Tuesday 25 October 2016

ऐ दिल है मुश्किल…

कहने को लोग उन्हें पेज थ्री पर्सनैलिटी’ कहते हैंमैं उन्हें चूहों की जमात कहता हूं. अपने ही जेब के भार से बोझिल लेकिन व्यक्तित्वहीन इस जमात का यह सबसे बुरा दौर है जब वह एकदम नंगा हो गया है लेकिन न कह पा रहा हैन लड़ पा रहा हैन हंस पा रहा है और न रो पा रहा है ! इसे कहते हैं भई गति सांप-छछुंदर की ! और आप देखिए तो कि ऐसी गति को कौन लोग पहुंचे हैं : श्रीमान अमिताभ बच्चनकरण जौहरमुकेश भट्टमहाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीसदेश के गृहमंत्री राजनाथ सिंहमहाराष्ट्र की एक पिद्दी-सी राजनीतिक पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरेफिल्म उद्योग के तीन बड़े नाम सिद्धार्थराय कपूरसाजिद नडियाडवाला तथा फॉक्स स्टार स्टूडियो के कोई विजय सिंह. इन सबने मिल कर एक ऐसी सशक्त फिल्म बनाई है जिसने देश की राजनीतिकसामाजिक और सांस्कृतिक अवस्था का वैसा पर्दाफाश किया है जैसा कोई दूसरा कभी कर ही नहीं सका. फिल्म का नाम है ऐ दिल है मुश्किल ! जब कहीं जरा-सी भी आहट होती है तो तीसमारखां चूहों में कैसी खलबली मचती है और सभी कैसे अपने-अपने बिलों में जा समाते हैंइस पर बनी यह अब तक की सबसे सशक्त फिल्म है.  

करण जौहर हमारे सिनेमा के प्रतिनिधि नामों में नहीं हैं और उनकी फिल्में रुपये भले गिनती होंकिसी खास गिनती में नहीं आती हैं. लेकिन  अक्सर मूर्खता व शालीनता की हद पार कर जाने वाले करण जौहर ने अपनी एक बेबाक छवि जरूर गढ़ी थी जो आज अपमानित अवस्था मेंटूटी-फूटी पड़ी है और उनके पास रोने को एक आंसू या कहने को एक शब्द  नहीं हैं. आज वे और उनका पूरा मुंबइया फिल्म उद्योग किसी बंधुआ मजदूर की तरह दिखाई दे रहा है तो इसलिए कि राज ठाकरे की देशभक्ति की गाज उस पर गिरी है. राज ठाकरे की यह देशभक्ति उनकी अपनी आसन्न राजनीतिक मौत को टालने की अंतिम कोशिश में से पैदा हुई है. 

पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भारतीय समाज और संविधान पर लगातार सर्जिकल स्ट्राइक हो रहे हैं. ऐसा करके और ऐसा करने की छूट दे कर केंद्र सरकार देशभक्ति का वह बुखार पैदा करना चाहती है जिसे वह चुनाव में भुना सके. राज ठाकरे ने इस मौके को पहचाना और बहती गंगा में हाथ धोने की चाल चली. उन्होंने यह फरमान जारी कर दिया कि मुंबइया फिल्मों मे काम कर रहे सारे पाकिस्तानी कलाकार भारत छोड़ कर चले जाएं - समय और तारीख उन्होंने तै कर दी ! न महाराष्ट्र सरकार ने न मोदी सरकार ने पलट कर पूछा कि भारतीय संविधान की स्वीकृति से भारत आए किसी भी विदेशी नागरिक को देश  से निकल जाने का आदेश राज ठाकरे कैसे दे रहे हैं यह अधिकार इन्हें किसने दिया ऐसा सवाल किसी ने नहीं पूछा तो क्यों इसका जवाब यह है कि महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में शामिल हो कर भी रोज-ब-रोज उसकी ऐसी-तैसी कर रही शिव सेना को धूल चटाने का मानो ठेका राज ठाकरे को दिया गया है ! यह चूहों की राजनीति है ! 

राज ठाकरे की चुनौती ने पाकिस्तानी कलाकारों का जो भी किया होभारतीय फिल्मकारों को सीधे कठघरे में खड़ा कर दियाऔर वह भी किनकोतो करण जौहरशाहरुख खान और सलमान खान को ! ये सारे नाम मुंबइया फिल्म उद्योग की नाक समझे जाते हैं. शाहरुख अपनी पिछली  पिटाइयों से बेहोश-से हैं लेकिन सलमान खान और करण जौहर ने बड़े तेवर से राज ठाकरे को जवाब दिया कि कला और राजनीति की दुनिया अलग-अलग होती है. कलाकार देशी-विदेशी नहीं होताकलाकार होता हैउसकी स्वतंत्रता पर हाथ डालने की कोशिश हम कबूल नहीं करते ! सलमानकरण आदि जब बोलते हैं तो गूंज होती ही है ! बात गूंजी और फैलने लगी. राज ठाकरे ने इन सबकी सड़क पर पिटाई करने का एलान किया तो उनके छुटभैय्यों ने सिनेमाघरों पर हमला करने की बाजाप्ता सार्वजनिक घोषणा कर दी. कोई कुछ नहीं बोला - न महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पूछा राज ठाकरे से कि मुख्यमंत्र मैं हूं कि आपन महाराष्ट्र पुलिस के आला अधिकारियों ने राज ठाकरे से कहा कि सड़क की गुंडागर्दी का मुकाबला करना उसे आता है ! कोई बोला तो फिल्म उद्योग के कलाकार बोले और पते की बात बोले. फिल्मी लोगों को दूसरों के लिखे डायलॉग बोलने से अधिक भी कुछ बोलना आता हैयह पता चला. फिल्मी दुनिया की अपनी आवाज इस तरह बनने लगी कि पल भर को ठाकरे-फडणवीस खेमा सन्नाटे में आ गया. तभी इसकी हवा निकाली मुंबइया फिल्मों के सिरमौर माने जानेवाले अमिताभ बच्चन ने ! जब उनके हमपेशा लोगों को सड़क पर पीटने की धमकी दी जा रही थी तब उनके साथ आवाज उठाने की जगह अमिताभ बच्चन नेचोर दरवाजे से राज ठाकरे के पुत्र का अपने घर पर स्वागत किया. अवसर था अमिताभ के जन्मदिन का. उन्होंने राज ठाकरे के पुत्र का अपने घर पर धन्यभाग हमारे’ वाली शैली में स्वागत किया और राज ठाकरे द्वारा भेजा जन्मदिन का वह तोहफा कबूल किया जो राज ठाकरे की कलम से बने उनके ही कार्टूनों का फ्रेम था.  अमिताभ ने गदगद भाव से उसे कबूल ही नहीं किया बल्कि बेटे को अपना घर भी घुमाया और फिर राज ठाकरे के घर पर अपनी भी सौगात भेजी ताकि रिश्तों में कोई पेंच बाकी न रहे. उन्होंने गलती से यह नहीं कहा कि राज ठाकरे का भेजा जन्मदिन का निजी तोहफा मैं स्वीकार करता हूं लेकिन उनकी राजनीति को अस्वीकार करता हूं.   

