Thursday 30 August 2018

क्या यह देश डरा कर रखा जा सकता है


२८ अगस्त की सुबह मुंबई, ठाणे, हैदराबाद, रांची, दिल्ली अौर फरीदाबाद में एक साथ दबिश पड़ी। लगा कि नीरव मोदी या माल्या की गर्दन पकड़ने की दबिश है। लेकिन ऐसा नहीं था। दबिश में ऐसे ५ लोगों को गिरफ्तार किया गया जिन्हें इस २६ जनवरी को देश का नागरिक सम्मान दिया जाता तो ज्यादा मुफीद होता। सर्वोच्च न्यायालय में इन गिरफ्तारियों के खिलाफ दायर जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायाधीश की खंडपीठ ने कई ऐसी टिप्पणियां कीं कि जिसके बाद सरकार को इन गिरफ्तारियों को निरस्त कर देना चाहिए था अौर अदालत द्वारा मुकरर्र ६ सितंबर की सुनवाई में अपने सारे प्रमाणों के साथ अदालत को भी अौर देश को भी दो टूक जवाब देना चाहिए था। ऐसा होता तो सरकार का चेहरा साफ होता अौर उन सबको कठघरे में खड़ा होना पड़ता जो नागरिक अधिकार व पिछड़े वर्गों की अाड़ में हिंसा का घटाटोप रचने के अारोपी हैं। लेकिन सरकारें इतनी सयानी नहीं होती हैं, वे चाबुक को अक्ल की जगह इस्तेमाल करती हैं। इसलिए हमें भी अौर हम सबको भी ६ सितंबर का धैर्य से इंतजार करना चाहिए।
हम यह न भूलें कि २०१४ से भारतीय समाज का एक नया ही ध्रुवीकरण किया जा रहा है। यह वह ध्रुवीकरण नहीं है जो राजनीतिक सत्ता पाने के लिए किया जाता रहा है। हम न इसकी कोई मर्यादा बना सके अौर न इसकी कोई कानूनी काट खोज सके। सत्ता सदा ही स्वार्थी होती है लेकिन अपने वक्ती स्वार्थ से अागे जाने का खतरा वह नहीं लेती है। अाज खेल दूसरा खेला जा रहा है जिसमें सत्ता एक पक्ष के साथ जुड़ गई है। अब लोकतंत्र का चरित्र ही बदल देने की तैयारी चल रही है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह सख्त टिप्पणी की कि असहमति को कुचलने का सरकार का यह रवैया बड़े खतरे का संकेत देता है।उन्होंने प्रश्न खड़ा किया कि लोकतंत्र का प्रेशरकूकर फट पड़े, सरकार ऐसी योजना बना रही है ? गिरफ्तार पांचों व्यक्ति अाज के नहीं, वर्षों के अाजमाये हुए सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिन्होंने हमेशा उन लोगों की अावाज उठायी है जिनकी अावाज उठाना हमेशा अपराध-सा मान लिया जाता है। अावाज लोकतंत्र का अविभाज्य अंग है। अगर वह अपराध है तो सारा लोकतंत्र धोखे की टट्टी में बदल जाएगा। इसलिए हम बहुत सहमत हों या न हों, असहमति की अावाज को कहीं भी दबाया जाए तो देश की सामूहिक चेतना को अावाज उठानी चाहिए। हमें अाभारी होना चाहिए कि 28 की सुबह की गिरफ्तारी के खिलाफ सारे देश में अावाज उठी अौर अदालत ने देश मेें सांस लेने का माहौल बनाया। 

लेकिन बात इससे अागे जाती है। राज्यसत्ता को संविधानसम्मत हिंसा का लाइसेंस हमने ही दे रखा है। इस सांप के पास विष है, यह हम जानते हैं लेकिन हमें यह भी जानना चाहिए कि  संविधान ने इस विष का मुकाबला करने के दो हथियार भी हमें दिये हैं। पहला यह कि समाज अपने कार्यकलापों में हिंसा का सहारा न ले तो सरकारी हिंसा निरुपाय हो जाती है। यही वह रणनीति है जिसके सहारे महात्मा गांधी ने संसार के सबसे बड़े साम्राज्य को अप्रभावी बना दिया था। सामाजिक कार्यकर्ता यदि हिंसा की रणनीति नहीं बनाते हैं, सामाजिक हिंसा को उकसाते नहीं हैं तो वे राज्य की हिंसा को अप्रभावी ही नहीं बनाते हैं बल्कि राज्य को अनुशासित करने वाली दूसरी संवैधानिक ताकत न्यायपालिका को भी समर्थ बनाते हैं। हमें यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि किसी भी स्तर पर, कैसी भी हिंसा राज्य को वैसी गर्हित हिंसा करने का अवसर देती है जिसकी ताक में वह रहती है। अाप सामाजिक हिंसा की रणनीति बनाएंगे तो राज्य की सौ गुना बलशाली अमर्यादित हिंसा से नागरिकों को बचा नहीं सकेंगे। अभी निशाने पर अाए हमारे इन पांच सामाजिक कार्यकर्ताअों ने इस पहलू पर पर्याप्त सफाई नहीं रखी है अौर इनके समर्थन में सामने अाए हम लोगों ने भी इस कमजोरी को रेखांकित नहीं किया है। हमें अदालत का अाभारी होना चाहिए कि उसने हमें फिर यह मौका दिया है कि हम अपनी भूमिका साफ करें।

अाज केंद्र की अौर राज्य की सरकारों को भी कई जवाब देने हैं। इन गिरफ्तारियों से पहले सनातन संस्था का बड़ा मामला फूटा था अौर कई वे चेहरे सामने अाए थे जो हिंसा के षड्यंत्रकारी सिपाही रहे हैं। स्वामी असीमानंद का चेहरा भी उरभरा था। वह सारा मामला किसी की नींद हराम नहीं कर सका। अाज कहीं से यह बात चलाई गई है कि देश में यहां-वहां प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश हो रही है। जब प्रधानमंत्री गुजरात के मुख्यमंत्री हुअा करते थे तब भी ऐसा ही अालम रचा जाता था। प्रधानमंत्री की रक्षा में कोई चूक न हो इससे कौन इंकार करेगा लेकिन देश के बौद्धिक जगत के कई लोगों की हत्या के प्रति सरकारें उदासीन रहें अौर कई मजबूत प्रमाणों के बावजूद कोई प्रभावी काररवाई न हो, इसे कौन स्वीकार करेगा ? सनातन संस्था को भारतीय जनता पार्टी की महाराष्ट्र सरकार की एजेंसी ने बेनकाब किया है। उसके पास से ऐसी सूची बरामद हुई है कि जिसमें जिनकी हत्या करनी है, उनके नाम दर्ज हैं। गौरी लंकेश की हत्या के मामले में अब तक जितनी गिरफ्तारियां हुई हैं वे बता रही हैं कि ऐसी सारी हत्याअों के पीछे एक ही संगठन, एक ही दिमाग, एक ही समर्थक ताकत अौर एक ही थैली का इस्तेमाल हुअा है। इसे अाप पर्दे में रखें अौर अावाज उठाने वालों को कुचल कर, देश को डरा कर मुट्ठी में रखने की रणनीति बनाएंगे तो देश भी हारेगा अौर अाप भी। ( 29.08.2018)        

