Sunday 24 December 2023

क्या आप इस संसद को पहचानते हैं ?

 कांग्रेसमुक्त भारत बनाने की बदहवास होड़ को यही रास्ता पकड़ना था. देश भी तेजी से कांग्रेसमुक्त हो रहा है; संसद भी विपक्ष मुक्त हो गई है. संविधान में ऐसी मुक्ति की कोई कल्पना नहीं है. वहां तो संसदीय लोकतंत्र का आधार ही पक्ष-विपक्ष दोनों है. विपक्ष अपने कारणों से चुनाव न जीत सके तो वह जाने लेकिन जो और जितने जीत कर संसद में पहुंचे हैं, उन्हें पूरे अधिकार व सम्मान के साथ संसद में रखना सत्तापक्ष का लोकतांत्रिक दायित्व है. लोकसभा का अध्यक्ष इसी काम के लिए रखा जाता है कि वह संसदीय प्रणाली व सांसदों की गरिमा का रक्षक बन कर रहेगा. लेकिन हम यह नया भारत देख रहे हैं. इसमें भारत कहां है यह भी खोजना पड़ता है, इस नये भारत की संसद में विपक्ष कहां है, यह भी खोजना पड़ता है. एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हम अपने अस्तित्व की ऐसी शानदार जगह पर आ पहुंचे हैं जहां से वह हर कुछ खोजना पड़ रहा है जिसकी दावेदारी तो बहुत हो रही है लेकिन दिखाई कुछ भी नहीं देता है. 

   ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि विपक्ष ने संसद चलने में इतनी बाधा पैदा की कि उन्हें दंडित करना पड़ा. 60 के दशक से पहले अध्यक्ष की अपील व झिड़की काफी होती थी  कि संसद के कामकाज में बाधा डालने वाला रास्ते पर आ जाता था. 60 के दशक में विपक्ष ने भी अपने अधिकारों की मांग शुरू की. उसका स्वर तीखा होता गया. 70 के दशक में कांग्रेस ने इंदिरा गांधी के मनमाने के सामने गूंगे रह कर विपक्ष को संसद से बाहर कर दिया था. लेकिन वह आपातकाल का संदर्भ था. 

   जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थीतब उसने संसद को अंटकाने को हथियार की तरह बरतना शुरू किया. संसद की ऐसी-तैसी करते हुए भाजपा के अरुण जेटली व सुषमा स्वराज्य ने ऐसे बर्ताव को विपक्ष का जायज हथियार बताया था. उस वक्त के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने संसद को बंधक रखने जैसी प्रवृत्ति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया था. लेकिन जब आप फिसलन पर पांव धरते हैं तब गिरावट आपके काबू में नहीं रहती है. 

   2014 के बाद से संसद का सामान्य शील भी खत्म हो गया और इस बार इसे विपक्ष ने नहींसत्तापक्ष ने खत्म किया. सबसे पहले तो प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि हमारा विपक्ष देशद्रोहीराष्ट्रीय एकता का दुश्मनभ्रष्टाचारी तथा विभाजनकारी ताकतों का सफरमैना है. विपक्ष के लिए जवाहरलाल से मनमोहन सिंह तककिसी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं कहा था. अपार बहुमत से सरकार बनाए प्रधानमंत्री को विपक्ष को ऐसा कहने की जरूरत क्यों पड़ी इसलिए कि वे भयग्रस्त मानसिकता से घिरे थेघिरे हैं. उन्हें पता है कि यह जो सत्ता हाथ आई हैउसके पीछे आत्मबल नहींतिकड़में हैं. तिकड़म का चरित्र ही यह है कि वह कब छल कर जाएआपको पता भी नहीं चले. इसलिए रणनीति यह बनती है कि हर विपक्ष व हर असहमति को इतना गिरा दोपतित कर दो कि उसके उठने की संभावना ही न बचे. विपक्षसंवैधानिक संस्थाओंस्वतंत्र जनमतमीडियाराज्य सरकारों आदि का ऐसा श्रीहीन अस्तित्व पहले कभी नहीं था. विपक्षजिसने 60-65 सालों तक देश चलाया हैअगर देशद्रोहीभारत का दुश्मनविभाजनकारी ताकतों का सफरमैना तथा भ्रष्टाचारियों का सरदार होतातो क्या आपको वैसा देश मिलता जैसा मिला आप चुनाव जीत सकेप्रधानमंत्री बन सकेयही इस बात का प्रमाण है कि विपक्ष पर लगाए आपके आरोप बेबुनियाद हैं. विपक्ष दूध का धुला हैऐसा कोई नहीं कहेगा लेकिन आपका दूध शुद्ध हैऐसा भी तो कोई नहीं कहता है. 

   आप यह जरूर कह सकते हैं कि आजादी के बाद से अब तक विपक्ष ने जैसी सरकार चलाईजैसा समाज बनाया उससे भिन्न व बेहतर सरकार व समाज हम बनाएंगे. आपको यह कहने का अधिकार भी है व उसका आधार भी हैक्योंकि आपने सारे देश में एकदम भिन्न एक विमर्श खड़ा कर अपने लिए चुनावी सफलता अर्जित की है. लेकिन देश आजाद ही 2014 में हुआऐसा विमर्श बनाना व सत्ता की शक्ति से उसे व्यापक प्रचार दिलाना दूसरा कुछ भी होस्वस्थ्य लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने से कम नहीं है. अब यह राजनीतिक शैली दूसरे भी सीख चुके हैं. वे भी इतनी ही कटुता से स्तरहीन विमर्श को बढ़ावा दे रहे हैं. लोकतंत्र में सार्वजनिक विमर्श का सुर व स्तर सत्तापक्ष निर्धारित करता हैविपक्ष उसका अनुशरण करता है. संसद जिस स्तर तक गिरती हैदेश का सार्वजनिक विमर्श भी उतना ही गिरता है. 

