Tuesday 16 October 2018

बा: बापू की साथी


गांधी : 150

मां ब्रजकुंवरी अौर पिता गोकुलदास मकनजी की बेटी कस्तूर … तारीख तो पक्की किसी को पता नहीं लेकिन सन् सबको याद है कि 1868 था जब वह पैदा हुई थी. फिर हुअा यह कि 14 साल की कस्तूर अौर 13 साल के मोहन दास का विवाह 1882 में हुअा। कस्तूर ने न कभी अपने जीवन के बारे में अौर न जिसके जीवन में उसका प्रवेश हुअा, उसके जीवन के बारे में कभी सपने में भी वह सोचा होगा जो हुअा अौर जो उसे मिला। 1882 से 1944 तक वे एक ज्वालामुखी के साथ रहती रहीं; एक तूफान के संग तिनके की तरह उड़ती रहीं; एक अतल गहरी चेतना को थाहने की कोशिश करती रहीं, अौर इन सारे झंझावातों के बीच खुद को भरपूर संभालती रहीं। इसी क्रम में वे कस्तूर से कस्तूर गांधी बनीं, कस्तूर बा बनीं अौर फिर बा बन कर अनंत में विलीन हो गईं। अौर अपनी इस पूरी जीवन-यात्रा में वे एक चुनौती बनी रहीं - अपने लिए भी; महात्मा गांधी के लिए भी; उनके विचारों अौर उनके यम-नियमों के लिए भी; उनके साथी-सहयोगियों के लिए भी। बा जब तक रहीं एक शाश्वत चुनौती बनी रहीं। 
बैरिस्टर मोहन दास अपनी कस्तूर अौर अपने बच्चों को जैसी िंजदगी देने की अभिलाषा ले कर दक्षिण अफ्रीका अाए थे, उसे उन्होंने पूरा नहीं किया, ऐसा नहीं था। दक्षिण अफ्रीका पहुंच कर युवा बैरिस्टर गांधी ने खूब नाम कमाया अौर भरपूर नामा भी बटोरा ! लेकिन सफलता व वैभव की हवा पर सवार उड़ती पतंग सरीखी जिंदगी उनका रास्ता कभी नहीं थी। वे तो बचपन से ही हवाअों पर सवारी करने वाले अादमी थे। ऐसा नहीं होता तो तमाम तरह की कमजोरियों अौर फिसलनों से घिरा मोहन वहां से निकल ही कैसे पाता ! लेकिन बचपन से किशोरावस्था तक मोहन दास उनसे निकलता ही गया। फिर बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी इंग्लैंड में इन सबसे कटता-बचता अागे बढ़ा।   फिर वह पहुंचा दक्षिण अफ्रीका। यहां अा कर सफलता व वैभव में खो जाने के अवसर कम नहीं थे। लेकिन जो खो जाए वह गांधी ही क्या ! 
लेकिन कस्तूर का क्या ? वे तो नहीं अाई थीं दक्षिण अफ्रीका वह जीने के लिए जिसमें बैरिस्टर गांधी ने धीरे-धीरे उन्हें डाल दिया। एक सामान्य, घरेलू महिला जैसी शांत, भरी-पूरी जिंदगी की कल्पना करती है, बा उससे अलग कुछ नहीं चाहती थीं।  वे जो चाहती थीं उससे एकदम विपरीत जिंदगी उन्हें मिली। ऐसी जिंदगी कि कोई लड़की कह उठे कि यह भी कोई जिंदगी है ! उन्होंने कहा; अपनी तरह से यह भी कहा अौर दूसरा भी बहुत कुछ कहा, कई मौकों पर कहा लेकिन जिंदगी के अर्थ की तलाश में खोये मोहन दास ने न उसे सुना, न उसका समय उसे दिया। फिर कस्तूर ने क्या किया ? कड़ी असहमति जताते हुए भी खुद को बड़ी कड़ाई से मोहन दास के अनुकूल बनाने की कोशिश की। असहमति जताना यानी सामने चुनौती पेश कर देना ! चुनौती का जवाब तो उसे देना होता है न जिसे चुनौती मिली है, सो हम बार-बार मोहन दास को जवाब देते पाते हैं। उनकी शरीर-श्रम की अनिवार्यता की शर्त; उनकी सब जाति-धर्म को एक साथ, एक समान बरतने की शर्त; परिजन-अन्य जन का भेद न करने की शर्त; छुअाछूत अौर देशी-विलायती अादमी का ख्याल न करने की शर्त; अौरत-मर्द की दूरी व बराबरी की शर्त; सार्वजनिक धन व निजी संपत्ति का विभेद पालने की शर्त; अपने अौर दूसरों के बच्चों की पढ़ाई व प्राथमिकता में फर्क न करने की शर्त ! … शर्त-शर्त-शर्त !!! इतने  सारे  यम- नियम से लदे-फदे मोहन दास जीवन का अर्थ खोज रहे थे, कस्तूर अपना पति अौर अपने बच्चों का पिता खोज रही थी। इसलिए मोहन दास के लिए कस्तूर अौर कस्तूर के लिए मोहन दास चुनौती बने रहे। चुनौती ऐसी सीधी कि मोहन दास तिलमिलाहट से उफन उठे अौर अनजान देश में, एकाकी रात में सीधे बांह से पकड़ कर घर से बाहर निकाल देने का उपक्रम किया; अौर सामने से ‘तुम्हें शर्म नहीं  अाती!’ की चुनौती ऐसी उठी कि शर्म से गड़ कर, पश्चाताप के अांसुअों में सराबोर हो गये। कस्तूर की दी चुनौती हवा में टंगी रही लेकिन पत्नी का प्यार उन्हें खींच कर पति के पास ले गया अौर स्नेह से पति को पास ले कर बोली : तुम भी तो इंसान हो न !… बा ने वहां से चलते हुए यहां तक की यात्रा पूरी की कि अागा खान जेल में मृत बा के पास पाषाणवत् बैठे बापू को ख्याल अाया कि अब नये तरह से जीवन जीना सीखना होगा मुझे- बा के बिना जीवन ! 
