Monday 12 April 2021

क्या हम वापस लौटेंगे

 बस्तर में कुछ भी, किसी के बस में नहीं है. छत्तीसगढ़ सरकार और नक्सलियों के बीच छत्तीस का नाता था, है और जो दीख रहा है वह बताता है कि आगे भी यह रिश्ता ऐसा ही रहेगा.  

3 अप्रैल 2021 को वही हुआ जो इससे पहले भी कई बारकई जगहों पर हो चुका है- जिंदा इंसानों का लाशों में बदलना और फिर हमारा लाशों को गिनना ! बस्तर में पारामिलिट्री सेंट्रल रिजर्व पुलिस के अपने 22 जवानों की लाशें गिन-बटोर कर दोनों सरकारें निकल गई हैंछत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की मानें तो अपने साथियों की अनगिनत लाशें दो ट्रैक्टरों में लाद कर नक्सली भी गुम हो चुके हैं. बस्तर के इलाके में सन्नाटा पसरा है. मौत जब भी जिंदगी से जीतती है तो ऐसा ही सन्नाटा तारी होता है. 

अब वहां क्या हो रहा है मौत के अगले झपट्टे की तैयारी - बस्तर के भीतरी जंगलों में भी और शासन के गलियारों में भी ! मीडिया में कहानियां भी बहुत चल रही हैं और कयास भी बहुत लगाए जा रहे हैं. लेकिन इस बीच एक खास बात हुई है. 3 अप्रैल के खूनी मुकाबले के बाद मार-मर कर नक्सली भागे तो पुलिस के एक जवान राकेश सिंह मिन्हास को उठा भी ले गए. सब यही मान रहे थे कि जिसे नक्सली तब नहीं मार सकेउसे अब मार डालेंगे. यह भी बात फैल रही थी कि राकेश सिंह को अमानवीय यंत्रणा दी जा रही है. लेकिन उस वारदात के 5 दिन बादनक्सलियों ने राकेश सिंह को सार्वजनिक रूप से सही-सलामतबेशर्त रिहा कर दिया. यह अजूबा हुआ जो अचानक और अनायास नहीं हुआ. जो अचानक व अनायास नहीं होता हैउसमें कई संभावनाएं छिपी होती हैं. उन संभावनाओं को पहचानने की आंख हो और उन संभावनाओं को साकार करने का साहस हो तो बहुत कुछ असंभव संभव हो जाता है. ऐसी आंख व ऐसा साहस राज्य के पास हैऐसा लगता तो नहीं है. पर यह भी सच है कि जो लगता नहीं हैवह होता नहीं हैयह सच नहीं है. आंखें खुलने और साहस जागने का क्षण कब आ जाएकोई कह नहीं सकता है. 

3 अप्रैल की घटना के बाद सदा-सर्वदा चुनाव-ज्वरग्रसित गृहमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री ने मीडिया से जो कुछ कहा और जिस मुखमुद्रा में कहावह अंधकार पर काली स्याही उड़लने से अधिक कुछ नहीं था. आंतरिक असंतोष से निबटने में युद्ध की भाषाधमकी का तेवर और सत्ता की हेंकड़ी दूसरा कुछ नहीं करतीआपके भीतर के बंजर और भयभीत मन की चुगली खाती है. नक्सली समस्या हमारे वक्त की वह ठोस हकीकत है जिसकी जड़ें विफल सरकारअसंवेदशील प्रशासनबांझ लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में छिपी हैं. जब राजनीति का स्वार्थीक्रूर और संवेदना-शून्य घटाटोप घिरता है तब सामान्य असमर्थ नागरिक बिलबिला उठता है. वह भटक जाता हैभटका लिया जाता है और फिर सब कुछ हिंसा-प्रतिहिंसा के चक्रव्यूह में फंस जाता है. अगर कहीं कोई संभावना बनती है तो वह हिंसा-प्रतिहिंसा के इस विषचक्र को तोड़ने से बनती है. सिपाही राकेश सिंह की रिहाई इसकी तरफ ही इशारा करती है. हम इस इशारे को समझें. 

यह रिहाई बताती है कि बस्तर के नक्सली राक्षस नहीं हैंहमारी-आपकी तरह के इंसान हैं. यह रिहाई बताती है कि सरकारों के अक्षम्य दमन और प्रशासन की निष्ठुरता और उसकी प्रतिक्रिया में निरुपाय आदिवासियों की क्रूर जवाबी हिंसा के बाद भी नक्सलियों के भीतर कोई मानवीय कोना बचा हुआ है.  वहीं आशा का दीपक जलता है. आप सोच कर देखिए कि यदि 3 अप्रैल की वारदात में कोई नक्सली राकेश सिंह’ पुलिस के हाथ लग गया होता तो क्या उसकी ऐसी बेशर्त व बे-खरोंच रिहाई की जाती एक तरफ हर तरह की हिंसा और मनमानी का लाइसेंस लिए बैठी सत्ता हैदूसरी तरफ गुस्से से भरी असहाय आदिवासी जनता है. ऐसे में हिंसा का दर्शन मानने वाला कोई संगठन उन्हें बतलाता-सिखलाता है कि इनसे इनके ही रास्ते बदला लेना चाहिएतो आदिवासियों की छोड़िएहम या आप भी क्या करेंगे उबल पड़ेंगे और रास्ता भटक जाएंगे. तो क्या जवाब में राज्य-सत्ता भी ऐसा ही करेगी अगर राज्य-सत्ता भी ऐसी ही आदिवासी मानसिकता से काम लेगी तो हिंसा और भटकाव की यह श्रृंखला टूटेगी कैसे 

जवाब धरमपाल सैनी व उनके सहयोगियों ने दिया है. उन्हें छत्तीसगढ़ सरकार की सहमति व प्रोत्साहन प्राप्त था लेकिन सारा नियोजन तो धरमपाल सैनी का था. धरमपाल सैनी कौन हैं बस्तर या छत्तीसगढ़ के नहीं हैं लेकिन पिछले 40 से अधिक सालों से बस्तर को ही अपना संसार बना करवहीं बस गये हैं. बस्तर के घरों में ताऊ’ तथा बाहर बस्तर के गांधी’ नाम से खूब जाने-माने जाते हैं. आचार्य विनोबा भावे के शिष्य92 वर्षीय धरमपाल सैनी जब युवा थे तब किसी प्रसंगवश उमग कर छत्तीसगढ़ जा कर काम करने की सोची. अनुमति लेने विनोबा के पास गये तो विनोबा ने मना कर दिया. युवा धरमपाल के लिए यह समझ के बाहर था कि विनोबा लोगों की भलाई का काम करने से उन्हें रोक क्यों रहे हैं जब दोबारा अनुमति मांगी तो विनोबा उनसे ही एक वचन मांग लिया : अगर वहां जाने के बाद 10 सालों तक वहीं खूंटा गाड़ कर रहने की तैयारी हो तो मेरी अनुमति है ! धरमपाल ने अपना जीवन ही वहां गाड़ दिया. यह कहानी इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि किसी का गुणगान करना है. इसलिए लिख रहा हूं कि हम भी और राज्य भी यह समझे कि अहिंसा जादू की छड़ी नहीं हैसमाज विज्ञान और मनोविज्ञान की वैज्ञानिक प्रक्रिया है. बस्तर हो कि नक्सली हिंसा की अशांति में घिरा कोई भी क्षेत्रराज्य यदि लोगों को डराने-धमकाने-मारने की असभ्यता दिखाएगा तो जवाब में उसे भी वही मिलेगा. हिंसा का विषचक्र तोड़ना हो तो किसी धरमपाल सैनी को आगे आना होगाराज्य को उसे आगे लाना होगा. ऐसा कोई इंसान जिसकी ईमानदारीसेवा की साख हो और सत्य पर टिके रहने के जिसके साहस को लोग जानते हों. हम देखते ही तो हैं कि रेगिस्तान में बारिश का पानी बहता नहींधरती में जज्ब हो जाता है. प्रताड़ित-अपमानित निरुपाय लोगों को जहां और जिससे सहानुभूतिसमर्थन व न्याय की आस बनती हैवे उसे जज्ब कर लेते हैं. विनोबा या जयप्रकाश के चरणों में चंबल के डाकू समर्पण करते हैं तो यह कोई चमत्कार नहींविज्ञान है.

