Monday 23 October 2023

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

 साल भर से ज्यादा हुए. मन बेतरह घायल है.  कान युक्रेन की चीख से गूंजते रहते हैं. अपनी असहायता का तीखा बोध लगातार चुभता रहता है… यह शर्म भी कम नहीं चुभती है कि हमारा देश भी नागरिकों की इस जघन्य हत्या में भागीदार हैऔर युक्रेन व रूस में बहते खून में से तेल छान कर जमा करने में लगा है… यह सब था कि तभी 7 अक्तूबर 2023 आया. फलिस्तीनी हमास ने इसरायल पर ऐसा पाशविक हमला कर दिया कि जिसने शर्म से झुके माथे पर टनों बोझ लाद दिया. शर्म से झुका वह सर लगातार झुकता ही जा रहा है क्योंकि यह गुस्सा नहींआत्मग्लानि का बोझ है. असहमतिविवादगुस्साप्रतिद्वंद्विताबदलाघृणाकायरता व क्रूरता सबकी अपनी जगह है लेकिन इंसानियत की भी तो जगह है न ! सिकुड़ते-सिकुड़ते वह जगह अब सांस लेने लायक भी नहीं बची है. 

 

   सारी दुनिया में प्रकृति फुफकार रही है. बाढ़आगभूकंप से ले कर तरह-तरह के भूचालों से दुनिया घिरती जा रही है. ऐसा लगता है कि प्रकृति अपने साथ हुए दुर्व्यवहार का एक-एक कर जवाब दे रही है. वह अब रोके नहीं रुकेगी. बची-खुची कमी नेता बन बैठे लोग पूरी किए दे रहे हैं.  सारी दुनिया में नागरिक पिस रहा है. सारी दुनिया में सत्ता आदमखोर बनी हुई है. यह हमारी सभ्यता की सबसे अंधी व अंधेरी गुफा है. इसे हम कैसे और कब पार कर  सकेंगे जवाब देने के लिए भी सर उठता नहीं है.  

 

   फिलिस्तीन-इसरायल समस्या का इतिहास बहुत लंबा व पुराना है - उतना ही पुराना जितना मानव जाति की मूढ़ता का इतिहास है.  यहां उसे दोहराने का अवकाश नहीं है. आंकड़ों और तारीखों का अब कोई संदर्भ भी नहीं रह गया है. कोरोना के आंकड़ों की तरह ही ये आंकड़े भी सच को बताते कमछिपाते अधिक हैं. हमास ने जिस तरह इसरायल पर हमला किया वह उसकी मूढ़ताह्रदयहीनता व अदूरदर्शिता का प्रमाण है. हमास के शीर्ष राजनीतिक नेता खालिद मशाल ने कहा कि हम ऐसी चोट मारना चाहते थे कि इसरायल बिलबिला कर रह जाएऔर वही हुआ. लेकिन ख़ालिद को अब यह नहीं दीख रहा है क्या कि दोनों तरफ के सामान्य निर्दोष नागरिक बिलबिला रहे हैं आज उनके साथ कोई नहीं है सिवा विनाश व मौत के ! एक बात यह भी कही जा रही है कि इसरायल व अरब देशों में जैसी आर्थिक नजदीकियां बढ़ रही थींउसे तोड़ने के लिए फलीस्तीन ने हमास द्वारा यह आत्मघाती कदम उठाया. अब अरबों के लिए इसरायल की तरफ हाथ बढ़ाना संभव नहीं रह जाएगा. यह सच हो तो यह कूटनीति भी कितनी अमानवीय है ! 

 

भारत के प्रधानमंत्री ने तुरंत बयान दे डाला कि भारत इसरायल के साथ खड़ा है. ऐसा कहने का अधिकार उन्हें कैसे मिला वे जिस संसद की कृपा से प्रधानमंत्री हैं क्या उस संसद में ऐसा कोई प्रस्ताव पारित हुआ क्या इस बारे में संसद में कोई विमर्श हुआ क्या कुर्सी पर बैठा एक आदमी देश होता है आजादी से पहले से इस विवाद के संदर्भ में भारत की भूमिका स्पष्ट रही है. महात्मा गांधी ने स्वंय इस मामले में हमारी विदेश-नीति की बुनियाद बना दी थी. उसे बदलने का अधिकार केवल भारत की जनता का है. किसी भी सरकार को अधिकार नहीं है कि वह अपने खोखले बहुमत के घमंड में राष्ट्रीय नीतियों से खिलवाड़ करे. प्रधानमंत्री ने जो कह दियाअब जा कर विदेश मंत्रालय ने दबी-ढकी जुबान में उस पर लिपापोती कर रहा है. उसने बयान दिया है कि भारत हमास की हिंसा का निषेध करता है लेकिन फलिस्तीनों की आजादी पर किसी भी तरह के हमले को समर्थन नहीं देता है. प्रधानमंत्री और उनके विदेश-मंत्रालय के बीच की ऐसी खाई कैसे बनी इसलिए बनी कि प्रधानमंत्री सोचते कम और बोलते अधिक हैंकिसी कि सुनते नहीं हैंबस अपनी सुनाते हैं - मन की बात ! 

