Friday 27 September 2019

गांधी के साथ चलने के खतरे


   गांधी की बहार है ! जिधर देखिए उधर ही गांधी खड़े हैं. अखबार पटे हैं, हवाई अड्डों अौर रेलवे स्टेशनों अौर सरकारी अायोजनों में गांधी के चित्र व सुवाक्यों की झड़ी लगी हुई है. सरकारी विभागों को अादेश मिला है कि गांधी:150 का अायोजन होना ही चाहिए. एक बड़े निगम के बड़े अधिकारी ने परेशान हो कर पूछा - क्यों, क्या, कैसे करें हम यह अायोजन ? अौर फिर यह भी कि हमारे यहां कोई जानता भी नहीं है कि इस अादमी के बारे में जानने लायक बचा क्या है कि जो हम नहीं जानते हैं ? फिर अपने अाप से ही जरा धीमी अावाज में बोले- हम यह भी तो नहीं जानते हैं कि हम क्या नहीं जानते हैं ?  

मोहनदास करमचंद गांधी के साथ यह बड़ी दिक्कत है ! हम सब उसे इतना अधिक जानते हैं ( हर चौराहे पर रोज ही तो उससे मिलते हैं ! ) कि उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं. जानना चाहते भी नहीं हैं, क्योंकि हमने उन्हें इतिहास का विषय बना दिया है, वर्तमान से उनका कोई नाता बनाया ही नहीं. 

देखिए न, एक पूरी-की-पूरी सरकार हैरान-परेशान है कि उसने तो योजनापूर्वक उसके हाथ में झाड़ू पकड़ा कर, अपनी स्मार्ट सिटी की किसी सड़क किनारे उसे खड़ा कर दिया था कि बच्चू अब यहीं रहो अौर मक्खियां उड़ाते रहो ! उसकी ऐसी ड्यूटी लगाने से पहले सरकार ने उसका चश्मा भी उतार लिया था ताकि वह इधर-उधर, दूर तक न देख सके. यह अादमी वहां खड़ा भी हो गया. सबको शुरू में ऐसा ही लगता रहा है िक इस अादमी से अपना कहा कुछ भी करवाना या कहवाना एकदम अासान है. ब्रितानी साम्राज्यवाद भी कितने लंबे समय तक इसी मुगालते में रहा. लेकिन इतिहास गवाह है कि कोई कभी उससे ऐसा कुछ भी करवा या कहवा नहीं सका जिसे करना या कहना उसे नैतिक व न्यायप्रद नहीं लगा. अब देखिए न, उनकी काल्पनिक स्मार्ट सिटी के सड़क किनारे इसके खड़े रहने मात्र से इतनी धूल उड़ रही है कि सिटी की तो छोड़िए, पूरी-सारी सरकार का अपना चेहरा ही धूल-धूल हुअा जा रहा है. 

      ऐसी कोशिशें पहले भी हुईं हैं. एक वाइसरॉय साहबान ने ( अगर भूलता नहीं हूं तो लिनलिथगो ! ) ने भी कहा कि ये लोग नहीं समझते हैं कि अाप तो संत हैं, अापको राजनीतिक क्षुद्रताअों में ये लोग नाहक ही घसीटते हैं ! वे चाहते तो थे कि अौर कुछ नहीं तो ऐसे ही किसी बहाने यह अादमी हमारे रास्ते से दूर तो हटे ! लेकिन गांधी ने तपाक से कहा : मेरा महात्मापना अगर कुछ है तो अाप जिसे क्षुद्र राजनीति कह रहे हैं, उसकी क्षुद्रता को खत्म करने में ही है. मैं राजनीति का चेहरा बदलने में लगा हूं. 

  अाज भी ‘कई चतुर जानकार’ अापको मिल जाएंगे कि जो कुछ इस अंदाज में कि जैसे कोई रहस्य खोल रहे हों, कहेंगे अापसे कि अाप गलतफहमी में मत रहिएगा, गांधीजी बहुत चतुर, चालाक, घुरंधर राजनीतिज्ञ थे ! अाप देख ही रहे हैं िक उन्हें ‘चालाक बनिया’ कहने वाला अभी असत्य की सबसे बड़ी दूकान खोले बैठा है. ऐसे लोग पहचान ही नहीं पाते हैं कि एक सच्चा इंसान अपने जीवन के प्रत्येक पल में परिपूर्ण होता है अौर परिपूर्णता में जीता है - एक साथ कई-कई मोर्चों पर जीता हुअा, लड़ता हुआ, कुछ बनाता, कुछ मिटाता हुअा ! उसका लड़ना भी जीने का ही एक तरीका होता है.

  १९४२ के तूफानी दिन थे. सारा संसार दूसरे विश्वयुद्ध की अाग में जलने को बढ़ा जा रहा था अौर हमारी अाजादी के सारे नेता इस उलझन में पड़े थे कि फासिज्म के खिलाफ लड़ने की तैयारी में लगे इंग्लैंड समेत मित्र राष्ट्रों को इस वक्त किसी मुश्किल में डालना चाहिए या नहीं ?  उनका तर्क सीधा था : एक बार हिटलर का फासिज्म परास्त हो जाए तो फिर हम अपनी अाजादी की मांग अौर लड़ाई को अागे बढ़ाएंगे. गांधी इस तर्क का खोखलापन समझ रहे थे. बोले : अगर इंग्लैंड अौर मित्र राष्ट्र सच में फासिज्म के खिलाफ अौर लोकतंत्र के पक्ष में लड़ाई लड़ने उतरे हैं तो उन्हें अपनी ईमानदारी का परिचय देना होगा. उनकी कसौटी यह है कि वे भारत को उसकी अाजादी सौंप दें ! अाखिर गुलाम भारत यह फैसला कैसे कर सकता है कि उसे फासिज्म की लड़ाई में कब अौर कैसे उतरना है ? अाजाद भारत ही इस बात का फैसला करेगा कि यह लड़ाई यदि फासिज्म के खिलाफ है तो उसे इसमें क्या भूमिका अदा करनी है; अौर वह अाज से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका अदा भी कर सकता है. लेकिन उसकी अनिवार्य शर्त है कि उसे अाजाद किया जाए. कांग्रेस के दिग्गज अवाक रह गये ! वे गांधी का रास्ता पकड़ने को तैयार भी नहीं हो पा रहे थे अौर गांधी की बात का कोई जवाब भी नहीं था उनके पास.   

       अपनी बात कह कर गांधी रुके नहीं. उन्होंने कांग्रेस को समझा दिया : कांग्रेस साथ दे, न दे, वे ऐसी एक निर्णायक लड़ाई छेड़ने जा रहे हैं. यह ‘भारत छोड़ो’ अांदोलन की पूर्वपीठिका थी. किसी ने सावधान किया : अापके इस अाह्वान से देश में अाग लग जाएगी ! वे तक्षण बोले : अब तो इस अाग में उतर कर ही मुझे हिंद की अाजादी खोजनी होगी. मैं अब अौर इंतजार करने को तैयार नहीं हूं. 

       कांग्रेस ने गांधी को देखा, देश का मन देखा अौर उसकी समझ में अा गया कि यह अादमी इस दावानल में कूदेगा जरूर, अौर जैसा हमेशा होता अाया है वैसा ही फिर होगा कि यह अादमी जिधर जाएगा, देश भी उधर ही जाएगा; छूट जाएंगे हम ! कांग्रेस बार-बार गांधी को अस्वीकार करती थी, उनसे अलग व दूर जाने की कोशिश करती थी लेकिन जनता से पीछे छूट जाने का भय उसे बार-बार गांधी के पास अाने को मजबूर करता था. इसलिए 8 अगस्त 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में जब कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुअा तो मंच पर गांधी अकेले नहीं, पूरी कांग्रेस के साथ बैठे थे; अौर कांग्रेस के उन्हीं दिग्गज नेताअों ने गांधी के भारत छोड़ो अांदोलन के प्रस्ताव के समर्थन में बड़े-बड़े व्याख्यान दिए. अौर अगली सुबह, जब सूरज भी उगने की कसमसाहट में था, गांधी उन्हें ले कर गये कहां ? सभी-के-सभी जेलों में बंद कर दिए गये - अाजादी के अांदोलन की सबसे लंबी जेल !.   