   संसद के दोनों सदनों में अध्यक्ष का पहला व अंतिम दायित्व एक ही है : सदस्यों का विश्वास हासिल करना तथा सदस्यों का संवैधानिक संरक्षण करना है. प्रत्यक्ष या परोक्ष पक्षपात आपकी नैतिक पकड़ कमजोर करता जाता है. 2014 से यह लगातार जारी है. यह सच छिप नहीं सकता है कि विपक्ष संख्याबल में कमजोर है जिसे आप बराबरी का अधिकार व अवसर न दे कर लगातार कमजोर करते जा रहे हैं. आपके ऐसे रवैये से विपक्ष का जो हो सो होसदन लगातार खोखला होता जा रहा है. वहां व्यक्तिपूजानारेबाजीजुमलेबाजी तथा तथ्यहीनता का गुबार गहराता जा रहा है. ऐसी संसद न तो सदन के भीतर और न बाहर लोकतंत्र को मजबूत व समृद्ध कर सकती है. संविधान इस बारे में गूंगा नहीं है भले हम उसकी तरफ से मुंह फेर करनिरक्षर व सूरदास बन गए हैं. संविधान के सामने सर झुकाना व संविधान का गला काटना इतिहास में कई बार हुआ है. 

   18 दिसंबर 2023 एक ऐतिहासिक दिन बन गया है. इस दिन से एक सिलसिला शुरू हुआ है जो अब तक कोई 150 सांसदों को दोनों सदन से बाहर निकाल चुका है. ये सारे निलंबन अनुशासन के नाम पर किए गए हैं. अचानक इतने सारे अनुशासनहीन सांसद कहां से आ गए ?   पहले से सब ऐसे ही थे तो अब तक सदन चल कैसे रहा था पहले से नहीं थे तो इन्हें अनुशासनहीन बनाने की स्थिति किसने पैदा की हर निलंबित सदस्य दोनों अध्यक्षों की क्षमता पर भी और उनकी मंशा पर भी सवाल खड़े करता है. संसदीय लोकतंत्र के प्रति आपकी प्रतिबद्धता कैसी हैयह कैसे आंकेंगे हम आपके व्यवहार से ही न !  विपक्ष के इतने सारे सदस्यों को निलंबित कर देने के बाद संसद में लगातार संवेदनशील बिल पेश भी किए जाते रहेपारित भी किए जाते रहेतो यह मंजर ही घोषणा करता है कि संसदीय लोकतंत्र का कोई शील आपको छू तक नहीं गया है.               

   150 के करीब विपक्षी सांसदों को निलंबित करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं थासत्तापक्ष का ऐसा तर्क मान भी लें हम तो संसदीय लोकतंत्र की भावना के अनुरूप यह तो किया ही जा सकता था कि इतने निलंबन के बाद संसद की बैठक स्थगित कर दी जाती और विपक्ष के साथ नये सिरे से विमर्श किया जाता कि अब संसद का काम कैसे चलेगा संसदीय लोकतंत्र का एकमात्र संप्रभु मतदाता हैजिसने वह संविधान रचा है जिससे आप अस्तित्व में आए हैं. उसने जैसे आपको चुनकर संसद में भेजा है वैसे ही उसने विपक्ष को भी चुन कर संसद में भेजा है. दोनों की हैसियत व अधिकार बराबर हैं और दोनों के संरक्षण की संवैधानिक जिम्मेवारी अध्यक्षों की है. इसलिए अध्यक्षों को यह भूमिका लेनी चाहिए थी कि भले किसी भी कारणवश इनका निलंबन हुआ होइनको चुनने वाले मतदाता का अपमान हम नहीं कर सकतेसो संसद स्थगित की जाती है और हम सर जोड़ कर बैठते हैं कि इस उलझन का क्या रास्ता निकाला जाए. ऐसा होता तो अब्दुल हमीद अदम की तरह दोनों अध्यक्ष इस परिस्थिति को एक सुंदर मोड़ दे सकते थे कि "शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आपमहफिल में इस खयाल से फिर आ गया हूं मैं". इसकी जगह ऐसा रवैया अपना गया कि जैसे बिल्ली के भाग से छींका टूटा. क्या अब संसद में कौन रहेगाइसका फैसला मतदाता नहींसंसद का बहुमत करेगा यह संविधान की लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन है. यह तो नई ही स्थापना हो गई कि विपक्षविहीन संसद वैध भी है और हर तरह का निर्णय करने की अधिकारी भी है. फिर संसद की कैसी तस्वीर बनती है और संविधान का क्या मतलब रह जाता है इसका जवाब इस संसद के पास तो नहीं है. ( 22.12.2023)

नये साल की दहलीज पर

 365 दिनों के रिश्ते को एक झटके में तो आप विदा नहीं कह सकते हैं न ! भले ही 2023 का कैलेंडर चुक जाए, ये 365 दिन हमारे साथ रहेंगे.  और यह भी याद रखने जैसी बात है कि इन 365 दिनों ने कम-से-कम 365 ऐसे जख्म तो दिए ही हैं जो अगले 365 दिनों तक कसकते रहेंगे. अपनी कहूं तो यह दर्द और यह असहायता मुझे भीतर तक छलनी कर देती है कि हम हैं और मणिपुर भी है; कि हम हैं और कश्मीर भी है; कि हम हैं और उत्तरप्रदेश भी है; कि हम हैं और सार्वजनिक जीवन की तमाम मर्यादाओं को गिराती व संविधान को कुचलती सत्ता की राजनीति भी है. मेरा दम घुटता है कि हम सब हैं और यूक्रेन भी है; कि हम सब हैं और गजा भी है; अफगानिस्तान भी है व म्यांमार भी है; पास का पाकिस्तान भी है, सुदूर के वे सब नागरिक भी हैं जिनका अपना कोई देश नहीं है. जो कहीं, किसी देश के नागरिक नहीं माने जा रहे हैं लेकिन हैं वे हमारी-आपकी तरह ही नागरिक; हमारी-आपकी तरह इंसान ही. इंसान के माप की दुनिया भी तो नहीं बना पाए हैं हम ! 