इधर देखिए कि सारा अमरीकी खेमापश्चिम के आका मुल्क इसरायल के समर्थन में खड़े हो गए हैं जैसे हमें पता ही नहीं है कि यही वह खेमा है जिसने फलीस्तीन के सीने पर खंजर की नोक से इसरायल लिखा था. महात्मा गांधी ने तब भी कहा था कि हमें एक-एक यहूदी अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा है लेकिन पश्चिमी शैतानी का सहारा ले कर वे फलिस्तीनी घर में घुस जाएंइसका हम समर्थन नहीं कर सकते. 1938 में उन्होंने एक विस्तृत आलेख में भारत का रुख साफ कर दिया था : “ “ मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है. मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको करीब से जानता हूं. उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनकी साथ हुई ज्यादतियों की बावत जाना है. ये लोग ईसाइयत के अछूत बना दिए गये हैं. अगर तुलना ही करनी हो तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है वह हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया हैउसके करीब पहुंचता है. दोनों के साथ हुए अमानवीय व्यवहारों के संदर्भ में धार्मिक आधारों की बात की जाती है. निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं. लेकिन उनसे मेरी गहरी मित्रता भी मुझे न्याय का पक्ष देखने से रोक नहीं सकती हैऔर इसलिए यहूदियों की अपना राष्ट्रीय घर’ की मांग मुझे जंचती नहीं है. इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फलीस्तीन लौटने की बात उठाई जा रही है. लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जनमे हैं और जहां से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैंउसे ही अपना घर मानें 

 “ फलीस्तीन उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है याकि फ्रांस फ्रांसीसियों का है. यह गलत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए. आज फलीस्तीन में जो हो रहा है उसका कई नैतिक आधार नहीं है. पिछले महायुद्ध के अलावा उसका कोई औचित्य नहीं है. गर्वीले अरबों को सिर्फ इसलिए दबा दिया जाए ताकि पूरा या अधूरा फलीस्तीन यहूदियों को दिया जा सकेतो यह एकदम अमानवीय कदम होगा. 

 “ उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जनमे हैं और कमा-खा रहे हैं वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो. जैसे फ्रांस में जनमे ईसाई को हम फ्रांसीसी मानते हैं वैसे ही फ्रांस में जनमे यहूदी को भी फ्रांसीसी माना जाएऔर अगर यहूदियों को फलीस्तीन ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं याकि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं ? ‘अपने लिए एक राष्ट्रीय घर’ के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था.” 

   आजादी के बाद से कमोबेश हमारी विदेश-नीति की यही दिशा रही है. प्रधानमंत्री ने सांप्रदायिकता से दूषित नजर से इसे देखा और कच्ची गोली खेल दी जिसे विदेश मंत्रालय संभालने की कोशिश कर रहा है.  

 अमरीकी व पश्चिमी खेमे की कुल कोशिश यही है कि युद्ध भी हमारी ही मुट्ठी में रहेविराम भी हमारी ही मुट्ठी में रहे! हमने देखा है कि दोनों ही कमाई के अंतहीन अवसर देते हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे इसरायल के विफल प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने मौके का फायदा उठा कर इसरायल के राजनीतिक नेतृत्व को अपने साथ ले लिया है. यह घटिया अवसरवादिता है. जब पूरा इसराइल उनके ख़िलाफ़ खड़ा था और वे न्यायपालिका को अपनी मुट्ठी में करने का भद्दा खेल खेल रहे थेतब उनके हाथ ऐसे अवसर आ गया जिसने उन्हें नई बेईमानी का मौक़ा दे दिया है. यह पूरी कहानी बेईमानी से ही शुरू हुई थी और बेईमानी से ही आज तक जारी है. यह नया भारत है जो इस बेईमानी में साझेदारी कर रहा है. 

रास्ता क्या हैयह इतना आसान है कि बहुत कठिन लगता है. 5 मई 1947 को रायटर’ के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर से इस तरफ खींचा : “ फिलीस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते हैं ?”

गांधी : “ यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है. अगर मैं यहूदी होता तो मैं उनसे कहता : ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो. ऐसा कर के तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है… अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है. आखिर यहूदियों को फिलीस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए यह महान जाति है. इसके पास महान विरासतें हैं. मैं दक्षिण अफ्रीका में बरसों इनके साथ रहा हूं. अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है तब तो निश्चित ही इस मामले में आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए… यहूदियों को आगे बढ़ कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमरीकी होकिसी की भी सहायता के बिनायहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए.”  

लेकिन किसी कोकिसी की विरासत तो संभालनी नहीं है . सबको संभालनी है गद्दी ! गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए : “ यह एक ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है.” गांधी ने जो आशंका प्रकट की थीउसके करीब 76 साल पूरे होने को हैं लेकिन युद्ध व विराम के बीच पिसते फलस्तीनी-इस्रायली किसी हल के करीब नहीं पहुंचे हैं. विश्व की महाशक्तियां व दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं तो येरूशलम की संतानें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी. लेकिन सत्यप्रेमकरुणा के ऐसे रास्ते पर उन्हें कौन चलने देगा ? ( 15.10.2023)

मिलान कुंडेरा : किसी का चुपचाप बोलना

 मिलान कुंडेरा नहीं रहे ! मैंने तुरंत देखा कि वे कहां थे जब उनकी मृत्यु हुई इसलिए नहीं कि मुझे यह पता नहीं था कि वे पिछले कई वर्षों से फ्रांस की राजधानी पेरिस में रह रहे थे बल्कि इसलिए कि वे जहां रह रहे होते थेवहां होते नहीं थे. मुझे इसी मिलान कुंडेरा का अपार आकर्षण रहा है. वह साहित्यकार भी क्या साहित्य रचेगा जो धरती पर कहीं भी अपना संसार नहीं रच सके. 

   आप सोच कर देखिए कि मैं एक ऐसे लेखक की बात कर रहा हूं जिसे मैं जानता तो नहीं ही हूंउसकी भाषा भी नहीं जानता. उसका देश भी मैंने कभी देखा नहीं. यह कहना भी जरूरी है कि उनकी हर रचना मैंने पढ़ी होऐसा भी नहीं है. उनका अधिकांश साहित्य चेक भाषा में हैजब चेक में लिखना उन्होंने घोषणापूर्वक छोड़ दियातब के बाद से उनके साहित्य की भाषा फ्रेंच हो गई. मुझे इन दोनों में से एक भाषा भी नहीं आती है. हममें से अधिकांश लोग मिलान कुंडेरा को अंग्रेजी माध्यम से जानते हैं - अंग्रेजीजिस भाषा में उन्होंने कभी लिखा नहीं. तो फिर आप ही बताइएऐसे लेखक को मुझ जैसा कोई जानेगा भी तो कैसे व कितना ! लेकिन मैं आपसे कह सकता हूं कि मैं मिलान कुंडेरा को लगातार अपने आसपास पाता रहा हूं - एक दोस्त लेखक की तरह नहींएक सहयात्री की तरह! 