   गांधी की इस हैसियत व पकड़ की काट निकालने के लिए साम्राज्य ने जिन्ना साहब को खड़ा किया था. अब पाकिस्तान की उनकी बात हवा में फैलती जा रही थी. गांधी हवा का रुख पहचान रहे थे. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने गांधी को रणनीति समझाई : हम जिन्ना साहब की पाकिस्तान की मांग का अभी समर्थन करें ताकि अाजादी की इस अाखिरी लड़ाई में सबकी ताकत लगे, कोई फूट न पड़े. एक बार यह लड़ाई पूरी जीत लें हम फिर देखेंगे कि जिन्ना साहब से कैसे निबटना है. ऐसी रणनीति गांधी की कैसे पचती ! उन्होंने ‘भारत छोड़ो’ का अपना प्रस्ताव पेश करते हुए, उसी मंच से कहा : मैं जिसे गलत मानता हूं उसका समर्थन करूं ताकि अागे का रास्ता साफ हो सके, ऐसी लड़ाई मेरी नहीं है. पाकिस्तान एक गलत बात होगी, सो मैं जिन्ना साहब को साथ लेने के लिए उनके पाकिस्तान का समर्थन कैसे करूं !
  
 गांधी ने एक नहीं, कई मुसीबतें हमारे सर मढ़ दीं. उनके बिना हम मजे से जी रहे थे. कितने मजे से अंग्रेज बने रह कर, उनकी सोहबत का सारा अानंद लेते हुए हम उनसे सालाना जंग कर लेते थे ! इस अादमी ने अा कर मुसीबत पैदा कर दी. इसने बताया कि जिससे लड़ रहे हो, जिससे असहमत हो तुम उसके जैसे बन अौर रह कैसे सकते हो ? इसने ही यह कीड़ा हमारे मन में डाल दिया कि जैसे अाजादी का कोई विकल्प नहीं है वैसे ही लड़ाई का भी कोई विकल्प नहीं है. अौर लड़ाई में कायरता, क्रूरता या चालाकी नहीं, वीरता व सत्य की धीरता काम देगी. जरा सोचिए तो कि किसने अौर कब कहा था कि दुश्मन से लड़ने में भी कायरता, क्रूरता, चालाकी, हिंसा, झूठ की जगह नहीं है ? ये सारी बलाएं गांधी ही हमें सौंप गये हैं.    
  दुनिया में कहीं गांधी नहीं हुए लेकिन अाजादी तो सबको मिली. लेकिन फर्क यह हुअा कि दूसरों की अाजादी अाजादी ही रह गई, हमारी अाजादी नई संभावना बन गई. हालांकि हमें अाधी-अधूरी अाजादी मिली अौर वह भी बहुत रक्त-रंजित मिली लेकिन उसकी संभावनाअों की चर्चा आज भी दुनिया भर में चलती है. दुनिया अाज भी उस लड़ाई की संभावना को समझने में लगी है जिसमें लड़ते तो पूरी ताकत से हैं लेकिन इस बद्धता के साथ कि सामने वाले वाले की जान नहीं लेनी है. यह लड़ाई का अलग ही रूप है जो संसार को गांधी से मिला. गांधी ने पहली बार हमें सिखाया कि बहादुरी जान लेने में नहीं, देने में है. अाप जीते किस तरह हैं यही नहीं, आप मरते किस तरह हैं, यह भी अापकी आजादी का दिल अौर दिमाग बनाता है. इसलिए गांधी के लिए साध्य-साधन विवेक आदर्श का नहीं, व्यवहारिकता का सवाल बन जाता है. तुम गलत या अशुद्ध रास्ते चल कर अपने साध्य तक पहुंचोगे, तो वह रास्ता ही तुम्हारे साध्य का स्वरूप बदल देगा, यह कहने का साहस अौर उस पर टिके रहने का आत्मविश्वास गांधी से मिला है संसार को. 

         उसने कहा कि अहिंसा अगर रणनीति है तो धेले भर भी इसकी कीमत नहीं है; अौर इससे भी सच्ची बात यह कि यदि यह रणनीति है तो हमारे-आपके काम की नहीं है, क्योंकि रणनीति तो रणक्षेत्र में उतरा सैनिक या सेनापति, दुश्मन की क्षमताअों अौर अपनी सीमाअों को देख-समझ कर बनाता है. इसलिए कभी, किसी काल में, किसी के काम आई अहिंसा की रणनीति आज हमारे काम आएगी, यह कैसे संभव है ? अहिंसा जब मूल्य बन कर हमारे पास आती है तब वह हममें ही एक बुनियादी परिवर्तन कर देती है. कल तक जो लड़ाई हथियारों से हो रही थी वह अहिंसक लड़ाई बनी कि वे सारे वाह्य हथियार गिर जाते हैं अौर अाप खुद हथियार बन जाते हैं. हिंसा अपने हाथ में संहार या प्रहार का कोई-न-कोई साधन ले कर ही शुरू होती है अौर परमाणु बम तक पहुंचती है; अहिंसा अपने हाथ में कुछ भी नहीं लेने से शुरू होती है अौर अंतत: इंसान को ही हथियार बना लेती है. तब तुम्हारा चलना, बोलना, कहना यानी कि तुम्हारा होना ही वह कसौटी बन जाता है जहां से अहिंसा जन्म भी लेती है अौर परवान भी चढ़ती है. 

बैरिस्टर मोहन दास से महात्मा गांधी तक के सफर में हम जो देख नहीं पाते हैं वह है गांधी की खुद से हुई भयंकर लड़ाई ! संसार में शायद ही कहीं किसी इंसान ने खुद से ऐसा युद्ध लड़ा होगा - बुद्ध भी ऐसे ही युद्ध में लगे इंसान हैं लेकिन गांधी से उनकी लड़ाई कुछ अासान बन जाती है क्योंकि उन्होंने लड़ाई का मैदान बदल लिया, जीवन के नहीं, वे वैराग्य के साधक बन गये. गांधी इसी सांसारिक मैदान में खड़े रहते हैं अौर हमारी आंखों के सामने अपनी साधना का सारा युद्ध लड़ते हैं. वे कुछ सिद्धि पा कर हमारे बीच नहीं आते हैं कि मुझे उपलब्ध हुआ ज्ञान आपको देता हूं. वे लोक-अखाड़े में ही अपना ज्ञान खोजते हैं, पाते हैं अौर लोक को उसमें दीक्षित करते हैं. अगर मैं कहूं कि लोक का दीक्षित होना ही उस ज्ञान की असली कसौटी है, तो भी गलत नहीं होगा. जिसे लोक अपना न सके, बरत न सके अौर रोज-रोज के जीवन में जिसका इस्तेमाल न कर सके, गांधी के लिए वैसा ज्ञान काम का नहीं है. मूल्य का स्वभाव ही है कि वह मूल को छूता है, रणनीति हमेशा चमड़ी तक पहुंच कर दम तोड़ देती है.

        जीने के लिए सांस की शर्त है. अॉक्सीजन का सिलिंडर ले कर घूमना उसका विकल्प है ही नहीं. हिंसा-अहिंसा के साथ भी कुछ ऐसा ही है. हिंसा या क्रोध या घृणा की लाचारी यह है कि उसकी उम्र बहुत कम होती है. अाप कितने वक्त तक नाराज या किसी के प्रति घृणा पाले रख सकते हैं ? अाप पूरा जोर लगा लें तो भी यह भाव दम तोड़ने लगता है, इसकी व्यर्थता महसूस होने लगती है. अापमें इतना मानसिक/ नैतिक बल न हो कि अाप इसे स्वीकार कर लें अौर पीछे हट जाएं, यह बात दीगर है. दक्षिण अफ्रीका के जनरल स्मट्स ने यही तो लिखा था बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को कि तुमसे मेरी लड़ाई है लेकिन मैं लड़ूं कैसे तुमसे कि तुम ही हो कि जो मेरे हर संकट में मेरी ढाल बन जाते हो !  हिंसा बदला लेने का सुख देती है, वक्ती जीत का अहसास भी कराती है लेकिन टिकती नहीं है. अहिंसा मूल्य बनती है तभी साकार होती है अौर यह एक साथ ही, या साथ-साथ ही, दोनों को विजय तक ले जाती है. अहिंसा सामने वाले को, प्रतिपक्षी को भी अपने दायरे में ले कर चलती है, इसलिए ज्यादा प्रभावी होती है. 

