Thursday 21 November 2019

फैसले के बाद का फैसला

  जब अाप वायलिन से कुदाल का काम लेने लगें तब राग-रागनियों की बारीकी का रोना कैसे रो सकते हैं इसलिए अयोध्या के मामले मेंदेश के कानूनी इतिहास की दूसरी सबसे लंबीसुनवाई के बाद अाया फैसला हमसे न्याय के बारे में कुछ नहीं कहता है बल्कि इतना ही बताता है कि साक्ष्यसूत्रभावनाअों के अाधार पर उसने किसे कहांकितनी जमीन अौर जगह देना न्यायप्रद लगा,तो हमें शिकायत नहीं करनी चाहिए. क्योंकहांकैसे अौर किस तरह अादि-अादि सवाल अब न पूछे जाएं अौर न उनका कोई उत्तर खोजा जाए. बस उतना अौर वही जाना व माना जाए जो सर्वोच्चन्यायालय ने सर्वसम्मति से कहा है. 134 साल पुराना जख्म अाप जब भी छूते,होना तो यही था- कहीं खून बहताकहीं अाह उठतीकहीं सपने टूटते तो कहीं जीत का भाव जागताअौर लंबे समय तकसालने वाला पराजय घनीभूत हो जाता. 

  इसलिए हमें अाज सर्वोच्च न्यायालय की बात मान ही लेनी चाहिएक्योंकि हमने उससे वह काम लिया है जो काम उसका कभी भी अौर किसी हालत में नहीं था. हमारी जिद अौर हमारेउन्माद ने एक संयमितसजग अौर संस्कारी समाज की पहचान खो दी है. एक तरफ हमारा सामाजिक नेतृत्व इतना प्रभावी बना नहीं कि वह लोगों को रास्ता दिखा सके,दूसरी तरफ हमारा राजनीतिकनेतृत्व अत्यंत बौनास्वार्थी व सांप्रदायिक साबित हुअा. फिर बची रही हमारी न्याय-व्यवस्था ! संवैधानिक व्यवस्था अौर संवैधानिक नैतिकतादोनों कहती है कि सामाजिक विवेक जगाना अौर बनानाकिसी भी मुल्क के सामाजिक व राजनीतिक नेतृत्व का काम हैअदालत का नहीं. लेकिन यहां तो समाज ने अपनी अयोग्यता अौर राजनीति ने अपनी अक्षमता को स्वीकारते हुए अदालत को विवश करदिया कि वह इस मामले को सुलझाए. 

  हमें अपनी न्याय-व्यवस्था का आभारी होना चाहिए कि उसने इस चुनौती को स्वीकार किया अौर कई स्तरों पर इसका हल निकालने की कोशिश की. अंतत: सर्वोच्च न्यायालय ने विशेषसंविधान पीठ का गठन कियालगातार इस मामले की सुनवाई कीसभी पक्षों को अपनी बात व साक्ष्य रखने का पूरा मौका दिया अौर फिर फैसले तक पहुंची. लेकिन बसइसके अागे कई सवाल ऐसेखड़े होते हैं कि जो अदालत को ही कठघरे में खड़ा करते हैं. हम फैसले को पूरी तरह मान्य करते हैं,न्यायाधीशों का सम्मान भी करते हैं लेकिन यह कहने से खुद को रोक नहीं पाते हैं कि मी लॉर्ड,या तोअापने विवाद की अात्मा नहीं पहचानी या फिर इसके पीछे छिपी राजनीति की कुटिलता की अनदेखी की.

