Tuesday 27 June 2017

राष्ट्रपति की जाति

भारतीय क्रिकेट में सर्वशक्तिमान दीखने वाले विराट कोहली भी जो नहीं कर सके, हमारी राजनीति के धांकड़ खिलाड़ियों ने वह कर दिखाया ! अब राष्ट्रपति चुनाव का टॉस कोई भी जीते, मैच कोई दलित ही जीतेगा ! यह लिखते हुए मानो मेरे हाथ गंदले हो गए हैं अौर मन खट्टा हो गया है. कहां से गिर कर हमारे राजनीतिज्ञ कहां पहुंचे हैं; अौर एक राष्ट्र के रूप में हम कहां-कहां अौर कैसे-कैसे अौर किस हद तक अपमानित किए जाएंगे,इसकी पीड़ा इतनी गहरी है कि दुखवा मैं कासे कहूं जैसा हाल है. 

भारतीय जनता पार्टी ने अध्यक्ष ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का अपना उम्मीदवार घोषित करते हुए तीन-चार बार यह रेखांकित किया कि वे दलित जाति से अाते हैं ! जिसके बारे में देश को यही नहीं मालूम है कि वह कौन है, उसके बारे में अापके पास बताने की सबसे बड़ी पहचान उसकी जाति ही है, इससे उस अादमी का कोई परिचय मिलता हो या नहीं, अापकी जाति का परिचय तो मिल ही जाता है. जिस संविधान के संरक्षण की शपथ ले कर कोई भी राष्ट्रपति बनता है अौर जिस संविधान को रूप-स्वरूप देने में एक दलित बाबा साहेब अांबेडकर की बड़ी भूमिका रही है,वह संविधान हमें एक ऐसे भारत की तरफ बढ़ने का निर्देश देता है जिसमें जाति-धर्म-भाषा-संप्रदाय-लिंग का नहीं, योग्यता का अाधार लिया जाएगा. वही संविधान हमें सावधान भी करता है कि परंपरागत ऐतिहासिक कारणों से हमारे समाज के जो वर्ग, जो वर्ण अौर जो अवर्ण पीछे छूट गये हैं उन्हें बराबरी में लाने की हर संभव व्यवस्था समाज व सरकार करेगी. मतलब एकदम सीधा है कि योग्यता का अाधार ही निर्णायक होगा लेकिन जहां योग्यता का विकास ही समान अवसर देने से सिद्ध होता हो वहां विशेष अवसर की सारी व्यवस्थाएं भी खड़ी की जाएंगी. क्या रामनाथ कोविंद को अागे बढ़ाने के लिए ऐसी किसी व्यवस्था की जरूरत थी

जाति, धर्म, संप्रदाय जैसे अनेक तत्व समाज में रूढ़ तो हैं लेकिन ये सारी प्रतिगामी ताकतें हैं जिनके उन्मूलन के हर संभव प्रयत्न करने की जरूरत है ताकि समाज यहां से अागे देख सके अौर चल सके. ये हैं इसलिए सही नहीं हैं; ठीक वैसे ही जैसे सर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा हमारे घरों-समाजों में बची तो हुई है लेकिन वह सही नहीं है; याकि छुअाछूत अौर जातीय श्रेष्ठता का जहरीला मानस बचा तो हुअा है लेकिन उसकी जड़ों में मट्ठा पटाने की जरूरत है, उसे सींचने की जरूरत नहीं है. लेकिन हमारी सत्ताकेंद्रित व्यवस्था ऐसे गर्हित खेल में बदल गई है जो मानव-मन की अौर सामाजिक चलन की हर कमजोरी को भुना कर सफलता पाने में हिचकती नहीं है. एक शताब्दी से भी अधिक पहले मोहनदास गांधी ने सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ में इसे ही वेश्यावृत्तिकहा था. 

जब भारतीय जनता पार्टी यह गंदा खेल खेल चुकी तो सबसे पहले दलित राजनीति की सूखी हड्डी चूसने में लगी मायावती का बयान अाया कि अगर विपक्ष भी किसी दलित को ही अपना उम्मीदवार घोषित नहीं करता है तो उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी का ही समर्थन करेगी. इसी भारतीय जनता पार्टी से उत्त्तरप्रदेश में सत्ता छीनने के लिए इन्हीं मायावती ने दलित समाज को किस-किस तरह से उकसाया-भरमाया था, यह किस्सा इतना पुराना तो नहीं पड़ा है कि याद ही न अाए ! अब वही मायावती उसी भारतीय जनता पार्टी को मजबूत बनाने की धमकी देती हैं, क्योंकि दलितों का मानमर्दन करने से ही अब सत्ता की निकटता पाई जा सकती है. नरेंद्र मोदी ऐसी राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं. उन्हें पता था कि कोविंद-गुगली के अागे टिक सकने वाला कोई बल्लेबाज सोनिया-एकादश में नहीं है. विपक्ष के पास न शक्ति बची है अौर न सत्व; अौर उसका मुकाबला मोदी-मायावती से एक साथ हो गया, तो उसने हथियार डाल देने में ही खैर समझी ! इसलिए मोदी के दलित के सामने सोनिया का दलित खड़ा कर दिया गया ! मीरा कुमार के पास इसके अलावा कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है कि वे दलित-नेता जगजीवन राम की बेटी हैं ! 

