Monday 27 May 2019

यह जीत अौर यह हार

भरोसा अौर विश्वास किसी भी राजनीतिज्ञ की सबसे बड़ी पूंजी होती है अौर वह पूंजी आज नरेंद्र मोदी के खाते में है अौर सारे देश में है. इसलिए अांकड़ों का, जीत-हार की गिनती का, वोटों के प्रतिशत का अौर गठबंधनों में ‘ऐसा होता कि वैसा होता ! जैसे समीकरणों का अभी कोई मतलब नहीं रह गया है. अब अगर कुछ मतलब की बात है, अौर आंख खोल कर जिसे देखते अौर दिखाते रहने की जरूरत है तो वह यह है कि बातें क्या कही जा रही हैं अौर बातें क्या की जा रही हैं. इनके बीच की खाई ही है जो अाने वाले समय में देश की कुंडली लिखेगी. मतलब कि हमें यह देखना ही होगा कि मोदी-शाह की जोड़ी अब उस तरह बरत रही है जिस तरह कभी वाजपेयी-अाडवाणी की जोड़ी बरतती थी. हमेशा ही इस पार्टी का दो चेहरा रहा है, दो बोली रही है. अौर हर निर्णायक मोड़ पर हम देखते आए हैं कि दोनों मिल कर एक हो जाते हैं. आज भी एक चालाकी अौर चाशनी की जबान है; एक धमकी अौर आगाह करती ललकार है.

अपने नवनिर्वाचित 303 सांसदों के सामने खड़े हो कर जब प्रधानमंत्री सेंट्रल हॉल में संविधान की किताब के सामने नतमस्तक हो रहे थे, उससे ठीक पहले ही मध्यप्रदेश के शिवनी में, संविधान की उसी किताब की धज्जियां उड़ा कर, संघ परिवार के गौ-रक्षक तौफीक, अंजुम शमा तथा दिलीप मालवीय की वहशी पिटाई कर रहे थे. 2014 से यह मंजर देश को लगातार घायल करता आ रहा है. तभी यह खबर भी आई कि 2013 में, पुणे में डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की गोली मार कर जो हत्या की गई थी, उस मामले में सीबीअाई ने सनातन संस्था से जुड़े दो लोगों की गिरफ्तारी की है. जानने वाले सब जान रहे हैं कि यह सनातन संस्था क्या है अौर इसके तार कहां से जुड़े हैं. 

अपनी पार्टी, सरकार अौर अपने बारे में राष्ट्रीय विमर्श बदलने का यह नायाब मौका था कि प्रधानमंत्री इन दोनों बातों का जिक्र अपने भाषण में करते अौर अपने साथियों-सहयोगियों को सावधान करते ! पर जो करना चाहिए, वह उन्होंने कब किया कि अब करते ? फिर तो बंगाल में की गई नई हत्या की खबर भी अाई, अौर तृणमूल-भाजपा में रस्साकशी यह चलती रही कि लाश की पार्टी कौन-सी थी ! फिर अाई अमेठी से खबर जहां भारतीय जनता पार्टी के सुरेंद्र सिंह की गोली मार कर हत्या कर दी गई. फिर बेगूसराय की खबर जहां नाम पूछ कर मुहम्मद कासिम को यह कहते हुए गोली मारी गई कि पाकिस्तान जाअो। ये सब अभागी घटनाएं हैं जो कहीं भी, किसी भी सरकार में हो सकती हैं. लेकिन अभागी घटनाएं जब घटती नहीं, अायोजित की जाती हैं अौर सत्ताधीश उसे मौन चालाना देता है, तब देश का असली दुर्भाग्य शुरू होता है. यह है वह नया भारत जो आकार ले रहा है अौर जिसमें हर उस व्यक्ति को अपनी जगह तलाशनी होगी जिसे भारत में किसी ‘अपने भारत’ की तलाश थी. 

वह ‘अपना भारत’ खो गया है, ‘वह अादमी’ अाज हतप्रभ है. 

इस नये भारत को बस तीन चीजें चाहिए : सुरक्षा, विकास अौर संपन्नता ! प्रधानमंत्री ने विजय-समारोह में एक लंबी सूची बताई कि उनकी यह जीत किन-किन वर्गों के कारणों से संभव हुई. उस सूची में वे सब शामिल थे जिन्हें उनके मुताबिक सुरक्षा का, विकास का अौर संपन्नता का अहसास हुअा है. यह तो संभव है ही कि हमारा समाज ऐसा ही खोखला बना रहे लेकिन देश सुरक्षित भी हो, संपन्न भी अौर विकासशील भी ! कमोबेश यह  दुनिया भर में हुअा है. क्या कोई इस मुगालत में है कि पाकिस्तान में कोई विकास नहीं हुअा है ? क्या किसी  को ऐसी गलतफहमी है कि बांग्लादेश में कोई समृद्धि नहीं अाई है ? ये दोनों भी, अौर संसार के कई दूसरे मुल्क भी पहले से अधिक समृद्ध, संपन्न व सुरक्षित हुए हैं. तो क्या हम अपने देश को पाकिस्तान के साथ बदलने को तैयार हैं ? क्या हमें समृद्धि के शिखर पर बैठा अमरीकी समाज, अपने समाज से बेहतर दिखाई देता है ? कम-से-कम मुझे तो नहीं, क्योंकि मुझे उस भारत की तलाश थी, है अौर रहेगी कि जिसकी एक कसौटी महात्मा गांधी ने यह बनाई थी कि जहां एक अांख भी अांसुअों से भरी नहीं होगी. 

