Sunday 19 September 2021

एक कायर दुनिया का शर्मनाक चेहरा

ऐसी दुनिया कभी थी कि नहीं जहां न्याय होशांति हो और नागरिकों का सम्मान होयह तो कहना मुश्किल है लेकिन जैसी दुनिया आज हैवैसी दुनिया कभी होनी नहीं चाहिएयह तो निश्चित ही कहा जा सकता हैकहा जाना चाहिए. आज हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं कि जिसमें सत्ताओं ने आपस में दुरभिसंधि कर ली है कि उन्हें जनता की न सुननी हैन उसकी तरफ देखना है. जिसके कंधों पर उनकी सत्ता की कुर्सी टिकी हैउस पर किसी की आंख नहीं टिकी है. यह हमारे इतिहास का बेहद कायर और क्रूर दौर है. इतने सारे देशों मेंइतने सारे लोगइतनी सारी सड़कों पर कब उतरे हुए थे मुझे पता नहींलेकिन मुझे यह भी पता नहीं है कि कब इतने सारे लोगों कीइतनी सारी व्यथा और इतने सारे हाहाकार कोइतने सारे शासकों व इतनी सारी सरकारों ने अपने-अपने स्वार्थों के चश्मे से देख करउसकी अनदेखीअनसुनी की थी.      


   लेकिन हमारे पास भी तो एक चश्मा होना चाहिए कि जो सत्ता को नहींसमाज को देखता हो ! इतिहास में कभी भारत का हिस्सा रहे अफगानिस्तान को हमें किसी दूसरे चश्मे से नहींअफगानी नागरिकों के चश्मे से ही देखना चाहिए— उन नागरिकों के चश्मे से जिससे हमने कभी सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान की छवि देखी थी. हमें म्यांनमार की तरफ भी उसी चश्मे से देखना चाहिए जिस चश्मे से कभी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने उसे देखा था और जापान की मदद सेअंग्रेजों को हराते हुए भारत की सीमा तक आ पहुंचे थे. इसी चश्मे से उसे शतरचंद्र चटर्जी ने देखा था और संसार का साहित्य-संसार धनवान हुआ था. म्यांनमार तब भारत का आंगन हुआ करता था. आज वह अफगानिस्तान भीऔर वह म्यांनमार भी घायल व ध्वस्त पड़ा है और सारी महाशक्तियां व उनके पुछल्ले अपने स्वार्थों का लबादा ढ़ेलाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए मुंह सीए पड़े हैं. नहींयह भी सही नहीं कह रहा हूं मैं. सारी दुनिया की सरकारेंअधिनायक तालिबानी बंदूक से दोस्ती कर अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं.  


   यह खेल नया नहीं है.  न्याय व समस्याअओं का मानवीय पहलू कभी भी महाशक्तियों की चिंता का विषय नहीं रहा है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तथाकथित मित्रों राष्ट्रों ने पराजित राष्ट्रों के साथ जैसा क्रूर व चालाक व्यवहार किया थावह भूला नहीं जा सकता है. अरबों के सीने पर इसराइल किसी नासूर-सा बसा दिया गया और कितने ही देशों का ऐसा विभाजन कर दिया गया कि वे इतिहास की धुंध में कहीं खो ही गए. महाशक्तियों ने संसार को अपने स्वार्थगाह में बदल लिया. अफगानिस्तान के बहादुर व शांतिप्रिय नागरिकों के साथ भी महाशक्तियों ने वैसा ही कायरतापूर्णबर्बर व्यवहार किया - सबसे पहले वैभव के भूखे  ब्रितानी साम्राज्यवाद नेफिर साम्यवाद की खाल ढ़ कर आए रूसी खेमे ने और फिर लोकतंत्र की नकाब पहने अमरीकी खेमे ने. यदि अंतरराष्ट्रीय शर्म जैसी कोई संकल्पना बची है तो आज का अफगानिस्तान दुनिया के हर लोकतांत्रिक नागरिक के लिए शर्म का विषय है. 


   रूसी चंगुल से निकाल कर अफगानिस्तान को अपनी मुट्ठी में करने की चालों-कुचालों के बीच अमरीका ने आतंकवादियों की वह फौज खड़ी की जिसे तालिबान या अलकायदा या अल-जवाहिरी या ऐसे ही कई नामों से हम जानते हैं. अमरीकी राष्ट्रपति बार-बार इसका हिसाब देते हैं कि अफगानिस्तान पर किस तरह अमरीका ने अरबों-अरब रुपये खर्च किएहथियार दिएअफगानियों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया. वे कहना यह चाहते हैं कि अफगानियों में अपनी आजादी बचाने का जज्बा ही नहीं हैतो अमरीका कब तक उनको अपनी पीठ पर ढोये तो कोई पूछे बाइडन साहब से कि अमरीका जब जनमा था तब अफगानिस्तान था या नहीं अगर अफगानी अमरीका के जन्म से पहले से धरती पर थे तो यही बताता है कि वे अपना देश बनाते भी थे और चलाते भी थे. अमरीकी अब तक यह नहीं समझ सके हैं कि उन्मादी नारोंभाड़े के हथियारों और उधारी की देशभक्ति से देश न बनते हैंन चलते हैं. अगर यह सच नहीं है तो कोई यह तो बताए कि अमरीका को अफगानिस्तान छोड़ना ही क्यों पड़ा अमरीका कलिंग युद्ध के बाद का सम्राट अशोक तो है नहीं ! बहादुर अफगानियों को गुलाम बनाए रखने की तमाम चालों के विफल होने के बाद अमरीकी उसे खोखला व बेहाल छोड़ कर चले गएक्योंकि उनके लिए वहां टिकना संभव नहीं रहा. आर्थिक संकट से उनकी अपनी कमर टूटी जा रही हैऔर अफगानिस्तान को दबोच कर रखने का कोई नैतिक आधार उनके पास न थान है. 