                अाधुनिक अर्थशास्त्र अौर अर्थशास्त्री परेशान हैं कि विकास के लिए पूंजी निहायत जरूरी है लेकिन उसी पूंजी का जैसे ही संचय होता है, वह व्यवस्था को दीमक की तरह चाटने लगती है. तो पूंजी तो चाहिए लेकिन उसका केंद्रीकरण न हो, यह कैसे साधा जा सकता है, यह यक्ष प्रश्न तब भी था, अाज भी है. मार्क्स ने इसका गहन अध्ययन किया अौर फिर यह निदान सामने रखा कि पूंजी को व्यक्ति के नहीं, राज्य के हाथ में रहना चाहिए.   साम्यवाद इसी दर्शन की पैदावार है. व्यक्ति के हाथ से निकल कर पूंजी राज्य के हाथ में तो पहुंची लेकिन दुनिया ने देखा कि उससे एक नये किस्म का पूंजीवाद पैदा हुअा जिसे स्टेट  कैपटलिज्म कहते हैं. यूगोस्लाविया की साम्यवादी क्रांति के जनकों में एक मिलोवान जिलास को, क्रांति की सफलता के बाद, अपने ही कॉमरेड मार्शल टीटो की जेल में जगह मिली. वहां बैठ कर जिलास ने एक किताब लिखी : ए न्यू क्लास; अौर बताया कि राज्य के हाथ में पूंजी देने का हमारा जो साम्यवादी प्रयोग हुअा, उसने समाज में एक नया ही वर्ग खड़ा कर दिया है जिसके हाथ में पूंजी अौर सत्ता का ऐसा केंद्रीकरण हुअा है कि जैसा इतिहास में पहले कभी हुअा नहीं था. इसने समाज को एक नई गुलामी में डाल दिया है. यहां गांधी अाते हैं अौर कहते हैं कि उत्पादन को हम जितना विकेंद्रित करेंगे, पूंजी भी उतनी ही बंटती जाएगी अौर समाज उन छोटी-छोटी पूंजियों को नियंत्रित कर, अपनी स्वतंत्रता, समता अौर अावश्यकता को संभाल सकेगा. वे बताते हैं कि उत्पादक अौर उपभोक्ता के बीच की दूरी को पाटे बिना एकत्रित पूंजी के दुष्परिणाम से बचना संभव ही नहीं है. गांधी का खादी-ग्रामोद्योग कपड़ा बनाने अौर पापड़ बेलने के लिए नहीं था, वह पूंजी अौर सत्ता की दुरभिसंधि को काटने की युक्ति थी. अाज जब दुनिया भर में मंदी छाई है अौर इतनी लंबी चलती जा रही है कि सारी दुनिया के सारे अर्थशात्री मिल कर भी कोई रास्ता तलाश नहीं पा रहे हैं, गांधी का यह अर्थशास्त्र प्रयोग के लिए सबको ललकार रहा है.

          गांधी के चिंतन में गांव तो था लेकिन उनका गांव वह नहीं था जो हमें शहरों के उच्छिष्ट के रूप में आज हर जगह दीखता है. आज के नगर-महानगर हमारी मानसिक, शारीरिक, आत्मिक विकृति के नमूने हैं जिनके लिए गांधी ने ' हिंद-स्वराज्य' में लिखा है कि इन महानगरों में गुंडों की फौज होगी अौर वेश्याअों की गलियां होंगी ! जवाहरलाल को लिखे अपने प्राय: आखिरी खत में, जिसमें वे उन्हें अपने साथ वैचारिक बहस के लिए ललकारते हैं ताकि भावी के लिए यह दर्ज हो जाए कि उनमें अौर उनके घोषित उत्तराधिकारी के बीच कैसी अौर कितनी गहरी खाई है, वे यह साफ करते हैं कि उनकी कल्पना के गांव वे नहीं हैं कि जो आज दिखाई देते हैं. वे गांव की सबसे बड़ी ताकत उसका अामने-सामने का, खुली किताब जैसा जीवन मानते हैं. 'फेस-टू-फेस' समाज बना रहे अौर उसके भीतर की जीवन-शैली बदले, इसकी कोशिश वे करते हैं. अाप खुद ही देखिए न कि महानगरों अौर शहरों का जीवन को हम अाज जहां पहुंचा पाए हैं क्या उसमें कुछ भी ऐसा है कि जो हम संभाल व संवार पा रहे हैं ? मुंबई जैसे एक महानगर को बस चलाए भर रखने में हमारा दम फूल रहा है ! अाज का ताजा पागलपन है कि हम हर बड़े नगर-महानगर में मैट्रो का जंगल पैदा कर रहे हैं. जहां सारा पर्यावरण दम तोड़ रहा है वहां यह मशीनी घोड़ा अॉक्सीजन पैदा करेगा कि कार्बन का दमघोंटू संकट अौर गहरा करेगा ? यह रास्ता अवैज्ञानिक है, अशक्य है अौर अमानवीय है. इसलिए हम लौटें या न लौटें प्रकृति तो लौटने की तरफ मुड़ चुकी है. वह हर तरह से अपना असहकार प्रकट कर रही है. वह बेहद गर्म हो रही है, उबल रही है, उफन रही है, वह कम-से-कम पैदा कर रही है अौर अधिक-से-अधिक लागत मांग रही है. पहले उसने कई संकेत दिए कि हम जिस राह पर गये हैं उसके साथ वह कदमताल नहीं कर सकेगी. अब वह संकेत नहीं दे रही है, जहां, जब उसे मौका मिल रहा है, वह हमला कर रही है. वह कह रही है कि अापको उस विकास की तरफ जाना ही होगा जिसमें मनुष्य अौर पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक व पालक होंगे. अाप उसे गांव कहें कि शहर कि महानगर कि स्मार्ट सिटी, गांधी को फर्क नहीं पड़ेगा.   

         गांधी का 'राष्ट्रवाद' व्यक्ति की निजी गरिमा व स्वाभिमान से जुड़ता है, उसे भीड़ के साथ नहीं जोड़ता है. गांधी सुराज नहीं, 'स्वराज्य' की बात करते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि 'स्वराज्य' ही 'सुराज' है. अाज बड़े शोर-शराबे के साथ जिसे 'राष्ट्रवाद' कह कर हमें पिलाया जा रहा है दरअसल वह राष्ट्र को खंड-खंड अपनी मुट्ठी में करने की कुटिल चाल भर है; अपनी सांप्रदायिकता को छिपाने का फूहड़ उपक्रम भर है. अाधुनिक इतिहास में खोजें तो जातीय श्रेष्ठता के सिद्धांत में जड़ विश्वास करने वाली एक धारा मिलती है जो हिटलर, सावरकर से चलती हुई संघ परिवार तक पहुंचती है जिसमें यहां-वहां कई-कई गुरुजी वगैरह शामिल हो जाते हैं. इस 'राष्ट्रवाद' में मंत्र कहीं से आता है अौर तंत्र में अापको ईंधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है. इस 'राष्ट्रवाद' का दूसरा नाम ही ‘मॉब लिंचिंग’ है. अब सवाल है तो यह कि क्या कोई राष्ट्र भीड़ के हवाले किया जा सकता है ?

'स्वराज्य' में चयन की स्वतंत्रता होती है, ‘राष्ट्रवाद’ में अापका चयन होता है. ‘राष्ट्रवाद’ के लिए धर्म एक हथियार है कि जिसके बल पर अपने से अलग, अपने से असहमत अौर अपने विरोधी की गर्दन काटी जा सकती है. अगर धर्म इस काम नहीं आता हो या नहीं अा सकता हो तो इन सारे धर्मावलंबियों को धर्म छोड़ने या बदलने में क्षण न लगे ! गांधी का धर्म उन्हें सिखाता है कि आदमी के भीतर, हर आदमी के भीतर छिपी संभावनाअों को उजागर करना ही सबसे बड़ा धर्म है. 