अब तस्वीर यह बनी कि मोदी के दलित से सोनिया के दलित की हार अटल है. वोटों का गणित साफ है. यह हार इसलिए नहीं होगी कि विपक्ष ने कोई गलत उम्मीदवार खड़ा किया है. यह हार इसलिए होगी कि विपक्ष के पास लड़ने का कलेजा ही नहीं है. उसने हमेशा की तरह लड़ने से  पहले ही हार मान ली. यदि कलेजा हो तो लड़ कर हारना हमेशा ही बिना लड़े हार जाने से बेहतर होता है. मोदी-मायावती के दलित से बगैर डरे यदि विपक्ष ने अपना योग्य उम्मीदवार खोजा व खड़ा किया होता तो उसकी पराजय में भी सत्व की जीत तो होती ! दलित समाज से ही खोजा होता तो भी कई योग्य उम्मीदवार मिल जाते जो कम-से-कम दलिततो होते ! कोविंद हों कि मीरा कुमार, ये दोनों इस दुर्घटना के अलावा किसी कोने से दलित नहीं हैं कि इनका जन्म दलित परिवार में हुअा है. जन्मना श्रेष्ठता का सिद्धांत यदि सवर्णों के लिए गलत है तो दलितों के लिए भी गलत है. कोविंद अौर मीरा कुमार दोनों ही उस क्रीमी लेयरके प्रथम लेयरमें अाते हैं जिन्हें अारक्षण की सुविधा से वंचित करने की सिफारिश सर्वोच्च न्यायालय ने कर रखी है. लेकिन यहां तो एक राजनीतिक बेईमानी का जवाब दूसरी राजनीतिक बेईमानी से दिया गया है. 

देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में महात्मा गांधी ने किसी राजेंद्र प्रसाद की नहीं, किसी दलित लड़की की कल्पना की थी अौर साफ शब्दों में लिख कर उसे जाहिर भी कर दिया था. यह भी कह दिया था कि उनकी वह दलित बेटी स्फटिक की तरह निर्मल चारित्र्यवाली होगी. मतलब साफ था उनका कि वे दूसरों की राजनीतिक चालों, विद्वता की डिग्रियों अौर पदों के जंगलों में अपनी वह बेटी’   नहीं तलाश रहे थे. वे तो चारित्र्य को ही कसौटी बना रहे थे जिसमें वे अपने दलित समाज को निर्विवाद रूप से बाकी समाज से श्रेष्ठ पाते व मानते अाए थे. हम याद रखें कि आंबेडकर अादि जैसे पेशेवर दलित राजनीतिज्ञों द्वारा की जा रही अपनी लगातार चारित्र्य-हत्याके बीच भी अपनी दलित बेटी की बात कहने का नैतिक साहस उनमें था. हम विपक्ष से वैसे नैतिक साहस की मांग कर ही नहीं रहे हैं. हम तो इतना ही कर रहे हैं कि विपक्ष ने यदि उम्मीदवार की योग्यता को अपने चयन का अाधार बनाया होता तो वह चुनाव तो हारता लेकिन मौका जीत जाता. यहां तो उसने दोनों तरह की हार कबूल कर ली है. 

        संविधान राष्ट्रपति की कल्पना राष्ट्रीय कद के एक ऐसे व्यक्ति के रूप में करता है जो सत्ता के खेल में शामिल नहीं है, जिसके चारित्र्य, ज्ञान अौर गरिमा का देश कायल है. जो पक्ष-विपक्ष की सत्तालोलुपता के बीच अंपायर की तटस्थता से राष्ट्र-प्रमुख की भूमिका निभा सकता है. अाज जब संसद का पलड़ा इस कदर सत्ता-पक्ष की तरफ झुका हुअा है, प्रेस, चुनाव अायोग,न्यायपालिका अादि सभी गहरे दवाब में हैं, समाज डरा हुअा है अौर बिखर रहा है, ऐसे में राष्ट्रपति की प्रतिभासंपन्न तटस्थता पर ही हमारे लोकतंत्र का दारोमदार है. कोविंद हों कि मीरा कुमार, हम इनकी जाति भर याद रख सकते हैं क्योंकि इन्होंने लोकतंत्र का ककहरा तो पढ़ा ही नहीं है. ( 26.06.2017)  

Saturday 24 June 2017

26 जून के दोस्त


26 जून भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला दिन बन गया है क्योंकि उसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को रफा-दफा कर, देश में अापातकाल लगाया था. वह 1975 था. अब 26 जून 2017 है जब वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से अमरीका में बातचीत शुरू करेंगे.  यह तारीखों का संयोग भर है या कोई संकेत, इसका जवाब तो अाने वाला समय ही देगा लेकिन यह भारतीय कूटनीतिज्ञों की वह विफलता है जिसकी गहन पूछताछ इस सरकार को करनी चाहिए. इस सरकार के एकाधिक लोगों का राजनीतिक जन्म उस लड़ाई में से हुअा है जो अापातकाल के खिलाफ लड़ी गई थी.

नहीं, २६ जून की तारीख कैलेंडर से मिटाई तो नहीं जा सकती लेकिन यह सावधानी तो रखी ही जा सकती है, अौर रखी ही जानी चाहिए कि इस तारीख को कोई ऐसी पहल ही होनी चाहिए कि जो देश को भी अौर दुनिया को भी याद दिलाए कि कोई भी राजनीतिक नेतृत्व जब अपनी लोकतांत्रिक हदें पार करता है तब लोकतंत्र की अदृश्य ताकतें उसे सबक सिखाती हैं. अाज अमरीका में भी अौर भारत में भी लोकतंत्र के लिए घातक प्रवाहों का जोर बढ़ रहा है अौर इसलिए मोदी-ट्रंप की पहली मुलाकात की यह तारीख  अपशकुन सरीखी लग रही है.