हमेशा ऐसा ही होता है. अमिताभ हमेशा सावधान रहते हैं कि वे अपनी बारीक राजनीति चलाते रहें लेकिन किसी विवाद में न पड़ें. हर जगह से साफ बच निकलने में ही उन्हें अपनी चातुरी नजर आती है. राज ठाकरे के लिए यह संकेत था. चतुर राजनेता की तरह उन्होंने इसे पकड़ लिया. इस वक्त भी दूसरे फिल्मकारों का जमीर जागता तो ठाकरे मार्का राजनीति के कल-पुर्जे ढीले किए जा सकते थे लेकिन जिनके अपने कल-पुर्जे ही ढीले होंवे क्या करें ! सब अपने-अपने बिलों में जा घुसे ! राज ठाकरे ने फिर वह पत्ता चला जो हमेशा ही फिल्मवालों के होश ठिकाने ला देता है. उन्होंने फरमान जारी िकया कि जिन फिल्मों में पाकिस्तानी कलाकारों ने काम किया हैवे उनको रिलीज नहीं होने देंगे.  

इस गुंडागर्दी को केंद्र व महाराष्ट्र की सरकार ने मौन ने पूरा समर्थन दिया. उनका मौन खुली घोषणा कर रहा था कि देशभक्ति का जैसा उन्माद खड़ा करने में हम लगे हैं उसमें सहायक होने वाली हर शक्ति को अभी खुली छूट है. उनके लिए देश में न कोई कानून हैन पुलिसन सरकार ! जब सत्ता व वोट का सवाल हो तब लोकतंत्र और संविधानसम्मत स्वतंत्रताएं कोई मानी नहीं रखतीं. 

ऐसे ही मौकों पर नागरिक-शक्ति सत्ता को उसकी अौकात बताती है. यहीं व्यक्ति की परीक्षा होती है - उसकी आस्था कीउसके आत्मबल की. लेकिन फिल्म रिलीज नहीं हो सकेगीपैसे का नुकसान होगायह भय इतना बड़ा हुआ कि सारे फिल्मी शेर चूहे बनने लगे. सभी वही राग अलापने लगे जो सरकार चाहती थी. इस वक्त हिम्मत से आगे आ कर करण जौहर या सलमान खान या प्रोड्यूसर्स गिल्ड के मुकेश भट्ट ने कहा होता कि भले फिल्म रिलीज न  होहम किसी समझौते को तैयार नहीं हैंतो हवा बदल जाती ! यह कहने की जरूरत ही नहीं है कि करण जौहर या सलमान खान या इन जैसी दूसरी बड़ी फिल्मी हस्तियों के पास इतना पैसा है एक फिल्म के अंटक जाने से रोटी के लाले नहीं पड़ जाएंगे. लेकिन पैसा ही है जो आपको चूहा बना देता है. मुकेश भट्ट ने प्रोड्यूसर्स गिल्ड की तरफ से शरणागत होने का झंडा लहराया. कई फिल्मी हस्तियों के साथ वे गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिले और फिर उन्हें यह दिव्य ज्ञान हुआ कि देश  का लोकतंत्र नहींसत्ता और संपत्ति सबसे बड़ा सत्य होता है. 

गृहमंत्री ने उन्हें समझौता कर लेने की कड़ी सलाह दी. सभी मुंबई लौटे और मुख्यमंत्री फडणवीस ने अपने घर पर राज ठाकरे की अदालत सजाई. सभी अपराधी उसमें हाजिर हुए. अब राज ठाकरे भारतीय जनता पार्टी के वैसे मोहरे थे जैसे उनके चाचा कभी कांग्रेस के मोहरे थे. इतिहास दोहराया जा रहा था. कभी कांग्रेस ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निबटाने के लिए बाल ठाकरे और शिव सेना को खड़ा किया थाकभी अकाली दल से निबटने के लिए इंदिरा गांधी की सहमति से ज्ञानी जैल सिंह ने भिंडरावाले को खड़ा किया था.उसी शिव सेना ने महाराष्ट्र में और भिंडरावाले ने पंजाब में जैसी आग लगाईवह इतिहास हम जानते हैं और उसमें देश कितना और कैसे जलायह भी इतिहास में दर्ज है. वही खेलज्यादा खतरनाक ढंग अब भारतीय जनता पार्टी खेल रही है. 

राज ठाकरे की अदालत में त्रिसूत्री फैसला हुआ: करण जौहर अपनी फिल्म की शुरुआत में फौज के शहीदों को सलाम करने वाली घोषणा दिखाएंगे ताकि देशद्रोह का उनका पाप कट सकेआगे कभी किसी पाकिस्तानी कोकिसी भी हैसियत में अपनी फिल्म से नहीं जोड़ेंगे ताकि उनकी देशभक्ति सदा दिखाई देती रहे तथा वे सेना कल्याण कोष में ५ करोड़ रुपयों का दान देंगे. सरकारसमेत सभी अपराधियों’ ने इस पर दस्तखत किए और तब कहीं जा कर करण जौहर अपनी फिल्म दर्शकों तक ला पाए हैं. इतना ही नहीं हुआइसके साथ कई दूसरी बातें भी हुईं. मतलब राजा ने यानी राज ने यह भी कहा कि प्रोड्यूसर्स गिल्ड किसी पाकिस्तानी को अपने यहां फिल्मों में कोई काम नहीं देने का लिखित प्रस्ताव करेगा और उसकी प्रति सरकारी मंत्रालयों कोअखबारों को भेजेगा. और यह भी कि उन सारी फिल्मों को भी सेना कल्याण कोष के लिए ५ करोड़ रुपये रक्षामंत्री को देने होंगे जिन्होंने पाकिस्तानी कलाकारों को लिया है. रक्षामंत्री को ५ करोड़ का चेक देते हुए वे अपना फोटो अखबारों में प्रकाशित करवाएंगे ताकि पक्का प्रमाण हो जाए. इस तरह सरकारों को अर्थहीन करते हुए और सारी संवैधानिक व्यवस्था को अपमानित करते हुए राज ठाकरे ने अपनी पार्टी के लिए थोड़ा अॉक्सीजन जुटा लिया. लेकिन ऐसा करते हुए इन लोगों के समाज में कितना जहर और अविश्वास भर दिया हैक्या इसका हिसाब किसी के पास है 

सवाल पाकिस्तानी कलाकारों का नहीं है. हमारी सारी फिल्में उनके बिना ही बनती हैं. एकाध अपवाद होती हैं. सरकार की अनुमति से विदेशी कलाकार यहां आते हैं जैसे खिलाड़ीवैज्ञानिकशिक्षक आदि आते हैं. सरकार जब चाहेइनका आना रोक सकती है. फिल्मकार जब चाहेंइन्हें काम देना बंद कर सकते हैं. सरकार को यह अधिकार संविधान ने दिया है और कोई भारतीय नागरिक इससे बाहर तो नहीं जा सकता ! सवाल एकदम सीधा है कि क्या कोई सरकार या कोई नागरिक संविधान के बाहर जा सकता है अपवादों की बात छोड़ दें तो संविधान के बाहर जाना देशद्रोह है. अब आप फैसला करें कि इस मामले में देशद्रोह का इल्जाम किस पर आता है.   

