Saturday 30 June 2018

महात्मा गांधी की इतनी याद क्यों अाती है राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को



उन्होंने तो कहा ही था कि वे मर कर भी चुप नहीं रहेंगे बल्कि अपनी कब्र में से भी अावाज लगाते रहेंगे; हमने भी तै किया है कि बिरला भवन में उन्हें गोली मारने अौर राजघाट पर उनका अग्निदाह कर देने के बाद भी हम उन्हें शांति से रहने नहीं देंगे ! महात्मा गांधी कुछ ऐसी ही किस्मत लेकर अाए थे. अब तो 4 साल से भी अधिक हुए कि राजधानी दिल्ली में तथा अधिकांश राज्यों में सरकार उनकी है जो जुमलेबाजी की कलाबाजी में कभी गांधी के साथ हों तो हों, भाव में गांधी के धुर विरोधी अौर अास्था में गांधी से एकदम विपरीत रहे हैं, अौर हैं. तो अब तो ऐसा होना चाहिए था कि गांधी को हाशिये पर डाल दिया जाए. लेकिन हो यह रहा है कि भले उनके हाथ में झाड़ू पकड़ा कर, उन्हें अपनी कल्पना की किसी ‘स्मार्ट सिटी’ की सड़क किनारे खड़ा कर दिया गया हो, किसी-न-किसी बहाने उन्हें बीच बहस में ला कर खड़ा किया जाता है ताकि कहा जा सके कि जो हो रहा है अौर जो होगा सबकी सम्मति गांधी से पहले ही ली जा चुकी है. इस अादमी के साथ ऐसा खेल इतिहास पहली बार नहीं खेल रहा है. दक्षिण अफ्रीका से 1915 में लौटने के बाद से 30 जनवरी1948 को हमारी गोली खा कर गिरने तक वे सारे लोग, जो गांधी से असहमत रहे, उनके विरोधी रहे, उनसे अपनी दुश्मनी मानते रहे वे सब भी कोशिश यही करते रहे, यही चाहते रहे कि गांधी को खारिज करने की स्वीकृति भी उन्हें गांधी से ही मिले. 

अभी-अभी उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी ऐसा ही किया. नानाजी देशमुख स्मृति व्याख्यानमाला में बोलते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का बचाव किया अौर कहा कि संघ के मूल्यों, अादर्शों अौर इसकी कार्यप्रणाली को तो महात्मा गांधी की स्वीकृति प्राप्त है ! संघ-परिवार के किसी भी व्यक्ति के लिए इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना इतना ही अासान होता है, क्योंकि उनका अपना कोई इतिहास है ही नहीं. िजनके इतिहास नहीं होते हैं, उनका वर्तमान से रिश्ता हमेशा जीभ भर का होता है. पूरा संघ-परिवार अाज इसी त्रासदी से गुजर रहा है. 

उप-राष्ट्रपति ने जो कहा वह कोई भोली टिप्पणी नहीं है, संघ-परिवार की सोची-समझी, लंबे समय से चलाई जा रही रणनीति है. अगर संघ-परिवार ईमानदार होता, अात्मविश्वास से भरा होता तो उसे करना तो इतना ही चाहिए था कि गांधी गलत थे, देश-समाज के लिए अभिशाप थे यह कह कर उन्हें खारिज कर देता अौर अपनी सही, सर्वमंगलकारी विचारधारा तथा कार्यधारा ले कर अागे चल पड़ता. लेकिन सारी परेशानी यहीं है कि वह जानता है कि वह जो कहता है अौर करता है वह गलत अौर अमंगलकारी है. इस गलत व अमंगलकारी चेहरे पर  गांधी का पर्दा उसे चाहिए क्योंकि भारतीय समाज अाज भी महात्मा गांधी को ही मानक मानता है, किसी सावरकर या गोलवलकर को नहीं. 