   यह भी कहना जरूरी है कि यदि निर्मल वर्मा न होते तो मेरे पास मिलान कुंडेरा भी नहीं होते. निर्मल वर्मा ने ही मिलान कुंडेरा सेउनके लेखन से मेरा परिचय करवाया था. वह दुबचैक का चेकोस्लोवाकिया था जिसे रूसी टैंकों ने घेर कर मार डाला था - बहुत कुछ उसी तरह जिस तरह आज वे ही रूसी टैंक यूक्रेन को घेर कर मारते जा रहे हैं. तब भी ऐसा ही थाआज भी ऐसा ही है कि सारी दुनिया तमाशाबीन बनी हुई थी. निर्मल वर्मा तब चेकोस्लोवाकिया में थे और चुप नहीं थेयहां भारत में जयप्रकाश नारायण थे और चुप नहीं थे. जब भारत में कोई सोवियत खेमे के खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं करता थाजयप्रकाश चेक लोगों की स्वतंत्रता के पक्ष में खुल कर सामने आए थेएक दवाब खड़ा करने की कोशिश भी की थी.  मानवीय गरिमा के हनन पर जो साहित्य चुप रहे तो वह साहित्य नहीं है;  जो गांधीवाला चुप रहेवह गांधीवाला नहीं हैमेरी यह समझ उसी दौर में बनी. उसी दौर में मिलान कुंडेरा का साहित्य भी बना. विचार न हो तो आदमी होना शक्य नहीं हैप्रतिबद्धता न हो तो कलम उठाने से अर्थहीन काम दूसरा नहीं है. प्रतिबद्धता और ढोलबाजी में जो फर्क हैउसका  विवेक खोये नहींयह जरूरी है. मुझे कुंडेरा इसलिए ही पसंद थेअपने-से लगते थे. वे बला की प्रतिबद्धता से लिखते रहे लेकिन उनके समस्त लेखन में कोई ढोलबाजी नहीं थी. 

   वे साम्यवादी देश चेकोस्लोवाकिया में पैदा हुए थे. तब का साम्यवाद वह नहीं था जो आज का है - पूंजीवादी घोड़े की दुम पकड़ करसाम्यवादी नारेबाजी करने वाला विदूषक ! वह दुबचैक का दौर था जब वे अपने चेकोस्लोवाकिया मेंरूस की तनी भृकुटि के बावजूद साम्यवाद का मानवीय चेहरा’ बनाने में लगे थे. युवा कुंडेरा उन दुबचैक के साथ खड़े हुए. इसके बाद का पूरा इतिहास रूसी साम्यवादी शासन के पतन का इतिहास है जिसमें कितनी ही मूर्तियां टूटींकितनी आस्थाएं बिखरीं तथा कितने ही लोग मिटा दिए गए. दुबचैक खुद ही किसी गतालखाने में डाल दिए गए. कुंडेरा ने स्वप्नों के बिखरने के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की. फिर वही हुआ जो सबसे सहज था : जिस साम्यवादी पार्टी के वे सदस्य ही नहीं थे बल्कि जिसकी पैरवी करने में वे कुछ भी उठा नहीं रखते थेउसी पार्टी ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया. जितनी आजादी हम देंउसमें खुश रह कर दिखा वाले साम्यवाद के साथ कुंदेरा का बनना नहीं थानहीं बना. 

   पार्टी छोड़ी फिर देश छोड़ा ! रूसी सोल्जेनित्सीन को भी सोवियत संघ छोड़ना पड़ा था और वे जा बसे थे अमरीका में. उनसे देश तो छूटा लेकिन वे कभी देश छोड़ नहीं सके. कुंडेरा ने अपना प्यारा देश छोड़ातो ऐसे छोड़ा कि छोड़ ही दिया. पेरिस में आ बसे तो वहीं के हो कर रह गए. भाषा भी छोड़ दी. फ्रेंच में लिखने लगे. लेखक किसी देश का नहीं,  मूल्यों का होता है. अगर मूल्यों की पहचान साफ है और उनके प्रति प्रतिबद्धता पूरी है तो कहीं भी रहोलिखोगे वही जो लिखना हैऔर जो लिखना जरूरी है. कुंडेरा ऐसी मान्यता को जीते थे. इसलिए फ्रांस में रहते हुए उन्होंने आजादी,अभिव्यक्ति और अस्मिता तीनों पर लगातार काम किया. 

   आप कुंडेरा को बोलते कम ही सुनते थे क्योंकि वे मानते थे कि लेखक को नहींउसकी रचना को बोलना चाहिए. 1968 में उनकी पहली किताब आई ‘ जोक्स’ यानी हंसी-मजाक लेकिन सत्ता समझ गई कि यह  हंसी-मजाक नहीं हैतेजाब है. हंसी-मजाक का आलम यह है मिलान कुंडेरा के यहां कि किताबों के नाम भी उसी की बात करते हैं - लाफेबल लव्सद बुक ऑफ लाफ्टरलेकिन आप हंसी-मजाक में इसे उठा लेंगे तो फंस जाएंगे. उनकी आखिरी किताब आई द अनबेयरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ - अस्तित्व ऐसा कि हवा में तिरता पंख होप्रतिबद्धता ऐसी ही कि जैसे पहाड़ उठा रखा होइसका द्वंद्व है यह उपन्यास. साम्यवादी दर्शन व संचालन में दमन व हिंसा का अतिरेक ही कुंडेरा को परेशान नहीं करता हैवे उसकी व्यर्थता को पहचानते भी हैं और हमें दिखाते भी हैं. हैरान भी होते हैं कि ऐसी व्यर्थ हिंसा से हासिल क्या होता है ! गांधीजी ने भी हिंसा की क्रूरता से अधिकउसकी निरर्थकता को बार-बार उभारा है. कुंडेरा भी उसे पहचानते हैं. यह उपन्यास लिखने के बाद कुंडेरा ने लिखना करीब-करीब बंद ही कर दिया. फिर आई ‘ ए किडनैप्ड वेस्ट : द ट्रेजडी ऑफ़ सेंट्रल यूरोप.’ इसके साथ कुंडेरा का जीवन भी समाप्त हुआ. 

