Friday 14 February 2020

दिल्ली अौर दलदल

दिल्ली के चुनाव परिणाम ने भारतीय राजनीति में एेसा एक दलदल बना दिया है कि जिसमें अब किसी भी राजनीतिक दल व राजनीतिज्ञ के पांव धंस अौर फंस सकते हैं. यह दलदल हमारी राजनीति के लिए वरदान हो सकता है. राजनीति के लिए वरदान हो सकता है यानीकि लोकतंत्र को प्रभावी बनासकता है.    

 इस चुनाव में कौन जीता अौर कौन हाराअगर कुल कहानी इतनी ही है तब तो इसके लिए किसी लेख की जरूरत नहीं है. मेरे अभी लिखने अौर आपके अभी पढ़ने से पहले सारी दुनिया यह रहस्य जान चुकी है. इसलिए किसी की हार या जीत की भाषा में इस परिणाम को न मैं समझ रहा हूंन समझानाचाहता हूं. मैं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह यह भी नहीं कह सकता कि दिल्ली पर यह हनुमानजी की कृपा की बारिश हुई हैअौर न भारतीय जनता पार्टी के लोगों के उस मेढ़की-बोल में अपनी बोल मिला सकता हूं जो लगातार यही कहने में लगे हैं कि चुनाव में हार-जीत तो होती ही है ! यह सबअर्थहीन सियासत की वह भाषा है जो लोक को भीड़ में बदल कर संतोष पाती है. यह खेल पिछले वर्षों में खूब खेला गया है अौर लोकतंत्र कामतदाता का उपहास किया गया है. 

 मैं किससे पूछूं कि हनुमानजी को अपनी कृपा बरसाने के लिए किसी चुनाव की जरूरत है क्या फिर तो हनुमानजी नहीं हुएअरविंद केजरीवाल की कठपुतली हो गये ! तो फिर चुनावों में भक्तों को क्योंभगवान ही क्यों न खड़े किए जाएं ?  अौर मैं किससे पूछूं कि अगर चुनाव में जीत या हार वैसी हीहै जैसे खेल में होती है तब किसी अमित शाह के उस जहरीले बयान का क्या अौचित्य है कि बटन यहां दबे इस तरह कि वहां शाहीनबाग में करेंट लगे अगर करेंट लगाने की ही हसरत थी तो कह सकते थे अमित शाह कि बटन यहां ऐसा दाबें अाप कि वहां जनपथ में करेंट लगे. वे ऐसा कहते तब बातराजनीतिक होती लेकिन बात जहर से भी ज्यादा जहरीली हो गई जब उन्होंने करेंट शाहीनबाग पहुंचाने की बात कही. तब यह बयान राजनीतिक नहीं रहाभारतीय समाज के टुकड़े करने वाला बन गया. उस बयान से दिल्ली के सामान्य मतदाता ने ‘ टुकड़े-टुकड़े गैंग’ को ठीक से पहचान लिया -  कपड़ों से नहींचेहरे से ! दिल्ली के चुनाव परिणाम की यह सबसे बड़ी घोषणा है. नहींमैं यह नहीं कह रहा हूं कि भारतीय राजनीति में अब हिंदुत्ववादी ताकतें बेअसर हो गई हैं. कह रहा हूं तो इतना ही कि दिल्ली चुनाव के बाद सांप्रदायिकता को अपना नया चेहरा व नई भाषा गढ़नी होगी. उसका मुलम्मा छूटता जा रहा है. वह किसी हद तक बेपर्दा हो गई है. 

 इस चुनाव परिणाम ने जो कहा है वह कहीं दूर तक जाने वाली बातें हैं. 

