Saturday 25 February 2017

कैदी नंबर ३२९५ के सवाल

यह उनके लिए भी अासान तो नहीं रहा होगा - पोश गार्डेन से निकल कर सीधे जेल जाना ! हमारे लिए भी कहां अासान है यह समझ पाना कि तमिलनाड की राजनीति चलती है तो ऐसे क्यों चलती है कि चलती लगी ही नहीं है, घिसटती ज्यादा लगती है; याकि यह समझ पाना भी कहां अासान है कि जयललिता ने अपनी राजनीति को अपने अलावा कोई दूसरा अाधार भी देने की कोशिश क्यों नहीं की ? जिन नेताअों के पास अपनी पत्नियां या बेटे या बेटियां हैं उनमें से कोई भी नहीं है कि जिसने अपनी राजनीति को पारिवारिक अाधार देने की कोशिश नहीं की है. अब तो यह हक के रूप में मान्य भी किया जा चुका है. यह समझना भी मुझे मुश्किल लग रहा है कि जब राज्यों में कहीं भी ऐसी राजनीतिक स्थिति बनती है तब केंद्र सरकार अौर उसका राज्यपाल न्याय व संविधान की प्रतिबद्धता छोड़ , इतनी अासानी से दूसरी प्रतिबद्धताअों  से कैसे बंध जाता है ? राज्यपाल केंद्रीय सत्ता का प्रतिनिधि तो होता है लेकिन क्या वह उस संविधान से बंधा नहीं होता है कि जिसके संरक्षण की अाखिरी जिम्मेवारी राष्ट्रपति व न्यायपालिका की होती है? यह समझना कितना मुश्किल है कि राज्यपाल विद्यासागर राव अपना राज्य छोड़ कर गायब ही हो गए अौर उस राजनीतिक पतन को अबाध चलने दिया जिसे रोकने के लिए ही इस संवैधानिक पद की कल्पना की गई है. ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां कभी-कभी ही बनती हैं जब राष्ट्रपति या राज्यपाल के होने की सार्थकता बनती है. वैसी घड़ी में जो कमतर साबित हो उसे उस पद पर रहना ही क्यों चाहिए या उस पद पर उन्हें रखना ही क्यों चाहिए, यह समझना भी अासान नहीं है. 
फिर यह समझना मेरे लिए तो बहुत ही मुश्किल है कि हमारी न्यायपालिका के फैसलों का अाधार क्या होता है ? जिन मामलों में कोई नैतिक या संवैधानिक पेंच न हो, उन मामलों में फैसला लेने का कोई निश्चित, ठोस अाधार व प्रक्रिया है या नहीं ? क्या संविधान की मोटी पुस्तक सिर्फ जयकारा लगाने के लिए है कि वह निश्चित दिशा-निर्देश भी करती है ? इतने सारे सवाल इसलिए कि बंगलारू का सबसे निरीह ट्रायल कोर्ट अाय से अधिक संपत्रि के मामले में वर्षों पहले जयललिता व शशिकला को अपराधी बता देता है; फिर कर्नाटक हाईकोर्ट उसी मामले की, उन्हीं दस्तावजों के अाधार पर सुनवाई करता है अौर दोनों ‘माहारानियों’ को बेदाग रिहा कर देता है; फिर वही मामला उन्हीं लोगों के साथ, वे ही दस्तावेज ले कर सर्वोच्च न्यायालय में अाता है. सर्वोच्च न्यायालय अपने ही हाईकोर्ट के फैसले से एकदम उल्टा रुख लेता है अौर मृत जयललिता से उनकी प्रतिष्ठा अौर कुर्सी पर अाधी चढ़ बैठी शशिकला से उनकी कुर्सी छीन लेता है. अब अाप देखिए कि यहां सर्वोच्च न्यायालय अपने ट्रायल कोर्ट के साथ खड़ा होता है अौर हाईकोर्ट को खारिज करता है. लेकिन वह हमें क्यों नहीं बताता कि उसके हाईकोर्ट ने संविधान की किस धारा की क्या व्याख्या की,किस दस्तावेज को किस तरह पढ़ा कि ट्रायल कोर्ट का फैसला एकदम से रद्दी की टोकरी में फेंक दिया अौर ‘अपराधी’ को सत्ता की बड़ी कुर्सी पर बिठा दिया. अौर फिर सर्वोच्च न्यायालय ने क्या पढ़ा, क्या देखा कि उसने हाईकोर्ट का फैसला कूड़ेखाने में डाल कर, जयललिता को दोबारा ‘दफना दिया’ अौर शशिकला को कैदी नंबर ३२९५ बना दिया ? सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला किसी हद तक हमारी न्याय-व्यवस्था अौर संविधान पर तीखी टिप्पणी करता है. क्या किसी दिन का न्याय इस पर निर्भर करता है कि उस दिन जज की कुर्सी पर कौन बैठा है ? सुनते हैं हम कि वकील अपने मुवक्किल से कहता है कि अाज बेंच बहुत खराब है, हम अगली तारीख ले लेते हैं याकि यह कि अब तो अपनी लुटिया डूबी ही समझो क्योंकि ‘साहब’ बहुत खराब है ! अगर न्याय का दारोमदार किसी व्यक्ति की मौज पर है तब तो संविधान, न्याय-व्यवस्था का यह जंजाल, जज साहबन का तेवर, वकीलों की फौज की मौज सब अर्थहीन हो जाते हैं. इसलिए यह समझना अासान नहीं है कि कर्नाटक हाईकोर्ट अपने ट्रायल कोर्ट का फैसला इस तरह उलट दे कि जयललिता जेल की जगह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा बैठें; फिर सर्वोच्च न्यायालय अपने हाईकोर्ट का फैसला जड़ से ऐसा पलट दे अौर जिसे हाईकोर्ट ने पोस गार्डेन में रहने का अधिकार दिया था, उसे वहां से निकाल कर चार लंबे वर्षों के लिए परपन्ना अग्रहारा जेल भेज दे लेकिन अपने हाईकोर्ट से यह भी न कहे कि उसकी चूक कहां हुई थी; अौर देश से ‘सॉरी’ भी न कहे ! नहीं, इन सब पर गंभीरता से विचार किए बिना न्यायपालिका की छवि बनाए रखना संभव नहीं होगा. यह तकनीकी सवाल नहीं है, न्याय के तत्व का सवाल है. 