सिपाही राकेश सिंह की वापसी कह रही है कि हम सभी वापस लौटें ! राज्य ईमानदार बनेन्यायवान बने और धरमपाल सैनी जैसों को पहल करने में अपना पूरा साथ-सहयोग देतो रास्ते आज भी निकल सकते हैं. रास्ते कभी बंद नहीं होतेबंद होती हैं हमारी आंखें ! बस्तर के नक्सलियों ने हमारी आंखें खोलने का माहौल बनाया है. ( 09.04.2021)  

भीड़ में खोया मतदाता : सत्ता के नशे में लोकतंत्र

 स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव से चलें हम और अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव का हंगामा मचा है, उस तक का सिलसिला देखें तो हमारे लोकतंत्र की तस्वीर बहुत डरावनी दिखाई देने लगी है. अब हो यह रहा है कि हमारे लोकतंत्र में किसी को भी न लोक की जरूरत है, न मतदाता की. सबको चाहिए भीड़  बड़ी-से-बड़ी भीड़, बड़ा-से-बड़ा उन्माद, बेतहाशा शोर ! लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल कर सभी दल व सभी नेता मस्त हैं. सबसे कद्दावर उसे माना जा रहा है जो सबसे बड़ा मजमेबाज है. कुछ ऐसा ही आगत भांप कर संविधान सभा में बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था: लोकतंत्र अच्छा या बुरा नहीं होता है. वह उतना ही अच्छा या बुरा होता है जितने अच्छे या बुरे होते हैं उसे चलाने वाले !  

कोई 70 साल पहले हमारी लोकतांत्रिक यात्रा यहां से शुरू हुई थी कि हमें अपने मतदाता को मतदान के लिए प्रोत्साहित करना पड़ता था. मुट्ठी भर धनवान मतदान करने जाने में अपनी हेठी समझते थे तो सामान्य मतदाता इसे व्यर्थ समझता था. यह दौर लंबा चला लेकिन सिमटता भी गया. फिर हमने चुनाव आयोग का वह शेषन-काल देखा जब आयोग की पूरी ताकत बूथ कैप्चरिंग को रोकने और आर्थिक व जातीय दृष्टि से कमजोर वर्गों को बूथ तक नहीं आने देने के षड्यंत्र को नाकाम करने में लगती थी. यह दौर भी आया और किसी हद तक गया भी.

फिर वह दौर आया जब बाहुबलियों के भरोसे चुनाव लड़े व जीते जाने लगे. फिर बाहुबलियों का भी जागरण हुआ. उन्होंने कहा : दूसरों को चुनाव जितवाने से कहीं बेहतर क्या यह नहीं है कि हम ही चुनाव में खड़े हों और हम ही जीतें भी राजनीतिक दलों को भी यह सुविधाजनक लगा. सभी दलों ने अपने यहां बाहुबली-आरक्षण कर लिया. हर पार्टी के पास अपने-अपने बाहुबली होने लगे . फिर हमने देखा कि बाहुबलियों के सौदे होने लगे. सांसदों-विधायकों की तरह ही बाहुबली भी दल बदल करने लगे. लेकिन बढ़ते लोकतांत्रिक जागरणमीडिया का प्रसारचुनाव आयोग की सख्तीआचार संहिता का दबाव आदि-आदि ने बाहुबलियों को बलहीन बनाना शुरू कर दिया. वे जीत की गारंटी नहीं रह गये. यहां से आगे हम देखते हैं कि  चुनाव विशेषज्ञों के जादू’ से जीते जाने लगे.    

  होना तो यह चाहिए था कि चुनावों को लोकतंत्र के शिक्षण का महाकुंभ बनाया जाता लेकिन यह बनता गया विषकुंभ ! लोकतांत्रिक आदर्श व मर्यादाएं गंदे कपड़ों की तरह उतार फेंकी गई. सबके लिए राजनीति का एक ही मतलब रह गया : येनकेनप्रकारेण सत्ता पानाऔर सत्ता पाने का एकमात्र रास्ता बना चुनाव जीतना ! किसनेकैसे और क्यों चुनाव जीता यह न देखना-पूछना सबने बंद कर दिया गया और जो जीता उसके लिए नारे लगाए जाने लगे : हमारा नेता कैसा हो …  विनोबा भावे ने हमारे चुनावों के इस स्वरूप पर बड़ी ही मारक टिप्पणी की : यह आत्म-प्रशंसापरनिंदा और मिथ्या भाषण का आयोजन होता है. अब किसी ने इसे ही यूं कहा है : चुनाव जुमलेबाजी की प्रतियोगिता होती है. 

जिन पांच राज्यों में चुनाव चल रहे हैं वहां से कैसी-कैसी आवाजें आ रही हैंसुना है आपने कोई धर्म की आड़ ले रहा हैकोई जाति की गुहार लगा रहा हैकोई अपने ही देशवासी को बाहरी कह रहा है तो कोई अपना गोत्र और राशि बता रहा है. कोई किसी की दाढ़ी पर तो कोई किसी की साड़ी पर फब्ती कस रहा है. साम-दाम-दंड-भेद कुछ भी वर्जित नहीं है इन चुनावों में. सार्वजनिक धन से सत्ता खरीदने का बेशर्म खेल चल रहा है लेकिन न चुनाव आयोग कोन अदालत कोन राष्ट्रपति को ही लगता है कि संवैधानिक नैतिकता का कोई एक धागा उनसे भी जुड़ता है ! आप ध्यान से सुनेंगे तो भी नहीं सुन सकेंगे कि कोई कार्यक्रमों की बात कर रहा हैकोई विकास का चित्र खींच रहा हैकोई मतदाताओं का विवेक जगाने की बात कर रहा है. सभी मतदाता को भीड़ में बदलने का गर्हित खेल खेल रहे हैं ताकि मानवीय विकृतियों-कमजोरियों का बाजार अबाध चलता रह सके. हमारा लोकतंत्र अब इस मुकाम पर पहुंचा है कि किसी भी पार्टी को मतदाता की जरूरत नहीं है. सजगईमानदारस्व-विवेकी मतदाता सबके लिए बोझ बन गया हैउससे सबको खतरा है. नागरिकों का जंगल बना कर उनका शिकार करना सबके लिए आसान है.  

