Friday 28 April 2017

संविधान की पूजा या संविधान का पालन ?



हमने पहले ही कहा है अौर कई बार कहा है कि पुरानी, क्षत-विक्षत बाबरी मस्जिद हिंदुत्व वालों के लिए तब तक वरदान है जब तक वह खड़ी है ! उसे अापने एक बार तोड़ा तो वह ध्वस्त मस्जिद अापके जान का जंजाल बन जाएगी ! ऐसा ही हुअा. संघ परिवार चाहे जितना हिसाब लगाए कि सेनापति लालकृष्ण अाडवाणी के नेतृत्व में जमींदोज की गई मस्जिद से उसके एजेंडे को क्या-क्या फायदा हुअा, सच तो यह है कि दूध की हांडी में मुंह डालने वाली बिल्ली की गर्दन जैसे उसमें फंस जाती है, वैसे ही संघ परिवार की गर्दन बाबरी मस्जिद में फंसी हुई है. सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्ली, हांडी अौर दूध तीनों को अभी-अभी फिर से तराजू पर चढ़ा दिया है. संघ परिवार में चुप्पी छाई हुई है लेकिन यह चुप्पी कितना शोर मचा रही है, सुन पा रहे हैं अाप ?   

हमारी परंपरा में ऐसा तो कहीं नहीं है कि न्याय अंधा होता है बल्कि हमने तो उसे दस अांखें, दस हाथ, दस पांव अौर दस मुख दिए हैं कि वह अांखें खोल कर सच को पहचान सके; दौड़ कर सच की तलाश कर सके; हाथ बढ़ा कर अपराधी का गरेबान थाम सके अौर ऊंची, सम्मिलित अावाज में सच बोल सके. मेरी नजर में पंच बोले परमेश्वर का यही अाशय है. लेकिन अपने परमेश्वर को किनारे ठेल कर, न्याय की जिस पश्चिमी संकल्पना को हमने अपनाया है, वह कहती है कि न्याय की देवी देखती नहीं है ! वह अंधी नहीं है, वह गांधारी है. उस गांधारी ने परात्पर कृष्ण को शापबद्ध किया था, इस गांधारी ने २५ साल पहले के मस्जिद-ध्वंस को कब्र से निकाल कर देश के सामने धर दिया है. उसने रायबरेली की जिला अदालत के धूल भरे किसी कोने में पटक दिए गए मामले को वहां से निकाल कर लखनऊ की सीबीअाई अदालत को सौंप दिया है. 

सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की धारा १४२ के तहत मिले असाधारण अधिकार का इस्तेमाल करते हुए निर्देश दिया है कि सीबीअाई अदालत बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले अौर विध्वंस के लिए हुए षड्यंत्र के मामले को मिला कर एक करे अौर तुरंत उसकी सुनवाई करे. उसने यह भी कहा है कि यह सुनवाई मामले की समाप्ति तक लगातार चलेगी अौर जब तक मामला समाप्त नहीं हो जाता सुनवाई कर रहे जज का कहीं तबादला नहीं किया जा सकेगा. अदालत ने कहा है : “ इस अदालत को अधिकार है, अधिकार ही नहीं बल्कि यह इसका कर्तव्य भी है कि जहां उसे जरूरी लगे तो वहां वह मामले को न्याय की अंतिम हद तक पहुंचाए. इस मामले में ऐसा अपराध हुअा है जिसने भारतीय संविधान के सेक्यूलर ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया है.” ४० पन्नों के इस फैसले को सुनाते हुए न्यायमूर्ति पी.सी. घोष व रोहिंग्टन नरीमन ने साफ कर दिया है कि सर्वोच्च न्यायालय क्या चाहता है. सर्वोच्च न्यायालय इस मामले को अब तुरंत किसी नतीजे तक पहुंचाना चाहता है, क्योंकि अनिर्णय अौर उसकी अाड़ में चल रही राजनीतिक चालबाजी के कारण भारतीय समाज व संवैधानिक प्रक्रिया का अकथनीय नुकसान हो चुका है, हो रहा है. उनसे यह भी कहा है कि इस मामले के तेजी से निबटारे में यदि सीबीअाई अदालत को किसी भी प्रकार की दिक्कत अाती है तो वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय से निर्देश प्राप्त करे. 

उसने इशारों में सीबीअाई से कहा है कि सरकारी तोते की उसकी अब तक की भूमिका अब न्यायालय को स्वीकार्य नहीं है. उसकी बात एकदम साफ है कि अब तक यह मामला जिस तरह लटकाया गया है वह सीबीअाई की विश्वसनीयता पर गहरी चोट करता है. उसने जिन लोगों को अपराध के लिए जिम्मेवार मान कर, अदालत में बुलाने अौर सुनवाई की बात कही है उनमें वह संघ-परिवार पूरा-का-पूरा समा जाता है जो अब तक किसी दूर से अाते इशारे पर राजनीति करता अाया है: सर्वश्री लालकृष्ण अाडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा, अाचार्य गिरिराज किशोर, अशोक सिंघल, विष्णु हरि डालमिया, सतीश प्रधान, चंपतराय बंसल, महंत अवैद्यनाथ, परमहंस रामचंद्र, रामविलास वरदांती, जगदीश मुनि महाराज, महंत नृत्यगोपाल दास, धरमदास चोला, सतीश नागर, मोरेश्वर सावे अौर बैकुंठलाल शर्मा. अदालत मानती है कि ६ दिसंबर १९९२ को, बाबरी मस्जिद से बमुश्किल २०० मीटर दूर बने रामकथा कुंज के मंच से इन सबके व्याख्यान-व्यवहार से ऐसा माहौल बना कि जिसकी जांच जरूरी है. नामों की इस लंबी सूची में कल्याण सिंह का नाम दर्ज नहीं है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि वे अभी राजस्थान के राज्यपाल हैं जिस पद को सीधे अदालत में खींचा नहीं जा सकता है यानी यह नाम उधार है. यही नाम है जिसने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ कर तब अदालत को सार्वजनिक रूप से पक्का भरोसा दिलाया था कि मस्जिद का बाल भी बांका नहीं होने दूंगा. गिरिराज किशोर, अशोक सिंघल तथा परमहंस रामचंद्र बच जाएंगे क्योंकि ये तीनों सिधार चुके हैं.  

अब हम सोचें कि तस्वीर क्या बनती है ! 

बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद ऐसा हुअा कि संघ परिवार को लंबे समय तक सत्ता में रहने का मौका मिला. सैंया भये कोतवाल जैसी स्थिति बनी. ध्वंस अभियान का सेनापति ही सत्तापति बन गया. विपक्ष के बौनों की स्वार्थी राजनीति ने भी मदद की अौर यह विध्वंस जितने गहरे दफनाया जा सकता था, दफनाया दिया गया. बोतल से जिन्न बाहर अाता है कि नहीं पता नहीं लेकिन सबको भरोसा था कि इस कब्र से उनका अपराध कभी बाहर नहीं निकलेगा. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उसे निकाल लाया है. जांच दो स्तरों पर चलेगी - ६ दिसंबर १९९२ को रामकथा कुंज के मंच पर कौन-कौन थे अौर वे वहां से क्या कह रहे थे तथा यह भी कि वहां से भीड़ को संचालित व उत्तेजित करने वाले कौन-कौन थे अौर उनमें से किसने क्या कहा. यह सीधे अपराध-स्थल से अपराधी को पकड़ने जैसी काररवाई होगी.  
जांच का दूसरा पक्ष अौर भी खतरनाक होगा जब इसकी पड़ताल की जाएगी कि अाखिर बाबरी मस्जिद के ध्वंस का षड्यंत्र कब, कहां, कैसे अौर किनके बीच बना. यह पड़ताल कई वैसे नामों को भी घेरे में ले अाएगी जो अभी सामने नहीं अाए हैं. तब बात अाडवाणीजी की रथयात्रा से शुरू होगी अौर फिर वे सब बातें भी निकलेंगी जो भाजपा या संघ परिवार की अंदरूनी बैठकों में हुईं. उनका कोई रिकार्ड भले न मिले लेकिन कई संकेत, घटनाएं, बयान, विवाद अदालत के सामने अाएंगे जिनसे नतीजा निकालने में मदद मिलेगी. यह बात भूलने जैसी नहीं है कि रथयात्रा के इस पूरे अभियान से अटलबिहारी वाजपेयी ( अौर उनका गुट ! ) सहमत नहीं थे अौर वे इसमें कहीं शरीक भी नहीं हुए थे. वह असहमति कब, कहां अौर कैसे प्रकट हुई थी, यह जानना दिलचस्प होगा. अौर यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तब मामूली संघ-सेवक थे अौर रथयात्रा के सबसे प्रखर अायोजकों में गिने जाते थे. 



यह पूरी जांच कब तक पूरी होगी अौर तब तक अदालत व सरकार के रिश्ते क्या होंगे, अौर देश का सामाजिक माहौल कैसा होगा, जैसी कई बातें हैं जिनका अनुमान करना अभी संभव नहीं है. लेकिन यह कहना अौर समझना जरूरी है कि अभी जब देश में सब तरफ मनमानी का अालम बनाया जा रहा है, अदालत ने एक बार फिर वह लक्ष्मण-रेखा हमारे सामने ला रखी है जिसे संविधान कहते हैं. लोकतंत्र इसके बाहर जब भी ले जाया जाएगा, वह लोकतंत्र नहीं रह जाएगा. इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने हमारे लोकतंत्र को ही कसौटी पर खड़ा कर दिया है. ( 20.04.2017)  

Tuesday 18 April 2017

चंपारण की प्रयोगशाला में महात्मा गांधी


फिर सारे देश में उस अादमी की चर्चा हो रही है जिसका नाम है राजकुमार शुक्ल ! अाज से सौ साल पहले यह अादमी बिहार के चंपारण से निकल कर उन सभी जगहों पर भागता फिरा जहां दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे मोहनदास करमचंद गांधी जाते रहे. उसकी एक ही टेक थी : अाप एक बार चंपारण चलिए तो ! … मोहनदास उनके साथ चंपारण पहुंचे. फिर क्या हुअा ? कैसे देश की अांखों के सामने इतिहास का एक-एक पन्ना लिखा गया… अौर अाज हम उन पन्नों में क्या पढ़ सकते हैं अौर क्या समझ सकते हैं ? गांधी की राह के राही कुमार प्रशांत की कलम से अांकी गई तब की एक तस्वीर. 

दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग से नेटाल तक का चौबीस घंटों का सफर बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने जिस किताब के संग पूरा किया था उसने उनका चोला ही नहीं बदल दिया बल्कि अात्मा भी बदल दी. उनके मित्र पोलक ने दार्शनिक रस्किन की वह किताब ‘अन टू दिस लास्ट’ उन्हें यह कह कर थमाई थी कि रास्ते में पढ़ जाइएगा, अापको पसंद अाएगी. बैरिस्टर साहब ने उसे रास्ते में पढ़ा अौर उसने रास्ता ही बदल दिया ! बैरिस्टर गांधी वह नहीं रहे जो बनने वे दक्षिण अफ्रीका अाए थे. फिर वह पूरी कहानी शुरू होती है जिसे हम दक्षिण अफ्रीका में उनके करतबों की कहानी के रूप में जानते हैं. सबसे पहला अौर संभवत: सबसे बड़ा काम था वहां के विभिन्न भाषाई, जातीय, धार्मिक भारतीय-एशियाई ‘कुलियों’ को साथ ला कर, एक संगठन-सूत्र में बांधना ! ऐसे किसी काम का न तो उन्हें अनुभव था अौर न वृत्ति थी. लेकिन इतिहास है कि वह पात्र खोज भी लेता है अौर गढ़ भी लेता है. बैरिस्टर गांधी इसी तरह चुने व गढ़े गये. उन्होंने असंगठित लोगों को नटाल कांग्रेस के नाम से एक संगठन में बांधा, डरे लोगों को सिपाही बनाया अौर कदम-कदम इनके बल पर सरकार को चुनौती दी. सेना भी बन गई, लड़ाई का मैदान भी सज गया, सरकार अपने पूरे छल-बल के साथ सामने अा खड़ी भी हुई लेकिन एक सवाल अभी अनुत्तरित ही था - फौज के हाथ में हथियार क्या देंगे अाप ? लड़ाई बगैर हथियार कैसे लड़ी जा सकती है ? 

एक नया ही हथियार उनके मन में उमगा ! मनुष्य-जाति ने अब तक कितने ही हथियारों से, कितनी ही लड़ाइयां लड़ी थीं, इस अादमी ने सोचा कि अब जब कि सारे हथियार अाजमाये जा चुके हैं तब कोई नया ही हथियार क्यों न गढ़ा जाए ! क्यों न अादमी को ही हथियार बना दिया जाए ? गांधी का सारा चमत्कार इसी में छिपा है कि वे ऐसा हथियार सोच व बना ही नहीं सके बल्कि उसके बारे में अपने लोगों के मन में विश्वास पैदा करने में भी सफल हुए.  सत्याग्रह का शास्त्र व सत्याग्रह का शस्त्र एक साथ ही बनने लगा. दक्षिण अफ्रीका की जनरल स्मट्स की सरकार इसे हर तरह से कुचलने में समर्थ थी अौर उसने हर बार हमला भी भीषण ही किया लेकिन जो बात उनकी समझ में नहीं अा रही थी वह यह थी कि जब सामने वाला हमला करने को तैयार ही न हो तब लड़ाई कैसे लड़ी जाए ? 

