Friday 22 March 2019

दल नहीं, देश !



2019 के अाम चुनाव सामने अा खड़ा हुअा है. तारीखें भी घोषित हो चुकी हैं, अौर इस कदर क्षत-विक्षत घोषित हुई हैं कि लगता है यह बेहद घायल चुनाव होने जा रहा है. चुनाव अायोगों ने इस बात के लिए एक-दूसरे से जैसे स्पर्धा कर रखी है कि कौन सबसे लंबा चुनाव अायोजित करता है ! हमारा लोकतंत्र शुरू वहां से हुअा था कि एक ही दिन में सारे देश का, अौर वह भी लोकसभा अौर विधानसभा का साथ-साथ चुनाव हो जाता था. अाज एक ही राज्य में कई दौर तक चुनाव चलते हैं. अब चुनाव लोकतंत्र का खेल नहीं, सत्ताधारी दल की तिकड़मों का जोड़ बन गया है. 
  
यह चुनाव नहीं, इसका नतीजा अहम होने जा रहा है. हर चुनाव में कोई जीतता है अौर कोई हारता है. लेकिन कभी-कभी ऐसे भी चुनाव अाते हैं जिसमें दल नहीं, देश हारता या जीतता है. 2019 का चुनाव ऐसा ही चुनाव है. यदि यही सरकार फिर वापस लौटती है तो देश हारता है; यह सरकार वापस नहीं अा पाती है तो देश जीतता है. अगर ऐसा हुअा तो यह चुनाव 1977 के चुनाव के बराबर का ऐतिहासिक चुनाव हो जाएगा. 1977 के चुनाव ने दुनिया को पहली बार यह देखने व जानने का मौका दिया कि कोई लोकतंत्र, लोकतांत्रिक तरीके से किसी तानाशाही को पराजित कर सकता है. वोट को कैसे तलवार बनाया जा सकता है, यह 1977 ने हमें दिखाया था.  

2019 के चुनाव में हम यह साबित कर सकते हैं कि सांप्रदायिकता की तानाशाही शक्तियों को भी लोकतांत्रिक तरीकों से हराया जा सकता है. हम यह साबित कर सकते हैं कि लोकतंत्र सिर्फ शासन-पद्धति नहीं, जीवन-शैली है जिससे कोई खिलवाड़ करे, यह हमें सह्य नहीं ! हमने 1977 में भी हमने यह नहीं सहा था, 2019 में भी नहीं सहेंगे. यह मुमकिन नहीं है; नामुमकिन है कि 2019 के चुनाव का नारा इसके अलावा कुछ दूसरा भी हो सकता है : दल नहीं, देश ! 1977 में भी हमारे सामने यही सवाल था अौर हमने अपनी गहरी लोकतांत्रिक समझ का परिचय दिया था अौर पार्टी नहीं, देश चुना था. जो गलत है, नकली है, जो झूठा या मक्कार है,उसे नकारना धर्म है - पहला धर्म ! हम गलत को इसलिए नहीं सहते रहेंगे कि हमारे पास सही का पक्का नक्शा नहीं है ! गलत को  हटाना सही को खोजने का पहला कदम है. 1977 मेंहमने यही किया था अौर अपना लोकतंत्र बचाया था. 2019 में भी हमें यही करना होगा क्योंकि हम अपना लोकतंत्र खोना नहीं चाहते हैं.  
  
अगर अाप इस सरकार की वापसी चुनते हैं तो अाप एक ऐसे दल को चुनते हैं जिसकी सारी संभावनाएं 2014-19 के पिछले पांच सालों में खत्म हो चुकी हैं. अब बचा रह गया है एक असफल व्यक्ति जिसने देश, संविधान, लोकतांत्रिक नियम-परंपराएं सबको ठेंगा दिखा कर, खुद को देश का पर्याय बनाने की कोशिश की है अौर हर बार, बार-बार नकली साबित होता रहा है.  2019 के चुनाव में जब अाप अपना वोट डालने लगें तब जरा सावधानी रखिएगा कि अापको व्यक्ति नहीं, देश चुनना है ! क्या कोई अादमी या दल देश से बड़ा हो सकता है ? हिंदुस्तान अमर है, कोई दल या व्यक्ति नहीं. 

यह खतरों से भरा चुनाव है. 

पहला खतरा ! यदि यही सरकार वापस लौटती है तो हमारे लोकतंत्र का वापस लौटना संभव नहीं होगा. क्या लोकतंत्र का मतलब लोकसभा या विधानसभा या प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठे लोग होता है? याकि लोकतंत्र का मतलब है संविधान द्वारा स्थापित  लोकतांत्रिक संस्थाअों के अापसी तालमेल से देश को चलाना? संविधान द्वारा निर्मित संस्थाएं ही वह अाधार होती हैं जिन पर संसदीय लोकतंत्र की इमारत खड़ी होती है. ये संस्थाएं धीरे-धीरे जड़ पकड़ती हैं, विकसित होती हैं अौर अपने विकास-क्रम में नई लोकतांत्रिक संस्थाअों को जन्म भी देती हैं. 

इस सरकार का लोकतंत्र में विश्वास नहीं है. यह सरकार अौर यह पार्टी उन हारे, पिटे अौर खारिज कर दिए गये लोगों का जमावड़ा है जिन्होंने अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक अादमी का दामन थाम रखा है. इस सरकार अौर इस पार्टी के मुखिया दो ऐसे अादमी हैं जो हमारी अदालती प्रक्रिया की लेट-लतीफी अौर जटिलताअों के कारण जेल से बाहर हैं. इनका जेल में नहीं होना प्रशासनिक तिकड़म अौर छल का प्रमाण है, न कि इनके निर्दोष होने का. हमारे गुजरात की बागडोर जब इनके हाथों में थी तब सरकारी-तंत्र का दुरुपयोग कर इन्होंने एक-एक कर उन सारे अपराधियों को बचाया था जो लूट-मार से ले कर हत्या तक के मामलों के अपराधी थे. बात इस हद तक गई कि अाखिरकार सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि इनके कारण यह संभव ही नहीं रहा है कि गुजरात में किसी अपराध की निष्पक्ष जांच हो सके. इसलिए यहां के मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर हो. अाजादी के ७० सालों में गुजरात के अलावा दूसरा कोई राज्य नहीं है कि जिसके माथे पर ऐसा कलंक लगा हो. क्या हम सारे देश को ऐसा ही बनता देखना चाहते हैं ? 

दूसरा खतरा !  यदि यही सरकार वापस लौटती है भारतीय समाज का ताना-बाना अंतिम हद तक टूट जाएगा. अपने समाज के गठन पर अाप एक नजर डालेंगे तो पाएंगे कि यह बुनावट ऐसी है कि कौन, कहां से शुरू कर, कहां तक गया है, यह पता करना असंभव-सा है. यह बेहद जटिलताअों के समन्वय से बना समाज है. इसकी बुनावट को खोल-खोल कर अाप देखेंगे तो अनगिनत धागाअों का उलझा हुअा, एक बेहद जटिल संसार अापके हाथ लगेगा. यह इस कदर बिखरेगा कि अाप इसे दोबारा जोड़ भी नहीं पाएंगे. ऐसा ही 1946-47 में हुअा था अौर तब जो हम बिखरे, वह घाव अाज भी ताजा है, तकलीफ देता है अौर नासूर बनता जाता है. क्या पाकिस्तान अपने पूर्वी हिस्से को कभी जोड़ पाएगा ? जो एक बार टूटा वह फिर जुड़ता नहीं है . भारत अाज तक जुड़ा नहीं; पाकिस्तान अब कभी जुड़ेगा नहीं; सारा सोवियत संघ ऐसा बिखरा है कि कभी एक होगा नहीं. इसलिए तोड़ने से बचो !! यह सरकार फिर से वापस लौटी तो यह देश को गृहयुद्ध की अाग में झोंक देगी. समाज को काबू में रखने के दो ही तरीके हैं: इसे खंड-खंड में बिखेर कर, एक से दूसरे को लड़ाते हुए इसे काबू में रखो या फिर इन्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता रख कर चलने के लिए प्रशिक्षित करो ताकि फिर किसी पाकिस्तान या द्रविड़स्तान या खालिस्तान या कुछ अौर की अावाज न उठे. यह सरकार पहले वाले रास्ते पर चलने वालों की सरकार है. 

तीसरा खतरा ! यदि यही सरकार वापस लौटती है तो वे सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं एक-एक कर खत्म कर दी जाएंगी जो एक-दूसरे पर नियंत्रण करती हुई लोकतंत्र की हमारी गाड़ी को चलाती हैं. हमारे संविधान ने ऐसी एक कारीगरी की है कि जिसमें हमारी सारी व्यवस्थाएं अपने में स्वायत्त भी हैं अौर एक बिंदु से अागे एक-दूसरे पर अवलंबित भी हैं. यह परस्परावलंबन ही लोकतांत्रिक अनुशासन है. विधायिका एकदम स्वायत्त है कि वह कानून बनाए. नौकरशाही स्वायत्त है कि वह उसे देश में लागू करे. लेकिन विधायिका का बनाया हर वह कानून खारिज किया जा सकता है जो न्यायपालिका की संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता हो. न्यायपालिका संविधान की रोशनी में हर तरह का फैसला करने का अधिकार व सामर्थ्य रखती है लेकिन उसका कोई भी फैसला संसद पलट सकती है अौर न्यायपालिका को वह कबूल कर ही चलना होगा. रिजर्व बैंक, कैग, सीबीअाई, संसदीय समितियां, चुनाव अायोग, प्रसार भारती, समाचार संस्थान, टीवी अादि के साथ भी यही सच है. ये बाधाएं नहीं, लोकतांत्रिक अनुशासन हैं. यह सरकार इनको अपने रास्ता का रोड़ा समझती है अौर इन्हें तोड़ने में लगी है. ये संस्थाएं जिस हद तक टूटी हैं, उस हद तक लोकतंत्र कमजोर हुअा है. अागे लोकतंत्र ही टूट जाएगा. 