हम कल्पना करें कि जयललिता जीवित होतीं अौर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर होतीं अौर तब ऐसा अदालती फैसला अाया होता तो तमिलनाडू की सड़कों पर क्या हुअा होता ?  वे सड़कों पर हाहाकार मचवा देतीं ! कुछ अात्मदाह भी हो जाते. इस मामले में शशिकला बेचारी साबित हुईं क्योंकि वे जयललिता के साथ का फायदा तो उठाती रहीं लेकिन जयललिता का जय-सूत्र न पढ़ सकीं, न समझ सकीं. वे सत्ता तो चाहती थीं  लेकिन यह सत्य नहीं पहचानती थीं कि सत्ता प्रधानमंत्री की हो कि मुख्यमंत्री की, अापको सड़क को उभारना अौर सड़क पर उतरना अाना चाहिए. इस मानी में अभी मुख्यमंत्री की कुर्सी सेंक रहे ई.के. पलानसामी अौर कुर्सी से उतारे गये अो. पन्नीरसेलवम दोनों ही अत्यंत कमजोर व अनधिकारी व्यक्ति हैं. यहां से जो संभावनाएं बनती हैं, उसमें एक संभावना वाला नाम द्रमुक के करुणानिधि-पुत्र स्टालिन का है. उनमें यह करिश्मा है. अत: तमिल राजनीति में अभी ठहराव अाने की उम्मीद नहीं है. लेकिन कैदी नंबर ३२९५ ने जितने सवाल खड़े कर दिए हैं, भारत की राजनीतिक व न्यायिक व्यवस्था को उसका जवाब देना ही होगा. ( 17.02.2017)  

Sunday 5 February 2017

सवाल धर्म अौर धार्मिकता का


० कुमार प्रशांत 

गांधी अपने धर्म-युद्ध पर निकल पड़े थे - जैसे अश्वमेध का घोड़ा छूटा हो ! चुनौती यह नहीं थी कि कोई इस घोड़े को रोक कर तो दिखाए; निवेदन यह था कि जो जब, जहां चाहे इसे रोक ले ताकि संवाद हो ! वैचारिक क्रांति का ऐसा अभियान छेड़े रहना उनकी अादत भी बन गई थी अौर फितरत भी ! इस बार बहाना था - अस्पृश्यता निवारण व हरिजनों का मंदिर प्रवेश !  पूरे देश की नसों में अाग घोलते वे किसी सुनामी की तरह बढ़े जाते थे अौर पीछे वैसा ही विनाश छोड़ते जाते थे कि जैसा विनाश सुनामी रचती है. बस, फर्क इतना ही था कि उनकी सुनामी मानव-देह की मौत नहीं रचती थी; याकि यह कहूं कि वे हमारे कल्मषों की मौत रचते हुए, हमारे भीतर नवीनतम मूल्यों, भावों का उन्मेष करते जा रहे थे. मानो मृत्यु अौर जीवन का सर्जन साथ-साथ हो रहा था. 
अपनी कमजोर-सी दीखती लेकिन अपराजेय साबित होती काया लिए, अपने मन-प्राणों का पूरा बल समेट कर वे हमारे मन-प्राणों के हर अंधेरे गह्वर पर हमला कर रहे थे अौर तथाकथित धर्म, संप्रदाय, जाति अादि की जड़ मान्यताएं क्षत-विक्षत होती जा रही थीं. लेकिन क्षत-विक्षत होना यानी मरना नहीं होता है, घायल होना होता है; अौर यह कहा ही गया है कि घायल शेर, जिंदा, स्वस्थ शेर से भी ज्यादा खतरनाक होता है; कहा ही गया है कि सांप को घायल कर मत छोड़ो क्योंकि वह ज्यादा मारक हो जाता है. लेकिन अहिंसक लड़ाई का शास्त्र इससे अलग ही कहता है - वहां मनुष्य को मारना वर्जित है लेकिन वह कहता है कि तुम अर्जित करो वह शक्ति कि जिससे उसकी सारी पुरानी मान्यताअों-मूल्यों को झकझोर सको; झकझोर कर उसे छोड़ दो ताकि अपने किसी प्रकाश-क्षण में वही अादमी अपने लिए नये मानक-मूल्य सृजित कर सके ! अहिंसक शास्त्र कहता है कि संशय मत रखो ! जिसकी पुरानी मूल्यों-मान्यताएं को तुमने झकझोर दिया है, वह अादमी नये मानक-मूल्य अपनाएगा ही क्योंकि मनुष्य मूल्यों के बिना रह ही नहीं सकता है जैसे वह सांस के बिना नहीं रह सकता है. देश-समाज को देखना यह चाहिए कि वह जिस नई हवा में सांस लेगा, वह हवा जहरीली न हो. बस, अास्था की यही डोर थामे वे सारे देश में घूम रहे थे. 
दक्षिण भारत के अलप्पी में, 18 जनवरी 1933 की एक अामसभा !  हरिजनों के मंदिर-प्रवेश की उनकी अकाट्य पैरवी अौर उसके प्रभाव में उस निषेध की तेजी से टूटती दीवारों व अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी उफनती भावनाअों से घबराए सवर्णों ने इसी सभा में उनका मुकाबला करने की ठानी; अौर सनातनी हिंदू होने का जिसका दावा था उस गांधी के सामने ब्रम्हास्त्र चलाए बगैर कोई रास्ता नहीं है, यह मान कर, उनसे सीधा यही कहा : यह सब जो अाप कह व कर रहे हैं, इससे तो हिंदू धर्म का नाश हो जाएगा ! … गांधी पल भर भी नहीं ठिठके अौर वज्र-सी यह बात बोले - मुझे इसकी फिक्र नहीं है ! अगर मेरे ऐसा कहने व करने से हिंदू धर्म का नाश होता हो तो हो, क्योंकि अभी मैं हिंदू धर्म को बचाने नहीं अाया हूं ! अाप मेरे शब्द लिख लें : मेरे इस अभियान का इससे कोई वास्ता नहीं है कि इससे हिंदू धर्म मजबूत हो रहा है कि कमजोर हो रहा है कि उसका विनाश हो रहा है ! मैं अभी जो कर रहा हूं उसके सही होने के प्रति मैं इतना पक्का हूं कि यदि मेरी इस भूमिका से हिंदू धर्म कमजोर होता है तो मैं उसका कुछ भी नहीं कर सकता, न मुझे उसकी फिक्र ही है.... मैं इस धर्म का चेहरा बदल देना चाहता हूं ! 
