस्थाओं का बोझ हम क्यों ढोएं 


            आपने उस व्याख्यान में बहुत खूब कहा कि कानून जनता के लिए हैं इसलिए वे सरल होने चाहिए और उनमें किसी तरह की गोपनीयता नहीं होनी चाहिए. मी लॉर्डयह हम कहें तो आपसे कहेंगेआप कहते हैं तो किससे कहते हैं आपको ही तो यह करना है कि संविधान की आत्मा को कुचलने वाला कोई भी कानून प्रभावी न हो. गांधी ने ऐसा सवाल कितनी ही बारकितनी ही अदालतों में पूछा था. लेकिन तब हम गुलामों को जवाब कौन देता लेकिन अब 


            अब तो एक ही सवाल है : जो न्यायपालिका सरकार की कृपादृष्टि के लिए तरसती होवह न्यायपालिका रह जाती है क्या सवाल तो और भी हैंजवाब आपकी तरफ से आना है. 


( 06.07.2021)

                                                                                                      

यह हमारी नहीं, पूंजी और सत्ता की लड़ाई है

अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे ! इस कहावत का सही मतलब जानना हो तो आपको केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद का वह वक्तव्य पढ़ना चाहिए जो ट्विटर के रवैयेसे परेशान हो कर उन्होंने इसी शुक्रवार को देशहित में जारी किया है. उन्होंने कहा : “ मित्रोएक बड़ा ही अजीबोगरीब वाकया आज हुआ.  ट्विटर ने करीब एक घंटे तक मुझेमेरा एकाउंट खोलने ही नहीं दिया और यह आरोप मढ़ा कि मेरे किसी पोस्ट से अमरीका के डिजीटल मीलिनियम कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन हुआ है. बाद में उन्होंने मेरेएकाउंट पर लगी बंदिश हटा ली.”  

 

            बंदिश हटाते हुए ट्विटर ने उन्हें सावधान भी किया : “ अब आपका एकाउंट इस्तेमाल के लिए उपलब्ध है. आप जान लें कि आपके एकाउंट के बारे में ऐसी कोईआपत्ति फिर से आई तो हम इसे फिर से बंद कर सकते हैं और संभव है कि हम इसे रद्द भी कर दें. इससे बचने के लिए कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन करने वाला कोईपोस्ट आप न करें और यदि ऐसा कोई पोस्ट आपके एकाउंट पर हो जिसे जारी करने के आप अधिकारी नहीं हैंतो उसे अविलंब हटा दें.” 

    

    मंत्रीजी का एकाउंट जब जीवित हो गया तब उन्होंने इस पर कड़ी आपत्ति की कि ट्विटर ने उनके साथ जो कियावह इसी 20 मई 2021 को भारत सरकार द्वाराबनाए आइटी रूल 4(8) का खुल्लखुल्ला उल्लंघन है. इस कानून के मुताबिक मेरा एकाउंट बंद करने से पहले उन्हें मुझे इसकी सूचना देनी चाहिए थी. यह कहने के बादबहादुर मंत्री ने वह भी कहा जो इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने के किए उन्हें कहना चाहिए था : “ स्पष्ट है कि ट्विटर की कठोरता भरी मनमानी को उजागर करने वाले मेरेबयानों तथा टीवी चैनलों को दिए गए मेरे बेहद प्रभावी इंटरव्यूअों ने इनको बेहाल कर दिया है. इससे यह भी साफ हो गया है कि आखिर क्यों ट्विटर हमारे निर्देशों कापालन करने से इंकार कर रहा था.  वह हमारे निर्देशों को मान कर चलता तो वह किसी भी व्यक्ति का एकाउंटजो उसके एजेंडा को मानने को तैयार नहीं हैइस तरहमनमाने तरीके से बंद नहीं कर सकता था.” फिर मंत्रीजी ने उसमें राष्ट्रवादी छौंक भी लगाई : “ ऐसा कोई भी माध्यम चाहे जो कर लेउसे हमारे नये गाइडलाइन का पालनकरना ही होगा. हम इस बारे में कोई समझौता नहीं कर सकते.” 