   कुंडेरा बार-बार लिखते रहे कि हम कितनी बड़ी संभावनाओं तक पहुंच सकते थे लेकिन हम कितनी बुरी तरह चूकते रहे हैं. साम्यवाद को वे इसी नजरिये से विश्लेषित करते हैं. हम भारत में पहचानें तो पाएंगे कि सांप्रदायिकता का जो तूफान आज खड़ा किया गया है और जो जहर इसकी नसों में उतारा जा रहा हैवह कितना अर्थहीन है. हम जैसे खुद अपना ही कार्टून बना रहे हैं. दूसरों के लिए हम जो कब्र खोद रहे हैंउसमें दफन हम ही होंगे. यह आत्महत्या नहींआत्म विद्रूपण है जिसमें से ग्लानि से सिवा दूसरा कुछ हाथ नहीं आएगा. मानव मात्र को यही ग्लानि मिली है हर उस सत्ता व सत्ताधीश से जो हिंसा व घृणा को उकसाता है. कुंडेरा बार-बार यही समझाते हैं. 94 वर्ष की उम्र में अब वे थक कर सो गए हैं. उन्होंने खुद को कभी विस्थापित या शरणार्थीं नहीं माना. हमेशा लेखक की भूमिका में रहे और कहते रहे कि हम कभी जान ही नहीं सकते हैं कि हम क्या चाहते हैंक्योंकि हमारे हाथ तो यही एक जिंदगी है जिसकी पहले वाली जिंदगी से तुलना करने का कोई उपाय हमारे पास नहीं हैन भावी जिंदगी संवारने की कोई नई तस्वीर हमारे पास है. 

   हांमिलान कुंडेराहम नई-पुरानी तो नहीं जानते लेकिन सपनों की वह तस्वीर हमारे पास है जो आपने उकेरी है. आपका आभार कि आप हमें उस दहलीज तक ले गए. ( 14.07.2023)

राजदंड वाला लोकतंत्र

 सब कुछ नया हो गया ! संसद भवन भी नया हो गया; लोकतंत्र भी नया हो गया; समय के ललाट पर अमिट हस्ताक्षर कर प्रधानमंत्री ने संकल्प भी नया लिख दिया ! यह भी एकदम नया हुआ कि संसद भवन का उद्घाटन समारोह हुआ लेकिन न राष्ट्रपति थीं, न उप-राष्ट्रपति थे. दोनों दिल्ली में ही थे लेकिन उनके संदेश भर पढ़े गए, उन्हें मौजूद रहने से मनाही कर दी गई. 20 से ज्यादा विपक्षी दल नहीं थे, यह बात आपके लोकतंत्र में कोई मानी नहीं रखती है. संविधान में यह बात ही गलत दर्ज हो गई है कि संसद में पक्ष और विपक्ष का होना ही जरूरी नहीं है बल्कि वही लोकतंत्र है जिसमें दोनों की साझेदारी हो.  

 लोकसभा का अध्यक्ष उसका प्रथम पुरुष होता हैऐसी कोई नई मान्यता बनाई जा रही हैतो वैसा भी कुछ बना नहींअध्यक्ष थे जरूर लेकिन थे वे प्रधानमंत्री के व्यक्तित्वविहीन पिछलग्गू ! इसकी पूरी सावधान योजना बनाई गई थी कि एक ही आदमी सुनाई देएक ही आदमी दिखाई देएक ही आदमी साकार हो ! लोकतंत्र एक ही आदमी का होता हैयह भी नया हुआ. 

इतना नया-नया एक साथ इस तरह हुआ कि पुराना कुछ याद ही नहीं रहा. जैसे किसे याद रहा कि कहींइतिहास के किसी गतालखाने से कोई सेंगोल’ लाया गया और हमने प्रधानमंत्री को उसके सामने साष्टांग भू-लुंठित देखा मानो वह लोकतंत्र की कोई आदिशक्ति का साकार स्वरूप हो जिसकी साष्टांग अभ्यर्थना करना धार्मिक दायित्व हो. क्या आपको याद है कि ऐसा पहली बार नहीं देखा हमनेअगर मैं भूलता नहीं हूं तो हमने संसद के प्रवेश-द्वार पर प्रधानमंत्री को साष्टांग भू-लुंठित देखा हैहमने संविधान की किताब के सामने उन्हें नतमस्तक देखा हैहमने उन्हें मठों-मंदिरों-पंडों-पुजारियों के सामने नतमस्तक देखा हैहमने उन्हें दलितों के पांव धोते देखा हैहमने उन्हें सार्वजनिक सभाओं में मंचों के हर कोने पर जा-जाकर जनता जनार्दन को इस तरह नतमस्तक प्रणाम करते देखा है कि वह उपहास का प्रसंग बन गया. एकदम नया यह सब पुराने कई वर्षों से हम देखते आ रहे हैं. प्रधानमंत्री जब भीजहां कहीं होते हैं कुछ-न-कुछ नया होता ही है जो बेहद पुराना होता है. वैसे यह ठीक भी है कि वे देश को नया बना रहे हैं तो उनका अपना नया बने रहना भी तो जरूरी है न ! बसध्यान इतना ही रखना है कि यह सारा नया कोई दूसरा नहींप्रधानमंत्री ही करें ! 