बा खास कुछ पढ़ी-लिखी नहीं थीं। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए भी बापू ने चाहा था कि वे प़ना-लिखना अच्छे से सीख लें। लेकिन बा ने इसमें दिल डाला ही नहीं। इसलिए  बापू के साथ रहते हुए भी, उस दौर में उन्होंने खास कुछ पढ़ा-लिखा नहीं। फिर बा को हम चंपारण में पाते हैं। गांधी अब खासे महात्मा बन चुके हैं। बड़े लोगों का उनका साथ है, बड़ी बातों से उनका सरोकार है। लेकिन उनकी समझ व उनकी कार्य-शैली ऐसी है जो जमीन छोड़ कर नहीं चलती है। इसलिए चंपारण का काम अागे बढ़ाने के लिए वे महादेव भाई को बुलाते हैं अौर बा को साथ लाते हैं। 
बा ने चंपारण में जो काम किया अौर जिस तरह किया अभी उसका पूरा अाकलन बाकी है। चंपारण के जीवन में गांधी का सहज प्रवेश हो सका तो इसके पीछे उनकी अनोखी कार्यशैली तो थी ही, बा की मजबूत व सक्षम उपस्थिति भी थी। बा के कारण बापू के लिए चंपारण के घर के द्वार खुले। चंपारण में बापू को दो काम सबसे जरूरी लगे - पढ़ाई व सफाई ! बा को उन्होंने इन दो मोर्चों की जिम्मेवारी सौंपी अौर बा ने अपूर्व कुशलता से इन दोनों मोर्चों पर काम भी किया अौर चंपारण के जन-जीवन से नये सिपाही तैयार भी किए। चंपारण के काम से अौर देश के दूसरे कामों से बापू को चंपारण से निकलना भी पड़ता था लेकिन बा चंपारण में तब तक डटी रहीं जब तक चंपारण का काम स्थानीय लोगों को सौंप कर बापू ने वहां से विदाई न ले ली। लेकिन चंपारण में हम बा को एक परिपक्व सामाजिक कार्यकर्ता बनते पाते हैं । 
  वे बापू के राजनीति कामों व उसके पीछे की बारीकियों को समझती भी कम ही थीं अौर उनमें हाथ भी नहीं डालती थीं। वे तब बंबई में बापू के साथ ही थीं जब 8 अगस्त 1942 को बापू ने भारत छोड़ो अांदोलन की घोषणा की। उसके बाद, उन्होंने वे भयानक गिरफ्तारियां देखीं जो पौ फटने से पहले बापू समेत सारे नेताअों की हुई। कौन कहां पकड़ा गया अौर गिरफ्तार कर कौन कहां भेजा गया, किसी  को पता नहीं था। बापू भी बंबई के मणि भवन से गिरफ्तार कर कहां ले जाए गये, यह किसी को पता नहीं था। लेकिन एक बात सबको पता थी कि 9 अगस्त 1942 की शाम को बंबई की चौपाटी पर वह अामसभा रखी गई है जिसे बापू को संबोधित करना है। सवाल सीधा था - चौपाटी की सभा को अब कौन संबोधित करेगा ? बा को इस गाढ़े वक्त अपनी भूमिका तै करने में थोड़ी देर भी नहीं लगी। वे सहज ही बोल उठीं : मैं उस सभा को संबोधित करूंगी ! बापू की अनुपस्थिति भरने के लिए भारत छोड़ो अांदोलन की उस पहली सभा को संबोधित करने वे अपनी पहल से पहुंची थीं लेकिन सभा-समारोहों में बोलने की पहल उन्होंने कभी नहीं की। 
अपने अौर अपने बच्चों के प्रति बापू की तथाकथित कठोरता का पहला निशाना वे ही बनती थीं लेकिन बापू पर लगने वाले हर निशाने का जवाब देने को वे हमेशा तत्पर मिलती थीं। देश-दुनिया की तमाम बड़ी हस्तियां बापू के इर्द-गिर्द मंडराती थीं अौर बा उन सबके बीच, िबना किसी दावेदारी के अपनी अलग जगह बनाए रखती थीं।  