बैरिस्टर गांधी वहां कोई भी हथियार अाजमाने से हिचकिचाते नहीं हैं अौर लड़ाई में पूरी तैयारी से उतरते हैं लेकिन इस बात की पूरी सावधानी रखते हैं कि सामने वाले को जरा खरोंच भी न अाए ! वे खुद से पूछते हैं कि जब मारना ही है प्रतिद्वंद्वी को तब कम मारा कि ज्यादा, फर्क क्या रह जाता है ? बात तो तब है जब मारने वाले के सामने मरने वालों की ऐसी दीवार खड़ी कर दी जाए कि वह मारने की कीमिया ही भूल जाए ! वे बताते हैं कि ऐसी लड़ाई का मोर्चा बहुत बड़ा होता है - तन से मन तक; व्यक्ति से समाज तक; सत्ता से सड़क तक ! इसलिए वे इन सारे मोर्चों पर लड़ाई छेड़ते हैं अौर सरकार को सांस लेने का मौका भी नहीं देते हैं. लड़ते-लड़ते अचानक ही वे दक्षिण अफ्रीका छोड़ इंग्लैंड पहुंच जाते हैं अौर ब्रिटिश संसद को समझाने लगते हैं कि साम्राज्य अपने ही नागरिकों में भेद-भाव कैसे कर सकता है ? अब तक कितने ही लोगों ने इंग्लैंड पहुंच कर यह गुहार लगाई थी कि माई-बाप हमें इस अन्याय से बचाअो; अौर महाराजा की सरकार ने कृपापूर्वक थोड़ी-बहुत राहत दिला भी दी थी लेकिन यह पहला अादमी सामने अाया जो राहत नहीं मांग रहा था, महाराजा की सरकार की हैसियत पर सवाल उठा रहा था ! अौर इस काम में उसने ब्रिटिश नागरिकों, चिंतकों, संगठनों, अखबारों, सांसदों सबको इस तरह समेट लिया कि वहां असहमति का एक बड़ा तूफान ही खड़ा हो गया ! 

इसी क्रम में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन सेनानियों से भी उसकी मुलाकात हुईं जो ब्रिटिश धरती पर रह कर, अपने देश में हिंसक प्रतिरोध खड़ा करने में जुटे थे, बम-बंदूक की भाषा बोल रहे थे. बड़ी बहसें हुईं अौर गांधी उन्हें हर बार यह पूछ कर हतप्रभ कर जाते हैं कि वह लड़ाई कैसी जो अपने लोगों के बीच रह कर नहीं लड़ी जा सकती है ? फिर उस लड़ाई को लोग अपनी लड़ाई कैसे मान लेंगे जिसकी बात भी उनसे नहीं की जाती है अौर जो विदेश से अायातित माल की तरह उन पर थोपी जाती है ? हिंसा की व्यर्थता को इस तरह कभी किसी ने समझने की कोशिश नहीं की थी ! इंग्लैंड पर अपनी गहरी छाप छोड़ने के बाद यह सहज ही होता कि बैरिस्टर गांधी अपने देश वापस लौट अाते अौर इसकी अाजादी की लड़ाई में शरीक हो जाते ! लेकिन यह सहज रास्ता छोड़ कर बैरिस्टर साहब फिर दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई की तरफ ही लौटते हैं अौर लौटते हुए पानी के जहाज के डेक पर बैठ कर कभी सीधे तो कभी उल्टे हाथ से, अपनी मातृभाषा गुजराती में वह किताब लिख डालते हैं जिसे अाज सभी ‘हिंद-स्वराज्य’ के नाम से जानते हैं. यह किताब क्या है, विकल्प की एक तस्वीर है जिसे सिद्ध करने के प्रति गांधी खुद को समर्पित घोषित करते हैं. दक्षिण अफ्रीका का संघर्ष कितने ही मोड़ों से गुजरता है अौर फिर वहां पहुंचता है जिसे सफलता कहते हैं. ऐसी लड़ाई अौर ऐसी सफलता पहले कभी देखी नहीं गई थी जिसमें कोई हारा नहीं, विजेता अौर विजित दोनों एक-दूसरे के दोस्त बन कर सामने अाए ! जनरल स्मट्स की सत्ता को जिसने सबसे बड़ी चुनौती दी अौर उसे अपने दमनकारी कदम वापस लेने पर मजबूर कर दिया, उसी जनरल स्मट्स ने भारत में अंग्रेजों को चुनौती देते गांधी के लिए ब्रिटिश हुकूमत को लिखा कि यह अादमी हमसे अलग अौर हमसे ऊंची किसी अाध्यात्मिक दुनिया का साधक है. इसे हराने या खत्म करने की कोशिश न करें. हमें इसके साथ चलने के रास्ते खोजने चाहिए.  

इस लड़ाई में पहला बलिदान बैरिस्टर गांधी का खुद का ही हुअा ! उनका चोला भी बदल गया अौर अात्मा भी ! वे बैरिस्टरी वगैरह छोड़ कर, फीनिक्स में अाश्रम बना कर जीवन जीने के नये प्रयोगों में जुट गये. तमाशा यह कि उस अाश्रम में देशी-विदेशी, भारतीय-अ-भारतीय, स्त्री-पुरुष दोनों अा जुटे अौर बैरिस्टर गांधी किसी के लिए मोहन, किसी के लिए मिस्टर गांधी बन कर अपने पूरे परिवार के साथ नया जीवन तलाशने अौर गढ़ने में जुट गये. अौर फिर एक दिन वह भी अाता है कि वे सपरिवार, अपना तंबू-खूंटा उखाड़ कर भारत लौटते हैं अौर फिर भारत को पहचाने में जुट जाते हैं जिसे वे प्यार तो बहुत करते हैं लेकिन जानते कम हैं. गोपालकृष़्ण गोखले ब भारतीय राजनीति के सिरमौरों में एक थे अौर इस सिरफिरे नौजवान की कीमत भी उनने ही सबसे पहले पहचानी थी. वे बैरिस्टर गांधी का संघर्ष देखने-समझने दक्षिण अफ्रीका भी गये थे. इसलिए भारत अाए इस युवक का होश ठिकाने लगाने की गरज से ही उन्होंने यह हुक्म दिया कि अब साल भर मुंह बंद अौर अांखें खुली रख कर भारत नाम के इस विचित्र देश को देखो-समझो अौर फिर तै करो कि तुम्हें क्या अौर कहां करना है. 
गांधी ने गोखले का मांगा यह वचन दिया अौर पूरी तरह निभाया.

अौर वे अपना भारत खोजते, इससे पहले राजकुमार शुक्ल ने उन्हें खोज लिया. राजकुमार शुक्ल चंपारण के दीन-हीन किसानों के प्रतिनिधि थे अौर कांग्रेस के जलसों में बिला नागा शरीक होते थे अौर कोशिश में रहते थे कि बड़े नेताअों में कोई तो हो कि जो उनकी सुने ! चंपारण के किसानों की व्यथा-कथा सुनन की नहीं, देखने की चीज है, ऐसा वे सबसे कहते फिरते थे लेकिन कोई सुनता ही नहीं था, तो देखता क्या ! ऐसे में गांधी मिले उन्हें अौर राजकुमार शुक्ल को लगा कि यही अादमी है कि जिसकी उन्हें खोज थी. वे गांधी से चिपक ही गये. गांधी ने कम कोशिशें नहीं कीं उनसे पीछा छुड़ाने की लेकिन गज के पांव जैसे ग्राह ने जकड़ लिए हों, गांधी को राजकुमार शुकल ले जकड़ लिया. वे जहां पहुंचते, राजकुमार शुक्ल वहीं हाजिर मिलते; अौर वही कातर प्रार्थना : एक बार चंपारण चल कर देख तो लीजिए ! अाखिर गांधी ने हथियार डाल दिए अौर कहा कि कलकत्ता अा जाइए अौर मुझे ले चलिए अपने चंपारण !   