धर्म का चेहरा बदल देने का संकल्प लेने वाला यह अादमी कितना धार्मिक था ? अपनी धार्मिकता के बारे में जैसा दावा गांधी का था वैसा दावा शायद ही किसी दूसरे ने किया हो ! यह बात गौर करने जैसी है कि गांधी के जीवन में मंदिर, मूर्ति,मंत्र, पूजा, अनुष्ठान, ध्यान, समाधि जैसा कोई वितान था ही नहीं. वे अपने धार्मिक होने का कोई प्रतीक-चिन्ह भी धारण नहीं करते थे. हम उनके पास प्रार्थना का अटूट क्रम पाते हैं लेकिन उनकी अटूट प्रार्थना में हम एकांत नहीं पाते हैं. वे अनंत कोलाहल के बीच भी अपना एकांत खुद ही रच लेते थे, यह अलग बात थी, बाकी उनकी प्रार्थना भी सार्वजनिक सभा के रूप में ही होती थी - वह कहलाती ही थी बापू की प्रार्थना-सभा ! ... खुली जगह पर, सार्वजनिक तौर पर अौर सर्वधर्म प्रार्थना ! अौर प्रार्थना के बाद होती थी गांधी की सभा जिसमें पूरा इंसान अौर सारे इंसान समाये होते थे. अाचार्य कृपालानी ने अपनी परेशानी बताई है : मैं पक्का नास्तिक अादमी ! प्रार्थना अादि में कभी जाने-बैठने का सवाल ही नहीं होता था. लेकिन परेशानी यह अाई कि यह अादमी, जिसे हमने अपना नेता माना था, यह प्रार्थना में ही अपनी राजनीतिक बातें भी करता था. इसे सुनना-समझना हो तो प्रार्थना में जाना ही होगा, ऐसी स्थिति थी… मैं उसकी प्रार्थना में बैठने लगा… अौर तब यह समझ में अाया धीरे-धीरे कि इस अादमी के पास खांचे हैं ही नहीं ! 
… अौर हमारा हाल यह है कि हमारी सोच अौर हमारी हर कसौटी खांचे बनाने से ही शुरू होती है अौर दूसरों का सांचा तोड़ने तक पहुंचती है.  
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गांधी धर्म का चेहरा बदलने की बात करते हैं ! जहां हर दिन धर्म के नाम पर लोग अपने चेहरे बदल लेते हैं, वहां यह अादमी जो कह रहा है, उसका मतलब क्या है !  धर्म का चेहरा ! ... कैसा होना चाहिए धर्म का चेहरा ? देव का नहीं तो दानव का भी नहीं, कम-से-कम मनुष्य का तो हो ! मनुष्य जिस सूरत से भय खाए अौर जिस सूरत की रक्षा में अापको हमेशा तलवार उठाए रखनी पड़े, वह क्या किसी ऐसे धर्म की सूरत हो सकती है जो मनुष्यों को जोड़ता हो, उनके चित्त को उद्दात्त बनाता हो, जो उनके कल के अौर अाज के अौर कल के कर्तव्यों अौर विचार-भूमि को सींचता व पाटता हो ? इसलिए तो सारे संसार में जितना रक्तपात धर्म की रक्षा के नाम से हुअा है, उतना साम्राज्यवादी या राजनीतिक कारणों से भी नहीं हुअा है. एक अर्थ में देखें तो दुनिया भर में धर्म-सत्ता, साम्राज्यवादी-राजशाही-वैभवशाली शक्तियों का सफरमैना बन कर चली है अौर शनै-शनै उसने उनके ही कपड़े भी पहन लिए हैं. जब मन बदला, चाल बदली अौर कपड़े भी उनके ही पहन लिए अापने तब फिर फर्क नहीं पड़ता है कि उसने धोती पहनी है कि लुंगी; गले में सलीब पहन रखी है कि रुद्राक्ष की माला; वह पवित्र अग्नि की इबादत करने अातशबहेराम जाता है कि कड़ा-कच्छा-कृपाण ले कर स्वर्ण मंदिर; उसके पास गीता या कुरान या बाइबल या समणसुत्तम् कि जपुजी कि गुरुग्रंथसाहब है कि जिसके पन्ने भी उसने अभी कभी पलटे नहीं ! धर्म उस दिन से अधर्म में बदलने लगा जिस दिन से हमने उसे गिनने, तोलने, नापने, बेचने, बदलने की वस्तु बना दिया. समुद्र-मंथन में से जैसे अमृत नि:सृत हुअा था वैसे ही मानवीय चेतना के मंथन में से धर्म नि:सृत हो, तो वह धर्म है ! हमारी गहन अास्था अौर चेतना की उद्दातता में से जो पैदा हो, वह धर्म; बाकी सारे कर्म-कलाप अधर्म या धर्म पर पर्दा डालने के उपक्रम ! 
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फिर अाया पश्चिमी ढंग का लोकतंत्र जिसने संख्यासुर का बीज बोया ! इसने अादमी की गुणात्मकता को खारिज कर दिया अौर संख्या को देवता बना दिया. दोष तब भी कम नहीं थे जब गुणात्मकता को डंडा बना कर, सुविधाप्राप्त लोग अाम जन को खारिज कर, भूलुंठित किए, अपनी ऐंठ में चलते थे ! फिर जैसे-जैसे सामाजिक चेतना फैलने लगी, इस सुविधाप्राप्त वर्ग की विशिष्ट स्थिति पर चोट पड़ने लगी. तब इसी वर्ग ने एक नई चाल चली अौर संख्याबल का अाधार सामने रखा ! तबसे बंदों को तौलने का नहीं, गिनने का दर्शन मान्य हुअा; अौर कहीं अंधेरे में यह बात भी इसमें जोड़ दी गई कि गिनने की ये सारी कीमिया उसी विशिष्ट वर्ग के हाथ रहेगी जिसके हाथ में समाज तब था जब गुणों के अाधार पर उसका संचालन-नियमन होता था, क्योंकि ऐसे सारे गुणा-भाग की अक्ल तो इनके पास ही थी ! संख्या किसकी है यह गिनने का अधिकार अौर यह गिनने का तंत्र अपने हाथ में रख कर, इस वर्ग ने संख्यासुर का ऐसा दानव स्थापित कर दिया जिसने समझदारी व विवेक को नहीं, उन्माद को हथियार बना दिया ! उसकी विषबेल सब दूर ऐसी फैली कि धर्म क्या है, क्यों है अौर कैसे है, मानव-समाज में इसकी भूमिका क्या है जैसी बातें निरर्थक होती गईं अौर यह गिनती ही अंतिम सत्य बन गई कि किस धार्मिक संकल्पना के पीछे कितने लोग हैं. लोग यानी भीड़; भीड़ यानी जिसके पास गिनने को सर होते हैं, नापने को विवेक नहीं होता; चलने वाले अनगिनत पांव होते हैं, दिशा देखने वाली अांख नहीं होती ! भीड़ की ताकत यही है कि उसमें कितने लोग हैं अौर उनका उन्माद कितना अंधा है !  धर्म हमारे विश्वास का निजी तत्व नहीं, एक ऐसा सार्वजनिक हथियार बना दिया गया जिससे हर वह गर्दन काटी जाने लगी जो सर को थामने का काम करती है. 