Saturday 25 August 2018

खुद को बनाते मिटाते रहे अटल बिहारी वाजपेयी


                  “ तीसरी बार है कि जब इसी काम से हम अापके पास अाए हैं… अौर अब नहीं अाएंगे…, मैं शायद थोड़े तैश में था. प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने तुरंत हाथ पकड़ लिया अौर हंसते हुए बोले, अरे भाई, कहते हैं नमक से रिश्ते मजबूत होते हैं, अौर अाप तोड़ने की बात कर रहे हैं, अौर फिर वह गूंजता हुअा ठहाका जो उनकी अपनी शैली थी. बात तब की है जब अायोडीन लॉबी के दवाब में सरकार ने साधारण नमक रखने-बेचने-खाने पर बंदिश लगा दिया था अौर लोगों को लाचार बना दिया था कि वे अायोडाइज्ड नमक ही खरीदें-खाएं. पक्ष-विपक्ष में ढेर सारी बातें थीं लेकिन हम कह रहे थे कि यह बंदिश गलत है. 
… लेकिन अभी तो सामने था अटलजी का ठहाका … बात हवा में उड़ा देने की यह कारीगरी जानता था मैं… लेिकन उस अात्मीय ठहाके से निकल कर अगले ही पल प्रधानमंत्री सामने अा गया. संबंधित मंत्रालय के सभी वजनी लोग मंत्री के साथ नमूदार हुए जो पहले से ही बगल के कमरे में बुला बिठाए गये थे. तो साथ फाइलें थीं, अोहदे के मुताबिक कतारें भी थीं, गला साफ करते हुए कुछ कहने का उपक्रम होता कि प्रधानमंत्री ने अांख के इशारों से कुछ भी कहने-पढ़ने-बताने नहीं दिया. सीधा बोले : हमें क्या अधिकार है कि हम लोगों का नमक छीन लें — उनकी अावाज अौर मुद्रा दोनों बता रहे थे कि वे सवाल नहीं खड़े कर रहे थे, निर्देश दे रहे थे — बाजार में सभी तरह का नमक उपलब्ध होना चाहिए. लोग अपनी पसंद का नमक खरीदें, खाएं इसमें रुकावट कैसी… डॉक्टर कहते हैं कि अायोडीन दवा है तो अच्छी बात है कि जिन्हें उस दवा की जरूरत होगी वे अायोडीन मिला नमक खरीद लेंगे… बंदिश की बात इसमें अाती कहां है… सरकार किसी अायोडीन लॉबी के दवाब में चलेगी क्या… ये बता रहे हैं कि टीवी पर अायोडीन नमक का ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि जिससे लोग डर जाएं… ये तो बहुत ही गलत बात है… वह विज्ञापन तुरंत बंद होना चाहिए… फिर दो-एक बातें उन्होंने हमारे बारे में अधिकारियों को बताईं … अौर बात बंद हो गई. चाय-केक-बिस्किट के साथ हमारी मुलाकात पूरी  हो गई… अटलजी अगली मुलाकात के लिए निकल गये … मैं थोड़ा असमंजस में था कि अाखिरी फैसला क्या हुअा … कि जाते हुए प्रधानमंत्री पलटे, अौर करीब अा कर बोले, अापके साथ लौटने का वाहन है या नहीं ?… मैंने हामी भरी तो अाश्वस्त स्वर में बोले, सरकार है भाई ! इसका काम ऐसे ही होता है. लेकिन रिश्ता नहीं टूटने दूंगा .. अौर वे चले गये. 

साधारण नमक पर लगी बंदिश सरकार ने उठा ली, सभी तरह का नमक बाजार में वापस अा गया… अाज बुझे मन से मैं महसूस कर रहा हूं कि अटलजी अब वापस नहीं अाने वाले हैं… जगजीत सिंह की रेशमी अावाज की सलवटों में लिपटी वह गजल याद अा रही है : जा कर जहां से कोई वापस नहीं है अाता / वो कौन सी जगह है अल्लाह जानता है…
मेरा-उनका परिचय ही तब हुअा जब ७० के दशक की शुरुअात में देश की स्थिति से चिंतित जयप्रकाश ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपनी अाशंकाएं साझा कीं अौर इंदिरा जी ने उनसे सहमति जताते हुए कहा था कि विपक्ष सहकार करे तो मैं कई बातों में अापकी तरह ही सोचती हूं, अौर वैसा ही करना भी चाहती हूं. जयप्रकाश ने कहा कि यदि तुम ईमानदारी से बरतोगी तो मैं विपक्ष से सहकार का वातावरण बनाने की पहल कर सकता हूं. इंदिराजी ने उत्साहित हो कर अपनी सम्मति दी थी अौर जयप्रकाश ने उनके एवज में विपक्ष से चर्चा शुरू की थी. तब जनसंघ एक ताकत था अौर वाजपेयी उसकी अावाज थे. सो पहला अामंत्रण उनको ही मिला. राजधानी के गांधी शांति प्रतिष्ठान के अपने छोटे-से कमरे में अटलजी से बात की जयप्रकाश ने. शांति से जयप्रकाश की बातें सुनते रहे अटलजी अौर फिर बोले : इंदिराजी की बात होती तो मैं इतनी सहजता से तो नहीं लेता लेकिन जयप्रकाशजी, यह बात अापकी तरफ से अा रही है तो मैं अभी ही कहता हूं कि जनसंघ का अापको पूरा साथ व समर्थन मिलेगा. पार्टी अौर सत्ता की राजनीति से देश कहीं बड़ा है अौर अाप ऐसे गाढ़े वक्त में मुझे कमजोर नहीं पाएंगे. अौर तब से १९७७ के तूफानी दिनों तक मैंने देखा कि जयप्रकाश के साथ खड़े होने में अटलजी कभी कमजोर या कम नहीं पड़े. जयप्रकाश अांदोलन का चक्र ऐसा चला कि सभी पार्टियों में  धर्मसंकट खड़ा होता रहा- भारतीय जनसंघ में भी ! जयप्रकाश की कसौटी बड़ी कठिन पड़ती रही, कई ऐसे मामले भी अाए जब अटलजी ने बच निकलने की कोशिश की क्योंिक उन्हें पार्टी भी अौर साथी भी साथ रखने थे. लेकिन अटलजी ने जयप्रकाश का भरोसा खोया नहीं. यह संतुलन उनकी रणनीित का नहीं, उनके व्यक्तित्व के गठन का हिस्सा था. 

