Monday 27 January 2020

राष्ट्रपति ने कहा है …

          दिनों के बादशायद वर्षों बादहमारे राष्ट्रपति ने हमसे कुछ कहा है ! हमारे गणतांत्रिक संविधान में राष्ट्रपति की जैसी परिकल्पना हैअौर संविधान जैसी भूमिका में उसे देखना चाहता है कुछ वैसी भूमिका इस बार राष्ट्रपति ने निभाई है. लेकिन मैं बात यहां से अागे बढ़ाऊंइससे पहले यह साफ करता चलूं कि मैं जिस राष्ट्रपति की बात कर रहा हूंवे वर्तमान नहींपूर्व राष्ट्रपति हैंअौर देश में अभी एक ही पूर्व राष्ट्रपति जीवित हैं - प्रणव मुखर्जी ! प्रणव मुखर्जी जब तक सक्रिय दलीय राजनीति में थेसत्ता के ऊंचे पदों के अाकांक्षी भी थे अौर वे उन्हें हासिल भी थेतब तक उनके बारे में अलग से कहने लायक कोई खास बात मेरे पास नहीं है. लेकिन राष्ट्रपति भवन से निकलने के बादबाजवक्त वे ऐसी बातें कहते रहे हैं कि जो राहत भी देती रही है अौर रास्ता भी बताती है. अभी-अभी ऐसा ही प्रसंग बना जब वे चुनाव अायोग द्वारा अपने पहले मुख्य चुनाव अायुक्त सुकुमार सेन की स्मृति में शुरू की गई व्याख्यानमाला का पहला व्याख्यान दे रहे थे. उस व्याख्यान में प्रणव मुखर्जी ने बहुत कुछ ऐसा कहा कि जिसे कहनेसमझने अौर बरतने की जैसी जरूरत अाज है वैसी पहले कभी नहीं थी. ऐसा इसलिए कि भारतीय लोकतंत्र पहले कभी ऐसे अलोकतांत्रिक रेगिस्तान से गुजरा नहीं था जिससे अाज गुजर रहा है. अाज देश में बमुश्किल ऐसी कोई लोकतांत्रिक छांव बची है कि जिसके तले सांस ली जा सके.

              जब देश की लोकतांत्रिक सांस उखड़ने पर हो,सारा देश संविधान की किताब ले कर सड़कों पर उतरा हुअा हो अौर गुहार लगा रहा हो कि हमारा दम टूट जाए इससे पहले हमारे साथ इस किताब को पढ़ोतब संविधान के संरक्षण की रोटी तोड़ने वाली न्यायपालिका देश से कहे कि चार सप्ताह तक जिंदा रह सकते हो तो रहो वरना खुदा हाफिजऐसे गाढ़े वक्त में किसी राष्ट्रपति का यह कहना कि ऐसे जनांदोलनों से ही लोकतंत्र प्राणवान व अर्थवान बनता हैताजा हवा के झोंके की तरह है. तोहमतोंधमकियोंगालियोंचालों- कुचालों के इस अंधे दौर में कोई तो यह फिक्र करे कि देश दलों से कहीं बड़ा अौर अापकी या उनकी सत्ता से कहीं ऊपर है ! लोकतंत्र में तंत्र का काम ही है कि वह लोक के अनुकूल बने या लोक को अनुकूल बनाए लेकिन लोक का दमन-मर्दन किसी भी तरहकिसी भी हाल में लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं है. ‘ हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे’, यह लोकतंत्र की भाषा नहीं है;  लोकतंत्र की भाषा तो होगी - हम एक इंच भी अागे नहीं बढ़ेंगे जब तक अापको साथ नहीं ले लेंगे.’ इसलिए राष्ट्रपति ने कहा कि सुननाविमर्श करनाबहस करनातर्क-वितर्क करना अौर यहां तक कि असहमत होना- यही वह खाद है जिस पर लोकतंत्र की फसल लहलहाती है. अौर फिर किसी को कोई भ्रम न रह जाए इसलिए राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि देश का युवा भारतीय संविधान में भरोसा जता रहा है अौर उसकी हिमायत में रास्तों पर अाया हैयह कलेजा चौड़ा करने जैसी बात है. वे कहते गये : “ भारतीय लोकतंत्र की कई बार परीक्षा हुई है. पिछले कुछ महीनों से हम देख रहे हैं कि लोग,खास कर युवा,अपनी बातें कहने के लिए बड़ी संख्या में सड़कों पर निकल अाए हैं. इनकी राय सुनना बहुत जरूरी है. अाम सहमति ही तो लोकतंत्र की अात्मा है. मुझे लगता है कि अाज सारे देश को अपने दायरे में ले लेने वाला जो अधिकांशत: शांतिपूर्ण प्रतिरोध चल रहा हैइससे लोकतंत्र की जड़ें अौर भी गहराई में जाएंगी.

