Saturday 30 June 2018

फांसी दो, फांसी दो !



ठट्ठ-के-ठट्ठ लोग - उन्माद से भरे अौर अाक्रोश से कांपते-गरजते : फांसी दो, फांसी दो ! किसे फांसी दो ? बलात्कारी को ! यह मध्यप्रदेश का मंदसौर है. बच्ची 8 साल की थी. स्कूल में छुट्टी हो गई, सारे बच्चे घर चले गये, यह बच्ची अंटक गई क्योंकि घर से कोई लेने नहीं पहुंचा. जब पहुंचा तब तक बच्ची को ले कर कोई अौर ही चला गया था. घर वाले परेशान हाल पुलिस के पास पहुंचे अौर पुलिस वाले इस बिन बुलाई अाफत को टालने की हर संभव कोशिश कर के भी जब टाल नहीं पाये तो बच्ची की गुमशुदगी दर्ज हुई. जब वह बच्ची किसी झाड़ी में फेंकी मिली तो सबने कहा - यह दिल्ली के निर्भया कांड से भी अागे की दरिंदगी है. कैसी विडंबना है कि हमने िनर्भया कांड को अपना पैमाना बना लिया है. 

यह सारा घटना-क्रम कैसे चला, मैं न तो जानता हूं अौर न जानना चाहता हूं. मैं ठीक वहीं अंटका हुअा हूं जहां भीड़ ऐसी है अौर समवेत स्वर है :  फांसी दो, फांसी दो; अौर मैं यही सोचने-समझने में लगा हूं कि मंदसौर जैसी  छोटी जगह में यदि इतने सारे लोग बलात्कार जैसी घटना से सच में इस कदर उद्वेलित हो रहे हैं तो क्या मुझे यह नहीं पूछ लेना चाहिए कि भाई, फिर अापके यहां बलात्कार हुअा कैसे ? जिस समाज में इतने सारे लोग- पुरुष लोग - बलात्कार जैसी वारदात को इस तरह घृणित अौर निंदनीय मानते हैं उस समाज में कोई बलात्कार की हिम्मत ही कैसे कर सकता है ? इसलिए मैं मानता हूं कि बलात्कार के अाईना में अाप चाहें तो अपने समाज को देख सकते हैं. 

बलात्कारी हमारे समाज का अादमी है. वह देखता अौर जानता है  कि हम सबके लिए भी लड़की खेलने या मनबहलाव का साधन भर है. हम सब भी अपने घरों में या अपने समाज में लड़की की स्वतंत्र हैसियत, उसकी अाजादी अौर उसकी स्वीकृति को स्वीकार नहीं करते हैं. क्या हमार घरों में लड़की महफूज है ? अौर समाज में ? कहते हैं कि लड़की से सबसे ज्यादा मनमानी घर में होती है अौर वह भी रिश्तेदारों. यह सब वह बलात्कारी भी देखता है अौर जानता है कि ये लोग थोड़ा हल्ला-गुल्ला मचाएंगे अौर फिर सब जैसा है वैसा ही हो जाएगा. उसे याद है कि जब उसने निर्भया का काम तमाम किया था तब भी ऐसा ही अाक्रोश उमड़ा था, वर्मा कमीशन भी बना था अौर देखते-देखते सरकार को उस कमीशन की सिफारिशों में पानी मिलाने की जरूरत दिखाई देने लगी थी. ‘लड़कों से कुछ गलतियां हो जाती हैं’ जैसा घटिया तर्क चलाया जाने लगा था. उनसे देखा है कि बलात्कार के बारे में हमारा नजरिया इस पर निर्भर करता है कि बलात्कार किसका हुअा है अौर बलात्कारी कौन है - धर्म भी अौर जाति भी अौर शिकार व शिकारी की हैसियत भी देखी जाती है. कठुअा के बाद का अालम क्या बलात्कारी ने नहीं देखा; कि उन्नाव के बाद उसने अांखें बंद कर ली थीं ? उसे यह भी पता है कि निर्भया के बाद भी दिल्ली में बलात्कार रुके नहीं अौर अगली वारदातों में कुछ वे लोग भी उसके साथ थे कि जो इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जला रहे थे. मोमबत्तियां जब तक भीतर भी कुछ नहीं जलाती हैं तब तक रोशनी नहीं, धुअां उगलती हैं.  

फांसी देने से न्याय कैसे होता है, मैं नहीं जानता हूं. फांसी से किसी गुनाह में कमी अाती है, अनुभव अौर अांकड़े ऐसा नहीं बताते हैं. फांसी-फांसी से हमारा गुस्सा प्रकट होता है क्योंकि वह हमेशा दूसरे के लिए होता है. कहां सुनते हैं हम कि किसी ने अपने भाई से, अपने पति से, अपने पिता से नाता ही तोड़ लिया अौर उनकी फांसी की मांग करने लगा क्योंकि वह बलात्कारी है ? फांसी की मांग कहीं एक अाड़ तो नहीं है कि जिसके पर्दे में हम खुद को छिपाना चाहते हैं ? एक मुख्यमंत्री तब कितना जाहिल दिखाई देता है जब वह कानून-व्यवस्था बनाये रखने की अपनी विफलता छिपाने के लिए फांसी-फांसी चिल्लाने लगता है ? 

कभी भारतीय जनता पार्टी के वाचाल नेता रहे लालकृष्ण अाडवाणी संसद में अौर बाहर एक ही राग अलापते थे कि अफजल गुरू को फांसी क्यों नहीं चढ़ाते ? चढ़ा तो दिया लेकिन उस फांसी ने कितने नये अफजल गुरु पैदा किए कभी इसका भी हिसाब लगाएंगे हम ? अपराध की सजा ऐसी हो िक अपराधी अपराध से बाज अाए अौर दूसरे उस रास्ते जाने से भय खाएं. अगर इन दोनों में से कुछ भी नहीं होता हो तो उसे सजा कैसे कहें हम ? फिर तो हमें सजा की परिभाषा ही बदलनी होगी न ! 

हमारे संविधान में अौर कानून में जब तक फांसी की सजा स्वीकृत है तब तक फांसी होगी. उसका फैसला हम अदालत पर छोड़ दें. उन्मादी भीड़ जब फांसी-फांसी की अावाज उठाती है अौर कुर्सीखोर राजनीितज्ञ अपना निकम्मापन छिपाने के लिए भीड़ को                                                                                                                                               उकसाते हैं, तो उससे समाज का सामूहिक पतन होता है, उसका पाशवीकरण होता है अौर तब वही समाज निर्भया से भी ज्यादा क्रूर कर्म कर गुजरता है. यह दूसरा कोई नहीं, हम ही हैं जो किसी अाशाराम या दाती मदन को भगवान बना कर बलात्कार का अाश्रम बनाने देते हैं अौर उसमें सेवादार या भजनकार बन जाते हैं. हम तब तक चुप रहते हैं जबतक भांडा नहीं फूटता है. मतलब बलात्कार हमारे भीतर हाहाकार नहीं मचाता है. अगर फांसी पड़नी ही है तो अपने भीतर के इस रेगिस्तान को फांसी दें हम. तब फंदा भी हमारा होगा अौर गला भी हमारा.( 30.06.2018)                                     

                 

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