भारत अौर अमरीका, दोनों के सामाजिक व राजनीतिक पटल पर ऐसा बहुत कुछ उभर रहा है जिसकी अाहट हमें समझनी चाहिए. अच्छा हो या बुरा, समय दोनों की अाहट देता है. जो अाहट नहीं सुनते, वे अाघात झेलते हैं. ट्रंप के बाद के अमरीका में श्रीनिवास कुच्छीमोतला से एक कहानी शुरू हुई थी जो हरनीस पटेल से होती हुई दीप राय तक पहुंची थी. इनके बीच में एक वह वीडियो भी था कि जिसमें किसी मॉल के खरीदारों की पंक्ति में खड़ी एक भारतीय लड़की को, एक अफ्रीकी-अमेरिकन घृणा व गुस्से से भरी अावाज में धमका रहा था कि तुम अपने देश वापस जाअो ! बहुत संभव है कि जब अाप मेरा यह लेख पढ़ रहे हों तब तक इस कहानी में कुछ नये पात्र भी जुड़ चुके हों. हम कहानी लंबी करें अौर नये-नये पात्र इसमें जोड़ें या फिर इतना ही कहें कि एक कहानी बराक अोबामा के अमरीका से शुरू हुई थी अौर डोनाल्ड ट्रंप के अमरीखा तक पहुंची है, तो भी बात वही होगी. कई लोगों के लिए यह समझ पाना मुश्किल हुआ जा रहा है कि अमरीका में जो हो रहा है, वह क्या है ! कुछ कहते हैं कि कल तक तो ऐसा कुछ नहीं हो रहा था. अचानक यह क्या हो रहा है; अौर पूछते हैं कि यह क्यों होने लगा है ? 

ऐसा नहीं है कि पहले वहां कुछ नहीं होता था. बहुत कुछ बुरा अौर बहुत कुछ निंदनीय हो रहा था वहां. ऐसा बहुत कुछ होता रहा था कि जिससे किसी भी सभ्य व्यक्ति अौर समाज को तकलीफ पहुंचे, सर शर्म व विशाद से झुक जाए. अाप याद करें कि एक बार नहीं, कई बार ऐसा हुअा कि राष्ट्रपति बराक अोबामा टीवी पर अा कर रो पड़े. रोते-रोते वे जो कुछ कह पाए, उससे कहीं ज्यादा व साफ बातें उनके अांसू कह जाते थे. वे लाचारी के अांसू थे, शोक के अांसू थे, लज्जा अौर पश्चाताप के अांसू थे. अमरीका जैसे कीर्तिवान राष्ट्र का राष्ट्रपति यानी चलताऊ विशेषण का इस्तेमाल करूं तो दुनिया का सबसे शक्तिशाली अादमी टीवी पर हो अौर सारी दुनिया को अांसू बहाता दीखे तो पहली बात तो मन में यही अाती है कि घड़ियाली अांसू हैं ! फिर लगता है कि अांसुअों में लिपटी यह कोई राजनीतिक चाल है. 
मंच पर रोते अौर नेपथ्य में जाते ही कुटिल मक्कारी के साथ अपने अभिनय-कला की चुटकी लेते अपने राजनेताअों का हमारा अनुभव रोज-ब-रोज नया होता ही रहता है. तो अोबामा भी ऐसा कर ही सकते थे. लेकिन ऐसा था नहीं. अोबामा के अांसू भी सच्चे थे अौर उनकी लज्जा भी ! उनकी असहाय स्थिति को भी समझना अासान था. पावर का जो मुल्लमा राजनीति ने अोढ़ रखा है, वह कितना खोखला है अौर पदों से जुड़ी शक्ति की अवधारणा कितनी पोली है, यह सच्चाई तभी समझ में अाती है जब अाप समाज से रू-ब-रू होते हैं. सत्ता की राजनीति में अपनी जगह बनाने को िबलबिलाती लोगों की भीड़ से समाज नहीं बनता है; न केरियर के कायरों के चरणचंपू करने से तत्पर अौर ईमानदार नौकरशाही जन्म लेती है. समाज को अाप धोखा दे सकते हैं, उसे खरीद-बेच सकते हैं, डरा-धमका सकते हैं लेकिन उसे नये मूल्यों से सज्जित करना चाहें तो अापके पसीने छूट जाते हैं. तब अापको उस पावर के पावरलेस होने का अंदाजा होता है जिसे पाने के लिए अापने एंड़ी-चोटी का जोर लगाया था. 

अब यह बात खुल चुकी है कि डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए रूसी मदद ली थी. यह कितना संभव है कि अमरीकी सीनेट द्वारा बिठाई जांच में यह सत्य इस तरह स्थापित हो जाए कि ट्रंप को कुर्सी छोड़नी पड़े, यह तो देखने की बात है लेकिन हम जो देख रहे हैं वह तो यह है कि अपने १०० दिनों के शासन में ट्रंप किसी राष्ट्रपति की तरह नहीं, किसी जागीरदार की तरह बरत रहे हैं. वे अमरीका को अौर विश्व बिरादरी को अपने व्यापारिक साम्राज्य की एक कंपनी की तरह देखते हैं अौर उसी तरह सबसे  निबटना चाहते हैं. लेकिन वे बेतरह विफल हो रहे हैं अौर अमरीका एक भोंडा, क्रूर जोकर बनता जा रहा है. 