हमारे लोकतंत्र में सेंगोल’ का प्रवेश एकदम नया है. प्रधानमंत्री ने उसे खोजाधूल झाड़ीउसे चमकायाहथेलियों में उठायाफूलों से सजायाउसके सामने साष्टांग दंडवत हुएफिर उसे ले कर पैदल चलेअध्यक्ष के आसान के पास एक खास जगह गढ़ी उन्होंनेउसका एक खास स्टैंड बनाया जिस पर उसे पूजा-पाठ के साथ स्थापित किया. फिर देश को यह भी सिखलाया कि यह भारतीय संस्कृति का प्रतीक है. यह राजदंड है. अध्यक्ष के आसान के पास है तो इसलिए कि सदस्य ( वे सदस्य जो विपक्ष के होते हैं !) सदन की मर्यादा का पालन नहीं करते तो अध्यक्ष उसे तत्काल सेंगोल’ से बरज सकें. नहींनहींहमने गलती लिखा. अध्यक्ष नहींबरजेंगे तो प्रधानमंत्री हीअध्यक्ष उनसे निवेदन करेंगे कि सेंगोल’ का वक्त आ गया है श्रीमानआइए और इन महाशय को दंडित कीजिए ! राजदंड दंडित करने के लिए ही होता है. 

बेकार ही बहुत सारा इतिहास खंगाला गृहमंत्री शाह ने. यह सेंगोल’ कहां से आयाकिसने इसे कब किसे दियाआपका यह सारा शोध कबूल है शाह साहब लेकिन समझने की बात तो इतनी ही है कि लोकतंत्र से इस सेंगोल’ का कोई नाता बनता है क्या नहींइसका नाता राजतंत्र से है. देखिएआपने सेंगोल’ की बात की तो न चाहते हुए भी आपको जवाहरलाल नेहरू को उस इतिहास में जगह देनी पड़ी जिस इतिहास को बदलने-भुलाने में आप और इतिहास के आपके इतने सारे दिग्गज लगे हुए हैं. जवाहरलाल नेहरू को समझना उन सबको भारी पड़ता है जिनको लोकतंत्र का ककहरा न भाता हैन समझता है. लेकिन नेहरू को जब यह सेंगोल’ मिला तो उन्होंने इसे इसकी सही जगह पहुंचा दिया. किसी संग्रहालय में रखवा दिया. राजदंड लोकतंत्र का प्रतीक नहीं बन सकता हैइतना विवेक था उन्हें. लोकतंत्र का एक मतलबजरूरी मतलब यह भी है कि आपको अपनी समझअपने संस्कारअपनी परंपराएंअपनी पोथियांअपनी मान्यताएं सब शनै-शनै बदलनी पड़ती हैं. कपड़ा बदलने के बारे में तो कबीर साहब कब के कह गए हैं कि मन न रंगाएरंगाए जोगी कपड़ालेकिन यहां तो लोकतंत्र कपड़े से आगेमन व मान्यताओं के बदलाव की मांग करता है. लोकतंत्र से जिसका मेल नहीं बैठता हैवह सारा कुछ किसी संग्रहालय में जगह पाता है. लोकतंत्र के आंगन में तो वही प्रतिष्ठित होता है जो लोकतांत्रिक मूल्यों को संवारता-पुष्पित-पल्लवित करता है. 

इसलिए सेंगोल’ की जगह संसद में नहीं है. जैसे ईंट-सीमेंट की बनी इमारत लोकतंत्र की संसद नहीं होती है वैसे ही राजतंत्र के किसी प्रतीक की जगह भी संसद में नहीं होती है. संसद में आप करते क्या हैंकैसे करते हैं और जो करते हैं वह संविधानसम्मत है या नहींयही कसौटी है कि वह लोकतंत्र की संसद है या नहीं. हमारी संसद में लोकतंत्र की जगह पहले ही कम थीआपने उसे और भी संकरे रास्ते पर ला खड़ा किया है. लेकिन आप भी क्या करेंआपके लोकतंत्र में जगह ही एक आदमी की हैइसलिए आपकी परिकल्पना भी उतनी ही संकरी है. ( 31.05.2023)

किसी कृष्ण या किसी व्याघ्र के इंतजार में हम

 शरद पवार के हाथ से तोते उड़ गए हैं; उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भूलुंठित पड़ी है; कभी उनके पंख पर सवारी करने वाले उनके तोते पर कटे परिंदों से न उड़ पा रहे हैं, न रेंग पा रहे हैं; प्रधानमंत्री मोदी व उनकी पार्टी न अपना चेहरा छुपा पा रही है, न दिखा पा रही है; जिन्हें सांप सूंघ गया है वे हैं कांग्रेस व शिव सेना के नेतागण ! दिखाने को सभी अपनी-अपनी तलवारें भांजने का प्रहसन कर रहे हैं हालांकि सभी जानते हैं कि गत्तों की इन तलवारों में न धार है, न बल ! 

महाराष्ट्र की सरकार के पास सर तो है ही नहींकंधों पर धरा है खोखले उप-मुख्यमंत्रियों का बोझ ! उसका दम घुट रहा है. शिंदे-फड़णवीस-अजित आदि आज कार पर भले चल रहे होंहम भी जानते हैं और वे भी कि हैं वे सब एकदम बे-कार ! ऐसा अर्थहीन हास्य-नाटक किसने लिखा यह इस कदर भद्दा व पतित प्रसंग है कि जिस पर न कोई किसी को बधाई दे रहा है,न संदेशन टिप्पणी. सब आंखें बचा रहे हैं ताकि कोई किसी को कुछ कहता या करता देख न ले ! 

ऐसे में लोग मुझसे पूछ रहे हैं- सीधे भी और घुमा-फिरा कर भी कि महाराष्ट्र में जो कुछजिस तरहजिनके द्वारा हुआ उस पर आपका क्या कहना हैयाकि आप इसे कैसे देखते हैं मैं चुप रह जाता हूंटाल देता हूं.  लेकिन ऐसा आप तभी तक कर पाते हैं जब तक सवाल पूछने वाला कोई दूसरा होजब सवाल अपने भीतर से उठ रहा हो तब न चुप्पी काम आती हैन टाल-मटोल !