 

    यह वह तस्वीर है जो सरकार के आइटी मंत्री ने बनाई है. ट्विटर ने जो तस्वीर बनाई हैवह मंत्रीजी की तस्वीर को हास्यास्पद बना देती है. उसने बताया कि मंत्रीजीका एकाउंट इसलिए रोका गया कि उनके 16 दिसंबर 2017 के एक पोस्ट ने कॉपीराइट का उल्लंघन किया है. मंत्रीजी जिसे सिद्धांत का मामला बनाना चाहते थेट्विटर नेउसे सामान्य अपराध का मामला बता दिया. भारत सरकार की बनाई गाइडलाइन के पालन के बारे में ट्विटर का अब तक का रवैया ऐसा रहा है कि वह इसे जैसे-का-तैसेकबूल करने को राजी नहीं है. वह कह रहा है कि दुनिया भर के लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति हम प्रतिबद्ध हैं और इस मामले में हम किसी सरकार से कोईभी समझौता नहीं कर सकते.

 

    कितना अजीब है कि दोनों ही हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं और हम हैं कि हर कहींहर तरह से चुप कराए जा रहे हैंया बोलनेके अपराध की सजा भुगत रहे हैं. मंत्रीजी ने तब तलवार निकाल ली जब उनका अपना एकाउंट मात्र घंटे भर के लिए बंद कर दिया गया लेकिन इस सरकार में ऐसेरविशंकरों की कमी नहीं है जिन्होंने तब खुशी में तालियां बजाई थीं जब कश्मीर में लगातार 555 दिनों के लिए इंटरनेट ही बंद कर दिया गया था. दुनिया की सबसे लंबीइंटरनेट बंदी ! तब किसी को कश्मीर की अभिव्यक्ति का गला घोंटना क्यों गलत नहीं लगा था पिछले 6 से ज्यादा महीनों से चल रहे किसान आंदोलन को तोड़ करउसे घुटनों के बल लाने के लिए जितने अलोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया और किया जा रहा हैउसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किसी को दिखाईक्यों नहीं देता है वहां भी इंटरनेट बंद ही किया गया था न ! यही नहींपिछले दिनों सरकार ने निर्देश दे कर ट्विटर से कई एकाउंट बंद करवाए हैं और नये आइटी नियमका सारा जोर इस पर है कि ट्विटर तथा ऐसे सभी माध्यम सरकार को उन सबकी सूचनाएं मुहैया कराएं जिन्हें सरकार अपने लिए असुविधाजनक मानती है. यह सामान्यचलन बना लिया गया है कि जहां भी सरकार कठघरे में होती हैवह सबसे पहले वहां का इंटरनेट बंद कर देती है. इंटरनेट बंद करना आज समाज के लिए वैसा ही है जैसेइंसान के लिए ऑक्सीजन बंद करना ! 

 

    नहींयह सारी लड़ाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए नहीं हो रही है. सच कुछ और ही हैऔर वह सचसामने के इस सच से कहीं ज्यादा भयावह है. सरकारऔर बाजार का मुकाबला चल रहा है. हाइटेक वह नया हथियार है जिससे बाजार ने सत्ता को चुनौती ही नहीं दी है बल्कि उसे किसी हद तक झुका भी लिया है.  