अांसू अांखों से बहने से पहले दिल में उतरते हैं. वे अपमान के भी होते हैं, असहायता के भी, दरिद्रता के भी, भेद-भाव के भी ! हमने 15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में नियति से वादा किया था कि हमारे देश में कोई व्यक्ति, जाति, धर्म, विचारधारा दोयम दर्जे की नहीं होगी. गलत होगी, कालवाह्य होगी, वृहत्तर समाज को नुकसान पहुंचाने वाली होगी तो भी उसका मुकाबला विचार से, कानून से किया जाएगा, तलवार से नहीं. हमने वैसी सरकार की कल्पना ही नहीं की थी जो भीड़ को न्यायालय में बदलता देखती ही न रहे बल्कि भीड़ को वैसा करने के लिए उकसाती भी रहे.

हमने ऐसा भारत देखा अौर भुगता है जिसमें इस सदी के सबसे महान भारतीय की, 80 साल वृद्ध काया को तीन गोलियों से छलनी कर दिया गया अौर लड्डू बांट कर उसका जश्न भी मनाया गया; अौर फिर भी हमने देखा कि उस अादमी को मानने वालों ने कहा कि हत्यारे को फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए. अागे का इतिहास बताता है कि सरकारी कानून ने हत्यारे को फांसी दे दी लेकिन भारतीय समाज का मन-दिमाग साबुत ही रहा. उसके पास हत्यारे-जन भी रहे, उनके परिजन भी रहे, करने वाले उनका गुणगान भी करते रहे लेकिन समाज ने उनका हुक्का-पानी बंद नहीं किया. लेकिन हमने सावधानीपूर्वक यह दायित्व स्वीकार किया कि असत्य की, हिंसा की, हत्या की, षड्यंत्र की, घृणा की ताकत से समाज का नियंत्रण करने वाले तत्व हमारा प्रमुख स्वर न बन जाएं ! इसलिए हमारे देश की संसद की दीवार पर में कोई  सावरकर सुशोभित न हो अौर कोई हत्यारा हमारा प्रतिनिधि बन कर वहां न जा बैठे, ऐसी एक अलिखित मर्यादा हमने पाली. इसमें चूक भी हुई, विफलता भी हुई लेिकन कोशिश सुधारने अौर संभालने की ही रही. 

अब एक ऐसा देश बनाया जा रहा है जिसमें हत्यारों का महिमा मंडन हो रहा है, हत्यारे जन-प्रतिनिधि बनाए जा रहे हैं, अौर घृणा देश का सामान्य विमर्श बनता जा रहा है. रणनीति यह है कि ऊपर-ऊपर, कभी-कभार निषेध हो लेकिन इन ताकतों को अपना खेल खेलने की पूरी छूट भी हो. तभी तो सावरकर को संसद में स्थापित किया गया, नाथूराम को बलिदानी बताया गया, उनकी प्राण-प्रतिष्ठा की सुनियोजित कोशिशें चली. इस कोशिश को जहां पहुंचाना था, यह जल्दी ही वहां पहुंच भी गई. जिसकी दीवार पर अापने सावरकर चिपकाया था, उसी संसद में अब प्रज्ञा ठाकुर सिंह अवस्थित हुई हैं. दलपति ने कहा : यह हमारा सत्याग्रह है; प्रधानमंत्री ने कहा : मैं कभी उन्हें मन से माफ नहीं कर सकूंगा ! अाप दोनों के बीच का मक्कारी भरा बारीक झूठ खोजते-पकड़ते रहें अौर यह अकाट्य तर्क भी सुनते रहें कि लोकतंत्र में जनता ही असली मालिक है अौर उसने प्रज्ञा ठाकुर सिंह को बहुमत से चुना है तो वह गलत कैसे हो सकती है ! न तो यह मुद्रा, न यह रणनीति ही इतनी नई है कि पहचानी न जा सके. फासीवादी व्यवहार अौर रणनीति का पूरा इतिहास हमारे सामने है. ( 27.05.2019)