   तमाम बड़ी-बड़ी संस्थाएंआयोगट्रस्ट और योजनाएं बनी पड़ी हैं कि इंसान को सहारा दिया जाए लेकिन आज दुनिया में जितने बेसहारा लोग ( सिर्फ रोहंग्या नहीं ! ) सड़कों पर हैं,  उतने पहले कभी नहीं थे. आज अपनी-अपनी सरकारों के खिलाफ जितने ज्यादा लोग संघर्षरत हैंउतने पहले कभी नहीं थे. आज असहमति के कारण जितने लोग अपने ही मुल्क की जेलों में बंद हैंउतने पहले नहीं थे. सरकार बनाने वाली जनता व उनकी बनाई सरकार के बीच की खाई आज जितनी गहरी हुई हैहोती जा रही हैउतनी पहले कभी नहीं थी. यह तस्वीर कहीं एक जगह की नहींसारे संसार की है. लोकतंत्र का लोक’ अपने तंत्र’ से परेशान है; ‘तंत्र’ अपने लोक’ को मुट्ठी में करने की बदहवासी में दानवी होता जा रहा है. हम यह भी देख रहे हैं कि कल तक प्रगतिशील नारों की तरफ आकर्षित होने वाले लोगबड़ी तेजी से प्रतिगामी नारों- आवाजों की तरफ भाग रहे हैंऔर वहां से मोहभंग होने पर फिर वापस लौट रहे हैं. यह सच में वापसी होती तो भी आशा बंधती लेकिन यह निराशा की वापसी है. 

   हत्या से ठीक पहले वाली रात यानी अपनी जिंदगी की आखिरी रात को गांधी ने भविष्यवाणी-सी जो बात संसदीय लोकतंत्र के लिए लिखी थीवह दस्तावेज हमारे बीच धरा हुआ है. कभी लगता है कि दुनिया उस तरफ ही भाग रही है. गांधी ने लिखा था : संसदीय लोकतंत्र के विकास-क्रम में ऐसी स्थिति आने ही वाली है जब लोक व तंत्र के बीच सीधा मुकाबला होगा. क्या हम उस दिशा में जा रहे हैंलेकिन यह मुकाबला निराशा या भटकाव के रास्ते संभव नहीं है. 2023 निराशा व अनास्था का यह टोकरा 2024 के सर धर कर बीत जाएगा और छीजते-छीजते मानव रीत जाएगा.    

   यह सब कहते हुए मैं भूला नहीं हूं कि आपाधापी के इस दौर में भी हर कहीं कोई आंग-सू’ भी है. मेरी आंखों में वे अनगिनत लोग भी हैं जो फलस्तीनियों के राक्षसी संहार का विरोध करने इंग्लैंडअमरीका आदि मुल्कों में सड़कों पर निकले हैं. मैं यह भी देख पा रहा हूं कि फलस्तीनियों व हमास में फर्क करने का विवेक रखा जा रहा है. मैं भूला नहीं हूं कि श्रीलंका के भ्रष्ट व निकम्मे सत्ताधीशों को सिफर बना देने वाला श्रीलंका का वह नागरिक आंदोलन भी इन्हीं 365 दिनों की संतान हैभले वह आज बिखर गया है. इन 365 दिनों में भारत समेत संसार की तथाकथित महाशक्तियां अपने स्वार्थ का तराजू लिए जैसी निर्लज्ज सौदेबाजी में लगी रही हैंउस बीच भी म्यांमार में नागरिक प्रतिरोध बार-बार अपनी ताकत समेट कर सर उठा रहा है. इन 365 दिनों की चारदीवारी के भीतर बहुत कुछ मानवीय भी घट व बन रहा है जिसे समर्थन व सहयोग की जरूरत है. 

   2023 के अंतिम दिनों में, 12-28 नवंबर के दौरान मौत की सुरंग में घुटते 41 लोग जिस तरह 400 घंटों की मेहनत के बादजीवन की डोर पकड़ कर हमारे बीच लौट आएवह भूलने जैसा नहीं है. यह चमत्कारकिसी नेता या सरकार ने नहीं कियाआदमी के भीतर के आदमी ने किया. यह कहना भी बेजा बात है कि मशीनों ने नहींमनुष्य के हाथों ने ही अंतत: उन श्रमिकों को बचाया. सच का सच यह है कि मशीनों ने जहां तक काम कर दिया था यदि उतना न किया होता तो इन श्रमिकों का बचना कठिन थाउतना ही सच यह भी है कि जहां पहुंच कर मशीनें हार गई थीं वहां से आगे का काम हाथों ने न किया होता तो इन श्रमिकों का बचना असंभव था. मशीनों व इंसानों के बीच यही तालमेल व संतुलन चाहिए. जब गांधी कहते हैं कि आदमी को खारिज करने वाली मशीनें मुझे स्वीकार नहीं हैं लेकिन आदमी की मददगार मशीनें हमें चाहिएतो वे वही कह रहे थे जो सिल्कयारा-बारकोट सुरंग में फंसे श्रमिकों को बचाने में साबित हुआ.