इधर नरेंद्र मोदी सरकार के भी तीन साल पूरे हो चुके हैं अौर तीन सालों की तीसियों उपलब्धियों का समारोह मनाने के लिए चारो दिशाअों में उनके लोग दौड़ भी पड़े हैं. लेकिन उपलब्धियां क्या हैं, यह न कहने वालों की समझ में अा रहा है अौर न सुनने वालों की. इसमें कोई शक नहीं कि इस सरकार ने कुछ संभावनाएं पैदा की थीं, सिद्ध कुछ भी नहीं कर सकी है. अधूरी संकल्पनाएं सतही संकल्पों की अंधेरी गुफाअों में गुम हैं. अौर देखिए कि यहां तक अाते-अाते इस सरकार का दम फूल रहा है. अब घोषणाएं भी चमक खोती जा रही है अौर जुमलों में भी कोई ताकत नहीं बची है. चुनाव जीते भी गए हैं, जीते जाएंगे भी लेकिन चुनावी जीतों से सफलता मिलती होती तो इंदिरा गांधी अौर राजीव गांधी ऐसी सफलता के शिखर छू कर, फिर रसातल को नहीं पहुंच जाते !      

समाज को नया तन देना अासान होता है, नया मन देना बहुत मुश्किल ! अौर जब कभी ऐसा कुछ करने की अाप कोशिश करते हैं तब सामने से समाज ही यह पूछ बैठता है कि जो देने चले हैं अाप, क्या वह अापके पास है भी ? समाज को नया मन देने चले हैं तो कोई नया मन अापके पास है भी क्या ? मन अौर तन का फर्क हम कुछ यूं समझें कि नया तन देने में दरअसल अाप देते कुछ नहीं हैं सिवा ठेकेदारों को ठेका देने के. जिसे ठेका देते हैं अाप, वह अपना काम जैसे-तैसे पूरा करता ही है, क्योंकि उसके बाद ही उसे उसका भुगतान मिलता है जिसमें कितनों का हिस्सा होता है. इसलिए कहीं रोड बन जाती है, कहीं पुल, कहीं मंदिर अौर कहीं मस्जिद; मुफ्त में टीवी तो लैपटॉप तो साड़ी बंट जाती है तो पेंशन, वजीफा अादि मिल जाता है. बुलेट ट्रेन हो कि अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट  कुछ भी, कहीं भी खड़ा किया जा सकता है. अाप एक ही सांस में मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा, राणीसती मंदिर, गो-पूजा से ले कर अछूतोद्धार तक कर अाते हैं. ये सारी राजनीतिक चालबाजियां तन के अासपास घूम कर ठहर जाती हैं. 

मन बदलना हो तो पवित्र मन अौर तन का मेल जरूरी होता है; अौर जरूरी होती है समाज में गहरी पैठ ! अौर समाज के मन की गलियां बहुत संकरी होती हैं.  राजनीति की तमाम गंदी चालें-कुचालें चलें हम अौर स्वच्छता मिशन भी चलाएं तो गंदगी दोनों तरफ से हमला करती है. एक ईमानदार प्रधानमंत्री कितनी बेईमान सरकार चला सकता है, इसका पाठ बच्चों को पढ़ाना हो तो हमें मनमोहन-सरकार को पाठ्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिए; एक अात्ममुग्ध, बड़बोला प्रधानमंत्री कितनी खोखली नीतियों वाली भटकी हुई सरकार चला सकता है, इसका पाठ बच्चों को पढ़ाना हो तो हमें मोदी-सरकार को पाठ्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिए. इसमें किसी के प्रति दुर्भावना नहीं, तथ्यों का अाकलन भर है. 

ट्रंप भी इसी कतार में अाते हैं. अमरीकी समाज की तमाम गर्हित शक्तियों को उकसा कर वे राष्ट्रपति बने अौर अब उन्हीं को अपनी सत्ता का अाधार बनाने में लगे हैं लेकिन न सत्ता बन रही है, अौर न अाधार खड़ा हो रहा है ! राष्ट्रपति बनते ही ट्रंप ने जिस अादेश से मुस्लिमबहुल देशों की यात्रा पर रोक लगाई थी, अमरीकी अदालतें उसे एक-एक कर असंवैधानिक बताती जा रही हैं. ट्रंप ने जिस एफबीअाई प्रमुख जेम्स कोमे को पद से बर्खास्त कर दिया, वह बता रहा है कि ट्रंप प्रशासन के सभी प्रमुख पदों पर योग्य लोगों को नहीं, चमचों को चाहते हैं. उन्होंने कोमे से भी यही कहा कि मैं अपने मातहत लोगों से अंध स्वामीभक्ति अौर पूर्ण समर्पण की मांग करता हूं. ट्रंप जो मांग रहे हैं वह लोकतंत्र के ताबूत की कीलें हैं. 