चौथा खतरा ! यदि यही सरकार वापस लौटती है तो बड़ी पूंजी, बड़े कारपोरेट, बड़े निवेश, बड़े बाजार, बड़े घोटाले सब मिल कर हमें लूट लेंगे अौर झूठे अांकड़ों का जाल बिछा कर यह सरकार हमें छलती रहेगी. व्यक्ति हो या पार्टी, यदि झूठी व नकली हो तो वह जुमलेबाजी का सहारा लेती है, क्योंकि उसके पास कहने या करने को सच्चा या अास्थावान दूसरा कुछ होता नहीं है. यह सरकार जबसे अाई है जुमलेबाजी की फसल ही काटती रही है जिससे अाज सारे देश में झूठ अौर नक्कालों की बन अाई है. कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र ऐसी सरकार कैसे बर्दाश्त कर सकता है ? 

पांचवां खतरा ! यदि यही सरकार वापस लौटती है तो शासन ही नहीं, समाज में भी एकाधिकारशाही मजबूत होती जाएगी. दुनिया में जहां-जहां भी किसी व्यक्ति को दल-संविधान-कानून-परंपरा अादि से बड़ा बनाया गया है, वहां-वहां लोकतंत्र खोखला होता गया है. इसका नतीजा ? वह एक व्यक्ति समाज के हर स्तर पर अपनी ही तरह के छुटभैये खड़े करता है ताकि लोगों के बीच हमेशा विग्रह, असंतोष, अामना-सामना अौर खूनी संघर्ष का वातावरण बना रहे. यह अकारण नहीं है कि पिछले 5 सालों में भारतीय संस्कृति के नाम पर, हिंदुत्व के नाम पर, गाय के नाम पर, मंदिर के नाम पर, राष्ट्रीयता के नाम पर, फौजी स्वाभिमान के नाम पर अौर जातीय श्रेष्ठता के नाम पर कितनी ही बहादुर सेनाएं देश में खड़ी हो गई हैं. इस सरकार में अौर संसद में ऐसे लोग भरे पड़े हैं कि जिनकी कुल योग्यता एक व्यक्ति की एकाधिकारशाही को मजबूत बनाना है. ऐसी भीड़ दिल या दिमाग से नहीं, फेंफड़े के जोर से चलती है अौर अंतत: भीड़ की हिंसा को अपना अमोघ अस्त्र बनाती है. यह किसी की भी, कैसी भी असहमति को बर्दाश्त नहीं करने के लिए प्रशिक्षित की जाती है.

छठा खतरा ! यदि यही सरकार वापस लौटती है तो सारे शिक्षण संस्थानों में उन्माद का राज होगा अौर शिक्षा का बेड़ा गर्क हो जाएगा. ऐसा इसलिए कि इनकी सारी पढ़ाई का मतलब एक ही है - युवाअों में उन्माद जगाना ! यदि यह सरकार वापस लौटती है तो हमें स्कूलों-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में विद्या की साधना करते युवा नहीं, अविद्या-अज्ञान-अंधविश्वास से लैश युवाअों की भीड़ मिलेगी. 

इसलिए दल नहीं, देश चुनना है. इसलिए वे नहीं, हम चुनेंगे. इसलिए चुनाव नहीं, चयन करेंगे. इसलिए पुराना नहीं, नया चुनेंगे. ( 13.03.2019)                      

अभिनंदन से पहले अौर अभिनंदन के बाद



चालीस लाशें पुलवामा में; फिर न मालूम कितनी बालाकोट में अौर फिर ४० से ज्यादा सीमा पर अौर कश्मीर में; अौर हवा में कितना सारा जहर ! अगर ये सारी लाशें शहादत की हैं तो इनके सम्मान में खड़े हो भाई, इतनी जानें गईं तो अफसोस में सर झुकाअो अौर गहरी भावना से प्रार्थना करो कि ऐसा मंजर फिर न बने. अादमियत तो इसी को कहते हैं कि अनजान अर्थी भी जा रही हो तो धरती से उसे विदा करते हुए अांख बंद कर, नमस्कार करते हैं. ये तो हमारे फौजी हैं - या उनकी फौज द्वारा गलत तरीके से इस्तेमाल किए जा रहे गिनिपिग ! इन्हें लेकर ऐसी घृणा का प्रचार, शोर अौर फेंफड़ों की वीरता किसी महान राष्ट्र को शोभा नहीं देती. अगर किसी का यह कहना हो कि नहीं हैं हम महान राष्ट्र तो वह भी खुल कर कहो ताकि हम अापसे कुछ न कहें ! लोग होते हैं कि जो अपनी चौड़ी छाती का नाप बताते फिरते हैं, इतिहास छाती नहीं, दिल नापता है. तभी तो किसी हिटलर या मुसोलिनी या चर्चिल की नहीं, इतिहास किसी गांधी, किसी लिंकन की अभ्यर्थना में झुकता है. 

प्रधानमंत्री को बड़ा रोष है कि ‘कुछ लोग’ हमले का प्रमाण मांग रहे हैं. इसमें रोष करने जैसा क्या है, चिंतित होने की जरूरत है कि क्यों अापकी विश्वसनीयता इतनी गिर गई है कि अापके हर दावे पर ‘कुछ लोग’ नहीं, इस देश के 69% लोग जल्दी भरोसा नहीं करते ? अौर फिक्र तो तब भी होनी चाहिए जब कोई एक अकेला भी भरोसा न करे ! देश ने अच्छे-बुरे, कम बुरे-अकुशल सभी तरह के प्रधानमंत्री देखे-भुगते हैं लेकिन ऐसा अविश्वास तो किसी के लिए नहीं देखा था. प्रधानमंत्री का इतिहासविषयक झूठा बड़बोलापन, भूगोल की उनकी नासमझी, अांकड़ों की सत्यता के प्रति उनकी हिकारत अौर किसी भी सत्य का सम्मान न करने की उनकी हेंकड़ी अौर कहीं भी, किसी का भी अपमान कर सकने का उनका भोंडापन देश ने पांच सालों में इतना समझा-परखा है कि उसे बार-बार पूछना पड़ता है कि वहां से जो कहा जा रहा है उसमें कुछ सच भी है क्या ? सेना के प्रवक्ता ने बहुत सही अौर सच कहा कि बालाकोट में हमारा अभियान सफल रहा लेकिन लाशें गिनना हमारा काम नहीं है. प्रधानमंत्री अौर उनके लोगों ने कैसे गिन ली लाशें ? 

युद्ध, हिंसा, घृणा अौर हत्या को कैसी भी स्थिति में अस्वीकार करने वाला मैं भी यह मानता हूं कि प्रधानमंत्री की अनुमति से हमारी फौज ने जो किया, कोई भी सरकार वैसा ही करती. राज्य की अपनी भूमिका है अौर उसे वह भूमिका कमजोरी या असमंजस में रह कर नहीं निभानी चाहिए. पूर्ण धीरज अौर अच्छी योजना के साथ वह करना चाहिए जो करने की जिम्मेवारी उसकी है. यह भी मानता हूं मैं कि जो हुअा वह पाकिस्तान का अपना रचा हुअा है. उसे यह भुगतना ही था. वह अपना रास्ता नहीं बदलेगा तो ऐसे कई घाव उसे लगेंगे. यह भारत-पाकिस्तान के बीच का ही सच नहीं है, अातंकवादी हिंसा हो या नक्सली हिंसा कि चुनावी फायदे के लिए भड़काई गई सांप्रदायिक हिंसा - इन सबको अंतत: तो राज्य की हिंसा से जूझना ही होगा. हम उसके लिए दुखी जरूर होते हैं लेकिन उसका निषेध कैसे करें ? जो बो रहे हो, वही काटोगे जैसा न्याय है यह.  