अाज विवाद फिर से उठा है, क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 7 जून 2018 के अपने विशेष कार्यक्रम में, अपने स्वंयसेवकों को संबोधित करने के लिए नागपुर बुलाया है. प्रणव मुखर्जी ने यह अामंत्रण स्वीकार भी कर लिया है अौर 7 जून की तारीख निकट अाती जा रही है. कांग्रेस की पेशानी पर बल पड़े हैं तो विपक्ष को यह समझ में नहीं अा रहा है कि वह इस मामले में कहां, किसके साथ खड़ा हो. जब सारे देश में संघ-परिवार के खिलाफ माहौल बना हुअा है, कांग्रेस ने अपना सीधा मोर्चा खोल रखा है, पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी सांप्रदायिकता को जड़ से उखाड़ फेंकने का अाह्वान करते सारे देश में घूम रहे हैं, विपक्ष साथ भी अा रहा है अौर एक अावाज में बोल भी रहा है, मतदाता जगह-जगह संघ-परिवार की खटिया खड़ी कर रहा है, ऐसे में प्रणव दा का संघ-परिवार के मातृ-स्थल पर मेहमान बन कर जाना कांग्रेस के लिए भी अौर सारे विपक्ष के लिए भी एक बड़ा झटका साबित हो सकता है. सवाल प्रणव मुखर्जी नाम के एक व्यक्ति का नहीं है बल्कि सांप्रदायिकता के दर्शन से संघर्ष के उस पूरे इतिहास का है, जिसके प्रणव मुखर्जी किसी हद तक प्रतीक हैं. वह इतिहास नागपुर जा कर कहीं शरणागत न हो जाए, इसकी अाशंका है, अौर असत्य को सत्य का जामा पहनाने में सिद्धहस्त संघ-परिवार के हाथ में एक नया हथियार न अा जाए, इसकी कुशंका है. अाखिरकार कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताअों ने कह ही दिया कि अाजन्म कांग्रेसी रहे तथा हमेशा संघ-परिवार की अालोचना करने वाले प्रणव दा को नागपुर नहीं जाना चाहिए. अब संघ-परिवार को डर यह सता रहा है कि ऐसे दवाब में अा कर कहीं प्रणव दा अपना कार्यक्रम न रद्द कर दें. इसलिए महात्मा गांधी को प्रणव दा की नागपुर यात्रा के समर्थन में ला खड़ा किया गया है. लेकिन इस मामले में इतिहास कहां खड़ा है, यह भी हम देखेंगे या नहीं ? 

महात्मा गांधी किसी भी प्रकार की संकीर्णता के खिलाफ लड़ने वाले सदी के सबसे बड़े योद्धा थे, अौर अाज भी सारी दुनिया में फैले अमनपसंद, उद्दात्त मानस के लोग उनसे प्रेरणा पाते हैं. यह सोचना व समझना असंभव है कि दुनिया जिसे पिछली शताब्दी में पैदा हुअा सबसे बड़ा इंसान मानती है वह सबसे कमजोर, दलित, अल्पसंख्यक, उपेक्षित, अौरत अौर अपमानित जमातों के खिलाफ किसी के साथ, किसी भी स्थिति में खड़ा होगा. लेकिन संघ-परिवार उसकी ऐसी छवि पेश कर अपने लिए वैधता पाना चाहता है. इसलिए जरूरी हो जाता है कि जब-जब असत्य का ऐसा घटाटोप रचा जाए तब-तब सत्य को लोगों के सामने उजागर किया जाए. इसलिए थोड़ी-सी बातें. 

महात्मा गांधी इतिहास के उन थोड़े से लोगों में एक हैं जिन्होंने अपने मन, वचन अौर कर्म में ऐसी एकरूपता साध रखी थी कि किसी भ्रम या अस्पष्टता की गुंजाइश बची नहीं रहे बशर्ते कि अाप ही कुछ मलिन मन से इतिहास के पन्ने न पलट रहे हों. सांप्रदायिक हिंसावादियों अौर हिंसक क्रांतिकारियों से उनका सामना लगातार होता रहा अौर उन व्यक्तियों का पूरा मान रखते हुए भी उन्होंने उनकी विचारधारा को बड़ी कड़ाई अौर सफाई से खंडित किया. 