चुनावी प्रक्रिया को इस हद तक भ्रष्ट कर दिया गया है कि इसमें से कोई स्वस्थ लोकतंत्र पैदा हो ही नहीं सकता है. चुनाव आयोग एक ऐसी विकलांग संस्था में बदल गया है जिसके पास भवन के अलावा अपना कुछ भी बचा नहीं है. 2014 और 2019 के आम चुनाव के बारे में चुनाव आयोग ने ही हमें बताया है कि 2014 के चुनाव में देश भर में 300 करोड़ रुपये पकड़े गये जो मतदाताओं को खरीदने के लिए भेजे जा रहे थे. 1.50 करोड़ लीटर से अधिक शराब17 हजार किलो से अधिक ड्रग्स पकड़े गये तथा दलों का अपवाद किए बिना 11 लाख लोगों के खिलाफ काररवाई हुई जिन्हें दलों ने अपना कार्यकर्ता’ बना रखा था. 2019 के आम चुनाव में इस दिशा में अच्छा विकास’ देखा गया जब 844 करोड़ नकद रुपयों जब्ती हुई304 करोड़ रुपयों की शराब12 हजार करोड़ रुपयों के ड्रग्स आदि पकड़े गये. यह भारत सरकार की अपराध शाखा के आंकड़े नहीं हैंचुनाव आयोग के लोकतांत्रिक आंकड़े हैं. तो क्या चुनाव आयोग से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि यदि लोकतंत्र का ऐसा माखौल बनता जा रहा है तो आयोग की प्रासांगिकता ही क्या रह गई हैक्या ये आंकड़े ही हमें नहीं बताते हैं कि स्वतंत्रलोकतांत्रिक चुनाव करवाने की कोई दूसरी व्यवस्था हमें सोचनी चाहिए अगर चुनाव आयोग राष्ट्रपति व सर्वोच्च न्यायालय से ऐसा कुछ कहे तो यह पराजय की स्वीकृति नहींइलाज की दिशा में पहल कदम होगा. लोकतंत्र का मतलब ही है कि इसकी पहली व अंतिम सुनवाई लोक की अदालत में हो. लेकिन वह तो भीड़ बन करभीड़ में खो गया है. 

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप / जो भी थी रोशनी वह सलामत नहीं रही. 

( 02.04.2021)

इतिहास को भूलने का खतरा

अपनी स्वतंत्रता की 50वीं वर्षगांठ मना कर बांग्लादेश ने फुर्सत पा ली. प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भारतीय प्रधानमंत्री को मुख्य मेहमान बना कर अपनी राजनीतिक राह आसान करने की कोशिश की तो भारतीय प्रधानमंत्री ने हमेशा की तरह इस मौके से भी अपने लिए राजनीतिक फायदे की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेने की कोशिश की. उन्होंने खुद को बांग्लादेश की आजादी का सिपाही भी घोषित कर लिया और उस भूमिका में अपनी जेलयात्रा का विवरण भी दे दिया जबकि सच तो यह है कि उनकी पार्टी के उस कार्यक्रम में उन जैसे सैकड़ों जनसंघी कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया था. मैं भी उन कार्यकर्ताओं में एक था’, ऐसा कहने की विनम्रता प्रधानमंत्री की विशेषता नहीं रही है. वे उस फिल्मी संवाद के मूर्तिमान स्वरूप हैं कि मैं जहां खड़ा होता हूं, लाइन वहीं से शुरू होती है. और यह भी तथ्य है कि तब शायद ही कोई विपक्षी दल था कि जिसने सरकार के विरोध में वैसे कार्यक्रम न किए हों और गिरफ्तारी न दी हो. 

लेकिन इतिहास बताता है कि 50वीं वर्षगांठ के इस ऐतिहासिक मौके पर बांग्लादेश व भारत दोनों ने जाने-अनजाने में बला की ऐतिहासिक निरक्षता का परिचय दिया. 2015 में शेख हसीना की सरकार ने एक बड़ा चमकीला आयोजन किया था और उन सबको बांग्लादेश लिबरेशन एवार्ड’ से सम्मानित किया था जिन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में उल्लेखनीय भूमिका अदा की थी. ऐसे लोगों में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी भी थे. वे तब इतने बीमार थे कि ढाका जा नहीं सकते थे. उनकी तरफ से यह सम्मान ग्रहण करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ढाका पहुंचे थे - मुक्ति संग्राम के सहयोगी सिपाही के रूप में नहींकिसी अनुपस्थित की जगह भरने ! 

उस समारोह में एक और भारतीय सम्मानित किया गया था जिसे समर्पित सम्मान-प्रतीक मेरे सामने के टेबल पर धरा रहता है और हमेशा मुझे घूरता रहता है. बंगबंधु शेख मुजीब की प्रधानमंत्री बेटी शेख हसीना भले भूल जाएं और भारत के प्रधानमंत्री आत्ममुग्धता से भले बाहर न निकल सकें लेकिन इतिहास तो जानता है कि पहले दिन से ही बांग्लादेश के संघर्ष को सही संदर्भ में समझनेउसे देश-दुनिया को समझाने और उसके लिए देश-दुनिया की अंतररात्मा को झकझोरने का अनथक काम किसी एक व्यक्ति ने किया था तो उसका नाम जयप्रकाश नारायण था. 50वीं वर्षगांठ के समारोह में किसी ने गलती से भी उस जयप्रकाश को याद न करके अपनी छिछली ऐतिहासिक समझ का परिचय दिया. जयप्रकाश के पास न सत्ता की कोई कुर्सी थीन सत्ता पर दावा करने वाली कोई पार्टी थी और न पर्दे के पीछे से काम करने वाला कोई एजेंडा था. वे लोकतंत्र की आराधना करने वाले एक ऐसे नागरिक थे जिसने ताउम्र संसार के किसी भी कोने से उठने वाली लोकतांत्रिक आकांक्षा को हमेशा स्वर भी दिया और समर्थन भी. 

देश-विभाजन का अंत-अंत तक खुला विरोध करने वाले गिने-चुने नामों में जयप्रकाश का नाम आता है. उन्होंने पाकिस्तान की परिकल्पना का कभी भी स्वागत-समर्थन नहीं किया. सांप्रदायिक राजनीति के कट्टर विरोधियों की किसी भी सूची में उनका नाम दर्ज होगा ही. लेकिन वही जयप्रकाश आजादी के तुरंत बाद से हीभारत-पाकिस्तान के बीच संवाद की पहल करने और उसके लिए नागरिक मंच बनाने वालों में हमें सबसे आगे खड़े मिलते हैं. आजादी के तुरंत बाद शांति-सद्भावना के लिए प्रयास करने वालों का एक नागरिक प्रतिनिधि मंडल ले कर पाकिस्तान जाने वाले पहले भारतीय नेता जयप्रकाश ही थे. हम यह भी पाते हैं कि सैनिक बगावत से सत्ता हड़पने वाले पाकिस्तानी जेनरल अयूब खान ने जब बुनियादी लोकतंत्र’ के नाम से एक प्रयोग की बात की तब गलतफहमी का खतरा उठा कर भी जयप्रकाश ने उसे सराहा. गलतफहमी होनी थीहुई और उन्हें तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ा लेकिन वे समझाते रहे कि मेरा समर्थन अयूब की तानाशाही को नहींलोकतंत्र के उनके प्रयोग को है. दोनों दो अलग बातें हैं. राजनीति का संकीर्ण मतलब करने व समझने वालों को ऐसे जयप्रकाश को पचाना हमेशा मुश्किल रहा है. संघ परिवार के लिए तो जयप्रकाश हमेशा ही अबूझ पहेली रहे. नरेंद्र मोदी जिस दल के सदस्य हैं व जिसकी तरफ से प्रधानमंत्री हैं उसने जयप्रकाश को देशद्रोही’ भी कहा था और उन्हें फांसी’ देने की मांग भी की थी. इतिहास में ऐसी कितनी ही गलियां मिलेंगी आपको जिनमें नासमझों की फौज कवायद करती दिखाई देती है. लेकिन अभी बात बांग्लादेश की ही करूंगा. 