लेकिन यह जवाबी उन्माद फैलाना ? इसे कैसे समझा जाए ? अाग पर भुट्टे सेंके जाएं तो सही, अाप लाशें सेंकने लगे तो ? चालाकी कहें हम कि लाचारी लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने ज्यादा सयानेपन से स्थिति को संभाला है जबकि पाकिस्तान के अंदरूनी हालात में वे बहुत कमजोर विकेट पर खड़े हैं. वहां भी हमारी तरह का ही अत्यंत शर्मनाक मीडिया है; युद्धोन्माद फैलाने वाले सांप्रदायिक लोग व संगठन हैं; किसी भी स्तर पर उतर कर चुनावी फायदा बटोरने में लगे सत्ता के दलाल हैं. इन मामले में हम दोनों मुल्क यह साबित करने से कभी नहीं चूकते हैं कि दरअसल हम हैं तो एक ही नस्ल के ! लेकिन मोदीजी के या अभिनंदनजी के डर से कांपते इमरान खान ने, घुटनों के बल बैठ कर भी यदि कोई सही बात कह दी है तो क्या उसे ही पकड़ कर हमें न्याय व शांति का मुद्दा अागे नहीं कर देना चाहिए ? वे कह रहे हैं कि हम अातंकवाद पर भी बात करने को तैयार हैं तो यही तो हम मांग रहे थे न ! तो देर क्यों, बात करने का न्योता भेज दें न ! यह भी कह दें कि हाफिज सईद अौर उसके सारे खर-पतवार, दाऊद इब्राहीम सरीखे तस्कर अापके यहां अाजाद घूमते रहें तो बातचीत का वातावरण बनता ही नहीं है. वे पाकिस्तान के नागरिक नहीं हैं. भारत से भागे हुए अपराधी हैं जिन्हें अापने पनाह दे रखी है, तो अापसे बात होगी कैसे ? तो वार्ता की जमीन तैयार करने के लिए जैसे अापने हमारे अभिनंदन को वापस भेजने का सयानापन दिखाया है वैसे ही इन्हें भी सगुन मान कर गिरफ्तार कीजिए अौर अपनी ही जेल में डालिए. इमरान साहब, अपनी सदाशयता पर हमारा भरोसा अापने इतनी बार तोड़ा है कि अब अापको अागे बढ़ कर उसकी मरम्मत करनी पड़ेगी, अौर उसका एक कदम यह गिरफ्तारी है. पाकिस्तान को अलग-थलग करने की हमारी कोशिश भले चले लेकिन एक कोशिश यह भी करें हम कि पाकिस्तान को नैतिक कठघरे में खड़ा करें ! नैतिकता का सवाल खड़ा करने की पहली शर्त यह है कि वह नैतिकता की बुनियाद पर खड़े हो कर उठाई जानी चाहिए. 

यह काम चालबाजी से, दांत पीस कर भाषण देने से या अपने राजनीतिक विपक्ष को देशद्रोही बताने से नहीं होगा. अपनी पीठ अाप ठोकने वाली यह देशभक्त सरकार तो बमुश्किल पांच साल पहले ही अाई है न ! इससे पहले देश इसी ‘देशद्रोही’ विपक्ष के हाथों में था. हो सकता है, ये अापकी तरह बहादुर, दूरदर्शी, कुशल, ईमानदार न रहे हों लेकिन ये देशद्रोही होते तो यह देश अापको राज चलाने के लिए मिलता क्या ? प्रधानमंत्री अौर उनके मातहत के सारे लोग जिस से, जैसी भाषा बोल रहे हैं, वह चुनावी सन्निपात हो तो भला अन्यथा हमारा सार्वजनिक संवाद कभी इतना पतनशील अौर असभ्य नहीं हुअा था.

पिछले दिनों में उभरी सबसे पुरसकून अौर मानवता में हमारा भरोसा बढ़ाने वाली कोई एक छवि चुननी हो तो क्या याद अाता है अापको ? मुझे याद ही नहीं अाती है बल्कि वह छवि मेरे मन पर अंकित हो गई है : पाकिस्तान की सड़कों पर उतरी महिलाएं-पुरुष जिनके हाथ के प्लेकार्ड पर लिखा था : अभिनंदन को भारत वापस भेजो ! ( 05.03.2019 )                   

पांव पखारना अौर पांव जमाना



हमारे यहां पाप की परिभाषा ऐसी है कि अाप पाप किए जाएं अौर प्रयागराज में, किसी कुंभ में यकि किसी तीर्थस्थल पर जा कर उसे धो अाएं तो पापमुक्त ! इसलिए ऐसे स्थलों पर सबसे बड़ी भीड़ पाप-प्रायश्चित के लिए नहीं, पाप-भय को डुबोने के लिए होती है. बहुत सारे रुद्राक्ष की मालाअों से अंटी पड़ी गर्दन झुका कर, पूरे कपड़े पहने प्रधानमंत्री ने जब संगम में डुबकी लगाई तो पता नहीं उनके मन में क्या भाव थे लेकिन जो भाव सभी पढ़ पा रहे थे वह चुनाव-भय का भाव था ! जो भयभीत होता है वह हर दरवाजे सर झुकाता जैसे कांग्रेस के युवा अध्यक्ष यहां-वहां रोज ही करते दिखाई देते हैं. यह निजी अास्था हो तो हमें या किसी को भी एतराज करने का अधिकार नहीं है लेकिन जिस निजी अास्था का सार्वजनिक संदर्भ हो वह प्रश्नाकुल तो करती ही है. 

तो प्रश्न कई खड़े हो गये ! राजनीति कहां-कहां, कितने-कितने मुखौटे पहनने पर मजबूर कर देती है. किसानों को रुपये बांट कर यह याद दिलाने का मुखौटा कि नोट अौर वोट का रिश्ता भूलना मत, मुझे यह याद करने पर मजबूर कर गया कि जब रोज-ब-रोज किसान अात्महत्या कर रहे हैं तब हमने कहां प्रधानमंत्री को किसी एक के घर भी जाते या अांसू बहाते देखा ? दिल्ली के जंतर-मंतर पर देश भर से हजारों किसान अाए थे तब क्या प्रधानमंत्री ने अपना कोई मंत्री उनके बीच भेजा ? किसानों की पीड़ा से विगलित प्रधानमंत्री ने इतना भी तो नहीं किया कि किसानों में से कुछ को अपने यहां बुलवा कर पानी पिलाया ? करुणा भी कितनी बाजारू हो गई है कि चुनाव जितने निकट अाते हैं वह उतनी तेजी से उमड़ती है, अौर चुनावों के दूर जाते ही सूख जाती है. 
   सफाईकर्मियों को स्वच्छताग्राही कहकर प्रधानमंत्री ने उनमें से पांच के पांव पखारे अौर फिर यह भी कहा यह पल उम्र भर उनके साथ रहेगा. मतलब यह पल उनके जीवन में फिर नहीं अाएगा याकि यह पल उनके जीवन में पहले कभी नहीं अाया था. जो असामान्य है सामान्यत: वही याद रह जाता है. प्रधानमंत्री के लिए स्वच्छता असामान्य है कि स्वच्छता करनेवालों का सम्मान असामान्य है, यह तो वे ही जानें लेकिन यह तो हर कोई जान गया कि यह पूरा अायोजन कितनी क्रूरता से रचा गया था  ? पांव में भुक्क सफेद मोजे अौर भगवा कपड़ों में लिपटे, बेशकीमती अासनी पर, अपने मोटापे की वजह से बड़ी तकलीफ से बैठ पा रहे प्रधानमंत्री सफेद भुक्क तौलियों से, पीतल की बड़ी थाल में रखे वर्दीधारी सफाईकर्मियों के पांव धोते-पोंछते हुए न सहज थे, न भावपूर्ण ! एक योजना थी  जिसे उन्हें पूरा करना था अौर इस तरह करना था कि जैसे वे अभिभूत हैं कि सफाईकर्मियों ने उन्हें यह अवसर प्रदान किया. तो कोई पूछेगा या खोजेगा ही पिछले करीब पांच सालों में सफाई कर्मचारियों के लिए सरकार ने क्या-क्या किया ? हाथ से मैला उठाने व सर पर ढोने की प्रथा खत्म की ? महानगरों की गहरी-पक्की-जहरीली नालियों की गंदगी में सफाईकर्मियों का सदेह उतरना बंद हुअा ? मशीनों अौर ऐप अौर स्वचालित यंत्रों के प्रेमी-प्रचारक प्रधानमंत्री ने क्या ऐसी एक मशीन भी मंगवाई कि लगवाई कि जिससे सफाईकर्मियों को सीवरेज में उतरने की जरूरत न पड़े ? सफाईकर्मियों के वेतन-भत्तों पर, उनकी सुरक्षा पर, उनकी शिक्षा पर याकि उनके बच्चों की पढ़ाई की कोई एक योजना भी बनी ? क्या ऐसा कोई अध्ययन भी हुअा कि सफाईकर्मियों तक अारक्षण कितना पहुंच सका है ? झाडंू के साथ अपना फोटो खिंचवाने के लिए ही सही, सरकार के प्रधान से ले कर सिपहसालार तक झाड़ू-तगारी ले कर जो एकदिनी तमाशा करते थे क्या वह तमाशा भी अकाल मौत नहीं मर गया ? कोई इतना ही बता दे कि क्या प्रधानमंत्री कार्यालय में नौकरी पर लगा एक सफाईकर्मी भी इसलिए सेवामुक्त हुअा कि अब प्रधानमंत्री दफ्तर अा कर अपनी मेज खुद ही साफ कर लेते हैं ? अगर अपनी मेज साफ करने के बाद, अपना हाथ धोते प्रधानमंत्री का फोटो अखबारों  में छपा होता तो क्या पता हम भी सलाम कर ही लेते !