  यह बेहद जरूरी था कि इस जहरीले विवाद का अंत हो. सामाजिक विवेक से होताराजनीतिक सहमति से होतानिष्पक्ष मध्यस्‍थता से होता या देश के गांधीजनों ने जो एक दिशा देश केसामने रखी थी कि जहां का मसला: वहां का फैसला वैसा कोई रास्ता खोजा गया होता तो इस विवाद में से भारतीय समाज अौर हमारा लोकतंत्र ज्यादा प्रौढ़ बन कर निकला होता. वैसा हो नहीं सका. जो हुअा वह ऐसा हुअा जैसे सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की तुला किनारे रख दी अौर सबको समझा-बुझा कर बीच का रास्ता निकाल दिया. नहीं तो यह कैसे हुअा कि न्यायालय जिसे जमीन की मालिकीका मामला बता रहा था उसमें धार्मिक विश्वासपुराण-कथाएंअास्था अादि का भी समावेश हो गया ?संभव है कि जब मामला खुला तब सर्वोच्च न्यायालय को समझ में अाया कि यह जमीन कीमालिकी का सामान्य मामला नहीं हैभारतीय समाज के कई नाजुक धागों को छूने का मामला है. यह समझ में अाया तो अच्छा ही हुअा. लेकिन फिर उसका कोई प्रभाव फैसले पर क्यों नहीं हुअा अदालत ने राम की जन्मभूमि के स्थल को कानूनी मान्यता दे दीतो किस अाधार पर अगर वह अाधार धार्मिक है तो वह कानूनी तराजू पर कैसे तोला गया सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगई ने ही तोकहा था कि हम अास्था व मान्यता के अाधार पर नहींसाक्ष्य के अाधार पर फैसला करेंगे,तो रामजन्मभूमि के मामले में ऐसा कौन-सा साक्ष्य पेश किया गया कि जो ऐसा कानूनसम्मत था कि अदालत नेउसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार लियाआपने फैसले में कहा तो यही न कि हिंदुअों ने अपना मामला ज्यादा अच्छी तरह पेश कियातो क्या वाकचातुरी या वेद-पुराण ऐसे विवाद में न्याय का पलड़ा अपनीतरफ झुका सकते हैं न्यायालय के कहने का मतलब यह भी तो है न कि दूसरे पक्ष को अपना मामला पेश करना नहीं अाया अगर ऐसा था तब तो न्यायालय के लिए अौर भी जरूरी था कि वह दूसरेपक्ष को अौर तैयारी का मौका देताफैसला सुनाना नहींसत्य तक पहुंचना अदालत का काम है. के. परासरन साहब का पांडित्य अपनी जगह है लेकिन क्या वह कानून की जरूरतें पूरी करता है

  हमें तो अदालत से न्याय से अधिक या न्याय से कम कुछ भी नहीं चाहिए. फिर हमें समझाएं मी लार्ड कि बकौल अापके 1934 में मस्जिद के गुंबद को नुकसान पहुंचाना22 दिसंबर1949 की रात में गर्भगृह मेंचोरी-चोरी मूर्तियों को ले जा कर रख देना अौर फिर मुसलमानों का वहां प्रवेश निषेध कर देना तथा 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद को ध्वस्त कर देना कानून का गंभीरउल्लंघन था. कानून तोड़ना अपराध हैतो ये सभी अापराधिक कृत्य थे. क्या कोई एेसा गैर-कानूनी अापराधिक कृत्य हो सकता है जिसे अदालत में पेश किया जाएअदालत उस अपराध को मान्य भी करेफिर भी उसकी सजा न दे?  मी लॉर्ड,अापके फैसले में इन तीन गंभीर व अनैतिक अपराधों की क्या सजा दी गई अापकी ही अदालत में सालों से बाबरी मस्जिद ध्वंस का मुकदमा चल रहा है. क्या यहज्यादा न्यायपूर्ण न होता कि अाप अपना फैसला वही सुनाते जो अापने अभी सुनाया है लेकिन यह भी कहते कि इस फैसले को तभी लागू किया जा सकता है जब ध्वंस के मुकदमे का फैसला हो अौरउसके अपराधी सुनिश्चित किए जाएं ?अौर यह भी कि उस मुकदमे की सुनवाई एक पखवारे में पूरी की जाए ताकि यह ताजा फैसला लंबे समय तक लटका न रहे अौर शायद यह भी कि उस मुकदमे मेंजो अपराधी साबित होंगे वे हमेशा के लिए किसी भी प्रातिनिधिक पद के अयोग्य माने जाएंगे अाखिर ऐसा न्याय कैसे हो सकता है जो अपराधी-पक्ष को छूता ही नहीं है अौर अापको खूब पता है किअाज की सरकार उनकी ही है जो इस अपराध में अपादमस्तक डूबे हैं. फिर उन्हीं लोगों की सरकार को अापने यह अधिकार भी दे दिया कि वे ही ट्रस्ट भी बनाएंउसके सदस्य भी चुनेंमंदिर निर्माण की पूरीप्रक्रिया भी निर्धारित करें अौर निर्माण भी करें ! यह सजा है या इनाम 