Saturday 25 May 2019

कांग्रेस का अंत : कांग्रेस का प्रारंभ

       एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस का यह अंत है अौर राहुल गांधी को इस अकल्पनीय हार की जिम्मेवारी लेते हुए त्यागपत्र दे देना चाहिए. यह सबसे स्वाभाविक व अासान प्रतिक्रिया है. इसे ही थोड़ा अागे बढ़ाएं तो चुनाव अायोग को इस्तीफा दे देना चाहिए, क्योंकि 7 चरणों में चला यह चुनाव उसकी अयोग्यता अौर अकर्मण्यता का नमूना था. अपने कैलेंडर के कारण यह देश का अब तक का सबसे लंबा, महंगा, सबसे हिंसक, सबसे अस्त-व्यस्त अौर सबसे दिशाहीन चुनाव-अायोजन था. यह अायोग गूंगा भी था, बहरा भी; अनिर्णय से ग्रस्त भी था अौर एकदम बिखरा हुअा भी. इसके फैसले लगता था कि कहीं अौर ही लिए जा रहे हैं. जैसे अपराध के लिए मायावती, अाजम खान, मेनका गांधी, प्रज्ञा ठाकुर अादि को कई घंटों तक चुप रहने की सजा अायोग ने दी, उसी अाधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी अौर अमित शाह को चुनाव लड़ने के  अयोग्य ठहराने की जरूरत थी जैसे कभी महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के साथ हुअा था.  

यह चुनाव हमसे यह भी कहता है कि हमें इवीएम मशीनों के बारे में कोई अंतिम फैसला करना चाहिए याकि फिर इनका भी इस्तीफा ले लेना चाहिए. अब वीवीपैट पर्चियों के बारे में जैसी मांग विपक्ष ने उठा रखी है, अौर उसे सर्वोच्च न्यायालय ने जैसी स्वीकृति दे दी है उससे तो लगता है कि अागे हमें फैसला यह लेना होगा कि मशीन गिनें कि पर्चियां ? अौर अगर हमारा इतना सारा कागज बर्बाद होना ही है तो कम-से-कम मशीनों पर हो रहा अरबों का खर्च तो हम बचाएं ! तो कई इस्तीफे होने हैं लेकिन बात तो अभी राहुल गांधी के कांग्रेस की हो रही थी.    

कांग्रेस को खत्म करने की पहली गंभीर अौर अकाट्य पेशकश इसे संजीवनी पिलाने वाले महात्मा गांधी ने की थी. मोदीजी अौर अमित शाहजी ने इतिहास के प्रति अपनी गजब की प्रतिबद्धता दिखाते हुए गांधीजी के इस सपने को पूरा करने का बीड़ा ही उठा लिया अौर कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की दिशा में बढ़ चले. ऐसा करते हुए वे भूल गये कि महात्मा गांधी एक राजनीतिक दर्शन के रूप में भी अौर एक संगठन के रूप में भी उस सावरकर-दर्शन को खत्म करने की लड़ाई ही लड़ते रहे थे मोदी-शाह जिसकी नई पौध हैं, अौर यह लड़ाई ही गांधीजी की कायर हत्या की वजह भी थी. 30 जनवरी 1948 की शाम 5.17 मिनट पर जिन 3 गाोलियों ने उनकी जान ली, वह हिंदुत्व के उसी दर्शन की तरफ से दागी गई थी जिसकी अाज मोदी-शाह पैरवी करते हैं, अौर संघ परिवार का हर ऐरा-गैरा जिसकी हुअां-हुअां करता रहता है. 

यह बिल्कुल सच है कि महात्मा गांधी ने 29 जनवरी 1948 की देर रात में देश के लिए जो अंतिम दस्तावेज लिख कर समाप्त किया था, उसमें एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को खत्म करने की सलाह दी गई है. उन्होंने लिखा था कि कांग्रेस के मलबे में से वे लोक सेवक संघ नाम का एक ऐसा नया संगठन खड़ा करेंगे जो चुनावी राजनीति से अलग रह कर, चुनावी राजनीति पर अंकुश रखेगा. उन्होंने यह भी कहा था कि कांग्रेस के जो सदस्य चुनावी राजनीति में रहना चाहते हैं उन्हें नया राजनीतिक दल बनाना चाहिए ताकि स्वतंत्र भारत में संसदीय राजनीति के सारे खिलाड़ी एक ही प्रारंभ-रेखा से अपनी दौड़ शुरू करें. 