अगर लड़ाई कश्मीर की है, कश्मीरियों से नहीं है तो इन पांच सालों में क्यों एक भी मौका ऐसा नहीं अाया जब प्रधानमंत्री को हमने छर्रे से अंधे होने वालों कश्मीरी बच्चों से मिल कर रोते हुए देखा ? क्यों ऐसा है कि देश भर में यहां-वहां पहुंचे अौर जिंदगी का दूसरा कोई रास्ता तलाशते कश्मीरी बच्चे अचानक एकदम असुरक्षित हो गये हैं ? उन पर हमले हुए हैं, उनको धमकियां मिली हैं, उनको बताया गया है कि वे अवांक्षित हैं ? अाप खोज कर भी कहीं खोज नहीं पाएंगे कि प्रधानमंत्री ने या उनके किसी भी जिम्मेवार मंत्री ने इस बारे में गंभीरता व शासन की सख्ती के साथ कोई बयान दिया हो. 

 पिछले दिनों में कश्मीर में जितने फौजी मारे गये हैं, अौर मारे जा रहे हैं वह एक कीर्तिमान ही है. हां, सीमाएं संकट में हों तो फौज ऐसे बलिदानों के लिए ही बनी है. लेकिन उन सैनिकों के परिवारों के लिए, बच्चों के लिए क्या कोई नई योजना सामने अाई ? उनके परिवारों में पहुंचती सरकार हमें कहीं दिखाई देती है ? शहीदों के परिजनों को बलिदान का मेडल ही नहीं, जीवन का सहारा भी चाहिए. क्यों ‘वन रैंक-वन पेंशन’ की जरूरी मांग पूरी नहीं की जा रही है ? पूर्व सैनिक सालों से राजधानी दिल्ली में ‘वन रैंक:वन पेंशन’ की मांग ले कर धरना-अनशन कर रहे हैं अौर प्रधानमंत्री कहते ही चल जा रहे हैं कि उनकी सरकार ने यह काम पूरा कर दिया है. सच तो कोई एक ही है ! जंतर-मंतर पर ही बैठ कर इसका फैसला क्यों नहीं किया जाता है ? 

वे शुरुअाती दिन हमें खूब याद हैं जब प्रधानमंत्री को लग रहा था कि सारी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति गले लगाने व लगने से, झूला झुलाने से, ढोल बजाने अौर विदेश में बसे भारतीयों को जमा करके, उनमें अात्मप्रशंसा करने से बदली जा सकती है. याद करें तो हमें याद अा ही जाएगा कि प्रधानमंत्री शुरू में पाकिस्तान की कैसे अौर कितनी दौड़ लगाते थे ! नवाज शरीफ की मां के जन्मदिन पर वे रास्ता बदल कर पाकिस्तान पहुंचे थे. अब केवल धमकियां हैं, चुनौतियां हैं ! लेकिन अब भी यह भूलना नहीं चाहिए, न देश को भूलने देना चाहिए कि पाकिस्तान के लोगों से हमारी दुश्मनी नहीं है. यह तो पाकिस्तान की फौज अौर हुक्मरानों की अापसी जुगलबंदी है जो कहर बन कर हम पर भी अौर उनके अपने नागरिकों पर भी टूटती है. इसलिए जरूरी है कि हम सख्त हों, ईमानदार हों. सीमा पर राजनीतिक छिछोरापन खतरनाक ही नहीं है देश को कमजोर करने वाला है. युद्ध ही एकमात्र रास्ता हो तो वह भी करें हम लेकिन एक सभ्य राष्ट्र का शील न गंवाएं. 

पांव पखारने अौर पांव जमाने में जो फर्क है वह हम जितनी जल्दी समझ लें उतना अच्छा !( 26.02.2019)  

आइए, अौर अपना अारक्षण ले जाइए


अभी-अभी खबर अाई है कि राजस्थान में गुर्जरों ने अारक्षण की मांग का अपना पांचवां अांदोलन इस भाव के साथ वापस ले लिया है कि उनकी जीत हो गई है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर गुर्जर समुदाय ने ही उनका सबसे मुखर स्वागत किया. उन्होंने राजस्थान ही बंद कर दिया. सड़कें बंद, रेलपटरियां बंद. अागजनी अौर गोली-बारी ! हमारे अारक्षण-अांदोलन का यह सफलता-सिद्ध नक्शा है -  अपनी जातिवालों को इकट्ठा करना, स्वार्थ की उत्तेजक बातों-नारों से उनका खंडहर, भूखा मन तर्क-शून्य कर देना, किसी भी हद तक जा सकने वाली असहिष्णुता का बवंडर उठाना, सरकार को कैसी भी धमकियां दे कर ललकारना अौर अधिकाधिक हिंसा का नंगा नाच करना ! सभी ऐसा ही करते हैं, गुर्जरों ने भी किया. 

गुर्जरों समेत ५ अन्य जातियों को ५% अारक्षण देने की घोषणा राजस्थान सरकार ने की. सबको पता है कि अारक्षण के बारे में ५०% की सर्वोच्च न्यायालय की लक्ष्मण-रेखा पार करने के कारण अदालत में ऐसे सारे अारक्षण गिर जाते हैं. ऐसा पहले हुअा भी है. अब फिर होगा ? केंद्र सरकार ने सवर्ण जातियों के लिए १०% चुनावी-अारक्षण की जो घोषणा की है, वह भी ५०% की रेखा को पार करती है. दूसरे कुछ राज्यों ने भी इस मर्यादा से बाहर जा कर अारक्षण दे रखा है. इन सबके बारे में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ को कोई संयुक्त फैसला लेना है. वह जब लेगी तब लेगी लेकिन अाज तो यह अारक्षण सबका सर्वप्रिय खेल बन गया है.

लेकिन मैं कहता हूं कि अाइए, जिन-जिन को अारक्षण चाहिए, अाइए अौर अपना-अपना अारक्षण ले जाइए. अाखिर तो रोटी एक ही है अौर उसका अाकार भी वैसा ही है. इसके जितने टुकड़े अाप कर सकें, कर लीजिए. मैं तो कहता हूं कि सर्वोच्च न्यायालय ५०% की अपनी लक्ष्मण-रेखा भी मिटा दे. फिर तो सब कुछ सबके लिए अारक्षित हो जाए ! फिर अाप पाएंगे कि अारक्षण के इस जादुई चिराग को रगड़ने से भी हाथ में कुछ नहीं अाया - न जीवन, न जीविका ! 

 रोटी तो एक ही है अौर हममें से कोई नहीं चाहता है कि रोटियां कई हों अौर उनका अाकार भी बड़ा होता रहे ताकि अारक्षण की भीख मांगने की जरूरत नहीं हो. सब चाहते यही हैं कि जो है उसमें से ‘हमारा’ हिस्सा अारक्षित हो जाए. यह सवाल भी कोई पूछना नहीं चाहता है अौर न कोई बताना चाहता है कि यह ‘हमारा’ कौन है ? जिनका अारक्षण संविधान-प्रदत्त है, उनके समाज में ‘हमारा’ कौन है ? पिछले कोई ७० सालों में वह ‘हमारा’ कहां से चला था अौर कहां पहुंचा ? पिछड़े समाज का पिछड़ा हिस्सा अारक्षण का कितना लाभ ले पा रहा है ? हर समाज का एक ‘क्रीमी लेयर’ है जो हर तरह के लाभ या राहत को कहीं अौर जाने से रोकता भी है अौर छान भी लेता है. दलित-पिछड़ों के समाज का भी अपना ‘क्रीमी लेयर’ है जहां पहुंच कर अारक्षण का लाभ रुकता भी है अौर छनता भी है. यह बात अदालत ने ही नहीं कही, हम चारो बगल देख भी रहे हैं. पिछड़ी जाति का नकली प्रमाण-पत्र बनवाने वाले सवर्णों की कमी नहीं है अौर हर तरह की धोखाधड़ी कर सारे लाभ अपने ही परिजनों में बांट लेने वाले पिछड़ों की कमी नहीं है. 

   अारक्षण की व्यवस्था पहले एक विफल समाज के पश्चाताप का प्रतीक थी, अाज  यह सरकारों की विफलता की घोषणा करता है. हर तरफ से उठ रही अारक्षण की मांग बताती है कि देश चलाने वाली तमाम सरकारें सामान्य संवैधानिक मर्यादाअों में बंध कर न तो देश चला सक रही हैं, न बना सक रही हैं. जब अाप अपने पांवों पर चल नहीं पाते हैं तभी बैसाखी की जरूरत होती है. हम चूके कहां ? समाज के पिछड़े तबकों को अारक्षण की विशेष सुविधा दे कर सरकारों को, अौर समाज को भी सो नहीं जाना था बल्कि ज्यादा सजगता से अौर ज्यादा प्रतिबद्धता से ऐसा राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षणिक चक्र चलाना था कि पिछड़ा वर्ग जैसा कोई तबका बचे ही नहीं. लेकिन ऐसा किसी ने किया नहीं. अगर शिक्षा में या नौकरियों में अारक्षण वाली जगहें भरती नहीं हैं तो सरकार को जवाबदेह होना चाहिए. उसे संसद व विधानसभाअों में इसकी सफाई देनी चाहिए कि ऐसा क्यों हुअा अौर अागे ऐसा नहीं हो इसकी वह क्या योजना बना रही है. लेकिन सत्ता की भूख ऐसे सारे सवालों को हजम किए बैठी है. 