भयभीत करण जौहरमुकेश भट्ट जैसों ने टीवी पर आ करबड़ी संजीदगी से कहना शुरू कर दिया कि हम देशभक्त हैंहम सबसे पहले भारतीय हैंउसके बाद ही कुछ और ! इन्हें यह भी नहीं बताना चाहिए कि आज से पहले वे क्या थे अ-भारतीय थे क्या अपनी पसंद के कलाकारों के साथ अपने मन की फिल्म बनाना और देशभक्ति साथ-साथ नहीं चलती है क्या किसी दूसरे के आदेश और धमकी से देशभक्त बनना अंतत: देशद्रोह नहीं है और अंत में यह भी कि जिस देश में एक नहींएक साथ कई-कई स्वार्थों की सरकारें चलती हों और वे सब हिंदुस्तान में से अपने-अपने स्वार्थ का हिस्सा मांगती होंउस देश में देशभक्ति जैसा शब्द एक-दूसरे को दी गई गाली जैसा लगता है. ( 25.10.2016)                                                                                                                                                                                                                                                                   

Wednesday 19 October 2016

तलाक दो !

तलाक दो ! 
० कुमार प्रशांत  

मानो देश में बहस व विवादों की कमी थी कि तीन तलाककी अमानवीय प्रथा को ले कर लोग मैदान में उतर अाए हैं ! अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तथा उनकी तरह के कितने ही मुस्लिम संगठन व कितने ही मुल्ला-मौलवी हर तरफ चीख-चिल्ला रहे हैं कि तीन तलाकशरिया कानून का हिस्सा है अौर हम इससे किसी को खेलने की इजाजत नहीं दे सकते ! ये सभी इस तेवर में बात कर रहे हैं मानो देश में न कोई सरकार है, न कानून, न अदालत अौर न समाज ! जो कुछ भी है वह मुसलमान होने का दावा करने वाले मुट्ठी भर मौलाना-मौलवी हैं जो यह तै करेंगे कि इस मुल्क में क्या होगा, क्या नहीं होगा !!  
मैं ऐसा लिख भी रहा हूं अौर ठिठक भी रहा हूं क्योंकि यदि इनमें से कोई उन्मत्त मौलाना मुझसे यही पूछ बैठे कि इस देश में कौन, किससे, कहां क्रिकेट खेलेगा यह उद्धव ठाकरे की शिव सेना तै कर सकती है अौर पिच खोद कर, मैच नामुमकिन बना दे सकती है तो हम क्यों नहीं कर सकते, तो मैं जवाब नहीं दे पाऊंगा. मैं जोर से कहना चाहता हूं कि तीन तलाकके बारे में सरकार ने अदालत में अपनी राय रखी है तो कुछ भी असंगत या गलत नहीं किया है लेकिन अगर राज ठाकरे की मनसे यह ऐलान करती है कि पाकिस्तानी कलाकारों को इतने घंटे के भीतर मुंबई अौर भारत खाली कर देना है, अौर उनकी गुंडा फौज सड़कों पर उतर अाती है अौर महाराष्ट्र सरकार या केंद्र सरकार इतना भी नहीं कह पाती है कि किसी को राज्य या देश छोड़ने का फरमान देने का अधिकार उसका है, गली-नुक्कड़ पर बैठे लोगों का नहीं तो फिर सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा हो ही जाता है. जब अाप शान से यह कहते सड़कों पर उतरते हैं कि राम जन्मभूमि हमारी अास्था का मामला है अौर इसमें किसी अदालत को बोलने का अधिकार नहीं है तो मुल्ला-मौलवियों को अाप ऐसा कहने से कैसे रोकेंगे कि शरिया कानून अदालत, संविधान अौर देश से ऊपर है अौर इस बारे में कोई बात हो ही नहीं सकती है ? लोकतंत्र ऐसा विधान है जिसमें हर सवाल पर बात हो सकती है अौर किसी भी विवाद में सरकार या अदालत हस्तक्षेप कर सकती है. हां, इनमें से कोई भी गलत हस्तक्षेप करेगा तो संविधान ही हमें यह अधिकार देता है कि हम उसके खिलाफ अदालत में या संसद में जा सकते हैं. लोकतंत्र के इस विधान को अांख दिखाने वाले हिंदुत्व वाले हों कि संघ परिवार वाले कि अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड वाले कि किसी दूसरे नाम से मुसलमानों या दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों की तरफदारी करने वाले, सबको यह समझ लेना चाहिए, अौर अंतिम तौर पर समझ लेना चाहिए कि संविधान अौर अदालत की व्यवस्था के सामने सबको झुकना ही होगा अन्यथा इस देश का भूगोल व इतिहास सलामत नहीं रह सकता है. 
अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह मूर्खतापूर्ण बात की है तीन तलाक के सवाल पर जनमत संग्रह करवाया जाए ! वे चुनौती दे रहे हैं कि ९० फीसदी महिलाएं शरिया कानून के पक्ष में होंगी ! होंगी, हो सकती हैं लेकिन इससे तीन तलाक सही कैसे साबित होता है ? अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड वालों को इस बात का इल्म है कि इस देश में अगर इस सवाल पर जनमत संग्रह करवाया जाए कि मुसलमानों को हिंदुस्तान में रहने देना चाहिए या नहीं तो कौन कहां खड़ा होगा ? जाति, छूअाछूत, अॉनर कीलिंग अादि-अादि सामाजिक कुरीतियों पर अगर जनमत संग्रह करवाया जाए तो देश का अाईन बदलना पड़ेगा !  अमरीका में पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक अोबामा को श्वेत चमड़ी वाले काले मन के अमरीकियों से क्या-क्या न सुनना व झेलना पड़ा ! अमरीका में यदि जनमत संग्रह हो कि अश्वेतों को, जो जन्मना अमरीकी नहीं है उन्हें राष्ट्रपति बनने का अधिकार देना चाहिए या नहीं, तो अमरीकी समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा ! इसलिए नहीं कि अमरीका कोई बुरा मुल्क है याकि भारत बहुत पिछड़ा हुअा देश है.  रूहानी अौर जहनी तौर पर उलझे हुए समाजों का मन बहुत धीरे-धीरे बदलता है, बड़ी मुश्किल से नई बातों के लिए तैयार होता है. उसे लगातार प्रगतिशील कानूनों की मदद देनी पड़ती है, चुस्त व बा-ईमान सरकारों को संभल कर चलना अौर चलाना पड़ता है, समाज पर नैतिक असर रखने वालों को बार-बार रास्ते पर अा कर, रास्ता बताना पड़ता है, जनमत बनाने की मुहिम चलानी पड़ती है. अगर ऐसे सवालों पर जनमत करवाएंगे अाप तो अपना ही कुरुप चेहरा दुनिया को दिखाएंगे ! 