विपक्ष की राजनीति को अटलजी ने धार भी दी अौर संस्कार भी दिए. इसलिए वे जब तक सक्रिय रहे, लोकतांत्रिक विपक्ष की प्रतिनिधि अावाज बने रहे हालांकि वाम दलों के साथ-साथ दूसरे भी थे जो उन्हें इस भूमिका में देखना नहीं चाहते थे. जनसंघ अौर संघ परिवार में भी ऐसे लोग थे जो अटलजी से दूरी बना कर रखते थे लेकिन उन जैसा संतुलन दूसरे किसी के पास था ही नहीं. एक किस्म की चातुरी भी थी उनमें जो बहुत बारीक काटती थी. उन्हें मुखौटा कहने वाला बयान वैसे ही नहीं अाया था. वाचालता, प्रगल्भता अौर विनोद के सहारे वे खुद को राजनीतिक मुसीबतों से बचा ले जाते थे. लेकिन राजनीति केवल चातुरी तो है नहीं. इसलिए अाजादी के अांदोलन में अपनी अौर संघ परिवार की भूमिका को ले कर वे बार-बार कमजोर पड़ते थे. गांधी की उनकी समझ किसी अौसत राजनीतिज्ञ से अधिक परिष्कृत नहीं थी. बाबरी मस्जिद ध्वंस के पूरे प्रकरण में वे बेहद कमजोर साबित हुए थे अौर गुजरात दंगे की जिम्मेवारी के वहन में वे ‘नरसिंह राव’ की प्रतिमूर्ति बन कर रह गये थे. वे धारा के साथ बहते तो थे, कोई नई धारा बहाने की कूवत उनमें नहीं थी.  
      
पराजय में शालीनता अौर विजय में संयम - नेहरू-युग का यह दाय उन्होंने संभाल रखा था. उनकी १३ दिन अौर १३ महीनों की सरकारें गिरीं फिर भी हमने बिखरते-बिफरते वाजपेयीजी को नहीं देखा. फिर उन्होंने ५ साल लंबी सरकार चलाई जिसमें कुछ खास हुअा, ऐसा तो नहीं कहूंगा लेकिन भारतीय लोकतंत्र को अौर भारतीय समाज के संतुलन को चोट पहुंचाने वाली बात नहीं हुई. देश ठीक ही चला जिसे ‘शाइनिंग इंडिया’ का भोंडा नाम दे कर भाई लोगों ने अटलजी की लुटिया डुबो दी. बड़ी संभावना वाले उस चुनाव में पराजित हो कर वे प्रधानमंत्री पद से क्या हटे राजनीति से भी अलग होते गये, अौर धीरे-धीरे शरीर ने खुद को समेट लिया. पूरा अस्तित्व सन्नाटे में डूबता गया अौर फिर सन्नाटे का हिस्सा बन गया. ऐसा दूसरे किसी प्रधानमंत्री के साथ नहीं हुअा. होता भी कैसे, अटलजी जैसा दूसरा कोई प्रधानमंत्री भी कहां हुअा ! वे हमारे दौर के अाखिरी ही प्रधानमंत्री थे कि जो कई मामलों में अपनी कुर्सी से बड़े थे. वे राजनीति में थे, बड़ी लंबी पारी रही उनकी. राजनीति के दांव-पेंच भी खूब समझते थे, जरूरत पर उनका बखूबी इस्तेमाल भी करते थे लेकिन इसकी सावधान कोशिश भी करते थे कि सारा खेल दांव-पेंचों का बन कर ही न रह जाए. 

अब अापको दूसरा अटलबिहारी वाजपेयी नहीं मिल सकेगा. वह होगा ही नहीं क्योंकि जिस नेहरू-युग की वे पैदाइश थे, वह युग भी वापस नहीं अाने वाला है. गांधी ने अपने दौर में लड़ाई के सिपाही बनाए क्योंकि वे अाजादी की जंग के सेनापति थे; नेहरू ने अपने दौर में संसदीय राजनीति के कलाकार गढ़े क्योंकि वे लंबी गुलामी से छूटे देश में संसदीय लोकतंत्र की कलम रोप रहे थे. इसका अाकलन अभी उस तरह हुअा नहीं है कि जिस तरह होने की बड़ी जरूरत है कि नेहरू-युग ने, पार्टियों की चारदीवारी से निकल कर, लोकतंत्र की परंपराअों, व्यवस्थाअों, संस्थाअों अौर सांसदों को कैसे उभारा अौर संसदीय लोकतंत्र को समृद्ध किया. कांग्रेस के ही नहीं, वाजपेयी समेत विपक्ष के भी कई सांसद थे कि जिन्हें जवाहरलाल का साथ मिला. कौन किस पार्टी में है यह बात तब इतनी बड़ी नहीं बनाई जाती थी कि सब पर कालिख पोत दी जाए ! अटलबिहारी वाजपेयी की चमक जवाहरलाल से छिपी नहीं रही. विपक्ष में बैठे तरुण वाजपेयी बड़े तीखे तीर चलाया करते थे लेकिन जवाहरलाल ने किसी विदेशी मेहमान के पास ले जा कर उनका परिचय करवाया था कि यह नौजवान हमारी संसद का सितारा बनेगा.
     
देख रहा हूं कि अाज उनकी पार्टी उन्हें अपना शिल्पकार घोषित कर रही है जब कि सच्चाई यह है कि अाज की राजसत्ता के अधिकांश लोगों को अटलजी की स्वीकृति नहीं मिलती. वे राजधर्म की परंपरा में मानते थे, ये सारे सत्ताधर्म के फुटकर खिलाड़ी हैं. कल जो तिरंगा लालकिले पर लहराया गया था, अाज वही तिरंगा हर तरफ झुका हुअा है. यह शोक भी है अौर अस्वीकार भी है. गुजरात से भारतीय जनता पार्टी की जो राजनीति शुरू हुई, अटलजी उसे स्वीकार नहीं करते थे, यह सब जानते हैं. वे उसे खारिज नहीं कर सके, यह उनकी कमजोरी भी छिपी नहीं है. इसलिए ही उन्होंने किसी तरह का संवाद बंद कर दिया था. अब पटाक्षेप भी कर दिया. दर्द सहने की भी तो कोई सीमा होती है न ! ( 17.08.2018)   

अभी तो यहीं थी,जाने अब कहां है …. अाजादी !



            हमारी परंपरा में त्रिमूर्ति की बड़ी महिमा है. अाजादी की लड़ाई में भी तीन स्वर गूंजे थे : एक, जब तिलक महाराज ने कहा था : स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है अौर हम उसे लेकर रहेंगे ! स्वराज्य की ऐसी निष्कंप घोषणा अौर उसे ले कर ही रहने का ऐसा संकल्प देश की अात्मा को निहाल कर गया था. हमारी अाजाद की लड़ाई के हवन-कुंड में इसने नई समिधा डाल दी!… लेकिन गुलामी है ही वह विष जो हमारा मन तोड़ डालती है; लंबी गुलामी उसे छिन-भिन्न कर डालती है. इसलिए तिलक के बाद गांधी की दूसरी अावाज गूंजी : मेरा कार्यक्रम अौर मेरा रास्ता कबूल करोगे तो साल भर में अाजादी ला कर देता हूं ! स्फटिक की तरह निर्मल मन से बोला गया यह वचन किसी हीरे की तरह अकाट्य था. मेरा रास्ता अौर मेरा कार्यक्रम कह कर गांधी ने तिलक महाराज के अमूर्त स्वराज्य को रूप भी दे दिया अौर अात्मा भी ! किसी गहरी घाटी में पैदा हुए निनाद-सा यह कथन भारतीय समाज के मन में गूंजता रहा अौर गांधी की अाजादी का कैलेंडर बदलता गया. देर से अाती हुई इस अाजादी की प्रतीक्षा सह्य नहीं हो रही थी, सो सुभाष बाबू ने तड़प कर तीसरी पुकार लगाई : तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें अाजादी दूंगा !

