Wednesday 7 July 2021

मी लार्ड, हम कुछ कहेंगे

     स्टेन स्वामी की मृत्यु के बाद कुछ भी लिखने-कहने की फूहड़ता से बचने की बहुत कोशिश की मैंने. मुझे लगता रहा कि यह अवसर ऐसा है कि हम आवाज ही नहींसांस भी बंद कर लें तो बेहतर ! लेकिन घुटन ऐसी है कि वैसा कर के भी हम अपने कायर व क्रूर अस्तित्व से बच नहीं पाएंगे तो कुछ बोलना या पूछना जरूरी हो जाता है. और पूछना आपसे है रमण साहब ! 

            मेरे पूछने में थोड़ी तल्खी और बहुत सारी बेबाकी हो तो मैं आशा करता हूं कि आप इसे अदालत की अवमानना नहींलोकतंत्र में लोक की अवमानना की अपमानजनक पीड़ा की तरह समझेंगेक्योंकि इस अदालत की अवमानना भी क्या करना !!  और यह भी शुरू में ही कह दूं कि आपसे यह सब कह रहा हूं तो इसलिए नहीं कि हमारी तथाकथित न्यायपालिका के सबसे बड़े पालक हैं आप ! यह बहुत पीड़ाजनक है और यह कहने में मुझे सचबहुत पीड़ा हो भी रही है और ग्लानि भी लेकिन यही सच है कि अपनी न्यायपालिका के सबसे बड़े पालकों से इधर के वर्षों में कुछ कहने या सुनने की सार्थकता बची ही नहीं थी. लेकिन गांधी ने हमें सिखाया कि एक चीज होती है अंतरात्माऔर वह जब छुई जा सके तब छूने की कोशिश करनी चाहिए. मैं वही कोशिश कर रहा हूं और इसके कारण भी आप ही हैं. अहमदाबाद में आयोजित जस्टिस पी.डी. देसाई मेमोरियल ट्रस्ट के व्याख्यान में अभी-अभी आपने कुछ ऐसी नायाब बातें कहीं कि जिनसे लगा कि कहींकोई अंतरात्मा है जो धड़क रही है. मैं उसी धड़कन के साथ जुड़ने के लिए यह लिख रहा हूं. 


            मी लॉर्ड, 84 साल का एक थरथराता-कांपता बूढ़ाजो सुन भी नहीं पाता थाकह भी नहीं पाता थाचलने-खाने-पीने में भी जिसकी तकलीफ नंगी आंखों से दिखाई पड़ती थी वह न्यापालिका के दरवाजे पर खड़ा होकर इतना ही तो मांग रहा था कि उसे अपने घर मेंअपने लोगों के बीच मरने की इजाजत दे दी जाए ! उसने कोई अपराध नहीं किया थाराज्य ने उसे अपराधी माना था. इस आदमी पर राज्य का आरोप था कि यह राज्य का तख्ता पलटने का षड्यंत्र रच रहा हैकि राज्य-प्रमुख की हत्या की दुरभिसंधि में लगा है. इस आरोप के बारे में हम तो क्या कह सकते हैंकहना तो आपको था. आपने नहीं कहा. हो सकता है कि न्याय की नई परिभाषा में यह अधिकार भी न्यायपालिका के पास आ गया हो कि न्याय करना कि न करना उसका विशेषाधिकार है. हमें तो अपनी प्राइमरी स्कूल की किताब में पढ़ाया गया थाऔर हमें उसे कंठस्थ करने को कहा गया था कि न्याय में देरी सबसे बड़ा अन्याय है. इसलिए स्टेन स्वामी के अपराधी होनेन होने की बाबत हम कुछ नहीं कहते हैं. लेकिन जानना यह चाहते हैं कि जीवन की अंतिम सीढ़ी पर कांपते-थरथराते एक नागरिक की अंतिम इच्छा का सम्मान करनाक्या न्यायपालिका की मनुष्यता से कोई रिश्ता रखता है फांसी चढ़ते अपराधी से भी उसकी आखिरी इच्छा पूछना और यथासंभव उसे पूरा करना न्याय के मानवीय सरोकार को बताता है. अगर ऐसा है तो स्टेन स्वामी के मामले में अपराधी न्यायपालिका है. मी लार्डआपका तो काम ही अपराध की सजा देना हैतो इसकी क्या सजा देंगे आप अपनी न्यायपालिका को 