गांधीजी के लिए कांग्रेस दो थी : एक उसका संगठन अौर दूसरा उसका दर्शन ! वे कांग्रेस का संगठन समाप्त करना चाहते थे ताकि अाजादी की लड़ाई की ऐतिहासिक विरासत का बेजा हक दिखा कर, कांग्रेसी दूसरे दलों से अागे न निकल जाएं. यह उस नवजात संसदीय लोकतंत्र के प्रति उनका दायित्व-निर्वाह था जिसे वे कभी पसंद नहीं करते थे अौर जिसके अमंगलकारी होने के बारे में उन्हें कोई भ्रम नहीं था. इस संसदीय लोकतंत्र को  बांझ व वैश्या जैसा कुरूप विशेषण  दिया था उन्होंने. लेकिन वे जानते थे कि इस अमंलकारी व्यवस्था से उनके देश को भी गुजरना तो होगा, सो उसका रास्ता इस तरह निकाला था उन्होंने. लेकिन एक राजनीतिक दर्शन के रूप में वे कांग्रेस की समाप्ति कभी भी नहीं चाहते थे अौर इसलिए चाहते थे कि वैसे लोग अपना नया राजनीतिक दल बना लें. लेकिन संघ परिवार की यह जन्मजात परेशानी है कि उसे इतिहास पढ़ना अौर इतिहास समझना कभी अाया ही नहीं ! वह अपना इतिहास खुद ही लिखता है, खुद ही पढ़ता है; अौर इतिहास के संदर्भ में अपनी-सी ही निरक्षर पीढ़ी तैयार करने में जुटा रहता है.   

गांधी के साथ जब तक कांग्रेस थी, वह एक अांदोलन थी - अाजादी की लड़ाई का अांदोलन, भारतीय मन व समाज को अालोड़ित कर, नया बनाने का अांदोलन ! जवाहरलाल नेहरू के हाथ अा कर कांग्रेस सत्ता की ताकत से देश के निर्माण का संगठन बन गई. वह बौनी भी हो गई अौर सीमित भी. अौर फिर यह चुनावी मशीन में बदल कर रह गई. अब तक दूसरी कंपनियों की चुनावी मशीनें भी राजनीति के बाजार में अा गई थीं. सो सभी अपनी-अपनी लड़ाई में लग गईं. कांग्रेस की मशीन सबसे पुरानी थी, इसलिए यह सबसे पहले टूटी, सबसे अधिक परेशानी पैदा करने लगी. अपनी मां की कांग्रेस को बेटे राजीव गांधी ने ‘सत्ता के दलालों’ के बीच फंसा पाया था, तो उनके बेटे राहुल गांधी ने इसे हताश, हतप्रभ अौर जर्जर अवस्था में पाया. कांग्रेस नेहरू-परिवार से बाहर निकल पाती तो इसे नये डॉक्टर मिल सकते थे लेकिन पुराने डॉक्टरों को इसमें खतरा लगा अौर इसकी किस्मत नेहरू-परिवार से जोड़ कर ही रखी गई. राज-परिवारों में ऐसा संकट होता ही था, कांग्रेस में भी हुअा. अब डॉक्टर राहुल गांधी के इलाज में कांग्रेस है. यह नौजवान पढ़ाई पढ़ कर डॉक्टर नहीं बना है, डॉक्टर बन कर पढ़ाई पढ़ रहा है. इसकी विशेषता इसकी मेहनत अौर इसका अात्मविश्वास है. मरीज अगर संभलेगा तो इसी डॉक्टर से संभलेगा.  

   अब इस चुनाव पर अाते हैं अौर यह देखते हैं कि कांग्रेस विफल कहां हुई. दो कारणों से यह विफल रही : एक, वह विपक्ष की नहीं, पार्टी की अावाज बन कर रह गई. दो, वह कांग्रेस नहीं, नकली भाजपा बनने में लग गई. जब असली मौजूद है तब लोग नकली माल क्यों लें ? कांग्रेस का संगठन तो पहले ही बिखरा हुअा था, नकल से उसका अात्मविश्वास भी जाता रहा. मोदी-विरोधी विपक्ष को कांग्रेस में अपनी प्रतिध्वनि नहीं मिली; देश को उसमें नई दिशा का अात्मविश्वास नहीं मिला. राहुल गांधी ने छलांग तो बहुत लंबी लगाई लेकिन वे कहां पहुंचना चाहते थे, यह उन्हें ही पता नहीं चला. 

नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस विरोधी व्यक्तियों व संगठनों को अपनी छतरी के नीचे जमा कर लिया अौर पांच साल में सत्ता का लाभ दे कर उन्हें खोखला भी बना दिया. अाज एनडीए खेमे की सारी पार्टियां भारतीय जनता पार्टी के मेमने भर रह गये हैं. वे मोदी से भी अधिक मोदीमय हैं. इसकी जवाबी रणनीति यह थी कि भाजपा विरोधी ताकतें भी एक हों. यह कांग्रेस के लिए भी जरूरी था अौर विपक्ष के लिए भी. लेकिन इसके लिए जरूरी था कि राहुल गांधी खुद को घोषणापूर्वक पीछे कर लेते, अौर विपक्ष के सारे क्षत्रपों को अापसी मार-काट के बाद इस नतीजे पर पहुंचने देते कि कांग्रेस ही विपक्षी एका की धुरी बन सकती है. शायद ऐसा होता कि ऐसा अहसास होने तक 2019 का चुनाव निकल जाता. तो अाज भी तो वही हुअा ! लेकिन जो नहीं हुअा वह यह कि कांग्रेस के पीछे खड़ा होने का विपक्ष का वह एजेंडा अभी पूरा नहीं हुअा. इसलिए बिखरा विपक्ष अौर बिखरता गया, कांग्रेस का अात्मविश्वास टूटता गया. अब राहुल-प्रियंका की कांग्रेस को ऐसी रणनीति बनानी होगी कि 2024 तक विपक्ष के भीतर यह प्रक्रिया पूरी हो जाए अौर कांग्रेस सशक्त राजनीतिक विपक्ष की तरह लोगों को दिखाई देने लगे. ऐसा नया राजनीतिक विमर्श वर्तमान की जरूरत है.  राहुल-प्रियंका की कांग्रेस यदि इस चुनौती को स्वीकार करती है तो उसे खुद को भी अौर अपनी राज्य सरकारों को इस काम में पूरी तरह झोंक देना होगा. यदि वे इस चुनौती को स्वीकार नहीं करते हैं तो कांग्रेस को विसर्जित कर देना होगा. इसके अलावा तीसरा कोई रास्ता नहीं है. 

2019 से देश में दो स्तरों पर राजनीतिक प्रयोग शुरू होगा - एक तरफ सरकारी स्तर पर एनडीए का नया सबल स्वरूप खड़ा हो, तो दूसरी तरफ यूपीए का नया स्वरूप खड़ा हो. इसमें से वह राजनीतिक विमर्श खड़ा होगा जो भारतीय लोकतंत्र को अागे ले जाएगा. इससे हमारा लोकतंत्र स्वस्थ भी बनेगा अौर मजबूत भी. ( 24.05.2019)

Tuesday 14 May 2019

छठी सफलता से पहले

यह कुछ अजीब ही है कि जिन्ना चाहते थे कि अंग्रेजों के सामने ही उन्हें उनका पाकिस्तान मिल जाएभले गांधी विभाजन टालने की कितनी भी कोशिश करेंअांबेडकर चाहते थे कि अंग्रेज जाने से पहलेभारतीय समाज में दलितों की स्थिति की गारंटी कर देंभले गांधी कहते रहें कि हम खुद ही यह सब कर लेंगे;  सावरकर-कुनबा चाहता था कि अंग्रेजों के जाने से पहले ही गांधी का काम तमाम कर दियाजाए ताकि गांधी उनकी राह का रोड़ा   बनें। 
इसलिए अंग्रजों ने जैसे ही भारत से निकलने की जल्दीबाजी शुरू कीइन सबने भी अपनी-अपनी कोशिशें तेज कर दीं। गांधी पर बार-बार हमले होने लगे। 