तिलक महाराज संकल्प मांग रहे थे, महात्मा गांधी वचन मांग रहे थे अौर सुभाष बाबू बलिदान मांग रहे थे; अौर तीनों मिल कर एक ही चीज मांग रहे थे  : गुलाम भारत की अाजादी !! अाजादी, जो अविभाज्य होती है, असीम होती है अौर सर्वस्पर्शी होती है. सुभाष इस अाजादी की खोज में देश से बाहर निकले. जापान-जर्मनी तक गये. गांधी को छोड़ा, गांधी का रास्ता छोड़ा अौर बंदूक उठाई. फौजी बाना पहना, जंग लड़ी, किसी हद तक जंग जीती भी, अौर फिर जंग भी हारी अौर जीवन भी. गांधी विचलित हुए, देश रोया लेकिन अाजादी दूर ही रही. फिर कितने सालों के बाद वह अाजादी मिली - 15 अगस्त 1947 में ! बहुत जश्न हुअा. अाधी रात को, जब सारी दुनिया नींद में बेसुध पड़ी थी, हमने अाजादी की तरफ अांखें खोलीं. संसार को सोता छोड़ हम उठ बैठे. हमारे नेता व पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सारे देश की तरफ से नियति से एक वादा किया : अाजादी को अर्थपूर्ण बनाने का वादा !  
  
अब तिलक, गांधी अौर सुभाष तीनों ही नहीं हैं. जवाहरलाल भी नहीं हैं. अौर हम खोज रहे हैं कि वह अाजादी गई कहां जो हमें 72 साल पहले मिली थी ? वह हमें कहीं पड़ी, गिरी नहीं मिली थी. बहुत त्याग-बलिदान अौर संघर्षों के बाद हमने उसे हासिल किया था. लेकिन अाज हम खोज रहे हैं कि वह अाजादी किधर रख दी गई है कि जिसके लिए हमने संविधान बनाया, न्यायतंत्र खड़ा किया अौर संसद रची ? इतनी विधानसभाएं अौर इतने विधायक; एक चमकीली संसद अौर इतने सांसद सब अाजादी के गर्भ से ही तो पैदा हुए हैं लेकिन अाजादी गई किधर किसी को पता है क्या ? विधायक हों कि सांसद, न्यायमूर्ति हों कि नौकरशाह, हर कोई यही पूछता मिलता है कि वह अाजादी कहां गई जिसका सपना हमने देखा अौर दिखाया था ? कभी कहा करते थे गांधी-विचार मर्मज्ञ स्व. धीरेन मजूमदार कि तिलक-गोखले-गांधी की त्रिमूर्ति ने देश के असंख्य लोगों के त्याग-बलिदान की ताकत जोड़ी तब कहीं जा कर हमारी अाजादी की गाड़ी लंदन से निकल सकी अौर दिल्ली पहुंची. लेकिन दिल्ली में ही उसका इंजन फेल हो गया ! वह तबसे वहीं अंटकी पड़ी है अौर हम देश के लाखों गांवों-कस्बों-शहरों में उसकी खोज कर रहे हैं. जो वहां है ही नहीं, वह वहां मिले कैसे ? उनकी बात मार्मिक थी लेकिन मुट्ठी में अाती नहीं थी. जो मुट्ठी में नहीं अाए वह अाजादी कैसी ? लगता है मानो अाजादी भी किसी अच्छे दिन की तरह हो गई है कि जिसके अाने का शोर बहुत हुअा लेकिन जो अाए नहीं. अब तो अालम यह है कि शोर भी बंद हो गया है अौर अच्छे दिन को चुनावी जुमला करार दिया गया है.

अाजादी का संघर्ष बड़ा दुर्धर्ष होता है लेकिन इंसान उसे लड़ता अौर जीतता ही अाया है. लोगों ने राजशाही से उसे छीना; साम्राज्यवाद के जहरीले दांतों से उसे अाजाद कराया. पूंजीवाद अौर साम्यवाद की पकड़ से उसे बाहर निकाल लिया. लेकिन वह किसके हाथ अाई ? पूंजीवादी समाज में वह अभी भी पूंजी के हाथों बंधक है; तानाशाहों ने उसे फौजी लिबास पहना दी है; साम्यवादियों के यहां उसे सरकारी बैसाखी पर खड़ा किया गया लेकिन वह टूटी तो ऐसी भहराई की जैसे अाजादी न हो, भारत सरकार द्वारा निर्मित बांध हो कि जो हर साल बाढ़ का पानी रोकने के लिए बनाया जाता है अौर हर साल बाढ़ का पानी उसे तोड़ डालता है. अब दुनिया में जहां जैसा साम्यवाद बचा है उसमें अाजादी कोई मुद्दा नहीं है. एक गांधी ही थे कि जिन्होंने अाजादी पाने का संघर्ष जितना तीव्र किया उतनी ही गहराई व प्रखरता से हमें अाजादी की पहचान भी कराई. 

15 अगस्त 1947 को, जब देश अाजादी का जश्न मना रहा था, गांधी जश्न में डूबी दिल्ली से कहीं दूर कोलकाता में बैठ, सांप्रदायिकता की लपटों में घिरे अग्नि-स्नान कर रहे थे. वे बार-बार एक ही बात कह रहे थे कि समाज में सहिष्णुता नहीं हो, तो अाजादी अर्थहीन भी होगी अौर अस्थाई भी ! बीबीसी का संवाददाता पूछ रहा था कि भारत की इस चिर-प्रतीक्षित अाजादी के दिन  वे दुनिया को क्या संदेश देना चाहेंगे ? चरखा कातते-कातते वे ठिठके अौर फिर बोले : दुनिया से कह दो कि गांधी को अंग्रेजी  नहीं अाती है ! वे कह रहे थे कि अाजाद देश को अपनी भाषा अौर अपनी संस्कृति का भान भी हो अौर सम्मान भी, तभी अाजादी टिकाऊ भी होगी अौर विकासमान भी. जवाहरलाल ने कहा कि बापू, अभी हमसे जितना चर्खा चलवाना हो, चलवा लीजिए, अाजाद भारत में तो हम यह चर्खा खूंटी पर टांग कर, विकास की यांत्रिक व्यवस्था करेंगे. गांधी गंभीर हो गये- अगर तुम्हारे अाजाद हिंदुस्तान में चर्खा खूंटी पर टांगा जाएगा तो मेरी जगह तुम्हारी जेल में होगी ! वे कह रहे थे कि अाजादी तभी हाथ में अाती है अौर तभी टिकती है जब उत्पादन के साधन अाम लोगों के हाथ में अौर अधिकार में रहें. खादी-ग्रामोद्योग के रूप में वे एक ऐसा तंत्र खड़ा करना चाहते थे जो अाजादी को परिपूर्ण करे. इसलिए एक तबीज भी लिख कर दिया उन्होंने देश के भावी शासकों को : मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं. जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अाजमाअो.. जो सबसे गरीब अौर कमजोर अादमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो अौर अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस अादमी के लिए कितना उपयोगी होगा ? क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा ? क्या वह उससे अपने ही जीवन अौर भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा ? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं अौर अात्मा अतृप्त ? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है अौर अहम समाप्त होता जा रहा है. वे कहते हैं कि यह अंतिम अादमी ही तुम्हारी नीतियों का अाधार होगा, तुम्हारी कसौटी होगा अौर वही तुम्हारी सफलता का पैमाना भी होगा. 

