Tuesday 9 March 2021

मैं जहां भी जाऊंगा, उसको पता हो जाएगा

  

शीर्षक की पंक्ति जनाब बशीर बद्र के एक शेर से ली गई है.  ऐसा कम होता है कि शेर किसी दूसरे के लिएकिसी दूसरे अंदाज में लिखा जाए और वह एकदम से कहीं और चस्पां हो जाएलेकिन ऐसा होता भी हैऔर अभी-अभी हुआ भी है. बात अमरीका से आई है. यह ठीक है कि अब वहां हमारे ट्रंप भाई’ नहीं हैं और ह्यूस्टन में ट्रंप भाई के साथ मिल कर हाउडी मोदी’ की जो गूंज प्रधानमंत्री ने उठाई गई थीवह दम तोड़ चुकी है.

 

 ट्रंप भाई’ ने जाते-जाते हमें गंदा व झूठा देश’ कह कर मुंह का स्वाद भले खराब कर दिया है लेकिन बाइडन का अमरीका तो है न जिसके साथ मिल कर काम करने का अरमान प्रधानमंत्री ने अभी-अभी जाहिर किया है. तो मुद्दा यह कि अमरीका से बात आती है तो हमारे यहां ज्यादा सुनी जाती हैतो बात अमरीकी संस्थान फ्रीडम हाउस’ से आई है. वह कहती है कि जहां तक लोकतंत्रउससे जुड़ी स्वतंत्रताओंनागरिक अधिकारों व तटस्थ न्यायपालिका का सवाल है हमारा भारत 2019 में स्वतंत्र देश’ की श्रेणी में था2020 में खिसक कर किसी हद तक स्वतंत्र देश’ की श्रेणी में आ गया है. यह क्या हुआ 2019 से चल कर  2020 में हम यह कहां पहुंचे कि अपनी सूरत ही गवां बैठे अगर कोई ऐसा कहने की जुर्रत करे कि अमरीका की क्या सुननातो उसे लेने-के-देने पड़ जाएंगे क्योंकि आज कौन यह कहने की हिम्मत कौन करेगा कि ट्रंप भाई’ का अमरीका हमारा’ था और बाइडन का अमरीका उनका’ है इसलिए हमें देखना यह चाहिए कि 2019-20 के बीच हमने क्या-क्या कारनामे किए कि इस तरह गिरे.  


 मैं जहां भी जाऊंगाउसको पता हो जाएगा’ कि लोकतंत्र की अपनी ही व्याख्या को लोकतंत्र मानने वालों का दौर आ गया है. इस दौर में हमने देश की सारी संवैधानिक संस्थाओं को बधिया कर दिया है और ऐसे लोगों को उनमें ला बिठाया जिनकी रीढ़ है ही नहीं. ऐसे अर्ध-विकसितविकलांगों की कमी समाज में कभी नहीं रही. ऐसे लोगों की भीड़ जुटा कर आप सत्ता में रहने का सुख पा सकते हैंलोकतंत्र नहीं पा सकते हैं. लोकतंत्र का संरक्षण व  विकास ऐसों के बस का होता ही नहीं है. लोकतंत्र होगा तो रीढ़ सीधी और सर स्वाभिमान से तना होगा. 


इसी दौर में हमने यह मिजाज भी दिखलाया कि जिस जनता ने हमें चुना’ हैउसे अब हम चुनेंगे’. नागरिकता का कानून ऐसी ही अहमन्यता से सामने लाया गया था और हेंकड़ी दिखाते हुए उसे लागू करने की घोषणा कर दी गई थी. इसका जिसने जहां विरोध किया उसे वहीं कुचल डालने की असंवैधानिक-अमानवीय कोशिशें हुईं. स्वतंत्र भारत में कभी युवाओं की ऐसी व्यापक धुनाई-पिटाईबदनामी और गिरफ्तारी नहीं हुई थी जैसी नागरिकता आंदोलन के दौरान हुई. बाजाप्ता कहा गया कि जो हमसे सहमत नहीं है उसका ईमान मुसल्लम नहीं है और जिसका ईमान मुसल्लम नहीं है वह देशद्रोही है. लोकतंत्र खत्म होता है तो देशद्रोहियों की जरखेज फसल होती है. 