30 जनवरी 1948 को जो हुअा वह तो महात्मा गांधी की हत्या के कायर नाटक का छठा अध्याय था। उससे पहले सावरकर-मार्का हिंदुत्ववादियों ने 5 बार महात्मागांधी की हत्या के प्रयास किए अौर हर बार विफल हुए। हम उन घटनाअों में उतरें तो यह भी पता चलेगा कि इनमें से किसी भी प्रयास के बाद हमें गांधीजी की कोईप्रतिक्रिया नहीं मिलती है। मृत्यु अौर उसके भय की तरफ मानो उन्होंने अपनी पीठ कर दी थी।
गांधीजी की जान लेने की जितनी कोशिशें दक्षिण अफ्रीका में हुईं - हमें ध्यान रखना चाहिए कि वहां हिंदू-मुसलमान का याकि किसी सुहरावर्दी का याकि 55 करोड़का कोई मसला नहीं था - उनमें से कुछ का जिक्र पिछले पन्नों में आपने जिम डगलस की जबानी पढ़ा। डरबन से प्रीटोरिया जाते हुए ट्रेन से उतार फेंकने की घटना हो याचार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग के बीच की घोड़ागाड़ी की यात्रा में हुई बेरहम पिटाई का वाकयादोनों में उनका अपमान-भर हुअा ऐसा नहीं था बल्कि दोनों ही प्रकरणों मेंउनका अंग भंग भी हो सकता थाजान भी जा सकती थी। चार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग के बीच की यात्रा के बारे में उन्होंने अात्मकथा में लिखा है कि “ मुझे ऐसा लगनेलगा था कि मैं अब अपनी जगह पर जिंदा नहीं पहुंचूंगा।” लेकिन वे अपनी जगह पर जिंदा पहुंचे अौर इन सब घटनाअों के बीच ही कभीकहीं उन्हें उस कीड़े ने काटा जिसनेउनकी जिंदगी का रंग  ढंग दोनों बदल दिया। 
जानकारी के अभाव में या किसी अांतरिक कालिमा के प्रभाव में कुछ लोगों को लगता है कि गांधीजी की अहिंसा की बात एकदम कागजी थीक्योंकि उन्होंने क्रूरहिंसा का या मौत का सीधा सामना तो कभी किया ही नहीं ! ऐसे लोगों को भी अौर हम सबको भी जानना चाहिए कि किसी को मारने की कोशिश में अपनी मौत का अाजाना अौर खुद अागे बढ़ कर मौत का सामना करनादो एकदम भिन्न बातें है। पहली कोटि में गांधीजी कहीं मिलते नहीं हैंदूसरी कोटि मे झांकने का भी साहस हममें हैनहीं। इसलिए हमें इतिहास का सहारा लेना पड़ता है। 
गांधीजी की संघर्ष-शैली ऐसी थी कि जिसमें हिंसा या हमला था ही नहींइसलिए जीत या हार भी नहीं थी। वे वैसा रास्ता खोज रहे थे जिसमें लड़ाई तो होकठोर दुर्धर्ष हो लेकिन उससे सामने वाला खत्म  होसाथ अा जाए। वे अपने-से असहमत लोगों को साथ ले कर अपनी फौज खड़ी करने में जुटे थे - फिर चाहे वे जनरल स्मट्सहों कि रानी एलिजाबेथ कि रवींद्रनाथ ठाकुर कि अांबेडकर कि जिन्ना कि जवाहरलाल नेहरू ! हमें सदियों सेपीढ़ी-दर-पीढ़ी सिखाया तो यही गया है  कि दुश्मन से समझौता दोस्ती ! लेकिन यहां भाई गांधी ऐसे हैं कि जो किसी को अपना दुश्मन मानते ही नहीं हैं। तुमुल संघर्ष के बीच भी उनकी सावधान कोशिश रहती थी कि सामनेवाले को ज्यादा संवेदनशील बना कर कैसे अपने साथ ले लिया जाए। 
वह प्रसंग याद करने लायक है। दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान लंदन के बिशप गांधीजी से मिले। मुलाकात के दौरान गांधीजी का चरखा कातना चलता ही रहताथा। उस दिन भी वैसा ही था। बिशप चाहते होंगे कि गांधीजी सारा काम छोड़ कर उनसे ही बात करें। इसलिए पहुंचते-ही-पहुंचते बिशप ने अपना दार्शनिक तीर चलायामिस्टर गांधीप्रभु जीजस ने कहा है कि अपने दुश्मन को भी प्यार करो ! अापका इस बारे में क्या कहना है ? गांधीजी की चरखे में निमग्नता नहीं टूटी। जवाब भी नहीं अायाअौर सूत भी नहीं रुका,तो बिशप को लगा कि शायद मेरा सवाल सुना नहीं ! सो फिर थोड़ी ऊंची अावाज में अपना सवाल दोहराया। अब गांधीजी का हाथ भी रुकासूतभीअौर वे बोले: “ अापका सवाल तो मैंने पहली बार में ही सुन लिया था। सोचने में लगा था कि मैं इस बारे में क्या कहूंमेरा तो कोई दुश्मन ही नहीं है !… बिशप अवाकउस अादमी को देखते रह गये जो फिर से चरखा कातने में निमग्न हो चुका था।… लेकिन जो किसी को अपना दुश्मन नहीं मानता है उसे इसी कारण दुश्मन मानने वाले तोहोते ही हैं।  