ऐसी बा हर उस महिला के लिए, अौर हर उस इंसान के लिए चुनौती थीं, अौर अाज भी हैं जो अपनी सामान्यता की हीनता में दबा-सिकुड़ा रह जाता है। सामान्यता वह कच्चा माल है जिससे असामान्यता का पक्का लोहा तैयार होता है। इसलिए हम सबकी सामान्यता हीनता में सिकुड़ने के लिए नहीं बल्कि लगातार मांजने के लिए है। हम बा को यह उद्यम करते पाते हैं। बा को यह पहचानने में काफी समय लगा कि वे जिस पुरुष के साथ रह रही हैं वह सामान्य पुरुष नहीं, कुछ एकदम अलग अौर कोई नई चीज है। इस अलग अौर नये अादमी को कदम-दर-कदम बनते अौर बनने के क्रम में विफल होते, फिसलते भी उन्होंने देखा है। इसलिए स्वाभाविक है कि बापू के प्रति उनका नजरिया अौर उनकी प्रतिक्रिया दूसरों से भिन्न होती है। लेकिन एक बार यह सब पहचान लेने के बाद अौर इस पहचान के स्थिर हो जाने के बाद वे उस पुरुष की अाभा से लड़ती अौर खुद को अारोपित करती कहीं नहीं मिलती हैं बल्कि उसकी अौर अपनी निजता का दायरा बना कर जीने लगती हैं। इसे साथी कहते हैं। वह साथी नहीं है जो हरदम गर्दन पर सवार रहे।  साथी वह भी नहीं है जो तुमसे विमुख हो जाए अौर अपनी उदासीन दुनिया में छुप जाये।  साथी वह है जो अपनी अौर तुम्हारी, दोनों की अस्मिता को पूरा अवकाश देते हुए तुम्हारा दायित्व स्वीकार करे। यह दोतरफा चलने वाली प्रक्रिया है। बा अौर बापू के बीच यह प्रक्रिया बड़े अनोखे ढंग  से निष्पन्न होती है। वे बापू की अधिकांश पहल से असहमत होती हैं। बापू का गाय का दूध पीना छोड़ना भी उन्हें समझ में नहीं अाता है लेकिन बापू को बकरी का दूध पीने का विकल्प भी वे ही सुझाती हैं। वे अपने सबसे बड़े बेटे हरिलाल के प्रति बापू के रवैये से सर्वथा सहमत नहीं हैं अौर उसका पतन देख कर खून के अांसू रोती हैं। बापू को जिम्मेवार भी बताती हैं। लेकिन वे इसकी भी प्रत्यक्षदर्शी हैं कि हरिलाल का पतन बापू को कितने गहरे मथता रहता है अौर वे कैसी दारुण अात्मपीड़ा से गुजरते हैं। इसलिए हरिलाल को संबालने की कोशिश करते हुए वे बापू के प्रति न कोई अन्याय करती हैं न हरिलाल के किसी अन्याय का अनुत्तरित जाने देती हैं। वे बापू के हर अनशन से असहमत होती हैं। प्रतिवाद करती हैं, कई तरह के सवाल खड़े करती हैं। बापू अपनी इस बा को समझते भी हैं अौर उनका भरपूर मान भी करते हैं। इसलिए हर अवसर पर, अपने हर कदम का अकाट्य जवाब देते हैं। बा उन तर्कों को काटती नहीं हैं, काट सकती भी नहीं हैं क्योंकि बापू के उद्भट साथियों-सहयोगियों ने वह सारा कुछ कर के देख लिया होता है। वे अपना सब कुछ उड़ेलने के बाद, बापू के निर्णय को साड़ी के पल्लू से बांध कर अलग नहीं हट जाती हैं बल्कि अपनी निष्ठा के साथ उससे जुड़ जाती हैं। यह बापू का साथी होने की कसौटी है। 
बापू की 150वीं जन्मजयंती का यह वर्ष है। बा होतीं तो 151 वर्ष की होतीं। यह पत्नी का उम्र में बड़ा होना भी तो एक चुनौती ही है न ! दोनों ने इस चुनौती का तो अस्तित्व ही मिटा दिया है। यह करीब-करीब एकाकार होने की अवस्था है। क्या यह संगत होगा कि गांधी:150 के अवसर पर इन दोनों की अलग-अलग पहचान उभारी जाए जबकि बा की जीवन-साधना ही बापू की छाया में विलीन रहना थी? बापू ही वह अस्तित्व-कण थे जिनमें घुल कर बा खुद को सार्थक मानती थीं। इस अत्यंत निजी व नाजुक संदर्भ को न जानने वालों को ऐसा क्यों लगे कि बापू के नाम पर बा उन पर उसी तरह थोपी जा रही हैं जिस तरह अाज के ‘परिवार-के-परिवार’ अौर नातेदार-के-नातेदार सारे देश पर लादे जा रहे हैं ? जरूरत इस बात की है कि हम सब अपनी-अपनी अास्था व समझ से बा की 151वीं जन्मजयंती मनाएं अौर महिलाअों के स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की स्थितियां अपने भीतर भी अौर समाज के भीतर भी पैदा करें। गांधी:150 किसी व्यक्ति का नहीं, एक विशिष्ठ चेतना के अवगाहन का अवसर है, हम यह न भूलें, न इस अहसास से भटकें. बा स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व का एक मजबूत अाख्यान लिखती हैं जिसकी धुरी स्पर्धा नहीं, साथीपन है। बा को भी अौर बापू को भी ऐसी साथियों की बहुत जरूरत है। ( 30.09.2018) 