२६ जून ऐसी कई बातों की याद अापको भी दिला रहा है क्या?  (24.06.2017)                                                                                                                                                              

Wednesday 21 June 2017

विराट का खतरा

वैसे तो खेल अौर राजनीति में कोई सीधा रिश्ता होता नहीं है या कहूं कि होना नहीं चाहिए लेकिन हुअा ऐसा कि जिस दिन सरकार ने राष्ट्रपति-पद का अपना उम्मीदवार घोषित किया, उसी दिन अनिल कुंबले ने चैंपियंस ट्रॉफी में पराजित हुई भारतीय क्रिकेट टीम के मुख्य कोच के पद से इस्तीफा दे दिया. पाकिस्तान के हाथों मिली शर्मनाक पराजय के ठीक दो दिन बाद अौर वेस्टइंडीज के दौरे पर टीम के जाने से सिर्फ चार दिन पहले दिए इस इस्तीफे ने भारतीय क्रिकेट की जैसी किरकिरी की है वैसी तो श्रीनिवासन एंड कंपनी अौर फिर अनुराग ठाकुर एंड कंपनी ने भी नहीं की थी. जैसे राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में सरकार ने रामनाथ कोविंद को चुन कर कई राजनीतिक समीकरणों को एक साथ बनाने या बिगाड़ने का काम किया है, उसी प्रकार अनिल कुंबले ने मुख्य कोच के पद से इस्तीफा दे कर कई तरह के संकेत दिए हैं अौर कितने ही सवाल खड़े कर दिए हैं. 

इस इस्तीफे का पहला संकेत तो यही है कि भारतीय क्रिकेट की सलाहकार समिति को, जिसमें सर्वश्री सचिन तेँडुलकर, सौरभ गांगुली अौर वी.वी.एस. लक्ष्मण अाते हैं, अपनी जिम्मेवारी से तुरंत हट जाना चाहिए. भारतीय क्रिकेट के शलाकापुरुषों की जब भी गिनती की जाएगी, उसमें इन तीनों का शुमार होगा अौर इन तीनों को भारतीय क्रिकेट ने अौर क्रिकेटप्रेमियों ने जितना नाम अौर नामा दिया है, उसका दूसरा उदाहरण खोजना मुश्किल है. खेल-जीवन की समाप्ति के तुरंत बाद भारतीय क्रिकेट की बागडोर जिस तरह इन तीनों को सौंप दी गई, विश्व क्रिकेट में ऐसा भी शायद ही हुअा होगा. इसलिए इन तीनों पर यह जिम्मेवारी थी कि वे व्यक्तियों का चयन ही नहीं करते, उन स्वस्थ परंपराअों का चयन भी करते व संरक्षण भी करते जिनसे भारतीय क्रिकेट लगातार वंचित होता रहा है. इन्हें ही देखना था कि अाईपीएल जैसी प्रतियोगिताअों ने भारतीय क्रिकेट का जितना भला किया है, उतना ही बुरा भी किया कि इसे मूल्यविहीन बाजार में ला खड़ा किया है. ऐसी स्पर्धाअों ने खिलाड़ियों को वैसे मौके दिए हैं जो बिरलों को मिलते हैं, वैसा धन दिया है जैसा वे सपनों में भी नहीं सोच सकते थे; अौर इन सबसे पैदा होने वाला वह तेवर दिया है जो नाक पर मख्खी नहीं बैठने देता है. क्रिकेट की परंपराएं नहीं दीं, संयम व सादगी की जरूरत नहीं बताई. भारत की राष्ट्रीय टीम में इनकी कीमत भी उतनी ही है जितनी किसी की बैटिंग या बोलिंग की होती है. सचिन-सौरभ-लक्ष्मण की तिकड़ी अपने खिलाड़ियों को यह बात समझाने में विफल ही नहीं रही बल्कि उसने इनके सामने हथियार डाल दिए. इस हारी हुई तिकड़ी को अब मैदान से हट जाना चाहिए.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय क्रिकेट की गाड़ी को पटरी पर लाने का काम जिस विनोद राय समिति को सौंपा गया है, अब उसे भी जवाब देना चाहिए कि बीसीसीअाई के मैदान में यह सब हो क्या रहा है ? रामचंद्र गुहा ने इस समिति से इस्तीफा दे दिया लेकिन न न्यायालय ने, न विनोद राय ने देश को बताने की जरूरत समझी कि यह क्यों हुअा. क्रिकेट तो एक संपूर्ण खेल है जिसकी अपनी परंपराएं हैं, अपनी नैतिकता है. एक वक्त राजाअों-नवाबों-धनपतियों ने इसमें घुस कर इसे बहुत पतित किया, फिर राजनीतिज्ञों ने अपने यहां की गंदगी लाकर इस मैदान में बिखेरी अौर फिर बाजार ने इसे माल में बदल दिया. बाजार के पास बेशुमार धन होता है अौर हमने उसके ताल पर उन सबको नाचते देखा कि जिनके खेल पर हम नाचते थे. इनका अंत ऐसे हुअा कि न्यायालय ने सख्ती से बागडोर संभाल ली अौर विनोद राय एंड कंपनी को सौंप दी. इस समिति को भी देश को यह बताना चाहिए कि भारतीय क्रिकेट टीम ने भीतर यह क्या हुअा अौर कैसे कोई इन नतीजे पर पहुंचा कि कुंबले का सर कलम करना चाहिए अौर विराट का सलामत रखना चाहिए ? अगर यह समिति खामोश रहती है तो सर्वोच्च न्यायालय की अक्षमता उजागर होती है. 