                सारा सवाल यही है कि लोकतंत्र की अापकी समझ क्या है क्या यह सीटें जीतने अौर कुर्सियों पर पहुंचने का खेल मात्र है ?  अगर लोकतंत्र इतना ही है तब तो हमें इसकी फिक्र करने की जरूरत नहीं है कि कौन कैसे जीता है अौर कुर्सी पर बैठ कर कौनक्या कर रहा है. फिर तो यह खुला खेल फरुख्खाबादी है. लेकिन लोकतंत्र की अात्मा यदि यह है कि वह सर्वाधिक सहमति से चलाया जाने वाला वह तंत्र है जिसमें जनता की भागीदारी लगातार बढ़ती जानी चाहिए,तो सत्ता में बैठे लोगों को इसकी निरंतर सावधानी रखनी चाहिए अौर सत्ता में उन्हें भेजने वाली जनता को हर वक्त यह कोशिश करनी चाहिए कि लोकतंत्र का दायरा कैसे बढ़ता व फैलता रहे. इसके लिए जरूरी है कि सत्ता का अधिकाधिक विकेंद्रीकरण हो. तब सवाल यह रह जाता है कि सत्ता का मतलब क्या है अौर वहां कौन बैठा है सत्ता का मतलब है निर्णय करने व फैसला सुनाने की शक्ति ! अौर वहां सिर्फ वही नहीं बैठा है कि जो प्रधानमंत्री बना है याकि मंत्रिमंडल का सदस्य है या कि राजनीतिक दलों से ताल्लुक रखता है. हमारे संविधान के मुताबिक सत्ता में त्रिमूर्ति बैठी है - विधायिकाकार्यपालिका अौर न्यायपालिकाअौर अब चौथी मूर्ति है प्रेस ! तो चार ताकतें हैं जो भारतीय संदर्भ में सत्ता का सर्जन करती हैं.  लेकिन इन चारों खंभों की सर्जक भारत की जनता है. वह इन्हें बनाती हैवही इनका मानती है अौर वही इन्हें बदलती व मिटाती भी है. यही जनता जन अांदोलन की जनक भी है अौर इसकी अभिन्न घटक भी. 

            यह बुनियादी बात है - लोकतंत्र का यह वह ककहरा जिसे इन चारों ताकतों को सीखने अौर मानने की जरूरत है. जब सरकार अपनी सत्ता को मजबूत व चुनौतीविहीन करने के लिए सांप्रदायिकता फैला रही होचुनाव में राम मंदिर बनवाने के अदालती अादेश को भुनाने की कोशिश कर रही होसंसदीय बहुमत को तोप की तरह दाग कर लोगों की हर अावाज व अाकांक्षा को ध्वस्त कर रही होसमाज के घटकों को अामने-सामने खड़ा कर रही हो अौर अमर्यादित साधनों के इस्तेमाल से सामूहिक विमर्श को कुंठित कर रही होऐसी असंवैधानिक अापाधापी के दौर में न्यायपालिका न्याय के अपने संवैधानिक दायित्व को भूल कर शांति का राग अलापने लगे तो वह संविधान को विफल करती है. कार्यपालिका जब विधायिका की पिछलग्गू बन कर दुम हिलाने लगती हैतब वह संविधान को धता बताती है. चुनाव अायोग चुनाव के मैदान में उतरे सभी दलों को अगर समान नजर से नहीं देखता है अौर सत्तापक्ष को अपनी तमाम व्यवस्थाअों का बेजा फायदा उठाने देता हैतो वह संविधान को निष्प्रभावी बनाने का अपराध करता है. वे तमाम संवैधानिक संस्थाएं,जो संविधान ने गढ़ी ही इसलिए हैं कि वे हर नाजुक समय पर उसके लिए ढाल बन कर खड़ी होंगीअगर अपनी रीढ़ कभी सीधी ही नहीं करती हैं तो वे संविधान से घात करती हैं. तो मतलब सीधा है कि जब संवैधानिक व्यवस्थाएं घुटने टेकने लगें तब संविधान की जनक जनता को अागे अा कर लोकतंत्र की कमान संभालनी पड़ती है. यही गांधी ने सिखाया थायही जयप्रकाश ने कर के दिखाया था. यही वह जनांदोलन है जिसकी जरूरत राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को दिखलाई पड़ती है. 