सिकुड़ कर मजबूत हुअा अाधार



    
अाधार बनाया था तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो एक सर्वमान्य अर्थशास्त्री थे अौर राष्ट्र की अार्थिक बुनियादों को मजबूत करने में अर्जुन जैसी एकाग्रता से लगे हुए थे; अाधार को सजाया था नंदन नीलकेणी ने जो अर्थशास्री तो नहीं थे लेकिन व्यापार, टेक्नोक्रेसी अौर अार्थिक जरूरतों की अच्छी समझ रखते थे; अाधार का राजनीतिक इस्तेमाल शुरू किया अब के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो तो अर्थशास्त्री हैं, टेक्नोक्रेट अौर अार्थिक जरूरतों की पेंचीदगियों की किसी गहरी समझ का दावा कर सकते हैं लेकिन राजनीतिबाजी में जिनकी पकड़ खासी है; अाधार का अाधार तोड़ा प्रधानमंत्री के उन चापलूसों ने जिन्हें चापलूसी के अलावा तो कुछ अाता है, कोई फिक्र होती है; अाधार के खतरों से अागाह किया उन तमाम विचारकों-पत्रकारों तथा सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताअों ने जो लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में पैनी सावधानी रखते हैं; अाधार की हदबंदी की देश की सर्वोच्च अदालत ने जिसे अाज की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकता अौर लोकतंत्र की बुनियादी जरूरतों के बीच संतुलन साधना होता है। तो कह सकते हैं हम कि अाधार ने हमें खुद को भी अौर अपनी व्यवस्था को भी जांचने का एक नया अाधार दिया। 

बात शुरू तो वहां से हुई थी जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह स्वीकार किया था कि हम एक ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था चला रहे हैं जो देश के विकास के लिए खर्चने को मिले 100 पैसे में से 90 पैसा खुद खा जाती है। देश की किस्मत 10 पैसों पर निर्भर करती है। इस स्वीकारोक्ति की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन रास्ता कुछ मिला नहीं। 2009 में योजना अायोग ने यूअाईडीएअाई की सूचना जारी की अौर नंदन नीलकेणी को उसका अध्यक्ष बनाया। देश ने तो यही माना कि कार्डों से खेलने वाले देश को एक अौर कार्ड खेलने को दिया जा रहा है। मतदाता पहचान-पत्र को लेकर शेषण साहब का रौद्र रूप देश ने देखा था अौर उसका अरबों रुपयों का खर्च भी देश ने उठाया था। फिर दूसरे तमाम तरह के कार्डों के बीच पैन कार्ड का धमाका हुअा। उसने भी हमें कितना अौर किस स्तर पर जलील नहीं किया ! अौर डेबिट कार्ड अौर क्रेडिट कार्ड जैसे कार्डों की तो गिनती ही नहीं थी, है। अाधार का काम ऐसे ही कार्डों की श्रेणी में माना गया अौर मुझे लगता है कि मनमोहन सिंह सरकार को भी इसकी बहुत गंभीर कल्पना नहीं थी। उसने देश को कभी भी नहीं बताया कि क्या अाधार के बाद देश को दूसरे किसी कार्ड की जरूरत नहीं रह जाएगी ? क्या यह कार्ड नागरिकता की हमारी पहचान का एकमात्र अाधार बनेगा ? 