            आपने अपने व्याख्यान में कहा कि कुछेक सालों में शासकों को बदलना इस बात की गारंटी नहीं है कि समाज सत्ता के आतंक या जुर्म से मुक्त हो जाएगा. आपकी इस बात से अपनी छोटी समझ में यह बात आई कि सत्ता जुर्म भी करती है और आतंक भी फैलाती है. तो फिर अदालत में बार-बार यह कहते स्टेन स्वामी की बात आपकी न्यायपालिका ने क्यों नहीं सुनी कि वे न तो कभी भीमा कोरेगांव गए हैंन कभी उन सामग्रियों को देखा-पढ़ा है कि जिसे रखने-प्रचारित करने का साक्ष्यविहीन मनमाना आरोप उन पर लगाया जा रहा है मी लॉर्डकोई एक ही बात सही हो सकती है - या तो आपने सत्ता के आतंक व जुर्म की जो बात कहीवहया आतंक व जुर्म से जो सत्ता चलती है वह ! स्टेन स्वामी तो अपना फैसला सुना कर चले गएआपका फैसला सुनना बाकी है. 


            आपने अपने व्याख्यान में यह बड़े मार्के की बात कही कि आजादी के बाद से हुए 17 आम चुनावों में हम नागरिकों ने अपना संवैधानिक दायित्व खासी कुशलता से निभाया है. फिर आप ही कहते हैं कि अब बारी उनकी है जो राज्य के अलग-अलग अवयवों का संचालन-नियमन करते हैं कि वे बताएं कि उन्होंने अपना संवैधानिक दायित्व कितना पूरा किया. तो मैं आपसे पूछता हूं कि न्यायपालिका ने अपनी भूमिका का कितना व कैसा पालन किया न्यायपालिका नाम का यह हाथी हमने तो इसी उम्मीद में बनाया और पाला कि यह हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों की पहरेदारी करेगा. हमने तो आपका काम एकदम आसान बनाने के लिए यहां तक किया कि एक किताब लिख कर आपके हाथ में धर दी कि यह संविधान है जिसका पालन करना और करवाना आपका काम है. तो फिर मैं पूछता हूं कि नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर पाबंदियां डालने वाले इतने सारे कानून बनते कैसे गए ?  


            हमारा संविधान कहता है कि संसद कानून बनाने वाली एकमात्र संस्था है लेकिन वही संविधान यह भी कहता है कि कोई भी कानून संविधानसम्मत है या नहीं यह कहने वाली एकमात्र संस्था न्यायपालिका है. आतंक व जुर्म की ताकत से राज करने वाले कानून संसद बना सकती है लेकिन उसे न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है. फिर ऊपा जैसे कानून कैसे बन गए और न्यायपालिका ने उसे पचा भी लिया जो इसी अवधारणा पर चलती हैं कि इसे न्यायपालिका न जांच सकती हैन निरस्त कर सकती है जो न्यायपालिका को अपना संवैधानिक दायित्व पूरा करने में असमर्थ बना दे ऐसा कानून संविधानसम्मत कैसे हो सकता है भीमा कोरेगांव मामले में जिन्हें पकड़ा गया हैउन सब पर मुकदमा चले और उन्हें कानूनसम्मत सजा होइस पर किसी को एतराज कैसे हो सकता है ?  लेकिन बिना मुकदमे के उनको जेलों में रखा जाए और हमारी न्यायपालिका वर्षों चुप रहे यह किस तर्क से समझा जाए ?  फिर तो हमें कहना पड़ेगा कि संविधान के रक्षक संविधान पढ़ने की पाठशाला में गए ही नहीं ! 