  अारक्षण का सदा-सदा के लिए चलते रहना इस बात का प्रमाण है कि समाज के हर तबके को सामाजिक-अार्थिक-राजनीतिक अवसर का लाभ पहुंचाना इस व्यवस्था के लिए संभव नहीं है. लागू अारक्षण को जारी रखने के लिए अांखें तरेरते लोग अौर नये अारक्षण की मांग करते हिंसक अांदोलनकारी, दोनों मिल कर कह तो यही रहे हैं न कि लोगों को भरमाने, खैरात बांटने अौर स्वार्थों की होड़ के अलावा दूसरा कुछ है नहीं कि जो हम कर सकते हैं. अारक्षण की यह भूख बताती है कि अाजादी के बाद से अाज तक जिस दिशा में सरकारें चली हैं वह समाज के हित की दिशा नहीं है. संविधान ने अपने पहले ही अध्याय में राज्यों के लिए जिन नीति-निर्देशक तत्वों की घोषणा की है, उन्हें देखें हम अौर अपने समाज को देखें तो यह समझना अासान हो जाएगा कि हमारा शासन कितना दिशाहीन, लक्ष्यहीन तथा संकल्पहीन रहा है. न सबके लिए शिक्षा, न सबके लिए स्वास्थ्य, न पूर्ण साक्षरता, न हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा, न संपू्र्ण नशाबंदी, न जाति-धर्म की दीवारों को गिराने की कोई कोशिश, न समाज की बुनियादी इकाई के रूप में गांवों की हैसियत को संविधान व प्रशासन में मान्यता- कुछ भी तो हमने नहीं किया. रोजगारविहीन विकास को हमने प्रचार की चकाचौंध में छिपाने की कोशिश की लेकिन भूख छिपाने से छिपती है क्या ? इसलिए सारी जातियों के गरीब अारक्षण की लाइन में वैसे ही खड़े हैं जैसे नोटबंदी में सारा भारत खड़ा था; अौर संसद व विधानसभाअों में वह लाइन बड़ी-से-बड़ी होती जाती है जिसमें गरीबों के करोड़पति प्रतिनिधि खड़े होते हैं. 

अाज अारक्षण वह सस्ता झुनझुना है जिससे सभी खेलना चाहते हैं लेकिन व्यवस्था की चालाकी देखिए कि वह सबको एक ही झुनझुने से निबटा रही है ताकि किसी को याद न रहे कि व्यवस्था का काम झुनझुने थमाना नहीं है. ( 16.02.2019)   


हम हारे, वे जीते !



कोलकाता के मध्य में ममता बनर्जी ने जो कथानकविहीन नाटक खड़ा किया था, सर्वोच्च न्यायालय ने जल्दी ही उस पर जरूरी पर्दा गिरा दिया. सबने राहत की सांस ली - ममता दी ने भी, दिशाहीन केंद्र ने भी अौर न्यायपालिका ने भी. अब सवाल है कि जीता कौन ? सबके अपने-अपने जवाब हैं; मेरा जवाब यह है कि वे जीते, हम हारे ! ‘वे’ मतलब वे जो सत्तावर्ग के हैं अौर व्यवस्था को अपने हित में निचोड़ते-तोड़ते रहते हैं। ‘हम’ मतलब हम वे जो व्यवस्था को इस कदर निचोड़ने-तोड़ने के शिकार होते हैं.

उस दिन कोलकाता में जो हुअा वह सीबीअाई की सर्जिकल स्ट्राइक थी. मोदी सरकार है ही ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ वाली सरकार है. प्रधानमंत्री बनने के लिए भी मोदीजी ने अपनी पार्टी पर सर्जिकल स्ट्राइक ही तो किया था. फिर अपने शपथ-ग्रहण को संवैधानिक प्रक्रिया नहीं, किसी ‘शादी’ का रिसेप्शन बनाने की धुन में सार्क देशों के सारे राष्ट्र प्रमुखों को जुटाना कूटनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक से कहां कम था ! फिर पाकिस्तान से रिश्ता बनाने की पागल दौड़ में बेचारे नवाज शरीफ पर इतने सर्जिकल स्ट्राइक किए उन्होंने कि अाखिर उनका काम तमाम करके ही छोड़ा. फिर नोटबंदी की घोषणा, बैंकिग व्यवस्था को अौर फिर रिजर्व बैंक को बधिया करना, जीएसटी लागू करना - सभी तो सर्जिकल स्ट्राइक के तेवर से ही हुए. सरकारी पार्टी के एक बड़े सज्जन कह रहे थे कि जीएसटी लागू करने में जो जल्दीबाजी की बात करते हैं, उनसे मैं कहता हूं कि चारा ही कुछ नहीं था. सारा प्लान तो मनमोहन सिंह का बना-बनाया था, तो हमें प्लान में किसी गड़बड़ी की अाशंका नहीं थी. हमने देखा कि इसे फुलप्रूफ बनाने के चक्कर में रहेंगे तो इसे लागू करने का यश कोई अौर ले जाएगा. इसलिए इसे लागू करने का सही राजनीतिक वक्त वही था. लोगों का नुकसान हुअा, कुछ दूसरी गड़बड़ियां हुईं लेकिन वह सब होते-होते अब देखिए कि बात रास्ते पर अा ही गई है. लागू करने से लेकर उसे स्थिर करने तक का सारा श्रेय हमारा हो गया. राजनीतिक काम तो ऐसे ही होते हैं ! तो इस पर से समझिए िक राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक कोलकाता में हुअा. रात के अंधेरे में, राज्य सरकार को अंधेरे में रख कर, सीबीअाई के मरे तोते को पिंजड़े से निकाल कर कोलकता पहुंचा दिया गया. लोकतंत्र हमेशा ही क्षुद्र राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक से घायल होता रहा है, उस दिन भी हुअा.

ममता दी ने दन-दनादन धरना की अपनी शैली में उसकी काट निकाली. वे केंद्र की कुचालों से गले तक भरी हुई थीं. विपक्षी एकता को अाधार देने अौर उसकी धुरी बनने की उनकी पहल से हैरान-परेशान मोदी-शाह की जोड़ी भी बौखलाई हुई है. वह ईंट-से-ईंट बजाने अौर छट्ठी का दूध याद दिलाने जैसी भाषा में राजनीतिक विमर्श करने में लगी है. उसके छुटभैयों की भाषा की तो बात ही क्या ! लेकिन चिटफंड का बेताल ममता दी से कोई अाज से नहीं, कबसे चिपका हुअा है. अगर वह अारोप गलत है तो सत्ता के इतने लंबे दौर में अब तक इसकी सफाई हो जानी चाहिए थी. अगर वह सही है तो अब तक अपराधियों की धराई हो जानी चाहिए थी. अाप बेतालों को इस तरह बे-ताला रखे रहेंगी तो वे मुसीबत बनेंगे ही. लेकिन ममता दी को स्वयंभू राजनीति की जो लत लगी हुई है वह उन्हें बार-बार मुसीबत में डालती है - अपनी पार्टी के भीतर भी अौर विपक्ष के भीतर भी इसकी तिक्तता मिलती रही है. ममता दी ऐसा समां बांधती हैं जैसे सारा जमाना उनका दुश्मन है, अौर वे उनका मुकाबला करने वाली अकेली वीरांगना है. यह मोदी के राजनीतिक विमर्श का महिला संस्करण है. मोदी भी अपनी छवि एक ऐसे घनघोर राष्ट्रप्रेमी, गरीबों के रॉबिनहुड की गढ़ते हैं जिसके पीछे सारा चोर विपक्ष, सारे चोर पैसे वाले, सारे भ्रष्टाचारी, सारी कांग्रेस अौर सारा नेहरू-परिवार हाथ धो कर पड़ा है अौर वे अाधुनिक अभिमन्यु की तरह लहूलुहान, अकेले ही इस चक्रव्यूह को काट रहे हैं. लेकिन काश कि ऐसा कुछ होता ! दोनों की अपनी गढ़ी छवि नकली भी है अौर असलियत के विपरीत भी है. असहमति का कोई स्वर भी ममता दी को सुहाता है क्या ? क्या ममता दी ने उनकी गिरफ्तारी नहीं करवाई है जिन्होंने सोशल मीडिया पर उनकी अालोचना की ? क्या अपनी व्यक्तिगत अौर सरकारगत अालोचना के प्रति वे भी मोदी की तरह ही असहिष्णु अौर बदले की भावना से भरी नहीं हैं? भाजपा के सांप्रदायिक कार्ड का जवाब वे भी किसी दूसरी सांप्रदायिकता में नहीं खोज रही हैं ? हिंसा को राजनीतिक जवाब की भाषा बनाने में वे भी कोई गुरेज रखती हैं क्या ? चिटफंड मामले में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर की भूमिका कभी भी संदेह से परे नहीं रही है. अब तक तो यही लगा है कि कुछ तो है कि जिसकी परदेदारी में राजीव कुमार की सेवाएं ली जा रही हैं. यह उच्च प्रशासनिक सेवा का घटिया राजनीतिक इस्तेमाल तथा उच्च अधिकारियों की घटिया राजनीतिक हरकत है. यह बहुत हद तक वैसा ही है जैसा यह कि सीबीअाई को सरकारी पिट्ठू बनाने में पहले केंद्र ने वर्मा-अस्थाना का इस्तेमाल किया, फिर एम.नागेश्वर राव को ला बिठाया. फिर अदालत ने बिल्कुल न समझ में अाने वाली भूमिका लेते हुए वर्मा को प्रमुख पद पर ला बिठाया अौर अगले दिन हटा दिया अौर फिर नागेश्वर राव को ला बिठाया गया. नागेश्वर राव ने ऐसे तेवर दिखाए मानो वे सीबीअाई प्रमुख बनने के लिए ही पैदा हुए हैं. इस सारे प्रकरण में मारा कौन गया ? न वर्मा, न अस्थाना, न नागेश्वर राव, न सरकार, न अजीब घामड़-सी भूमिका लेने वाली न्यायपालिका अौर न तीन सदस्यों वाली वह कमिटी जो सीबीअाई प्रमुख का चयन करती है. मारे गये हम जिनके लोकतांत्रिक अधिकारों का संरक्षण करने के लिए बनी न्यायपालिका, सीबीअाई तथा तीन सदस्योंवाली चयन समिति क्रमश: बौनी बनती गई अौर विश्वसनीयता खोती गई. 