 पहली बात यह कि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी वह अतिरिक्त चमक खोनी शुरू कर दी है जो 2014 से नरेंद्र मोदी के नाम से दमकती थी. वह दमक न नरेंद्र मोदी की थीन भारतीय जनता पार्टी की थी. वह दमक अतिशय लापरवाह अौर बेपरवाह अौर बाकायदा भ्रष्ट मनमोहन सिंह की केंद्र सरकार सेहताश व निराश देश की घुटन व किंकर्तव्यविमूढ़ता का परिणाम थी. उससे मनमोहन सिंह का कुछ खास नुकसान नहीं हुअाक्योंकि वे तो कुर्सी पर ला कर बिठाए गये थे. सबसे ज्यादा व दूरगामी नुकसान नेहरू-परिवार का व कांग्रेस पार्टी का हुअा है. वह इस कदर जन-मन से उतरी है कि खुद की पहचान हीभूल गई है. 

 इस भयावह शून्य को भुनाने के लिए नरेंद्र मोदी की अवतारी छवि गढ़ी गई. किसी तारणहार के भरोसे रहने-जीने की सामंती मानसिकता के अवशेष अाज भी हमारे मन में इतने गहरे बैठे हैं कि चमत्कारी छवि या नारे उस सांचे में माकूल बैठ जाते हैं. जो होता नहीं है बल्कि गढ़ा जाता है उसकी उम्र ज्यादानहीं होती है. वह बिखर जाता है. यह सच हम जानते थे लेकिन इतनी जल्दीऐसा बिखराव ऐसा अंदेशा तो किसी को नहीं था -  उनको भी नहीं जिन्होंने नरेंद्र मोदी की ऐसी छवि गढ़ने में बहुत कुछ निवेश किया था. छवि का यह बिखराव इस बात का संकेत है कि भारतीय मतदाता प्रौढ़ हो रहा है. उसे विमूढ़बनाए रखने में जिनका निहित स्वार्थ है वे तरह-तरह के जाल बुनते हैंबुनते भी रहेंगे लेकिन समय के साथ-साथ प्रौढ़ होता जाता हमारा मतदाता हर जाल को काटना सीख रहा है. दिल्ली का चुनाव परिणाम इसका एक अौर प्रमाण है. 

 कभी विनोबा भावे ने भारतीय चुनाव का चारित्रिक विश्लेषण करते हुए कहा था कि यह अात्म-प्रशंसापरनिंदा व मिथ्या-भाषण का विराट अायोजन होता है. ऐसा कहते हुए क्या उन्हें इसका अंदाजा था कि सत्ता फिसलने का अंदेशा हमारे शासकों को कितना क्रूर व शातिर बन दे सकता है अगर वेअाज होते तो अवाक रह जाते ! दिल्ली के चुनाव प्रचार के दौरान हमने प्रतिदिन भारतीय राजनीतिक वर्ग का नया पतन देखा. भारतीय जनता पार्टी को जब ऐसा लगने लगा कि हिंदुत्व की सामान्य अपील,सांप्रदायिकता अौर मंदिर अौर पाकिस्तान का खतरा अादि पत्ते काम नहीं कर रहे हैं तो उसके शीर्ष नेतृत्वने घृणा फैलाने के हर संभव उपाय किए. चुनाव जीतने के लिए कभीकिसी दल ने सार्वजनिक जीवन में कभी इतना जहर नहीं घोला होगा जितना इस बार घोला गया. गंदी भाषागंदे इरादे अौर गंदे संकेत सब इस्तेमाल किए गये. हमने शर्म व क्षोभ से देखा कि यह सब ऊपर से परोसा जा रहा थानीचे से तोबस उसकी भद्दी नकल की जा रही थी.  अपनी राजनीतिक पार्टी काराष्ट्रीय चुनाव प्रक्रिया काचुनाव अायोग का इतना सारा पतन अायोजित कराने बाद भी जनता पार्टी के हाथ क्या लगा जैसे तेवर दिखाए जा रहे हैं कि पिछली बार से इस बार दूनी से ज्यादा सीटें हमें मिलीं हैंउसमें यह राजनतिकसच्चाई छुपाई जा रही है कि 62 के सामने 3 भी अौर 8 भी समान रूप से निरर्थक हैं. ठीक वैसे ही जैसे लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के 303 सांसदों के सामने कांग्रेस के 52 सांसद अर्थहीन हो जाते हैं. अाखिर तो “ जम्हूरियत वो तर्जे-हुकूमत है कि जिसमें / बंदों को गिनते हैं तौला नहीं करते !” मतलबयह कि भारतीय जनता पार्टी समेत विपक्ष अब तक जैसी भूमिका अदा करता आया है वैसी ही करता रहेगा तो वह अौर भी तेजी से संदर्भहीन होता जाएगा. संकट सिर्फ कांग्रेस का ही नहींसमस्त लोकतांत्रिक विपक्ष का है. उसे चालचेहरा अौर चरित्र तीनों बदलने की अत्यांतिक जरूरत है. 