            हजारों-हजार लोग ऐसे हैं जो जेलों की सलाखों में बिना अपराध व मुकदमे के बंद रखे गए हैं. जेलें अपराधियों के लिए बनाई गई थींन कि राजनीतिक विरोधियों व असहमत लोगों का गला घोंटने के लिए. जेलों का गलत इस्तेमाल न होयह देखना भी न्यायपालिका का ही काम है. जिस देश की जेलों में जितने ज्यादा लोग बंद होंगेवह सरकार व वह न्यायपालिका उतनी ही विफल मानी जाएगी.  और सरकारी एजेंसियां लंबे समय तक लोगों को जेल में सड़ा कर रखती हैंजिंदा लाश बना देती हैं और फिर कहीं अदालत कहती है कि कोई भी पक्का सबूत पेश नहीं किया गया इसलिए इन्हें रिहा किया जाता है. यह अपराध किसका है उनका तो नहीं ही जो रिहा हुए हैं. तो आपकी न्यायपालिका इस अपराध की सजा इन एजेंसियों को और इनके आकाओं को क्यों नहीं देती नागरिकों के प्रति यह संवैधानिक जिम्मेवारी न्यायपालिका की है या नहीं दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभी-अभी कहा है कि सरकार अदालत में झूठ बोलती है. अदालत में खड़े हो कर सरकार झूठ बोले तो यह दो संवैधानिक व्यवस्थाओं का एक साथ अपमान हैउसके साथ धोखाधड़ी है. इसकी सजा क्या है बस इतना कि कह देना कि आप झूठ बोलते हैं फिर झूठी गवाहीझूठा मुकदमा सबकी छूट होनी चाहिए न ?  ऐसी आपाधापी ही यदि लोकतंत्र की किस्मत में बदी है तो फिर संविधान का और संविधान द्वारा बनाई इन व्यवस्थाओं का बोझ हम क्यों ढोएं 


            आपने उस व्याख्यान में बहुत खूब कहा कि कानून जनता के लिए हैं इसलिए वे सरल होने चाहिए और उनमें किसी तरह की गोपनीयता नहीं होनी चाहिए. मी लॉर्डयह हम कहें तो आपसे कहेंगेआप कहते हैं तो किससे कहते हैं आपको ही तो यह करना है कि संविधान की आत्मा को कुचलने वाला कोई भी कानून प्रभावी न हो. गांधी ने ऐसा सवाल कितनी ही बारकितनी ही अदालतों में पूछा था. लेकिन तब हम गुलामों को जवाब कौन देता लेकिन अब 


            अब तो एक ही सवाल है : जो न्यायपालिका सरकार की कृपादृष्टि के लिए तरसती होवह न्यायपालिका रह जाती है क्या सवाल तो और भी हैंजवाब आपकी तरफ से आना है. 


( 06.07.2021)

                                                                                                      

यह हमारी नहीं, पूंजी और सत्ता की लड़ाई है

अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे ! इस कहावत का सही मतलब जानना हो तो आपको केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद का वह वक्तव्य पढ़ना चाहिए जो ट्विटर के रवैयेसे परेशान हो कर उन्होंने इसी शुक्रवार को देशहित में जारी किया है. उन्होंने कहा : “ मित्रोएक बड़ा ही अजीबोगरीब वाकया आज हुआ.  ट्विटर ने करीब एक घंटे तक मुझेमेरा एकाउंट खोलने ही नहीं दिया और यह आरोप मढ़ा कि मेरे किसी पोस्ट से अमरीका के डिजीटल मीलिनियम कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन हुआ है. बाद में उन्होंने मेरेएकाउंट पर लगी बंदिश हटा ली.”  