 

            जितने डिजीटल प्लेटफॉर्म हैं दुनिया में वे सब पूंजी— बड़ी-से-बड़ी पूंजी— की ताकत पर खड़े हैं. छोटे-तो-छोटेबड़े-बड़े मुल्कों की आज हिम्मत नहीं है कि इनप्लेटफॉर्मों को  सीधी चुनौती दे सकें. इसलिए हाइटेक की मनमानी जारी है. उसकी आजादी कीअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी ही परिभाषा है जो उनकेव्यापारिक हितों से जुड़ी है. वे लाखों-करोड़ों लोगजो रोजाना इन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल संवादमनोरंजन तथा व्यापार के लिए करते हैं वे ही इनकी असली ताकत हैं. लेकिन ये जानते हैं कि यह ताकत पलट कर वार भी कर सकती हैप्रतिद्वंद्वी ताकतों से हाथ भी मिला सकती है. इसलिए ये अपने प्लेटफॉर्म पर आए लोगों को गुलामबना कर रखना चाहती हैं. इन्होंने मनोरंजन को नये जमाने की अफीम बना लिया है जिसमें सेक्सपोर्ननग्नताबाल यौन आदि सबका तड़का लगाया जाता है. इनकीअंधी कोशिश है कि लोगों का इतना पतन कर दिया जाए कि वे आवाज उठाने या इंकार करने की स्थिति में न रहें. 

 

            यही काम तो सरकारें भी करती हैं उन लोगों की मदद से जिनका लाखों-लाख वोट उन्हें मिला होता है.  सरकारों को भी लोग चाहिए लेकिन वे ही और उतने हीलोग चाहिए जो उनकी मुट्ठी में रहें. अब तो लोग भी नहींसीधा भक्त चाहिए !  पूंजी और सत्तादोनों का  चरित्र एक-सा होता है कि सब कुछ अपनी ही मुट्ठी में रहे. इनदोनों को किसी भी स्तर परकिसी भी तरह की असहमति कबूल नहीं होती है. फेसबुकट्विटरइंस्टाग्रामई-मेल जैसे सारे प्लेटफॉर्म पूंजी की शक्ति पर इतराते हैं औरसत्ताअों को आंख दिखाते हैं. सत्ता को अपना ऐसा प्रतिद्वंद्वी कबूल नहीं. वह इन्हें अपनी मुट्ठी में करना चाहती है. 

 

            पूंजी और सत्ता के बीच की यह रस्साकशी है जिसका जनता सेउसकी आजादी या उसके लोकतांत्रिक अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है. इन दोनों कीरस्साकशी से समाज कैस बचे और अपना रास्ता निकालेयह इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती है. भारत सरकार भी ऐसा दिखाने की कोशिश कर रही है कि जैसे वह इनहाइटेक कंपनियों से जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को बचाने का संघर्ष कर रही है. लेकिन यह सफेद झूठ है. प्रिंट मीडियाटीवी प्लेटफॉर्म आदि को जेब में रखने केबाद सरकारें अब इन तथाकथित सोशल नेटवर्कों को भी अपनी जेब में करना चाहती है. हमें पूंजी व पावर दोनों की मुट्ठी से बाहर निकलना है. हमारा संविधान जिसलोकसत्ता की बात करता हैउसका सही अर्थों में पालन तभी संभव है जब सत्ता और पूंजी का सही अर्थों में विकेंद्रीकरण हो. न सत्ता यह चाहती हैन पूंजी लेकिन हमारीमुक्ति का यही एकमात्र रास्ता है. ( 26.06.2021)  

 

जी-7 का तमाशा : कंगाल मालिकों की तफरीह

अपने को दुनिया का मालिक समझने वाले जी-7 के देशों का शिखर सम्मेलन इंग्लैंड के कॉर्नवाल में कब शुरू हुआ और कब खत्मकुछ पता चला क्या ?  हम दुनिया वालों को तो पता नहीं चलाउनको जरूर पता चला जो दुनिया का मालिक होने का दावा करते हैं : अमरीकाकनाडाफ्रांसजर्मनीइटलीजापान और इंग्लैंड. इन मालिकों के हत्थे दुनिया की जनसंख्या का 10% और दुनिया की संपत्ति का 40% आता है. अब यहीं पर एक सवाल पूछना बनता है कि जो 10% लोग हमारे 40% संसाधनों पर कब्जा किए बैठे हैंउनकी मालिकी कैसी होगी और वे हमारी कितनी और कैसी फिक्र करेंगे ?  


   दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या का हिसाब करें कि सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था का तो इस सम्मेलन में चीन की अनुपस्थिति का कोई तर्क नहीं बनता है. हम अपने बारे में कहें तो हम भी जनसंख्या व अर्थ-व्यवस्था के लिहाज से इस मजलिस में शामिल होने के पूर्ण अधिकारी हैं. लेकिन आकाओं ने अभी हमारी औकात इतनी ही आतंकी कि हमें इस बार आस्ट्रेलिया व दक्षिणी कोरिया के साथ अपनी खिड़की से झांकने की अनुमति दे दी.  हमारा गोदी-मीडिया भले गा रहा है कि हमारे लिए लाल कालीन बिछाई गई लेकिन यह वह दरिद्र मानसिकता है जिसमें आत्म-सम्मान की कमी और आत्म-प्रचार की भूख छिपी है. 


   अगर जी-7 को जी-8  या जी-9 न बनने देने की कोई जिद हो तो फिर इसमें चीन और भारत की जगह बनाने के लिए इटली और कनाडा को बाहर निकालना होगा. इन दोनों की आज कोई वैश्विक हैसियत नहीं रह गई है. आखिर 1998 में आपने रूस के लिए अपना दरवाजा खोला ही था नजिसे 2014 में आपने इसलिए बंद कर दिया कि रूस ने क्रीमिया को हड़प कर अपना अलोकतांत्रिक चेहरा दिखलाया था. योग्यता-अयोग्यता की ऐसी ही कसौटी फिर की जाए तो भारत व चीन को इस क्लब में लिया ही जाना चाहिए. लेकिन जब योग्यता-अयोग्यता की एक ही कसौटी हो कि आप अमरीका की वैश्विक योजना के कितने अनुकूल हैंतब कहना यह पड़ता है कि हम जहां हैं वहां खुश हैंआप अपनी देखो !    


    जिस दुनिया की मालिकी का दावा किया जा रहा हैउस दुनिया को देने के लिए और उस दुनिया से कहने के लिए जी-7 के पास भी और हमारे पास भी है क्या हमने और हमारे मालिकों ने तो यह सच्चा आंकड़ा देने की हिम्मत भी नहीं दिखाई है कि कोरोना ने हमारे कितने भाई-बहनों को लील लिया अगर ऐसी सच्चाई का सामना करने की हिम्मत हमारे मालिकों में होती तो यह कैसे संभव होता कि जी-7 के हमारे आका कह पाते कि हम गरीब मुल्कों को 1 बीलियन या 1 अरब या 100 करोड़ वैक्सीन की खुराक देंगे अगर हम आज दुनिया की जनसंख्या 10 अरब भी मानें तो भी हमें 20 अरब वैक्सीन खुराकों की जरूरत है - आज ही जरूरत है और अविलंब जरूरत है. अब तो हम यह जान चुके हैं न कि 10 अरब लोगों में से कोई एक भी वैक्सीन पाने से बच गया तो वह संसार में कहीं भी एक नया वुहान रच सकता है.  ऐसे में जी-7 यह भी नहीं कह सका कि जब तक एक आदमी भी वैक्सीन के बिना रहेगाहम चैन की सांस नहीं लेंगे.  कोविड ने यदि कुछ नया सिखाया है हमें तो वह यह है कि आज इंसानी स्वास्थ्य एक अंतरराष्ट्रीय चुनौती है जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता जरूरी है. वैसी किसी प्रतिबद्धता की घोषणा व योजना के बिना ही जी-7 निबट गया. यह जरूर कहा गया कि कोविड का जन्म कहां हुआ इसकी खोज की जाएगी. यह चीन को कठघरे में खड़ा करने की जी-7 की कोशिश है. 