यही दौर था जब लोकतंत्र को पुलिसिया राज में बदला गयागुंडों को राजनीतिक लिबास पहनाया गयामीडिया को पीलिया हो गया और न्यायपालिका को मोतियाबिंद. और तभी देश में कोविड का प्रकोप फूटा. इस संकट को आनन-फानन में ऐसे अवसर में बदल लिया गया जिसमें आपका कहा ही कानून बन गया. जैसे भय आदमी को आदमी नहीं रहने देता है वैसे ही भयभीत लोक और अहंकारी तंत्र लोकतंत्र को लोकतंत्र नहीं रहने देता है. ऐसा माहौल रचा गया कि एक धर्मविशेष के लोग योजनापूर्वक कोविड फैलाने का ठेका ले कर  भारत में घुस आए हैं. भारत की सड़कों पर जिस तरह कभी जानवर नहीं चले होंगेउस तरह लाखों-लाख श्रमिकों को चलने के लिए मजबूर छोड़ दिया गया. उनके सामने दो मौतों में से एक को चुनने का विकल्प छोड़ा गया था : कोविड से मरो या भूख से ! इसी अंधेरे काल में श्रम कानूनों मेंबैंकिंग व्यवस्था मेंफौजी संरचना मेंपुलिस के अधिकारों मेंविपक्षी राज्यों मेंविश्वविद्यालयों के प्रशासनिक व पाठ्यक्रम के ढांचे मेंकश्मीर की वैधानिक स्थिति में तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की भूमिका ऐसे परिवर्तित की गई कि लोकतंत्र घुटनों के बल आ गया.


 चुनाव व चुनाव परिणाम सत्ता व पैसों की ताकत से बनाए व बिगाड़े जाने लगे. व्यक्तित्वहीन व संदर्भहीन लोगों को राज्यपाल बनाने से ले कर ज्ञान-विज्ञान व शोध के शीर्ष संस्थानों में ला बिठाया गया. अंतरधार्मिक व अंतरजातीय विवाहों को अपराध बना देने वाले लव जेहाद’ जैसे सिरफिरे कानून पारित किए गये. भीड़ को तत्काल न्याय देने का काम सौंपा गया और यह सावधानी रखी गई कि भीड़ एक धर्म या जाति विशेष की हो जो दूसरे धर्म व जाति विशेष को सजा देती फिरे. यह सब है जो भारत को स्वतंत्र देश’ की श्रेणी से किसी हद तक स्वतंत्र’ देश की श्रेणी में उतार लाया है. यह हर भारतीय के लिए अपमान व लज्जा की बात है. इसका मतलब यह है कि लोकतंत्र का आभास देने वाली संरचनाएं भले बनी रहेंगी लेकिन सब आत्माहीन और खोखली होंगी. आखिर चीन भी तो अपनी तरह के लोकतंत्र का दावा करता ही है न लेकिन फ्रीडम हाउस’ चीन को स्वतंत्र राष्ट्र नहीं’ की श्रेणी में रखता है. इसी रिपोर्ट में फ्रीडम हाउस’ यह भी लिखता है कि अमरीका स्वतंत्र राष्ट्र’ की श्रेणी में2010 में 94 अंकों के साथ था लेकिन ट्रंप भाई के कार्यकाल में यहां से गिर कर यह 83 अंकों पर पहुंचा है. फ्रीडम हाउस’ बता रहा है कि सारी दुनिया का लोकतांत्रिक स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है. स्वीडनफिनलैंड और नॉर्वे ही हैं जो पूरे 100 अंक के साथ ‘ स्वतंत्र राष्ट्र’ बने हुए हैं.

              

यह फ्रीडम हाउस’ है क्या फाशीवाद व तानाशाही का लंबा दौर झेलने और दूसरे विश्वयुद्ध की लपटों में घिरी दुनिया को सावधान करने के लिए 31 अक्तूबर 1941को वाशिंग्टन में इसकी स्थापना हुई. इसने दुनिया भर में लोकतंत्र के विकास व विनाश का विधिवत अध्ययन करने और उस आधार देशों को अंक देने की शुरुआत की. आज कोई 80  साल बाद 150 से ज्यादा लोग इस संस्थान में काम करते हैं. दुनिया के कई देशों में इसकी शाखाएं हैं. फ्रीडम इन द वर्ल्ड’ नाम से इसकी एक पत्रिका भी निकलती है जो तानाशाहों और तानाशाही की उभरती प्रवृत्तियों को पहचाने व उसे उजागर करने का ही काम नहीं करती है बल्कि इनका घोर विरोध भी करती है. यह मानती है कि जहां भी सरकारें अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होती हैंलोकतंत्र वहीं पल्लवित व पुष्पित होता है. मतलब लोकतंत्र चुनावोंसंसदों और सांसदों-विधायकों की फौज में न छुपा हुआ हैन सुरक्षित है. आप जहां लोकतांत्रिक प्रतिमानों से गिरे फ्रीडम हाउस’ आपको पहचान लेता है और सारी दुनिया को बता देता है. इसलिए बशीर बद्र साहब का पूरा शेर कहता है : सब उसी के हैंहवाखुश्बू जमीं-ओ-आसमां / मैं जहां भी जाऊंगाउसको पता हो जाएगा. दुनिया को पता हो गया है कि भारत में लोकतंत्र का आसमान सिकुड़ भी रहा है और धुंधला भी रहा है. देखना है कि हमें इसका पता कब चलता है. ( 05.03.2021)           