1915  में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका छोड़ करफिर वापस  जाने के लिए भारत अा गये। उस दिन से 30 जनवरी 1948 को मारे जाने के बीचउनकीसुनियोजित हत्या की 5 कोशिशें हुईं। 
  • पहली कोशिश : 1934 : तब पुणे हिंदुत्व का गढ़ माना जाता था। पुणे की नगरपालिका ने महात्मा गांधी का सम्मान समारोह अायोजित किया था अौर उस समारोहमें जाते वक्त उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया। नगरपालिका के मुख्य अधिकारी अौर पुलिस के दो जवानों सहित 7 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। हत्या की यहकोशिश विफल इसलिए हुई कि जिस गाड़ी पर यह मान कर बम डाला गया था कि इसमें गांधीजी हैंदरअसल गांधीजी उसमें नहींउसके पीछे वाली गाड़ी में थे।चूक हत्या की योजना बनाने वालों से ही नहीं हुईउनसे भी हुई जिन्हें इस षड्यंत्र का पर्दाफाश करना था। मामला वहीं-का-वहीं दबा दिया गया। 
  • दूसरी कोशिश : 1944 : अागाखान महल की लंबी कैद में अपने पित्रवत् महादेव देसाई  अपनी बा को खो कर गांधीजी जब रिहा किए गये तो वे बीमार भी थे अौरबेहद कमजोर भी। इसलिए तै हुअा कि बापू को अभी तुरंत राजनीतिक गहमागहमी में  डाल करकहीं शांत-एकांत में अाराम के लिए ले जाया जाए। इसलिएउन्हें पुणे के निकट पंचगनी ले जाया गया। पुणे के नजदीक बीमार गांधीजी का ठहरना हिंदुत्ववादियों को अपने शौर्य प्रदर्शन का अवसर लगा अौर वहां पहुंच कर वेलगातार नारेबाजीप्रदर्शन करने लगे। फिर 22 जुलाई को ऐसा भी हुअा कि एक युवक मौका देख कर गांधीजी की तरफ छुरा ले कर झपटा। लेकिन भिसारे गुरुजीने बीच में ही उस युवक को दबोच लिया अौर उसके हाथ से छुरा छीन लिया। गांधीजी ने उस युवा को छोड़ देने का निर्देश देते हुए कहा कि उससे कहो कि वह मेरेपास अा कर कुछ दिन रहे ताकि मैं जान सकूं कि उसे मुझसे शिकायत क्या है। वह युवक इसके लिए तैयार नहीं हुअा। उस युवक का नाम था नाथूराम गोडसे। 
  • तीसरी कोशिश : 1944 :  1944 में ही तीसरी कोशिश की गई ताकि पंचगनी की विफलता को सफलता में बदला जा सके। इस बार स्थान था वर्धा स्थित गांधीजीका सेवाग्राम आश्रम।पंचगनी से निकल कर गांधीजी फिर से अपने काम में डूबे थे। विभाजन की बातें हवा में थीं अौर मुहम्मद अली जिन्ना उसे सांप्रदायिक रंग देनेमें जुटे थे। सांप्रदायिक हिंदू भी मामले को अौर बिगाड़ने में लगे थे। गांधीजी इस पूरे सवाल पर मुहम्मद अली जिन्ना से सीधी बातचीत की योजना बना रहे थे अौरयह तय हुअा कि गांधीजी मुंबई जा कर जिन्ना से मिलेंगे। 
गांधीजी के मुंबई जाने की तैयारियां चल रही थीं कि तभी सावरकर-टोली ने घोषणा कर दी कि वे किसी भी सूरत में गांधीजी को जिन्ना से बात करने मुंबई नहीं जानेदेंगे। पुणे से उनकी एक टोली वर्धा अा पहुंची अौर उसने सेवाग्राम अाश्रम घेर लिया। वे वहां से नारेबाजी करतेअाने-जाने वालों को परेशान करते अौर गांधीजी पर हमलाकरने का मौका खोजते रहते। पुलिस का पहरा था। गांधीजी ने बता दिया कि वे नियत समय पर मुंबई जाने के लिए अाश्रम से निकलेंगे अौर विरोध करने वाली टोली केसाथ तब तक पैदल चलते रहेंगे जब तक वे उन्हें मोटर में बैठने की इजाजत नहीं देते। गांधीजी की योजना जान कर पुलिस सावधान हो गईये उपद्रवी तो चाहते ही हैं किगांधीजी कभी उनकी भीड़ में घिर जाएं। पुलिस के पास खुफिया जानकारी थी कि ये लोग कुछ अप्रिय करने की तैयारी में हैं। इसलिए उसने ही कदम बढ़ाया अौर उपद्रवीटोली को गिरफ्तार कर लिया। सबकी तलाशी ली गई तो इस टोली के सदस्य ..थत्ते के पास से एक बड़ा छुरा बरामद हुअा। युवाअों का वर्धा पहुंचनाउनके साथ हीराष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के निर्माताअों में से एक माधवराव सदाशिव गोलवलकर का अचानक वर्धा आगमन अौर यह छुरासब मिल कर एक ही कहानी कहते हैं - जिस तरहभी होगांधी का खात्मा करो !  