इसलिए मैं यह लिख रहा हूं. और शुरू में हीजयप्रकाश नारायण ने 1974 के जनांदोलन की तैयारी के दौरान1970-72 से जो सवाल देश से पूछना शुरू किया थावही सवाल मैं आपसे पूछ ले रहा हूं : क्या नैतिक ताने-बाने के बिना कोई देश अपना अस्तित्व बचा सकता है आप महाराष्ट्र व राष्ट्र मेंसत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों का हर कहीं  जैसा पतनशील व्यवहार और बेशर्म तेवर देख रहे हैंवह दूसरा कुछ नहींनैतिक ताने-बाने के बिखर जाने का परिणाम है. यह राजनीति नहीं है. राजनीति का एकदम शाब्दिक मतलब भी लें हम तो वह है राज चलाने की नीति ! यहां जो हो रहा है उसमें कोई नीति नहीं हैऔर इसलिए दूसरा कुछ भी चल रहा होराज नहीं चल रहा है. 

यह क्या हुआ व कैसे हुआ यह कैसे हुआ कि कभी लंबे समय तक महाराष्ट्र के शक्तिशाली मुख्यमंत्री रह चुके युवा देवेंद्र फडणवीस खुले आम यह कह लेते हैं कि राजनीति में आदर्शवाद वगैरह ठीक है लेकिन असली सच तो यह है कि आप सत्ता से निकले तो कोई पूछने वाला भी नहीं होता है. मतलबअसली सच तो सत्ता है बाकी खोखली बातें हैं. कैसे होता है ऐसा कि प्रधानमंत्री जैसी खास कुर्सी पर बैठा कोई आदमी आज देश के भ्रष्टाचारियों की सूची की सार्वजनिक घोषणा करता है और कल उन सभी भ्रष्टाचारियों को अपनी सरकार में कुर्सी पर बिठा लेता है मतलबवह दिखाना चाहता है कि सत्ता की कुर्सियां सच तो छोड़िएमर्यादा से भी कोई सरोकार नहीं रखती हैं. जो कुछ है सब जुमलेबाजी है ! नरेंद्रदेवेंद्र,पवार,ममताराहुलकेजरीवाल आदि सब एक ही खेल खेल रहे हैं जिसका कोई अंपायर नहीं हैकोई कायदा नहीं है. 

 रातोरात मुंबई की सड़कों पर उन सबको बधाई देने वाले बड़े-बड़ेसचित्र पोस्टर सार्वजनिक स्थानों पर लग गए जिन्होंने शरद पवार का दामन छोड़ कर मोदी का दामन थाम लिया है. इससे ही खुलासा हुआ कि यह सब रातोरात नहीं हुआ बल्कि कई रातों में हुआकि यह सब खुद छपवाया- खुद चिपकाया’ वाली उसी शैली में हुआ जिसका किस्सा सलीम-जावेद के जावेद ने सुनाया था कि कैसे फिल्मी दुनिया में अपना सिक्का जमाने के लिए उन दोनों ने अपना नाम फिल्मी पोस्टरों पर ठेका दे कर चिपकवाया था. लेकिन अजीत पवार से यह पूछा ही जाना चाहिए कि सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे पोस्टर लगाने की अनुमति आपने किससे लीकिसने दी और उसका किराया किसने भराभरा कि नहीं भरा कि यह सब आप सबकी काली करतूतों में ढक गया 

लेकिन असली जवाब तो उन इंदिरा गांधियों- शरद पवारों-अडवाणियों-मोदियों-शाहों को देना चाहिेए जिन्होंने मूल्यविहीन राजनीति को चलाने-चमकाने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की है. किसी भी रास्ते सत्ता तक पहुंचना और किसी भी छल-क्षद्म से वहां बने रहनाराजनीति के नये खिलाड़ियों को यह ककहरा इन सबने मिल कर सिखाया है. जब इसकी पाठशाला खोली जा रही थी तब इसे गहरी चाल या मास्टर स्ट्रोक कहने वाले राजनीतिक पंडितों व विश्लेषकों की कमी नहीं थी. इस पाठशाला में पढ़-पढ़ा कर राजनेताओं की जो नई खेप सामने आई है और आ रही है वह मूल्यों को गंदे कपड़ों की तरह देखती हैजुमलों से अधिक उसकी कोई कीमत नहीं करती है तो आश्चर्य कैसा या दुख क्या मनाना ! उन्हें तो खुश होना चाहिए कि ये सब आधुनिक अर्जुन तैयार हुए हैं जिन्हें कुर्सी चिड़िया की आंख दिखाई देती है.     

सत्ता ही एकमात्र लक्ष्य हैकोई राजनेता ऐसा कहे तो मेरे जैसा आदमी उसे आसानी से समझ सकता है. खेल क्रिकेट का हो कि कबड्डी का कि सत्ता काजीतना उसका लक्ष्य होता है. इसमें कोई दोष भी नहीं है. हार हमेशा मुंह में एक कसैला-सा स्वाद छोड़ जाती है. फिर भी हर खेल में कोई जीतता तो कोई हारता तो है ही. लेकिन खेल तभी तक खेल है जब तक वह नियम से खेला जाता हैजब तक वह अंपायर की ऊंगली या सिटी पर चलता है. खिलाड़ी कितना भी बड़ा हो- मैसी हो कि कोहली कि फेडरर कि धोनी- न वह खेल से बड़ा होता हैन अंपायर की ऊंगली से ऊंचा होता है. 