1971 में जब पाकिस्तान के आम चुनाव का नतीजा सामने आया और शेख मुजीब की अवामी लीग ने पूर्व पाकिस्तान की 169 सीटों में से 167 सीटें जीत कर पश्चिम पाकिस्तान की दादागिरी को सीधे जमीन पर ला पटका थातब जयप्रकाश ही थे कि जिन्होंने इसका सही संदर्भ समझा था और इसकी हर खुलती परत पर नजर रखी थी. वे इससे पहले से पाकिस्तान के भीतर उठ रही परिवर्तन की लहरों को देख रहे थे और समझा रहे थे कि हमें इन संकेतों के आधार पर अपनी नीतियां बनानी चाहिए. 

शेख मुजीब और जयप्रकाश एक-दूसरे के लिए अजनबी नहीं थे. दोनों आजादी की लड़ाई के दिनों से एक-दूसरे को जानते थे भले सीधे परिचित न हों और अलग-अलग रास्तों के राही हों. लेकिन पूर्व पाकिस्तान के मुजीब संपूर्ण पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनेंसत्ता से पश्चिमी पाकिस्तान का एकाधिकार टूटेयह जयप्रकाश के लिए यह पाकिस्तान की राजनीति का आंतरिक मामला नहींलोकतंत्र के विकास का संकेत था. इसलिए फौजी तानाशाह याहय्या खान व तिकड़मी राजनीतिज्ञ जुल्फिकार अली भुट्टो की जोड़ी ने मिल कर जब शेख मुजीब को उनके इस अधिकार से वंचित करने की चालें शुरू कीं तो जयप्रकाश सावधान हो गए. तब वे देश-दुनिया से प्राय: कटेबिहार के ठेठ ग्रामीण क्षेत्र मुसहरी में ग्रामस्वराज्य का प्रयोग करने बैठे हुए थे. लेकिन एक सावधान समाजविज्ञानी के नाते वे हर नई हलचल पर नजर रखते थे. शेख मुजीब को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की हर तिकड़म करने के बाद पश्चिम पाकिस्तान ने पूर्व पाकिस्तान पर बाजाप्ता हमला ही बोल दिया. फौजी दमन का ऐसा नृशंस दौर शुरू हुआ कि जिसकी तब भी और आज भी कल्पना कठिन है. मुसहरी की अपनी झोपड़ी के अंधेरे मेंट्रांजिस्टर से वहां की खबरें सुनते जयप्रकाश को पत्तों की तरह कांपते और विह्वल होते मैंने देखा है. उन्होंने बांग्लादेश संकट के एकदम शुरुआती दौर में ही अपने संपर्कों से दिल्ली को खबर भिजवाई थी कि भारत सरकार को पूर्व पाकिस्तान की घटनाओं की तरफ से न चुप रहना चाहिएन उदासीन. लेकिन दिल्ली की हवा-पानी का ही दोष है शायद कि वह तब भी और आज भी ऊंचा ही सुनती है. जब किसी ने जयप्रकाश से कहा कि यह सब राजनीतिक बातें राजनीतिज्ञों के लिए ही छोड़ देनी चाहिए तब बहुत दर्द से वे बोले थे : मैं क्या करूंउनकी चीखें मेरे कानों में गूंजती हैं ! पवनार आश्रम से सलाह आई : सरकार के पास ज्यादा जानकारियां होती हैं ! जयप्रकाश ने जवाब भिजवाया : सवाल जानकारी का नहींउसे समझने का है. 

जयप्रकाश पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पूर्वी पाकिस्तान के दमन को लोकतंत्र के दमन का नाम दिया और शांतिमय जनांदोलन का रास्ता अपनाने के लिए शेख मुजीब का समर्थन किया. तब तक देश-दुनिया इस दमन की दर्शक बनी बैठी थी. शेख मुजीब ने सारे पूर्वी पाकिस्तान को जिस तरह प्रतिकार में खड़ा किया और जैसी राष्ट्रव्यापी हड़ताल आयोजित की उसे देखकर जयप्रकाश झूम उठे और अपने सर्वोदय साथियों से कहने लगे कि यह गांधी की दिशा को उन्नत करने वाला है. पाकिस्तानी दमन देखते-देखते नरसंहार में बदल गया. सड़कों परविश्वविद्यालयों मेंसंस्थानों में निहत्थे लोग थोक के भाव से मारे जाने लगे. घटनाएं इतनी तेजी से घट रही थीं कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी विमूढ़-सी हो रही थीं. विपक्ष के पास कोई दृष्टि नहीं थी. लेकिन यहां देश में भी और वहां दुनिया में भी एक अनोखा विभाजन आकार लेने लगा था : जनता इस दमन के खिलाफ मुखर होती जा रही थी, ‘जनता की सरकारें’ मौन साधे हुई थीं. पश्चिमी देश अधिकांशत: इसे अश्वेतों की असभ्यता’ का नाम दे कर अपनी राजनीतिक चालें चल रहे थे.

संकट आगे बढ़ा तो मुजीब साहब ने पूर्व पाकिस्तान को बांग्ला भाषा व संस्कृति से जोड़ कर एक नया ही संदर्भ खड़ा कर दिया और पूर्व पाकिस्तान की जगह बांग्लादेश’ नाम हवा में तैरने लगा. जयप्रकाश ने इसे नई राजनीतिक दिशा दी और पहली बार यह मांग उठाई कि भारत सरकार बांग्लादेश को राजनीतिक मान्यता दे ! विनोबा समेत कई लोगों को लगा कि जयप्रकाश सर्वोदय की लक्ष्मण-रेखा लांघ रहे हैं. कुछ राजनीतिक विश्लेषकों को लगा कि जयप्रकाश अपरिपक्वता का परिचय दे रहे हैं. लेकिन बांग्लादेश को राजनीतिक मान्यता की जयप्रकाश की मांग ने विश्व जनमत को एक दिशा दे दी. लोकतंत्र में जनमत एक हथियार हैऐसा कहा था गांधी नेजयप्रकाश उस हथियार को बनाने में जुट गये. इंदिराजी के लिए यह दवाब खासा मुश्किल साबित हुआ. वे अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन व पश्चिमी देशों के रवैये से घबराई हुई थीं. उन्हें कहीं यह भी लग रहा था कि जयप्रकाश उनसे राजनीतिक पहल छीनते जा रहे हैं. उन्होंने मान्यता का सवाल यह कह कर टाल दिया कि दुनिया भर का माहौल तैयार करने के बाद ही ऐसा करना उचित होगा. उन्होंने सोवियत संघ के साथ शांति-सुरक्षा की संधि कर अमरीका को जवाब देने की कोशिश की. जयप्रकाश इस कूटनीति को समझ भी रहे थे और इसका समर्थन भी कर रहे थे लेकिन वे यह भी कह रहे थे कि भारत को मजबूत राजनीतिक पहल करनी चाहिए.  