   अमरीका किसी भी हाल मेंअफगानिस्तान का कैसा भी हाल बना कर वहां से निकला तो यह सौदा भी सस्ता ही होता लेकिन अफगानी नागरिकों का दुर्भाग्य ऐसा है कि अब उनके ही लोगवैसी ही हैवानियत के साथउन्हीं हथियारों के बल पर उसके सीने पर सवार हो गए हैं. तालिबान किसी जमात का नहींउस मानसिकता का नाम है जो मानती है कि आत्मसम्मान के साथ आजाद रहने के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन हिंसा के बल पर किया जा सकता है. इस अर्थ में देखें तो महाशक्तियों का चेहरा तालिबानियों से एकदम मिलता है. सारी दुनिया की सरकारें कह रही हैं कि अफगानिस्तान से हम अपने एक-एक नागरिक को सुरक्षित निकाल लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.  लेकिन कोई यह नहीं बोल रहा है कि अफगानिस्तान के नागरिकों का क्या उनकी सेवा व उनके विकास के नाम पर ये सभी वहां संसाधनों की लूट करने में लगे थे और आज सभी दुम दबा कर भागने में लगे हैं. हमें अफगानिस्तान से निकल भागने में लगे अफगानियों की तस्वीरें खूब दिखाई जाती हैं लेकिन अपनी कायरता की तस्वीर छुपा ली जाती है. लेकिन इतिहास गवाह है कि चाहे ब्रितानी हो कि रूसी कि अमरीकी कि हिंदुस्तानीऐसी ताकतें न कभी स्थायी रह सकी हैंन रह सकेंगी.


   म्यांनमार में तो फौजी तानाशाही से लड़ कर जीते लोकतंत्र का शासन था न ! शू ची न महाशक्तियों की कठपुतली थींन आतंकवादियों की. उनकी अपनी कमजोरियां थीं जरूर लेकिन म्यांनमार की जनता नेफौजी तिकड़मों के बावजूदउन्हें अपार बहुमत से दो-दो बार चुना था. भरी दोपहरी में उनकी सरकार का गला घोंट कर फौज ने सत्ता हथिया ली. इसके बाद की कहानी जैसी अफगानिस्तान में है वैसी ही म्यांनमार में है. वहां तालिबान के खिलाफतो यहां फौजी गुंडागर्दी के खिलाफ आम लोग - महिलाएं-बच्चे-जवान- सड़कों पर उतर आए और अपना मुखर प्रतिरोध दर्ज कराया. दुनिया के हुक्मरान देखते रहेसंयुक्त राष्ट्रसंघ देखता रहा और वे सभी तिल-तिल कर मारे जाते रहेमारे जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ आज यथास्थिति का संरक्षण करते हुए अपना अस्तित्व बचाने में लगा एक सफेद हाथी भर रह गया है. उसका अब कोई सामयिक संदर्भ बचा नहीं है. आज विश्व रंगमंच पर कोई जयप्रकाश है नहीं कि जो अपनी आत्मा का पूरा बल लगा कर यह कहता फिरे कि लोकतंत्र किसी भी देश का आंतरिक मामला नहीं होता है.      


   म्यांनमार व अफगानिस्तान की इस करुण-गाथा में भारत की सरकारों की भूमिका किसी मजबूत व न्यायप्रिय पड़ोसी की नहीं रही है. राष्ट्रहित के नाम पर हम समय-समय पर म्यांनमार और अफगानिस्तान को लूटने वाली ताकतों का ही साथ देते रहे हैं. हम यह भूल ही गए हैं कि ऐसी कोई परिस्थिति हो नहीं सकती है जिसमें किसी दूसरे का अहित हमारा राष्ट्रहित हो.  


   शायद समय भी लगे और अनगिनत कुर्बानियां भी देनी पड़ें लेकिन अफगानिस्तान की बहादुर जनता जल्दी ही अपने लोगों के इस वहशीपन पर काबू करेगीअपनी स्त्रियों की स्वतंत्रता व समानता तथा बच्चों की सुरक्षा की पक्की व स्थाई व्यवस्था बहाल करेगी. सू ची फौजी चंगुल से छूटें या नहींफौजी चंगुल टूटेगा जरूर ! हम खूब जानते हैं कि अपने पड़ोस में स्वतंत्रसमतापूर्ण और खुशहाल म्यांनमार व अफगानिस्तान हम देखेंगे जरूर लेकिन हम यह नहीं जानते कि इतिहास हमें किस निगाह से देखेगा.  

( 16.09.2021)