इससे पहले गांधीजी न बिहार से परिचित थे, न चंपारण का नाम सुना था अौर न नील की खेती जैसी किसी परिकल्पना से उनका वास्ता था. वे हिंदी भी ऐसी बोलते थे जो अासानी से समझ में नहीं अाती थी, बिहार की दूसरी किसी भाषा-बोली से उनका कत्तई परिचय नहीं था. बिहार में वे किसी को खास जानते भी नहीं थे. एक अाचार्य कृपलानी थे जिनके साथ कांग्रेस के जलसों में उनकी देखा-देखी थी अौर उन्हें पता था कि वे बिहार के मुजफ्फरपुर नाम की जगह पर एक कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर हैं. उनकी डायरी में दूसरा नाम था दूसरे मौलाना मजहरुल हक का जो लंदन के दिनों में उनके सहपाठी थे अौर अब मुस्लिम लीग के बड़े नेता थे.

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10 अप्रैल 1917 ! सुबह के करीब 10 बजे हैं अौर एक रेलगाड़ी अभी-अभी पटना जंक्शन पर अा कर थमी है. एक नया अादमी स्टेशन पर उतरता है जिसे न पटना जानता है अौर न जिसने कभी पटना को जाना-देखा है. नाम है मोहनदास करमचंद गांधी ! मोहनदास करमचंद गांधी नाम का यह अादमी रामकुमार शुक्ल नाम के उस अादमी को भी बहुत थोड़ा जानता है जो उसे कलकत्ता से साथ ले कर पटना अाया है. रामकुमार शुक्ल भी इस मोहनदास करमचंद गांधी को बहुत थोड़ा जानते हैं. हां, वे इतना जरूर जानते हैं कि यह अादमी गुजराती है लेकिन देश में जो कुछ लोग उसे जानते हैं वह सुदूर के देश दक्षिण अफ्रीका के कारण जानते हैं जहां इस अादमी ने ‘कुछ किया’ है. क्या किया,  क्यों अौर कैसे किया, यह राजकुमार शुक्ल भी नहीं के बराबर ही जानते हैं… अौर दोनों यह भी नहीं जानते हैं कि पटना में उन्हें जाना कहां है ! मोहनदास करमचंद गांधी को तो पटना कहां है यही नहीं मालूम था अौर रामकुमार शुक्ल को पटना में कौन, क्या है यह नहीं मालूम था. 
रामकुमार अपने मेहमान मोहनदास को ले कर पहुंचते हैं अपने बड़े वकील साहब के घर. घर के बाहर की तख्ती पर लिखा है : राजेंद्र प्रसाद ! राजेंद्र प्रसाद बहुत बड़े अौर बड़े कमाऊ वकील थे लेकिन देश जिस राजेंद्र प्रसाद को जानता है उसका अभी जन्म नहीं हुअा है. अौर किस्सा यह कि वे राजेंद्र प्रसाद भी न तो घर पर थे, न पटना में थे. नौकरों ने बताया कि वकील साहब पुरी गए हुए हैं. एकदम अजनबी-से शहर में, एक अजनबी अादमी के घर के बरामदे में, दो अजनबी-से अादमी एक अजनबी-सी रात गुजारने को अभिशप्त थे. 

अब तक मोहनदास समझ चुके थे कि रामकुमार भोले अादमी हैं जिनकी गठरी में व्यावहारिक बातें कम होती हैं. अपनी डायरी खंगाल कर मोहनदास ने एक नाम निकाला - मजहरुल हक ! पटना के नामी वकील अौर मुस्लिम लीग के राष्ट्रीय मंत्री ! लेकिन मोहनदास के लिए उनका परिचय दूसरा भी था - वे कभी लंदन में मोहनदास के सहपाठी रहे थे. मोहनदास ने उनको खबर भिजवाई तो हक साहब अपनी मोटर में भागे अाए अौर मोहनदास को अपने घर ले अाए. घर तो क्या, कोठी कहें हम ! मोहनदास कोठी से ही हिचक गए, जीवन-शैली की तकड़-भड़क ने अौर भी परेशान किया. जब बताया कि राजकुमार उन्हें चंपारण ले जा रहे हैं तो बारी हक साहब के बिदकने की थी - क्यों यह सारी मुसीबत मोल लेनी जैसा कुछ कहा उन्होंने. वे अपने इंग्लैंड वाले दोस्त मोहनदास को इस परेशानी से बचाना चाहते थे. मोहनदास को उनका रवैया अौर उनकी दिखावटी जीवन-शैली पची नहीं अौर उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि हक साहब कट कर रह गये. 

अागे की कहानी जैसे चलती है, उसे वैसे ही चलने को छोड़ कर हम सीधा मुजफ्फरपुर पहुंचते हैं. यहां मोहनदास इतिहास के प्रोफेसर अाचार्य कृपलानी के मेहमान हैं. सब कौतूहल से इस प्राणी को देख रहे हैं जिसने दक्षिण अफ्रीका में कुछ कमाल किया है लेकिन सामने देखने पर लगता नहीं है कि इसमें कुछ खास है. कृपलानी अादमी की तीखी कसौटी करते हैं. उनकी भेदी आाखें अौर उनका तलवार-सा तेज मस्तिष्क इस अादमी को अांकने में लगा है. मोहनदास को घेर कर बैठे हैं बिहार व देश के नामी वकील साहबान ! बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद भी हैं, राजेंद्र प्रसाद भी हैं, रामनवमी प्रसाद भी हैं, सूरजबल प्रसाद, गया बाबू भी हैं. हैं, अौर भी कई लोग हैं. चंपारण में चल रही तिनकठिया प्रथा अौर उससे किसानों का हो रहा अकल्पनीय शोषण - सारे महानुभाव इससे परिचित थे. कैसे परिचित नहीं होते ! ये सभी इन्हीं शोषित-पीड़ित-वंचित किसानों के मुकदमे भी तो लड़ते थे. न्याय दिलाना इनका पेशा ही था. मोहनदास को बड़ी हैरानी हुई कि ऐसे मृतप्राय किसानों से ये सारे साहबान हजारों रुपयों की फीस वसूलते थे. वकीलसाहबानों का तर्क सीधा था : घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या !!

लेकिन मोहनदास हमसे चाहते क्या हैं ? - यह सवाल था जो कहे-अनकहे सारे माहौल पर पसरा हुअा था. मोहनदास ने कहा : : हमें ये मुकदमे लड़ना ही बंद कर देना चाहिए. इनसे लाभ बहुत कम होता है. जब इतना भय हो, इतना शोषण हो तो कचहरियां कितना काम कर सकती हैं ! तो पहला काम है लोगों का भय दूर करना ! दूसरी बात है यह संकल्प कि ‘तिनकठिया’ बंद न हो तब तक चैन से नहीं बैठना है. इसलिए वहां चंपारण के किसानों के बीच लंबे समय तक रहना पड़ेगा अौर जब जरूरत पड़े तब जेल जाने की तैयारी रखनी पड़ेगी.