Monday 1 March 2021

लोकतंत्र की ‘दिशा’

एक अच्छागहरा व तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक या फिर आजाद कलम रखने वाला कोई बे-गोदी पत्रकार चाह कर भी आज की परिस्थिति और उससे उभरते खतरों के बारे में वैसा सधागहन विश्लेषण नहीं लिख पाता जैसा दिल्ली के अतिरिक्त सेशन जज धर्मेंद्र राणा ने अपने 14 पृष्ठों के आदेश में लिखा है. इसे राजनीतिक विश्लेषकों व पत्रकारों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. बंगलुरू की 22 साल की लड़की दिशा रवि को जमानत देते हुए राणा साहब ने जो कुछ और जिस तरह लिखा है वह हाल के वर्षों में अदालत की तरफ से सामने आया सबसे शानदार संवैधानिक दस्तावेज है. हमारे सर्वोच्च न्यायालय के तथाकथित न्यायमूर्ति यदि इससे कुछ सीख सकें तो अपने मूर्तिवत् अस्तित्व से छुटकारा पा सकते हैं. 


   कहा जाता है कि जमानत का आदेश अत्यंत संक्षिप्त होना चाहिए क्योंकि मुकदमा तो जमानत के बाद खुलता ही है और वादी-प्रतिवादी-जज तीनों को अपनी बात सविस्तार कहने का मौका मिलता है. लेकिन सारे देश में जैसी जड़ता बनी हुई है उसमें यह किताबी बात बन जाती है. हमारे संविधान की विशेषता ही यह है कि यदि इसका आत्मत: पालन और पूर्ण सम्मान किया जा रहा हो तो इसके किसी भी खंभे को ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती है. लोकतंत्र जब राष्ट्र-जीवन की रगों में बहता होता है तो वह अपनी तरह से रोज ही संविधान की व्याख्या करता चलता है. लेकिन जब लोकतंत्र जुमला बना दिया जाता है और उसके सारे खंभे अपने गंदे कपड़ों को टांगने की खूंटी में बदल दिए जाते हैं तब जरूरत पड़ती ही है कि कोई एस. मुरलीधरन या कोई धर्मेंद्र राणा बोलें और पूरी बात बोलें. गूंगे न्यायमूर्ति संविधान को भी श्रीहीन कर देते हैं. 


   दिशा के जगजाहिर मामले के विस्तार में जाने की यहां जरूरत नहीं हैइतना कहने की जरूरत है कि उसकी गिरफ्तारी न केवल असंवैधानिक थी बल्कि सत्ता के इशारे पर दिल्ली पुलिस द्वारा की गई एक आतंकवादी काररवाई थी. धर्मेंद्र राणा ने अपने फैसले में कहा कि उनके सामने एक भी ऐसी पुख्ता दलील या सबूत नहीं ला सकी दिल्ली पुलिस जिससे कहीं दूर से भी यह नतीजा निकाला जा सके कि दिशा या उसका टूलकिट’ हिंसा उकसाने वाला था या 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में हुई हिंसा का प्रेरक था. ऐसा कहते हुए राणा साहब जाने-अनजाने दिल्ली पुलिस और उसके आका गृहमंत्री को एक साथ ही अयोग्यता का प्रमाणपत्र दे रहे थे. दिशा की गिरफ्तारी का अौचित्य दिल्ली पुलिस प्रमुख व गृहमंत्री ने टीवी पर आ कर जिस तरह बताया था उसके बाद जरूरी था कि कोई चिल्ला कर व अंगुली दिखाकर वह सब कहे कि जो राणा साहब ने कहा है. जब भी और जहां भी संविधान बोलता हैनकली चेहरे ऐसे ही बेपर्दा हो जाते हैं. 