   उन सबको सलाम जो यह कठिन काम अंजाम दे सके लेकिन उन सवालों को उसी सुरंग में दफना नहीं  दिया जाना चाहिए जिनके कारण यह त्रासदी हुई. दुर्घटनाओं के पीछे असावधानियां होती हैं. निजी असावधानी की कीमत व्यक्ति भुगत लेता है लेकिन जिस असावधानी का सामाजिक परिणाम होवह न छोड़ी जानी चाहिएन भुलाई जानी चाहिए. उसका खुलासा होना चाहिए तथा असावधानी की जिम्मेवारी तय होनी चाहिए. कोई बताए कि खोखले दावों व जुमलेबाजियों के प्रकल्प के अलावा हमारे सरकारी प्रकल्पों को पूरा होने में इतना विलंब क्यों चल रहा है सुरंगों की ऐसी खुदाई में श्रमिकों को असुरक्षित उतारने वाले ठेकेदार व अधिकारी कौन थे उनको क्या सजा मिल रही है ऐसी खुदाइयों के जो सुनिश्चित मानक बने हुए हैंयहां उनका पालन क्यों नहीं किया गया इसके जिम्मेवार कौन थे व उनकी क्या सजा तय हुई न धरती मुर्दा हैन पहाड़ ! इनके साथ व्यवहार की तमीज न हो तो आपको इनसे दूर रहना चाहिए. पूरा हिमालय हमारी मूढ़ता व संवेदनशीलता का पहाड़ बन गया है. उत्तरकाशी का यह हादसा भी भुला दिया जाएगा क्योंकि विकास के जहरीले सांप ने हमें बेसुध कर रखा है. तो 2024 का एक संकल्प यह भी हो सकता है : सांप से बचो तो हिमालय बचेगा भी और हमें बचाएगा भी.                     

   मैं यह भी देख रहा हूं कि समाज का अर्द्ध-साक्षर लेकिन बेहद सुविधा प्राप्त वह वर्गजो न हींग लगे व फिटकरी लेकिन रंग आए चोखा’ वाली शैली में जीवन जीने के आसानकायर रास्तों की खोज में रहता हैजिसने आजादी की लड़ाई में बमुश्किल कोई भूमिका अदा की लेकिन जो आजादी का भोग सबसे ज्यादा भोगता रहा हैजिसने हमेशा एकाधिकारशाही का मुदित मन स्वागत किया हैजिसने पिछले वर्षों में हिंदुत्व की लहर पर चढ़ करअपनी खास हैसियत का लड्डू खाने का सपना देखा हैअब मोहभंग जैसी स्थिति में पहुंच रहा है. उसे लगने-लगा है कि उसके हाथ मनचाहा लग नहीं रहा है. आजादी के तुरंत बाद ही सत्ता व स्वार्थ की जैसी आपाधापी मची उससे हैरान गांधी ने कहा था: समाज भूखा है यह तो मैं जानता था लेकिन वह भूख ऐसी अजगरी हैइसका मुझे अनुमान नहीं था. सांप्रदायिकता-जातीयता-एकाधिकारशाही हमेशा ही वह दोधारी तलवार है जो इधर-उधरदोनों तरफ बारीक काटती है. जब तक दूसरे कटते हैंहम ताली बजाते हैंजब हम कटते हैं तब ताली बजाने की हालत में भी नहीं बचते हैं. अब कहींकोई ताली नहीं बची है. सर धुनने की आवाजें आ रही हैं. यह सन्निपात की स्थिति है और  सामाजिक सन्निपात हिटलरी मानसिकता को बढ़ावा देता है. 

   नये साल की दहलीज पर खड़ा हमारा देश अपनी निराशा से निकलेसन्निपात की आवाजों को सुने-समझे तो नये साल में कोई नई संभावना पैदा हो सकती है. संभावना सिद्धि नहीं है. उसे सिद्धि तक पहुंचाने के लिए मानवीय पुरुषार्थ का कोई विकल्प नहीं है. हमें याद रखना चाहिए कि चेहरे बदलने से, ‘म्यूजिकल चेयर’ खेलने से विकल्प नहीं बनते हैं. उनके पीछे गहरी समझ व संकल्प की जरूरत होती है. नया साल हमारे नये पुरुषार्थ का साल बने इस कामना के साथ हम पुराने 365 दिनों को विदा दें तथा नये 365 दिनों का स्वागत करें. 

 

मुश्किल से जो लब तक आई है एक कहानी वह भी है

और जो अब तक नहीं  कही  है एक  कहानी वह  भी है.

( 19.12.23)

Wednesday 6 December 2023

5 राज्यों का चुनाव परिणाम - जादूगर का हैट : जादूगर का खरगोश

       कभी जादूगर का खेल देखा है ? हर बार जब वह हमारी आंखों के सामने, हमारी ही असावधानी की आड़ में हमें छल जाता है, तो यह जानते हुए भी कि यह जो सामने हुआ वह हकीकत नहीं, बारीक धोखा है, हम स्तंभित हुए जाते हैं. जादूगर का हर नया जादू हमसे कहता है कि ज्यादा सावधान हो कर बैठो और पकड़ सको तो मेरी चाल पकड़ो ! राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जादूगर के बेटे हैं लेकिन जादू दिखा कोई दूसरा रहा है. 

5 राज्यों में हुआ चुनाव ऐसी जादूगरी का नमूना है. अब जब चुनावी धूल बैठ चुकी हैघायल अपने घावों की साज-संभाल में लगे हैंविजेता अपनी जीती कुर्सियां झाड़-पोंछ रहे हैंहम जादू के पीछे का हाल देखने-समझने की कोशिश करें. 