सवाल यह नहीं है कि विराट या कुंबले में से किसकी चलनी चाहिए; सवाल यह है कि कोच अौर कप्तान की जो लक्ष्मण-रेखा बनी हुई है उसे किसने पार किया ? जिसने यह किया हो उसे कदम वापस खींचने होंगे. कुंबले भारतीय क्रिकेट का जो श्रेष्ठ है उसके मजबूत प्रतीक हैं. खिलाड़ी के रूप में भी, प्रशासक के रूप में भी अौर खालिस इंसान के रूप में भी कुंबले जैसी ऊंचाई कम ही छू पाते हैं. विराट कोहली के बारे में ऐसा कुछ भी हम नहीं कह सकते. खिलाड़ी के रूप में वे एक असाधारण प्रतिभा हैं जिसे अभी खुद को सिद्ध करना है. अब तक उनके खेल में वह तराश नहीं है जो सचिन के पास थी; वह कला नहीं है जो लक्ष्मण के पास थी; वह धीरज नहीं है जो द्रविड के पास था अौर कप्तानी की वह साहस भरी बारीकी नहीं है जो सौरभ के पास थी. संभावनाएं उनमें सबकी की हैं. उसे सिद्धि तक पहुंचाना उनकी अपनी साधना का विषय तो है ही, भारतीय क्रिकेट के अनुशासन का भी विषय है. इसलिए कुंबले इस्तीफा दे दें क्योंकि विराट को उनसे दिक्कत थी ऐसा फैसला किस स्तर पर हुअा ? ‘हमें तो पता नहीं’- ऐसा कह कर सचिन-सौरभ-लक्ष्मण अपनी गर्दन नहीं बचा सकते अौर न विनोद राय अौर न सर्वोच्च न्यायालय ! ऐसा नहीं है कि कुंबले को हटाया नहीं जा सकता है. बीसीसीअाई उनका अनुबंध नया न करने का पूरा अधिकार रखती है. लेकिन सलाहकार समिति अनुबंध बढ़ाने की बात करती है अौर कप्तान के दवाब में उन्हें इस्तीफा देना पड़ता है, यह कैसे स्वीकार किया जाए

विभाजन एकदम साफ  है - मैदान में कप्तान ही पहला अौर अंतिम अादमी है जिसकी चलनी चाहिए; मैदान के बाहर कप्तान व कोच की जुगलबंदी है जिससे टीम को संयत व सक्रिय किया जाना है; अौर अंतत: कोच है कि जिसके प्रति कप्तान भी जवाबदेह है. अाज की स्थिति में हम देखें तो हमारे पास विराट का विकल्प है, कुंबले का नहीं है. अजिंक्य रहाणे ने धर्मशाला में विराट की जगह अत्यंत कुशल व संयत कप्तानी की थी अौर जीत कर दिखाया था. रोहित शर्मा भी जगह भर ही सकते हैं. अौर कुछ न हुअा तो अभी धोनी हमारे पास ही हैं. मतलब तत्काल कोई संकट खड़ा हो नहीं सकता है. अत: कुंबले अौर विराट के बीच यदि कोई मामला था तो विराट से बड़ी अासानी से कहा जाना चाहिए था कि साथ काम करने के रास्ते अापको खोजने हैं, क्योंकि कुंबले तो अभी हटाए जाने वाले नहीं हैं.

चैंपियंस ट्रॉफी की हार की बात करें. जब पिच अनजाना था अौर उसमें गेंदबाजों के लिए कुछ भी खास नहीं था फिर विराट ने बैटिंग क्यों नहीं ली ? फिर क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि फाइनल में पाकिस्तान जीता तो अपनी यह हार विराट के कारण हुई ? टॉस जीत कर फील्डिंग चुनना, पाकिस्तान की घबराई बल्लेबाजी को स्थिर होने का समय देना, अपने प्रभावी हो रहे तेज गेंदबाजों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर, उन्हें भोथरा बना देना, स्पिनरों का बकवास इस्तेमाल करना अौर मैच को हाथ से फिसलते देखते रहना - यह सब उस रोज हुअा. हमारा कप्तान एकदम सन्नाटे में था. उसी सपाट पिच पर पाकिस्तानी स्पिनरों ने हमें परेशान किया अौर तेज गेंदबाजों ने तो हमें उखाड़ ही फेंका. उस एक मैच में विराट लगातार तीन बार अाउट हुए ! वैसे कांटे के मुकाबले में, वैसी बुरी हालत में जिस पर सारा दारोमदार हो वैसा जिम्मेदार बल्लेबाज पहले जीवन-दान के बाद एकदम सतर्क हो जाता है, रक्षात्मक रवैया अपना लेता है, क्योंकि उसे मालूम है कि उसका जाना टीम को बिखेर देगा. लेकिन विराट जैसे चुनौती दे रहे थे कि मेरा कैच कौन ले सकता है ! मुहल्ला स्तर से भी बुरा प्रदर्शन था विराट का उस दिन ! कोई भी कोच हो, ऐसे प्रदर्शन के बाद यदि कप्तान की खिंचाई नहीं करता है, तो वह कोच बनने लायक नहीं है. हमारे यहां कप्तान होना या कप्तान बदलना ऐसा बड़ा मामला क्यों बना दिया जाता है ! प्रदर्शन के अाधार पर या खेल की जरूरत के अाधार पर कप्तान कभी भी बदला जा सकता है.  

