Saturday 30 June 2018

छेड़ें शांति का युद्ध



अभी ईद हुई ही थी अौर ईदी की खुशी तारी भी नहीं हो पाई थी कि अब कोई दुष्यंत कुमार कहीं जिंदा नहीं हैं कि जो कहें कि कैसे-कैसे मंजर सामने अाने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं. अब तो अखबारों-चैनलों के सुरक्षित, वातानुकूलित कमरों में बैठ कर सरकार-फौज-सुरक्षा बलों को ललकारते एंकरों-पत्रकारों की अावाजें ही हैं कि जो माहौल को किसी भी हद तक अश्लील बनाने से गुरेज नहीं करती हैं; उतनी ही अश्लीलता गृहमंत्री की उस शातिर हंसी में भी थी कि जब वे युद्धविराम खत्म होगा कि जारी रहेगा जैसे प्रश्न के जबाव में इतना कह कर निकल जा रहे थे कि इसका जवाब मैं कल दूंगा ! शांति की संभावना वाले ये कुछ दिन सब पर इतने भारी पड़ रहे थे कि जैसे सांस घुटती जा रही हो. अब फिर वही कश्मीर है, वही खूनी, वहशी लोगों का जमावड़ा है. मारते-मरते फौजी हैं; मरते-मारते नागरिक हैं. नया कुछ भी नहीं है. जिंदा लोगों को गोलियां अौर जांबाज जवानों को पत्थरों की बारिश जब लाशों में बदलती है तब किसी भी तरह की संभावना जन्म नहीं लेती है. मौत हमेशा बंजर होती है फिर वह चाहे व्यक्ति की हो या समाज की या राष्ट्र की ! 

ये अपने लोग हैं या दुश्मन ? अगर दुश्मन हैं तब यह गंदा, कमजोर युद्ध क्यों, इससे बड़ी विनाशक ताकत से यह खेल खत्म क्यों नहीं करते ? ७० सालों से मार-मार कर भी जिन्हें हम मार नहीं पाये हैं, वे या तो मारने लायक ही नहीं है या फिर हम जीने लायक नहीं हैं. ऐसे मंजर में हम अपनी जिस नई पीढ़ी का लालन-पालन कर रहे हैं, चाहे कश्मीर में हो कि कन्याकुमारी में, उसके मन में इंसानी जान, नागरिक के सम्मान, लोकतंत्र की मर्यादा अादि के बारे में कैसा भाव जड़ जमा रहा होगा ? जवाब नहीं है मेरे पास लेकिन हालात जवाब दे रहे हैं जिसे मैं भी देख-सुन रहा हूं अौर अाप भी. 

कहा जा रहा है कि युद्धविराम की यह पहल ही गलत थी. कहा जा रहा है कि ऐसा करके अापने दुश्मन को सज्जित होने का अवसर दे दिया; कहा जा रहा है कि हमारी ऐसी कमजोरी का फायदा घुसपैठियों ने उठाया; कहा जा रहा है कि इस दौरान अातंकी हमले बढ़ गये; कि इसी का फायदा उठा कर पत्रकार-संपादक शुजात बुखारी की हत्या की गई; कि इसी युद्धविराम से शह पा कर फौजी अौरंगजेब अौर विकास गुरुंग की नृशंस हत्या की गई. कहा जा रहा है कि युद्धविराम की इसी कायरता से उत्साहित युवाअों ने अाखिरी दिनों में श्रीनगर, बारामूला, सोपोर, अनंतनाग अौर कुपवारा में भयंकर पत्थरबाजी की.  मैं बगैर किसी प्रतिवाद के यह सब स्वीकार करता हूं. मुझे अगर कुछ कहना है तो सिर्फ इतना कि यह सब जो हुअा, क्या यही सब पहले भी नहीं होता रहा है ? पत्थरबाजी से हमारी सेना कब बेहाल नहीं रही है ? क्या शुजात बुखारी जैसे शानदार पत्रकारों को पहले भी नहीं मारा गया है ? इस वर्ष युद्धविराम से पहले तक ६० अौर पिछले साल भर में १२४ घुसपैठिये मारे गये थे. मतलब यह कि कम या अधिक संख्या में घुसपैठ की कोशिश करना, उस कोशिश में मारे जाना अौर फिर भी जिसकी सींग जिधर समाये उधर घुस जाना वहां की सामान्य वारदात है. कभी हमें यह भी तो बताया जाए कि इसी अवधि में हमारे कितने जवान मारे गये? जिसे अाप सर्जिकल स्ट्राइक कहते हैं, उसके बाद से अब तक जवानों को रोज-रोज जिस तरह मारा जा रहा , वैसा तो पहले कभी नहीं था. सच, कश्मीर की हालत बहुत बुरी है. जीवनरक्षक मशीनों के भरोसे ही जब मरीज जिंदा रखा जाता है तब उसका जीना मौत से भी बुरा होता है. कश्मीर की हालत वैसी ही है. 