महात्मा गांधी ने दूसरा कुछ किया या नहीं लेकिन इतना तो किया ही कि अपने अस्तित्व की पूरी ताकत लगा कर राजनीति मेंमानवीय व्यवहार में ( उनके लिए ये दोनों एक ही थे ! ) कुछ ऐसे मूल्यों की जगह बनाई जिनके लिए जान भी दी जा सकती है. कई लक्ष्मण-रेखाएं ऐसी खींचीं कि जिसे कोई पार न करे. कोई अभद्र काम या व्यवहार करे तो अंग्रेजी में एक मुहावरा ही बन गया है : इट्स नॉट क्रिकेट ! भारतीय संदर्भ में गांधी वैसा ही मुहावरा बन गए हैं : कोई गर्हित करे या कहे तो कहते हैं : यह गांधी का तरीका नहीं है ! जब गांधी थे तब भी उन वर्जनाओं को तोड़ने की कोशिशें होती थीं लेकिन गांधी का होना ही उसकी सबसे बड़ी वर्जना बना रहता था. 

गांधी के बाद  भी जवाहरलालसरदार,राजेन बाबूनरेंद्र देवलोहिया आदि ने राजनीति में तो विनोबाकाका कालेलकरजयप्रकाश नारायण सरीखे लोगों ने सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की जड़ें सींचने का काम किया. हमने जो संविधान बनाया व लागू किया वह भी ऐसे मूल्यों की बात करता है. इसलिए गांधी को राजघाट से निकलने न देने की सामूहिक योजना बनीतो बिना पढ़े-समझे संविधान की शपथ लेने से अधिक संविधान नाम की किताब का कोई मतलब नहीं हैऐसा हमने अपनी राजनीति की नई पौध को समझाया. अब वह आपको आपकी ही पढ़ाई-सिखाई भाषा में जवाब दे रही है तो आप हैरान क्यों होते हैं यह वह भस्मासुर है जो गुरू के सर पर ही विनाश का अपना हाथ धरने को उद्धत है.

मूल्य दोधारी तलवार होते हैं. उन पर चलो तो धार लगती हैनहीं चलो तो विनाश होता है. भगवान कृष्ण इन दोनों पीड़ाओं से गुजरे थे. व्याघ्र के वाण ने उन्हें उससे छुटकारा दिलाया था. भारतीय समाज व राजनीतिक व्यवस्था उसी दौर से गुजर रही है. उसे किसी कृष्ण या किसी व्याघ्र का इंतजार है. ( 06.07.2023)    

जीत के बाद हार

कर्नाटक की जीत पुरानी पड़ चुकी है. इसलिए नहीं कि वह कोई व्यर्थ की जीत है. शायद ही कभी किसी राज्य की जीत का इतना गहरा व विस्तृत राष्ट्रीय परिणाम हुआ होगा. बंदघुटते कमरे में जैसे कोई किरण उतरे या किसी सुराख से ताजा हवा की पतली-सी लहर दौड़ जाएवैसा अवर्णनीय अहसास कर्नाटक ने राष्ट्र को दिया है. इस वक्त भारतीय लोकतंत्र कोसार्वजनिक जीवन तथा सामाजिक विमर्श को इससे बड़ी सौगात मिल ही नहीं सकती थी. यह मानसिक गंदगीभोंडी प्रदर्शनप्रियता व राजनीतिक बेईमानी के खिलाफ एक चीत्कार सरीखी घटना है. 

यह राहुल गांधी की जीत नहीं है हालांकि राहुल गांधी के बिना यह जीत संभव नहीं थी. कांग्रेस के साथ राहुल का नाता किसी विषाद सरीखा है.  वे कांग्रेस के सबसे बड़ेप्रभावी नेता हैं जिन्हें किनारे लगाने की रणनीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तैयार की. इसलिए नहीं कि वे लल्लू’ हैं बल्कि इसलिए कि नरेंद्र मोदी को अच्छी तरह पता है कि यह आदमी और यह पार्टी ही है जो उन्हें लल्लू” बना सकती है. इसलिए उनकी छवि खराब करने में इन लोगों ने बेहिसाब पैसा व संसाधन उड़ेला. परिवारवाद का आरोप इतने कलुषित ढंग से पिछले वर्षों में प्रधानमंत्री ने उछाला और हिंदुत्ववादी हर डेढ़इंची आदमी ने उसे दोहराया कि राजनीतिक सत्ता की दृष्टि से कमजोर पड़ती कांग्रेस एक पांव पर खड़ी हो गई. इससे हुआ वही जो प्रधानमंत्री चाहते थे. कांग्रेस राहुल से अलग दीखने की कोशिश करने लगी जबकि उनके बिना कांग्रेस का चलता नहीं है. इसमें गांधी-परिवार की अपनी कमजोरियों ने भी बड़ी भूमिका निभाई तथा पुराने कांग्रेसियों की नासमझी ने भी. यह सब कांग्रेस को भारी पड़ा. 

फिर तो कांग्रेस के असली नेता को इसकी काट निकालनी ही थी. राहुल गांधी ने वह काट निकाली. वे भारत जोड़ो यात्रा पर निकल पड़े. इस यात्रा ने दूसरा कुछ किया या न कियापरिवारवाद के आरोप से राहुल गांधी को और उससे पैदा हुई झिझक से कांग्रेस को बाहर जरूर निकाल दिया. आज राहुल गांधी अपने दम पर कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे हैंउसका रास्ता बना रहे हैं.परिवादवाद की बात अब खाली कारतूस से अधिक मतलब नहीं रखती है. जिस तरह राहुल की मां ने कभी कांग्रेस को खड़ा किया थाराहुल आज उसी तरह कांग्रेस को खड़ा कर रहे हैं. यह परिवार अपनी कमजोरियों से भी बाहर आने की कोशिश कर रहा है.

यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे पक्की व बहुआयामी हार है. यह उनके खोखले नेतृत्वअर्थहीन जुमलेबाजीसार्वजनिक धन की बिना पर अपना महिमामंडनझूठदंभघृणाअंतिम हद तक घिनौना सांप्रदायिक तेवर- इन सबकी सामूहिक हार है. मनुष्य की कमजोरियों को निशाना बना कर राजनीति में जो कुछ भी हासिल किया जा सकता हैउन सबकी कोशिश 2014 से ही चल रही है. यह उसकी पराकाष्ठा का दौर है. भारतीय जनता पार्टी को इसका ही घमंड रहा कि कोई भीकैसा भी चुनाव हो हमारा अंतिम मोहरा मोदीजी हैं. वे मैदान में उतरेंगे और हवा बदल जाएगी. ऐसा होता भी रहा क्योंकि सार्वजनिक जीवन को मोदीजी की तरह दूषित दूसरा कोई नहीं कर सकता. लेकिन कर्नाटक में वह मोहरा पिट गया! 