अपनी कह कर मोहनदास चुप हुए तो सारा माहौल चुप हो गया ! चेहरे पर सबके एक ही बात लिखी थी : यह तो अजीब ही तरह का अादमी है. हम इनका मुकदमा लड़ते हैं, यही क्या कम है ! अब हम ही मुकदमा भी लड़ें, इनके बीच जा कर भी रहें, इनके लिए जेल भी जाएं ! कोई खानदानी अादमी कभी जेल जाता है क्या ? 

सबकी तरफ से जवाब ब्रजकिशोर बाबू ने दिया : हम अापके साथ रहेंगे, अापका बताया काम भी करेंगे. जिसके पास जितना समय है, वह भी देंगे. जेल जाने वाली बात एकदम नई है. हम उसकी हिम्मत बनाएंगे. 

वे हिम्मत बनाते रहे अौर मोहनदास बात बनाने निकल पड़े. मुजफ्फरपुर से मोतिहारी तक जो जहां, जिस भी तरह चंपारण से जुड़ा था, वे उन सबसे मिलने, बात करने में लगे थे. अौर सबसे जरूरी था कमिश्नर साहब से यह अनुमति पाना कि मोहनदास चंपारण जा सकते हैं. मोहनदास को यह जितना जरूरी लग रहा था कमिश्नर उतना ही साफ था कि यह कत्तई जरूरी नहीं है कि एक बाहरी अादमी चंपारण की शांति-व्यवस्था भंग करने पहुंच जाए. दोनों की टेक साफ थी. अावेदन अादि की कोशिशों के बाद मोहनदास ने बड़ी मासूमियत से अपने वकील साहबानों से कहा : “ कमिश्नर साहब जो भी कहें, मैं  चंपारण जाऊंगा !” 
सारे वकील साहबान हैरानी से मोहनदास को देख रहे थे. मोहनदास ने एक पत्र लिखा कमिश्नर साहब के नाम : चाहता तो था कि अापकी अनुमति ले कर जाऊं; अब बिना अनुमति जा रहा हूं. मोहनदास ने मन-ही-मन हिसाब लगाया : क्या मेरे हिसाब से पहले ही मुझे जेल जाना होगा ? 

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रात में अाचार्य कृपलानी ने इतिहास के अपने छात्रों को भी इस अादमी से मिलने-बतियाने के लिए बुला लिया है. युवाअों से बात करने, उनके तर्कों का जवाब देने अौर उन्हें अपना कायल बनाने में गांधीजी को बड़ी सुगमता होती है, यह कृपलानी देख चुके हैं. बातें चलती हैं तो चलती चली जाती हैं, दुनिया के इतिहास, उसके प्रवाहों की बात होती है, हिंसा-अहिंसा के साथ दक्षिण अफ्रीका के उस सत्याग्रह की बात भी होती है जिसकी बात बहुत लोग जानते नहीं हैं. कृपलानी गांधीजी की सारी बातें सुन कर कहते हैं : यह सब ठीक है गांधीजी लेकिन मैं सारी दुनिया का जो इतिहास पढ़ता-पढ़ाता हूं उस इतिहास में कहीं एक उदाहरण भी मिलता नहीं है कि ऐसी अहिंसा के, शांतिमय संघर्ष के अौर अाप जिसे सत्याग्रह कह रहे हैं, उसके रास्ते से कोई मुल्क अाजाद हुअा हो ! इतिहासकार से ज्यादा इतिहास का प्रमाण कौन दे सकता था भला ! सब लाजवाब हो गये कि तभी गांधीजी की अडिग-सी अावाज उठी : प्रोफेसर, कुछ लोग इतिहास पढ़ते-पढ़ाते हैं, कुछ ऐसे भी होते हैं जो इतिहास बनाते हैं. अौर जब इतिहास बन जाता है तब तुम लोग उसे पढ़ाने लगते हो ! 

बात कट गई ! इतिहास बनाने अौर पढ़ाने के बीच की खाई कृपलानीजी के सामने उभर अाई.   

कृपलानी अंत-अंत तक गांधी की दो चीजें याद करते रहे : उनकी अांखें, जिनमें अपार गहराई थी, दृढ़ता थी अौर करुणा से लबालब भरी थीं वे अांखें; अौर उनकी अावाज, जिसमें बला का बल था कि यह अादमी जो कह रहा है वह करने ही जा रहा है. उनकी अांखें सबको भेद कर वह सब देख लेती थीं, जो देखना चाहती थीं; उनकी अावाज उन सबको पुकार लेती थी, जोड़ लेती थी जो उनके साथ काम करने वाले होते थे. इसी अांख अौर अावाज ने कृपलानीजी को भी चंपारण बुला लिया अौर वे ताउम्र गांधीजी के पहरेदार बने रहे.
            
इतनी पृष्ठभूमि जरूरी थी ताकि हम यह समझ सकें कि जो अादमी राजकुमार शुक्ल के साथ चंपारण पहुंचा था वह अधपका फल नहीं था, एक परिपक्व विचारक व अपनी अनोखी लड़ाई का सिद्ध सेनापति था.

15 अप्रैल 1917 की शाम के चार बजे  राजकुमार शुक्ल अपने मोहनदास को लिए हुए  मोतिहारी स्टेशन पहुंचे. यह मोतिहारी उनके लिए भी एकदम नया था ! छोटा-सा मोतिहारी का रेलवे स्टेशन अाज कितना विशाल लग रहा था ! भाप छोड़ते इंजन की सूं-सूं, अटपटी अौर अजनबी-सी हालत में खड़े मोहनदास ये सब जैसे कहीं पार्श्व में छूट गये अौर राजकुमार शुक्ल अांखें फाड़े देखते रह गए मोतिहारी स्टेशन पर उमड़ अाया अपार, अपार जन-समूह  !! … मुझे मालूम नहीं कि इतिहास में कभी, कहीं ऐसी अटपटी स्थिति में कोई ऐसा नाटक खेला गया हो जिसने इतिहास को ही बदल डाला हो ! लेकिन अाज से ठीक सौ साल पहले ऐसा हुअा था - इतिहास ने अागे बढ़ कर मोहनदास करमचंद गांधी का हाथ थामा अौर बिहार के हाथ में धर दिया ! 
यहां से अागे बहुत कुछ बदला - मोहनदास करमचंद गांधी इतना बदले कि नाम, धाम, काम, वस्त्र, जीवन, बोली-बानी, साथी-संगाती सब बदलते गए. नाम भी कट-छंट कर रह गया सिर्फ गांधी; फिर वह भी नहीं रहा - रह गये सिर्फ बापू ! चंपारण मोहनदास का वाटर-लू हो सकता था लेकिन गांधी ने उसे बना दिया अंग्रेजी साम्राज्यवाद का वाटर-लू ! जब पर्दा उठा था तब जो गांधी अकेले दिखे थे. वहां से सफर शुरू हुअा तो नापते-नापते गांधी ने इतना कुछ नाप लिया कि इतिहास का हर मंच छोटा पड़ने लगा; अौर जिस यात्रा के प्रारंभ में वे अकेले थे, उसी यात्रा में वे अकेले-एकांत के एक पल के लिए तरसने लगे. 
गांधी ने बिहार अा कर खुद को खोजा; बिहार ने गांधी को पा कर खुद को पहचाना ! गांधी ने बिहार अा कर अपना वह हथियार मांजा-परखा जो दक्षिण अफ्रीका में तैयार हुअा था; बिहार ने गांधी को पा कर वह हथियार चलाना सीखा जिसे सत्याग्रह कहते हैं. बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं ? गांधी ने बिहार से पूछा  था: अाप क्या कर सकेंगे ? 