   अमरीकी राष्ट्रपति बाइडन जी-7 बिरादरी को दो बातें बताना या उससे दो बातें मनवाना चाहते थे : पहली बात तो यह कि अमरीका डोनाल्ड ट्रंप के हास्यास्पद दौर से बाहर निकल चुका है;  दूसरी बात यह कि दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती चीन को उसकी औकात बताने की है. पहली बात बाइडन से कहीं पहले अमरीकी मतदाता ने दुनिया को बता दी थी.  बाइडन को अब बताना तो यह है कि अमरीका में कहीं ट्रंप ने बाइडन का मास्क तो नहीं पहन लिया है !  पिछले दिनों फलस्तीन-इस्राइल युद्ध के दौरान लग रहा था कि ट्रंप ने बाइडन का मास्क पहन रखा है. चीन को धमकाने के मामले में भी बाइडन का चेहरा दिखाई देता है,  ट्रंप की आवाज सुनाई देती है. बड़ी पुरानी कूटनीतिक उक्ति कहती थी कि अमरीका में आप राष्ट्रपति बदल सकते हैंनीतियां नहीं.  सवाल वीसानागरिकतारोजगार नीति आदि में थोड़ी उदारता दिखाने भर का नहीं है. गहरा सवाल यह है कि दुनिया को देखने का अमरीकी नजरिया बदला है क्या 


   जी-7 ने नहीं कहा कि वह कोविड के मद्देनजर वैक्सीनों पर से अपना एकाधिकार छोड़ता है और उसे सर्वसुलभ बनाता है. उसने यह भी नहीं कहा कि वैक्सीन बनाने के कच्चे माल की आपूर्ति पर उसकी तरफ से कोई प्रतिबंध नहीं रहेगा. उसने यह जरूर कहा कि सभी देश अपना कारपोरेट टैक्स 15% करेंगे तथा हर देश को यह अधिकार होगा कि वह अपने यहां से की गई वैश्विक कंपनियों की कमाई पर टैक्स लगा सकें. दूसरी तरफ यह भी कहा गया कि भारतफ्रांस जैसे देशों कोजिन्होंने अपने यहां कमाई कर रही डिजिटल कंपनियों पर टैक्स का प्रावधान कर रखा हैइसे बंद करना होगा. ऐसी व्यवस्था से सरकारों की कमाई कितनी बढ़ेगीइसका हिसाब लगाएं हिसाबी लोग लेकिन मेरा हिसाब तो एकदम सीधा है कि ऐसी कमाई का कितना फीसदी गरीब मुल्कों तकऔर गरीब मुल्कों के असली गरीबों तक पहुंचेगाइसका पक्का गणित और इसकी पक्की योजना बताई जाए !  कोविड की मार खाई दुनिया में यह सुनिश्चित करने की तत्काल जरूरत है कि किसी भी देश की कुल कमाई का कितना फीसदी स्वास्थ्य-सेवा पर और कितना फीसदी शिक्षा के प्रसार पर खर्च किया ही जाना चाहिएऔर यह भी कि शासन-प्रशासन के खर्च की उच्चतम सीमा क्या होगी.  ऐसे सवालों का जी-7 के पास कोई जवाब हैऐसा नहीं लगा.      

  

   चीन के बारे में बाइडन को जी-7 का वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा वे चाहते थे. वह संभव नहीं था क्योंकि यूरोपीयन यूनियन चीन के साथ आर्थिक साझेदारी की संभावनाएं तलाशने में जुटा है. ब्रेक्सिट के बाद का इंग्लैंड भी चीन के साथ आर्थिक व्यवहार बढ़ाना चाहता है. चीन भी यूरोपीयन यूनियन के साथ संभावित साझेदारी का आर्थिक व राजनीतिक पहलू खूब समझता है. इसलिए उसने काफी रचनात्मकलचीला रुख बना रखा है. इससे लगता नहीं है कि चीन का डर दिखा कर दुनिया का नेतृत्व हथियाने की बाइडन की कोशिश सफल नहीं हो सकेगी. आज हालात अमरीका के नहींचीन की तरफ झुके हुए हैं. चीन के पास भी दुनिया को देने के लिए वह सब है जो कभी अमरीका के पास हुआ करता था. 