सचिन-सौरभ-लक्ष्मण की तिकड़ी को यह कहना ही चाहिए था कि विराट कुंबले के साथ खेलने का मन भी बनाए अौर वातावरण भी या फिर हमें नया कप्तान चुनना होगा. विराट की प्रतिभा अौर उनका तेवर दोनों ही टीम अौर खिलाड़ियों के लिए अपशकुन बन सकते हैं यदि उनके बीच कोई कुंबलेनहीं रहा (  21.06.2017 ) 

Wednesday 7 June 2017

अंतिम फैसला

अंतिम फैसला



राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महेशचंद्र शर्मा ने अपने न्यायिक जीवन का अाखिरी फैसला सुना दिया ! उन्हें पूरा अधिकार था कि वे अपना अाखिरी फैसला ऐसा सुनाते कि जिससे न्यायालय को नई गरिमा मिलती या फिर अपना अाखिरी फैसला ऐसा सुनाते कि जिससे न्यायालय की गरिमा कम होती या कि हमारा पूरा न्यायतंत्र किसी अर्थहीन विवाद में उलझ जाता. उन्होंने दूसरा विकल्प चुना. उन्होंने राजस्थान की हिंगोनिया गोशाला में हुई गायों की मौत के मामले में दायर जनहित याचिका पर अपने जीवन का अाखिरी फैसला सुनाते हुए कहा कि सरकार गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करे अौर गोहत्या करने वालों को उम्रकैद की सजा का प्रावधान होना चाहिए. क्या उन्हें यह मालूम नहीं था कि इस सवाल पर देश में एकमत नहीं है अौर संविधान सभा में भी इस पर कभी एक राय नहीं बनी थी ? क्या उन्हें पता नहीं था कि लंबे विमर्श के बाद संविधान सभा ने गाय अौर पशुअों का यह पूरा मामला संविधान के नीति-निर्देशक अध्याय की धारा ४८ में डाल कर इससे छुट्टी पा ली थी ?

१९५० में हमारा संविधान स्वीकृत हुअा अौर उसके तुरंत बाद ही, १९५९ में मुहम्मद हनीफ कुरैशी का वह चर्चित मुकदमा चला जिसमें संपूर्ण गोवधबंदी के हर पक्ष की, हर तरह से पड़ताल हुई. सर्वोच्च न्यायालय ने एक सुचिंतित फैसला दिया कि गोवंश की अंधाधुंध हत्या नहीं की जा सकती है. इसके लिए सरकार को निश्चित व स्पष्ट मानक बनाने चाहिए लेकिन गो-वध पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग असंवैधानिक है. सर्वोच्च न्यायालय ने तभी इस तरफ हमारा ध्यान खींचा कि हमारे देश में मुसलमानों, ईसाइयों, अनुसूचित जातियों व जनजातियों की एक बहुत बड़ी अाबादी परंपरागत गोमांसहारी है. हम इसकी अनदेखी कर कोई निर्णय नहीं कर सकते. इस फैसले के बाद देश के राज्यों ने अपनी-अपनी तरह से अपने गोवंश की रक्षा के कायदे अादि बनाए. हर कायदे की तरह इन कायदों का भी सीमित असर हुअा लेकिन गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध किसी भी राज्य ने, कभी भी नहीं लगाया. इसके बाद भी गोभक्तों की एक जमात १९६१, १९६९ अौर १९९६ में सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह मामला लाती रही अौर हर बार न्यायालय एक ही फैसला सुनाता रहा. अंतत: न्यायालय को यह कहना पड़ा कि उसे इस बात से गहरी वेदना हुई है कि एक वर्ग-विशेष उसके फैसले को अर्थहीन बनाने की लगातार कोशिश कर रहा है. 

२००५ में ७ जजों के एक बेंच ने इसकी फिर से सुनवाई की अौर फिर कहा कि इस पर पूर्ण कानूनी बंदिश नहीं लगाई जा सकती है. क्या यह सारा अदालती इतिहास न्यायमूर्ति महेशचंद्र शर्मा को मालूम नहीं था ? अगर नहीं था तो वे हमारी न्याय व्यवस्था के इस शिखर तक कैसे पहुंचे ? अौर अगर उन्हें यह सब मालूम था तो उन्हें अपना अंतिम फैसला देते समय इसका होश होना ही चाहिए था उनकी व्यवस्था का सर्वोच्च न्यायालय बार-बार क्या कह रहा है ! अदालतों का काम सरकारों को यह बताना नहीं है कि उसे किस अादमी को राष्ट्रपिता या राष्ट्रमाता घोषित करना चाहिए, किसे राष्ट्रीय पशु या पंछी बनाना चाहिए. अदालतें तो सरकारों को या देश को यह बताने का काम करती हैं कि संविधान ने उनके लिए क्या अौर कहां लक्ष्मण-रेखा खींची है कि जिसे पार करने की अनुमति किसी को नहीं है. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय का हर फैसला निचली अदालतों के लिए नजीर बनता जाता है अौर उन्हें उस लक्ष्मण-रेखा को पार नहीं करना चाहिए. महेशचंद्र शर्मा ने इस बुनियादी अनुशासन का पालन नहीं कर देश की कुसेवा ही की है. 