अाधार के बारे में दूसरे राजनीतिक दलों की बात हम करें तो ही बेहतर है। अाज के प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री अौर हाशिये पर डाल दिए गये लालकृष्ण अाडवाणी, यशवंत सिन्हा अादि की लूली-लंगड़ी टिप्पणियों को देखें हम तो समझ पाएंगे कि इनमें से किसी ने तब अाधार की व्याप्ति इसके दूसरे टेढ़े इस्तेमाल की बात सोची भी नहीं थी, समझी भी नहीं थी। लेकिन अाधार की बात सामने अाते ही निजता के अधिकार इसके उल्लंघन की संभावना की चर्चा हम जैसे लोगों ने जोर से उठानी शुरू की थी जिसकी रोशनी में नंदन नीलकेणी ने कुछ फेर-बदल भी किए थे। मनमोहन सरकार ने अपने स्वभाव के अनुरूप धीरे-धीरे इसे जांचने-समझने लागू करने की योजना बनाई थी। लेकिन सत्ता में अाने के बाद इस सरकार को इन कार्यक्रमों की दूसरी संभावनाएं समझ में अाने लगीं अौर मनरेगा, अाधार, सार्वजनिक राशन वितरण, सरकारी योजनाअों की धनराशि सीधे बैंक खातों में पहुंचाने का राजनीतिक लाभ सब जरूरी अौर अंधाधुंधी में कर डालने के काम बन गये। नोटबंदी, जीएसटी के मामले में भी एक चालाक हड़बड़ी दिखाई देती है। अाधार के साथ भी ऐसा ही किया जाने लगा। इससे जमा होने वाले अकल्पनीय अांकड़ों निजी जानकारियों का राजनीतिक इस्तेमाल अाम के अाम, गुंठलियों के दाम की तरह झोले में गिरते दिखाई दिए।अाधार अवसरवादी राजनीतिक पागलपन का अाधार बन गया।  
  
नारे कितने अर्थहीन हो सकते हैं लेकिन उनके पीछे की मानसिकता कितनी खतरनाक हो सकती है इसे ठीक से समझना हो तो पिछले दिनों उछाले गये कुछ नारों को देखें हम - एक देश: एक कर; एक देश: एक पहचान; एक देश: एक चुनाव; एक देश: एक कानून ! सुनने में अच्छी लगने वाली यह नारेबाजी तब बहुत खतरनाक रूप ले लेती है जब हम इसी सुर में एक देश: एक धर्म; एक देश : एक नेता; एक देश : एक पार्टी जैसे नारों की चीख सुनते हैं। दुनिया का इतिहास गवाह है कि ऐसे नारे फासिज्म का रास्ता साफ करते अाए हैं अौर धार्मिक उन्मादियों की जगह बनाते अाए हैं। संघीय ढांचे वाली हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नारे कहीं ठहरते ही नहीं हैं। भारत जैसे देश में खोज तो उस कीमिया की करनी है जो इसकी भिन्नताअों को सम्मानपूर्वक संभालते हुए इसकी एकता के सूत्र खोजे-गढ़े अौर मजबूत करे।

सर्वोच्च न्यायालय ने अाधार के मामले में इसी अाधार को मजबूत किया है। उसने अाधार का खौफनाक चेहरा किसी हद तक मानवीय बनाया है। उसने फिर से यह बात रेखांकित की है कि लोकतंत्र में लोक किसी तंत्र के हाथ की कठपुतली नहीं है। नागरिक के दायित्व भी हैं अौर मर्यादाएं भी हैं तो तंत्र के दायित्व अौर मर्यादाएं उससे कई गुना ज्यादा हैं अौर हर जगह, हर कसौटी पर उसे इसे निभाना है, निभाते हुए दिखाई देना है। अदालत का फैसला 4:1 की बहुमति से हुअा है। फैसला बहुमत से हो सकता है, न्याय बहुमत से नहीं होता है। इसलिए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के फैसले पर देश की भी अौर अदालत की भी सावधान नजर रहनी चाहिए। हो सकता है कि कल अाधार के बारे में देश को न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का अाधार लेना पड़े। सरकार ने इसे जिस तरह धन विधेयक बना दिया, वह खतरनाक ही नहीं है, सरकार की कुमंशा की चुगली खाता है। इसे अदालती अादेश से रोकना चाहिए तथा बैंकों से ले कर सेवा क्षेत्र की तमाम संस्थाअों को अागाह करना चाहिए कि उनकी पहली अौर अंतिम प्रतिबद्धता ग्राहकों के साथ है, सत्ताधीशों के साथ नहीं। ( 29.9.2018)   

अर्थशास्त्री गांधी



महात्मा गांधी दूसरे किसी  अर्थ में हों या हों, इस अर्थ में जीवित हैं कि हम भारत में, अौर दूसरे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जब किसी भी समस्या से घिरते हैं तो बाहर निकलने का रास्ता तलाशते हुए गांधी तक पहुंचते हैं। यह भी कम ही होता है कि हम या वे गांधी रास्ता स्वीकार के लेते हैं। गांधी को स्वीकार कर लेना इतना सरल कभी नहीं रहा है। अाप उन्हें टुकड़ों में समझने अौर अपनाने की कोशिश करेंगे तो बड़ी बुरी स्थिति में पड़ेंगे, क्योंकि गांधी की समग्रता में ही उनकी परिपूर्णता है। हम अाज उस दौर में है जोशॉर्टकटकी खोज करता है - जल्दी अौर अासान रास्तों से सफलता ! लेकिन सबसे जल्दी अौर अासान रास्ता तो वही है कि जो अापको अापकी मंजिल तक पहुंचाता हो ?  जो मंजिल तक पहुंचता ही हो वह चाहे जितना अासान हो, छोटा हो हमारे किस काम का ? यही गांधी कहते अौर समझाते हैं। 