  अाप भटक गये श्रीमान् ! जमीन की मालिकी तै करने के बजाए अाप इतिहास पढ़ने अौर लिखने में लग गये. देखिए नअापने राम को -भगवान को - इंसान जैसी कानूनी हैसियत दे दी. कोईकहे कि यह ईश्वर का अपमान हैतो अाप क्या बचाव करेंगे ईश्वर हमारी वह ईजाद है जो हमारी हर इंसानी पकड़ से बाहर है. फिर वह कानून की इंसानी हद में कैसे बांध दिया गया ?अौर अगर यह मानलिया जाए कि अापके फैसले के बाद से भगवान इंसान बन गया है तो फिर सीलिंग के तमाम कानूनों को धोखा देने के लिए मंदिरों-मस्जिदों-गिरजों-गुरुद्वारों अादि ने जो सैकड़ों एकड़ जमीनें भगवानों केनाम लिख दी हैं उनका क्या होगा भगवान यदि इंसान हैं तो इंसान तो जमीन की कानूनी मालिकी रख ही सकता है ! फिर भू-अधिकार के उन तमाम संघर्षों का क्या होगा जो भगवानों के नाम से की जारही ऐसी धोखाधड़ी के खिलाफ लड़ी गईंलड़ी जा रही हैंलड़ी जाएंगी उनका सारा संघर्ष ईश्वर के खिलाफ बगावत बन जाएगा न !  

  किसी भी कानूनी फैसले की उत्कृष्टता की कसौटी यह है कि उससे अपराधी के मन में प्रायश्चित या पश्चाताप  का भाव पैदा हो अौर दूसरे पक्ष में उदारता का भाव जागे. क्या अापके इस फैसलेसे ऐसा कुछ हुअा हिंदुत्व के दावेदार कह रहे हैं कि उनका लक्ष्य उन्हें हासिल हो गयाबस अब मंदिर बनाना है !  इस अपराध के सर्जक लालकृष्ण अाडवाणी कह रहे हैं कि उन्हें गर्व है कि वे बाबरीमस्जिद ध्वंस अांदोलन में शामिल हुएउमा भारती विजय का समारोह अाडवाणी के घर मत्था टेककर मना रही हैं. अपराध-बोध का लेशमात्र भी कहीं नहीं है. दूसरी तरफ मुसलमान समुदाय में गहरीहताशा व पराजय का भाव घनीभूत है. अभी वह सदमे में है,कल इससे बाहर अाएगाअौर फिर उसकी अभिव्यक्ति कैसी होगीकहना कठिन है. हमें उनका साधुवाद करना चाहिए कि उन्होंने अभी इसफैसले का प्रत्यक्ष या परोक्ष विरोध न करने का निर्णय किया है. लेकिन अंदर की चोट बहुत गहरे फूटती है. जरा सोचिए कि अापका फैसला यदि मस्जिद के पक्ष में गया होता तो अाज देश में क्या नजाराहोता ! सड़कों पर अौर मंदिरों में अौर हिंदुत्व के तमाम गढ़ों में क्या हो रहा होता अौर देश भर की मस्जिदों पर क्या गुजर रही होती संसद में अपने अपार बहुमत की तलवार से अापका फैसला अब तककाट डाला गया होता अौर संसद वही फैसला करती जो अापने किया. जातीय श्रेष्ठता के दर्शन में विश्वास करने वाली राजनीति का यह चेहरा अाप कैसे भूल गये ?     
    