अाजादी इसलिए मुश्किल से मिलती है अौर उससे भी मुश्किल से संभाली जा पाती है, क्योंकि वह अाखिरी अादमी से शुरू होती है अौर अाखिरी अादमी पर समाप्त होती है. यह यांत्रिक नहीं है कि अपना झंडा हो, अपनी सरकार हो, अपनी संसद अौर अपना अखबार हो; कि फौज हो कि पुलिस हो. यह सब हो लेकिन किसके लिए हो, यह कसौटी है अाजादी की. हमारी अाजादी इसलिए हमारे हाथ नहीं अाती कि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है. नौजवानों के लिए देश बेरोजगारों की फौज है; बीमारों के लिए देश ऐसा अस्पताल है जिसमें उनके लिए जगह नहीं है; किसान के लिए देश एक ऐसा खेत है जिसमें न पानी है, न बीज, न बाजार ! वह कुछ भी बोता है लेकिन उगती है सिर्फ मौत; अौर सरकार ? वह हर इंसानी जान की कीमत पैसों में अदा कर फुर्सत पा जाती है. न तिलक ने, न गांधी ने अौर न सुभाष ने ऐसी अाजादी अौर अपने नागरिकों के ऐसे हाल की कल्पना की थी. फिर भी यह अाजादी अनमोल है क्योंकि इस अाजादी को बेहतर अौर असली बनाने की अाजादी इसमें है. ( 14.08.2018 )   

७२ वसंत पार कर भी क्यों सूखा-मुरझाया है अपना देश



              हमारी अाजादी ने ७२ वसंत देख लिये हैं. ७२ साल की उम्र अादमी के थकने, रुकने, सिकुड़ने की उम्र होती है. किसी मुल्क के इतिहास में ७२ साल युवा होने की, कमर सीधा करने की अौर पंख खोल कर अासमान को थाहने की उम्र होती है. क्या लगता है अापको कि हमारा मुल्क ७२ साल जवान हुअा है कि ७२ साल बूढ़ा ? क्या अाप भीतर से महसूस करते हैं कि उत्साह में झूमता अपना देश बढ़ रहा है, धूल झाड़ता खड़ा हो रहा है अौर अासमान सर कर रहा है ? या कि सब कुछ एक अंधेरे में घिरता-डूबता जा रहा है; कि हम एक ऐसी अंधेरी सुरंग में पहुंच कर ठिठक गये हैं कि जिसके किसी सिरे से प्रकाश का कोई अाभास मिल नहीं रहा है; अौर रास्ता बदल लें हम ऐसी हिम्मत व हिकमत हमारे तथाकथित राजनेताअों में है नहीं. शायद यही सब देख-समझ कर नजीर बनारसी साहब ने लिखा : इतनी जुल्मत की नशेमन भी नजर अा न सके / काश बिजली ही गिरे कोई गुलिश्तां के करीब ! उनकी तमन्ना है कि इस अंधेरे दौर में गुलिश्तां के करीब कोई बिजली गिरे तो कि उसकी रोशनी में ही हमें अागे का थोड़ा रास्ता दीख जाए. 

कुछ लोग महात्मा गांधी से रास्ता पूछते हैं ! उनकी सारी जिंदगी हम उनसे रास्ता ही तो पूछते रहे, मानते कुछ भी नहीं रहे, यह अलग बात है. तब भी अौर अाज भी महात्मा गांधी हमारे देश के मनपसंद शगल हैं. जब वे थे तब भी; जब वे नहीं रहे तब भी अौर अाज, जब उनका काम तमाम किए हमारी वीरता के ७२ साल हो रहे हैं तब भी, शब्द या वाक्य बदल-बदल कर लोग इस बूढ़े के पास अाते हैं अौर पूछते हैं कि अाज देश में गांधी कहां हैं ? मैं कहता हूं कि मान लें हम कि गांधी कहीं नहीं हैं तो क्या मुल्क नहीं है, हम नहीं हैं ? हम क्यों न यह खोजने की कोशिश करें कि हमारी ७२ साल की अाजादी में इसके नागरिक की कोई पहचान या भूमिका बची है क्या ? अगर खोजना ही है तो हम यह खोजें कि ७२ साल के इस सफर वे सारे सपने कहां छूट गये जिन्हें गांधी ने हमारी अांखों में बुन दिए थे ?

गांधी में शिफत है कि वे बहुत कम शब्दों में अौर बड़ी सरल भाषा में अपनी बात कह देते हैं. यह सरलता उनको बहुत कठिन लगती है कि जो गांधी को जी कर नहीं, पढ़ कर समझना चाहते हैं. गांधी ने जो जिया नहीं, वह कहा नहीं; हमने जो कहा उसे कभी जिया नहीं, जीना चाहा भी नहीं. उन्होंने कहा : सबके भले में अपना भला है ! उन्होंने कहा : वकील अौर नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि अाजीविका पाने का हक दोनों को एक-सा ही है. उन्होंने कहा : मजदूर अौर किसान का सादा जीवन ही सच्चा जीवन है. अाजादी के बाद कुर्सी पर बैठने वालों से उन्होंने कहा : इस पर मजबूती से बैठो लेकिन इसे हल्के से पकड़ो - सिट अॉन इट टाइटली बट होल्ड इट लाइटली !- सत्ता की कुर्सी पर पूरे अात्मविश्वास व इरादे से बैठो लेकिन इससे चिपके मत रहो ! लेकिन हम कहां हैं ? हम अपने बच्चों को सिखाते हैं कि संसार में जो कुछ है, हमारे लिए ही है - अपनी सोचो, दूसरों की नहीं ! नई अाकांक्षा के पंख फड़फड़ाते युवा से कहते हैं : तू ही अाया है क्या महात्मा गांधी बनने ! वकील अौर नाई की कौन कहे, अार्थिक असमानता इतनी बढ़ी है कि कोई ३० दिन अपना पूरा अस्तित्व घिस कर भी इतना नहीं कमा पाता है कि परिवार के लिए दोनों शाम का खाना जुटा सके; दूसरी तरफ लोग हैं कि जो दिनों में नहीं, घंटों में कमाते हैं अौर वह कमाई भी करोड़ों में होती है. सत्ता अौर संपत्ति का ऐसा गठबंधन किसकी कल्पना में था ? कहां मजबूती से बैठो अौर हल्के से पकड़ो की सीख अौर कहां अाज का अालम कि जो जहां पहुंच गया है वहीं चिपक गया है. किसी शायर की तरह कहने का जी चाहता है कि तुझसे पहले जो यहां गद्दीनशीं था/ उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीं था. एक राष्ट्रीय दल का अध्यक्ष बार-बार ललकारता है अपने ‘भाड़े के कार्यकर्ताअों’ को कि तैयारी ऐसी करो कि हमें अगले २५ साल तक जीतते ही जाना है. मतलब यह कि लोकतंत्र दूसरा कुछ नहीं, गद्दी पाने अौर फिर उसे हमेशा-हमेशा के लिए हथियाए रहने की चातुरी या दादागिरी भर है.       
 