अारएसएस का सीधा संदर्भ लेते हुए गांधी ने कुछ कहा है, तो वैसा पहला जिक्र 9 अगस्त1942 को मिलता है जब तत्कालीन दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष अासफ अली उन्हें संघ की शिकायत करने वाला एक पत्र भेजते हैं. 9 अगस्त, 1942 के ‘हरिजन’ में (पृष्ठ 261) गांधीजी लिखते हैं : “ शिकायती पत्र उर्दू में है. उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके 3,000 सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- ‘पहले अंग्रेजों को निकाल बाहर करो, उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे. अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे.’ बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसी ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है. नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते. इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है. आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा, और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा. धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं. जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे. अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता. वह स्वराज्य नहीं होगा.”  हम गौर करें कि यहां गांधीजी हिंदुत्व के पूरे दर्शन को िसरे से खारिज करते हैं, अौर यह भी बता देते हैं कि हर संगठित धर्म के बारे में उनकी भूमिका ऐसी ही है. संख्या या संगठन बल के अाधार पर कोई भी धर्म अाजाद हिंदुस्तान का भाग्यविधाता नहीं होगा बल्कि जनता द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधि ही भारत का विधान बनाएंगे व चलाएंगे, यह अवधारणा भारत के अाजाद होने, संविधान सभा बनने अौर संविधान बनाने से काफी पहले ही उन्होंने कलमबद्ध कर दी थी. 

लेकिन सांप्रदायिकता का उन्माद जगा कर सत्ता की राजनीति का खेल तब शुरू हुअा जब दो राष्ट्रों का सिद्धांत सामने रखा गया अौर उसे बड़े शातिर तरीके से सारे देश में फैलाया जाने लगा. इसके बाद से मारे जाने तक हम गांधी को सांप्रदायिक व राजनीतिक हिंसा के कुचक्र के बीच से अाजादी की लड़ाई  को निकाल ले जाने का दुर्धर्ष व करुण संघर्ष करते पाते हैं. सबसे पहले यह जहर सावरकर बोते हैं अौर फिर मुस्लिम लीग के सभी बड़े-छोटे नेतागण, मुहम्मद इकबाल अादि उसमें खाद-पानी पटाते हैं अौर जिन्ना उसकी फसल काटते हैं. कांग्रेस के कई नेताअों ने भी इस अाग में घी डालने की कायर कोशिश की है. लेकिन सभी यह जानते हैं कि महात्मा गांधी अपनी अंतिम सांस तक इससे असहमत हैं, रहेंगे अौर लड़ते भी रहेंगे. इसलिए इस पूरे दौर में प्रत्यक्ष व परोक्ष गांधी इन सबके िनशाने पर रहे हैं; अौर गांधी भी अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगा कर इन्हें ललकारते अौर इनसे दो-दो हाथ करते हमें मिलते हैं.