  अापने ठीक ही कहा था कि अदालतें इतिहास की गलतियों को सुधारने का काम नहीं कर सकती हैं. लेकिन अाप यह भूल गये कि अदालतें ऐतिहासिक गलतियां भी नहीं कर सकती हैं. ( 12.11.2019)     

अब सरकार चुन रही है अपनी जनता

भारत के सर्वोच्च न्यायालय का यह नया ही चेहरा था जो उस दिन दिखाई िदया जब सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगई ने निर्देश दिया कि असम में नागरिकता का रजिस्टर तैयार करने वाली व्यवस्था के प्रमुख प्रतीक हजेला को तुरंत असम से स्थानांतरित कर, सबसे लंबी अवधि के लिए मध्यप्रदेश भेज दिया जाए. फैसला बेहद चौंकाने वाला था
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भारत सरकार के एटर्नी जेनरल के.के. वेणुगोपाल भी चौंके, अौर अदालत में ही पूछा :  क्या ऐसा करने का कोई कारण है ? 
 कोई भी फैसला बिना कारण नहीं होता है !, सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगई ने कड़ा जवाब दिया. 

नागरिकता का रजिस्टर बनाने का काम असम से शुरू हुअा था अौर जब से यह शुरू हुअा, इसने असम का सामान्य नागरिक जीवन दूभर बना दिया है. 50 हजार से ज्यादा अधिकारियों की फौज के साथ, लंबी मेहनत के बाद प्रतीक हजेला ने जो रजिस्टर जारी किया है उससे सबसे अधिक अापत्ति इस कसरत की जनक भारतीय जनता पार्टी को है. वह कहती है कि जिन 3.11 करोड़ लोगों को असम का वैध नागरिक माना गया है उनमें कई विदेशी हैं अौर जिन 19 लाख लोगों को अवैध बता कर रजिस्टर से बाहर किया गया है, उनमें बड़ी संख्या में वैध नागरिक हैं. भारतीय जनता पार्टी दरअसल चाहती थी कि वैध नागरिकों की पहचान के बहाने ‘मुसलमान शरणार्थियों’ को असम से बाहर किया जाए. अाप जिन्हें अवैध कह रहे हैं उन्हें अवैध मानने का अाधार क्या है ? दो कौड़ी की वकत न रखने वाले जिन अौर जैसे दस्तावेजों को अाधार बनाने की बात कह गई है, उसे मान कर चलें तो असम तो छोड़िए, देश के कितने लोगों के पास वे दस्तावेज है, जरा हम इसी का ईमानदार सर्वे कर लें.  फिर यह भी सवाल अनुत्तरित है कि अाप जिन्हें अवैध ठहराएंगे उन लोगों को अाप कहां बाहर करेंगे ? पाकिस्तान में या बांग्लादेश में ? क्या उनसे बातचीत हो गई है कि वे अापके अवैध लोगों को अपना वैध नागरिक मान कर वापस ले लेंगे ? क्या अाप दुनिया भर से निकाले जाने वाले भारतीयों को, अरे, माफ कीजिएगा, हिंदुअों को वापस लेने को तैयार हैं ? जरा यह सर्वे भी कर लीजिए कि कितने भारतीय नागरिक, माफ कीजिएगा, कितने भारतीय हिंदू उनके लिए अपनी जमीन, अपने घर का एक कोना, अपनी जायदाद का एक हिस्सा, अपने बाजार में उनके रोजगार की व्यवस्था करने को तैयार हैं ?    विभाजन से पहले अौर बाद को अगर अाप ‘कटअॉफ डेट’ बनाते हैं तो कितने हिंदू कटेंगे इसका अंदाजा है अापको ? सर्वोच्च न्यायाधीश असमी रंजन गोगई ने यह सब सोच कर राजनीति का उथला खेल खराब कर दिया. उन्होंने सारा मामला अपने हाथ में ले लिया अौर मध्यप्रदेश के 48 वर्षीय प्रतीक हजेला को, जो असम-मेघालय कैडर के अाइएसएस अधिकारी हैं, इस काम का प्रभारी बना कर असम भेजा. 