         महात्मा गांधी का जीवन बहुत कठिन था, क्योंकि वे जिन मूल्यों को मानते थे उनके साथ जीते थे. हमारा जीवन अौर हमारे मूल्य परस्पर जुड़ते नहीं हैं. वे जिन मूल्यों के लिए मरते थे, हम उन मूल्यों के लिए मरते नहीं हैं बल्कि उन मूल्यों को कहीं-न-कहीं मारते हैं. अौर फिर भी हम सभी उन्हें ‘महात्मा’ कहते थकते नहीं थे. प्रशंसकों-समर्थकों की बहुत बड़ी भीड़ में अपने विश्वासों के साथ अकेले खड़े रहना विराट अास्था की मांग करता है. उनकी अास्था इतनी गहरी अौर मजबूत थी कि वे अपने लिए कह सके कि मैं बीमार-जर-ज्वराग्रस्त मरूं तो अागे अा कर हिम्मत से दुनिया को बताना कि यह नकली महात्मा था. किसी हत्यारे की गोली से मारा जाऊं अौर गोली खा कर भी मेरे मुंह से रामनाम निकले तब मानना कि मुझमें कुछ महात्मनापना था. वे अपनी कसौटी पर जी कर अौर मर कर गये. लेकिन वे जिसके लिए जिये अौर मरे वह अादमी - अंतिम अादमी - कहां रहता है; क्या खाता-पीता-अोढ़ता-बिछाता है, किसे पता है ? नीति  अायोग को पता है कि जिसे यह भी पता नहीं है कि साल भर में देश में कितना रोजगार पैदा हुअा ? राज्य सरकारों को पता है कि जिन्हें यह भी पता नहीं है कि उनके नारी संरक्षण गृहों में क्या हो रहा है ?  

यह व्यवस्था ही बताती है कि पिछले १० सालों में ३ करोड़ से ज्यादा किसानों ने किसानी से तौबा कर ली है, मतलब गांधी जिस किसान का जीवन ही सच्चा जीवन मानते थे उसने किसानी ही छोड़ दी है. ३ करोड़ किसान खेत से बाहर निकल गया है तो इसका एक मतलब तो यह हुअा न कि राष्ट्र-जीवन का ईंधन - अनाज-  पैदा करने वाले ६ करोड़ हाथ कम हुए ! तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इसी अवधि में २५ हजार से ज्यादा किसानों ने अात्महत्या कर ली है. अात्महत्या का सीधा मतलब एक ही है : जीवन व जीविका से बेजार इंसान ! यही गांधी का अंतिम अादमी है. यही है जिसके बच्चे कुपोषित हैं; यही है जिसकी किशोर अाबादी के पास जीवन की न कोई दिशा है अौर न शिक्षा की कोई व्यवस्था है; यही है युवा बेरोजगार रह-रह कर ही खत्म हो जाता है; यही है जिसे कुचल कर, उसकी अंतिम बूंद तक निचोड़ लेने में व्यवस्था लगी है; यही है जिसकी बेटियां हर तरफ बलात्कार का शिकार हो रही हैं- खेतों-खलिहानों-दफ्तरों-मकानों-सुरक्षा-गृहों-बाजारों-होटलों-सड़क-चौराहों कहीं भी वह सुरक्षित नहीं है अौर हम ‘निर्भया’ नाम की माला भी जपते जाते हैं.  

अाजादी का यह कैसा महाभंजक स्वरूप उभर रहा है कि जिसे लालकिले पर चढ़ कर भी यह दिखाई नहीं दे रहा कि यह किला जर्जर हो चुका है ? हमें यह हिसाब लगाना ही चाहिए कि ७२ साल पहले हमने जो सपने देखे थे, वे कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे ? सवाल अांकड़ों का नहीं है; सवाल है कि हमारी अाजादी ७२ साल जवान हुई है या ७२ साल बूढ़ी ? जवानी अौर बुढ़ापे में उम्र का फर्क नहीं होता है, उम्मीदों अौर अात्मविश्वास का फर्क होता है ! सरकारी खेतों में हर चुनाव के वक्त उम्मीदों की जरखेज फसल होती है  लेकिन अाजादी भूखी ही जागती है अौर भूखी ही सो जाती है. ( 14.08.2018)


कौन पूछेगा ... ?



             राजधानी दिल्ली से ले कर बिहार के मुजफ्फरपुर तक देश में अंधेरा नहीं, लिजलिजा-सा, घुटता हुअा माहौल है. यह लोकतंत्र का वह चेहरा है जिसकी अाशंका भांप कर लोग लोकतंत्र से दूर भागते हैं. यह संसदीय लोकतंत्र अपनी परिकल्पना में ही समाज को 51 बनाम 49 में तोड़ कर, हमेशा युद्धमुद्रा में रखता है. इसमें बहुमत संख्यासुर को अपनी एकमात्र ताकत बनाता है अौर शोरतंत्र को अपना हथियार; दूसरी तरफ लाचार अल्पमत राष्ट्र का मत नहीं, अपनी मुद्रा बदलने में व्यस्त रहता है ताकि वह संख्याबल का मुकाबला करने में सक्षम हो सके. जब तंत्र ऐसा रूप ले लेता है तब समाज, जो राजतंत्र की  प्रजा भी नहीं है, लोकतंत्र का लोक भी नहीं है, एक ऐसी भीड़ में बदल जाता है जिसमें सर-ही-सर होते हैं, अांख नहीं. ऐसा समाज अपनी तमाम विकृतियों के साथ यहां-वहां मुंह मारता मिलता है. यह लोकतंत्र का कृष्णपक्ष है.