      किसी ने पूछा : हमारे लिए, दुनिया के लिए अापका कोई संदेश हमें मिले ! गांधी ने बस एक छोटा-सा वाक्य कह दिया :  मेरा जीवन ही मेरा संदेश है ! बस यही आखिरी संदेश है - मैं जिस तरह जिआ हूं उसे देखो अौर उससे तुम्हारे जीने में मदद मिलती हो तो बस है. अब मैंने उसमें यह भी जोड़ दिया है कि मेरा जीवन ही नहीं, मेरा मरना भी मेरा संदेश है. कैसे जिएं अौर किन बातों के लिए मरें, यह समझना हो अौर अपने लिए कुछ पाना हो तो गांधी का जीना अौर मरना अापके लिए भी उनका आखिरी संदेश बन जाएगा. गांधी के साथ हमारी मुश्किल यूं अाती है कि वह हमारे  पढ़ने से, साधना से, कर्मकांड से, प्रतीकों से चिपकने से हाथ अाता ही नहीं है. उसे समझना हो कि उसके पास पहुंचना हो तो वह उसके साथ चले बिना संभव नहीं है. गांधी की पूजा नहीं, गांधी की दिशा में छोटा-बड़ा सफर ही उन्हें ही नहीं, हमें भी जिंदा रख सकेगा. ( 23.09.2019)  

गांधी की दिल्ली

                दिल्ली भी अजीब है ! यह देश की राजधानी है लेकिन देश यहां कहीं नजर नहीं अाता है. यह रोज-रोज देश से बेगाना होता जा रहा शहर है. हर महानगर का कुछ ऐसा ही हाल है लेकिन दिल्ली तो कोई वैसा ही महानगर नहीं है. देश की राजधानी है मतलब एक ऐसा अाईना होना चाहिए इसे जिसमें देश खुद को देख सके. लेकिन दिल्ली के हुक्मरान रात-दिन इसी जुगत में लगे रहते हैं कि दिल्ली का चेहरा देश से कितना अलग बना दिया जाए ! हवा में चर्चा , अौर चर्चा तेज है कि हमारी संसद छोटी पड़ती जा रही है अौर हमें दिल्ली की शान के अनुकूल एक नई व अाधुनिक संसद चािहए ! हम भी पता नहीं कब से कहते रहे हैं कि हमारी संसद छोटी पड़ती जा रही है लेकिन संसद के छोटे होने से हमारा मतलब इसके बौनेपन से हुअा करता था, इसके रूप-स्वरूप से नहीं ! अब तो फिक्र संसद के बौनेपन की है ही नहीं, सारी फिक्र उसकी बाहरी अाभा को चमकाने की है. हवा में यह भी चर्चा है कि नॉर्थ अौर साउथ ब्लौक की अद्भुत स्थापत्य वाली इमारतें, वहां का वह ऐतिहासिक लैंडस्केप सब बदला जाएगा, क्योंकि यह सारा कुछ भूकंप के खतरों को ध्यान में रख कर नहीं बनाया गया है. यह भूकंप अाए इससे पहले हम याद कर लें कि कितने साल पहले लुटियन की यह दिल्ली बनी थी ? उतने सालों में कितने ही भूकंप इन इमारतों ने पार कर लिए. ये इमारतें हमारे राजनीतिक-सामाजिक जीवन में अाए भूकंपों का तो प्रतीक हैं. 

मुझे तो बहुत भद्दा लगता है कि इंडिया गेट के पास की सारी खुली जगहें बंद होती जा रही हैं; हरियाली खत्म हो रही है; वहां के विस्तार का, खुलेपन का, हरियाली का दम घोंट कर कोई युद्ध-स्मारक या वार मेमोरियल बनाया गया है. क्या पूरा इंडिया गेट अौर वहां का सारा विस्तार युद्ध-शहीदों की स्मृति में ही खड़ा हुअा नहीं है ? अमर जवान ज्योति अौर पत्थरों पर दर्ज शहीदों के नाम, उल्टी राइफल पर टिकी शहीद की फौजी टोप- सब हमें बांधते भी हैं, गहरे कहीं छूते भी हैं. फिर यह अलग से वार मेमोरियल क्या हुअा ? क्यों हुअा ? आपने कभी सोचा है कि देश की राजधानी दिल्ली में कहीं एक जगह भी ऐसी है नहीं  कि जहां पीस मेमोरियल हो. गांधी की शांति-अहिंसा-सिविलनाफरमानी की उस जंग में अनजान जगहों पर, अनजान अौर अनाम लोगों ने ऐसे-ऐसे करतब किए हैं साहस के, विवेक के, संगठन के अौर अहिंसक प्रतिबद्धता के कि सहसा विश्वास न हो. मैं महात्मा गांधी की बात नहीं कर रहा हूं, उन्हें महात्मा मान कर चलने वाले करोड़ों अनाम-अनजान लोगों की बात कर रहा हूं. इनका इतिहास कहीं दर्ज हो, स्कूल-कॉलेज के युवा, देश भर से दिल्ली घूमने अाए लोग उसे देखें-समझें तो देश का भविष्य एक नई दिशा ले सकता है. लेकिन शासन का मन  अौर उसका ध्यान तो कहीं अौर ही है.

   कभी गहरी पीड़ा अौर तीखे मन से जयप्रकाश नारायण ने कहा था : ‘दिल्ली एक नहीं कई अर्थों में बापू की समाधि-स्थली है !’ अाइए, हम देखें कि यह समाधि कहां है अौर कैसे बनी है… एक तो यही कि गांधी की हत्या इसी दिल्ली में हुई थी. लेकिन कहानी 30 जनवरी 1948 के पहले से शुरू होती है. 

यही दिल्ली थी कि जहां प्रार्थना करते गांधी पर, 20 जनवरी 1948 को बम फेंका गया था लेकिन वह बम उनका काम तमाम नहीं कर सका. हत्या-गैंग के मदनलाल पहवा का निशाना चूक गया. उसका फेंका बम गांधीजी तक पहुंच नहीं पाया. गांधी की हत्या की यह पांचवीं कोशिश थी. गांधी इन सबसे अनजान नहीं थे. उन्हें पता था कि उनकी हत्या की कोशिशें चल रही हैं, कि उनके प्रति कई स्तरों पर गुस्सा-क्षोभ-शिकायत का भाव घनीभूत होता जा रहा है. लेकिन वह दौर था कि जब इतिहास की अांधी इतनी तेज चल रही थी कि हमारी नवजात अाजादी उसमें सूखे पत्तों-सी उड़ जाएगी, ऐसा खतरा सामने था. इसकी फिक्र में जवाहरलाल, सरदार अौर पूरी सरकार ही रतजगा कर रही थी. गांधी भी अपना सारा बल लगा कर इतिहास की दिशा मोड़ने में लगे थे अौर यहां भी वे सेनापति की अपनी चिर-परिचित भूमिका में थे.     