जयप्रकाश कह ही नहीं रहे थे वे आगे बढ़ते जा रहे थे. भारत सरकार जब ऊहापोह में फंसी थीभारत के जयप्रकाश बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी के साथ तालमेल बना चुके थे और पूर्वी पाकिस्तान की धरती पर जा कर परिस्थिति का आकलन कर आए थे. मुजीब तब तक मंच से गायब कर दिए गए थे लेकिन अवामी लीग के दूसरे नेताओं के साथ जयप्रकाश का सीधा संपर्क बन चुका थाउनमें मंत्रणा चलने लगी थी. जयप्रकाश सरकार से अलग व समानांतर भूमिका में काम  कर रहे थे. वे देश में जगह-जगह सभाएं कर रहे थेप्रेस से बातें कर रहे थेदुनिया भर से नागरिक स्तर पर संवाद चला रहे थे. उनके अनथक प्रयासों व उनके अकाट्य तर्कों से बांग्लादेश को मान्यता देने का सवाल सत्ताओं के गले की फांस बनता जा रहा थातो विश्व जनमत को एक केंद्रबिंदु प्रदान कर रहा था.  

 वे बार-बार यही सवाल पूछते रहे : हम देखते रहें और हमारे पड़ोस में उठी लोकतांत्रिक आकांक्षा को फौजी बूटों तले कुचल दिया जाए तो लोकतंत्र का संरक्षण कैसे होगा ?  वे हर मंच से यह साफ करते थे कि सवाल पाकिस्तान का नहींलोकतंत्र का है. पाकिस्तान ने खुद को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा लिया है तो उसे ही इससे निकलने की पहल करनी होगी.  वे यह भी साफ कह रहे थे कि इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता एक ही है कि पाकिस्तान बंगबंधु मुजीब को वापस मंच पर लाएउनसे बराबरी में बातचीत करे और उनको पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनाए. वे बार-बार पूछते थे : अपने ही संविधान और अपने ही चुनाव को धता बता कर कोई लोकतंत्र यशस्वी कैसे हो सकता है पाकिस्तान संभलेदमन बंद करे व अपना देश संभाले ऐसा कहते हुए वे पाकिस्तान को सावधान भी कर रहे थे कि ऐसा करने का वक्त बीतता जा रहा है. बांग्लादेश की स्वतंत्र भूमिका बनती जा रही है. 

इंदिरा गांधी अब समझ रही थीं कि जयप्रकाश की भूमिका देश-दुनिया में लोक-आकांक्षा बन गई है. उन्हें यह भी पता चला कि गांधी-विचार से प्रभावित कई विदेशी समाजशास्त्री अपने मित्र जयप्रकाश को बांग्लादेश के संदर्भ में उनकी भूमिका समझाने के लिए अपने देश में आमंत्रित कर रहे हैं. इंदिराजी को सलाह दी गई कि भारत सरकार जयप्रकाश को भारत का पक्ष समझाने के लिए अपना दूत बना कर भेजे तो वे एक रचनात्मक भूमिका अदा कर सकते हैं. जयप्रकाश ने अपनी स्थिति स्पष्ट की: मैं भारत सरकार की हर संभव मदद करने को तैयार हूं लेकिन उसका दूत या प्रतिनिधि बनकर नहीं. मेरी भूमिका और सरकार की भूमिका अलग-अलग है फिर भी बांग्लादेश को मान्यता देने की अंतरराष्ट्रीय भूमिका बनेयह हम दोनों चाहते हैं. मैं अपनी निजी हैसियत से ही जाऊंगा लेकिन सरकार के लिए सुविधाजनक जमीन बनाने का काम करूंगा. इंदिराजी ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और यह सुविधा भी बना दी कि जयप्रकाश जहां भी जाएंगे वहां का भारतीय दूतावास हर तरह की अनुकूलता बनाने में उनकी मदद करेगा. 

जयप्रकाश का स्वास्थ्य ऐसा नहीं था कि वे ऐसी जटिलकूटनीतिक मुहिम पर निकलते लेकिन अभी मेरे नहींदेश व लोकतंत्र के स्वास्थ्य का सवाल हैकह कर वे अ-सरकारी- सरकारी प्रतिनिधि की दोहरी भूमिका निभाने का करतब करने 1971 के मध्य में निकल पड़े. पहला पड़ाव काहिरा था. फिर वे यासर अराफात से मिले. युगोस्लाविया में मार्शल टीटो और जर्मनी में अपने पुराने मित्र चांसलर विली ब्रांट से मिले. वे पोप से भी मिले. मास्कोहेलसिंकीफ्रांसइंग्लैंड और अमरीका होते हुए वे वापस लौटे. ‘ यह पाकिस्तान का आंतरिक मामला है’, जैसी भूमिका समझाने वालों को उनका यह जवाब अवाक कर गया  था कि लोकतंत्र किसी का भी आंतरिक मामला नहीं होता है. दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र लोक का मामला है और उसका दमन हर किसी की चिंता का विषय होना चाहिए. अमरीका में जब उसके काइयां विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने भी आंतरिक मामला’ की ढाल सामने की तो जयप्रकाश ने कहा: मेरे पड़ोसी के घर में लगी आग उसका आंतरिक मामला नहीं हो सकती है क्योंकि उसकी और मेरी छत जुड़ी हुई है. अमरीकी अखबारों ने इसे ही सुर्खी बनाया और यह भी लिखा कि कीसिंजर जयप्रकाश के इस तर्क के सामने निरुत्तर रह गये. उनका कोई 40 दिनों लंबा यह दौरा इस अर्थ में विफल रहा कि वे सरकारों का रवैया नहीं बदल सके लेकिन इस अर्थ में बेहद सफल रहा कि बांग्लादेश को मान्यता देने का नागरिक आंदोलन खूब मजबूत बना. यह दवाब आगे बहुत काम आया. जयप्रकाश ने इस दौरे में तीन बातें पहचानीं : मुस्लिम देश पाकिस्तान की ज्यादतियों की अनदेखी इसलिए करते हैं कि यह मामला इस्लाम का हैपश्चिमी देशों का सफेद चमड़ी का खोखला घमंड’ अब तक गया नहीं है और तीसरा यह कि सारी दुनिया में लोक और तंत्र का आमना-सामना बढ़ता जा रहा है. बाद में इंदिराजी खुद भी 21 दिनों के ऐसे ही मिशन पर निकलीं और जयप्रकाश जैसी ही विफलता के साथ वापस आईं. 