हालात ऐसे हैं कि शासक दल का अध्यक्ष, जो खुद अापराधिक अंधेरे से घिरा हुअा है, सरकार की नीतियों की व्याख्याएं, घोषणाएं करता, भविष्यवाणियां करता देश भर में घूमता है. अब जनगणना विभाग नहीं, चुनाव अायोग नहीं, अदालत भी नहीं, वही है जो बताएगा कि कौन देशी है, कौन विदेशी ! असम में जिन 40 लाख से ज्यादा लोगों को रातोरात भारतीय जनता पार्टी ने घुसपैठिया या विदेशी करारा दिया है, चुनाव अायोग कहता है कि हम उन्हें वोट देने से नहीं रोकेंगे क्योंकि हम अपनी मतदाता सूची से चलते हैं, न कि किसी पार्टी द्वारा बनाए, किसी रजिस्टर से. अदालत कह रही है कि ऐसा कोई भी रजिस्टर अंतिम संवैधानिक हैसियत नहीं रखता है अौर किसी की नागरिकता पर किसी को ऊंगली उठाने का हक नहीं है. वह कहती है कि ऐसे मामले जब भी उसके सामने लाए जाएंगे, वह उसकी जांच-पड़ताल करेगी अौर अपना मंतव्य सुनाएगी, अौर उसका मंतव्य ही किसी भी व्यक्ति की नागरिकता का निर्धारण कर सकता है.  गृहमंत्री लोकसभा में खड़े हो कर कहते हैं कि 40 लाख लोगों को रजिस्टर से बाहर करने वाला यह रजिस्टर कोई अाखिरी थोड़े ही है ! उनकी हर सफाई का एक ही मतलब निकलता है कि हमारी इस सरकार की ऐसी काररवाइयों का कोई खास मतलब मत लगाइए. वे अारोप लगा रहे हैं कि कुछ लोग इसकी अाड़ में भय फैला रहे हैं. कौन हैं ये लोग ? क्या उनका इशारा अपने दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष की अोर है ? क्या उनका इशारा भारतीय जनता पार्टी के उन सभी लोगों की तरफ है जो कह रहे हैं कि हम भी अपने राज्य में ऐसा ही रजिस्टर बनवाएंगे अौर देश को घुन की तरह खोखला कर रहे विदेशियों से देश को मुक्त कराएंगे ? 

रजिस्टर बनाने वाला अधिकारी अब कह रहा है कि ये 40 लाख लोग फलां-फलां दस्तावेज ला कर दिखाएं तो हम उनका नाम रजिस्टर में फिर से दर्ज कर देंगे. कोई पूछता नहीं है कि भाई, जब अाप इतने रहमदिल हो तो सारे दस्तावेजों की पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही ऐसी कोई घोषणा करनी चाहिए थी न ! अधकचरे लोग देश का कचरा ही बना कर छोड़ते हैं. कोई पूछता नहीं है कि ये 40 लाख लोग यदि विदेशी हैं तो ये सीमा पार कर इधर अाए कैसे ? क्या असम में सरकार नहीं थी ? क्या असम में विपक्षी दल  नहीं थे ? क्या कांग्रेस समेत सारे ही राजनीतिक दलों ने, भारतीय जनता पार्टी की वर्तमान सरकार ने भी इन्हीं विदेशी लोगों से वोट ले-ले कर देशी सरकार नहीं बनाई है ? क्या असम की वर्तमान सरकार यह कह सकती है कि उसके लिए किसी विदेशी ने बटन नहीं दबाया है ? अौर कोई यह क्यों नहीं पूछता है कि सीमा पर तो फौज बैठी है न ! फिर बांग्लादेश से इतने सारे लोग अा कैसे जाते हैं? सीमा सुरक्षा बल अौर फौज, दोनों को इसका जवाब देना होगा. लेकिन कौन पूछे ? फौज इसका जवाब नहीं देती है क्योंकि उसके सर्वोच्च पदाधिकारी को अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बयान देने; राष्ट्रीय सवालों पर फैसले सुनाने; पाकिस्तान अौर चीन को ललकारने अौर कश्मीर जा कर वहां के नागरिकों को धमकाने से फुर्सत नहीं है. लोकतांित्रक हिंदुस्तान ने सेनाध्यक्ष को ऐसी भूमिका में इससे पहले तो नहीं देखा था. जिन देशों में ऐसा होता हमने देखा है, उन देशों में अब लोकतंत्र दिखाई नहीं देता है. 

कौन पूछेगा कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के, जिसके कुलपति वे स्वंय ही हैं, सत्रारंभ समारोह में कैसे कहा कि जो लोग भी देश की छवि बिगाड़ रहे हैं उनको सीधा जवाब देने का यह केंद्र है, कि यहां के युवाअों को ऐसे तत्वों को माकूल जवाब देना है ?  संविधान की शपथ ले कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा कोई अादमी यह मान सकता है कि उसकी एक निजी सेना होनी चाहिए जो उसके इशारे पर असहमतों को ठिकाने लगाती रहे ? यही तो देश में हो रहा है - फिर कारण गाय हो, कि देवी-देवता या कि असहमत लेखक-पत्रकार-फिल्मकार ! देश को भीड़ में बदल कर, उसके हाथों असहमतों की, विरोधियों की हत्या का इतिहास में एक बड़ा अध्याय है. संविधान, संसद, विधानसभाएं, अदालतें, पुलिस तथा ऐसी ही कितनी व्यवस्थाअों का बोझ हमने इसलिए ही तो उठा रखा है कि कोई समाज को भीड़ में न बदल दे; कोई संवैधानिक सत्ता को निजी शक्ति का साधन न बना ले अौर संविधान नागरिकों के टुकड़े करने की तलवार की तरह न बरता जाए. इसलिए ही तो वह अनमोल कथन हर नागरिक की कुंडली में लिखा है कि अपने लोकतंत्र को पटरी पर रखना चाहते हो तो सतत जागरूक रहना पड़ेगा. इसलिए बोलना जरूरी है, पूछना जिम्मेवारी है अौर करना कर्तव्य है. जो समाज इन तीन जिम्मेवारियों से मुंह चुराता है वह लोकतंत्र खो देता है. 
( 07.08.2018)  

अगर मैं गृहमंत्री होता ...



अाप सब जान लें कि मैं भारतीय जनता पार्टी के दो रत्न - कर्नाटक के विधायक वसनगौडा पाटील यतनाल अौर उत्तरप्रदेश के अांबेडकर नगर के सांसद हरिअोम पांडे से प्रेरित हो कर यह लेख लिख रहा हूं. मैं इतनी गहराई से प्रेरित हुअा हूं कि यह मेरा अंतिम लेख हो, तो भी मैं इसे लिखने से पीछे नहीं हटूंगा. 