           जनांदोलन लोकतंत्र को नया संस्कार देते हैं,नया स्वरूप देते हैंनई परिभाषाएं सिखाते हैंनये लक्ष्यों व नारों से लैस करते हैं. लोकतंत्र के लिए जनांदोलन इंजन का काम करते हैं. वह लोकतंत्र सजीव व सार्थक बना रहता है जो जनांदोलनों को अपनी ताकत बनाना जानता है. कोरे संविधान से चलने वाला लोकतंत्र पुराना पड़ने लगता हैयथास्थिति की ताकतें उसे अप्रभावी बनाने लगती हैं. उसका अाकार भले बड़ा हो जाएउसका अासमान सिकुड़ने लगता है. इसलिए जरूरी है कि उसकी रगों में जनांदोलनों का ताजा खून दौड़ता रहे. लोकतंत्र अौर जनांदोलन का ऐसा गहरा रिश्ता है. जनांदोलन लोकतांत्रिक होअौर लोकतंत्र जनांदोलनों की ताकत से शक्ति व दिशा अर्जित करेऐसा एक समीकरण हमें संपूर्ण क्रांति की उस दिशा में ले जाएगा जिसकी साधना जयप्रकाश ने की थी अौर जिसकी संभावना उन्होंने 74-77 के दौर में दिखलाई थी. नागरिकता के सवाल पर अाज जो जनांदोलन देश की सड़कों पर हैमहीनों से टिका हुअा है अौर लगातार फैल रहा हैउसे इसी नजरिये से देखा व समझा जाना चाहिए. लाखों-लाख लोगसभी उम्र-धर्म-जातियों-भाषाअों के लोग,किसी निजी मांग या लाभ के लिए नहींभारतीय समाज की संरचना का सवाल उठते हुएसंविधान की अात्मा को समझने का संकल्प दोहराते हुएगांधी-अांबेडकर के बीच की समान डोर तलाशते हुए यदि सड़कों पर हैं तो किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का एक ही काम हो सकता हैएक ही काम होना चाहिए कि वह पुलिस व बंदूक अौर दमन की ताकत से नहींविमर्श की मानसिकता के साथ अांदोलनकारियों के साथ सीधी व खुली बात शुरू करे. वह गृहमंत्री कैसे घर चलाएगा जिसे घरवालों के साथ मिलने की हिम्मत नहीं है अौर जो उन्हें दूर से धमकाता है ?  कपड़ों-साफों अौर स्मारकों के नये रंग में अपना नया हिंदुस्तान’ खोजने में खोये प्रधानमंत्री को यह कैसे नहीं दिखाई दे रहा है कि नया हिंदुस्तान’ वहां बन रहा है जहां अनगिनत मुसलमान-ईसाई-सिख-हिंदू-दलितलड़कियां-लड़के अपनी कितनी सारी पुरानी पहचानें परे हटा कर मिल रहे हैं अौर देश व संविधान के अलावा दूसरी कोई बात न कर रहे हैं,न करने दे रहे हैं वे हमारे गणतंत्र के भाल पर नया टीका लगा रहे हैं. यह नया भारत है जो करवट ले रहा है. हमें इसका स्वागत करना चाहिएइसके साथ खड़ा होना चाहिए. यह हम ही नहीं कह रहे हैंराष्ट्रपति भी कह रहे हैं. (27.01.2020)

Tuesday 14 January 2020

हिंसा के जनक