गांधी पूछते हैं कि हम सबसे पहले तय यह करें कि हम चाहते क्या हैं इस बारे में सबकी सहमति हो जाए तब यह देखें कि यह हो कैसे ? साधन, तकनीक, संसाधन अौर बाजार - ये चार बातें भी हमें देख-समझ लेनी पड़ेंगी। वे कहते हैं कि यह जब पक्का हो जाए तब काम में जुट पड़ों, सफलता कदमों में रखी है। वे कहते हैं कि मैं गुजराती बनिया हूं तो घाटे का सौदा करता ही नहीं हूं. तो हमारा हमारे सामने चुनौती बेरोजगारी की है। हर सरकार के सामने यह सवाल होता है अौर हर सरकार अपना संकल्प भी बताती है कि वह किस तरह नये रोजगारों का सर्जन करेगी लेकिन होता यह है कि मनचाही परिस्थितियां मिलती हैं, मनचाहे लोग मिलते हैं, पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होते हैं, अावश्यकतानुसार साधन ! हमारी सारी कोशिश अांकड़ों के जंजाल में उलझ कर रह जाती है अौर हम ख्याली पकौड़े तलते मिलते हैं। 

गांधी को पता है कि संकल्प, साधन, तकनीक, संसाधन अौर बाजार की चुनौती से कोई बच नहीं सकता है। इसलिए वे अपना काम बुनियाद से खड़ा करते हैं। वे गांवों को अपना अाधार इसलिए नहीं बनाते हैं कि वहां सब कुछ अासानी से हो  जाएगा बल्कि इसलिए बनाते हैं कि वहां वह सब कुछ उपलब्ध है जिसकी हमें जरूरत है। वे यह भी बताते हैं हमें कि यह पेंच बहुत पुराना है कि जहां संसाधन हैं, वहां लोग नहीं हैं; जहां लोग हैं वहां संसाधन नहीं हैं। इसलिए उनका रास्ता यह है कि जहां लोग हैं वहां हम पहुंचें अौर उनके पास जो संसाधन हैं उससे काम शुरू करें। 

सभ्यता के सहज विकास-क्रम में अादमी ने जहां रहना शुरू किया वह गांव था। सब वहीं रहते अाए हैं। गांवों के पास स्थायी प्राकृतिक संसाधन हैं - जल, जंगल अौर जमीन ! गांधी कहते हैं कि इन्हीं संसाधनों का मनमाना दोहन कर के तो अौद्योगिक क्रांति के बाद का संसार बनाया है हमने। हमने चूक यह की कि मशीनें, कारखाने, परियोजनाएं अादि सबकी-सब हमने वहां स्थापित की जहां लोग नहीं थे। ऐसा शायद इसलिए किया कि जहां अाबादी नहीं है वहां निर्माण का काम अबाध गति से हो पाता है। हमने यह सुविधा तो देखी लेकिन इसमें से पैदा होने वाला खतरा नहीं देखा। देखते भी कैसे ? हमें ऐसा करने का कोई अनुभव तो था नहीं। हमारे परंपरागत समाज की चालक-शक्ति वे थे जो मेहनत से उत्पादन करते थे, अौद्योगिक क्रांति ने समाज का चालक उसे बना दिया जिसे पास पूंजी थी। श्रमिक से धनिक की तरफ समाज की इस छलांग ने पूंजी तो बेहिसाब बढ़ाई लेकिन उसे बहुत छोटे समूह तक सीमित कर दिया। पूंजी वाले इस समूह ने अपनी सुविधा देख कर विकास के पैमाने तय किए। जब ढांचा खड़ा हो गया तब पता चला कि काम करने वाले लोग तो वहां हैं ही नहीं। लोग कहीं थे, साधन कहीं अौर बनाया गया। हम अपनी इस चूक को समझ कर सुधारते अौर वापस लौटते तो भी खैर थी लेकिन पूंजीसंपन्न वर्ग ने इस मशक्कत से मुंह चुराया, अौर अपनी चूक को कबूल करने की जगह रास्ता यह निकाला की मनुष्यों को अपनी जगह से उखाड़ कर वहां लाया जाए जहां साधन बनाया गया है। इस तरह कारखानों दूसरे प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द शहरों-नगरों-कस्बों का निर्माण होने लगा। गांव प्राकृतिक संरचना है जो प्रकृति के अाधार पर बना-बसा अौर संपन्न हुअा; शहर कृत्रिम संरचना है जिसके पीछे पूंजी की ताकत अौर श्रमिक वर्ग की लाचारी है। अाबादी बढ़ने, अावश्यकताएं बढ़ने के साथ-साथ अौद्योगिक विकास की यह जटिल संरचना अौर भी जटिल होती गई। फिर इसमें एक दूसरा पेंच यह अा पड़ा कि मशीनों से हो रहा बेहिसाब उत्पादन बिके कहां ? तो रास्ता यह निकाला गया कि उत्पादन जहां कहीं भी हो, उत्पादित माल वहां पहुंचाया जाए जहां लोग रहते हैं। यहां से बाजार एक नई ताकत बन कर गांव-गांव तक पहुंचा। एक बाजार पर्याप्त नहीं था, तो नये-नये बाजार खोजने अौर वहां पहुंचने की होड़ शुरू हुई अौर इस तरह वह भयानक उपनिवेशवाद पांव फैलाने लगा जिसने सारी दुनिया में गुलामी का एक दौर चलाया। हम भी उस चक्की में लंबे समय तक  पिसते रहे। 