लोकतंत्र में संस्थाअों का परस्परावलंबन अौर एक-दूसरे को मर्यादित करते चलने वाली व्यवस्थाएं जितना टूटती हैं, नागरिक उतना ही कचवविहीन होता जाता है. यह महाभारत के रण में कर्ण के कवच-कुंडलविहीन होने जैसी ही त्रासदी है. ( 07.02.2019)                

हे ईश्वर, इन्हें माफ करना !



मुझे यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है कि अलीगढ़ में अखिल भारत हिंदू महासभा के जिन लोगों ने 30 जनवरी 2019 को महात्मा गांधी को सामने खड़ा कर, फिर से गोली मारने का कुत्सित खेल खेला, वे कौन थे; उनकी गिरफ्तारी हुई या नहीं, अौर नहीं हुई तो क्यों नहीं हुई. कोई मुझसे पूछे तो मैं बार-बार यह कहने को तैयार हूं कि न तो उनकी गिरफ्तारी होनी चाहिए अौर न उनके पीछे पुलिस छोड़ी जानी चाहिए.

उन्होंने जो किया उसके पीछे की उनकी वैचारिक दृढ़ता अौर अपने किए के परिणाम के सामने खड़े रहने का उनका साहस तो हमें पता ही है कि ऐसा करने के बाद वे सब भाग खड़े हुए अौर उनके खिलौना बंदूकबाज पदाधिकारी अब तक छिपे-भागे फिर रहे हैं. ये सब उसी परंपरा के ‘वीर हिंदू’ हैं जिस परंपरा के वे लोग थे जो 30 जनवरी 1948 को बिरला भवन में असली नाथूराम गोडसे के साथ मौजूद थे. सभी बला के कायर थे. उनकी योजना 80 साल के बूढ़े, निहत्थे अादमी की हत्या कर, वहां से निकल भागने की थी. वे भगत सिंह नहीं थे कि जिन्होंने बम फेंकने के बाद वहां से भाग निकलने की चंद्रशेखर अाजाद की योजना मानने से ही इंकार नहीं कर दिया था बल्कि बम फेंकने के बाद भाग निकलने के पूरे अवसर होने पर भी  न भागे अौर न छिपे. वे वहीं खड़े रहे, नारे लगाते रहे अौर फिर डर से बिलबिलाते सुरक्षाकर्मियों को बताते रहे कि हमारे पास दूसरा कोई हथियार नहीं है कि जिसका तुम्हें खतरा हो, अाअो अौर हमें गिरफ्तार कर लो ! ऐसे ही नरपुवंगों के लिए अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने साहस की परिभाषा गढ़ी थी : घोर विपदा के समय भी व्यक्तित्व का सहज सौंदर्य अक्षुण्ण रहे, यही साहस है ! अौर गांधी इसलिए ही इन बहादुरों के समक्ष नतमस्तक हुए थे अौर कहा था कि इन नौजवानों ने मृत्युभय को जीत लिया है जिसकी साधना मैं भी ताउम्र करता अा रहा हूं. 

इसलिए मैं नहीं जानना चाहता हूं कि वे कौन लोग थे ! कायरों की अलग-अलग पहचान नहीं होती है, कायरों की जाति होती है. लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि महात्मा गांधी कि हत्या करने वाले 1948 के उन कायरों अौर 2019 के इन कायरों के नामलेवा अाज कहां छिपे बैठे हैं ? वे अागे अा कर इनका पीठ क्यों नहीं ठोकते कि इन्होंने वह किया है जो अाप भी करना चाहते तो थे, अौर करना चाहते तो हैं लेकिन हिम्मत नहीं होती ? 1947 से लेकर 2014 से पहले तक जो लोग दिल्ली अौर राज्यों की कुर्सियों पर बैठे थे उनमें से कोई भी ‘गांधी का अादमी’ नहीं था. जवाहरलाल नेहरू पर तो यह इल्जाम है कि अाजाद भारत को गांधी की तरफ पीठ करने का रास्ता उन्होंने ही बताया अौर तब देश की तथाकथित बौद्धिक बिरादरी में गांधी के विचारों के प्रति उपहास का भाव पैदा किया. लेकिन उनमें इतना साहस था कि गांधी के रहते हुए भी अौर उनकी अनुपस्थिति में भी उन्होंने कहा कि वे गांधी-विचार में विश्वास नहीं रखते हैं अौर देश के विकास का उनका अपना नक्शा है. लेकिन ऐसा कहने वाले वे अकेले नहीं थे. क्या सरदार पटेल, क्या राजेंद्र प्रसाद अौर क्या मौलाना अाजाद अौर क्या दूसरे कई, सबको गांधी का बोझ भारी लगता था अौर सबने उनसे मुक्ति पा कर राहत ही पाई थी. लेकिन एक फर्क था-बहुत बड़ा फर्क ! वे सब कबूल करते थे कि गांधी का रास्ता इतना कठिन है कि हम उसके सही-गलत का विश्लेषण करने में वक्त लगाने की न तैयारी रखते हैं, न योग्यता. लेकिन वे सभी गांधी नामक इंसान का गहरा सम्मान करते थे- पूजा का भाव रखते थे. हालांकि गांधी की नजर से देखें तो ऐसे सम्मान का कोई मतलब नहीं होता है लेकिन गांधी की नजर यदि उनके पास होती ही तो यह खाई पैदा ही कैसे होती ? जब तक जवाहरलाल की समझ में अाया कि देश को लेते हुए वे इस खाई में गहरे गर्त हो चुके हैं तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी.

यहां किस्सा एकदम ही दूसरा है. ये वो लोग हैं जो गांधी को समझने की कूवत ही नहीं रखते हैं लेकिन असभ्य इतने हैं कि उनका सम्मान करने का शील भी नहीं रखते हैं. 2014 के बाद से ऐसी असभ्यों की बन अाई है क्योंकि वे जानते हैं कि जिनके हाथ में सत्ता है वे भी अपनी ही बिरादरी के हैं. संघ परिवार के गोविंदाचारी ने कभी इस परिवार के ‘मुखौटे’ की पहचान की थी लेकिन उनसे चूक यह हुई कि उन्होंने व्यक्ति को पहचाना जबकि पहचान तो पूरी बिरादरी की करनी थी. गोविंदाचारी की वह चूक ठीक करने में संघ परिवार के लोग 2014 से पूरी ईमानदारी से लगे हैं. यह अलीगढ़ में जो हुअा उसकी पूर्व भूमिका कहां, किसने नहीं बनाई है ? उत्तरप्रदेश की, कि हरियाणा की, कि पूरी पार्टी की कमान जिनके हाथ में है उनका या देश की कमान जिनके हाथ में है उनका मुखौटा हटा कर देखें तो वे ही लोग मिलेंगे जो हमें ऊना में मिले थे, बुलंदशहर या मालेगांव में मिले थे. कभी मंदिर का तो कभी गाय का मुखौटा लगा कर यही लोग हैं जो हमें यहां-वहां-सर्वत्र मिलते हैं. असहिष्णुता अौर संकीर्णता का, सांप्रदायिकता अौर झूठ का हर पैरोकार गांधी का हत्यारा है. 