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धर्म का सीधा मतलब होता है - वह जो धारण करता है ! वह जो संभालता है; वह जो दशा समझता है अौर दिशा देता है ! निजी स्तर पर धर्म वह है जो हमारा स्वभाव है - अाग का धर्म है कि वह जलाती है, पानी का धर्म है कि वह गीला करता है, हवा का धर्म है कि वह बहती है, रोशनी का धर्म है कि वह अंधेरा काटती है. करुणा मनुष्य का धर्म है क्योंकि वह सहज स्वभाव से ही करुणाप्रेरित होता है ! निजी स्तर पर यदि यह धर्म है तो धर्म का सामाजिक मतलब उस संकल्पना से प्रेषित होता है जिसे समाज धारण करता है ताकि वह उसे धारण कर ले ! यह कुछ वैसा है जैसे हम भारतीय संविधान के प्रारंभ में ही कहते हैं कि हम भारत के लोग अपना संविधान बना कर, इसे अपने ऊपर लागू करते हैं. हर दौर का समाज अपने नियमन,संचालन व व्यवहार के लिए एक वह सांचा या ढांचा बनाता है जिसके भीतर वह समझता है कि उसका बसर हो सकता है; कि जिसके भीतर उसके गुणों के विकास की पूर्ण संभावना है. वह उसके सारे यम-नियम तै करता है जिसके बंधन में रहना उसे श्रेयस्कर लगता है. वह पुरस्कार व निषेध के वे सारे मानक बनाता है जिससे बंध कर जीना उसे गुलामी की तरफ नहीं, उत्तरोत्तर विकसित होती स्वतंत्रता की तरफ ले जाता है. 
यह समझना जरा भी कठिन नहीं होना चाहिए कि सारे समाज को बांधने वाली, सारे समाज को स्वीकार हो ऐसी संकल्पना का अवगाहन कोई विशिष्ट प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ही कर सकता है. इसलिए यह अकारण नहीं है कि हर धार्मिक संकल्पना का कोई-न-कोई विशिष्ट प्रज्ञावान जनक होता है - कहीं ईसा तो कहीं गौतम, कहीं मुहम्मद तो कहीं महावीर, कहीं जरथुष्ट्र ! मतलब यह कि संसार के सारे धर्म अपने-अपने समय के समाज को संभालने के लिए मनुष्य ने खुद ही बनाए हैं ! भगवान बेचारे की इसमें कोई भूमिका नहीं रही है लेकिन सारे धर्म टिके इसी मान्यता पर हैं कि इनका कोई-न-कोई दैवी अाधार है ! ऐसा इसलिए कि सामान्यत: मनुष्य मनुष्य की बनाई व्यवस्था में बंध कर हमेशा-हमेशा रहेगा, उसे इतना विवेकवान बनाने की मशक्कत हम करना नहीं चाहते हैं अौर वह इतना विवेकवान हो सकता है, इस पर हमारा विश्वास नहीं होता है. इसलिए मनुष्य के बनाए हर धर्म को हम अाधार ईश्वर का ही देते हैं - ईश्वर यानी मनुष्य द्वारा रची एक ऐसी संकल्पना जो मनुष्य से भी बड़ी व सामर्थ्यवान हो गई है. इसलिए हर धर्म की जन्मकथा किसी दैवी घटना या अवतार या किताब या चमत्कार से जुड़ी होती है. यह समझना ज्यादा टेढ़ी खीर नहीं है कि यदि धर्मों के रचने में सर्वशक्तिमान भगवान का हाथ होता तो वह इसके इतने-इतने संस्करण तो नहीं बनाता ! उसने सारी दुनिया में इंसान तो एक ही तरह के बनाए - बाहर से भी अौर भीतर से भी ! फिर उसे इतनी फुर्सत भला कैसे मिली, अौर जरूरत कैसे अान पड़ी कि उसने धर्मों के इतने संस्करण बनाए अौर वे भी ऐसे कि एक-दूसरे को काटते हों; अौर ऐसे काटते हों कि उसी अाधार पर, उसके अनुयायी एक-दूसरे की गर्दन काटते हों ?  नहीं, संसार के सारे धर्म इंसानों ने, अपने-अपने वक्त के समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया है अौर इसलिए इंसानों को पूरा हक है कि वे जब भी अौर जहां भी जरूरी समझें, धर्मों में फेर-बदल करें याकि एक सर्वथा ही नया धर्म सामने ला सकें ! अगर वैदिक धर्म को हम हमारा सबसे पुराना धर्म मनाते हैं तो हमारे बीच सबसे नया धर्म वहाई धर्म है; अौर ये सभी भी अौर दूसरे अाने वाले भी अपनी पूरी हैसियत व मान्यता के अधिकारी हैं.
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धर्म अौर धार्मिकता का सवाल काफी उलझाता है कि इनके बीच के फर्क को कैसे देखें व समझें ! शायद सबसे अासान होगा कि हम खुद से पूछें कि जब हम किसी के बारे में यह सुनते हैं कि वह सच्चा मुसलमान है, तो हमारे मन में क्या तस्वीर उभरती है ? सच्चा मुसलमान है तो दाढ़ी रखता होगा, लुंगी या लंबे पांयचे वाला पाजामा पहनता होगा, खतना करवाया होगा, सर पर दुप्पली टोपी रखता ही होगा, मस्जिद जाता होगा, पांच वक्त की नमाज जरूर पढ़ता होगा, गो-मांस खाता होगा ! कहीं भी चले जाएं हम अौर किसी से भी पूछें तो एक सच्चे मुसलमान की परिकल्पना कुछ इधर-कुछ उधर कर के ऐसी ही होगी. फिर हम खुद से पूछें कि जब हम किसी के बारे में यह सुनते हैं कि वह सच्चा हिंदू है, तो हमारे मन में क्या तस्वीर उभरती है ? सच्चा हिंदू है तो तिलक लगाता ही होगा, जनेऊ धारण करता होगा, बिना पूजा-अर्चना के मुंह में जल भी नहीं लेता होगा, सुबह-शाम मंदिर जाता होगा, गो-ग्रास जरूर देता होगा, जाति-व्यवस्था में मानता होगा, ऊंची अावाज में हर-हर महादेव का घोष करता होगा ! कहीं भी चले जाएं हम अौर किसी से भी पूछें तो एक सच्चे हिंदू की परिकल्पना कुछ इधर-कुछ उधर कर के ऐसी ही होगी. 
ऐसा ही सारे धर्मों के बारे में सच है. 