     अावाज सर्वोच्च न्यायालय से अाई है अौर उसे वाणी दी है तीन जजों की बेंच के प्रमुख अौर हमारी न्यायपालिका के प्रमुख एस.ए.बोबडे साहब ने. किन्हीं वकील पुनीत कुमार ढांढा की याचिका थी कि अदालत सीएए को संवैधानिक घोषित करे अौर उसके खिलाफ चल रहे सारे अांदोलन को असंवैधानिक घोषित करे. न्यायमूर्ति बी.अार.गवई अौर सूर्यकांत की तरफ से इस याचिका पर टिप्पणी करते हुए बोबडे साहब ने कहा कि मैं पहली बार ही अदालत से ऐसी कोई मांग सुन रहा हूं जबकि यह तो सर्वविदित है संसद द्वारा पारित हर कानून संवैधानिक होता है. अदालत का काम यह देखना मात्र है कि जो पारित हुअा है वह कानूनसम्मत है या नहीं. देश बहुत नाजुक दौर से गुजर रहा है. ऐसी याचिकाअों से इसे कोई मदद मिलने वाली नहीं है. ऐसी अौर इतनी व्यापक हिंसा फैली हुई है कि सबसे पहले देशव्यापी शांति का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि सीएए की वैधता पर विचार किया जा सके.
      अदालत ने जो कहा वह सही ही कहा लेकिन अधूरा कहा. अाधी या अधूरी बात न न्याय के हित में होती हैन समाज के. देश में हिंसा की यह जो अाग भड़की है अौर दावानल की तरह फैल रही है वह अास्ट्रेलिया के जंगलों में लगी अाग जैसी नहीं है कि जिसके कारणों में जाए बिना भी उसे बुझाया जा सकता है. यह वह सामाजिक अाग है जो अकारण न तो लगती है अौर न बेवजह फैलती है. यह योजनापूर्वक भड़काई गई है अौर जिसके दावानल बनते जाने में किसी को अपना राजनीतिक फायदा दीख रहा है. इसलिए इसे बुझाने की जगह इसके खिलाफ एक दूसरी हिंसा खड़ी की जा रही है. सड़क पर घबराई-डरी अौर भटकाई भीड़ की हिंसाजो हिंसा नहीं बल्कि छूंछे क्रोध में की जा रही तोड़-फोड़ भर हैके सामने अाप राज्य द्वारा नियंत्रित व संचालित हिंसा को खड़ा करते हैं तो यह अाग में घी डालने से कम बड़ा अपराध नहीं है. यह अलोकतांत्रिक भी हैअनैतिक भी अौर असंवैधानिक भी. उन्मत्त भीड़ की दिशाहीन तोड़-फोड़ अौर राज्य की प्रायोजित कुटिल हिंसा को एक ही पलड़े पर रख कर नहीं तोला जा सकता है. हिंसा गलत हैबुराई की जनक है अौर घुन की तरह अादमी को भी अौर समाज को भी खोखला कर जाती है. इसलिए उसका समर्थन कोई भी साबुत दिमाग अादमी कैसे कर सकता है ?  लेकिन हिंसा अौर हिंसा के बीच फर्क करने का विवेक हम खो दें तो हिंसा की पहचान ही गुम हो जाएगी. चूहे को अपने फौलादी जबड़े में दबोच करझिंझोड़ती बिल्ली की हिंसा अौर अवश चूहे द्वारा पलट कर उसे काटने की कोशिश वाली हिंसा में फर्क तो महात्मा गांधी भी करते हैं. महात्मा गांधी भी कहते हैं कि जब दूसरा कोई विकल्प न हो सामने तो कायरता व हिंसा में से मैं हिंसा को चुनूंगा. इसका मतलब क्या यह निकाला जाए कि महात्मा गांधी हिंसा की वकालत कर रहे थे नहींवे हिंसा अौर हिंसा के बीच के फर्क को रेखांकित कर रहे थे. हमारी अदालत को भी हिंसा की इस अाग पर कोई भी टिप्पणी करने से पहले यह फर्क करना व समझना सीखना होगा अौर हिंसा के जनकों को संविधान का अाईना दिखाना होगा. 