 

            बंदिश हटाते हुए ट्विटर ने उन्हें सावधान भी किया : “ अब आपका एकाउंट इस्तेमाल के लिए उपलब्ध है. आप जान लें कि आपके एकाउंट के बारे में ऐसी कोईआपत्ति फिर से आई तो हम इसे फिर से बंद कर सकते हैं और संभव है कि हम इसे रद्द भी कर दें. इससे बचने के लिए कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन करने वाला कोईपोस्ट आप न करें और यदि ऐसा कोई पोस्ट आपके एकाउंट पर हो जिसे जारी करने के आप अधिकारी नहीं हैंतो उसे अविलंब हटा दें.” 

    

    मंत्रीजी का एकाउंट जब जीवित हो गया तब उन्होंने इस पर कड़ी आपत्ति की कि ट्विटर ने उनके साथ जो कियावह इसी 20 मई 2021 को भारत सरकार द्वाराबनाए आइटी रूल 4(8) का खुल्लखुल्ला उल्लंघन है. इस कानून के मुताबिक मेरा एकाउंट बंद करने से पहले उन्हें मुझे इसकी सूचना देनी चाहिए थी. यह कहने के बादबहादुर मंत्री ने वह भी कहा जो इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने के किए उन्हें कहना चाहिए था : “ स्पष्ट है कि ट्विटर की कठोरता भरी मनमानी को उजागर करने वाले मेरेबयानों तथा टीवी चैनलों को दिए गए मेरे बेहद प्रभावी इंटरव्यूअों ने इनको बेहाल कर दिया है. इससे यह भी साफ हो गया है कि आखिर क्यों ट्विटर हमारे निर्देशों कापालन करने से इंकार कर रहा था.  वह हमारे निर्देशों को मान कर चलता तो वह किसी भी व्यक्ति का एकाउंटजो उसके एजेंडा को मानने को तैयार नहीं हैइस तरहमनमाने तरीके से बंद नहीं कर सकता था.” फिर मंत्रीजी ने उसमें राष्ट्रवादी छौंक भी लगाई : “ ऐसा कोई भी माध्यम चाहे जो कर लेउसे हमारे नये गाइडलाइन का पालनकरना ही होगा. हम इस बारे में कोई समझौता नहीं कर सकते.” 

 

    यह वह तस्वीर है जो सरकार के आइटी मंत्री ने बनाई है. ट्विटर ने जो तस्वीर बनाई हैवह मंत्रीजी की तस्वीर को हास्यास्पद बना देती है. उसने बताया कि मंत्रीजीका एकाउंट इसलिए रोका गया कि उनके 16 दिसंबर 2017 के एक पोस्ट ने कॉपीराइट का उल्लंघन किया है. मंत्रीजी जिसे सिद्धांत का मामला बनाना चाहते थेट्विटर नेउसे सामान्य अपराध का मामला बता दिया. भारत सरकार की बनाई गाइडलाइन के पालन के बारे में ट्विटर का अब तक का रवैया ऐसा रहा है कि वह इसे जैसे-का-तैसेकबूल करने को राजी नहीं है. वह कह रहा है कि दुनिया भर के लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति हम प्रतिबद्ध हैं और इस मामले में हम किसी सरकार से कोईभी समझौता नहीं कर सकते.

 