अब इसी परिकल्पना को एक दूसरे स्तर पर टटोलें हम ! जब हम सुनते हैं कि फलां अादमी बड़ा धार्मिक है तो हमारे मन में क्या तस्वीर उभरती है ? यह सुनते ही हम एक ऐसी अादमी की परिकल्पना करने लगते हैं जो दयालु अौर ईमानदार होगा, सबकी मदद करता होगा अौर सबको साथ ले कर चलता होगा, भूखे की भूख अौर प्यासे के पानी की चिंता करता होगा ! वैष्णव जन तो तेणे रे कहिए जे पीड पराई जाणे रे - जैसा कोई उद्दात्त भाव उभरता है मन में जब हम किसी के धार्मिक होने की बात सुनते हैं. तब कपड़े, तिलक-टीका, जनेऊ-टोपी, लुंगी-धोती, नमाज-प्रार्थना सब जैसे संदर्भहीन होते जाते हैं अौर जो बच रहता है वह एक खालिस मनुष्य होता है. धर्म संकीर्ण करता है, बांधता है, अादमी के विकास को एक खास बिंदु से अागे जाने देना नहीं चाहता है क्योंकि मानवीय चेतना का सीमित विकास ही संगठित धर्मों का अाधार है.                                                                                                                 
धर्म जब अपने सारे केंचुल उतार कर समाज के सामने खड़ा होता है तब धार्मिकता सर उठाती है. धर्म वाह्य व संदर्भहीन प्रतीकों में लिपट कर खो जाता है, धार्मिकता उन वाह्य प्रतीकों को काटने के बाद अाकार लेती है. मैं ऐसे कहूं तो बात शायद ज्यादा साफ होगी कि धर्म जब अादमी की चमड़ी के भीतर उतरता है तब अादमी धार्मिक बनने लगता है. धर्म की जकड़बंदी जैसे-जैसे टूटने लगती है, धर्मिकता सर उठाने लगती है. संगठित धर्म के ठेकेदार सावधान रहते हैं कि अादमी धर्म के दायरे के बाहर न जाए, क्योंकि संगठित धर्मों के दायरे के बाहर निकलते ही वह अादमी बनने लगता है अौर अाप ज्यों-ज्यों अादमी बनने लगते हैं, धर्म के काम के नहीं रह जाते हैं. जैसे ही धार्मिकता अापके केंद्र में बसने लगती है, संगठित धर्म अावाज लगाता है : धर्म खतरे में है !!   
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महात्मा गांधी अपने विकास-क्रम में संगठित धर्मों से कई स्तरों पर रू-ब-रू हुए अौर बार-बार उन्हें धर्मों के ढूह-खंडहर पार करने पड़े, जमींदोज करने पड़े; अौर फिर-फिर मानवीय चेतना के नये अायाम खोजने व प्रतिष्ठित करने पड़े. वे जिस धर्म में पैदा हुए अौर जिसमें गहरी धंसी उनकी जड़ें उन्हें रससिक्त भी करती रहीं, उसकी अपूर्णताअों को जिस तरह उन्होंने पहचाना अौर जिस तरह उन्हें परिपूर्ण करने की अविरत कोशिश उन्होंने की, उसका अाकलन अाज तक किसी धर्मविद् पर उधार है. अपने धर्म से ऐसी अौर इस तरह की लड़ाई दूसरे किसी ने लड़ी हो तो मालूम नहीं ! अपने धर्मों में सुधार की लड़ाई लड़ने वाले अौर भी हैं, अौर उनकी लड़ाई के फलस्वरूप धर्मों की सर्वथा नई शाखाएं भी फूटी हैं लेकिन उनमें से कोई भी धर्म की भूमिका को लेकर हमारे सामने वैसे गहरे सवाल खड़े नहीं कर सका जैसे सवाल गांधी ने खड़े किए. 
गांधी ने धर्मों का गहरा अध्ययन किया था, ऐसा कहना शास्त्रीय लोगों को नागवार गुजरेगा, क्योंकि विद्वत-समाज ने कभी गांधी को अपने साथ बैठने की इजाजत नहीं दी. वे शास्त्रीय किस्म के बौद्धिक थे भी नहीं ! जयप्रकाश नारायण ने एक बार बड़े खूबसूरत शब्दों में इस फर्क को पहचाना था. उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी हम युवा समाजवादियों-मार्क्सवादियों के बौद्धिक मन को उस तरह छूते नहीं थे जिस तरह जवाहरलाल छूते थे ! अौर ऐसा इसलिए था कि हम भी किताबों से निकले थे अौर जवाहरलाल भी ! महात्मा गांधी किताबों से पैदा नहीं हुए थे, किताबें उनसे पैदा होती थीं. वे इस हद तक मौलिक थे कि उनकी कही बातों, स्थापनाअों को समझने में मुझे वर्षों लगे हैं. इस संदर्भ को समझें हम तब हम यह भी समझेंगे कि धर्म-ग्रंथों से बाहर निकल कर, गांधी ने धर्मों का गहरा अध्ययन किया था. वे कहते हैं : “ वेदों के संदर्भ में मैंने जान-बूझ कर अपौरुषेय या ईश्वरीय विशेषण का प्रयोग नहीं किया. कारण, मैं ऐसा नहीं मानता कि सिर्फ वेद ही अपौरुषेय हैं- ईश्वरीय हैं. बाइिबल, कुरान तथा जेंद अवेस्ता के पीछे भी मैं उतनी ही ईश्वरीय प्रेरणा पाता हूं. इसके अलावा, हिंदू धर्मग्रंथों में मेरा विश्वास मुझे यह नहीं कहता है कि उनके एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति को ईश्वरप्रेरित मानूं. न मैं ऐसा ही कोई दावा करता हूं कि मैंने इन अद्भुत ग्रंथों का मूलरूप में स्वंय अध्ययन किया है. लेकिन मेरा यह दावा जरूर है कि तत्वत: वे जो कुछ सिखाते हैं, उस सत्य को मैं जानता हूं अौर उसका अनुभव करता हूं. उनकी चाहे जितनी पांडित्यपूर्ण व्याख्या की जाए, अगर वह मेरे विवेक अौर नैतिक बुद्धि को नहीं रुचती है तो मैं ऐसी किसी भी व्याख्या का बंधन स्वीकार करने को तैयार नहीं हूं. ( यंग इंडिया, 6.10.1921)