तलाक एक जरूरी सामाजिक व्यवस्था है. स्त्री-पुरुष के बीच के संबंध जब अर्थहीन हो जाएं, एक-दूसरे को अपमानित करने, हीन दिखाने अौर हिंसा का शिकार करने तक पहुंचें इससे पहले ही वैसे संबंध से मनुष्य की मुक्ति मनुष्यता के विकास में अगला कदम है. यह अाधुनिकता का अभिशाप नहीं है, अाधुनिक समझ है जो यह मानती है कि स्त्री अौर पुरुष दोनों ही एक सी संवेदना से जीने वाले अौर एक-दूसरे की बेपनाह जरूरत महसूस करने वाले प्राणी हैं लेकिन उनका साथ अाना हर बार, हर कहीं श्रेयस्कर नहीं होता है, नहीं हो सकता है. इसलिए विफल साथ से निकल कर, अपनी जिंदगी के नये मुकाम खोजने की सहज अाजादी मनुष्य को होनी ही चाहिए. लेकिन तलाक की व्यवस्था ऐसी भी नहीं बनाई जा सकती है जिसका पलड़ा किसी एक के पक्ष में इतना झुका रहे कि वह उसे दमन के हथियार के रूप में इस्तेमाल करे. इसलिए तलाक के लिए पारिवारिक स्वीकृति हो, अगर बच्चे हैं तो उनके भावी की पूरी फिक्र हो, रिश्ते टूटने को सामाजिक मान्यता हो, एक अवधि विशेष तक दोनों को अपने संबंधों पर पुनर्विचार करने की बाध्यता हो, फिर अदालत में उनके मामले पर विचार हो अौर फिर तलाक तक पहुंचें हम, इसकी व्यवस्था बनानी पड़ी है. अगर वैवाहिक जीवन में ऐसी स्थिति बनती हो कि कोई किसी को अपमानित करे, अस्तित्वहीन व व्यक्तित्वहीन जीने को मजबूर करे तो यह निजी धािर्मक मान्यताअों  से निकल कर, राष्ट्रीय सवाल बन जाता है. इसलिए यहां किसी धार्मिक जमात के पर्सनल लॉ का कोई संदर्भ ही नहीं बनता है. स्त्री हो या पुरुष, अपने हर नागरिक के स्वाभिमान की रक्षा में राज्य या अदालत को सामने अाना ही चाहिए. ऐसे मामले में हम मनुस्मृति को या शरिया कानून को या पारसी पंचायत को या चर्च को नहीं, संविधान को देखेंगे जो बताता है कि लोकतंत्र का धर्म क्या है. यह संविधान अपूर्ण भी हो सकता है अौर हम उससे असहमत भी हो सकते हैं फिर भी उसे तब तक मानना ही होगा जब तक हम उससे बेहतर कुछ गढ़ नहीं लेते. अाखिर मनुष्य के रूप में हम सब भी तो अपूर्ण अौर कमतर ही हैं न लेकिन इससे किसी को यह अधिकार नहीं मिल जाता है कि वह समाज में कत्लेअाम मचा दे. 
तीन तलाक की व्यवस्था अाज बन रहे भारतीय समाज के साथ कदमताल नहीं कर सकती है जैसे सैकड़ों शादियां करने वाला राजवंश अाज के समाज में जी नहीं सकता. अाज के समाज में सती-प्रथा नहीं चल सकती है, दलितों को दोयम दर्जे का बताना व बनाना नहीं चल सकता है वैसे ही तीन तलाक की व्यवस्था भी नहीं चल सकती है. मुस्लिम समाज में अाधुनिक सोच वाले कई लोग अौर कई सारी महिलाएं इसे पसंद नहीं करती हैं. कई जागरूक मुस्लिम महिलाएं इसका मुखर विरोध करती हैं अौर अपने देश-समाज को जगा कर पूछती हैं कि हमारे लिए अापने क्या व्यवस्था बनाई है ? क्या उन्हें यह जवाब दिया जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र के पास उनके लिए कोई जगह नहीं है ? ऐसा जवाब देने वाला संविधान, ऐसा जवाब देने वाली सरकार अौर ऐसा जवाब स्वीकार करने वाला समाज एक साथ ही पतन की राह जाएंगे. इसका एक ही जवाब है, अौर हो सकता है कि संविधान, सरकार अौर समाज कहे कि हमारे धार्मिक विश्वास, हमारे सामाजिक रीति-रिवाज चाहे जितने अलग हों, जब सवाल नागरिक की हैसियत का उठेगा तब न कोई धर्म, न कोई जाति, न कोई संप्रदाय अौर न लिंग का भेद होगा. नागरिकता के संदर्भ में सारे देश में सबको शरीक करने वाला एक ही संविधान चलेगा. 
इस सरकार की परेशानी यह है कि इसकी झोली में भरोसा नाम का माल है ही नही ! इसे सरकार के रूप में देश का भरोसा जीतना होगा. जब तक ऐसा नहीं हो पाता है तब तक सामाजिक परिवर्तन के हर सवाल पर इसे वातावरण बनाने की पुरजोर कोशिश करनी होगी.  वातावरण बनाना मतलब धमकी देना, संख्या का भय पैदा करना, सरकारी तेवर दिखलाना अौर  गाय, सिनेमा, लव जेहाद, पलायन अादि-अादि की गर्हित चालें चलना नहीं होता है. यह सब तो बने या बनते वातावरण में पलीता लगाना है. अदालत में अपना पक्ष रख देने के बाद सरकार को अौर उसके भोंपुअों को न कुछ कहना चाहिए, न करना चाहिए ! एक लंबा, गहन विमर्श सारे देश में चले - तीन तलाक के बारे में भी अौर समान नागरिक कानून के बारे में भी ! फिर अदालत भी अपनी राय कहे. फिर देखें कि समाज कहां पहुंचता है. जितना विमर्श चलेगा, वातावरण तैयार होगा.  
मुस्लिम समाज के रहनुमाअों के अागे अाने की यह घड़ी है. उन्हें यह कहना ही होगा कि तलाक दो, अभी दो; अौर तीन नहीं, एक ही दो : हर कठमुल्ली सोच को तलाक दो ! करीब दो दर्जन इस्लामी देशों में तीन तलाक की स्वीकृति नहीं है अौर वहां मुसलमान अौर शरिया सब सलामत हैं. मतलब सीधा है - खोट मन में है जिससे सबको तलाक लेना जरूरी है.  ( 14.10.2016)                                                                                                                                                                           