मोदी-शाह ने जिस नई चुनावी-शैली की नींव 2014 से डाली है उसकी विशेषता यह है कि न उसका आदि हैन अंत ! यह सतत चलती है. चुनाव की तारीख घोषित हुई तब चुनावी-मुद्रा में आनाचुनाव की तारीख तक चुनाव लड़ना और फिर जीत-हार के मुताबिक अपना-अपना काम करना - ऐसी आरामवाली राजनीति का अभ्यस्त रहा है यह देशइसके राजनीतिक दल ! मोदी-शाह मार्का  राजनीति इसके ठीक विपरीत चलती है. वह तारीखें देख कर नहीं चलतीनयी तारीख़ें गढ़ती है. चुनावी सफलता की तराजू पर तौल कर वह अपना हर काम करती है. इनके लिए चुनाव वसंत नहीं है कि जिसका एक मौसम आता हैयह बारहमासी झड़ी है. उनके लिए विदेश-नीति भी चुनाव हैयूक्रेन-फलस्तीन-गजा-इसरायल भी और पाकिस्तान भी चुनाव हैंजी-20 भी चुनाव हैखेल व खिलाड़ी भी चुनाव हैंचंद्रयान भी चुनाव हैसरकारी तंत्र व धन भी चुनाव के लिए है. उनके लिए जनता भी एक नहीं हैकई है जिनका अलग-अलग चुनावी इस्तेमाल है. 

मार्च 2018 में प्रधानमंत्री ने जनता का एक नया वर्ग पैदा किया था : विकास के लिए प्रतिबद्ध जिले ! 112 जिलों की सूची बनी. ये जिले ऐसे थे जिनके विकास की तरफ कभी विशेष ध्यान नहीं दिया गया था. जो बड़े राजनीतिक पहलवान हैं वे अपने व अपने आसपास के चुनाव क्षेत्रों के लिए सारे संसाधन बटोरने में मग्न रहते हैं. नये चुनाव क्षेत्रों का सर्जन किसी के ध्यान में भी नहीं आता है. मोदीजी ने अपनी रणनीति में इसे शामिल किया और 112 जिलों की सूची बना दी.  किसी ने नहीं समझा कि यह चुनाव की नई कांस्टीट्यूएंसी तैयार करने की योजना है. इन जिलों में से 26 जिले ऐसे थे जो मध्यप्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थान तथा तेलंगाना के 81 चुनाव-क्षेत्रों में फैले थे. ये सभी अधिकांशत: आदिवासी व अन्य पिछड़े समुदायों के इलाके थे. पहली बार इन इलाक़ों को लगा कि कोई है जो इनका अस्तित्व मानता ही नहीं है बल्कि उन्हें आगे भी लाना चाहता है. यहां विकास की क्या कोशिशें हुईं उनकी समीक्षा का यह मौका नहीं है. मौका है यह समझने का कि इन 81 चुनाव क्षेत्रों में भाजपा ने इस बार कांग्रेस को कड़ी मार लगाई. 2018 में जहां इन क्षेत्रों में भाजपा ने बमुश्किल 23 सीटें जीतीं थीं2023 में उसने यहां 52 सीटें जीती हैं - पिछले के मुकाबले दोगुने से ज्यादा. यह अपने लिए नये चुनावी आधार गढ़ने की योजना का एक हिस्सा था. स्मार्ट सिटी योजनाअलग-अलग समूहों को नकद सहायता की लगातार घोषणा आदि सब चुनाव के नये कारक हैं जिनके जनक मोदीजी हैं.  

इस बार 5 राज्यों के चुनाव को 2024 के बड़े चुनाव का पूर्वाभ्यास करार दिया गया था. कांग्रेस ने हिसाब यह लगाया कि कहां-कहां लंबी सत्ता का जहर’ भाजपा को मार सकता हैकहां-कहां हमारी सरकार का अच्छा काम’ हमें फायदा दे सकता है. कांग्रेस की नजर इस पर भी थी कि चुनाव का परिणाम ऐसा ही होना चाहिए कि इंडिया’ में डंडा हमारे हाथ में रहे. यह गणित बुरा भी थाअपर्याप्त भी. जब एक जादूगर अपने हैट से नये-नये खरगोश निकाल कर दिखा रहा हो तब मजमा उस नट को कैसे देखता रह सकता है जिसे तनी हुई रस्सी पर संतुलन साधने का एक ही खेल आता है और वह भी ऐसा कि संतुलन बार-बार डगमगाता भी रहता है !

कांग्रेस राष्ट्रीय दल है तो सही लेकिन उसके पास राष्ट्रीय सत्ता नहीं हैजो सत्ता है उसे भी वह संभाल नहीं पा रही है. उसके पास राष्ट्रीय पहचान व कद का एक ही नेता है जिसका नाम है राहुल गांधी ! राहुल गांधी की जानी-अनजानी बहुत सारी विशेषताएं होंगी लेकिन देश जो देख पा रहा है वह यह है कि वे अब तक राजनीतिक भाषा का ककहरा भी नहीं सीख पाए हैंउनके पास वह राजनीतिक नजर भी नहीं है जो चुनावी विमर्श के मुद्दे खोज लाती है. कांग्रेस में दूसरा कोई पंचायत स्तर का नेता भी नहीं है. कांग्रेस के पास उसका कोई शाहकोई योगीकोई शिवराजकोई हेमंता नहीं हैवह किसी को बनने भी नहीं देती है. 

दूसरी तरफ भाजपा है. उसके पास भी एक ही राहुल’ है : नरेंद्र मोदी ! उनके पास हर मौसम की भाषा हैगिद्ध-सी वह राजनीतिक नजर है जो हर मुद्दे को अपने हित में इस्तेमाल करने की चातुरी रखती है. उनका कद इतना बड़ा बनाया’ गया है कि उसे कोई छू नहीं सकता है. फिर नीचे कई नेता है जिनका अपना आभा मंडल है. इन सबके साथ है एक परिपूर्ण प्रचार-तंत्रएक परिपूर्ण धन-तंत्र तथा एक परिपूर्ण मीडिया-तंत्र है. कांग्रेस का सबसे बड़ा नेता कांग्रेसियों की नजर में भी पर्याप्त नहीं हैभाजपा का नेता भाजपाइयों की नजर में राजनीतिक नेता ही नहींअवतार भी है. दोनों का मुकाबला बहुत बेमेल हो जाता है.

