कविता



जैसे तुम्हारी उंगलियां 
क्रोशिया बुनते-बुनते 
कहीं यहां-वहां 
टांक देती हैं मुझे 
और मैं हतप्रभ 
देखता रह जाता हूँ तुम्हारी उंगलियां
और उनका जादू
वैसे ही 
वैसी ही किसी ने 
टांक दिया है 
रेखाओं के अनंत झुरमुट में यह चांद!!




जय  प्रकाश !! ... 
वह नहीं, 
जो हम बाहर जला-बुझा कर फेंकते हैं 
अौर 
अंधेरा गहरा होता जाता है 
बल्कि 
वह जो हम सबके भीतर दीपता है ... जय  प्रकाश !! 
कु.प्र. 12.11.2015






मैं अौर तुम 
१. 
जाहिर है 
कि जो समर्थ है 
युद्ध में वही उतारा जाएगा.

इसी बिना पर 
तुम मुझे युद्ध से हमेशा बाहर रखते हो
अौर बिना लड़े ही 
हर युद्ध जीत जाते हो ! 

२. 
लड़ाई हमेशा दो के बीच होती है
अौर तुम मुझे 
किसी गिनती में रखते ही नहीं हो 
फिर लड़ाई कैसे हो ? 

३. 
मैं भी कहां चाहता हूं कि 
हम लड़ें :
लड़ना कौन चाहता है ?
लेकिन लड़ता नहीं हूं तो 
जीता भी नहीं हूं 
इसका क्या करूं ? 


४. 
वह अाखिरी लड़ाई 
सबसे अच्छी तरह लड़ना चाहता था
उस लड़ाई के डर से 
हमने उसे मार डाला.
तीस जनवरी तबसे ही 
हम सबके पराजय की तारीख बन गई. 


५. 
इतिहास हमेशा से उनका रहा 
जो कभी थे;
जो हैं 
उनका इतिहास तुमने कभी लिखा नहीं 
क्योंकि होती हैं उनकी सिर्फ कहानियां  
लेकिन 
जिनका इतिहास नहीं होता है
उनकी कहानी भी कहां होती है ! 

६.
रात अौर दिन में 
उजाले-अंधेरे का फर्क होता है.
लेकिन मैं अक्सर देखता हूं कि
उजाला एक तरफ ही सिमटा रह जाता है. 
अौर हमें अंधेरे को ही 
उजाला मान कर
सोना अौर जागना पड़ता है. 


७ 
तुम कहोगे तो हम 
उठेंगे;
तुम पूछोगे तो हम 
बोलेंगे;
तुम बुलाअोगे तो हम 
चलेंगे;
तुम रुलाअोगे तो हम 
रोएंगे;
तुम हंसाअोगे तो ... 
तुम हमें हंसाते क्यों नहीं हो ? 


गाना हमें भी अच्छा लगता है 
गाना तुम्हें भी अच्छा लगता है 
तुम गाते हो 
हम सुनते हैं
हम गाते हैं 
तुम कान बंद कर लेते हो.

हमारा गला खराब है 
कि तुम्हारा कान ? 

( 1.12.13)


मैं अौर तुम : २ 


उम्र मेरी कितनी हुई 
मैं नहीं जानता
जानता हूं इतना कि
मैं उम्र का कभी नहीं हुअा !

हम दोनों एक-दूसरे के पीछे
भागते रहे 
एक-दूसरे को छलते रहे 
अौर फिर एक मोड़ पर अा कर न तुम रहे न मैं 
अौर वह मोड़ हम कभी पहचान नहीं सके ! 
०० 


गांधी की कविता 

रास्ते जो बताते हैं 
रास्ते बनाते नहीं हैं 
रास्ते बनाते हैं वे जो 
रास्ते पर चलते हैं
कभी तुमने सच क्यों नहीं कहा 
( तुम तो सच की ताकत से ही सांस खींचते थे न ! ) 
कि जो तुम्हारे साथ हैं
वे साथ नहीं हैं करने में -
कहने में जो साथ हैं उनके
साथ तुम नहीं  हो
इतना सच काफी होता तुम्हारा 
उस वक्त के क्षद्म को काटने में.
मुझे अब लगता है 
कि तुम 
जो थे वह हम देख नहीं सके
जो देख सके वह तुम थे नहीं 
अौर हमारी इसी देखी-अनदेखी में 
तीन गोलियों ने सब देख लिया.
अौर अब कहो
कैसा लगता है वहां से यह देखना 
कि तुमसे अलग जा कर 
हम कैसे हैं 
अौर जैसे हैं हम तुम्हारे बिना 
क्या उसे होना कहते हैं ? 