    कितना अजीब है कि दोनों ही हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं और हम हैं कि हर कहींहर तरह से चुप कराए जा रहे हैंया बोलनेके अपराध की सजा भुगत रहे हैं. मंत्रीजी ने तब तलवार निकाल ली जब उनका अपना एकाउंट मात्र घंटे भर के लिए बंद कर दिया गया लेकिन इस सरकार में ऐसेरविशंकरों की कमी नहीं है जिन्होंने तब खुशी में तालियां बजाई थीं जब कश्मीर में लगातार 555 दिनों के लिए इंटरनेट ही बंद कर दिया गया था. दुनिया की सबसे लंबीइंटरनेट बंदी ! तब किसी को कश्मीर की अभिव्यक्ति का गला घोंटना क्यों गलत नहीं लगा था पिछले 6 से ज्यादा महीनों से चल रहे किसान आंदोलन को तोड़ करउसे घुटनों के बल लाने के लिए जितने अलोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया और किया जा रहा हैउसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किसी को दिखाईक्यों नहीं देता है वहां भी इंटरनेट बंद ही किया गया था न ! यही नहींपिछले दिनों सरकार ने निर्देश दे कर ट्विटर से कई एकाउंट बंद करवाए हैं और नये आइटी नियमका सारा जोर इस पर है कि ट्विटर तथा ऐसे सभी माध्यम सरकार को उन सबकी सूचनाएं मुहैया कराएं जिन्हें सरकार अपने लिए असुविधाजनक मानती है. यह सामान्यचलन बना लिया गया है कि जहां भी सरकार कठघरे में होती हैवह सबसे पहले वहां का इंटरनेट बंद कर देती है. इंटरनेट बंद करना आज समाज के लिए वैसा ही है जैसेइंसान के लिए ऑक्सीजन बंद करना ! 

 

    नहींयह सारी लड़ाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए नहीं हो रही है. सच कुछ और ही हैऔर वह सचसामने के इस सच से कहीं ज्यादा भयावह है. सरकारऔर बाजार का मुकाबला चल रहा है. हाइटेक वह नया हथियार है जिससे बाजार ने सत्ता को चुनौती ही नहीं दी है बल्कि उसे किसी हद तक झुका भी लिया है.  

 

            जितने डिजीटल प्लेटफॉर्म हैं दुनिया में वे सब पूंजी— बड़ी-से-बड़ी पूंजी— की ताकत पर खड़े हैं. छोटे-तो-छोटेबड़े-बड़े मुल्कों की आज हिम्मत नहीं है कि इनप्लेटफॉर्मों को  सीधी चुनौती दे सकें. इसलिए हाइटेक की मनमानी जारी है. उसकी आजादी कीअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी ही परिभाषा है जो उनकेव्यापारिक हितों से जुड़ी है. वे लाखों-करोड़ों लोगजो रोजाना इन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल संवादमनोरंजन तथा व्यापार के लिए करते हैं वे ही इनकी असली ताकत हैं. लेकिन ये जानते हैं कि यह ताकत पलट कर वार भी कर सकती हैप्रतिद्वंद्वी ताकतों से हाथ भी मिला सकती है. इसलिए ये अपने प्लेटफॉर्म पर आए लोगों को गुलामबना कर रखना चाहती हैं. इन्होंने मनोरंजन को नये जमाने की अफीम बना लिया है जिसमें सेक्सपोर्ननग्नताबाल यौन आदि सबका तड़का लगाया जाता है. इनकीअंधी कोशिश है कि लोगों का इतना पतन कर दिया जाए कि वे आवाज उठाने या इंकार करने की स्थिति में न रहें. 

 

            यही काम तो सरकारें भी करती हैं उन लोगों की मदद से जिनका लाखों-लाख वोट उन्हें मिला होता है.  सरकारों को भी लोग चाहिए लेकिन वे ही और उतने हीलोग चाहिए जो उनकी मुट्ठी में रहें. अब तो लोग भी नहींसीधा भक्त चाहिए !  पूंजी और सत्तादोनों का  चरित्र एक-सा होता है कि सब कुछ अपनी ही मुट्ठी में रहे. इनदोनों को किसी भी स्तर परकिसी भी तरह की असहमति कबूल नहीं होती है. फेसबुकट्विटरइंस्टाग्रामई-मेल जैसे सारे प्लेटफॉर्म पूंजी की शक्ति पर इतराते हैं औरसत्ताअों को आंख दिखाते हैं. सत्ता को अपना ऐसा प्रतिद्वंद्वी कबूल नहीं. वह इन्हें अपनी मुट्ठी में करना चाहती है. 