गाय की रक्षा हमारी कृषि संस्कृति वाले देश के लिए अस्तित्व-रक्षा का सवाल है. लेकिन हमें एक क्षण को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि कृषि संस्कृति वाला हमारा यह देश लोकतांत्रिक नागरिकों का देश है. इसलिए यहां वही चलेगा, वही चलना चाहिए कि जिसके लिए अाम सहमति बन गई हो. जब तक अाम सहमति नहीं बनती है, तब तक हर तरह का नुकसान झेलते हुए भी हमें अाम सहमति बनाने का अपना काम जारी रखना होगा. इसके बगैर किसी भी तरह का संसदीय या सरकारी या अदालती अादेश सूखी रूई में चिनगारी फेंकने के बराबर होगा. इसलिए किसी जमात या किसी मतवाद या किसी धार्मिक संगठन से डर कर नहीं बल्कि लोकतंत्र की मर्यादा का पालन करते हुए हमें सामाजिक सहमति बनाने का काम करना होगा. इसलिए महात्मा गांधी ने कहा था कि मैं गाय की रक्षा को इतना जरूरी मानता हूं कि उसके लिए अपनी जान दे सकता हूं लेकिन उसके लिए किसी इंसान की जान लेने की अनुमति नहीं दे सकता. अाजादी के बाद राजनीतिक चालबाजी से दूर, सामाजिक मंच से गोरक्षा के लिए किसी ने सबसे सशक्त अावाज उठाई अौर उसे सामाजिक  विश्वास व जन अांदोलन में बदलने की भरसक कोशिश की तो वे थे अाचार्य विनोबा भावे ! शुद्धतम मन से अौर शुद्धतर प्रक्रिया से उन्होंने इस जरूरी कदम की तरफ सरकार व समाज का ध्यान खींचा अौर एक बार तो जान की बाजी भी लगा दी. लेकिन वे भी भारतीय सामाजिक चेतना को उस स्तर तक नहीं ले जा सके कि जहां पहुंच कर गो-रक्षा स्वत: सिद्ध हो जाती. 

हमें यह देखना अौर समझना ही होगा कि मोदी सरकार ने भी अौर इससे पहले की तमाम सरकारों ने भी जिसे विकास समझा अौर जिसे समाज के ऊपर लाद दिया, क्या उसमें गो-वंश के लिए कोई जगह बनती अौर बचती है ? गाय एक प्राणीमात्र नहीं है, वह एक खास तरह की सामाजिक व्यवस्था का केंद्र-बिंदु है. यह सरकार उस सामाजिक व्यवस्था को न तो समझती है अौर न उसमें विश्वास रखती है. यह समाज को जिस तरफ ले जा रही है वहां गो-वंश की नहीं, गो-वध की ही जगह है. वहां गाय जीने का नहीं, पैसा कमाने का साधन भर है. समाज इतना सयाना होता ही है कि वह कोई बोझ लाद कर नहीं चलता है. उसके लिए जो उपयोगी नहीं है, वह रक्षणीय नहीं है -  चाहे भाषा हो चाहे गाय ! अाप बहुत हैरान मत होइएगा कि जिस दिशा में हम अपना लोकतंत्र ले जा रहे हैं उसमें एक वक्त अाएगा ही कि जब समाज लोकतंत्र को अस्वीकार कर देगा. अाखिर गन्ने का सारा रस निचोड़ लेने के बाद, गन्ने के रस का धंधा करने वाला भी उसकी सिट्ठी फेंक ही तो देता है न ! पिछले सालों में हमने अपने लोकतंत्र की तमाम संभावनाअों को चूस कर, उसे एक सारहीन, सत्वहीन मशीनी व्यवस्था में बदल दिया है. इस सारहीन सिट्ठी में से समाज को कुछ मिल ही नहीं पा रहा है. ऐसा समाज गाय को ढो कर क्या करेगा ? इसलिए गो-वंश के व्यापार में सभी लगे हैं - हिंदू भी, मुसलमान भी ! इन्हें कानून से अाप मजबूर नहीं कर सकेंगे. हर बार हमारा संविधान हमें पीछे हटने पर मजबूर कर देगा. फिर रास्ता क्या है ? दो ही रास्ते हैं : पहला कि हम अपना रास्ता बदलें;  दूसरा कि गो-वंश, कृषि संस्कृति अादि का बोझ हम उतार फेंके अौर उस अंधी दौड़ में शामिल हो जाएं जिसमें हम बड़े कमजोर खिलाड़ी के रूप में शामिल तो हैं लेकिन किसी गिनती में नहीं अाते ! यह फैसला है जो करना है. इसमें कायरता भी नहीं चलेगी, चालाकी भी नहीं. भारत को अौर दुनिया को बचाना है तो हमें यह अंतिम फैसला करना ही होगा. कृषि-संस्कृति ही वह मानवीय, वैज्ञानिक संस्कृति है जिसका अाधुनिकतम विकास करना है असली वैश्विक चुनौती है. जिनके परंपरागत भोजन में गो-मांस अादि शामिल हैं, उन्हें भी समझना होगा कि अाज की दुनिया में यह परंपरा मानव-विरोधी व पर्यावरण का स्थायी विनाश करने वाली है. यह वैसी ही कालवाह्य परंपरा है जैसे सती-प्रथा, बाल-विवाह, छूअाछूत, तीन तलाक अादि-अादि हैं. जैसे इनके खिलाफ समाज का मन तैयार किया है हमने वैसे ही दूसरी मानवद्रोही परंपराअों के खिलाफ भी समाज को तैयार करना है. अाप ऐसा करेंगे तो अाप गाय के साथ खड़े हैं; ऐसा नहीं करेंगे तो गोवध करने वालों के साथ खड़े हैं भले अापका धर्म कुछ भी हो.( 2.06.2017)