शहर में बारिश 

(१)
बारिश का एक मतलब
यहां यह भी होता है कि
दबी-ढकी-रंगी-पुती सारी-की-सारी गंदगी 
उमड़-उफन के तुम्हारे चारो बगल बिखर जाए 
अौर तुम किसी गंदे कोने में 
गंदगी के निशान थामे 
किनारे छूट जाअो !

(२) 
बारिश अाना मतलब 
इस महानगर की सारी महानता का धुल कर
सड़क के परनाले में विलीन हो जाना.
फिर बच जाते हैं हम-तुम-वह-यह अौर वह 
सड़क को पकड़ते भागते 
अौर भींगते. 
लेकिन यहां बारिश में भींगता है क्या कोई ?
सब सिर्फ गीले होते हैं. 
(३) 
अौर यहां बारिश का एक मतलब यह जानना भी है 
कि हर अादमी कपड़ों के भीतर
कितना एक-सा होता है
वह सड़क-चौराहे दिखाई दे
अौर तुम छाते में अौर मैं बस में 
अौर वह अपनी गाड़ी में 
लेकिन सब करते इतना ही हैं 
कि खुद को छिपाते हैं :
बारिश कभी भी, कहीं भी नंगा कर जाती है.  

( ४)   
सड़कों के किनारे 
अौर चमकती सोसाइटियों के अांगन में 
लगाए-उगाए गए पेड़-पौधों की पत्तियों पर 
मनों-टनों का जो पेट्रोल अवशेष धूल के साथ मिल कर 
चादर बना जमा होता है 
अौर उनकी सांस के हर रेशे को दबोच कर 
पूरे साल उन्हें अर्द्ध-चेतना में रखता है  
बारिश उसे धो डालती है 
जहर की जकड़न टूटती है 
सिराएं धुलती हैं, सांसें खुलती हैं 
पत्ते चमकते हैं 
धुले-खुले 
 वृक्षों अौर झाड़ियों को 
हमारे साथ सांस लेने का मौका मिलता है
तुम देखोगे कि सारा परिवेश सांस लेने लगता है

(५) 
चमकती हैं पत्तियां 
( कहां छुपी थी इतनी चमक ? )
धुलती है जहरीली,तेलीय राख 
( किसने डाली थी इन पर जहर की यह परत ? ) 
हंसते हैं सारे डाल-पात
( कहां दबी थी यह उजास भरी हंसी ? ) 
अौर देखते हैं हम अवाक कि
बारिश में अाकाश से पानी नहीं गिरता  
गिरता है जीवन-जल ! 

(६)
ऊपर से गिरती है बारिश 
नीचे से उठता है निनाद :
बस, ठहरो 
हटो 
मुझे सांस लेने दो : 
इस एक बार ही 
साल भर की, बारह महीनों की 
तीन सौ पैंसठ दिनों की सांस.
एक सांस में सारी सांस !!
बारिश में सबसे मुखर होते हैं वज्र गूंगे वृक्ष.

(७)
बूंदें गिर रही हैं 
अनगिनत 
लगातार :
कहां से - जानते नहीं !
क्यों - पूछते नहीं !
कौन - पहचानते नहीं !
फिर भी कहीं धरती तो कहीं मन गीला-गीला
हुअा जाता है

अौर यह गीला-भींगा थरथराता मन
किसी गीली गौरैया-सा
तुम्हारे हर उतार-चढ़ाव में 
दुबकता जाता है :
 जानती हो :
तुम भी तो मेघ हो -
रससिक्त ! वायवीय !! भरी हुई 
कि कुछ हो कि बरस पड़ने को अातुर !!!   



अंधेरा अौर उजाला
२५.११.२०१६


पटना : पाटलीपुत्र होटल  

 रात इतनी अासानी से कटेगी नहीं 
जानता हूं 
जानता हूं
रोशनी इतनी अासानी से मिलेगी नहीं 
इसलिए मैं रात अौर रोशनी का फर्क मिटाने में लगा हूं 
अौर चाहता हूं 
सभी रोशनी अौर अंधेरे की संधिरेखा पर खड़े हो कर 
पहचानें कि अंधेरा घना अौर घना अौर घना होता जाता है 
जब तक तुम उसमें उतर कर रोशनी की तलाश नहीं करते हो

रोशनी अौर कहीं नहीं
अंधेरे के खोई होती है
अौर किनारे बैठ कर खोजने वालों को कभी नहीं मिलती है. 