      समाज हिंसा की तरफ तब जाता है जब  उसका विश्वास टूटता हैअौर चौतरफा हिंसा अौर अराजकता तब छाती है  जब समाज चौतरफा विश्वासघात से घिर जाता है. अाज राजनीतिक-सामाजिक-अार्थिक क्षेत्र में जैसा पतन हम देख रहे हैंगुंडों-बटमारों-सांप्रदायिकों-कुशिक्षितों की अाज जैसी बन अाई हैवह सब इसी चौतरफा भरोसाहीनता का परिणाम है. लोकतंत्र का यह कूड़ाघर अाज का नहीं,पुराने समय से जमा होता रहा है. अाज के सत्ताधारियों ने इसे चरम पर पहुंचा दिया है. हिंसा अौर क्षोभ का यह माहौल देश को ही ले डूबे इससे पहले हिंसा के जनक कौन हैंइसकी पहचान कर लेना जरूरी है. 
       वह न्यायपालिका हिंसा की जनक है जो समय पर हस्तक्षेप करकिसी भी सरकार या संवैधानिक संस्थान को उसकी मर्यादा से बाहर जाने से रोकती नहीं है. हमारे संविधान ने ऐसी अत्यांतिक परिस्थिति के लिए अपने संस्थानों को ऐसी विशेष शक्तियां दे रखी हैं कि जिनसे वे एक-दूसरे का पतन रोक सकती हैं. हमारी बेहतरीन संवैधानिक व्यवस्था में विधायिकाकार्यपालिकान्यायपालिका ही नहींदूसरे संवैधानिक संस्थान भी अपने-अपने दायरे में स्वंयभू-से हैं लेकिन संविधान ने उन सबकी दुम अापस में बांध भी दी है. ये सभी परस्परावलंबी स्वंयभू हैं. अदालत यह कह ही कैसे सकती कि जब तक  शांति नहीं होगी तब तक वह संविधान की कसौटी पर किसी सरकारी कदम को जांचने का काम स्थगित करती है. उसे तो विधायिका या कार्यपालिका की विफलता से धधकते दावानल में पैठ कर अपनी संवैधानिक भूमिका देश के सामने रखनी ही चाहिए ताकि हिंसा की जड़ काटी जा सके. लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगी हिंसा की अाग को  संविधान के छींटे से बुझाना न्यायपालिका की पहली जिम्मेवारी है. जब-जब वह ऐसा करने से चूकती हैतब-तब वह हिंसा की जनक बनती है. हमारे संविधान ने इसलिए ही न्यायपालिका को सिर्फ कान नहीं दिए हैं बल्कि अांखें भी दी है कि वह स्वत:संज्ञान ले कर किसी को भी कठघरे में खड़ा कर सकती है. क्या न्यायपालिका इस जिम्मेवारी से खुद को अलग करती है संविधान उसे इसकी इजाजत नहीं देता है. 