अपने धर्म के अलावा गांधी ने दो धर्मों को बहुत करीब से देखा अौर समझा. एक वह धर्म जिसके अनुयायियों के देश में वे छात्र बन कर पहुंचे थे - ईसाई धर्म ! बाइबिल उन्होंने खास तौर पर पढ़ी थी क्योंकि वे बाइबिल के देश में ही अपनी चेतना की अांखें खोल रहे थे. न्यू टेस्टामेंट अौर ईसा के ‘गिरी-प्रवचन’ का हिस्सा उनका खासा प्रिय हुअा. वे प्रारंभ से ही इतने सच्चे थे कि उनके संपर्क में अानेवाला हर कोई उन्हें अपने साथ करना चाहता था अौर इसलिए उनके ईसाई मित्रों ने यह कोशिश की कि गांधी ईसाई धर्म स्वीकार कर लें. इस्लाम के साथ भी उनका सफर लंबा चला अौर उनके मुसलमान सहयोगियों ने भी इसकी काफी कोशिश की कि गांधी इस्लाम कबूल कर लें. ईसाई अौर इस्लाम के इन अनुयायियों की इन कोशिशों का गांधी को पता नहीं चला, ऐसा नहीं था. वे धर्म परिवर्तन को राजी नहीं हुए, इसमें कोई खास बात नहीं थी. खास बात इसमें थी कि वे इस नतीजे पर पहुंचे कि संसार के सारे ही धर्म अपूर्ण हैं क्योंकि सभी अपूर्ण इंसानों द्वारा रचे गये हैं. वे मानते हैं कि संसार का कोई भी धर्म कालातीत नहीं है अौर इसलिए उनकी मूल्य-मान्यताअों की समीक्षा करने का अादमी को अधिकार है. वे बार-बार जोर दे कर कहते हैं कि धर्म की कमियों-बुराइयों से अाप धर्म बदल कर नहीं लड़ सकते, क्योंकि अाप अपने जन्म-धर्म से निकल कर जिस धर्म में जाएंगे, वहां भी स्थितियां ऐसी ही मिलेंगी. वे बार-बार कहते हैं कि हमें अपने-अपने जन्म-धर्म को परिपूर्ण करने की ही कोशिश करते रहनी चाहिए, क्योंकि यह दूसरे धर्मावलंबियों को भी ऐसा प्रयास करने की प्रेरणा देता है. वे निजी विश्वासों के अाधार पर धर्म-परिवर्तन के अधिकार को स्वीकार करते हैं लेकिन उनकी अाधारभूत मान्यता यह थी कि हमारी सावधान कोशिश यह होनी चाहिए कि सभी अपने धर्म के सच्चे अनुयायी बनें, हम इसमें मदद करें.                                                                      
उनके अाश्रम में एक अंग्रेज लड़की उनकी स्वीकृति से रहने अाई. हुअा कुछ ऐसा कि इधर वह लड़की अाश्रम पहुंची अौर उधर गांधी अपने निश्चित अाश्रम ( मंदिर ! ) भेज दिए गये - जेल ! अब गांधी जेल में हैं लेकिन इस चिंता में हैं कि कहीं उनके साथी उस लड़की के लिए अाश्रम को ही जेल न बना दें ! वे बार-बार उस लड़की को पत्र लिखते हैं अौर उसे समझाते हैं कि उसे उनके अाश्रम को कैसे देखना चाहिए. वे अाश्रम के व्यवस्थापकों को भी लिखते हैं कि उन्हें अाश्रम के कौन से नियम इस लड़की के लिए ढीले कर देने चाहिए. नियम था कि अाश्रम की प्रार्थना में सब समय से पहुंचें. इसके अपवाद इक्के-दुक्के ही हुअा करते थे. उस लड़की को इससे परेशानी हो रही थी तो गांधी ने जेल से निर्देश दिया कि उस लड़की को इस नियम से मुक्ति दे दी जाए. गांधी जेल में ही थे जब उस लड़की की भारत से वापसी हुई. गांधी ने उसे लिखा : मैं चाहता यह हूं कि तुम यहां से वापस जाते हुए पहले से बेहतर ईसाई बन कर जाअो ! 
हम सभी अपने धर्मों के सच्चे अनुयायी बनें तो धर्मों द्वारा खोदी गई अलगाव की खाई पाटी जा सकती है, यह धार्मिकता की टेक है.
अपनी धर्म-यात्रा में गांधी एक ऐसे मुकाम पर पहुंचे जहां उन्होंने कहा : ईश्वर ही सत्य है ! लेकिन उसी यात्रा-क्रम में वे अागे इस नतीजे पर पहुंचे कि ऐसी मान्यता से तो सभी संगठित धर्मों को यह मौका मिल जाता है कि वे अपने-अपने ईश्वरों को, दूसरे के ईश्वरों से अामने-सामने कर दें अौर फिर वही पुराना मुकाबला जारी रहे ! ... अौर फिर उनका सफर बढ़ता हुअा इस मुकाम पर पहुंचा कि वे कह उठे : सत्य ही ईश्वर है !!…
…. मन के स्तर पर एक क्रांति घट गई ! गांधी से पहले किसी भी धार्मिक अवतार ने, किसी भी समाज सुधारक ने, किसी भी पैगंबर या ऋषि ने ऐसा नहीं कहा था. यह ऐसा अार्षवचन था जिसने एक झटके में वह घटित कर दिया जो मानवीय चेतना के उर्ध्वगामी विकास में अब तक कभी घटा नहीं था. गांधी के इस अनुभूत सत्य ने सारे धर्मों की  दीवारें गिरा दीं, धर्मोंपदेशकों को एक ऐसी चुनौती के सामने खड़ा कर दिया जिसमें दीवारें खड़ी करने की नहीं, दीवारें गिराने की खोज करनी थी; हर धर्म को मनुष्यों में विभाजन करने का नहीं, एकात्मता पैदा करने का मार्ग खोजना है, गांधी ने यह नई भूमिका हमारे सामने रखी. धर्म पीछे छूट गये, धार्मिकता अपनी पूरी प्रखरता के साथ उभर अाई. 
गांधी मानवीय चेतना के इस बिंदु तक हमें पहुंचा कर विदा हुए ! हमने जब उन्हें गोली मारी तब वे ऐसी ही साधना का कर्म-पक्ष तलाश रहे थे अौर भारत के विभाजन की नैतिक व राजनीतिक भित्ती को ढहाने का तानाबाना बुनने में लगे थे. जिन लोगों ने विभाजन का अाधार धर्म को बनाया था - मुहम्मद इकबाल से लेकर सावरकर, जिन्ना, गोलवलकर तक - उन सबको वे एक दूसरे धरातल पर ले जाने में लगे थे जहां धर्म नहीं, संस्कृति से राष्ट्र बनते हैं. इसलिए धर्मों को पीछे छोड़ते हुए, वे हमें एक नये दायित्व से जोड़ गये - सबमें धार्मिकता को प्रतिष्ठित करो; वही ऐसे धर्म की प्रस्थापना करेगा जो सार्वभौम होगा !  