Friday 7 October 2016

पाक से न सही कश्मीर से तो बात करें हम

        तो पाकिस्तान ने बातचीत बंद करने का मन बना कर रखा है. कभी हम तो कभी वे ऐसा मन बनाते ही रहते हैं - कभी खुद तो कभी बाहरी निर्देश से ! सवाल एक ही है जो पाकिस्तान बनने से आज तक चला चला आ रहा है: कौन किससे बात करे दोनों देशों में बनती और बदलती सरकारों की कसौटी भी इसी एक सवाल पर होती रही है कि किसने किससेकब और कहां बातचीत की. भारत में तो एकदम प्रारंभ से ही लोकतांत्रिक सरकारें रही हैंपाकिस्तान में सरकारों का चरित्र लगातार बनता-बिगड़ता रहा है - कभी लोकतांत्रिक तो कभी फौजतांत्रिक ! बातचीत फिर भी दांवपेंचों में फंसती रहती है. 
        
लेकिन एक सवाल है जिससे हम मुंह चुराते हैं: क्या बातचीत भारत और पाकिस्तान के बीच ही होनी है इस विवाद के दो ही घटक हैं ऐसा मानना सच भी नहीं है और उचित भी नहीं. भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी बातचीत होगीकश्मीर के लोग उसका तीसरा कोण होंगे ही. एक तरफ यह इतिहास का वह बोझ है जिसे उठा कर हमें किसी ठौर पहुंचा ही देना हैदूसरी तरफ यह हमारी दलीय राजनीति का वह कुरूप चेहरा है जिस पर स्वार्थ की झुर्रियां पड़ी हैं. ६० वर्षों से अधिक समय में भी हम कश्मीर को इस तरह अपना नहीं सके कि वह अपना बन जाए. जब सत्ता का सवाल आया तो पिता मुफ्ती से ले कर बेटी मेहबूबा तक से भारतीय जनता पार्टी ने रिश्ते बना लिए अन्यथा उसकी खुली घोषणा तो यही थी न कि ये सब देशद्रोही ताकतें हैं जिनके साथ हाथ मिलाना तो दूरसाथ बैठना भी कुफ्र है. कुछ ऐसा ही रवैया कांग्रेस का भी रहा है और नेशनल कांफ्रेंस का भी. सब हाथ मिला कर सत्ता में जाते रहे हैं और सत्ता हाथ से जाते ही एक-दूसरे पर कालिख उछालते रहे हैं. लेकिन इन सबके बावजूद न नेशनल कांफ्रेंसन कांग्रेसन भारतीय जनता पार्टी और न महरूम मुफ्ती ही कभी ऐसी हैसियत बना सके कि कह सकें कि कश्मीर का अवाम उनके साथ है. ऐसा दावा एक ही आदमी का था और सबसे खरा भी था और वे थे शेख अब्दुल्ला ! बाकी सारे-के-सारे नाम हाशिए पर कवायद करने वाले ही रहे. शेख साहब की बहुत सारी ताकत जेलों में जाया हुई और बहुत सारी उन्होंने भटकने में गंवा दी. फिर जो सत्ता हाथ में आई उसे ले कर वे भी व्यामोह में फंसे और अौसत दर्जे के राजनीतिज्ञ बन कर रह गये. किसी लालू यादव की तरह उन्हें भी अपना उत्तराधिकारी अपने परिवार में ही मिला. पाकिस्तान हमारी यह दुखती रग पहचानता रहा है और उसका फायदा उठा करकश्मीर के अलगाववादियों को उकसाता भी रहा है. आज की स्थिति यह है कि कश्मीर में किसी भारत के पांव धरने की जगह नहीं है. कश्मीरी अवाम और नवजवान के मन में भारत की तस्वीर बहुत डरावनी और धृणा भरी है. ऐसा क्यों हुआयह कहानी बहुत लंबी है और उसके पारायण में से आज कुछ निकलने वाला भी नहीं है.

        अब आज अगर हमारे सोचने और करने के लिए कुछ बचता है तो वह यह है कि पाकिस्तान हमसे बात करे कि ना करेहम कश्मीर में एक सुनियोजित संवाद सत्याग्रह’ करें. सरकारफौज और राजनीतिक दल यह सत्याग्रह कर ही नहीं सकते क्योंकि इनके पास सत्य का एक अंश भी आज की तारीख में बचा नहीं है. तो फिर इस सत्याग्रह में शामिल कौन हो यह काम देश के नवजवानों को करना होगा. सरकार जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करा कर पीछे चली जाए.  सारे देश में मुनादी हो कि कश्मीर के अपने भाइयों से बातचीत करने के लिए युवकों-युवतियों की जरूरत है. देश के विश्वविद्यालयों सेयुवा संगठनों सेगांधी संस्थाओं के लोगों से व्यापक संपर्क किया जाए और इनकी मदद से संवाद सत्याग्रह’ के सैनिकों का आवेदन मंगवाया जाए. स्थिति की गंभीरता को समझने वाले ५०० से १००० युवकों-युवतियों का चयन हो. उनका एक सप्ताह  का प्रशिक्षण शिविर हो. जयप्रकाश नारायण के साथ मिल कर कश्मीर के सवाल पर लंबे समय तकउसके विभिन्न पहलुओं पर काम करने वाले गांधी शांति प्रतिष्ठान को ऐसे शिविर के आयोजन और संचालन के लिए अधिकृत किया जाए. इस शिविर को पूरा करने का मतलब यह होना चाहिए कि युवाओं की यह टोली कश्मीर समस्या को हर पहलू से जानती व समझती है. यह जानकारी और कश्मीरी लोगों के प्रति गहरी सच्ची संवेदना ही इनका हथियार होगा.

     ये संवेदनशीलप्रशिक्षित युवा अनिश्चित काल मान कर कश्मीर पहुंचें और कश्मीर घाटी में विमर्श का एक अटूट सिलसिला शुरू हो और अबाध चलेफिर जवाब में गाली हो कि गोली ! और हमें कश्मीर के लोगों पर पूरा भरोसा करना चाहिए कि वे घटना-क्रम से व्यथित हैंचालों-कुचालों के कारण भटके और उग्र भी हैं लेकिन पागल नहीं हैं. ऐसा ही मान कर तो गांधी भी नोआखाली पहुंचे थे न ! देश के विभिन्न कोनों से निकली और कश्मीर की धरती पर एक हुई ८ से १० सदस्यों की टोलियां जब एक साथयहां-वहां हर कहींउनको जाननेउनसे सुननेसारा कुछ सुनने पहुंचेंगी तो व्यथा की कठोरता भी पिघलेगी और गुस्से की गाली-गोली भी जल्दी ही व्यर्थ होने लगेगी. यह हिम्मत का काम हैधीरज का काम है और संवेदनापूर्वक करने का काम है.  कश्मीरी लोगों और युवाओं में बनी हुई संपूर्ण संवादहीनता और उग्रता को हम शोर या धमकी के एक झटके से तोड़ नहीं सकेंगे. इसलिए यह सत्याग्रह धीरतादृढ़ता और सदाशयता तीनों की समान मात्रा की मांग करता है.

   यह सत्याग्रह इसलिए कि कश्मीर यह समझ सके कि वह जितना घायल हैबाकी का देश भी उतना ही घायल है. कश्मीर यह समझ सके कि राजनीतिक बेईमानी का शिकार अकेला वह नहीं हैक्षेत्रीय असंतुलन केवल उसके हिस्से में नहीं आया हैफौज-पुलिस के जख्मों से केवल उसका सीना चाक नहीं हुआ है और यह भी कि फौज-पुलिस का अपना सीना भी उतना ही रक्तरंजित है. संवाद सत्याग्रह’ के युवा सैनिकों को यह जानना है कि कश्मीर दरअसल चाहता क्या हैऔर यह सत्याग्रह’ उसे यह बताना भी चाहेगा कि वह जो चाहता है वह संभव कितना है. चंद्र खिलौना तो किसे मिला है आज तक कश्मीर के युवा और नागरिक यह समझेंगे कि एक अधूरे लोकतंत्र को संपूर्ण बनाने की लोकतांत्रिक लड़ाई हमें रचनी हैउसके सिपाही भी और उसके हथियार गढ़ने भी हैं और उसे सफलता तक पहुंचाना भी है. क्यों लड़ें हम ऐसी लड़ाई क्योंकि इस लड़ाई के बिना उन सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे जिनसे कश्मीर भी और हम सब भी परेशान हैं और हलकान हुए जा रहे हैं.  हो सकता हैकश्मीर हमसे उलट कर कहे कि वह इस देश को ही अपना नहीं मानता है तो इस देश के लोकतंत्र की वह फिक्र क्यों करे ठीक हैयह भी सही लेकिन कश्मीर को यह बताना तो होगा ही कि उसका जो भी देश होगापाकिस्तान हो या कि कोई स्वतंत्र देश ही सहीवहां भी सवाल तो सारे यही होंगे. कश्मीरी युवा चाहें तो पाकिस्तानी युवाओं से बात करेंम्यांमार और अफगानी युवाओं से बात करें कि श्रीलंकाई युवाओं से बात करेंजवाब एक ही मिलेगा कि जवाब किसी के पास है नहीं ! तख्ततिजोरी और तलवार के बल पर चलने वाला तंत्र दुनिया में हर कहीं एक ही काम कर रहा है - वह लोक की पीठ पर बैठाउसकी गर्दन दबा रहा है.
यह सच सबसे पहले मोहनदास करमचंद गांधी ने पहचाना था और इससे लड़ने का रास्ता भी खोजा था. आजादी के बाद ८० साल के उस आदमी ने अभी सांस भी नहीं ली थी कि किसी ने पूछा : बापूजुलूसधरनाजेलहड़ताल आदि सब अब किस काम के ! अब तो देश भी आजाद हो गया और सरकार भी अपनी है. अब आगे की लड़ाई का आपका हथियार क्या होगा क्षण भर की देर लगाए बिना जवाब दिया उन्होंने : अब आगे की लड़ाई मैं जनमत के हथियार से लड़ूंगा !