उद्दात्त मन का समाज बनाना एक लंबी, पित्तमार सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया है जिसमें अापको तलवार की धार पर चलना पड़ता है, बाजवक्त गोली झेलनी पड़ती है फिर चाहे वह ईसा हों कि केनेडी कि मार्टीन लूथर किंग कि गांधी !  समाज को हिंसक, खूंखार अौर संकीर्ण मतवादी बनाना बहुत अासान है. यह बच्चों के फिसलपट्टी के खेल की तरह होता है. एक बार नीचे की तरफ धक्का लगा दो बस ! फिर तो वह अपने वेग से ही नीचे से नीचे उतरता चला जाता है. यही देश में हो रहा है. इसे कौन, कैसे गिरफ्तार करेगा ? नहीं, ऐसे तत्वों की गिरफ्तारी जिन्हें करनी हो, करें लेकिन समाज को तो इनका प्रतिकार करना होगा. जहां-जहां भारत में भारत के कद का इंसान रहता है वहां-वहां यह प्रतिकार मनसा-वाचा-कर्मणा करना होगा - हमें भी अौर अापको भी ! ( 01.02.2019) 

जॉर्ज फर्नांडीज : एक परछाईं



हम वहां हैं जहां से खुद हमको / कुछ अपनी खबर नहीं अाती !
मालूम नहीं, जॉर्ज फर्नांडीज ने यह शेर कभी सुना या पढ़ा था लेकिन उनका अंत कुछ ऐसे ही हुअा. बहुत कुछ अटलबिहारी वाजपेयी की तरह. वे लंबे समय से हमारे बीच थे लेकिन ऐसे अनुपस्थित थे कि जैसे थे ही नहीं. जिन्होंने भी जॉर्ज को कभी, कहीं, थोड़ा भी जाना होगा वे सबसे पहले यही जान सके होंगे कि इस अादमी को नेपथ्य में रहना नहीं अाता है, कि इसे नेपथ्य में रखा नहीं जा सकता है. जॉर्ज अपनी पूरी बनावट में ही मंच के अादमी थे.

तब जयप्रकाश अांदोलन अपने चरम पर था अौर इंदिरा गांधी उन सबको एक-एक कर जयप्रकाश से दूर करने में लगी थीं जिनसे उन्हें थोड़ी भी अाशंका थी कि यह जयप्रकाश का मददगार हो सकता है. बिहार से बाहर के सर्वोदय अांदोलन के शीर्ष लोगों को बिहार निकाला दे दिया गया था. तब जॉर्ज रेलवे यूनियन के अध्यक्ष थे अौर रेल इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल का नेतृत्व कर रहे थे. कभी समाजवादियों के दार्शनिक व गुरु तथा स्वतंत्र भारत की रेलवे यूनियन के पहले अध्यक्ष जयप्रकाश नारायण से मिलने अौर अपनी हड़ताल की मांगों को बिहार अांदोलन की मांगों में शामिल करवाने का प्रस्ताव ले कर वे बिहार के, मुंगेर के खादीग्राम अाश्रम अाए थे. यहां युवकों का हमारा संपूर्ण क्रांति का प्रशिक्षण शििवर चल रहा था अौर जयप्रकाश वहीं थे. यह सब चल ही रहा था कि खबर अाई कि जॉर्ज के बिहार प्रवेश पर बंदिश लगा दी गई है. बंदिश की घोषणा अभी-अभी हुई थी अौर वह प्रभावी हो इससे पहले वे खादीग्राम पहुंच जाएं, जयप्रकाश से विचार-विमर्श हो जाए अौर उनकी एक सार्वजनिक सभा हो जाए, ऐसा संदेश अाया. 

जयप्रकाश ने कहा कि वे अा सकें तो अाएं लेकिन बंदिश की घोषणा हो चुकी है तो उनका अाश्रम में अा कर सार्वजनिक सभा करना उचित नहीं होगा. वे हमारे शिविर के हॉल में ही अपनी बात रखें. जॉर्ज अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ पहुंचे. उन्हें भी पता था कि किसी भी वक्त उन्हें बिहार से बाहर करने की काररवाई हो सकती है. इसलिए सब कुछ तेजी से करना था. पहला काम जयप्रकाश के साथ विमर्श का था. रेल हड़ताल के बारे में अौर अमर्यादित सरकारी दमन के बारे में उन्होंने जयप्रकाश को पूरी जानकारी दी अौर कहा कि यदि वे बिहार अांदोलन में इस हड़ताल को भी शामिल कर लेते हैं तो इसे खासी ताकत मिलेगी अौर सरकार के लिए हम बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकेंगे. जयप्रकाश ने समझाया: जहां तक रेल हड़ताल का अौर तुम्हारी यूनियन की मांगों का सवाल है, मैं उसका समर्थन करता हूं. मैं अपनी सभाअों में इसके बारे में बोल ही रहा हूं अौर अब तुमने जितनी जानकारी दी है उस अाधार पर मैं दमन की पूरी निंदा भी करूंगा. हड़ताल मजदूरों का लोकतांत्रिक अधिकार है अौर उसका मुकाबला किसी भी सभ्य सरकार को बातचीत से ही करना चाहिए, दमन से नहीं. हां, तुमसे मैं यह जरूर कहूंगा कि हमारी हड़तालें बड़ी अासानी से हिंसा अौर तोड़-फोड़ में बदल जाती हैं, क्योंकि साधनों के बारे में तुम बड़े नेताअों का अाग्रह नहीं होता है. अगर मैं सरकारी दमन का निषेध करूंगा तो यूनियन की हिंसक काररवाइयों के बारे में चुप्पी तो नहीं रख सकूंगा. मुझे ऐसी उलझन में न पड़ना पड़े, इसकी सावधानी तुम्हें रखनी होगी. जहां तक बिहार अांदोलन की मांगों में इसे शामिल करने का संबंध है तो यह तो सत्याग्रह के बुनियादी धर्म में नहीं बैठेगा. सत्याग्रह की नैतिक भित्ती ही यह है कि इसमें मांगें न्यूनतम रखते हैं अौर स्थिर रखते हैं. जो न्यूनतम है, सत्याग्रह का वही अधिकतम है अौर उस पर ही डटे रहना होता है. इसलिए मैं इसे बिहार अांदोलन की मांगों में शरीक नहीं कर सकूंगा लेकिन इस हड़ताल को मेरा पूरा व खुला समर्थन है, यह मैं जरूर कहूंगा. जॉर्ज अपने गुरू को इतना तो जानते थे कि इन्हें इनकी बातों से डिगाने की कोशिश व्यर्थ है. विमर्श पूरा हुअा अौर जॉर्ज अपनी बात कहने शिविर हॉल में अाए. माइक से जैसे ही उन्होंने बोलना शुरू किया, उन्हें बिहार की सीमा से बाहर करने वाले अा पहुंचे. अब कुछ खींचतान की अाशंका बन रही थी कि जयप्रकाश ने पुलिस अधिकारी को बुला कर कहा: अाप सरकारी अादेश इन्हें दीजिए अौर तब तक इन्हें अपनी बात पूरी कर लेने दीजिए. दोनों अाश्वस्त हो गये. जॉर्ज माइक पर दहाड़े, तो जयप्रकाश ने हंस कर कहा: माइक बंद कर दो, जॉर्ज को माइक की जरूरत ही नहीं है. सभी हंस पड़े, सारा तनाव कहीं बह गया. 

मैं उन्हें छोड़ने कार तक गया अौर जयप्रकाश के इंकार से अाहत जॉर्ज को कुछ अाश्वस्त करने की कोशिश की तो वे कंधे पर हाथ रखकर बोले, मैं जानता था कि वे ऐसा ही कहेंगे. अब तो यहां गांधी की कसौटी की बात है.  
          
गांधी की हो कि किसी अौर की, जॉर्ज को कोई भी कसौटी कभी रास नहीं अाती थी. वे लड़ाई अौर प्यार में सब कुछ जायज मानने वाले व्यक्ति थे. बला का अोज अौर बला की ऊर्जा थी. संसदीय राजनीति में विपक्ष का दिमाग कैसा होना चाहिए यह अगर हम मधुलिमये को जानकर समझ पाते हैं तो त्वरा अौर तेवर कैसा होना चाहिए, यह जॉर्ज को देखकर समझा जाना चाहिए. उन जैसा हरावल सेनापति दूसरा कहीं नहीं मिलता है. लेकिन राजनीति केवल लड़ाई से नहीं चलती है, यह बात जनता पार्टी की सरकार में शामिल सारे घटकों ने यदि समझी होती तो वह प्रयोग उतना जलील हो कर खत्म नहीं हुअा होता. लेकिन तब क्या अटल, क्या मोरारजी, क्या जॉर्ज, क्या जगजीवन राम या चरण सिंह कोई भी अपने अलावा कुछ भी देखने का शील निभाने को तैयार नहीं था. एक दिन अपनी ही सरकार के समर्थन में भाषण दे कर अौर दूसरे ही उसी के खिलाफ मतदान कर, उसे पराजित कर जॉर्ज तब जो भटके तो फिर कभी ठौर नहीं पा सके. सत्ता में वे करीब-करीब लगातार ही रहे लेकिन सत्ता जॉर्ज जैसों का ठौर कभी हो ही नहीं सकती थी. इसलिए वे लगातार अपनी परछाईं के पीछे छिपते रहे. लेकिन परछाइयां सख्सियत से बड़ी तभी होती हैं जब धूप ढलने लगती है. जॉर्ज को ही इसका उदाहरण बनना था. सत्ता की अाखिरी बाजी उन्होंने अटलजी की सरकार में शामिल हो कर खेली. फिर तो वे लगातार खेलते रहे, अच्छा भी खेलते रहे, संकटमोचक की भूमिका में जीतते भी रहे लेकिन वह सब परछाईं भर थी. जो सख्सियत थी वह लगातार हारती रही. जब अटल सरकार ने अायडीन नमक को अनिवार्य बना दिया तब उसके खिलाफ हमने एक अांदोलन खड़ा किया था अौर उस सिलसिले में कई दफा प्रधानमंत्री अटलजी से भी अौर रक्षामंत्री जॅार्ज फर्नाडीज से भी मिलना पड़ा. वह सब अलग ही कहानी है. लेकिन एक दिन सुबह-सुबह घर पर मिलना हुअा. मैं कुछ चिढ़ा भी था, कुछ परेशान भी. कुछ कड़ी बात कही तो बोले, प्रशांतजी, रास्ता तो अाप लोगों का ही सही है. इन संसदों अौर विधानसभाअों से कुछ निकलने वाला नहीं है ! मैंने तुरंत ही पूछा, तो फिर कब यहां से निकल कर हमारे साथ अा रहे हैं ? अचानक ऐसे सवाल की उन्हें अाशा नहीं थी. थोड़े से अचकचा गये अौर फिर शून्य में देखते रहे. 