  फिर हमें 16 सितंबर 1947 का प्रसंग मिलता है जब अारएसएस के दिल्ली प्रांत प्रचारक वसंतराव अोक महात्मा गांधी को भंगी बस्ती की अपनी शाखा में बुला ले जाते हैं. यह पहला अौर अंतिम अवसर है कि गांधी संघ की किसी शाखा में जाते हैं. विरोधी हो या विपक्षी, गांधी किसी से भी संवाद बनाने का कोई मौका कभी छोड़ते नहीं हैं. वसंतराव ओक का अामंत्रण भी वे इसी भाव से स्वीकारते हैं. अपने स्वंयसेवकों से गांधीजी का परिचय कराते हुए मेजबान उन्हें  ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ कहते हैं. गांधीजी को तब ऐसे किसी परिचय की जरूरत ही नहीं थी लेकिन ऐसा परिचय दे कर संघ उन्हें अपनी सुविधा व रणनीति के एक निश्चित खांचे में डाल देना चाहता था. गांधीजी ऐसे क्षुद्र खेलों को पहचानते भी हैं अौर उनका जवाब देने से कभी चूकते नहीं हैं. महात्मा गांधी के अंतिम काल का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज लिखा है उनके अंतिम सचिव प्यारेलाल ने. अपनी इस अप्रतिम पुस्तक ‘ पूर्णाहुति’ ( मूल अंग्रेजी ग्रंथ का नाम ‘ लास्ट फेज’ है ) में इस प्रसंग को दर्ज करते हुए प्यारेलाल लिखते हैं कि गांधीजी ने अपने जवाबी संबोधन में कहा : ‘मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है, लेकिन मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी. हिंदू धर्म की विशिष्टता, जैसा मैंने उसे समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है. अगर हिंदू यह मानते हों कि भारत में अ-हिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दर्जे से संतोष करना होगा तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही है कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है, तो उसका परिणाम बुरा होगा।’ यहां गांधी दो बातें साफ करते हैं : वे संघ मार्का हिंदुत्व को हिंदू धर्म मानने को तैयार नहीं हैं, वे उससे खुद को जोड़े जाने से सर्वथा इंकार करते हैं अौर यह चेतावनी भी देते हैं कि संघ जिस दिशा में जा रहा है वह हिंदू धर्म विरोधी दिशा है अौर इस कोशिश का परिणाम बुरा होगा. अागे वे कहते हैं : ‘ कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली से संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आई हैं. गुरुजी ने मुझे बताया कि वे संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते लेकिन संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र है, किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाना नहीं. उन्होंने मुझे बताया कि संघ आक्रमण में विश्वास नहीं रखता है हालांकि अहिंसा में भी उसका विश्वास नहीं है.’ यहां गांधीजी फिर सावधानीपूर्वक गोलवलकरजी से हुई अपनी बातचीत का सार सार्वजनिक कर देते हैं ताकि वे या संघ उससे मुकर न सकें तथा संघ के उस वैचारिक क्षद्म को भी उजागर कर देते हैं जिसमें बात तो गहरे अनुशासन की की जाती है लेकिन अपने सदस्यों के अाचरण की जिम्मेवारी नहीं ली जाती. वे तभी-के-तभी यह भी जता देते हैं कि अगर अाप अहिंसा में विश्वास नहीं रखते हैं तो लड़ाई में हिंसा अौर अाक्रमण के अलावा विकल्प ही क्या है ? 

उस दिन गांधीजी से कुछ ऐसे सवाल पूछे गये जो संघ का वैचारिक अधिष्ठान बनाते अाए हैं.  इनसे संघ की दुविधा खुल कर सामने अा गई अौर गांधीजी को अपनी भूमिका स्पष्ट करने का अनायास ही मौका मिल गया. पूछा गया कि ‘गीता’ के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण कौरवों का नाश करने का जो उपदेश देते हैं, उसकी व्याख्या अाप कैसे करेंगे? गांधीजी ने कहा, ‘ हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है? दूसरे शब्दों में कहूं तो हमें दोषी को सजा देने का अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं.  एक पापी दूसरे पापी का न्याय करे या उसे फांसी पर लटकाने का अधिकारी हो जाए, यह कैसे माना जा सकता है ! अगर यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो उस अधिकार का इस्तेमाल कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही कर सकती है न ! आप ही न्यायाधीश और अाप ही जल्लाद, ऐसा होगा तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे. अाप उन्हें अपनी सेवा करने का अवसर दीजिए. कानून को अपने हाथ में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए.’ (संपूर्ण गांधी वांड्ंमय, खंड: 89) यहां गांधी ईसा की उस अपूर्व उक्ति पर अपनी मुहर लगाते हैं कि पहला पत्थर वह मारे जिसने कोई पाप न किया हो. फिर वे यह भी रेखांिकत करते हैं कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को पूरा मौका देना चाहिए कि वह सार्वजनिक विवादों का रास्ता खोजे. साफ मन से कोई भी खोजेगा तो उसे इन सारे कथनों में संघ की बुनियादी अवधारणाअों की काट मिलेगी. इसमें संघ को बदनाम करने या उसे कठघरे में खड़ा करने की बात नहीं है बल्कि अपनी गलतियों को सुधारने की बात है. गांधीजी की बातों में अालोचना का दंश नहीं, रचनात्मक सहायता का भाव ही भरा होता था.
   