जयप्रकाश देख रहे थे कि उनके अपने भारत में भी तंत्र की जड़ता बनी हुई थी. वह बांग्लादेश की मदद कर तो रहा था लेकिन ऐसी निर्णायक लड़ाई में जैसी खुली मदद जरूरी थीवह मुक्ति वाहिनी को नहीं मिल पा रही थी. जयप्रकाश अपने प्रभाव से हर तरह से मदद जुटाने में लगे थे और सरकार को भी सुझाव दे रहे थे कि वह खुली सैनिक मदद दे. इंदिराजी ने 4 दिसंबर 1971 को जयप्रकाश का दवाब झटकते हुए कहा कि हमें आदेश देना बंद करें लोगऔर दो दिन बाद6 दिसंबर को बांग्लादेश को मान्यता दे दी. सत्ता इसी तरह हमेशा अपना हाथ ऊंचा दिखाने में लगी रहती है. उसके बाद का इतिहास यहां दोहराने का प्रयोजन नहीं है. सोवियत संघ को साथ ले कर इंदिराजी ने कूटनीतिक बारीकियों के मोर्चे पर भी और युद्ध में भी पाकिस्तान को पराजित किया. यह प्रकारांतर से अमरीका की कूटनीतिक पराजय भी थी. इंदिराजी का यश आसमान पर था. जयप्रकाश ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की. लेकिन यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि पाकिस्तान के फौजी शासन की भोंडी कूटनीति और पश्चिम की खोखली हेंकड़ी के कारण अंटक-अंटक कर चलने वाली इंदिरा गांधी को सफलता मिल तो गई लेकिन यह बाजी उल्टी भी पड़ सकती थी और बांग्लादेश का जन उभार कुचला जा सकता था. जयप्रकाश ने देश-विदेश में जैसी हवा बनाईउससे इस विफलता से बचने में बहुत मदद मिली. 

शेख मुजीब ने जयप्रकाश की इस भूमिका को पहचाना और जब वे अपनी अज्ञात कैद से निकल करढाका जाने के लिए लंदन पहुंचे तो विश्व को अपने पहले संबोधन में उन्होंने जयप्रकाश का अलग से जिक्र किया. इंदिराजी ने इसे पसंद नहीं किया. अपने तरीकों से उन्होंने जयप्रकाश से दूरी बनाए रखने की हिदायत भी शेख मुजीब तक पहुंचा दी. ढाका जाने के लिए लंदन से मुजीब दिल्ली पहुंचे तो भी उन्होंने जयप्रकाश को याद किया. ढाका की अपनी विजय-सभा में मुजीब चाहते थे कि जयप्रकाश भी मौजूद रहें लेकिन दिल्ली ने इसे भी हतोत्साहित किया. संघर्ष के दिनों में अवामी लीग के जिन शीर्ष नेताओं से लगातार विार-विमर्श चलता थावे अब जयप्रकाश के पास आने से हिचकने लगे. आगे का इतिहास बताता है कि बांग्लादेश बनने के साथ ही इंदिराजी का भी और बंगबंधु का काम भी पूरा हो गया. लेकिन बांग्लादेश बन जाने और शेख साहब के प्रधानमंत्री बन जाने से जयप्रकाश का काम पूरा नहीं हुआ. 

इतिहास के पन्नों में जयप्रकाश का वह पत्र दबा मिलता है हमें जो पटना से लिखा गया है और जिस पर 31 जनवरी 1972 की तारीख पड़ी है. यह पत्र बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान को लिखा गया है. पत्र भावुकता से शुरू होता है और फिर शेख मुजीब को उनकी गहरी भूमिका समझाता है. शुरू में जयप्रकाश लिखते हैं : “ अपनी इस उम्र और स्वास्थ्य के कारण मुझ जैसे आदमी के मन में अब इसके अलावा कोई लालसा बची नहीं है कि बगैर किसी लोभ-लालच-आकांक्षा केशांत व खुश मन से अपने सिरजनहार से मिल सकूं. लेकिन जिस दिन आप लंदन से दिल्ली आएउस दिन के ऐतिहासिक अवसर पर वहां हाजिर रहने की जबरदस्त इच्छा ने मुझे विवश-सा कर दिया था. आपके दर्शन करनेआपको फूलों की माला पहनाने और पल भर के लिए आपको अपनी पूरी ताकत से गले लगा लेने के लिए मेरा मन मचल उठा था…” फिर पत्र का भाव बदलता है : “ ईश्वर आपको लंबी उम्र व बढ़िया तंदुरुस्ती दे ताकि आप न केवल अपने व अपने साढ़े सात करोड़ बंधुओं के सपनों का सोनार बांग्ला साकार कर सकें बल्कि इस अभागे उपमहाद्वीप को स्वतंत्रस्वायत्त राष्ट्रों का सुसभ्यसुबुद्धसहयोगी और समृद्ध समुदाय बनाने के ऐतिहासिक कार्य में मददगार हो सकें… विनोबाजीजवाहरलालजीराममनोहर लोहिया और मेरे सहित इस देश के कई लोगों का सपना रहा है कि केवल भारतीय उपमहाद्वीप का नहीं बल्कि समूचे दक्षिण एशिया का भविष्य इसमें ही निहित है कि इस क्षेत्र के सभी देश किसी-न-किसी प्रकार के संघ अथवा भाईचारे से बंधे-जुड़े रहें… ऐसा लगता है मानो नियति ने राजनीतिकआर्थिक और अन्य हितों का एक भाईचारा खड़ा करने के लिए इस क्षेत्र की रचना की है !… इस सपने में आपको साझीदार बनाने का कारण यह है कि मेरे विचार में इस सपने को साकार करने के लिए आवश्यक नैतिक और राजनीतिक व्यक्तित्व आपके पास है… इसके अलावा 51 साल की आपकी उम्र आपको इस ऐतिहासिकचुनौती भरे काम को अंजाम तक पहुंचाने का भरपूर समय भी देती है… आपने लंदन में खुद को गांधी परंपरा का व्यक्ति बताया था … तो मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि आजकल चलते-फिरते जिस समाजवाद की बात करना फैशन हो गया है उससे गांधीजी का समाजवाद भिन्न था. वे उसे सर्वोदय कहना पसंद करते थे और उनका समाजवाद या सर्वोदय अंत्योदय’ से शुरू होता था… बांग्लादेश की परिस्थितियों के कारण राज्य की सर्वोच्च सत्ता अपने हाथ में लेना आपके लिए अनिवार्य बन गया था लेकिन गांधीजी की रीति इससे भिन्न थी… इसके बावजूद मैं यह उम्मीद रखता हूं कि जिस तरह अपने लड़खड़ाते स्वास्थ्य और प्रशासन पर अपनी पकड़ ढीली होते जाने के बावजूद जवाहरलालजी सत्ता में बने ही रहेआप वैसा नहीं करेंगे…” वे मुजीब साहब को सावधान करते हैं कि वे भारत की गलतियां न दोहराएं और नौकरशाही को समाजवाद का आधार न बनाएं… “ मैं अपनी तरफ से यह उत्कट आशा रखता हूं कि आपके नेतृत्व में बांग्लादेश को समाजवाद की अपनी खामियों और भूलों को समझने में हमारी तरह चौथाई सदी के बराबर समय नहीं लगेगा… आपको इस तरह लिखने का मुझे कोई अधिकार नहीं है. मेरे समान एक साधारण नागरिक एक महान राष्ट्र के आपके जैसे निर्विवाद महान नेता को सलाह देने की धृष्टता भला कैसे करे ! लेकिन गांधीजनों के एक अदना प्रतिनिधि के रूप में आपके और आपकी बहादुर व धैर्यवान जनता के प्रति  अपनी स्नेह-भावना के वशीभूत होकर मैंने यह सब आपको लिखा है.