  ऐसे में ही अाई थी 29 जनवरी 1948 ! नई दिल्ली का बिरला भवन ! … सब तरफ लोग-ही-लोग थे … थके-पिटे-लुटे अौर निराश्रित !! दिल्ली तब संसार की सबसे बड़ी शरणार्थी नगरी बन गई थी. बापू जब दिल्ली अाए तो सरदार ने बताया उन्हें कि वे जिस भंगी कॉलोनी में रहते रहे हैं, वह शरणार्थियों से भरी पड़ी है. वे वहीं रहने का अाग्रह करेंगे तो शरणार्थियों को हटाना पड़ेगा, सुरक्षा का संकट भी खड़ा होगा… भंगी कॉलोनी से निराश्रितों फिर निराश्रित करने की कल्पना से ही बापू परेशान हो गये. इसलिए उन्हें बिड़लाजी के इस शानदार भवन में लाया गया. बापू ने उसके एक कोने में अपना निवास बनाया… लेकिन लोगों ने भी वहीं अपना अाश्रय खोज लिया… इतने लोग यहां क्यों हैं ? क्या पाने अाए हैं ? क्या मिल रहा है यहां ?… ऐसे सारे ही सवाल यहां बेमानी हैं… कोई किसी से ऐसा कोई सवाल पूछ नहीं रहा है ! बस, सभी इतना जानते हैं कि यहां कोई है कि जो खुद से ज्यादा उनकी फिक्र करता है ! … अाजाद भारत की पहली सरकार के सारे सरदार भी यहां, इन्हीं साधारण लोगों के बीच बैठे-भटकते-बातें करते मिल जाते हैं. वे यहां क्यों हैं ? उन्हें यहां से क्या मिलता है ? उनमें से कोई भी ऐसे सवाल नहीं करता है. वे भी यहां इसी भाव से अाते हैं अौर खुद में खोये, खुद को खोजते रहते हैं कि यहां कोई है जिसे उनसे ज्यादा उनकी फिक्र है. ईमान की शांति अौर परस्पर भरोसे से पूरा परिसर भरा है… 

अौर जो यहां है वह ? …  80 साल का बूढ़ा … जिसका क्लांत शरीर अभी उपवास के उस धक्के से संभला भी नहीं है जो लगातार 6 दिनों तक चल कर, अभी-अभी 18 जनवरी को समाप्त हुअा है… 20 जनवरी को उस पर बम फेंका जा चुका है… तन की फिक्र फिर भी हो रही है लेकिन ज्यादा गहरा घाव तो मन पर लगा है. वह तार-तार हो चुका है…29 जनवरी 1948… अपना तार-तार मन लिए वह अपने राम की प्रार्थना-सभा में बैठा, वह सब कुछ जोड़ना-बुनना-सीना चाहता है जो टूट गया है, उधड़ गया है, फट गया है. यह प्रार्थना-सभा उसके जीवन की अंतिम प्रार्थना अौर अंतिम सभा बनने जा रही है, यह कौन जानता था ? 

अौर फिर उसकी वही थकी लेकिन मजबूत; क्षीण लेकिन स्थिर अावाज उभरी :  कहने के लिए चीजें तो काफी पड़ी हैं, मगर अाज के लिए 6 चुनी हैं. 15 मिनट में जितना कह सकूंगा, कहूंगा. देखता हूं, मुझे अाने में थोड़ी देर हो गई है, वह नहीं होनी चाहिए थी… एक अादमी थे. मैं नहीं जानता कि वे शरणार्थी थे या अन्य कोई, अौर न मैंने उनसे पूछा ही. उन्होंने कहा : ‘ तुमने बहुत खराबी कर दी है. क्या अौर करते ही जाअोगे? इससे बेहतर है कि जाअो. बड़े महात्मा हो तो क्या हुअा ! हमारा काम तो बिगड़ता ही है. तुम हमें छोड़ दो, हमें भूल जाअो, भागो !’ मैंने पूछा : ‘ कहां जाऊं?’ तो उन्होंने कहा;’ हिमालय जाअो !’ … मैंने हंसते हुए कहा:’ क्या मैं अापके कहने से चला जाऊं ? किसकी बात सुनूं ? कोई कहता है, यहीं रहो, तो कोई कहता है, जाअो ! कोई डांटता है, गाली देता है, तो कोई तारीफ करता है. तब मैं क्या करूं ? इसलिए ईश्वर जो हुक्म करता है, वही मैं करता हूं. अाप कह सकते हैं कि हम ईश्वर को नहीं मानते, तो कम-से-कम इतना तो करें कि मुझे अपने दिल के अनुसार करने दें… दुखियों का वली परमेश्वर है लेकिन दुखी खुद परमात्मा तो नहीं है… किसी के कहने से मैं खिदमतगार नहीं बना हूं. ईश्वर की इच्छा से मैं जो बना हूं, बना हूं. उसे जो करना है, करेगा… मैं समझता हूं कि मैं ईश्वर की बात मानता हूं. मैं हिमालय क्यों नहीं जाता ? वहां रहना तो मुझे पसंद पड़ेगा. ऐसी बात नहीं कि वहां मुझे खाना-पीना, अोढ़ना नहीं मिलेगा. वहां जा कर शांति मिलेगी. लेकिन मैं अशांति में से शांति चाहता हूं. नहीं तो उसी अशांति में मर जाना चाहता हूं. मेरा हिमालय यहीं है. 

अगले दिन हमने उनकी हत्या कर दी ! हमने अपने गांधी से छुटकारा पा लिया. उसके बाद शुरू हुई अाजाद भारत की एक ऐसी यात्रा जिसमें कदम-कदम पर उनकी हत्या की जाती रही. यह उन लोगों ने किया जो गांधी के दाएं-बाएं हुअा करते थे. कम नहीं था उनका मान-स्नेह गांधी के प्रति अौर न कम था उनका राष्ट्र-प्रेम ! लेकिन गांधी का रास्ता इतना नया था, अौर शायद इतना जोखिम भरा था कि उसे समझने अौर उस पर चलने का साहस अौर समझ कम पड़ती गई, लगातार छीजती गई अौर फिर एकदम से चूक ही गई! इसलिए विकेंद्रीकरण के धागे कातते गांधी के देश में केंद्रित पंचवर्षीय योजनाअों का सिलसिला शुरू हुअा. गांधी ग्रामाधारित विकेंद्रित योजना, स्थानीय साधन व देशी मेधा की शक्ति एकत्रित करने की वकालत करते हुए सिधारे थे. सरकार ने उसकी तरफ पीठ कर दी. गांधी ने कहा था कि सरकार क्या करती है, इससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह कैसे रहती है अौर किसका काम करती है. इसलिए गांधी ने सलाह दी कि वाइसरॉय भवन को सार्वजनिक अस्पताल में बदल देना चाहिए अौर देश के राष्ट्रपति को मय उनकी सरकार के छोटे घरों में रहने चले जाना चाहिए. सारा मंत्रिमंडल एक साथ होस्टलनुमा व्यवस्था में रहे ताकि सरकारी खर्च कम हो अौर मंत्रियों की अापसी मुलाकात रोज-रोज होती रहे, वे अापस में सलाह-मश्विरा करते रह सकें. लेकिन हमने किया तो इतना ही किया कि नामों की तख्ती बदल दी : वाइसरॉय भवन का नाम बदल कर राष्ट्रपति भवन कर दिया, प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री सेवक कहलाने लगे अौर सभी सार्वजनिक सुविधा का ख्याल कर, बड़े-बड़े बंगलों में रहने चले गये. सरकार ने कहा : देश की छवि का सवाल है ! उस दिन से सरकारी खर्च जो बेलगाम हुअा सो अाज तक बेलगाम दौड़ा ही जा रहा है. 

विनोबा ने गांधी की याद दिलाई कि उद्धार में उधार रखने की बात न करे सरकार, लेकिन सरकार ने ‘चाहिएवाद’ का रास्ता पकड़ा. जिसे करना था अौर कर के दिखाना था, वह चाहने लगा; जिसे चाहना था वह गूंगा हो गया. अौर फिर एक-दूसरे पर जवाबदेही फेंकने का ऐसा फुटबॉल शुरू हुअा कि असली खेल धरा ही रह गया. सामाजिक समता अौर अार्थिक समानता की गांधी की कसौटी थी- समाज का अंतिम अादमी ! उन्होंने सिखाया था : जो अंतिम है वही हमारी प्राथमिकताअों में प्रथम होगा. हमने रास्ता उल्टा पकड़ा : संपन्नता ऊपर बढ़ेगी तो नीचे तक रिसती-रिसती पहुंचेगी ही - थ्योरी अॉफ परकोलेशन ! बस, ऊपर संपन्नता का अथाह सागर लहराने लगा अौर व्यवस्था ने उसके नीचे रिसने के सारे रास्ते बंद कर दिए. गांधी का अंतिम अादमी न तो योजना के केंद्र में रहा अौर न योजना की कसौटी बन सका. गरीबी की रेखाएं भी अमीर लोग ही तै करने लगे. गांधी ने कहा कि शिक्षा सबके लिए हो, समान हो अौर उत्पादक हो. हमने किया यह कि सभी को अपनी अार्थिक हैसियत के मुताबिक शिक्षा खरीदने के लिए अाजाद कर दिया अौर सबसे अच्छी शिक्षा उसे माना जो सामाजिक जरूरतों से सबसे अधिक कटी हुई थी. भारतीय समाज का सबसे बड़ा अौर सबसे समर्थ वर्ग उसी दिन से दूसरों के कंधों पर बैठ कर, पूर्ण गैर-जिम्मेवारी से जीने का अादी बन गया. अाज हाल यह है कि हमारी शिक्षा करोड़ों-करोड़ युवाअों को न वैभव दे पा रही है, न भैरव ! दुनिया का सबसे युवा देश ही दुनिया का सबसे बूढ़ा देश भी बन गया है. 