   चीन के पास जो नहीं है वह है साझेदारी में जीने की मानसिकता. इसमें कोई शक नहीं कि चीन तथाकथित आधुनिकता से लैस साम्राज्यवादी मानसिकता का देश है. वह निश्चित ही दुनिया के लिए एक अलग प्रकार का खतरा है और वह खतरा गहराता जा रहा है. लेकिन उस एक चीन का मुकाबलाकई चीन बना कर नहीं किया जा सकता है. चीन को दुनिया से अलग-थलग करके या जी-7 क्लब के भीतर बैठ कर उसे काबू में करने की रणनीति व्यर्थ जाएगी.  चीन का सामरिक मुकाबला करने की बात उसके हाथों में खेलने जैसी होगी. फिर चीन के साथ क्या किया जाना चाहिए हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसे जगह देकरअंतरराष्ट्रीय समाधानों के प्रति उसे वचनबद्ध करके ही उसे साधा जा सकता है. रचनात्मक नैतिकता व समता पर आधारित आर्थिक दवाब ही चीन के खिलाफ सबसे कारगर हथियार हो सकता है. सवाल तो यह है कि क्या जी-7 के पास ऐसी रचनात्मक नैतिकता है ?  जी-7 के देशों का अपना इतिहास स्वच्छ नहीं है और उनके अधिकांश आका अपने-अपने देशों में कोई खास उजली छवि नहीं रखते हैं.


अंधेरे से अंधेरे का मुकाबला न पहले कभी हुआ हैन आज हो सकता है. 


(15.06.2021)

Tuesday 1 June 2021

खेल के साथ खेल करने का अपराध

 अखाड़ों में दूसरे पहलवानों को चित्त करना हर पहलवान का सपना भी होता है और साधना भी लेकिन जिंदगी के अखाड़े में चित्त होना सारे सपनों और सारी साधना का चूर-चूर हो जाना होता है. यह निहायत ही अपमानजनक पतन होता है. पहलवान सुशील कुमार उपलब्धियों के शिखर से पतन के ऐसे ही गर्त में गिरे हैं. 2008 बीजिंग ओलिंपिक में कांस्यपदक, 2012 लंदन ओलिंपिक में रजतपदक जीतने तथा दूसरी कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में बारहा सफल रहने वाले सुशील कुमार यह भूल ही गए कि खेल खेल ही होता है, सारा जीवन नहीं; वे भूल ही गए कि पहलवानी के अखाड़े में दांव-पेंच खूब चलते हैं, जीवन के अखाड़े में सबसे अच्छा दांव-पेंच एक ही है : सीधा-सच्चा व सरल रहना.  यह सीधा, आसान रास्ता जो भूल गया, उसे जमाना भी भूल जाता है. लगता है, सुशील कुमार इसी गति को प्राप्त होंगे.  

लेकिन बात किसी एक सुशील कुमार की या कुछ पहलवानों भर की नहीं है. खेल के साथ जैसा खेल हम खेल रहे हैंबात उसकी है. जब सारी दुनिया में कोविड की आंधी ही बह रही हैजापान में ओलिंपिक का आयोजन होना है.  खिलाड़ी यहां से वहां भाग रहे हैंभगाए जा रहे हैं और निराश हो रहे हैं.  कई कोविड से मरे हैंकई उसकी गिरफ्त में जा रहे हैं. फिर भी जापान में ओलिंपिक की तैयारी चल रही है. 