  • चौथी कोशिश : 1946 : पंचगनी अौर वर्धा की विफलता से परेशान हो कर इन लोगों ने तै किया कि गांधीजी को मारने के क्रम में कुछ दूसरे भी मरते हों तो मरें।इसलिए 30 जून को उस रेलगाड़ी को पलटने की कोशिश हुई जिससे गांधीजी मुंबई से निकल कर पुणे जा रहे थे। करजत स्टेशन के पास पहुंचते-पहुंचते रात गहरीहो चली थी लेकिन सावधान ड्राइवर ने देख लिया कि ट्रेन की पटरियों पर बड़े-बड़े पत्थर डाले गये हैं ताकि गाड़ी पलट जाए।इमर्जेंसी ब्रेक लगा कर ड्राइवर ने गाड़ीरोकी। जो नुकसान होना था वह इंजन को हुअागांधीजी बच गये।अपनी प्रार्थना सभा में गांधीजी ने इसका जिक्र करते हुए कहा, “ मैं 7 बार मारने के ऐसे प्रयासोंसे बच गया हूं। मैं इस  प्रकार मरने वाला नहीं हूं। मैं तो 125 साल जीने की अाशा रखता हूं।” पुणे से निकलने वाले अखबार ‘ हिंदू राष्ट्र’ के संपादक ने जवाबदिया, “ लेकिन आपको इतने साल जीने कौन देगा !” अखबार के संपादक का नाम था - नाथूराम गोडसे ! 
  • पांचवीं  कोशिश : 1948 : पर्दे के पीछे लगातार षड्यंत्रों अौर योजनाअों का दौर चलता रहा। सावरकर अब तक की अपनी हर कोशिश की विफलता से खिन्न भी थेअौर अधीर भी ! लंदन में धींगरा जब हत्या की ऐसी ही एक कोशिश में विफल हुए थेतब भी सावरकर ने उन्हें अाखिरी चेतावनी दी थी, “ अगर इस बार भी विफलरहे तो फिर मुझे मुंह  दिखाना !” हत्या सावरकर के तरकश का आखिरी नहींजरूरी हथियार था। इसका कब अौर किसके लिए इस्तेमाल करना है  यह फैसलाहमेशा उनका ही होता था। 
गांधीजी अपनी हत्या की इन कोशिशों का मतलब समझ रहे थे लेकिन वे लगातार एक-से-बड़े-दूसरे खतरे में उतरते भी जा रहे थे। उनके पास निजी खतरों का हिसाबलगाने का वक्त नहीं थाअौर खतरों में उतरने के सिवा उनके पास विकल्प भी नहीं था। खतरों में वह सत्य छिपा था जिसकी उन्हें तलाश भर नहीं थी बल्कि जिसे उन्हें देश दुनिया को दिखाना भी था कि जान देने के साहस में से अहिंसा शक्ति भी पाती है अौर स्वीकृति भी। हत्यारों में इतनी हिम्मत थी ही नहीं कि वे भी उन खतरों में उतर करगांधीजी का मुकाबला करते। इस लुकाछिपी में ही कुछ वक्त निकल गया।
इस दौर में सांप्रदायिकता के दावानल में धधकते देश की रगों में क्षमाशांति अौर विवेक का भाव भरते एकाकी गांधी कभी यहांतो कभी वहां भागते मिलते हैं।पंजाब जाने के रास्ते में वे दिल्ली पहुंचे हैं अौर पाते हैं कि दिल्ली की हालत बेहद खराब है। अगर दिल्ली हाथ से गई तो अाजाद देश की अाजादी भी दांव पर लग सकती हैगांधीजी दिल्ली में ही रुकने का फैसला करते हैं - तब तक जब तक हालात काबू में नहीं अा जाते। इधर गांधीजी का फैसला हुअाउधर सावरकर-टोली का फैसला भीहुअागांधीजी ने कहामैं दिल्ली छोड़ कर नहीं जाऊंगासावरकर-टोली ने कहाहम अापको दिल्ली से जिंदा वापस निकलने नहीं देंगे ! स्थान गांधीजी का था - बिरलाभवनअौर बम सावरकर-टोली का। 
बिरला भवन मेंरोज की तरह उस रोज भी, 20 जनवरी की शाम को भी प्रार्थना थी। 13 से 19 जनवरी तक गांधीजी का अामरण उपवास चला था। उसकी पीड़ा नेप्रायश्चित जगाया अौर दिल्ली में चल रही अंधाधुंध हत्याअों  लूट-पाट पर कुछ रोक लगी। सभी समाजोंधर्मोंसंगठनों ने गांधीजी को वचन दिया कि वे दिल्ली का मनफिर बिगड़ने नहीं देंगे। ऐसा कहने वालों में सावरकर-टोली भी शामिल थी जो उसी वक्त हत्या की अपनी योजना पर भी काम कर रही थी। गांधीजी अपनी क्षीण अावाज मेंइन सारी बातों का ही जिक्र कर रहे थे कि मदनलाल पाहवा ने उन पर बम फेंका।बम फटा भी लेकिन निशान चूक गया। जिस दीवार की अाड़ से उसने बम फेंका था उससेगांधीजी जहां बैठे थेउसकी दूरी का उसका अंदाजा गलत निकला। गांधीजी फिर बच गये। बमबाज मदनलाल पाहवा विभाजन का शरणार्थी था। वह पकड़ा भी गया।लेकिन जिन्हें पकड़ना थाउन्हें तो किसी ने पकड़ा ही नहीं। 
    • छठी सफल कोशिश : 30 जनवरी 1948 : 10 दिन पहले जहां मदनलाल पाहवा विफल हुअा था, 10 दिन बाद वहीं नाथूराम गोडसे सफल हुअा। प्रार्थना-भावमें मग्न अपने राम की तरफ जाते गांधीजी के सीने में उसने तीन गोलियां उतार दीं अौर ‘हे राम !’  कह गांधीजी वहां चले गये जहां से कोई वापस नहीं अाताहै।