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  भारत इस अर्थ में नियति का चुना हुअा खास देश है कि यहां वह प्रयोग संभव है जिसकी संभावना गांधी ने देखी अौर साबित करने की कोशिश की. यहां अाज से नहीं, सदियों से वे सारे धर्म साथ रहते अाए हैं जो दुनिया के दूसरे हिस्सों में एक-दूसरे का अस्तित्व भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं.  दुनिया के सारे जीवित धर्मों का एक-न-एक अाराधक भारत की इस धरती पर, कहीं-न-कहीं रहता है अौर हमारा संविधान व हमारी परंपरा, अास्था के उसके निजी अधिकार को स्वीकार भी करती है अौर उसकी रक्षा का अाश्वासन भी देती है. ऐसा नहीं कि हम अापस में टकराते नहीं हैं, साथ रहने की इस कला में विफल नहीं होते हैं लेकिन इतिहास गवाह है कि अपनी हर विफलता अौर टकराव में से हम ज्यादा सयाने बन कर बाहर अाए हैं. अाजादी के बाद भले हमने गोली मार कर अपने गांधी से मुक्ति पा ली लेकिन हमने अपना लोकतंत्र चलाने के लिए जिस संविधान को स्वीकार किया, गांधी वामनावतार में उस संविधान में प्रवेश कर गये. मालूम नहीं कि यह परकाया प्रवेश, उस वक्त के संविधान निर्माताअों ने देखा-पहचाना या नहीं ! पहचाना होता तो शायद ऐसा मौका गांधी को नहीं दिया होता, क्योंकि संविधान निर्माताअों में सबसे प्रखर जवाहरलाल नेहरू अौर संविधान सभा की संस्तुतियों को लिपिबद्ध करने वाले बाबा साहब अांबेडकर, दोनों ही दिग्गज गांधी से बेहद सावधान रहने वालों में थे. सरदार, मौलाना, राजेन बाबू, राजाजी अौर ऐसी ही सारी विभूतियां गांधी को महापुरुष तो मानती थीं लेकिन यह भी मानती थीं कि सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनसे कुछ दूरी बनाए रखने में ही अपनी खैर है ! लेकिन गांधी अाम भारतीय की समझ-सोच में अौर भारत की अात्मा में इस कदर समा गये थे कि उन्हें अलग कर पाना किसी के बस का नहीं था. अाज भी नहीं है ! 
संविधान स्वीकार करने के बाद से, उसके साथ चलते हुए अाधी शताब्दी से अधिक का यह सफर हमें इतना सयाना बना गया है कि हम हिम्मत अौर हिकमत के साथ अपने समाज में एक नया प्रयोग करें.  इस लंबे सहधर्मी सामाजिक जीवन के बाद, महात्मा गांधी को सामने रख कर , अब यहां से एक नये धर्म के उदय की यह बेला है. यह धर्म वह नहीं होगा जो हमारे निजी विश्वासों को संचालित करेगा बल्कि वह होगा जो हमारे सामूहिक जीवन की मर्यादाअों अौर संभावनाअों को उजागर करेगा. अौर यह बात कहने की नहीं है कि हम जैसा सामूहिक जीवन जीते हैं अौर जिन विश्वासों की दिशा में जाने का समवेत प्रयास करते हैं, उनसे हमारा निजी जीवन भी अौर हमारी सहज सोच भी प्रभावित होती है अौर अंतत: हमें भीतर-बाहर से अपने अनुकूल बना लेती है. 
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  हमारी नवीनतम संकल्पना का सबसे ताजा पुष्प है लोकतंत्र ! यह वह नवीनतम धर्म-संकल्पना है जो भीड़ को जन का स्वरूप व संस्कार देती है. यह वह संकल्पना है जो बंदों को गिनती भी है अौर तौलती भी है. यह वह धर्म है जो अपने अनुयायियों को एक नैतिक बंधन में बांध कर, हर संभव छूट देता है - इस हद तक कि वे चाहें तो इसे खारिज कर, एक नया ही लोकतंत्र सामने ला खड़ा करें ! इस धर्म के साथ चलने का संकल्प करने वाले समाजों में स्वत: ही यह अनुशासन बनता है कि किसी भी जाति-धर्म-विश्वास-परंपरा-रीति-रिवाज की ध्वजा इतनी ऊपर नहीं जाएगी कि लोकतंत्र की ध्वजा से टकराए. जब भी ऐसी नौबत अाएगी, लोकतंत्र की ध्वजा के सामने दूसरी सारी ध्वजाएं झुकेंगी ! फिर निजी अास्थाअों-विश्वासों की जगह क्या होगी ? निजी अास्थाअों-विश्वासों की जगह निजता में ही होगी, क्योंकि वे वहीं संरक्षित हो सकती हैं. हम सबकी चौखट के भीतर हमारी निजी अास्थाएं रहेंगी लेकिन जैसे ही अाप अपनी चौखट लांघते हैं वैसे ही अाप लोकतंत्र के बड़े धर्म-विश्वास के अांगन में प्रवेश करते हैं अौर तब अापकी दूसरी सारी ध्वजाएं इतनी ही उठेंगी जितनी उठने से किसी से, कहीं भी कोई टकराव न हो !   
हम इस धर्म-देहरी पर खड़े हैं अौर समय-देवता इंतजार कर रहा है कि कब हम देहरी पार करते हैं. यह बौद्धिक कसरत तो है ही, एक गहन सांस्कृतिक यात्रा भी है जिसमें गांधी कंपास बन सकते हैं.  

Thursday 2 February 2017

अब कहें संजयलीला भंसाली


० कुमार प्रशांत 


तो यह तै हो गया कि संजयलीला भंसाली अपनी फिल्म पद्मावतीराजस्थान में नहीं बनाएंगे. जयपुर के जयगढ़ किले में अपनी इस फिल्म की शूटिंग में व्यस्त बंसाली अौर उनकी यूनिट पर जिस तरह हमला हुअा अौर किसी अनजान-सी सेना के सड़कछाप हुड़दंगियों ने मार-पीट, तोड़-फोड़ की उसके बाद बंसाली प्रोडक्शन ने वही किया जो किया जा सकता था. अब जब हमारे देश में कुछ भी सांस्कृतिक या बौद्धिक न बचे अौर हर काम, हर बात या हर कृति दूसरी कुछ नहीं बल्कि राजनीतिक चाल भर मान कर देखी, सुनी व पढ़ी जाए, ऐसा अालम बनाया जा रहा तब इस बात की चर्चा का कोई मतलब ही नहीं है कि कोई पद्मावती किस इतिहास में कब,कहां अौर कैसे प्रवेश करती है. १६वीं शताब्दी के सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधि में पद्मावतनाम से लंबी कविता लिखी जिसमें से पद्मावती का जन्म होता है. उससे पहले के इतिहास में पद्मावती कहीं मिलती नहीं है.  लेकिन काहे का इतिहास अौर किधर की पद्मावती ! सब उस पद्मावती को चाहते हैं जो अाज की राजनीति में मोहरे की तरह इस्तेमाल की जा सकती है.