      वह प्रधानमंत्री अौर उसकी कृपा पर बने वे सभी मंत्रिगण हिंसा के जनक हैं जो सच छुपाने में अौर येनकेनप्रकारेण अपनी सत्ता की रखवाली में लगे हैं. सत्ता की निरंकुश हिंसा जिस प्रधानमंत्री को दिखाई ही न देती हो अौर जिसका मंत्रिमंडल हुअां-हुअां करने वाले सियारों से ज्यादा की अौकात नहीं रखता होहिंसा की यह अाग उसकी ही लगाई हुई है. देश में छिड़ा नागरिकता अांदोलन सरकारी दुमुंहेपन से पैदा हुअा है अौर प्रधानमंत्री की निंदनीय मक्कारी से फैला है. जामिया मीलियाजवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयअलीगढ़वाराणसी के विश्वविद्यालयों में जैसी क्रूर अौर नंगी हिंसा हुई हैउसके बाद भी क्या किसी को कहने की जरूरत है कि हिंसा के जनक कौन हैं अौर कहां हैं यह राजधर्म में हुई वैसी ही लज्जाजनक व अक्षम्य चूक है जैसी चूक 2002 मेंगुजरात में सांप्रदायिक दंगे को भड़काने अौर उसे निरंकुश चलते रहने देने में की गई थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने तब-के-तब ही अाज के प्रधानमंत्री कोजो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थेसार्वजनिक रूप से फटकारते हुए राजधर्म का सवाल खड़ा किया था. भारतीय जनता पार्टी का दुर्भाग्य है कि अाज उसके पास कोई अटलबिहारी वाजपेयी नहीं है. अटलबुहारी वाजपेयी की जगह उसके पास वह मुख्यमंत्रजिसने अपने विपक्षी अवतार में सार्वजनिक संपत्ति को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया हैगुंडा ताकतों की फौज बनाई हैमहात्मा गांधी के बारे में हद दर्जे की फूहड़घटिया बातें कही हैं. वह अाज सार्वजनिक तौर पर कह रहा है कि वह ‘ बदला लेगा’ अौर अांदोलनकारियों की कैमरे में पहचान करउनकी संपत्ति की कुर्की-जब्ती करसार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की भरपाई करेगा. ऐसा अालम बनाया गया है कि लाचार हो कर पूछना पड़ता है कि क्या राज्यतंत्र गुंडातंत्र में बदला गया है प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि हम कपड़ों से पहचान रहे हैं कि अांदोलनकारी कौन हैंमुख्यमंत्री कह रहे हैं कि हम कैमरे से पहचान कर रहे हैं कि अांदोलनकारी कौन हैंअौर अांदोलनकारी नागरिक कह रहे हैं कि हम हिंसक असंवैधानिक हरकत करने वालों का चेहरा पहचान रहे हैं. कपड़े बदल जा सकते हैं,कैमरे खाली किए जा सकते हैं लेकिन चेहरे का अाप क्या करेंगे ?   
      इस हिंसा के जनक वे अाला पुलिस अधिकारी हैं जो पुलिस मैनुअल के सारे निर्देशों अौर पेशेवराना नैतिकता को सिरे से भूल करसत्ताधारियों की कृपादृष्टि के कायर याचक भर रह गये हैं. अाज से ज्यादा रीढ़विहीन पुलिस अधिकारियों की जमात देश ने इससे पहले कभी देखी नहीं थी. जब पुलिस-अधिकारी ऐसे हों तब हम सामान्य कांस्टेबल से किस विवेक की अपेक्षा कर सकते हैं ?  वह डंडे चलाता है तो वह समझता भी नहीं है कि जिसकी पीठ-सर-हाथ-पांव पर वह बेरहमी से वार किए जा रहा हैगालियां उगल रहा हैवह लोकतंत्र का मालिक नागरिक है कल जिसके दरवाजे इनके सारे अाका कोर्निस बजाते मिलेंगे. यह विवेकहीनता हिंसा की जनक है.
      वे सारे कलमधारी निरक्षर पत्रकारचैनलों के विदूषक अौर बौद्धिकता का चोला अोढ़ कर राजनीतिक दलों की दलाली करने वाले संभ्रांत लोग हिंसा के जनक हैं जो स्थिति को संभालने व शांत करने की जगह उसे भड़काने का अायोजन करने में लगे होते हैं. उनकी मुद्राउनकी भाषाउनके शीर्षक अौर उनके निष्कर्ष सब किसी जहर-कुंड से निकले दिखाई अौर सुनाई देते हैं. 
      हिंसा न हो यह सामूहिक जिम्मेवारी है - उनकी सबसे ज्यादा जो सत्ता की उन जगहों पर बैठे हैं जहां से सामूहिक हिंसा का अादेश भी दिया जाता है अौर अायोजन भी किया जाता है. हम सब अपनी सूरत अाईने में देखें अौर हिंसा के पाप में अपनी भागीदारी का सार्वजनिक प्रायश्चित करें. यह गांधी की 150 वीं जयंती का वर्ष है. पाप की गठरी ढीली करने का इससे अच्छा अवसर हो नहीं सकता है. ( 13.01.2020)