 

            पूंजी और सत्ता के बीच की यह रस्साकशी है जिसका जनता सेउसकी आजादी या उसके लोकतांत्रिक अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है. इन दोनों कीरस्साकशी से समाज कैस बचे और अपना रास्ता निकालेयह इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती है. भारत सरकार भी ऐसा दिखाने की कोशिश कर रही है कि जैसे वह इनहाइटेक कंपनियों से जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को बचाने का संघर्ष कर रही है. लेकिन यह सफेद झूठ है. प्रिंट मीडियाटीवी प्लेटफॉर्म आदि को जेब में रखने केबाद सरकारें अब इन तथाकथित सोशल नेटवर्कों को भी अपनी जेब में करना चाहती है. हमें पूंजी व पावर दोनों की मुट्ठी से बाहर निकलना है. हमारा संविधान जिसलोकसत्ता की बात करता हैउसका सही अर्थों में पालन तभी संभव है जब सत्ता और पूंजी का सही अर्थों में विकेंद्रीकरण हो. न सत्ता यह चाहती हैन पूंजी लेकिन हमारीमुक्ति का यही एकमात्र रास्ता है. ( 26.06.2021)  

 

जी-7 का तमाशा : कंगाल मालिकों की तफरीह

अपने को दुनिया का मालिक समझने वाले जी-7 के देशों का शिखर सम्मेलन इंग्लैंड के कॉर्नवाल में कब शुरू हुआ और कब खत्मकुछ पता चला क्या ?  हम दुनिया वालों को तो पता नहीं चलाउनको जरूर पता चला जो दुनिया का मालिक होने का दावा करते हैं : अमरीकाकनाडाफ्रांसजर्मनीइटलीजापान और इंग्लैंड. इन मालिकों के हत्थे दुनिया की जनसंख्या का 10% और दुनिया की संपत्ति का 40% आता है. अब यहीं पर एक सवाल पूछना बनता है कि जो 10% लोग हमारे 40% संसाधनों पर कब्जा किए बैठे हैंउनकी मालिकी कैसी होगी और वे हमारी कितनी और कैसी फिक्र करेंगे ?  


   दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या का हिसाब करें कि सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था का तो इस सम्मेलन में चीन की अनुपस्थिति का कोई तर्क नहीं बनता है. हम अपने बारे में कहें तो हम भी जनसंख्या व अर्थ-व्यवस्था के लिहाज से इस मजलिस में शामिल होने के पूर्ण अधिकारी हैं. लेकिन आकाओं ने अभी हमारी औकात इतनी ही आतंकी कि हमें इस बार आस्ट्रेलिया व दक्षिणी कोरिया के साथ अपनी खिड़की से झांकने की अनुमति दे दी.  हमारा गोदी-मीडिया भले गा रहा है कि हमारे लिए लाल कालीन बिछाई गई लेकिन यह वह दरिद्र मानसिकता है जिसमें आत्म-सम्मान की कमी और आत्म-प्रचार की भूख छिपी है. 


   अगर जी-7 को जी-8  या जी-9 न बनने देने की कोई जिद हो तो फिर इसमें चीन और भारत की जगह बनाने के लिए इटली और कनाडा को बाहर निकालना होगा. इन दोनों की आज कोई वैश्विक हैसियत नहीं रह गई है. आखिर 1998 में आपने रूस के लिए अपना दरवाजा खोला ही था नजिसे 2014 में आपने इसलिए बंद कर दिया कि रूस ने क्रीमिया को हड़प कर अपना अलोकतांत्रिक चेहरा दिखलाया था. योग्यता-अयोग्यता की ऐसी ही कसौटी फिर की जाए तो भारत व चीन को इस क्लब में लिया ही जाना चाहिए. लेकिन जब योग्यता-अयोग्यता की एक ही कसौटी हो कि आप अमरीका की वैश्विक योजना के कितने अनुकूल हैंतब कहना यह पड़ता है कि हम जहां हैं वहां खुश हैंआप अपनी देखो !    