यह इतिहास अौर उसका यह परिणाम गांधी ने देखा समझा तथा 1909 में लिखी अपनी कालजयी पुस्तकहिंद-स्वराज्यमें बड़ी की लाक्षणिक शैली में हमें समझाया। लेकिन गांधी किताबी विद्वान नहीं थे। उनके व्यक्तित्व में क्रांतिकारी विचारक-योद्धा का अनोखा संगम था। इसलिए उन्होंने इंसान, पूंजी अौर बाजार का यह विष-चक्र तोड़ने की योजना बनाई अौर खादी-ग्रामोद्योग का पूरा दर्शन खड़ा किया। दर्शन ही खड़ा नहीं किया बल्कि उसे प्रयोगशाला में उसी तरह जांचा-परखा जिस तरह कोई भी वैज्ञानिक अपनी खोज को जांचता-परखता है। विदेशी के बहिष्कार अौर स्वदेशी के स्वीकार का उनका पूरा अांदोलन वह प्रयोगशाला थी जिसमें वे इसकी व्यावहारिकता इसके परिणामों को परख रहे थे। खादी का काम जिस गति से बढ़ा अौर खादी ने विदेशी सामानों के बाजार को जिस तरह चोट पहुंचाई अौर खादी का विकसित होता बाजार जिस तरह सुदूर इंग्लैंड में लंकाशायर की कपड़ा मिलें को बंदी की कगार पर ले गया, उसने यह प्रमाणित कर दिया कि खादी-ग्रामोद्योग की उनकी अवधारणा में शक्ति भी है अौर संभावना भी। 

खादी-ग्रामोद्योग की उनकी पूरी अवधारणा के पीछे उनकी सोच यह है कि जहां संसाधन हैं अौर लोग हैं वहां ही विकास के साधन पहुंचाएं हम। लक्ष्य यह है कि हर इंसान की बुनियादी जरूरतें पूरी हों ही ! वे बुनियादी जरूरतों में घर-रोटी-कपड़ा ही नहीं जोड़ते हैं, अाजादी अौर स्वाभिमान को भी जोड़ते हैं। मतलब यह कि उनकी कल्पना का समाज अपनी भौतिक अांतरिक या अाध्यात्मिक जरूरतों के मामले में अात्मनिर्भर होगा।वे इस दर्शन का अाधार तैयार करते हुए कहते हैं कि अाप उत्पादन को जितना विकेंद्रित करेंगे, शोषण उतना कम होगा। उत्पादन तभी विकेंद्रित होगा जब पूंजी विकेंद्रित होगी। इसलिए गांवों को केंद्र बना कर, वहां के संसाधनों का वैज्ञानिक नियोजन कर, उत्पादन के साधन खड़े करना अौर वहीं उनके उपभोक्ता तैयार करना -  अत्यंत सरल तरीके से कहूं तो यह गांधी की अर्थ-रचना है।जब लाखों गांवों में ऐसा अर्थतंत्र विकसित होगा तो पूंजी के सम वितरण का शास्त्र बनाना होगा, अौर तब हम यह समझ सकेंगे कि सारे देश की दौलत समेट कर दिल्ली पहुंचाना अौर फिर वहां से वितरित करना अवैज्ञानिक प्रक्रिया है, इसमें पूंजी का भयंकर अपव्यय होता है, भ्रष्टाचार को खुला खेलने का मौका मिलता है अौर लोगों की जरूरत की नहीं, बाजार की जरूरत का उत्पादन होता है। इस बड़े लेकिन बुरे खेल में पहले उपनिवेशवादी ताकतें शामिल थीं, अब वे ही ताकतें चेहरा बदल कर सत्ता-संपत्ति-बाजार का त्रिभुज बना रहीं हैं। गांधी ने यह खेल समझ लिया था अौर गांवों को शासन की बुनियादी ईकाई बनाने की कोशिश की थी। 