पहले दिन से ही सर्वोच्च न्यायालय की यह भूमिका, उसका स्पष्ट निर्देश, प्रमुख अधिकारी के रूप में प्रतीक हजेला का चयन अादि असम के राजनीतिक दलों को रास नहीं अा रहा था. फिर राजनीति ने करवट ली. कांग्रेस को हरा कर, असम में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी. कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में गये सर्वानंद सोनोवाल जैसा चतुर व मजमेबाज व्यक्ति मुख्यमंत्री बना. सरकार व पार्टी ने सोचा कि इस प्रतीक हजेला को अौर भावी रजिस्टर को हम अपनी मुट्ठी में कर लेंगे. लेकिन यह संभव नहीं हुअा. हजेला न्यायालय के निर्देश से अलग कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए. रजिस्टर बनता रहा, असम का एक-एक नागरिक हैरान-परेशान व असहाय कर दिया गया. सबसे अधिक परेशानी मुसलमानों को हुई जिन पर बांग्लादेशी होने का इल्जाम था अौर हिंदुत्ववादी अामादा थे कि इस इल्जाम के साथ ही उन्हें देश से बाहर कर दिया जाए. लेकिन प्रतीक का रजिस्टर कुछ दूसरी ही कहानी कहने लगा. तनाव बढ़ा, खींच-तान बढ़ी. जो मानवीय समस्या थी वह राजनीतिक की कुचालों में दबने लगी. रजिस्टर जिस रोज जारी होने वाला था उसी रोज प्रतीक हजेला को यह संदेश मिला कि वे प्रेस में जाने से पहले मुख्यमंत्री से मिल लें. हजेला जानते थे कि ऐसी मुलाकात का मतलब. इसलिए उन्होंने यह मुलाकात टाल दी अौर असम की वैध नागरिकता का वह रजिस्टर जारी हो गया जिसे कोई भी जारी करना नहीं चाहता था.       

  ब तैयारी सारे देश को असम बनाने की तैयारी चल रही है, यह मक्खी निगलने कैसे जाए, यह सवाल खड़ा हो गया है. नागरिता का रजिस्टर इस भूत-भय में से पैदा हुअा था कि असम में भारी संख्या में बांग्लादेशी घुस अाए हैं अौर हालात ऐसे बन रहे हैं कि असम असम न रह कर ‘बांग्ला असोम’ हो जाएगा ! चीख-चीख कर पूछा जा रहा था ( गृहमंत्री अमित शाह  को अाप सुनेंगे तो मान जाएंगे कि प्रधानमंत्री ही नहीं, गृहमंत्री बनने के साथ ही चीखने की कला में कितना इजाफा हो सकता है ! ) कि क्या अाप अपने देश को विदेशियों का चारागाह बनते देखते रह  सकते हैं ? जवाब चुप्पी के अलावा दूसरा क्या हो सकता था ! कोई अापसे पूछे कि क्या अाप सच में सच बोलने वाला समाज नहीं चाहते हैं, तो जिनका हर दिन झूठ बोलने से ही शुरू होता है, वे भी कहेंगे तो यही न कि समाज तो सत्यवादी राजा हरिशचंद्र जैसा ही होना चाहिए ! ऐसा ही नागरिकता के रजिस्टर के साथ हुअा. बांग्लादेशियों की घुसपैठ का सवाल उठा कर जैसी राजनीति असम में हुई, कई नये नेता अौर उनकी एक नई सरकार जिस सवाल के बल पर असम में पैदा हो गई उसके बाद कोई कैसे नागरिकता के रजिस्टर का विरोध करता ! कांग्रेस घुसपैठियों की तरफ से अांख मूंदने से सत्ता में अाती रही थी; युवाअों की सरकार घुसपैठियों का डर दिखा कर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर गई थी; अाज की सरकार घुसपैठियों को असम से निकाल बाहर करने का नारा लगा कर सत्ता में अाई है. सत्ता ही सत्य है; अौर यह सत्ता जिस भी नाम-नारे से मिलती हो, वही सत्य है. लेकिन सत्य का सत्य यह है कि उसके साथ मिलावटी माल खपाया नहीं जा सकता है. 