संजयलीला भंसाली फिल्में बनाते हैं अौर उन्होंने कई अच्छी फिल्में हमें दी हैं. मैं तो यह भी कह सकता हूं कि व्यापारिक सफलता-असफलता की बात छोड़ दें तो भंसाली की हर फिल्म हमारे फिल्मी कैनवास पर कुछ नया जोड़ती अाई है. ऐसा हम बहुत कम निर्देशकों के बारे में कह सकते हैं. यह कहने के बाद अौर अकंपित स्वर में उनकी पिटाई अौर तोड़-फोड़ की निंदा करने के बाद भी मैं संजयलीला भंसाली से पूछना चाहता हूं कि क्या वे अब पद्मावतीबनाना छोड़ देंगे ? क्या वे फिल्म बनाना छोड़ देंगे ? क्या अब वे केवल विदेशों में फिल्में बनाएंगे ? क्या वे अपनी फिल्में अब विदेशों में ही दिखाएंगे ? अगर हांतो मुझे उनसे कुछ कहना नहीं है. अगर ऐसा नहीं है तो मुझे कुछ कहना है. 
संजयलीला भंसालीजी, यह वही असहिष्णुता है जिसकी तलवार बना कर एक खास विचारधारा, इन दिनों दूसरी सारी अावाजें बंद करने में जुटी हुई है. इस असहिष्णुता ने हत्याएं की हैं, असहमति को अपमानित अौर निंदित किया है, भिन्न मतों की खिल्ली उड़ाई है अौर असहाय लोगों को निशान पर रखा है. सत्ता ने इन सबकी अनदेखी कर, इनकी मदद की है, इन्हें प्रोत्साहित किया है. यही वह असहिष्णुता है संजयलीला भंसालीजी जिसका जिक्र कभी अापकी बिरादरी के तीनों खानों, अामिर, शाहरुख अौर सलमान ने किया था. तब उन तीनों को निशाने पर ले कर, इनके धर्म की खोज की गई थी, इनकी देशभक्ति पर सवाल उठाए गए था, इनको सीधा करने के लिए इनकी फिल्मों को निशाना बनाया गया था. अौर तब अाप भी अौर कई दूसरे नामी सितारोंने इन तीनों से खुद को अलग ही नहीं कर लिया था. कई थे जो उनके साथ जा खड़े हुए थे जो हमलावर थे. अौर वह इतिहाससिद्ध सत्य तो है ही कि जो अावाज उठने के वक्त चुप रह जाते हैं, वे अन्याय के पक्षधर हो जाते हैं. संजयजी, तब कहा यह जा रहा था कि कलाकारों का ऐसे राजनीतिक विवादों से कोई वास्ता नहीं होता है—‘हम तो फिल्में बनाते हैं अौर मनोरंजन करते हैं.’  अापकी बिरादरी के कई सूरमा तब सड़कों पर जुलूस ले कर निकले थे अौर बड़ी भद्दी असहिष्णुता से सबको सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने लगे थे.  
यह फिल्मी बिरादरी का पतन-काल था. 
संजय हों कि अमिताभ बच्चन कि अनुपम खेर कि दूसरे कई सारे लोग; अौर हम-अाप भी यह समझें कि समाज में वाटरटाइट कंपार्टमेंट नहीं होते हैं कि जिनमें एक में क्या हो रहा है, उसका पता भी अौर उसका असर भी दूसरे पर नहीं होता है. समाज उस तरह काम करता है जिस तरह दिल को रक्त पहुंचाने वाली रक्तवाहिकाएं काम करती हैं. हमारी वाहिकाएं रात-दिन, चौबीसों घंटे साफ खून को दिल तक पहुंचाने में अौर खराब खून को बाहर निकालने में लगी रहती हैं. यह किसी बदहवास की दौड़ नहीं है, रक्तवाहिकाअों का संविधानसम्मत काम ही यही है. जिस दिन रक्तवाहिकाएं अपना यह संवैधानिक काम, संवैधानिक गति से करना बंद कर देती हैं, उस दिन संविधान भी अौर हम, दोनों ही मर जाते हैं. मारने के लिए काल को दूसरा कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ती है. ऐसा ही हाल कला का भी है. जिस दिन कला अपनी व्यापक सामाजिक जिम्मेवारियों से मुंह मोड़ लेती है, उसी दिन कला का गला काल दबोच लेता है. अाज से मुंह मोड़ कर कला कल के काम की भी नहीं रह जाती है. अापकी फिल्मी दुनिया के साथ ऐसा हुअा है संजय बाबू ! अापने जयपुर में उसकी ही फसल काटी है. इस विषबेल को बोते वक्त हमने चुप्पी रखी थी, अब यह हमें चुप करा रहा है. 
अाप जहां जाएंगे, असहिष्णुता का यह जहर अापके पीछे-पीछे वहां पहुंच जाएगा. देश के जिस कोने में भी अाप काम करना चाहेंगे संजय, वहीं पद्मावतीके ये लोग पहुंच जाएंगे अौर अाप पर फिर हमला करेंगे. ये नहीं चाहते हैं कि इस देश में लोग अपने मन से सोचें, अपने मन की करें अौर अपनी कला की सफलता-विफलता का हिसाब अपनी तरह रखें. ऐसा नहीं है कि कला अपनी परंपरा, अपनी लोकभावना अादि का ख्याल न रख कर, कुछ भी करने को स्वछंद है. कोई सच्चा कलाकार अव्वल तो ऐसा कुछ करेगा नहीं फिर भी हमने संविधान बना रखा है, अदालतें हैं, सेंसर है अौर समाज में अस्वीकृति दर्ज कराने के तमाम मंच हैं. हम इनमें से किसी का भी, कभी भी इस्तेमाल कर कला को संयम का पाठ पढ़ा सकते हैं. लेकिन किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अागे बढ़ कर किसी का गला, किसी की कलम, किसी की कूची या किसी का कैमरा पकड़ ले. इसलिए बोलना, अावाज उठाना अौर असहमति प्रकट करना जरूरी होता है. यह जरूरी काम अपरिहार्य बन जाता है जब सत्ता अंपायर की भूमिका छोड़ कर, एक पक्ष की खिलाड़ी बन जाती है. पद्मावतीयदि अाज हमें अौर अापको यह पाठ पढ़ा जाती है तो मैं कहूंगा कि पद्मावतीऐतिहासिक पात्र थी या नहीं, इसकी खोज व बहस इतिहासकार कितनी भी करें, मेरे लिए वह हमारे वर्तमान की अमूल्य धरोहर है. 
अौर हां, मैं राजपूत नहीं, इस देश का पूत हूं. ( 1.02.2017)