अाज सारी दुनिया अार्थिक मंदी से घिरी हुई है। इतिहास बताता है कि जब-जब ऐसी गहरी अार्थिक मंदी ने संसार को घेरा है, विश्वयुद्ध हुए हैं। अाज का बड़ा-छोटा हर अर्थशास्त्री इस अाशंका से परेशान है कि क्या यह मंदी भी किसी विश्वयुद्ध को जन्म देगी ? अाशंका के बादल घिर रहे हैं। इसलिए भी जरूरी है कि हम गांधी के अर्थ-दर्शन को समझें। उन्होंने हमें पूरी अाजादी दे रखी है कि हम उसमें अपनी जरूरत का जो भी फर्क करना चाहें करें लेकिन इस सावधानी के साथ कि उसकी मुख्य टेक कहीं धरी रह जाए- वह टेक जो घोषणा करती है कि सभी मनुष्य समान सिरजे गये हैं इसलिए जीने की बुनियादी जरूरतें सबकी पूरी होनी ही चाहिए। वे हमसे कह गये हैं कि धरती के हर इंसान हर प्राणी की जरूरतें पूरी करने के लिए प्रकृति के पास अखूट संसाधन हैं लेकिन उसके पास एक अादमी के भी लालच को पूरा करने की कूवत नहीं है। मतलब यह कि हम सबको अपनी जरूरतें कम-से-कम करने की अावश्यकता है, क्योंकि दुनिया में किसी भी संसाधन का अक्षय भंडार नहीं है। हम जितनी किफायत से प्रकृति से अपनी जरूरतें लेंगे, प्रकृति को उतना ही वक्त मिलेगा कि वह अपने संसाधनों का भंडार भरती रहे। अगर हम उस मूढ़ की तरह बरतेंगे जिसने अपनी मुर्गी इसलिए काट दी थी कि वह हर दिन एक अंडा पाने से संतुष्ट नहीं था अौर चाहता था कि मुर्गी के पेट से सारे अंडे एक बार ही निकाल ले, तो हम उसी कंगाली में जीने के लिए अभिशप्त हो जाएंगे जिसकी तरफ दुनिया तेजी से दौड़ती जा रही है।   
             
इसलिए यह समझना जरूरी है कि खादी की बड़ी-बड़ी, चमकीली दूकानें खादी की अात्मा का हनन करती हैं, खादी बिक्री के बढ़ते अांकड़ों में छिपा कोई व्यापार नहीं है। जो हर पहर अपनी पोशाकें बदलते हैं अौर समाज में उसकी कीमत का अातंक बनाते हैं, उनकी पोशाक खादी की है या पोलिएस्टर की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. वह खादी की हो फिर भी गांधी की नहीं है।

खादी के लिए गांधी सिर्फ तीन सरल सूत्र कहते हैं : कातो तब पहनो, पहनो तब कातो अौर समझ-बूझ कर कातो ! अाज की खादी का इन तीन सूत्रों से कोई नाता नहीं है. सरकार अौर बाजार के हाथ में गांधी की खादी सुरक्षित नहीं है, यह देख-जान कर विनोबा भावे के खादी कमीशन के समांतर खादी मिशन बनाया था अौर कहा था : जो -सरकारी होगा, वही असरकारी होगा ! गांधी ने खादी की ताकत यह बताई थी कि इसे कितने लोग मिल कर बनाते हैं यानी कपास की खेती से ले कर पूनी बनाने, कातने, बुनने, सिलने अौर फिर पहनने से कितने लोग जुड़ते हैं, यह अाधार होगा खादी की सफलता जांचने का। खादी उत्पादन यथासंभव विकेंद्रित हो अौर इसका उत्पादक ही इसका उपभोक्ता भी हो ताकि मार्केटिंग, बिचौलिया, कमीशन जैसे बाजारू तंत्र से मुक्त इसकी व्यवस्था खड़ी हो. जब गांधी ने यह सब सोचा-कहा तब कम नहीं थे ऐसी अापत्ति उठाने वाले कि यह सब अव्यवहारिक है, यह बैलगाड़ी युग में देश को ले जाने की गांधी की खब्त है, यह अाधुनिक प्रगति  के चक्र को उल्टा घुमाने की कोशिश है ! अाज भी तथाकथित अाधुनिक लोग, विशेषज्ञ ऐसा ही कहते हैं। लेकिन अाज पर्यावरण का भयावह खतरा, संसाधनों की विश्वव्यापी किल्लत, नागरिकों की अौर प्राकृतिक संसाधनों की अंतरराष्ट्रीय लूट अादि को जो जानते-समझते हैं, वे सब स्वीकार करते हैं कि गांधी इस शताब्दी के सबसे अाधुनिक अौर वैज्ञानिक चिंतक थे जिन्होंने अपने दर्शन के अनुकूल व्यावहारिक ढांचा विकसित कर दिखला दिया। गांधी ने खादी को सत्ता पाने का नहीं, जनता को स्वावलंबी बनाने का अौजार माना था। वे कहते थे कि जो जनता स्वावलंबी नहीं है वह स्वतंत्र लोकतांत्रिक कैसे हो सकती है ? 

गांधी के खादी-ग्रामोद्योग का यह रहस्य हम जितनी जल्दी समझेंगे उतनी जल्दी नई संभावनाएं खुलने लगेंगी। ( 23.09.2018)