संसार के हम सारे इंसान शरणार्थी हैं; अाज जहां हैं वह एक पड़ाव मात्र है. अागे की मंजिल तक जाना है जहां से अागे भी कोई सफर है. इस नजर से देखें तो धरती पर राष्ट्र-राज्यों की खींची गई सारी लकीरें बेमानी हो जाती हैं. लेकिन हम चाहें, न चाहें यह भी एक सत्य है कि धरती पर हमने जितनी गहरी लकीरें खींच रखी हैं उसने एक मानसिक- प्रशासनिक विभाजन तो बना ही दिया है. उसकी जरूरत अौर उसकी मर्यादा को ध्यान में रखते हुए हमें इस समस्या की तरफ देखना चाहिए. 

  हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि हमारी अाजादी का जन्म ही शरणार्थियों की कोख से हुअा है. विभाजन की राजनीतिक चालों-कुचालों के कारण अनगिनत लोग उधर की जमीन से उखड़ कर इधर, अौर इधर की जमीन से उखड़ के उधर गये. ये लाचार या बेसहारा या घुमंतू लोग नहीं थे. ये सभी अपने देश-समाज के जिंदा व अाधिकारिक सदस्य थे जिन्हें राजनीतिक अाकाअों की वजह से अपनी जगहें छोड़नी पड़ी थीं. तेज अांधी में उड़ते पत्ते क्या अपनी जड़ों की जिद कर सकते हैं ? क्या हम देख नहीं रहे कि सारे यूरोप में शरणार्थियों की भगदड़ मची है. कई देशों की अपनी सीमाएं खोलनी पड़ी हैं, शरणार्थियों के लिए जगहें बनानी पड़ रही हैं. अादमी इतिहास का निर्माता भी है अौर इतिहास का शिकार भी, यह बात जितनी निश्छलता से हम समझेंगे अौर याद भी रखेंगे, उतनी सहजता से इस समस्या को देख व समझ सकेंगे. हम यह न भूलें कि राष्ट्र अौर अंतरराष्ट्र का अपना मतलब भी है अौर अपनी वैधानिकता भी लेकिन मनुष्य, जिससे इन सबका अस्तित्व भी है अौर अर्थ भी, वह इन सबसे बड़ी इकाई है. उसे असहाय बनाना अनैतिक भी है अौर अवैध भी क्योंकि मनुष्य की वैधानिकता किताबों में दर्ज हो कि न हो, उसके अस्तित्व में ही दर्ज है. 

नागरिकता का विधान है अौर होना चाहिए; मनुष्यता का अपना विधान है अौर वह सबसे पवित्र है. इसलिए नागरिकता का रजिस्टर बनाने वाले भी इसका ध्यान रखें कि एक दूसरा रजिस्टर भी है जो ईश्वरप्रदत्त है. उस रजिस्टर को हमारा कोई भी रजिस्टर खारिज नहीं कर सकता है. अौर तब तो आप बेहद बौने अौर मानव-द्रोही नजर अाने लगते हैं जब अाप यह भी कहने लगते हैं कि इस रजिस्टर में लोग धर्म व जाति के अाधार पर दर्ज किए जाएंगे. असम से जो खेल शुरू किया गया है अौर अब जिसे देश भर में फैलाने की शैतानी योजनाएं बनाई जा रही हैं उसके पीछे सोच यह नहीं है कि नागरिकों की पहचान की जाए बल्कि यह है कि अपने अौर परायों के बीच लकीर खींची जाए. अाखिर असम में अाप यहीं अा कर ठिठके हैं न कि 19 लाख लोगों को बाहर करने में अापके लोग भी छंट रहे हैं ? तो छांटना या खोजना भारत के नागरिकों को नहीं है, अपने लोगों को है जो अापके वोट बैंक बने रहें. यही क्षुद्र राजनीति उनको बसाते समय हुई थी, यही उनको उजाड़ते समय की जा रही है. अादमी अादमी नहीं रहा, अापकी शतरंज का प्यादा बन गया !  

यह अजीब-सा खेल शुरू हुअा है कि जहां पहले नागरिक अपनी सरकारें चुनते थे वहां अब सरकार अपने नागरिक चुन रही है. इससे कहीं बेहतर यह होगा कि सरकार अपनी पसंद का देश चुन कर वहां चली जाए अौर हमें अपनी सरकार चुनने अौर अपना देश बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दे ! ( 19.10.2019)