वसनगौडा पाटील यतनाल को इस बात का अफसोस है कि वे कर्नाटक के गृहमंत्री नहीं हैं. अगर होते तो ‘पाकिस्तान से भी ज्यादा खतरनाक दुश्मन, बुद्धिजीवियों अौर धर्मनिरपेक्ष लोगों से’ कर्नाटक को मुक्त करवा देते. नहीं, उन्होंने सिर्फ जुमलेबाजी नहीं की. उन्होंने बाजाप्ता बताया कि वे ऐसा कैसे करते. वे इन दोनों पर सर्जिकल स्ट्राइक करवाते - दोनों को गोलियों से उड़ा देने का अादेश देते. वे ऐसा क्यों करते ? इसलिए कि ये बुद्धिजीवी अौर धर्मनिरपेक्ष लोग खाते हैं हमारे देश का, हमारी हवा का अॉक्सीजन खींच कर जिंदा रहते हैं, हमारा पानी पीते हैं अौर हमारी सरकार द्वारा किए विकास का मजा लेते हैं लेकिन हमारी फौज के खिलाफ नारे लगाते हैं. मैं वसनगौड़ा जी के चिंतन की इस गहराई की थाह ले पाता कि मुझे हरिअोम पांडे के चिंतन से रू-ब-रू होना पड़ा. उन्होंने कहा कि देश में अपराध अौर बलात्कार की वारदातें बढ़ती जा रही हैं क्योंकि मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती जा रही है. मुसलमान ३-४ शादियां करते हैं अौर ९-१० बच्चे पैदा करते हैं. इतने बच्चों को वे सड़कों पर अावारा भटकने को छोड़ देते हैं जिससे अराजकता फैलती है. मैं इस तर्क को समझ पाता कि मेरे सामने भारतीय जनता पार्टी के कई विचारशील लोगों की टिप्पणियां अा गई जिसमें मुसलमानों से कहा गया था कि वे गौ-मांस खाना अौर गाय की तस्करी करना छोड़ दें तो ‘मॉब लिंचिंग’ स्वत: बंद हो जाएगी. भाजपा के सांसद अनंतकुमार हेगडे ने भी  बहुत परेशान हो कर कहा कि कुछ लोग अपने को बुद्धिजीवी, कवि, कलाकार अादि इसलिए कहते हैं ताकि उन्हें सरकारी सहूलियतें मिल सकें.

इतना कुछ पढ़ते-जानते-समझते मैं घबरा गया. मैं इस देश का सीधा-सादा नागरिक हूं अौर बुद्धि से जीता हूं, तो बुद्धिजीवी हूं. भाजपा के इन महान चिंतकों की मैं नहीं जानता लेकिन वैसे मुझे लगता है कि हर अादमी बुद्धि से ही जीता है, तो हर अादमी बुद्धिजीवी है. मैं इस देश की हवा के अॉक्सीजन से जीता हूं, इस देश का पानी पीता हूं, इसी धरती से पैदा अनाज खाता हूं अौर इस देश में ७० सालों में जो विकास नहीं हुअा, उसका मजा लेता हूं. हां, मैं अपनी फौज के खिलाफ नारे नहीं लगाता हूं लेकिन मैं अपनी फौज को ईश्वरीय दूत भी नहीं मानता हूं. मैं मानता हूं कि फौजी भी मनुष्य ही होते हैं अौर मनुष्यगत कमजोरियों से उसी तरह घिरे होते हैं कि जिस तरह हम या अाप ! ( वसनगौडा सर कहेंगे तो मैं अपने इस ‘अाप’ में से भाजपा को बाहर करने को तैयार हूं !). तो वासनगौडा सर गृहमंत्री होंगे तो हम सब मारे जाएंगे. वे गृहमंत्री बनें अौर अपनी मनोकामना पूरी करें, इससे पहले मैंने भी उनकी ही तरह सोचा कि अगर मैं गृहमंत्री बन जाऊं ( राजनाथ सिंहजी, अाप घबराएं नहीं, यह एकदम मोदी-जुमला है !) तो मैं क्या करूंगा; क्या-क्या करूंगा. फांसी देने से पहले अंतिम इच्छा पूछते हैं न, तो कुछ इसी भाव से अाप अागे पढ़िए. 
मैं गृहमंत्री बनते ही पहला काम यह करूंगा कि देश में कानून-व्यवस्था के जिम्मेवार हर अधिकारी की जिम्मेवारी तय कर दूंगा - अपनी समझ अौर अपनी युक्ति से, अपने सारे संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए अपनी जिम्मेवारी निभाअो ! विफल हुए या चूक हुई तो नौकरी से जाअोगे - तबादला नहीं, बर्खास्त. किसी पार्टी, किसी दादा, किसी अंडरवर्ल्ड गैंग की सुनी तो तुम्हारी सुनने वाला कोई नहीं होगा. मॉब लिंचिंग हो, सांप्रदायिक दंगा हो, बलात्कार या गैंगवार हो, उस इलाके के दारोगा से ले कर जिलाधिकारी तक की बर्खास्तगी निश्चित व अंतिम समझिएगा. कानून-व्यवस्था से संबंधित हर अदालती अादेश का शब्दश: पालन करना होगा अौर किसी भी अापराधिक मामले में पूरा व पर्याप्त सबूत न जमा करने की अदालती टिप्पणी पर, सख्त काररवाई होगी. किसी भी वर्ग, समुदाय, जाति, धर्म के बीच दूरी बढ़ाने वाला, घृणा फैलाने वाला या असुरक्षा का भाव पैदा करने वाला कोई भी बयान, कोई भी टिप्पणी अापराधिक मानी जाएगी अौर अपराध की सजा मिलेगी ही. 

अदालतें अपना काम करेंगी, प्रशासन अपना काम करेगा. देश में बहुत सारी सामाजिक रीतियां-परंपराएं-रिवाज घिस-पिट कर कालवाह्य हो गये हैं. उन्हें ढोना या चलाये रखना अमानवीय व अलोकतांत्रिक है. धर्म-जाति-क्षेत्र अादि का भेद किए बिना गृह मंत्रालय इन्हें प्रतिबंधित कर देगा अौर उनका सख्ती से निषेध करेगा. लेकिन गृह मंत्रालय के खिलाफ जाने के लिए अदालत के दरवाजे खुले रहेंगे. हर अदालती अादेश का जैसे नागरिक पालन करता है वैसे ही गृह मंत्रालय भी करेगा. देश चलाना सरकार चलाने से बड़ा काम है; देश की सुनना पार्टी की सुनने से ज्यादा जरूरी है.  

बौद्धिकों, कलाकारों, पत्रकारों से लेकर मजदूर यूनियनों, विपक्षी दलों तथा सभी किस्म के संगठनों को पूरी अाजादी होगी कि वे जहां चाहें, जैसे चाहें अपनी बात कहें, गृह मंत्रालय की तीखी अालोचना करें, मेरा मुर्दाबाद करें, मेरा इस्तीफा मांगें. यह सब खुले अाम करें. बस, एक ही रोक होगी कि कोई, कभी, किसी भी जगह से हिंसा करने, हिंसा के लिए ललकारने या अशांति फैलाने के लिए उकसाने का काम न करे- न संकेत में,  न शब्द में, न मुद्रा में. 
मुझे पक्का भरोसा है कि यदि ऐसा गृहमंत्री बनना हो तो वसनगौडा सर तैयार नहीं होंगे.  ( 29.07.2018)