    ३० जनवरी को हमारी गोली खा कर गिरने से पहले जो अंतिम दस्तावेज लिखा उन्होंने उसमें भी इसी को रेखांकित किया कि लोकतंत्र के िवकास-क्रम मेंएक ऐसी अवस्था आनी ही है जब तंत्र बनाम लोक के बीच एक निर्णायक लड़ाई होगीऔर उस लड़ाई में लोक की निर्णायक जीत होइसकी तैयारी हमें आज से ही करनी है.  कोई ६८ साल पहले की यह वह भविष्यवाणी है और आज के हम हैं ! रूप व आवाज बदल-बदल कर वह लड़ाई सामने आती है और हमें पराजित कर निकल जाती है. कश्मीर भी समझे और हम सब भी समझें कि इस लड़ाई में अगर लोक को सबल और सफल होना हैतो संवाद सत्याग्रह’ तेज बनाना होगा. कभी ऐसा वक्त भी आएगा कि जब कश्मीर देश के दूसरे कोनों में पहुंच कर संवाद सत्याग्रह’ चलाएगा. ऐसा ही एक अपूर्व संवाद सत्याग्रह’ जयप्रकाश नारायण ने आजादी के बादनगालैंड में चलाया था और वह संवादहीनता तोड़ी थी जिसे तोड़ने में राजनीतिक तिकड़में और फौजी बहादुरी नाकाम हुई जा रही थी. इतिहास का यह अध्याय इतिहासकारों पर उधार है कि पूर्वांचल आज देश से जुड़ा है और अलगाववाद की आवाजें वहां से कम ही उठती हैंतो यह कैसे संभव हुआ खुले संवाद में गजब की शक्ति होती है बशर्ते कि उसके पीछे कोई छुपा एजेंडा न हो.

   क्या हम अपनी कसौटी करने के लिएपाकिस्तान से नहीं सही तो नहींकश्मीर से संवाद सत्याग्रह’ आयोजित कर सकते हैं देखना है कि जवाब किधर से आता है ! ( 5.05.2016)