दोनों ने एक-दूसरे को जवाब दिया अौर एक इतिहास अाकार लेने लगा. 

गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में जैसे एक नया संगठन खड़ा कर लिया था वैसे ही चंपारण पहुंचते ही उसने अपनी सेना बना ली; अौर सेना भी कैसी : बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, मौलाना मजहरुल हक, धरणीधर बाबू, गया बाबू, अनुग्रह बाबू अादि-अादि. सभी खूब कमाऊ वकील हैं अौर इनमें से एक का भी इरादा किसी लड़ाई में लगने का नहीं है. जेल जाने का तो सवाल ही नहीं है. गांधी को मालूम है कि उनकी लड़ाई का सबसे पहला अौर सबसे स्वाभाविक परिणाम जेल जाना होगा. वे इसे छुपाते नहीं हैं. कह देते हैं कि अाप सभी मेरे पीछे जेल अाने को तैयार होंगे तब ही यह लड़ाई हम जीत सकते हैं. बिहार व देश के माने हुए ये वकील साहबान हैरान रह जाते हैं लेकिन यह अादमी अगले कदम की तैयारी में जुट जाता है. 

चंपारण में गांधीजी को नीलहे अंग्रजों का वह अत्याचार तो दिखाई देता ही है जिसकी तरफ राजकुमार शुक्ल उनका ध्यान खीछते रहे हैं. लेकिन इससे भी अधिक उन्हें दिखाई देता है किसानों में फैला भय; अौर सामर्थ्यवानों में फैली लाचारी !  वे देख लेते हैं सर्वत्र फैली गंदगी, अशिक्षा, रग-रग में समाई जाति-प्रथा, छुअाछूत अादि-अादि ! यह समझना खासा दिलचस्प होगा कि जिस चंपारण सत्याग्रह की इतनी बातें होती हैं उसमें सत्याग्रह जैसा तो कुछ हुअा ही नहीं. गांधीजी ने अपनी सेना के वकीलसाहबानों से सीधे ही कहा: मुझे अापके कानूनी ज्ञान की अौर अापकी अदालती प्रतिभा की जरूरत नहीं है. मुझे अापकी क्लर्की प्रतिभा की जरूरत है. अाप सब निलहों के अत्याचारों की कहानी कलमबंद करें, बस !!  नोटबंदी तो अाज का हथियार है, गांधीजी ने सच्चाई को कलमबंद करने को हथियार बनाया अौर उसे ही अांदोलन की शक्ल दे दी. सैकड़ों से बात शुरू हुई अौर हजारों-हजार तक पहुंची. जथ-के-जथ किसान अाने लगे अौर अपनी कहानी सुनाने लगे. ‘उनको सुनो अौर उनका कहा लिखो’ - बस यही गांधी का चंपारण सत्याग्रह था ! लेकिन गांधीजी ने बड़ी सहजता से सत्याग्रह का वह बुनियादी तत्व इसमें दाखिल कर दिया जिसके बगैर उनकी गाड़ी अागे बढ़ती नहीं थी. उन्होंने वकील साहबानों से कहा : ध्यान रहे कि किसानों के हर बयान की सत्यता की पूरी पड़ताल हमें करनी है. जहां उनके विवरण पर थोड़ा भी शक हो वहां मौके पर जा कर सत्य को खोजना है. ऐसे मामलों की जानकारी मुझे दें. मैं खुद गांवों में जा कर जांच करूंगा. सत्य के अाग्रह की यह तलवार पहले दिन से ही लटका दी उन्होंने. वे देर-देर तक किसानों को बयान देते सुनते थे जिनमें से अधिकांश वे समझ भी नहीं पाते थे. भोजपुरी उनकी समझ में नहीं अाती थी. किसानों के कागजात वे पढ़ नहीं पाते थे क्योंकि वह कैथी में लिखी होती थी. यह सब उन्हें अपने साथियों से समझनी पड़ती थी लेकिन सत्य की पुकार थी कि जो उनसे कभी चूकती नहीं थी. 

अंग्रेज अधिकारी चकरा गये ! वे चाहते थे कि यह न हो लेकिन कैसे कहते कि सत्य की कलमबंदी न हो ? वे चाहते थे कि किसान डरें अौर बयान दर्ज कराने न अाएं लेकिन ऐसा स्वस्फूर्त अागमन था किसानों का कि उस रोकना उनके बस में नहीं था. फिर एक चाल चली उन्होंने. किसानों की गवाही चलती होती तो वे वहां अपना दारोगा खड़ा कर देते अौर वह दारोगा शिकायतकर्ता  किसानों के नाम-पते सब नोट करता जाता. यह सीधे-सीधे किसानों को भयभीत करने की कोशिश थी लेकिन इस पर गांधी-फौज एतराज करती भी तो कैसे ? गांधीजी ने कहा : जो भी दारोगा अाएं उन्हें अाप बैठने की कुर्सी दें, पानी पिलाएं अौर इस काम में उनसे मदद मांगे. अाप उनसे कहें कि किसानों के नाम-पता तो लिखें ही, उनका पूरा बयान भी दर्ज कर हमें दें तो काम जल्दी पूरा हो जाएगा ! अधिकारियों ने दारोगाअों को इसे दूर ही रहने की सलाह दी. 