इंडिया’ के घटक जानते हैं कि कांग्रेस के कारण ही वे इंडिया’ हैं लेकिन वे जो जानते हैंवह मानते नहीं हैं. इसलिए कोई बंगाल को तो कोई उत्तरप्रदेश को तो कोई तमिलनाड को तो कोई बिहार’ को इंडिया’ मान कर चलता है. इस तरह सब बिखरी मानसिकता से एक होने की कोशिश करते हैं. यह असंभव की हद तक कठिन काम है. 2014 से ले कर अबतक भाजपा की रणनीति यह रही है कि वह अपना राजनीतिक आधार बनाने व बढ़ाने के लिए वक्ती नफा-नुकसान का हिसाब नहीं करती है. कांग्रेस छोड़ने वाले मौसमी राजनीतिज्ञों को उसने अपने लोगों के ऊपर तरजीह दी और उनके बल पर अपनी सामाजिक स्वीकृति स्थापित की. उसका गठबंधन सबसे बड़ा बना लेकिन उसने यह भी सावधानी रखी कि कोई इतना बड़ा न हो जाए कि उसके सर पर हाथ रखने लगे. इंडिया’ गठबंधन में ऐसी सावधान उदारता के दर्शन भी नहीं होते हैं. 

राजनीति संभव संभावनाओं का खेल है. 2023 फिर से बताता है कि संभव संभावनाओं में असंभव संभावना छिपी होती है. भाजपा वैसी संभावनाओं को पकड़ने की हर संभव कोशिश करअसंभव को साधती आ रही है. दूसरे संभव को असंभव बनाने के खेल से बाहर ही नहीं आ पाते. क्या 2024 इसी कहानी को दोहराएगादेखना है कि कौन नये खरगोश बना व दिखा पाता है.  

( 06.12.2023)   

Thursday 23 November 2023

हम एक साथ बहुत कुछ हारे

 सभी दुखी हैं कि हम क्रिकेट का विश्वकप हार गए; मैं दुखी हूं कि हम क्रिकेट ही हार गए. मैच हारना और खेल हारना दो एकदम अलग-अलग बातें हैं. हार वक्ती होती है, पराजय का मतलब मन हारना होता है. हम मन से हारे हैं. 

अगर ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि एक लाख से ज्यादा दर्शकों से भरा स्टेडियम इस कदर गूंगा बन जाता. जिन्होंने अपने नाम से इस स्टेडियम का नामकरण करवाया है वे लगातार बेमतलब दहाड़ने के लिए विख्यात हैं. लेकिन इस विश्वकप में हमने उन्हें एकदम गूंगा पाया. वैसे फाइनल का खेल तो अच्छा ही हो रहा था. उतार-चढ़ाव से गुजर रहा था. खेल तो ऐसा ही होता है. लेकिन फेंफड़े के जोर से विश्वगुरू बनने वालों की भीड़ को यह बताया नहीं गया था कि उसे जो तैयार पटकथा दी गई हैउससे अलग कुछ घटने लगे तो उसे क्या करना है. उसे जो नारे सिखाए गए थेजो जयकारा रटाया गया थावह सब यह मान कर कि हमारी जीत तो पक्की है. खेल से साथ खेल करने वालों का ऐसा ही हाल होता है. 

कोई बताएगा तो नहीं अन्यथा यह पूछा जाना चाहिए और इसका जवाब किसी को देना ही चाहिए कि मैदान के अलावा भारतीय टीम के कपड़ों का रंग किसने बदला व क्योंऔर यह भी कि ऐसा करने वालों में कौन-कौन शरीक थे खिलाड़ियों को भगवा पहनाने की यह सोच उसी मानसिकता में से पैदा हुई है जो खेल की जीत को प्रधानमंत्री की और हार को खिलाड़ियों की जाति-धर्म का परिणाम बताती है. 

खिलाड़ी यदि भाड़े के टट्टू नहीं हैं तो उन्हें भी यह बताना चाहिएकोच राहुल द्रविड़ को बताना चाहिए कि क्या उन्होंने क्रिकेट के इस भगवाकरण को खुशी-खुशी स्वीकार किया था ?  यदि असहमति उठी तो वह कहां दर्ज की गई भारतीय क्रिकेट बोर्ड की किस बैठक में तय किया गया था कि विश्वकप का पहला व अंतिम मैच अहमदाबाद में होगा विश्वकप की नियंत्रक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संस्थान से इस बारे में कोई विमर्श हुआ अहमदाबाद को क्रिकेट का मक्का बनने का यह सरकारी प्रयास अत्यंत गर्हित हैक्योंकि इसके पीछे क्रिकेटप्रेमी नहींसत्ता है. दुनिया का सबसे बड़ा स्टेडियम बनाने से क्रिकेट-संस्कृति पैदा नहीं होती है. मायावती सरकारी पैसे से अपनी मूर्तियां लगवाएंहाथी गढ़वाएं या मोदी अपने नाम का स्टेडियम बनवाएंसरकारी पैसों से जगह-जगह शेर का दहाड़ता हुआ चेहरा लगवाएंजनता के पैसों से जी-20 का अशोभनीय आत्म-प्रचार करवाएं तो यह सब शर्मनाक अहंकार के प्रदर्शन से अधिक कुछ नहीं है. यह लोकतंत्र से बलात्कार है.        