कैलेंडर के मुताबिक हर 5 साल पर होने वाला खेलों का यह महाकुंभ जब तोक्यो को अता फरमाया गया थातब कोविड का अता-पता नहीं था. इसे 25 जुलाई 2020 में होना था. लेकिन यह हो न सका क्यों कि तब तक कोविड की वक्र दृष्टि संसार के साथ-साथ जापान पर भी पड़ चुकी थी. 

कोविड ने संसार को जो नये कई पाठ पढ़ाए हैं उनमें एक यह भी है न कि धरती का हमारा यह घोंसला बहुत छोटा है. हमारे सुपरसोनिक विमानों या बुलेट ट्रेनों को इस घोंसले के आर-पार होने में भले ही घंटों लगें,  प्राकृतिक आपदाएंतूफान व भूकंपकोविड जैसी अनदेखी लहरें इसे सर-से-पांव तक कबकैसे सराबोर कर जाती हैंहम समझ नहीं पाते हैं. 

 2020 में हम ओलिंपिक का आयोजन नहीं कर सकेंगे जैसे ही जापान ने यह स्वीकार किया वही घड़ी थी जब यह घोषणा कर दी जानी चाहिए थी कि हम ओलिंपिक को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करते हैं. कोविड से निपट लेंगे तब ओलिंपिक की सोचेंगे. जीवन बचा लेंगे तो जीवन सजाने की सुध लेंगे. लेकिन ऐसा नहीं किया गया और ओलिंपिक की नई तारीख तै कर दी गई : 25 जुलाई से  8 अगस्त 2021 ! ओलिंपिक होगा तो स्वाभाविक ही था कि उसकी तैयारी भी होगी और तैयारी वैसी ही होगी जैसी बाबू साहब की बेटी की शादी की होती हैसो तब तक खर्चे गए करोड़ों रुपयों में और करोड़ों उड़ेले जाने लगे. अब बता रहे हैं कि 17 बीलियन डॉलर दांव पर लगा है. यह पैसा भले जापान की जनता का हैनिकला तो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय धनपशुओं की जेब से है. ये वे लोग हैं कि जो 1 लगाते तभी हैं जब 10 लौटने का पक्का इंतजाम हो. उनका पैसा जब खतरे में पड़ता हैये बेहद खूंखार हो उठते हैं. 

यही जापान में हो रहा है. रोज सड़कों पर प्रदर्शन हो रहे हैंकई खिलाड़ी भी और कई अधिकारी भीडॉक्टरों के संगठन भी और समाजसेवी भी कह रहे हैं कि ओलिंपिक रद्द किया ही जाना चाहिए. जापान की अपनी हालत यह है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वहां कोई 13 हजार लोगों की कोविड से मौत हो चुकी है और रोजाना 3 हजार नये मामले आ रहे हैं. जापान में वैक्सीनेशन की गति दुनिया में सबसे धीमी मानी जा रही है. आज की तारीख में संसार का गणित बता रहा है कि 20 करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हैं तथा 36 लाख लोग मर चुके हैं. हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि इतने सारे लोग मरे हैंऔर इतने सारे मर सकते हैं तो यह किसी बीमारी के कारण नहींसंक्रमण के कारण. बीमारी की दवा होती हैहो सकती हैसंक्रमण की दवा नहीं होतीरोक-थाम होती है. कोविड की रोक-थाम में नाहक की भीड़-भाड़ और मेल-मिलाप की अहम भूमिका है. अब तराजू के एक पलड़े पर 17 बीलियन डॉलर है जिसके 70 बीलियन बनने की संभावना हैदूसरे पलड़े पर 36 लाख लाशें हैं जिनके अनगिनत हो जाने की आशंका है. बसयहीं खेलों के प्रति नजरिये का सवाल खड़ा होता है. 