  सत्य को कलमबद्ध करने का यह अभियान ही ऐसी फिजां बना गया कि निलहों को सबने धीरे-धीरे अकेला छोड़ दिया - सरकारी अधिकारियों ने, अदालत ने, किसानों ने, नागरिकों ने सबने निलहों के साथ संपर्क-संवाद बंद कर दिया. कल तक जिनकी मुट्ठी में किसानों की किस्मत थी, वे ही अाज किसी दूसरे की मुट्ठी में बंद हो गये. हम ध्यान दें कि चंपारण की पूरी लड़ाई में किसी पर हमला नहीं हुअा, गांधी समेत किसी को जेल नहीं जाना पड़ा, कोई जुलूस, धरना, अनशन नहीं हुअा. किसानों की कहानियों की सच्चाई परख कर उन्हें कलमबंद करने का काम ही अांदोलन की शक्ल में सामने अाया. हजारों किसानों का इस तरह उमड़ कर सामने अाना अौर अपने साथ हो रही ज्यादतियों का सप्रमाण विवरण देना चंपारण से पटना अौर दिल्ली तक अंग्रेजों को हतप्रभ करने लगा. सबसे ज्यादा बयान पिछड़ी जाति के किसानों के दर्ज हुए. गांधीजी ने मोतिहारी की अदालत में अपना कोई बचाव पेश ही नहीं किया बल्कि कह दिया कि जिलाबदर करने के सरकारी अादेश का वे किसी भी तरह पालन नहीं करेंगे अौर इसके लिए अदालत मुझे जितनी कड़ी सजा दे सकती है, दे ! अदालतों ने सजा कम करने की गुहार तो बार-बार सुनी थी, सजा मांगने की यह ललकार कभी सुनी नहीं थी. वह भी हतप्रभ रह गई. पीछा छुड़ाने के लिए अदालत ने कहा : “अाप जिला छोड़ दें, हम दूसरी कोई काररवाई नहीं करेंगे.”
गांधीजी ने विनम्रता से कहा : “ मैं जिला छोड़ कर नहीं जाऊंगा बल्कि अापकी सजा भुगतने के बाद मैं यही बस जाने की सोचता हूं.” 
अदालत ने कहा : “ अाप जमानत की रकम जमा कर दें, हम अापको रिहा कर देंगे।”
गांधीजी ने उतनी ही विनम्रता से कहा : “ मेरे पास जमानत देने के पैसे नहीं हैं. अत: मैं जमानत नहीं दे सकूंगा.” 
विमूढ़ अदालत ने कहा: “ हम अापको बेशर्त रिहा करते हैं.”

जीत तो यहीं हो गई थी. लेकिन चंपारण जहां हार रहा था गांधीजी को वहां पहुंचना था.  उन्होंने कस्तूरबा को गांव की स्त्रियों को साफ-सफाई सिखाने के काम से जोड़ दिया, गुजरात से शिक्षक बुला कर गांव में पढ़ाई की व्यवस्था शुरू करवाई. छुअाछूत के मारे वकील साहबानों के अलग-अलग चूल्हे बंद करवाए, सामूहिक रसोई शुरू करवाई. उनके सारे-के-सारे नौकरों की विदाई करवा दी अौर सबको अपना काम खुद करने का सिलसिला शुरू करवाया. जेल जाने से हिचकिचाते वकील साहबानों में ऐसी हिम्मत भरी कि जेल जाने वालों की टोलियां बन गईँ. 

निलहे अंग्रेज एकदम अकेले पड़ गये. प्रशासन भी अौर सरकार भी गांधीजी के साथ अा खड़ी हुई. तिनकठिया प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया. प्राकृतिक नील की जगह कृत्रिम नील बाजार में अाने लगा था, सो निलहे अपनी जमीनें बेंच-बेंच कर निकलने लगे. शोषण व अन्याय के चरम पर पहुंचा चंपारण अचानक व्यापक परिवर्तन का प्रतीक बन गया. हम कह सकते हैं कि चंपारण की नींव पर गांधीजी ने अाजादी की अपनी लड़ाई की अपनी पूरी इमारत खड़ी की. लेकिन वक्त की चाल देखिए कि जिस चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी की बात हम समझने में लगे हैं, वही चंपारण कितने ही नये-नये रूपों में देश में सब दूर खड़ा हो गया है. अाप गिन न सकें, इतने चंपारण बन गये हैं. हमारा किसान इतना हतप्रभ है कि अाज कि अात्महत्या में मुक्ति खोज रहा है; सरकारें इतनी गैरतहीन हो गई हैं कि हर अात्महत्या को झूठ का जामा पहना कर निकल जाना चाहती हैं. बीज, खाद, पानी,बैल कुछ भी किसान के पास नहीं है. सब कुछ बाजार के हाथ में है. अौर बाजार-सरकार की मिलीभगत ऐसी है कि उसकी सुनवाई कहां की जाए, कोई जानता नहीं है.  

हमारे पास भी कोई गांधी नहीं है. यह कैसी शताब्दी है !! ( 16.04.2017)

Friday 7 April 2017

चंपारण में गांधी


सौ साल पहले जो परदा उठा था ! 