चंपारण -जहां से गांधी को भारत अौर भारत को गांधी मिले


Sunday 21 August 2016

लोकतंत्र की शर्मिला

लोकतंत्र की शर्मिला 


कहानी मणिपुर के ईटानगर के एक कस्बे मालोम के बसस्टैंड से सन् २००० के २ नवंबर को शुरू हुई थी जहां बस का इंतजार करते १० जिंदा लोगों को खून में तड़पता छोड़ कर फौजी दल रवाना हो गया था अौर २८ साल की एक साधारण-सी मणिपुरी लड़की अवाक, हैरान यह पूछती ही रह गई थी कि यह क्या हुअा अौर क्यों हुअा ?  उस दिन से लेकर अाज तक, १६ लंबे सालों तक वह लड़की यही सवाल पूछती अाई है - यह क्या हुअा अौर क्यों हुअा ? हमारे स्वस्थ्य व स्थिर लोकतंत्र ने १६ सालों तक उसके सवालों का कोई जवाब नहीं दिया ! लोकतंत्र जब गूंगा अौर बहरा हो जाता है तब वह इंसान की बनाई सबसे दुर्दांत व्यवस्था में बदल जाता है. तब उसका चेहरा उस अार्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट जैसा हो जाता है. गुलाम भारत को काबू में रखने के लिए बनाए गये इस कानून को अाजाद भारत के कई हिस्सों में लागू कर के, फौज अौर दूसरे सैन्य संगठनों को ऐसे अंधाधुंध अधिकार दे दिए गये हैं कि नागरिक एकदम असहाय अौर निरुपाय रह गया है.  
वह लड़की, इरोम छानू शर्मिला अाज ४४ साल की वैसी महिला है जैसी देश में दूसरी कोई महिला नहीं है. उसे देश में सबसे अधिक लोग जानते भी हैं भले यह न जानते हों कि अाखिर वह चाहती क्या है. वह चाहती बस इतना ही है कि हमारा लोकतंत्र अपने लोक की बात सुने अौर उसके सवालों के जवाब दे. पिछले १६ सालों से यही कह-कह कर, यही पूछ-पूछ कर उसने सारे देश का अंतरमन झकझोर रखा है. अौर तमाशा यह कि वह इन १६ सालों में १६ बार भी बोली नहीं है, १६ जगहों पर भी गई नहीं है अौर १६ प्रेस बयान भी नहीं दिए हैं. मौन की ऐसी मुखरता कहां देखी थी हमने ! १६ सालों से वह अनशन पर है - १६ सालों से उसने अपने हाथ से, अपनी पसंद का कोई खाना खाया नहीं है. १६ सालों से उसे सरकारी खाना खिलाया जाता रहा है जो नाक में डाली एक नली से उसके भीतर उडेल दिया जाता रहा है. १६ साल पहले उस पर अारोप लगाया गया कि वह अात्महत्या करना चाहती है अौर संविधान कहता है हमारा कि अात्महत्या अपराध है अौर इसलिए राज्य-धर्म है कि वह शर्मिला को अात्महत्या न करने दे. इसलिए १६ सालों से रोज-रोज उसकी हत्या की जाती रही है. १६ साल पहले मणिपुर की राजधानी इंफाल के सरकारी अस्पताल के एक कमरे को जेल में तब्दील कर, शर्मिला को वहां कैद कर दिया गया ताकि वह अात्महत्या न कर सके. यह सब किया गया लेकिन जो नहीं किया गया वह यह कि अार्म्ड फोर्सेस स्पेशन पावर एक्ट नहीं हटाया गया अौर न ऐसी कोई व्यवस्था बनाने की ही पहल की गई कि सुरक्षा बलों को मर्यादा में रहना पड़े. 
जब कहीं से कोई हाथ नहीं बढ़ा अौर कहीं से कोई अावाज नहीं उठी तब सर्वोच्च न्यायालय की अावाज उठी. पहले भी उठ सकती थी, उठनी चाहिए थी लेकिन बीते समय का क्या रोना, अाज तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक मणिपुर समेत देश के किसी भी अशांत-असुरक्षित इलाके में कानून-व्यवस्था के नाम पर फौज-सुरक्षा बल मनमाना नहीं कर सकते हैं अौर वे जो भी करेंगे उसकी अदालती जवाबदेही से न तो वे बच सकते हैं अौर न कोई उन्हें बचा सकता है. इस एक फैसले से अदालत ने सरकार व फौज-पुलिस को उस लोकतांत्रिक जिम्मेवारी से जोड़ दिया है जिसे अशांति, सुरक्षा, अातंकवाद, अलगाववाद अादि-अादि नामों से धता बताई जा रही थी. उनके ऐसे रवैये से बात बनती होती तो भी कुछ बात थी. लेकिन यहां तो मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की वाला हाल हम देख रहे हैं. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने यह लक्ष्मण-रेखा खींची अौर अार्म्ड फोर्सेस स्पेशन पावर एक्ट का विषदंत किसी हद तक टूट गया.
शर्मिला ने इस फैसले के तुरंत बाद ही, २६ जुलाई को घोषणा कर दी कि वह अपना १६ साल पुराना अनशन तोड़ रही है अौर लोकतंत्र के अांगन में पांव धरने जा रही है. यह घोषणा किसी भी तरह जीएसटी के लागू होने से कम संभावना वाली घोषणा नहीं है. लोकतंत्र की यही अांतरिक ताकत उसे संभावनापूर्ण बनाए रखती है कि वह अपने भीतर की जड़ता की काट भी  खुद ही निकालती रहती है. शर्मिला की यह घोषणा ऐसी ही है. अाप जब यह पढ़ रहे होंगे, शर्मिला ९ अगस्त को अपना अनशन तोड़ रही होगी. उसने कहा है कि वह अब सामान्य जिंदगी जीएगी, अपने ब्रिटिश प्रेमी-सहयोगी डेसमांड काउटिन्हो से शादी करेगी अौर चुनाव लड़ेगी. शर्मिला को यह सब करने की पूरी अाजादी है लेकिन हमें जिसकी तरफ ध्यान देना है वह यह है कि लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया में उतरने की उसकी घोषणा में बड़ी संभावनाएं छिपी हैं. यह चुनावी-संसदीय तंत्र निष्प्राण अौर संभावनाहीन हो चुका है लेकिन शर्मिला, मेधा पाटकर जैसे लोग इसके भीतर जाते हैं तो एक दूसरे तरह की संभावना अाकार लेती है, अौर वह संभावना है लोकतंत्र व संसदीय राजनीति के नये अायाम उभरने की. 
शर्मिला को दृढ़तापूर्वक लेकिन फूंक-फूंक कर कदम उठाने चाहिए. उसे किसी राजनीतिक दल का दामन नहीं थामना चाहिए बल्कि मणिपुर में अपना राजनीतिक दल बनाना चाहिए अौर उनकी अपनी कसौटी पर खरे उतरने वाले नये चेहरों को सामने लाना चाहिए. शर्मिला को अब इस सच का सामना भी करना है अौर देश को दिखाना भी है कि अशांति अौर अलगाव मणिपुरी नागरिकों के खून में घुला हुअा नहीं है बल्कि अदूरदर्शी व स्वार्थी राजनीति द्वारा पैदा किया गया है. अपने मौन संधर्ष के लंबे काल में उन्होंने सत्ता के खोजी एक राजनीतिज्ञ से कहीं ज्यादा बड़ी विश्वसनीयता कमाई है. उनका कद अाज चुनावी जीत-हार से कहीं बड़ा है. भारतीय लोकतंत्र को भी अौर मणिपुर को भी ऐसे कद की सख्त जरूरत है. अपनी एकाकी लड़ाई को एक सामूहिक संकल्प में बदलने का मौका शर्मिला के सामने है. यह कहना कठिन है कि १६ साल लंबे अनशन ने उन्हें शारीरिक तौर पर कितना खोखला बना दिया है लेकिन यह कहना जरूरी है कि हमारे लोकतंत्र को इस खोखले तन की नहीं, उस भरे-पूरे मन की बेहद जरूरत है जिसकी प्रतीक शर्मिला बन गई हैं. ( 05.08.2016) 

कुछ बात है कि चुप हैं

अचानक ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गालिब मियां का ऐसा मेल बैठा कि मैं भीतर-भीतर ही बाग-बाग हो रहा हूं ! गालिब मियां तो कब का गा गये हैं : कुछ बात है कि चुप हैं / वरना क्या बात कर नहीं आती…” और यह कह कर गालिब ने बात ऐसी-ऐसी की कि सारी दुनिया आज तक उन्हें ही सुनती और गुनती आ रही है. अब प्रधानमंत्री ने दिखाया कि उनको भी बात करनी आती है ! एक दिन राजधानी दिल्ली में गौ-रक्षकों का काम तमाम किया उन्होंने तो दूसरे दिन हैदराबाद में दलितों पर लगातार हो रहे और बढ़ रहे कायराना हमलों पर हमला किया. दोनों ही मौकों पर वे उस तरह बोले जिस तरह किसी भी जिम्मेवार प्रधानमंत्री को बोलना चाहिए. 

लेकिन उनके बोलने से बात खत्म नहीं हुई है बल्कि नई तरह से शुरू हुई है. पहली बात तो प्रधानमंत्री ने ही छेड़ी है कि नगरपालिका के सवालों से ले कर अंतरराष्ट्रीय सवालों तकसब कुछ उनसे ही क्यों पूछा जाता है प्रधानमंत्री ने दिल्ली के भाषण में इस पर अपनी हैरानी-परेशानी जताई. देश भी उतना ही हैरान-परेशान है कि जितने की प्रधानमंत्री. देश जानना चाहता है कि जो आदमी हर महीने मन की बात’ कहने के लिए देश की रेडियो-सेवा का बेहिचक इस्तेमाल करता हैजो आदमी चाय पर चर्चा केरास्ते प्रधानमंत्री बना हैजो आदमी देश-दुनिया में योजनाबद्ध तरीके से भीड़ जुटवा कर अपना ढोल बजाता है और उसमें अधिकांशत: जुमलेबाजी ही होती हैवही आदमी उन सवालों के बारे में गहरी उपेक्षा और अवमानना का भाव क्यों रखता है जिनसे समाज का कोई-न-कोई वर्ग व्यथित या उत्तेजित होता है बड़ी बातों पर जब चुप्पी रखी जाती है तब छोटी बातें असाधारण हो जाती हैं. रोहित वेमुला भी मेरे दलित भाइयों’ में एक नहीं था क्या कि जिसकी आत्महत्या प्रधानमंत्री से संवेदना और संलग्नता की मांग करती थी जिसकी आत्महत्या के सवाल को उनकी ही खास शिक्षामंत्री ने लोकसभा में मजाक का विषय बना दिया था और फिर कुछ ऐसी लहर चली कि शिक्षा-संस्थानों में ‘ मेरे दलित भाइयों’ का कॉंबिंग अॉपरेशन होने लगा. गलती उनकी भी हो सकती है लेकिन सरकार की गलती और लोगों की गलती को कोई एक पलड़े पर रख सकता है क्या जब ऐसा कुछ होने लगे तभी तो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की भूमिका अहम हो जाती है कि वे तराजू के दोनों पलड़े बराबर कर देते हैं. जब वे ऐसा नहीं करते हैं तब उनके सारे बयान किसी दूसरे तराजू पर ही तौल जाने लगते हैं. तब शब्दों के अर्थ बदल जाते हैंमुद्राएं खोखली हो जाती हैं और संवेदनाएं नकली लगने लगती हैं. ऐसा ही  हुआ है. 