गांधी के विद्रूप का यह सिलसिला अंतहीन चला. वह सब कुछ अाधुनिक अौर वैज्ञानिक हो गया जो गांधी से दूर व गांधी के विरुद्ध जाता था. 2 अक्तूबर अौर 30 जनवरी से अागे या अधिक का गांधी किसी को नहीं चाहिए था. यह मोहावस्था जब तक टूटी, बहुत पानी बह चुका था. 

अौर अाज ? अाज तो हमने गांधी की अांखें भी छोड़ दी हैं. रह गया है उनका चश्मा भर कागज पर धरा हुअा. गंदे मन से लगाया स्वच्छता का नारा सफाई नहीं, सामाजिक गंदगी फैला रहा है. अब नारा ‘मेड इन इंडिया’ का नहीं, ‘मेक इन इंडिया’ का है; अब बात ‘स्टैंडअप इंडिया’ की नहीं, ‘स्टार्टअप इंडिया’ की होती है. अब अादमी को नहीं, ‘एप’ को तैयार करने में सारी प्रतिभा लगी है. ‘नया गांव’ बनाने की बात अब कोई नहीं करता, सारी ताकतें मिल कर गांवों को खोखला बनाने में लगी हैं, क्योंकि बनाना तो ‘स्मार्ट सिटी’ है. देशी व छोटी पूंजी अब पिछड़ी बात बन गई है, विदेशी व बड़ी पूंजी की खोज में देश भटक रहा है. खेती की कमर टूटी जा रही है, उद्योगों का उत्पादन गिर रहा है, छोटे अौर मझोले कारोबारी मैदान से निकाले जा रहे हैं अौर तमाम अार्थिक अवसर, संसाधन मुट्ठी भर लोगों तक पहुंचाए जा रहे हैं.  देश की 73% पूंजी मात्र 1% लोगों के हाथों में सिमट अाई है. सामाजिक समरसता नहीं, सामाजिक वर्चस्व अाज की भाषा है. अब चौक-चौराहों पर कम, राजनीतिक हलकों में ज्यादा असभ्यता-अश्वलीलता-अशालीनता दिखाई देती है. लोकतंत्र के चारो खंभों का हाल यह है कि वे एक-दूसरे को संभालने की जगह, एक-दूसरे से गिर रहे हैं; टकराते-टूटते नजर अा रहे हैं. सारा देश जैसे सन्निपात में पड़ा है. 

ऐसे में गांधी को कहां खोजें अौर क्यों खोजें ? 

खोजें इसलिए कि इस महान देश को अपनी किस्मत भी बनानी है अौर अपना वर्तमान भी संवारना है. अाज गांधी भूत-भविष्य अौर वर्तमान के मिलन की मंगल-रेखा का नाम है. अौर गांधी को हम सब खोजें अपने भीतर ! जो भीतर से अाएगा वही गांधी सच्चा भी होगा अौर काम का भी होगा. दिल्ली ने गांधी का बलिदान देखा है, हम निश्चय करेंगे तो यही दिल्ली उनका निर्माण भी देखेगी. ( 17.09.2019)

महात्मा गांधी का कश्मीर

        अाजादी दरवाजे पर खड़ी थी लेकिन दरवाजा अभी बंद था. जवाहरलाल अौर सरदार पटेल रियासतों के एकीकरण की योजना बनाने में जुटे थे. रियासतें किस्म-किस्म की चालों अौर शर्तों के साथ भारत में विलय की बातें कर रही थीं. जितनी रियासतें, उतनी चालें ! अौर एक अौर चाल थी जो साम्राज्यवादी ताकतें चल रही थीं. इसकी बागडोर इंग्लैंड के हाथ से निकल कर अब अमरीका की तरफ जा रही थी. इन ताकतों का सारा ध्यान इस पर था कि भागते भूत की लंगोटी का वह कौन-सा सिरा अपने हाथ में रहे िक जिससे एशिया की राजनीति में अपनी दखलंदाजी बनाए रखने अौर अाजाद होने जा रहे भारत पर नजर रखने में सहूलियत हो. पाकिस्तान तो बन ही रहा था, कश्मीर भी इस रणनीति के लिए मुफीद था. 1881 से लगातार साम्राज्यवाद इसके जाल बुन रहा था. अब इसके दस्तावेज मिलने लगे हैं. 

कश्मीर इसलिए महत्वपूर्ण हो गया था. वहां के नौजवान नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला राजशाही के खिलाफ लड़ रहे थे अौर कांग्रेस के साथ थे. वे जवाहरलाल के निकट थे. स्थानीय अांदोलन की वजह से महाराजा हरि सिंह ने उन्हें जेल में डाल दिया तो नाराज जवाहरलाल उसका प्रतिकार करने कश्मीर पहुंचे थे. राजा ने उन्हें भी उनके ही गेस्टहाउस में नजरबंद कर दिया था. तो महाराजा के लिए जवाहरलाल भड़काऊ लाल झंडा बन गये थे. अब, जब विभाजन भी अौर अाजादी भी अान पड़ी थी तो वहां कौन जाए कि जो मरहम का भी काम करे अौर विवेक भी जगाए ? माउंटबेटन साहब ने प्रस्ताव रखा: क्या हम बापूजी से वहां जाने का अनुरोध कर सकते हैं ?
    
महात्मा गांधी कश्मीर कभी नहीं जा सके थे. जब-जब योजना बनी, किसी-न-किसी कारण अंटक गई. जिन्ना साहब भी एक बार ही कश्मीर गये थे जब टमाटर अौर अंडों से उनका स्वागत हुअा था. गुस्सा यूं था कि यह जमींदारों व रियासत का पिट्ठू है ! 
        प्रस्ताव माउंटबेटन का था, जवाब गांधी से अाना था. अब उम्र 77 साल थी. सफर मुश्किल था लेकिन देश का सवाल था तो गांधी के लिए मुश्किल कैसी !! वे यह भी जानते थे कि अाजाद भारत का भौगोलिक नक्शा मजबूत नहीं बना तो रियासतें अागे नासूर बन जाएंगी. वे जाने को तैयार हो गये. किसी ने कहा: इतनी मुश्किल यात्रा क्या जरूरी है ? अाप महाराजा को पत्र लिख सकते हैं ! कहने वाले की अांखों में देखते हुए वे बोले:  हां, फिर तो मुझे नोअाखली जाने की भी क्या जरूरत थी ! वहां भी पत्र भेज सकता था. लेकिन भाई उससे काम नहीं बनता है.  

  अाजादी से मात्र 14 दिन पहले, रावलपिंडी के दुर्गम रास्ते से महात्मा गांधी पहली अौर अाखिरी बार कश्मीर पहुंचे. जाने से पहले, 29 जुलाई 1947 की प्रार्थना-सभा में उन्होंने खुद ही बताया कि वे कश्मीर जा रहे हैं :  मैं यह समझाने नहीं जा रहा हूं कि कश्मीर को भारत में रहना चाहिए. वह फैसला तो मैं या महाराजा नहीं, कश्मीर के लोग करेंगे. कश्मीर में महाराजा भी हैं, रैयत भी है. लेकिन राजा कल मर जाएगा तो भी प्रजा तो रहेगी. वह अपने कश्मीर का फैसला करेगी. 