    जिस दुनिया की मालिकी का दावा किया जा रहा हैउस दुनिया को देने के लिए और उस दुनिया से कहने के लिए जी-7 के पास भी और हमारे पास भी है क्या हमने और हमारे मालिकों ने तो यह सच्चा आंकड़ा देने की हिम्मत भी नहीं दिखाई है कि कोरोना ने हमारे कितने भाई-बहनों को लील लिया अगर ऐसी सच्चाई का सामना करने की हिम्मत हमारे मालिकों में होती तो यह कैसे संभव होता कि जी-7 के हमारे आका कह पाते कि हम गरीब मुल्कों को 1 बीलियन या 1 अरब या 100 करोड़ वैक्सीन की खुराक देंगे अगर हम आज दुनिया की जनसंख्या 10 अरब भी मानें तो भी हमें 20 अरब वैक्सीन खुराकों की जरूरत है - आज ही जरूरत है और अविलंब जरूरत है. अब तो हम यह जान चुके हैं न कि 10 अरब लोगों में से कोई एक भी वैक्सीन पाने से बच गया तो वह संसार में कहीं भी एक नया वुहान रच सकता है.  ऐसे में जी-7 यह भी नहीं कह सका कि जब तक एक आदमी भी वैक्सीन के बिना रहेगाहम चैन की सांस नहीं लेंगे.  कोविड ने यदि कुछ नया सिखाया है हमें तो वह यह है कि आज इंसानी स्वास्थ्य एक अंतरराष्ट्रीय चुनौती है जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता जरूरी है. वैसी किसी प्रतिबद्धता की घोषणा व योजना के बिना ही जी-7 निबट गया. यह जरूर कहा गया कि कोविड का जन्म कहां हुआ इसकी खोज की जाएगी. यह चीन को कठघरे में खड़ा करने की जी-7 की कोशिश है. 


   अमरीकी राष्ट्रपति बाइडन जी-7 बिरादरी को दो बातें बताना या उससे दो बातें मनवाना चाहते थे : पहली बात तो यह कि अमरीका डोनाल्ड ट्रंप के हास्यास्पद दौर से बाहर निकल चुका है;  दूसरी बात यह कि दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती चीन को उसकी औकात बताने की है. पहली बात बाइडन से कहीं पहले अमरीकी मतदाता ने दुनिया को बता दी थी.  बाइडन को अब बताना तो यह है कि अमरीका में कहीं ट्रंप ने बाइडन का मास्क तो नहीं पहन लिया है !  पिछले दिनों फलस्तीन-इस्राइल युद्ध के दौरान लग रहा था कि ट्रंप ने बाइडन का मास्क पहन रखा है. चीन को धमकाने के मामले में भी बाइडन का चेहरा दिखाई देता है,  ट्रंप की आवाज सुनाई देती है. बड़ी पुरानी कूटनीतिक उक्ति कहती थी कि अमरीका में आप राष्ट्रपति बदल सकते हैंनीतियां नहीं.  सवाल वीसानागरिकतारोजगार नीति आदि में थोड़ी उदारता दिखाने भर का नहीं है. गहरा सवाल यह है कि दुनिया को देखने का अमरीकी नजरिया बदला है क्या 