भारतीय जनता पार्टी इस हार से दुखी होयह संभव है लेकिन यदि उसमें थोड़ी राजनीतिक समझदूरदर्शिता व आत्मसम्मान बचा हो ( कहांकिधर मुझे दिखाई तो नहीं देता है ) तो उसे इस हार से खुश होना चाहिए. लोकतांत्रिक राजनीतिक दल के रूप में भारतीय राजनीति में उसे अपनी जगह व अपना अस्तित्व बनाए रखना हो तो उसके लिए यह स्वर्ण अवसर है. भारतीय जनता पार्टी के लोकतांत्रिक तत्वों को तुरंत एकजुट होना चाहिए और मोदी-शाह नेतृत्व के रंग व ढंग के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए. 

चुनावों की जय-पराजयसत्ता पर कब्जा जैसी मानसिकता कितनी गर्हित व खोखली होती हैयह पहले भी कई बार प्रमाणित हुआ है. अपार बहुमत वाली इंदिरा गांधीअश्रुतपूर्व बहुमत वाले राजीव गांधीगहरी शुभेच्छा के साथ गद्दी पर बिठाए गए मोरारजी देसाईकिसी वरदान की तरह कबूल किए गए विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि इसके ही उदाहरण हैं. लोकतंत्र की यांत्रिक प्रक्रिया से गद्दी तक पहुंच जाना सरल है लेकिन संविधान की छलनी से पार निकलना खेल नहीं है. जिसने भी यह बात भूली या अहंकार में इसे दफनाने की कोशिश कीवह इतिहास के कूड़ेखाने में गिरा मिला. यह बात किसी भी सत्ता के लिए सही है - चाहे राज्य की हो या केंद्र की. कर्नाटक भारतीय जनता पार्टी के लिए खतरे की घंटी है याकि विनाश की शुरुआतयह देखने की बात है. यदि इस पार्टी में कहींकोई अटल-तत्व बचा हो तो उसके आगे आने व सक्रिय होने की यह अंतिम घड़ी है.  

कर्नाटक की जीत को अपनी जीत मान कर चलेगी तो कांग्रेस गड्ढे में गिरेगी. संसदीय लोकतंत्र में जनता तो वोटों की भाषा में बोलती है. उसे खोल कर समझना आपकी राजनीतिक समझ व लोकतांत्रिक आस्था पर निर्भर है. कर्नाटक में जनता ने भारत की ओर से कहा है कि उसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पसंद नहीं हैउसे अवसरवादी राजनीति पसंद नहीं हैउसे झूठ व मक्कारी पसंद नहीं है. मोदी-शाह रणनीति लोकतंत्र को बाजार बनाने की है. उसमें नैतिकताईमानदारीआदर्शसर्वधर्म समभावसामाजिक संकीर्णताओं से समाज को ऊपर उठाने का संघर्षसंवैधानिक मर्यादाएं आदि थोथा चना बाजे घना’ से अधिक मतलब के नहीं रह गए. लेकिन कांग्रेस व दूसरे दलों के सारे अवसरवादी तत्वों को पार्टी में ले करटिकट दे कर सरकार बनानेन जीते तो अवसरवादियों को खरीद लेने की कला पर मोदी-शाह का एकाधिकार नहीं है. कांग्रेस भी यह करने की कोशिश करती मिलती हैदूसरे दल भी इस राह को पकड़ने में लगे रहे हैं. अगर भारतीय लोकतंत्र के पास यही एकमात्र रास्ता है बचा हैतो चुनाव में मतदाता के पास चुनने जैसा कुछ बचा कहां है ! नागनाथ-सांपनाथ का ही विकल्प यदि लोकतंत्र है तो इसकी फिक्र में हम दुबले क्यों हों इसलिए लोकतंत्र का खेल नहींखेल का रास्ता बदलना देश के राजनीतिक भविष्य के लिए जरूरी है. 

राहुल गांधी ने कहा कि कर्नाटक में हमने ‘ घृणा के बाजार में प्यार की दूकान खोल दी है.’ यह जुमला है हो ही सकता हैक्योंकि देश जुमलों से घायल पड़ा है. राहुल गांधी को सिद्ध करना होगा कि यह जुमला नहींउनकी आस्था है. आस्था है तो इसकी कीमत देने की तैयारी करनी होगी. जीत या हार चुनाव में नहींउससे कहीं पहले समाज में निर्धारित होती हैफिर वोट की शक्ल लेती है. हमने देखा ही है कि समाज को पतनशील बना कर भी चुनाव जीता जा सकता है लेकिन हम यह भी देख रहे हैं कि वह चुनावी जीत लोकतांत्रिक हार में बदल जाती है. इसलिए लोकतंत्र के भीतर छिपे इस रहस्य को पहचानने व आत्मसात करने की जरूरत है कि समाज को ऊंचा उठानाएकरस बनानासमता व समानता की तरफ ले जानानिर्भय व निष्कपट बनाना संसदीय लोकतंत्र का अभिन्न दायित्व है. 

कर्नाटक ने यह कहा तो है लेकिन हमने इसे समझा कि नहींइसकी जांच करने 2024 से पहले भी कई मुकाम आने वाले हैं. भारतीय जनता पार्टी भीकांग्रेस भी तथा विपक्ष का बिल्ला लगाए घूमने वाले सभी दल भारतीय लोकतंत्र की इस कसौटी पर परखे जाएंगे. 

ठोकरें  खा के भी न संभले तो मुसाफिर का नसीब

वरना पत्थरों ने तो अपना फ़र्ज़ निभा ही दिया.