1 अगस्त1947 को महात्मा गांधी कश्मीर पहुंचे. तब के वर्षों में घाटी में लोगों का वैसा जमावड़ा देखा नहीं गया था जैसा उस रोज जमा हुअा था. झेलम नदी के पुल पर तिल धरने की जगह नहीं थी. गांधी की गाड़ी पुल से हो कर श्रीनगर में प्रवेश कर ही नहीं सकती थी. उन्हें गाड़ी से निकाल कर नाव में बिठाया गया अौर नदी के रास्ते शहर में लाया गया. दूर-दूर से अाए कश्मीरी लोग यहां-वहां से उनकी झलक देख कर तृप्त हो रहे थे:  बस, पीर के दर्शन हो गये !

शेख अब्दुल्ला तब जेल में थे. बापू का एक स्वागत महाराजा ने अपने महल में अायोजित किया था तो नागरिक स्वागत का दूसरा अायोजन बेगम अकबरजहां अब्दुल्ला ने किया था. महाराजा हरि सिंह, महारानी तारा देवी तथा राजकुमार कर्ण सिंह ने महल से बाहर अा कर उनकी अगवानी की थी. उनकी खानगी बातचीत का कोई खास पता तो नहीं है लेकिन बापू ने बेगम अकबरजहां के स्वागत समारोह में खुल कर बात कही : इस रियासत की असली राजा तो यहां की प्रजा है. वह पाकिस्तान जाने का फैसला करे तो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती है. लेकिन जनता की राय भी कैसे लेंगे अाप ? उसकी राय लेने के लिए वातावरण तो बनाना होगा न ! वह अाराम से व अाजादी से अपनी राय दे सके, ऐसा कश्मीर बनाना होगा. उस पर हमला कर, उसके गांव-घर जला कर अाप उसकी राय तो ले नहीं सकते हैं. प्रजा कहे कि भले हम मुसलमान हैं लेकिन रहना चाहते हैं भारत में तो भी कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती है. अगर पाकिस्तानी यहां घुसते हैं तो पाक की हुकूमत को उनको रोकना चाहिए. नहीं रोकती है तो उस पर इल्जाम तो अाएगा ही ! 

बापू ने फिर भारत की स्थिति साफ की : कांग्रेस हमेशा ही राजतंत्र के खिलाफ रही है - वह इंग्लैंड का हो कि यहां का. शेख अब्दुल्ला लोकशाही की बात करते हैं, उसकी लड़ाई लड़ते हैं. हम उनके साथ हैं. उन्हें जेल से छोड़ना चाहिए अौर उनसे बात कर अागे का रास्ता निकालना चाहिए. कश्मीर के बारे में फैसला तो यहां के लोग करेंगे. फिर गांधीजी यह भी साफ करते हैं कि यहां के लोग से उनका मतलब क्या है - यहां के लोगों से मेरा मतलब है यहां के मुसलमान, यहां के हिंदू, कश्मीरी पंडित, डोगरा लोग तथा यहां के सिख ! 

यह कश्मीर के बारे में भारत की पहली घोषित अाधिकारिक भूमिका थी. गांधीजी सरकार के प्रवक्ता नहीं थे, क्योंकि स्वतंत्र भारत की सरकार अभी तो अौपचारिक रूप से बनी नहीं थी. लेकिन वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों के जनक व स्वतंत्र भारत की भूमिका के सबसे अाधिकारिक प्रवक्ता थे, इससे कोई इंकार कर ही कैसे सकता था. गांधीजी के इस दौरे ने कश्मीर को विश्वास की ऐसी डोर से बांध दिया कि जिसका नतीजा शेख अब्दुल्ला की रिहाई में, भारत के साथ रहने की उनकी घोषणा में, कश्मीरी मुसलमानों में घूम-घूम कर उन्हें पाकिस्तान से विलग करने के अभियान में दिखाई दिया. जवाहरलाल-सरदार पटेल-शेख अब्दुल्ला की त्रिमूर्ति को गांधीजी का अाधार मिला अौर अागे कि वह कहानी लिखी गई जिसे रगड़-पोंछ कर मिटाने में अाज सरकार लगी है. जिन्होंने बनाने में कुछ नहीं किया, वे मिटाने के उत्तराधिकार की घोषणा कर रहे हैं. 

अौर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जब फौजी ताकत के बल पर पाकिस्तान ने कश्मीर हड़पना चाहा था अौर भारत सरकार ने उसका फौजी सामना किया था तब महात्मा गांधी ने उस फौजी अभियान का समर्थन किया था. ( 19.09.2019 )      

Tuesday 17 September 2019

बिखरते देश का भटकता प्रधानमंत्री

             पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी अब इस नतीजे पर पहुंच गये हैं कि परंपरागत युद्ध में भारत से जीतना पाकिस्तान के बस का नहीं है. फिर वे कौन-सा युद्ध भारत से जीत सकते हैं ? वे परमाणु युद्ध की तरफ इशारा करते हैं. उन्हें मालूम नहीं है शायद कि बाउंसर फेंकने अौर बम फेंकने में फर्क होता है. क्रिकेट के मैदान में बाउंसर फेंकने के लिए बॉलर जितना अाजाद होता है, दुनिया का कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बम फेंकने के लिए उतना भी अाजाद नहीं है. बमों का बड़ा-से-बड़ा जखीरा जमा करने की होड़ में पड़ी दुनिया में हिरोशिमा-नागासाकी के बाद कभी, कहीं परमाणु बम नहीं गिराया गया है, तो इसका कारण यह नहीं है कि दुनिया के सारे राष्ट्राध्यक्ष बुद्ध अौर गांधी के अनुयायी हो गये हैं.  हिरोशिमा-नागासाकी पर हुअा परमाणु बम का प्रयोग अब तक का पहला व अाखिरी उदाहरण है, तो इसलिए कि दुनिया दिनोदिन कहीं ज्यादा जटिल व खतरनाक होती गई है. 

कश्मीर में भारत सरकार ने जैसी मूढ़ता की है वैसी ही किसी बड़ी मूढ़ता से इमरान उसका जवाब देना चाहते हैं जबकि वे जानते हैं कि उनके अपने घर में अाग लगी हुई है. लेकिन वे पाकिस्तान के निरीह, पामाल अौर असहाय लोगों को उन्मादित करने में लगे हैं ताकि सारी दुनिया के मुसलमान कश्मीर का बदला लेने के लिए भारत पर टूट पड़ें. लेकिन लगता नहीं है कि कोई भी मुल्क, इस्लामी या गैर-इस्लामी, अाज पाकिस्तान के साथ खुद को जोड़ना चाहता है.
         कभी परमाणु बम अमरीका अौर सोवियत संघ के एकाधिकार में था. हमें समझाया गया था कि चूंकि दोनों के पास परमाणु बम हैं, इसलिए दोनों शक्ति-ध्रुवों के बीच शांति बनी रहने की गारंटी भी है. कहा जाता रहा कि युद्ध से बचने का या युद्ध टालने का एक रास्ता विनाश का भय पैदा करना भी है. भारतीय संस्कृति के तथाकथित ज्ञाताअों ने रामायण को अपने समर्थन में ला खड़ा किया था - तुलसीदास ने कहा है न : भय बिनु होहिं ना प्रीति ! 