   जी-7 ने नहीं कहा कि वह कोविड के मद्देनजर वैक्सीनों पर से अपना एकाधिकार छोड़ता है और उसे सर्वसुलभ बनाता है. उसने यह भी नहीं कहा कि वैक्सीन बनाने के कच्चे माल की आपूर्ति पर उसकी तरफ से कोई प्रतिबंध नहीं रहेगा. उसने यह जरूर कहा कि सभी देश अपना कारपोरेट टैक्स 15% करेंगे तथा हर देश को यह अधिकार होगा कि वह अपने यहां से की गई वैश्विक कंपनियों की कमाई पर टैक्स लगा सकें. दूसरी तरफ यह भी कहा गया कि भारतफ्रांस जैसे देशों कोजिन्होंने अपने यहां कमाई कर रही डिजिटल कंपनियों पर टैक्स का प्रावधान कर रखा हैइसे बंद करना होगा. ऐसी व्यवस्था से सरकारों की कमाई कितनी बढ़ेगीइसका हिसाब लगाएं हिसाबी लोग लेकिन मेरा हिसाब तो एकदम सीधा है कि ऐसी कमाई का कितना फीसदी गरीब मुल्कों तकऔर गरीब मुल्कों के असली गरीबों तक पहुंचेगाइसका पक्का गणित और इसकी पक्की योजना बताई जाए !  कोविड की मार खाई दुनिया में यह सुनिश्चित करने की तत्काल जरूरत है कि किसी भी देश की कुल कमाई का कितना फीसदी स्वास्थ्य-सेवा पर और कितना फीसदी शिक्षा के प्रसार पर खर्च किया ही जाना चाहिएऔर यह भी कि शासन-प्रशासन के खर्च की उच्चतम सीमा क्या होगी.  ऐसे सवालों का जी-7 के पास कोई जवाब हैऐसा नहीं लगा.      

  

   चीन के बारे में बाइडन को जी-7 का वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा वे चाहते थे. वह संभव नहीं था क्योंकि यूरोपीयन यूनियन चीन के साथ आर्थिक साझेदारी की संभावनाएं तलाशने में जुटा है. ब्रेक्सिट के बाद का इंग्लैंड भी चीन के साथ आर्थिक व्यवहार बढ़ाना चाहता है. चीन भी यूरोपीयन यूनियन के साथ संभावित साझेदारी का आर्थिक व राजनीतिक पहलू खूब समझता है. इसलिए उसने काफी रचनात्मकलचीला रुख बना रखा है. इससे लगता नहीं है कि चीन का डर दिखा कर दुनिया का नेतृत्व हथियाने की बाइडन की कोशिश सफल नहीं हो सकेगी. आज हालात अमरीका के नहींचीन की तरफ झुके हुए हैं. चीन के पास भी दुनिया को देने के लिए वह सब है जो कभी अमरीका के पास हुआ करता था. 


   चीन के पास जो नहीं है वह है साझेदारी में जीने की मानसिकता. इसमें कोई शक नहीं कि चीन तथाकथित आधुनिकता से लैस साम्राज्यवादी मानसिकता का देश है. वह निश्चित ही दुनिया के लिए एक अलग प्रकार का खतरा है और वह खतरा गहराता जा रहा है. लेकिन उस एक चीन का मुकाबलाकई चीन बना कर नहीं किया जा सकता है. चीन को दुनिया से अलग-थलग करके या जी-7 क्लब के भीतर बैठ कर उसे काबू में करने की रणनीति व्यर्थ जाएगी.  चीन का सामरिक मुकाबला करने की बात उसके हाथों में खेलने जैसी होगी. फिर चीन के साथ क्या किया जाना चाहिए हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसे जगह देकरअंतरराष्ट्रीय समाधानों के प्रति उसे वचनबद्ध करके ही उसे साधा जा सकता है. रचनात्मक नैतिकता व समता पर आधारित आर्थिक दवाब ही चीन के खिलाफ सबसे कारगर हथियार हो सकता है. सवाल तो यह है कि क्या जी-7 के पास ऐसी रचनात्मक नैतिकता है ?  जी-7 के देशों का अपना इतिहास स्वच्छ नहीं है और उनके अधिकांश आका अपने-अपने देशों में कोई खास उजली छवि नहीं रखते हैं.


अंधेरे से अंधेरे का मुकाबला न पहले कभी हुआ हैन आज हो सकता है. 


(15.06.2021)