अाज हम शून्य में देख रहे हैं. एक परछाईं थी जो, वह भी मिट गई. ( 30.01.2019)  

ममता दी का 2019


  
राहुल गांधी की ममता दी ने विपक्षी दलों के २२ नेताअों को एक मंच पर जुटा लिया अौर समवेत सुर में एक ही मंत्र जपने को मजबूर कर दिया. लेकिन यह मजबूर विपक्ष देश को मजबूर नहीं कर सकता है कि उस पर विश्वास किया जाए. इस मजबूर विपक्ष को सही मानी में मजबूत विपक्ष बनना पड़ेगा. इस अायोजन के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टैंक पर सवार अपना फोटो जारी करने के साथ-साथ इसका माखौल उड़ाते हुए जो कुछ कहा उसका अर्थ भले कुछ भी न निकलता हो, वह सत्तापक्ष की घबराहट की चुगली तो खाता ही है. 

टैंक पर बैठ कर लोकतंत्र की कमान संभालने का स्वांग कौन करता है, इसे जानने के लिए इतिहास में ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है. प्रधानमंत्री इस बात को समझें या न समझें, हमें जरूर समझना चाहिए कि कुछ प्रतीक ऐसे होते हैं जो कुछ बातों से कभी, कहीं मेल नहीं खाते हैं. टैंक से लोकतंत्र के मेल का प्रतीक ऐसा ही है. टैंक बहुत हुअा तो लोकतंत्र के कुचले जाने का  प्रतीक हो सकता है. यह कुछ ऐसा ही है जैसे सेंसेक्स के बढ़ते अांकड़े अर्थतंत्र के स्वास्थ्य के प्रतीक नहीं होते, किसी नये हर्षद मेहता की कारगुजारी की अाशंका जताते हैं; हमारे देश के संदर्भ में साफ छवि वाला प्रधानमंत्री कभी भी भ्रष्टाचारमुक्त सरकार का प्रतीक नहीं बनता है; अनुशासन की लंबी-लंबी हांकने वाला, किसी अनुशासित समाज की नहीं, हमें अपने अापातकाल की याद दिलाता है. तब लोकतंत्र की हत्या को यह कह कर जायज ठहराया जा रहा था देखिए, ट्रेनें समय पर चलने लगीं हैं अौर बाबू लोग दफ्तरों में समय से अाने लगे हैं. जब फौज की अंधाधुंध वाहवाही की जा रही हो, धर्म-संस्कृति का नाम अधार्मिक तत्व जोर-जोर से ले रहे हों, जब थोथी जुबान को ठोस काम की शक्ल दी जा रही हो, जब सत्तापक्ष विपक्ष को देशद्रोही अौर भ्रष्ट घोषित कर रहा हो, जब सारी अच्छी उपाधियां खुद ही, खुद को दी जा रही हों, जब खुद को रात-दिन एक कर काम करने वाला अौर बाकी सबको कामचोर बताया जा रहा हो अौर सार्वजनिक मंच से पूछा जा रहा हो कि अापको कैसा सेवक चाहिए, तथा जब यह कहा जा रहा हो कि दूसरे सब सत्तालोलुप हैं जब कि मैं एक झोला उठा कर कभी भी चल देनेवाला निस्पृह अादमी हूं तब हमें सावधान हो जाना चाहिए कि दाल में कहीं कुछ गहरा काला है; अौर कुछ है कि जिस पर पर्दा डाला जा रहा है.

हमारे सामने अभी जो चल रहा है वह सत्ता का खुला खेल फरुखाबादी है. मतलब यह कि यह खेल बिना किसी कायदे-कानून,मान-मर्यादा अौर इतिहास-भूगोल के खेला जाता है अौर जो किया-कराया,कहा-बताया,सुना-सुनाया, गाया-बजाया सबकी सार्थकता की कसौटी एक ही है कि इससे सत्ता मिली क्या ? वह मिली तो सब माफ, सब राम के नाम ! इसलिए प्रधानमंत्री का यह रोना रोना कि ये सभी एक मुझ बेचारे को सत्ता से हटाने के लिए साथ अा रहे हैं, बहुत लुंजपुंज नजर अाता है. क्या लोकतंत्र में विपक्ष का काम यह नहीं है कि वह सत्तापक्ष को कुर्सी से हटाये ? अगर ऐसा नहीं है तो वह विपक्ष है ही क्यों ? 2014 के चुनाव में अाज का विपक्ष सत्ता में था अौर अाज के सत्ताधारी विपक्ष में. तब भारतीय जनता पार्टी के भीतर की सत्ता अौर देश की सत्ता हथियाने की कुचाल में नरेंद्र मोदी ने कौन-सा दांव नहीं चला था ? उन्होंने भी उन सारे राजनीतिक दलों अौर शोहदों को गोलबंद किया था जो किसी भी कारण कांग्रेस से नाखुश थे. उतना बड़ा गठबंधन पहले कब बना था, याद करें हम ! तब वह सब लोकतांत्रिक था तो अाज अलोकतांत्रिक या अनैतिक कैसे हो सकता है ? नरेंद्र मोदी अवसरवादी हों तो वह भारतीय संस्कृति है, राहुल या ममता या मायावती अवसर का फायदा उठाएं तो यह बेशर्म अवसरवादिता कही जाए, तो बात बहुत बेढब हो जाती है.

एक के सामने सब का तर्क भी बहुत बोदा है. कहा है किसी ने कि अधर्म का प्रतीक कितना बलवान है अौर उससे अपशकुन कितना अासन्न है, इससे प्रतिकार की ताकत का अाकार अौर उसकी अाक्रामकता तै होती है. अपनी परंपरा में देखें तो कंस के लिए कृष्ण को, रावण के लिए राम को अाना पड़ता है न ! अभी के इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि श्रीमती इंदिरा गांधी की सत्तालोलुपता को पीछे करने के लिए जयप्रकाश नारायण को सामने अाना पड़ा था अौर तब कहीं जा कर हम लोकतंत्र को पटरी पर ला सके थे. इतिहास यह भी बताता है कि हिटलर के लिए दुनिया भर की मित्र-ताकतों को एकजुट होना पड़ा था. इसलिए प्रधानमंत्री का यह रोना अर्थहीन हो जाता कि ये सभी मेरा मुकाबला करने के लिए एकजुट हो रहे हैं. 

प्रधानमंत्री का यह कहना भी बहुत बुरा संदेश देता है कि मेरा विरोध भारत का विरोध है याकि यह कि विपक्ष मुझसे नहीं, जनता से लड़ना चाहता है. प्रधानमंत्री को याद न हो शायद क्योंकि तब नरेंद्र मोदी का राजनीतिक शैशवकाल था. 1974 में एक नारा कांग्रेस के देवकांत बरुअा ने उठाया था कि इंदिरा भारत हैं, भारत इंदिरा है ! यह चाटुकारिता का चरम था ! तब उसी भारत ने इस नारेसहित इंदिरा अौर देवकांत बरुअा को इतिहास के उस कूड़ाघर में उठा फेंका था जहां से अाज तक उनकी सहज वापसी नहीं हो सकी है. लेकिन यहां सवाल अात्मचाटुकारिता है. प्रधानमंत्रीसमेत सारे राजनीतिज्ञ यह न भूलें कि अहमन्यता अात्मचाटुकारिता ही होती है. यह देश स्वंयभू है, अमर है, कोई व्यक्ति नहीं ! खुद को देश का पर्याय बताना कमजोर अौर दिशाहीन राजनीति का प्रमाण है. 

देश के संदर्भ में देखें तो 2019 की त्रासदी यह है कि इसके पास व्यक्तियों का विकल्प तो है, नीतियों का नहीं है. विपक्ष के संदर्भ में देखें तो उसके लिए सहूलियत यह है कि पिछले पांच सालों में ‘थोथा चना बाजे घना’ इतना अौर इस तरह हुअा है कि सबको दिखाई देने लगा है.  बस, उसे शब्द अौर संगठन देने की जरूरत है जो कत्तई अासान नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है. सत्तापक्ष के संदर्भ में देखें तो उसकी स्थिरता अौर उसकी एकता देश को रास अा रही है. यह सत्ता के कारण है कि राजनीतिक संस्कृति के कारण इसकी कसौटी भी अभी ही होनी है. इसलिए ममता दी के मंच से जो हुअा है उसकी गूंज देशव्यापी हो सकती है. प्रधानमंत्री कितनी प्रौढ़ता से अौर भारतीय जनता पार्टी कितने अनुशासन से 2019 का पाला छूते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है. ( 20.01.2019)