सहिष्णुता-असहिष्णुता के पूरे विवाद की जड़ ही कट जाती अगर प्रधानमंत्री ने उन्हें बुला कर समझ लिया होता कि दर्द कहां है और यह भी बता दिया होता कि वे कहां खड़े हैं. जब वे मौन रहे तो सरकार और दल के सारे छुटभैयों ने तलवारें निकाल लीं और फिर तो कोन-कौनकैसे-कैसे घायल हुआक्या कहा जाए ! आज वे सब तलवारबाज सकते में हैं कि हमने तो तलवार प्रधानमंत्रीजी का चेहरा देख कर ही निकाली थे और अब उन्होंने ही म्यान सामने धर दी है ! अब वे सब अपनी तलवारें थामे रहें कि धर देंइससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि सरकार का इकबाल तो घुटनों बल बैठ गया है ! हिंदुत्व वालों और गौ-रक्षकों की जहरीली प्रतिक्रयाएं सामने आने लगी हैं और वे जल्दी ही संगठित चुनौतियां उछालेंगी. तब प्रधानमंत्री का यह बोलना काम नहीं आएगेक्योंकि तब वे अपने मौन की कीमत चुका रहे होंगे. ऐसे में संघ परिवार किस तरफ खड़ा होगायह भी देखने जैसा होगा.  

गाय का सवाल बहुत अहम है. संघ-परिवार की तरह ही गाय-परिवार भी है. इस गौ-बिरादरी का संरक्षण-संवर्धन जरूरी है. जरूरी इसलिए नहीं है कि वह हमारी माता हैकि उसकी पूंछ पकड़ कर कितने हीकितनी ही वैतरिणी पार कर चुके हैं. यह जरूरी इसलिए है कि कृषि-आधारित हमारा अर्थतंत्र और हमारी सामाजिक व्यवस्था सबसे सहजता से इसी बिरादरी द्वारा चल सकती है. यह बड़ी सहजता के साथ हमारे जीवन में घुला-पचा है. दूसरा कुछ भी इसकी जगह नहीं ले सकता है क्योंकि इस जैसी प्रदूषणरहित दूसरी कोई ऊर्जा हमारे पास नहीं है. लेकिन इस बिरादरी के साथ तालमेल बिठाने वाली संरचना भी तो चाहिए न ! यह आपकी स्मार्टसिटी में सांस नहीं ले सकती और आपकी नर्मदा परियोजना में डूब मरती है. आप गौ-माता कह कर और हमलावर रक्षकों की तलवारबाजी से इसे बचा नहीं सकेंगे.  बैलों काबछड़ों काबूढ़े  गाय-बैलों कामृत गाय-बैलों का सवाल रहेगा ही और तब चमड़ा उतारने का काम भी रहेगा. मरे जानवरों का चमड़ा न उतारा जाए तो जिंदा गाय-बैल बचेंगे ही नहीं. जैसे इंसान की किडनी तथा दूसरे अंग चुरा कर बाजार में बेचे जाते हैंवैसा ही हम इनके साथ भी करेंगेकर रहे हैं. इसलिए प्लास्टिक नहींसरकार विकास की जिस दिशा में जा रही हैवह गाय-बिरादरी की हत्या कर रही है. प्रधानमंत्री को इस बारे में सोचना है और बोलना है. 

गाय और गांधी का संबंध बहुत जटिल रहा है. उन्होंने ऐसी कोमल उपमा दी है कि कहा कि ईश्वर को जब करुणा पर काव्य लिखने का मन हुआ तो उसने गाय की रचना की. गाय के साथ हमारे समाज का वहशी व्यवहार देख कर उन्होंने जीवन भर उसका दूध नहीं पीया. लेकिन गाय-बिरादरी के प्रति असीम स्नेह के बावजूद उन्होंने कभी गौ-रक्षा के लिए अनशन नहीं किया बल्कि एक आप्त-वाक्य ही कह डाला कि मैं किसी गाय को बचाने के लिएकिसी आदमी की हत्या नहीं करूंगा. गाय को बचाने के लिए अपनी जान देने की बात तो वे बार-बार कहते ही थे. यह सब था जो प्रधानमंत्री को एकदम शुरू में ही कहना था. कहना इसलिए था कि आज वे जिसे समाज को तोड़ने का षड्यंत्र कह रहे हैंवह षड्यंत्र काफी पहले रचा जा चुका था और उन्हीं ताकतों ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में भी भूमिका अदा की थी. इसलिए देश के मन में खटका थाहै और बना रहेगा कि कहीं इस षड्यंत्र से समझौता करने की बात तो नहीं होगी अभी भी प्रधानमंत्री ने गौ-रक्षकों की हिंसा के प्रति अपनी सरकार का फैसला नहीं घोषित किया है और दलितों वाले मामले में यह भी संकेत दिया है कि यह विपक्ष के उकसावे का परिणाम है. अगर आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री की दिल्ली और हैदराबाद की ये सारी बातें जुमलेबाजी की धुंध में खो जाएंगी तो चुनाव नहींभारतीय समाज संकट में पड़ेगा. और प्रधानमंत्री ने यदि अपनी इन बातों को ही अपनी टेक बना लिया तो देश में एक नई ऊर्जा बन सकती है.                   

मनमोहन सिंह जैसे मौन और नरेंद्र मोदी जैसे वाचाल प्रधानमंत्रियों को झलते-झेलते देश थक चुका है. अब वह चाहता है और मांगता है ऐसा कोई जो मतलब की बातमौके पर बोले और जो बोले उसमें उसका भरोसा भी हो. जुमलों से आप देश को मूर्ख बन सकते हैंदेश चला नहीं सकतेयह बात इन दिनों बार-बार साबित होती जा रही है. देश बहत बड़ा हैबहुत जटिल है और लंबे समय तक दिशाहीन रहने के कारण इस गाड़ी को पटरी पर लाना आसान भी नहीं रह गया है. धर्म,जाति,संप्रदायभाषा आदि-आदि प्रतिगामी शक्तियों के ईंधन से इस गाड़ी को चलाने की कोशिशें कितने ही सूरमा कर चुके हैं और सभी खेत रहे हैं. ये शक्तियां विध्वंस मचा सकती हैंरच कुछ भी नहीं सकती हैंऔर जो रच नहीं सकता हैवह देश चला-बना नहीं सकता है. 

उत्तरप्रदेश व गुजरात के चुनाव कौन जीतता हैयह सवाल एकदम बेमानी हो जाएगा यदि प्रधानमंत्री अपनी इस नई पहल में जीत जाते हैं. ( 8.8.2016)