( २ ) 
मैं अंधेरे को इसलिए नहीं कोसता 
कि वह काला होता है 
बल्कि इसलिए उससे लड़ता हूं कि वह लड़ने की अांखें 
बेकाम कर देता है 
कि वह लड़ने के इरादे की जड़ काट देता है 
कि लड़ने वालों को एक-दूसरे से अजनबी कर देता है 

मैं चौंधियाती रोशनी को भी 
इसलिए कोसता हूं 
क्योंकि उसकी भी तासीर अंधेरे की ही होती है 

तुम देखो, जानो अौर पहचानो कि 
गहरे अंधेरे अौर चमकीले उजाले में फर्क नहीं है 
अौर इसलिए हम खोजते हैं 
अंधेरा अौर उजाला उतना 
जितना होता है घर में
मां के अांचल में

पिता होना 
२९.११.२०१६


अाणंद, गुजरात गेस्ट हाउस 

 पिता होना 
रोशनी होना है 
पिता का नहीं होना रोशनी का खोना है 
इसलिए नहीं कि पिता कुछ खास या श्रेष्ठ होता है 
याकि पिता कुछ खास या श्रेष्ठ करता है 
याकि िपता होता है तो हम कुछ खास या श्रेष्ठ करते हैं 
सब कुछ वैसा ही होता है 
लेकिन इतना होता है कि पिता होता है 
तो मां की अांख में गहरी अाश्वस्ति का भाव भरा होता है 
अौर हमें किसी छाया के नीचे होने का अहसास होता है

हम सब अपने बच्चों के पिता नहीं 
अपने बच्चों के लिए पिता तो बनें ! 
०००

साथ भले बैठे थे कि 
तुम कहती हो :
मैं जैसी हूं 
तुम्हें अब पसंद नहीं

मैं कहता हूं : 
ऐसा तुम कहती हो
लेकिन मैंने तो ऐसा कुछ कहा नहीं 

तुम कहती हो : 
अौर मैं तो यह भी कहती हूं 
कि मैं वैसा नहीं हूं कि जैसा तुम चाहती हो 
याकि तुम चाहती थी

मैं कहता हूं: 
मैं हम समय वैसा ही रहने-बनने-करने-चाहने की कोशिश में रहता हूं 
कि जैसा तुम चाहती हो

तुम कहती हो :
हुंह.. खुद को 
खुद ही नवाजे जाते हो 
ऐसा तो हम भी कर सकते हैं ! 

मैं कहता हूं :
मैंने कब कहा कि तुम 
ऐसा नहीं कर सकती हो 
तुम वह सब कर सकती हो 
जो तुम चाहती हो. 

तुम कहती हो :
धत्त .. तुम तो मेरा मन रखने को कुछ भी कहे जाते हो 
मैं तो उतनी ही हूं 
वैसी ही हूं 
जितनी तुम मांगते हो 
मैं वैसी हूं कि जितना तुम चाहते हो 

मैं कहता हूं : 
देखो, यहीं से तो बात शुरू हुई थी 
देखो, यहीं से तुमने बात बढ़ाई थी

तुम कहती हो : 
मैंने बात शुरू की थी तो की थी 
मैंने बात बढ़ाई थी तो बढ़ाई थी 
तुम क्या सुन नहीं ले सकते थे 
तुम सुन लेते 
तो मैं गुन लेती 
अौर बात वहीं पूरी हो जाती

मैं भी हंसा 
तुम भी हंसी

हम दोनों 
कितने एक-से हैं !!  


जेल में …
बड़ी मजबूत 
बड़ी ऊंची
बड़ी ठोस
बड़ी कठोर दीवार बनाई है अापने 
अौर पहरा भी लगातार का 
सख्त बिठाया है अापने 

पर कुछ अौर कीजिए सरकार ! 

मन तो जब चाहे तब 
बेरोक-टोक 
दीवारों के पार चला जाता है 
घूमता-बोलता-बतियाता है 
अौर बिना अापकी इजाजत के 
वापस लौट अाता है 

कुछ अौर करिए सरकार… 

[ 1975 : मंडलकारा, डाल्टेनगंज ( बिहार ) ]













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