खेलों को हमने खेल रहने ही नहीं दिया हैव्यापार की शतरंज में बदल दिया है जिसमें खिलाड़ी नाम का प्राणी प्यादे से अधिक की हैसियत नहीं रखता है. प्यादा भी जानता है कि नाम व नामा कमाने का यही वक्त है जब अपनी चल रही है. इसलिए हमारे भी और खिलाड़ियों के भी पैमाने बदल गए हैं. क्रिकेट का आइपीएल कोविड की भरी दोपहरी में हम चलाते ही जा रहे थे न ! बायो बबल में बैठे खिलाड़ी उन स्टेडियमों में चौके-छक्के मार रहे थे जिसमें एक परिंदा भी नहीं बैठा था. तो खेल का मनोरंजन सेसामूहिक आल्हाद से कोई नाता हैयह बात तो सिरे से गायब थी लेकिन पैसों की बारिश तो हो ही रही थी. लेकिन जिस दिन बायो बबल में कोई छिद्र हुआदो-चार खिलाड़ी संक्रमित हुएदल-बदल समेत सारा आइपीएल भाग खड़ा हुआ. खेल-भावनासमाज के आनंद के प्रति खिलाड़ियों का दायित्व आदि बातें उसी दिन हवा हो गईं. अपनी जान और समाज की सामूहिक जान के प्रति रवैया कितना अलग हो गया ! अब सारे खेल-व्यापारी इस जुगाड़ में लगे हैं कि कब,कैसेकहां आइपीएल के बाकी मैच करवा जाएं ताकि अपना फंसा पैसा निकाला जा सके. यह खेलों का अमानवीय चेहरा है. 

खेल कास्पर्धा का आनंद मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है जिसमें असाधारण प्रतिभासंपन्न खिलाड़ियों की निजी या टीम की सामूहिक उपलब्धि होती है. खेल सामूहिक आल्हाद की सृष्टि करते हैं. लेकिन खेल अनुशासन और सामूहिक दायित्व की मांग भी करते हैं. इसे जब आप पैसों के खेल में बदल देते हैं तब इसकी स्पर्धा राक्षसी और इसका लोभ अमानवीय बन जाता है. बाजार जब खिलाड़ियों को माल बना कर बेचने लगता है तब आप खेल को युद्ध बना कर पेश करते हैं. तब स्पर्धा में से आप आग की लपटें निकालते हैंकप्तानों के बीच बिजली कड़काते हैं. खिलाड़ी किसी कारपोरेट की धुन पर सत्वहीन जोकरों की तरह नाचते मिलते हैं. यह सब खेलों को निहायत ही सतही व खोखला बना देता है. इसमें खिलाड़ियों का हाल सबसे बुरा होता है. जो नकली हैउसे वे असली समझ लेते हैं. वे अपने स्वर्ण-पदक को मनमानी का लाइसेंस मान लेते हैं. कुश्ती की पटकन से मिली जीत को जीवन में मिली जीत समझ बैठते हैं. कितने-कितने खिलाड़ियों की बात बताऊं कि जो इस चमक-दमक को पचा नहीं सके और खिलने से पहले ही मुरझा गए. जो रास्ते से भटक गए ऐसे खिलाड़ियों-खेल प्रशिक्षकों-खेल अधिकारियों की सूची बहुत लंबी है.  

सुशील कुमार ने अपनी सफलता को मनमानी का लाइसेंस समझ लिया. खेल के सारे व्यापारियों ने उसकी इस समझ को सुलझाया नहींभटकाया-बढ़ाया. अब हम देख रहे हैं कि सुशील कुमार पर हत्या का ही आरोप नहीं है बल्कि असामाजिक-अपराधियों के साथ उनका नाता था. यह कैसा चेहरा है जो खेल और खिलाड़ी से नहींअपराध और अपराधी से मिलता है हमारी सामाजिक प्राथमिकताएं और नैतिकता की  सारी कसौटियां जिस तरह बदली गई हैं उसमें हम ऐसी अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि खेल व खिलाड़ी इससे अछूते रह जाएं लेकिन जो अछूता नहीं हैवह अपराधी नहीं हैऐसा कौन कह सकता है. ( 30.05.2021)