भारत में किया गया यह पूरा आयोजन विश्वकप के दूसरे आयोजनों से बहुत अलग था क्योंकि इसमें खेल को राजनीति का हथियार बनाने की कोशिश की गई थी. यह क्रिकेट का विश्वकप कमसत्ता का चुनाव-कप बन गया था और इसलिए पराजय से इसे उसी तरह सांप सूंघ गया जैसा चुनावी हार में होता है. सारे मैच कबकहां और कैसे आयोजित किए जाएंगेकिन्हें माननीय अतिथि की तरह बुलाया जाएगा व किन्हें पूछा भी नहीं जाएगाकैमरे को कबक्या दिखाना है और क्या बिल्कुल नहीं दिखाना हैयह भी सत्ताधीश ही तै कर रहे थे. वीसा देने में ऐसी राजनीतिक मनमानी चली कि खेलने वाले देशों के दर्शकविशेषज्ञपत्रकार आदि यहां आ ही नहीं सके. एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन पार्टी का आयोजन बना दिया गया. सब तरफ हम-ही-हम थे : जुटाई हुई भीड़ ! इसलिए खेलबाजी कमभीड़बाजी ज्यादा थी. मुहम्मद सामी और  मुहम्मद सिराज के खेल ने सबकी बोलती बंद कर दी थी अन्यथा उन्हें निशाने पर रखने की कोशिशें कम नहीं हुई थीं. भीड़ ऐसी ही होती है. वह देखने नहींदिखाने आती है. ऐसी भीड़ न खेल समझती हैन खिलाड़ी !

प्रधानमंत्री जिस तरह अहमदाबाद का फाइनल देखने अवतरित हुएवह हमारी हार की सारी कलई खोल गया. यदि भारत की मजबूत स्थिति होती तो वे एकदम शुरू में ही स्टेडियम में आ बैठते. कैमरा भी जानता कि उसे कबकैसे व कितनी देर तक वहीं टिके रहना है जहां वे बैठे हैं. लेकिन यहां तो कैमरे ने जैसे आंखें ही बंद कर लीं. बहुत पहले अहमदाबाद पहुंच चुके प्रधानमंत्री को बता दिया गया था कि हमारी सारी योजना के बाद भी खेल में हमारी हालत बिगड़ी हुई हैसो प्रधानमंत्री तुरंत नहींघंटों बाद स्टेडियम पहुंचे. कब पहुंचेकैमरे ने बताया भी नहीं. स्टेडियम में पहुंचाई गई भक्त-मंडली भी एकदम खामोश हो गई. आस्ट्रेलियाई कप्तान ने मैच से पहले ही कह दिया था कि भारतीय टीम के लिए चीखती भीड़ को खामोश कर देने जैसा आनंद हमारे लिए दूसरा नहीं होगा ! सोवह सन्नाटा ही हमारी पराजित मानसिकता का गवाह बन कर स्टेडियम में गूंजता रहा. फिर लोगों के खिसकना भी शुरू कर दिया. किसी को यह आंकड़ा भी बताना चाहिए कि जब भारत हारा तब स्टेडियम में कितने लोग मौजूद थे जो तब थे वे ही क्रिकेट के लिए थेबाकी जुटाए गए सब तो खिसक चुके थे. 

विजेता टीम को विश्वकप सौंपने प्रधानमंत्री जब आस्ट्रेलियाई उप-प्रधानमंत्री के साथ मंच पर पहुंचे तब तो इतनी हास्यास्पद स्थिति बनी कि खुदा खैर करे ! प्रधानमंत्री खेल-भावना का निर्वाह करने की शालीनता भी नहीं निभा सकेउनके ध्यान में यह भी नहीं रहा कि उनके साथ आस्ट्रेलिया के उप-प्रधानमंत्री भी हैं जो विजेता-भाव से भरे हैं. अपना फूला मुंह लिए उन्होंने किसी तरह आस्ट्रेलियाई कप्तान पैट कमिंस को कप थमाया और उल्टे पांव मंच से उतर चले. उन्होंने न जीत की बधाई में आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों से एक शब्द ही कहान उल्लास से उन्हें सराहान अपने समवर्ती उप-प्रधानमंत्री की गरिमा का ख्याल रखा. जब मन पराजित होता है तब वह इतना ही बेजायका हो जाता है. उनकी दूर जाती पीठ को देख कर कमिंस ने चेहरे पर वही भाव नाच उठा जो पस्त-पराजित को देख कर विजेता के चेहरे पर आता है. कहते हैं कि वहां से प्रधानमंत्री भारतीय ड्रेसिंगरूम गए व खिलाड़ियों से कहा कि वे जीत-हार भूल करअपने उम्दा खेल को याद करेंहम आपके साथ हैं. लेकिन यह सब खोखलीराजनीतिक चाल भर रह गयी क्योंकि इससे ठीक पहले आपने जो कियावही आपकी चुगली खा रहा था. वैसे एक जवाब क्रिकेट बोर्ड को देना चाहिए कि प्रधानमंत्री भारतीय ड्रेसिंगरूम में कैसे प्रवेश पा गए नियम कहता है कि वहां खिलाड़ियों के अलावा किसी का भी प्रवेश नहीं होना चाहिए. नियम में प्रधानमंत्री अपवाद हैंऐसा नहीं लिखा है. कितना स्वाभाविक होता कि हमारी टीम स्वंय मैदान में आ कर प्रधानमंत्री से मिलती ! यह प्रधानमंत्री के लिए शानदार होता और  खिलाड़ियों के लिए पराजित मानसिकता से बाहर आने का मौका बन जाता. 