   दिशा की गिरफ्तारी बेबुनियाद व असंवैधानिक थीयह कह कर राणा साहब ने उसे जमानत दे दी. यह तो जरूरी बड़ी बात हुई ही लेकिन इससे अहम हैं उनकी कुछ स्थापनाएं जिसमें वे कहते हैं कि किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में जनता अपनी सरकार की अंतरात्मा की प्रहरी होती है,” और आप किसी को भी “ सिर्फ इसलिए उठा कर सलाखों के पीछे नहीं पहुंचा दे सकते हैं कि वह राज्य की नीतियों से सहमत नहीं है.” वे यह भी कहते हैं कि “ किसी सरकारी मुखौटे की सजावट पर खम पड़ने से आप किसी पर धारा 124ए के तहत देशद्रोह का अपराध नहीं मढ़ दे सकते हैं.” वे यह भी रेखांकित करते हैं कि “ किसी संदिग्ध व्यक्ति से संपर्क मात्र को आप अपराध करार नहीं दे सकते. देखना तो यह चाहिए कि क्या उसकी किसी गर्हित गतिविधि में आरोपी की संलग्नता है मैं काफी छानबीन के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि आरोपी पर ऐसा कोई अभियोग  लगाया नहीं जा सकता है. ” फिर उन्होंने वह संदर्भ लिया जिसमें दिल्ली पुलिस व गृहमंत्री दोनों ने कहा था कि दिशा ने ‘ टूलकिट’ बना कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न केवल संसार में भारत की छवि बिगाड़ी है बल्कि देश के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र भी खड़ा किया. सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों का उल्लेख करते हुए राणा साहब ने कहा कि संविधान की धारा 19 असहमति के अधिकार को पुरजोर तरीके से स्थापित करती है और “ बोलने और अभिव्यक्त करने की आजादी में दुनिया भर से उसके लिए समर्थन मांगने की आजादी भी शामिल है.” ऋगवेद को उद्धृत करते हुए राणा साहब ने कहा कि हमारी 5 हजार साल पुरानी सभ्यता का ऋषि गाता है कि हमारे पास हर तरफ से कल्याणकारी विचार आने चाहिए. हर तरफ कहने से ऋषि का मतलब है संसार के कोने-कोने से. अगर तब यह आदर्श था तो आज इसे अपराध कैसे मान सकते हैं हम 


   राणा साहब 5 हजार साल पीछे न जाते तो उन्हें ज्यादा नहींकोई 70 साल पहले का अपना आधुनिक ऋषि महात्मा गांधी भी मिल जाता जिसने कहा था: मैं चाहता हूं कि मेरे कमरे के सारे दरवाजे-खिड़कियां खुली रहें ताकि उनसे दुनिया भर की हवाएं मेरे कमरे में आती-जाती रहें लेकिन मेरे पांव मजबूती से मेरी धरती में गड़े हों ताकि कोई मुझे उखाड़ न ले जा सके. लेकिन सवाल तो उनका है जिनका अस्तित्व इसी पर टिका है कि उन्होंने अपने मन-प्राणों की हर खिड़कियां बंद कर रखी हैं ताकि कोई नई रोशनी भीतर उतर न जाए. ये अंधकारजीवी प्राणी हैं. राणा साहब ने इस अंधेरे मन पर भी चोट की है. 


   सवाल एकदम बुनियादी है. लोकतंत्र में मतभिन्नता तो रहेगी ही. वही उसकी प्राणवायु है. लेकिन भिन्न मत लोकतंत्र में कभी भी अपराध नहीं माना जाएगायह उसका अनुशासन है. संविधान इसी की घोषणा करता है और इसके लिए न्यायपालिका नाम का एक तंत्र बनाता है जिसके होने का एकमात्र अौचित्य यह है कि वह संविधान के लिए ही जिएगा और संविधान के लिए ही मरेगा. लेकिन ऐसा हो नहीं सकाहो नहीं रहा है. संविधान के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता वाली न्यायपालिका हम बना नहीं सके हैं क्योंकि ऐसी न्यायपालिका के लिए प्रतिबद्ध समाज नहीं बना है. यह सबसे अंधेरी घड़ी है तो इसलिए कि यहां हर आदमी अपने लिए तो लोकतंत्र चाहता हैदूसरे के किसी भी लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान नहीं करता है. ऐसे नागरिकों को ऐसी ही न्यायपालिका मिल सकती है कि जो संविधान की किताब को बंद करकिसी सरकारी निर्देश या संकेत पर सुनती-बोलती और फैसले करती है. 


   दशा रवि मामले को ले कर राणा साहब ने एक बार फिर वह लकीर खींच दी है जो लोक को तंत्र का निशाना बनने से रोकती है. किसी भी लोकतांत्रिक समाज की यही दिशा हो सकती है कि वह लोकतंत्र की नई दिशाएं खोले. ( 26.02.2021)