प्यारेलालजी लिखते हैं कि भंगी बस्ती की शाखा से लौटने के बाद गांधीजी के साथ उनके साथियों की बात हो रही है तो एक साथी कहता है कि संघ में गजब का अनुशासन है. थोड़ी कड़ी अावाज में, छूटते ही गांधी कहते हैं, “ लेकिन हिटलर के नाजियों में और मुसोलिनी के फासिस्टों में भी ऐसा ही अनुशासन नहीं है क्या ?” गांधी साफ कर देना चाहते हैं कि अनुशासन अपने-अाप में कोई मूल्यवान गुण नहीं है अगर अनुशासन क्यों अौर कैसे स्थापित किया जा रहा है, इसकी विवेकसम्मत विवेचना न की जाए. हम न भूलें कि इसी हिंदुस्तान ने 1975-77 में अापातकाल का वह नारा भुगता था जो कड़े अनुशासन की बात करता था. जनता का विवेक अौर उसकी स्वतंत्रता का हनन करने वाले सबसे पहले इसी अनुशासन का गुणगान करते हैं. प्यारेलालजी उस दिन गांधीजी की बातों का भाव शब्दबद्ध करते हुए लिखते हैं कि ‘उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया.

अारएसएस का दूसरा सीधा प्रसंग हमें 21 सितंबर, 1947 को उनके प्रार्थना-प्रवचन में मिलता है जहां गांधीजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरु गोलवलकर से अपनी और डॉ. दिनशा मेहता की बातचीत का जिक्र करते हुए कहते हैं कि मैंने गुरुजी से कहा कि मैंने सुना है कि इस संस्था के हाथ भी खून से सने हुए हैं. गुरुजी ने मुझे विश्वास दिलाया कि यह बात झूठ है. उन्होंने कहा कि उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है.  उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहीं है. वह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती है. उसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है. गुरुजी ने मुझसे यह भी कहा कि मैं उनके विचारों को सार्वजनिक कर दूं. गुरुजी की बातें सार्वजनिक करने से समाज को गुरुजी अौर अारएसएस को जांचने का क ऐसा अाधार मिल गया जो अाज तक काम अाता है. अागे गांधीजी एक दूसरा अहिंसक हथियार भी काम में लेते हैं. वे यह कह कर संघ के कंधों पर एक बड़ी नैतिक जिम्मेवारी डाल देते हैं कि संघ के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैं, उन्हें अपने अाचरण व काम से गलत साबित करने की जिम्मेवारी संघ की है. मतलब यह कि वे उन अारोपों को खारिज नहीं करते हैं,संघ को उससे बरी नहीं करते हैं बल्कि संघ से ही कहते हैं कि वह अपने को निर्दोष साबित करे. 


अारएसएस अाज तक अपनी कथनी व करनी द्वारा अपने कंधों पर रखा वह नैतिक बोझ उतार नहीं पाया है. गांधी किसी बेताल की तरह अारएसएस के कंधों पर सवार हैं अौर इसलिए वह लौट-लौट कर किसी चालबाजी से गांधी को अपने कंधों से झटकना चाहता है. लेकिन सत्य सिर्फ सत्य से ही काटा जा सकता है, चालाकी या दगाबाजी से नहीं, यह वेद-सत्य वह भूल जाता है. क्या पता, प्रणव मुखर्जी ही उसे यह फिर से याद दिला दें !  (03.06.2018 )   

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