जयप्रकाश यह लिख सकेबंगबंधु कोई जवाब नहीं दे सके. इतिहास ने शेख साहब के कंधों पर संभावनाओं की जो गठरी डाल दी थीवे उससे कहीं छोटे साबित हुए. 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में जो कुछ हुआ उसे दूसरों से एकदम भिन्न धरातल पर जयप्रकाश ने पहचाना था और उसे साकार करने में अपना पूरा बल लगा दिया था. लेकिन मुजीब न वह दिशा समझ सके और न वैसी हैसियत ही बना सके.  सत्ता की सबसे बड़ी गद्दी पर पहुंच कर वे खो गये. वे न दूरदर्शी राजनेता साबित हुएन कुशल प्रशासक. सत्ता की ताकत से देश को मुट्ठी में रखने की कोशिश में वे सारे अधिकार अपने हाथों में समेटते गये और अंतत: 1975 में खुद को प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बना लिया और एक तानाशाह की भूमिका में आ गये.  लेकिन उनका अंत बहुत करीब था. 15 जनवरी 1975 को फौजी व राजनीतिक बगावत में वे सपरिवार मार डाले गये. तब जयप्रकाश अपने देश की दिशा मोड़ने के अपने अंतिम अभियान के संचालन के अपराध’ में चंडीगढ़ के अस्पताल में नजरबंद थे. वे नजरबंद तो थे लेकिन उनकी नजर बंद नहीं थी. देश-दुनिया की हलचलों के प्रति वे सावधान थे. चंडीगढ़ की नजरबंदी के दरम्यान वे डायरी लिखते थे. अपनी उस जेल डायरी में16 अगस्त 1975 को वे लिखते हैं : “ बांग्लादेश से अत्यंत पीड़ादायक खबर है- अविश्वसनीय की हद तक ! लेकिन जिस तरह मुजीब ने अपनी निजी व दलीय तानाशाही वहां स्थापित कर रखी थीयह उसका ही नतीजा है. दिल्ली में उन दिनों यह अफवाह गाढ़ी हो चली थी कि मुजीब ने जो किया है उसकी योजनाउनके भरोसे के लोगों के साथ मिल कर दिल्ली में ही बनाई गई थी. उस वक्त अपने एकाधिकार का अौचित्य बताने के लिए मुजीब ने भी वैसे ही कारण दिए थे जैसे अब श्रीमती गांधी दे रही हैं. तब यह बात भी हवा में थी कि यदि श्रीमती गांधी की चली तो वे भी बांग्लादेश के रास्ते ही जाएंगी.” अगले दिन की डायरी में वे फिर बांग्लादेश का सवाल उठाते हैं और मुजीब व बांग्लादेश के प्रति अपनी पुरानी भावनाओं का जिक्र करते हुए लिखते हैं: “ लेकिन जब उन्होंने रंग बदला और एकदलीय शासन की स्थापना कर लीउनके प्रति मेरे कोमल भाव हवा हो गये. मैं उनकी दिक्कतें समझ रहा था. लेकिन यदि उनमें योग्यता होती तो अपनी जनता पर उनका जैसा गहरा असर और अधिकार थाबहुत कुछ जवाहरलाल जैसाउसके सहारे वे लोकतंत्र को दफनाए बिना भी परिस्थिति पर काबू कर सकते थे. लेकिन उन्होंने मूर्खता की और विफल हुए. कल जब मैंने उनकी हत्या की खबर पढ़ी तो मैं उदास जरूर हुआ लेकिन मुझे कोई धक्का नहीं लगान मेरे दिल में उनके लिए कोई गहरा संताप ही जागा.” 22 अगस्त 1975 की डायरी फिर बांग्लादेश का जिक्र करती है : “ बांग्लादेश की खबरें अधिकाधिक भयावह होती जा रही हैं. बगावत के दिन मुजीब के साथ-साथ उनकी पत्नीउनके तीन बेटोंदो बहुओंदो भतीजों जैसे मुजीब के निकटस्थ 18 रिश्तेदारों की हत्या हुई. ऐसी क्रूरता को समझ पाना भी कठिन है… मुजीब को मार कर सारी सत्ता हथिया लेने के बाद अब खोंडकर मुश्ताक अहमद लोकतंत्र की बात कर रहे हैं. मैं यह खेल समझता हूं. सारे तानाशाह ऐसी ही बातें करते हैं. हमारे पास भी तो अपनी श्रीमती गांधी हैं ! लेकिन मुजीब के सारे परिवार को क्यों नष्ट कर दिया ?… जो भी होहाल-फिल्हाल के इतिहास का यह सबसे काला कारनामा है.”        

अब न जयप्रकाश हैंन शेख मुजीबन इंदिराजी. वह बांग्लादेश भी नहीं है जिसे जयप्रकाश ने एक संभावना के रूप में देखा था. आज तमाम देशों की भीड़ में बांग्लादेश भी शरीक है और तमाम भेंड़ियाधसान शासकों की भीड़ में उसकी भी अपनी जगह है. लेकिन आज बांग्लादेश किसी संभावना का नाम नहीं है. वह संभावना क्या थीकैसे बनी और क्यों खो गईयह जानना जरूरी इसलिए हो जाता है कि इतिहास इसी तरह वर्तमान को रचता है. यह लेख इसलिए ही लिखा गया. इसलिए नहीं कि जयप्रकाश की भूमिका का गुणगान किया जाएन इसलिए कि यह खतरा है कि हम जयप्रकाश को भूल जाएं. खतरा यह है कि हम अपना इतिहास ही न भूल जाएं ! बांग्लादेश को भी और हमें भी अपना इतिहास बार-बार पढ़ने की और उसे साफ-साफ समझने की जरूरत है. जो अपना इतिहास भूल जाते हैं वे वर्तमान को न समझ पाते हैंन बना पाते हैं. हम सब इसी त्रासदी से गुजर रहे हैं. ( 01.04.2021)

यही सच्चा धर्म है

 अनचाही और अमंगलकारी खबरों की भीड़ में कहीं यह शुभ खबर गुम ही न हो जाए, इसलिए इसे लिख रहा हूं और वसीम रिजवी साहब का धन्यवाद कर रहा हूं कि इस अंधे दौर में वे अंधकार की चापलूसी नहीं कर रहे, आंखें खोलने की वकालत कर रहे हैं. 

वसीम रिजवी उत्तरप्रदेश के शिया सेंट्रल वफ्फ बोर्ड के कभी अध्यक्ष रहे हैं. आतंकवादी संगठनों और आतंकी काररवाइयों की लानत-मलानत करने में उनकी आवाज सबसे पहले व सबसे साफ सुनाई देती रही है. वे हवा के साथ बहने और झुनझुना बजाने वालों में नहीं रहे हैं. रिजवी साहब ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है और अदालत से निवेदन किया है कि कुरान से उन 26 आयतों को निकाल दिया जाए जो रिजवी साहब के मुताबिक ‘ आतंकवाद और जेहाद’  को बढ़ावा देते हैं. रिजवी साहब का दावा है कि ये 26 आयतें मूल कुरान का हिस्सा नहीं हैं बल्कि मुहम्मद साहब के बाद आए उन तीन खलिफाओं ने इसे समय-समय पर कुरान में जोड़ा है जो इस्लाम का प्रचार-प्रसार करने में लगे थे. बात इतनी सीधी और मामूली है लेकिन इसकी प्रतिक्रिया गैर-मामूलीजहरीली व राजनीतिक चालबाजियों से भरी है. 