युद्धविराम कोई हथियार नहीं है, न जादू की छड़ी है. यह शांति के प्रति हमारी प्रतिबद्धता है. यह अापको विकल्प खोजने का मौका देता है, उसका वातावरण देता है अौर यह संभावना पैदा करता है कि सामने वाला भी इसी भाषा में जवाब देगा. यदि मन सच्चा है, तो फिर अाप इसे सफलता तक पहुंचाने का रास्ता खोजने लगते हैं. समाज में संवाद की प्रक्रिया तेज करते हैं, समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने का काम तेजी से चल पड़ता है. अाप सावधानी से वे सारी राजनीतिक डोरियां ढीली करने लगते हैं जिनसे लोगों का गला घुटा जाता है. इनमें से हमने क्या-क्या किया ? कुछ भी नहीं ! हमने तो यह भी नहीं किया कि युद्धविराम खत्म करने से पहले कश्मीर में व्यापक विमर्श चलाया, अौर सबकी रजामंदी से भले न हो लेकिन सबको बता कर युद्धविराम समाप्त किया. दिल्ली जब तक राजकीय घोषणाअों वाला अपना तेवर बदलती नहीं है, हमारे संघीय ढांचे को संभालना कठिनतर होता जाएगा. 

युद्धविराम की बात है तो दूर नहीं, पड़ोस के अफगानिस्तान को देखिए. वहां तालीबानी अातंकी सरकार से युद्ध कर रहे हैं. हमारी तरह ही मरने-मारने का अंतहीन सिलसिला है. वहां भी ईद को केंद्र में रख कर तीन दिनों का युद्धविराम किया गया था. अौर उन तीन दिनों में जैसे सारे बंधन खुल गये थे. सीमा पर अपने हथियार जमा करवा कर, निहत्थे तालीबानी अातंकी अफगानिस्तान में दाखिल होते गये अौर सड़कों पर जाम लग गया. हर कोई गले लग रहा था, एक-दूसरे को बांहों में भर रहा था. काबुल पुलिस को इन तीन दिनों में कहीं हस्तक्षेप नहीं करना पड़ा. काबुल के ‘राजनाथ सिंह’ वाइस अहमद बरमाक खुद जा कर तालीबानी अातंकियों से मिले अौर युद्धविराम के दौरान नि:शंक काबुल अाने का अामंत्रण दिया. कितनी ही खूनी वारदातों का गवाह रहा कुंदुज शहर का मुख्य चौराहा गले लगने अौर लगाने की उष्मा से भरा था. जाबुल की कॉलेज का युवा क्वैस लिलवाल कहता है, “ ऐसी शांत ईद तो कभी देखी ही नहीं थी. यह पहली बार ही था कि मैं खुद को एकदम महफूज पा रहा था. मैं इस खुशी को बयान नहीं कर सकता.” सीमा के दोनों तरफ से लोगों ने अपील की है कि यह युद्धविराम अौर अागे बढ़ाया जाए. 


जैसे युद्ध की एक कीमत होती है, शांति की भी एक कीमत होती ही है. वह मुफ्त में, प्लेट पर रखी नहीं मिलती है. जो समाज शांति की कीमत चुकाने लायक हिम्मत जुटाता है, वह अपनी संभावनाअों का दरवाजा बड़ा करता है. अापने एक बार वह दरवाजा खोला तो पूरी कायनात उसे बड़ा व स्थाई करने में जुट जाती है. जो दरवाजे बंद रखते हैं उनके दरवाजों पर सिर्फ मौत व विनाश ही दस्तक देते हैं. हम हिम्मत के साथ अपने कश्मीर का दरवाजा खोलें, इसके अलावा कोई िवकल्प है नहीं. ( 18.06.2018)  

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