 भारतीय जनता पार्टी के इस अौर ऐसे अभियान का मुकाबला करने में अाम अादमी पार्टी ने ज्यादा राजनीतिक चतुराई व ज्यादा राजनीतिक संयम दिखलाया. न हमेंन अाम अादमी पार्टी को इस मुगालते में रहना चाहिए कि वह राजनीति का कोई नया चेहरा गढ़ रही है. यह नया मुखौटा है जो काम अागया. मुखौटा चेहरा नहीं होता हैअौर इसलिए असली नहीं होता है. हमने एक मुखौटा 2014 में देखा जो 2019 अाते-अाते काफी बदरंग हो चुका है. यह दूसरा भी तो चेहरा नहींमुखौटा ही है ! अौर जब मैं यह लिख रहा हूं तब मुझे यह भी लिखना चाहिए कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने भी चाह-अनचाहे एकमुखौटा गढ़ा है जो इस बार काम कर गया! यह अच्छी व ईमानदार राजनीति होती कि अाप व कांग्रेस किसी गठबंधन का स्वरूप तैयार करते अौर एक-दूसरे को मजबूत करते हुए चुनाव में उतरते. ऐसा हुअा होता तो भारतीय जनता पार्टी की राह अौर भी कठिन हो जाती. लेकिन ऐसी राजनीतिक दूरदर्शिता अौरनये प्रयोगों का खतरा उठाने का साहस रखने वाला नेतृत्व कांग्रेस के पास नहीं है. कांग्रेस ने नाहक ही अपना बहुत सारा धन व जन बर्बाद किया. लेकिन उसने कहीं यह राजनीतिक सावधानी रखी कि जो लड़ाई उससे सध नहीं पा रही हैउसे ज्यादा सुनियोजित ढंग से लड़ने में अाप की मदद हो जाए. पिछलीबार भी कांग्रेस अपना खाता नहीं खोल पाई थीइस बार भी नहीं खोल पाई. लेकिन शून्य में से उसने कुछ ऐसा रचा जरूर है जो अागे की राजनीति में उसके काम अाएगा. लोकतंत्र में यह समझदारी बहुत जरूरी है कि अाप दोस्त व दुश्मनदो ही चश्मे से संसार को न देखें. 

 अाप ने अपने अापको मुश्किल में डाल लिया है. वह चाहे कि न चाहेअाज की जीत कल की पराजय में न बदल जाएइसके लिए उसे अाज अौर अभी से जाग जाना होगा. गाल बजाने से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है काम करना! काम दीखता भी है अौर बोलता भी है. वह बोला भी है. लेकिन वह यहखतरा भी रच गया है कि काम रुका तो अाप भी रुका ! यह अासान नहीं होगा अरविंद केजरीवाल अौर उनकी टीम के लिए कि अाप का अापा बनाए रखा जाए. अाप की सबसे बड़ी ताकत यह रही कि वह जरूरतमंद तबकों तक अपना काम ले कर पहुंची अौर अधूरी सत्ता व केंद्र की तमाम अड़चनों को पारकरती हुई काम करती रही. इसने ही उसके लिए वोट जुटाया. वह तेवर अौर वह समर्पण बनाए रखना पहली अौर अंतिम चुनौती है. अौर यह सभी सत्ताधारी पार्टियों के लिए 2020 कादिल्ली का संदेश है : काम करोवह बोलेगा ! अाप ने काम का वह दलदल बनाया है जो किसी को भीकभी भीकहीं भीनिगल लेगा. ( 14.02.2020)