देश का कोई भी सांप्रदायिक तबका-संगठन-व्यक्ति नहीं बचा है कि जो रिजवी साहब को धमकाने-डराने व झुकाने में नहीं आ जुटा है. और आप हैरान न हों कि इसमें सबसे आगे भारतीय जनता पार्टी के मुस्लिम चेहरे हैं. कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी की आइटी सेल के प्रभारी मंजूर अहमद भट्ट ने रिजवी साहब के खिलाफ न केवल प्रदर्शन आयोजित किया बल्कि श्रीनगर के पुलिस प्रमुख से आग्रह किया है कि घृणा फैलाने के जुर्म में रिजवी साहब पर एफआइआर दर्ज करें. उन्होंने कहा है कि भाजपा किसी को भीकिसी भी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की इजाजत नहीं देगी. इस विद्रूप को हम पचा पाते कि भारतीय जनता पार्टी के कश्मीर के प्रवक्ता अल्ताफ ठाकुर ने बात को राष्ट्रीय नहींअंतरराष्ट्रीय मंच पर पहुंचा दिया. उन्होंने कहा कि इससे सारी दुनिया के मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं पर आघात हुआ है. उन्होंने ताबड़तोड़ रिजवी साहब की गिरफ्तारी की मांग की है. लखनऊ मुस्लिम धर्म के सारे दावेदार नेताओं का अखाड़ा बन गया है. लखनऊ के ही किसी सज्जन ने रिजवी साहब का सर काट लाने वाले को 20 हजार रुपयों का इनाम देने की घोषणा की है और यह भी कहा है कि वे यह रकम सड़क पर चंदा मांग कर जुटाएंगे. रिजवी साहब के लिए सजा की मांग करने वाले मुस्लिम संगठनों की सूची इतनी लंबी है कि पढ़ते हुए आप लंबे हो जाएं. एक सुर से कहा जा रहा है कि रिजवी हिंसा भड़का रहे हैं. 

धमकियोंअपशब्दों और हिंसक इरादों की चादर अोढ़े इतने लोग हैं और उनके इतने बयान हैं लेकिन रिजवी साहब मौन हैं. हिंसा भड़काना तो दूरवे कोई जवाब ही नहीं दे रहे हैं. लगता है कि उन्हें जो कहना था और उनकी जो चिंता थी वह अदालत के सामने रख कर वे मुतमइन हो कर इंतजार में हैं कि कब अदालत हाथ उठाती है और मुंह खोलती है. किसी नागरिक की यही सबसे लोकतांत्रिक और जिम्मेवारी भरी भूमिका हो सकती है. 

रिजवी साहब जो कह रहे हैं वह सही हो सकता हैआधा सही हो सकता है याकि पूरा ही बेबुनियाद हो सकता है. यही तो वे कह रहे हैं कि अदालत में इसकी छानबीन हो. इसमें कहां हिंसा आती हैकहां किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करना आता है क्या किसी का ऐसा कहना है कि अदालत में जाना हिंसा है या अधार्मिक कृत्य है 

केवल कुरान का नहींदुनिया की हर धार्मिक किताब का सच यह है कि उसका सच कहीं खो गया है. बहुत सारी धूल उस पर आ पड़ी है. ये किताबें जब लिखी गई थीं तब भी इंसान ने लिखी थीं. सदियों से उनका पालन भी इंसान ही करते आ रहे हैं. इंसान कमियों-गलतियों का आधा-अधूरा पुतला है तो उसकी छाया भी इन महान किताबों पर पड़ती रहती है. छाया देखती कहां है कि वह कितनी महान रोशनी को धुंधला बना रही है कि फैलने से रोक रही है. छाया छाया का धर्म निभाती हैऔर धर्म को आच्छादित कर लेती है. गीता में भगवान भी कहते तो हैं ही न कि जब-जब धर्म की हानि होती हैमैं उसके संरक्षण के लिए जन्म लेता हूं. मतलब धर्म की हानि हो सकती हैधर्म की हानि होती है और यह धर्म के अनुयायियों द्वारा ही होती है. धर्म धूल-धूसरित हो जाता है तो कोई अवतार उसकी धूल साफ करने आता है. हमने लोकतंत्र का धर्म कबूल किया है तो उसकी व्यवस्था में संविधान ने अदालत को धूल साफ करने का अधिकार भी दिया है और जिम्मेवारी भी दी है. रिजवी साहब उसकी शरण में गए हैं तो यह लोकतांत्रिक भी हैसंविधानसम्मत भी और स्वस्थ भी. विरोध की सारी आवाजें अलोकतांत्रिक हैंसंविधान का माखौल उड़ाती हैं और राष्ट्र के माहौल को अस्वस्थ करती हैं. 

धर्म के धूल-धूसरित होने की घुटन महात्मा गांधी को भी हुई थी. उन्होंने हिंदू धर्म के दूषण पर जितने प्रहार किए हैंउनकी बराबरी कौन कर सकता हैऔर फिर भी उनका दावा था कि वे सनातनी हिंदू हैं. हिंदू धर्म की तरफ से मारी गई तीन गोलियों से भूलुंठित होने तक वे उस हिंदू धर्म को सीने से लगाए फिरते थे जो मूल थादूषणरहित था. तभी तो वे यह अप्रतिम वाक्य कह सके कि मैं एक सच्चा हिंदू हूंइसलिए मैं एक सच्चा मुसलमान,पारसीईसाई आदि भी हूं. मतलब यह कि तुम एक के प्रति सच्चे हो जाअोगे तो सबसे प्रति सच्चे हो जाओगे. उन पर हमले कम नहीं हुएऔर किन-किन ने हमले किए जानेंगे हम तो अवाक रह जाएंगे. जब उन्हें यह चुनौती दी गई कि वे जो कह व कर रहे हैंवेदों में उसका समर्थन है ही नहींतो वे वज्र-सी यह बात बोले कि जितना वेद मैंने पढ़ा व गुना हैउससे आधार पर मेरा यह दावा है कि मैं जो कह व कर रहा हूं वह सब धर्मसम्मत है. लेकिन कोई यदि मुझे दिखा व समझा दे कि वेद इसका समर्थन नहीं करते हैं तो मैं वैसे वेद को मानने से इंकार कर दूंगा. मतलब वे दृढ़ थे कि मूल वेदों में बहुत कुछ अवांतर कारणों से जुड़ गया है जिसे साफ करने की जरूरत है. सफाई प्रकृति का नियम ही तो है.

विनोबा धर्मज्ञ थे. उन्होंने कई कदम आगे जा कर सारे प्रमुख धर्मों का गहन अध्ययन किया और फिर उन सबका सार निकाल कर समाज के सामने रखा. सार यानी धूलरहित धर्म ! यह वेद रचयिता ऋषियों की बराबरी जैसा उनका कृत्य हैहमारी अनमोल धरोहर है. इस रोशनी में भी हमें रिजवी साहब की बात को देखना चाहिए. धर्मांधता तथा उन्माद से हमें रास्ता नहीं मिलेगा. रास्ते खोजना ही सच्चा धर्म है. 

यह कितने हैरानी की बात है कि इस मामले को उन्माद में बदलने में जो लगे हैंउनके राजनीतिक आका इस बारे में चुप्पी साधे हुए हैं. 6 राज्यों के चुनावों ने सबकी जीभ काट रखी है. यह गूंगापन भी धर्म को राजनीतिक की चाल से मात देने की चालाकी भर है. ( 15.03.2021)