10 अप्रैल 1917 ! सुबह के करीब 10 बजे हैं अौर एक रेलगाड़ी अभी-अभी पटना जंक्शन पर अा कर थमी है. एक नया अादमी स्टेशन पर उतरता है जिसे न पटना जानता है अौर न जिसने कभी पटना को जाना-देखा है. नाम है मोहनदास करमचंद गांधी ! मोहनदास करमचंद गांधी नाम का यह अादमी रामकुमार शुक्ल नाम के उस अादमी को भी बहुत थोड़ा जानता है जो उसे कलकत्ता से साथ ले कर पटना अाया है. रामकुमार शुक्ल भी इस मोहनदास करमचंद गांधी को बहुत थोड़ा जानते हैं. हां, वे इतना जरूर जानते हैं कि यह अादमी गुजराती है लेकिन देश में जो कुछ लोग उसे जानते हैं वह सुदूर के देश दक्षिण अफ्रीका के कारण जानते हैं जहां इस अादमी ने ‘कुछ किया’ है. क्या किया,  क्यों अौर कैसे किया, यह राजकुमार शुक्ल भी नहीं के बराबर ही जानते हैं… अौर दोनों यह भी नहीं जानते हैं कि पटना में उन्हें जाना कहां है ! मोहनदास करमचंद गांधी को तो पटना कहां है यही नहीं मालूम था अौर रामकुमार शुक्ल को पटना में कौन, क्या है यह नहीं मालूम था. 
रामकुमार अपने मेहमान मोहनदास को ले कर पहुंचते हैं अपने बड़े वकील साहब के घर. घर के बाहर की तख्ती पर लिखा है : राजेंद्र प्रसाद ! राजेंद्र प्रसाद बहुत बड़े अौर बड़े कमाऊ वकील थे लेकिन देश जिस राजेंद्र प्रसाद को जानता है उसका अभी जन्म नहीं हुअा है. अौर किस्सा यह कि वे राजेंद्र प्रसाद भी न तो घर पर थे, न पटना में थे. नौकरों ने बताया कि वकीळ साहब पुरी गए हुए हैं. एकदम अजनबी-से शहर में, एक अजनबी अादमी के घर के बरामदे में, दो अजनबी-से अादमी एक अजनबी-सी रात गुजारने को अभिशप्त थे. 
अब तक मोहनदास समझ चुके थे कि रामकुमार भोले अादमी हैं जिनकी गठरी में व्यावहारिक बातें कम होती हैं. अपनी डायरी खंगाल कर मोहनदास ने एक नाम निकाला - मजहरुल हक ! पटना के नामी वकील अौर मुस्लिम लीग के राष्ट्रीय मंत्री ! लेकिन मोहनदास के लिए उनका परिचय दूसरा भी था - वे कभी लंदन में मोहनदास के सहपाठी रहे थे. मोहनदास ने उनको खबर भिजवाई तो हक साहब अपनी मोटर में भागे अाए अौर मोहनदास को अपने घर ले अाए. घर तो क्या, कोठी कहें हम ! मोहनदास कोठी से ही हिचक गए, जीवन-शैली की तकड़-भड़क ने अौर भी परेशान किया. जब बताया कि रामकुमार उन्हें चंपारण ले जा रहे हैं तो बारी हक साहब के बिदकने की थी - क्यों यह सारी मुसीबत मोल लेनी जैसा कुछ कहा उन्होंने. वे अपने इंग्लैंड वाले दोस्त मोहनदास को इस परेशानी से बचाना चाहते थे. मोहनदास को उनका रवैया अौर उनकी दिखावटी जीवन-शैली पची नहीं अौर उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि हक साहब कट कर रह गये. 
अागे की कहानी जैसे चलती है, उसे वैसे ही चलने को छोड़ कर हम सीधा मुजप्फरपुर पहुंचते हैं जहां मोहनदास को घेर कर बैठे हैं बिहार व देश के नामी वकील साहबान ! बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद भी हैं, राजेंद्र प्रसाद भी हैं, रामनवमी प्रसाद भी हैं, सूरजबल प्रसाद, गया बाबू भी हैं. हैं, अौर भी कई लोग हैं. चंपारण में चल रही तिनकठिया प्रथा अौर उससे किसानों का हो रहा अकल्पनीय शोषण - सारे महानुभाव इससे परिचित थे. कैसे परिचित नहीं होते ! ये सभी इन्हीं शोषित-पीड़ित-वंचित किसानों के मुकदमे भी तो लड़ते थे. न्याय दिलाना इनका पेशा ही था. मोहनदास को बड़ी हैरानी हुई कि ऐसे मृतप्राय किसानों से ये सारे साहबान हजारों रुपयों की फीस वसूलते थे. तर्क उनका सीधा था : घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या !!
लेकिन मोहनदास हमसे चाहते क्या हैं ? - यह सवाल था जो कहे-अनकहे सारे माहौल पर पसरा हुअा था. मोहनदास ने कहा : : हमें ये मुकदमे लड़ना ही बंद कर देना चाहिए. इनसे लाभ बहुत कम होता है. जब इतना भय हो, इतना शोषण हो तो कचहरियां कितना काम कर सकती हैं ! तो पहला काम है लोगों का भय दूर करना ! दूसरी बात है यह संकल्प कि ‘तिनकठिया’ बंद न हो तब तक चैन से नहीं बैठना है. इसलिए वहां चंपारण के किसानों के बीच लंबे समय तक रहना पड़ेगा अौर जब जरूरत पड़े तब जेल जाने की तैयारी रखनी पड़ेगी.
मोहनदास चुप हुए तो सारा माहौल चुप हो गया ! चेहरे पर सबके एक ही बात लिखी थी : यह तो अजीब ही तरह का अादमी है. हम मुकदमा लड़ते हैं, यही क्या कम है ! अब हम ही मुकदमा भी लड़ें, इनके बीच जा कर भी रहें, इनके लिए जेल भी जाएं ! कोई खानदानी अादमी कभी जेल जाता है क्या ? 
सबकी तरफ से जवाब ब्रजकिशोर बाबू ने दिया : हम अापके साथ रहेंगे, अापका बताया काम भी करेंगे. जिसके पास जितना समय है, वह भी देंगे. जेल जाने वाली बात एकदम नई है. हम उसकी हिम्मत बनाएंगे. 
वे हिम्मत बनाते रहे अौर मोहनदास बात बनाने निकल पड़े. जो जहां, जिस भी तरह चंपारण से जुड़ा था, वे उन सबसे मिलने, बात करने में लगे थे. अौर सबसे जरूरी था कमिश्नर साहब से यह अनुमति पाना कि मोहनदास चंपारण जा सकते हैं. मोहनदास को यह जितना जरूरी लग रहा था कमिश्नर उतना ही साफ था कि यह कत्तई जरूरी नहीं है कि एक बाहरी अादमी चंपारण की शांति-व्यवस्था भंग करने पहुंच जाए. दोनों की टेक साफ थी. मोहनदास ने बड़ी मासूमियत से अपने वकील साहबानो से कहा : “ कमिश्नर साहब जो भी कहें, मैं  चंपारण जाऊंगा !” 
सारे वकील साहबान हैरानी से मोहनदास को देख रहे थे. मोहनदास ने एक पत्र लिखा कमिश्नर साहब के नाम : चाहता तो था कि अापकी अनुमति ले कर जाऊं; अब बिना अनुमति जा रहा हूं. मोहनदास ने मन-ही-मन हिसाब लगाया : क्या मेरे हिसाब से पहले ही मुझे जेल जाना होगा ? 
15 अप्रैल 1917 ! शाम के चार बजे मोहनदास मोतिहारी स्टेशन पहुंचे ! 
इतिहास ने अागे बढ़ कर पर्दा उठा दिया : 
सामने था छोटा-सा मोतिहारी का रेलवे स्टेशन, भाप छोड़ती इंजन की सूं-सूं, अटपटी अौर अजनबी-सी हालत में खड़े मोहनदास अौर अपार, अपार जन !! … मुझे मालूम नहीं कि इतिहास में कभी, कहीं ऐसी अटपटी स्थिति में कोई ऐसा नाटक खेला गया हो जिसने इतिहास को ही बदल डाला हो ! लेकिन अाज से ठीक सौ साल पहले ऐसा हुअा था - इतिहास ने अागे बढ़ कर मोहनदास करमचंद गांधी का हाथ थामा अौर बिहार के हाथ में धर दिया ! 
यहां से अागे बहुत कुछ बदला - मोहनदास करमचंद गांधी इतना बदले कि नाम, धाम, काम, वस्त्र, जीवन, बोली-बानी, साथी-संगाती सब बदलते गए. नाम भी कट-छंट कर रह गया सिर्फ गांधी; फिर वह भी नहीं रहा - रह गये सिर्फ बापू ! चंपारण मोहनदास का वाटर-लू हो सकता था लेकिन गांधी ने उसे बना दिया अंग्रेजी साम्राज्यवाद का वाटर-लू ! जब पर्दा उठा था तब जो गांधी अकेले दिखे थे. वहां से सफर शुरू हुअा तो नापते-नापते गांधी ने इतना कुछ नाप लिया कि इतिहास का हर मंच छोटा पड़ने लगा; अौर जिस यात्रा के प्रारंभ में वे अकेले थे, उसी यात्रा में वे अकेले-एकांत के एक पल के लिए तरसने लगे. 
गांधी ने बिहार अा कर खुद को खोजा; बिहार ने गांधी को पा कर खुद को पहचाना ! गांधी ने बिहार अा कर अपना वह हथियार मांजा-परखा जो दक्षिण अफ्रीका में तैयार हुअा था; बिहार ने गांधी को पा कर वह हथियार चलाना सीखा जिसे सत्याग्रह कहते हैं. बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं ? गांधी ने बिहार से पूछा  था: अाप क्या कर सकेंगे ? 
इस सवाल-जवाब के सौ साल बाद बिहार पूछ रहा है : अाप हमसे क्या चाहते हैं ? 
जवाब देने वाला कोई गांधी कहीं है क्या ? (  04.04.2017)