फिर वह बम दो मुल्कों की मुट्ठी से निकल कर पांच की मुट्ठी में पहुंच गया. ये सभी अपने वक्त के सबसे जंगखोर मुल्क थे; अौपनिवेशिक शोषण का खून जिनके मुंह लगा था. इस बार फिर हमें समझाया गया: चोरों को दरबान की नौकरी पर रख लेना चोरी से छुटकारा पाने का एक गारंटीशुदा उपाय है. हमने यह सीख भी पचा ली. फिर पांचों ने यह साजिश रची कि दुनिया में दूसरा कोई मुल्क बम न बना सके, तो बाकायदा एक संधि-पत्र बना- अाण्विक विस्तार निरोधक संधि - अौर दुनिया से कहा गया कि सभी इस पर दस्तखत करें. दस्तखत करने वालों को लाभ का लालच अौर न करने वालों को प्रत्यक्ष या प्रछन्न धमकी भी दी गई. हमने इस संधि-पत्र पर दस्तखत नहीं किया. हमने कहा कि शांति के पैरोकारों में हमारा नाम सबसे ऊपर है अौर हमें उसका गर्व भी है. हम बम बनाने भी नहीं जा रहे हैं लेकिन निर्णय करने की अपनी स्वतंत्रता हम किसी दूसरे के पास बंधक रखने को तैयार नहीं हैं. निर्णय की इस अाजादी की इस टेक का हमने भी समर्थन किया हालांकि हमें अाशंका थी कि इस नैतिक टेक के पीछे कोई बेईमानी भी छिपी हो सकती है. वही हुअा. अटलबिहारी वाजपेयी के हिंदुस्तान ने भी अौर नवाज शरीफ के पाकिस्तान ने भी, नहले पर दहला मारते हुए बम फोड़ दिया. 

  तब प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने हमें समझाया कि यह काम तो इंदिरा गांधी भी करना चाहती थीं, नरसिंह राव भी इसी कोशिश में थे. लेकिन अमरीकी दवाब के कारण वे पीछे हट जाते थे. अटलजी बोले : मैंने अटल रह कर वह कर दिया ! अौर फिर उन्होंने यह भी कहा कि  हम परमाणु ऊर्जा का शांतिमय इस्तेमाल करेंगे, कि पहला अाणविक अाक्रमण हम कभी नहीं करेंगे. ऐसी कोई संधि भी पाकिस्तान के साथ हुई शायद. इसके बाद जब भी हमारे दो मुल्कों के बीच तनातनी बनी, कभी इधर से तो कभी उधर से याद दिलाया जाता रहा कि हम दोनों के हाथ में परमाणु बम है, यह भूलने जैसी बात नहीं है. बम का डर मन की शांति भले न रच सके, लाचारी की शांति तो बना ही सकता है, ऐसा लगा. पाकिस्तान की तमाम मूर्खताअों व कुटिलताअों, संसद पर अाक्रमण, मुंबई पर हमला जैसी उत्तेजनात्मक काररवाई के बावजूद हमने बम का धमाका तो नहीं ही किया, बम की धमकी भी नहीं दी. 

उत्तेजना के पल में ऐसी धीरता कायरता या अनिर्णय का नहीं, दायित्व-बोध से पैदा विवेक का परिचय देती है. क्यूबा के संकट के वक्त, अक्तूबर 1962 में, जब सारी मानवता का विनाश बस दो पल की दूरी पर खड़ा था अौर अमरीकी सैन्य सलाहकार अमरीकी राष्ट्रपति केनेडी पर दवाब डाल रहा था कि यही सबसे मुफीद पल है कि हम क्यूबा की रूसी मिसाइलों पर हमला बोल दें, केनेडी ने बम की तरफ नहीं, फोन की तरफ कदम बढ़ाया था. उन्होंने रूसी प्रधानमंत्री ख्रुश्चेव से कहा था: सारे संसार की भावी पीढ़ी को सामने रख कर हमें पीछे हट जाना चाहिए ! अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का वह सबसे सौंदर्यवान पल था. अमरीका सागर में पीछे हटा, रूस क्यूबा से निकल गया. किसी ने शेखी नहीं बघारी कि हमारे पास बम है अौर मानवता की किस्मत मेरी मुट्ठी में बंद है.  

अाज एक प्रधानमंत्री महज एक चुनाव जीतने के जुनून में भीड़ के उन्माद को उकसाता है कि हमने बम दीवाली के लिए रखे हैं क्या ? जवाब में कोई पाकिस्तान से कहता है कि हमने भी ईद के लिए तो बम नहीं रखे हैं ! मतलब बम न हुअा, दीवाली या ईद की मिठाई हो गई कि जिसके बंटवारे का मालिकाना हक किसी दूसरे के पास है. क्या वक्ती तौर पर जिन्हें देश चलाने की जिम्मेवारी मिलती है उन्हें यह अधिकार भी मिल जाता है कि वे चाहें तो सारे देश का विनाश कर दें ? यह लोकतंत्र की गलत समझ का ही नहीं, नेतृत्व कर सकने की अापकी अक्षमता का भी प्रमाण है. जो कूटनीति में फिसड्डी साबित होते हैं, जो पड़ोसियों के बीच अकेले पड़ जाते हैं, जो भीतर से बेहद असुरक्षित व कायरता से भरे होते हैं वे ही बम के विनाश की धमकी को खिलौना बनाने की भद्दी कोशिश करते हैं. इमरान अाज ऐसा ही कर रहे हैं. हमारी तरफ से भी जवाब उतना ही कुरूप है.  

लेकिन यह भी हुअा है कि यह सच्चाई विश्व-मान्य हो गई है कि कश्मीर हमारा अांतरिक मामला है. अब तक हम कहते थे, अब सभी मान रहे हैं. अब जो गांठ है वह भारत, भारत सरकार, कश्मीर अौर कश्मीर सरकार के बीच है. अब तक का इतिहास बताता है कि हम अपने अांतरिक मामलों को हल करने में बेहद नाकारा व गैर-ईमानदार साबित हुए हैं. अागे भी ऐसा ही रहा तो कश्मीर हमारे लिए बहुत टेढ़ी खीर साबित होगा. लेकिन पाकिस्तान के इमरान खानों को अब हिंदुस्तान की तरफ नहीं, अपने पाकिस्तान की तरफ देखना चाहिए. उनका पूरा मुल्क दर्द की अकथनीय कहानी बन गया है. ऐसे में दुनिया भर के मुसलमानों को कश्मीर के संदर्भ में एकजुट होने का अाह्वान करना पाकिस्तान की हत्या करने के बराबर है. यहां-वहां के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का सवाल इमरान जिस तरह उठा व उठवा रहे हैं, उससे पाकिस्तान का माखौल भी बन रहा है अौर अाम पाकिस्तानी का मनोबल भी टूट रहा है. फौज के चंगुल में फंसी अपनी गर्दन की फिक्र करें इमरान यह तो समझ में अाता है लेकिन पाकिस्तानी जम्हूरियत को मजबूत करना छोड़ कर, इमरान फौज की सांठगांठ से अपनी कुर्सी मजबूत करने में लग जाएं, तो वे वही खेल खेल रहे हैं जो उनसे पहले के कई हुक्मरानों ने खेला है अौर फौज के हाथों तमाम हुए हैं. ऐसा कर के इमरान न संसार का समर्थन पा सकेंगे, न सहानुभूति ! अमरीकी डॉलर के बल पर खड़ा पाकिस्तान अब भले चीनी यूअान के बल पर खड़ा होने की करामात करे, इससे पाकिस्तान तो कभी खड़ा नहीं हो सकेगा. पाकिस्तान भारत से सीधे युद्ध में दो-दो बार हार चुका है, वह दो टुकड़ों में टूट भी चुका है. उसका राजनीतिक, सामाजिक, अार्थिक जीवन तहस-नहस हो चुका है. ऐसा पड़ोसी हमारे लिए भी पुरअमन नहीं है. यह बात कम ही रेखांकित की गई है कि पाकिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व चाहे जितना कायर व भ्रष्ट रहा हो, अवाम हम मौके पर बाहर अा कर जम्हूरियत की ताकतों को मजबूती देती रही है. उसके इस जज्बे को सलाम कर, इमरान इसे मजबूत बनाएं; पक्ष-विपक्ष भूल कर सारे पाकिस्तान में खुले संवाद का माहौल बनाएं. इससे ही उन्हें भी ताकत मिलेगी. इस कोशिश में उनकी गद्दी जाती हो तो वे ज्यादा ताकत से वापसी कर सकेंगे. पाकिस्तान की अार्थिक ताकत इसके पारंपरिक उद्योग-धंधों में छिपी है. उसे सहारे व प्रोत्साहन की सख्त जरूरत है.  

एक बिखरते देश का भटकता प्रधानमंत्री इतना कर सकेगा ? ( 16.09.2019)