यह सब तो पराजित मन की बात हुई लेकिन हम खेल में भी हारे. टीम राहुल द्रविड़ ने पूरे अभियान में एक अजीब रवैया अपनाया जैसे जीत मुट्ठी में बंद कोई जुगनू है कि जो मुट्ठी खोलते ही उड़ जाएगा. यही राहुल द्रविड़ थे जिन्होंने कोच बनने के बाद से भारतीय टीम का सही स्वरूप सुनिश्चित करने के लिए कितने ही खिलाड़ियों को आजमायाउनका बैटिंग-क्रम बदलाकितनी रणनीतियां बनाई-बदलींखिलाड़ियों की निश्चित भूमिकाएं तय कीं और उन पर जोर डाला कि वे वैसी ही भूमिका में खेलें. ऐसा सब बार-बार करने के बाद वे 15 खिलाड़ी छांटे गए जिनसे हर मैच की जरूरत के हिसाब से भारतीय टीम बनानी थी. लेकिन आस्ट्रेलिया के साथ हमारा पहला मैच जैसे ही संकट में पड़ाऔर हम किसी तरह जीत सकेटीम राहुल को जैसे लकवा मार गया. उसने मैचों के हिसाब से कोई प्रयोग किया ही नहीं. जो टीम बन गई वही अंत तक बनी रही. वो तो हार्दिक पंड्या घायल हो गए तो मुहम्मद समी को टीम में जगह मिली. टीम जिस तरह लगातार जीतती गईउसने सुरक्षित रहने का मानस बना दिया. आपने टीम में कोई परिवर्तन नहीं’ का सूत्र भले बना लियास्थानमैचविपक्षखेल की मांग तो परिवर्तित होती रही. आपने कुछ भी बदलाव नहीं किया. अगर नाव को नदी के वेग से ही बहना था तो नाविक की जरूरत क्या थी 

अश्विन को पहले मैच में आस्ट्रेलिया के खिलाफ मौका मिला और हमेशा की तरह उन्होंने बेहतरीन गेंदबाजी की. अश्विन अपनी शैली के विश्व के नायाब स्पिनर हैं. उनकी हर गेंद विकेट लेने ही लपकती है. इसलिए आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों ने उनके सामने हर अनुशासन का पालन किया. अश्विन के हाथ उस मैच में 1 विकेट लगा. इसके साथ ही अश्विन का खेल पूरा मान लिया गया जबकि हम देख रहे थे कि कुलदीप व जाडेजा दोनों उतना प्रभाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं और विपक्ष धीरे-धीरे उन्हें पढ़ता भी जा रहा है. इससे बचने के लिए भी जरूरी था कि अश्विन-कुलदीप-जडेजा की तिकड़ी को खूब फेंटा जाता. फाइनल में आस्ट्रेलिया आया तो जरूरी था कि अश्विन को सिराज या जडेजा की जगह लाया जाता. अश्विन का बल्ला भी मजबूत हैतो यह प्रयोग किया ही जाना था. लेकिन टीम राहुल को अजीब-सी जड़ता ने जकड़ लिया. ऐसा ही सूर्यकुमार यादव के साथ हुआ. एक तरफ वे लगातार विफल हो रहे थेतो दूसरी तरफ  उन्हें खेलने का मौका भी कम मिल रहा था. फाइनल मेंजब हम कमजोर हालत में पहुंच चुके थे और जरूरत थी कि आस्ट्रेलिया का तिलस्म छिन्न-भिन्न किया जाएसूर्यकुमार को बल्लेबाजी में ऊपर ला कर देखना ही चाहिए था. वे चल जाते तो आस्ट्रेलिया की पकड़ टूट जातीनहीं चलते तो भी कुछ जाता नहीं हमारा. उन्हें जाडेजा के बाद बैटिंग के लिए भेजना कैसी रणनीति थी जाडेजा पहले आ कर कई बेशकीमती गेंदें खा कर लौट गए तथा सूर्यकुमार भी कुछ कर तो नहीं सके.   

ओपनिंग में आक्रामकता की रोहित-रणनीति बहुत मोहक थी लेकिन हर गेंद पर छक्का ! फाइनल में टॉस हारने के बाद भारत की रणनीति तो यही होनी चाहिए थी कि सावधानी से खेलते हुए ज्यादा-से-ज्यादा रन जमा करें हम ताकि उसके बोझ तले आस्ट्रेलियाई उसी तरह टूट जाएं जैसे न्यूजीलैंड टूटा था ! हमें पता था कि विश्वकप में भारतीय पारी की रीढ़ रोहित के बल्ले से बनी है. रोहित अपनी लय में खेल भी रहे थेफिर उस अंधाधुंधी का मतलब क्या था जबकि उस ओवर में 10 से अधिक रन बन ही चुके थे. हम यह भी देख रहे थे कि आस्ट्रेलियाई भूखे चीते की तरह फील्डिंग कर रहे थेतो विशेष सावधानी की जरूरत थी. रोहित के खेल में वह सावधानी नहीं दीखी. गिल जैसे शॉट पर आउट हुए वह टेस्ट स्तर का कोई बल्लेबाज फाइनल में मारेगा क्या खेल तो खेल है लेकिन उसके पीछे एक योजना होती है जो खेल का चेहरा बदल देती है. फाइनल में वह योजना सिरे से गायब थी. 

तो हम चौतरफा हारे ! हमें अब चौतरफा वापसी करनी होगी. पहले क्रिकेट लौटेगाफिर सफलता भी लौटेगी. ( 23.11.2023)

Saturday 18 November 2023

नीतीश कुमार का अपराध : नीतीश कुमार की माफी

 यह अपने-आप में अनोखा था. कभी देखा नहीं था कि कोई मुख्यमंत्री सदन में और सदन के बाहर भी अपनी कही किसी बात के लिए बार-बार इस तरह माफी मांग रहा हो कि उसे अपनी कही बात की सच में ग्लानि हो. जुमलेबाजी पर टिकी आज की राजनीतिक संस्कृति में, जुमलेवाली माफी और सच्ची माफी में जो फर्क होता है, वह पहचानने का विवेक अभी जिंदा है. इसलिए कह सकता हूं कि नीतीश कुमार को माफी मिल ही जानी चाहिए. जुमले उछालना, झूठ बोलना, गलत बोलना और अनगढ़ ढंग से बोलना, दो सर्वथा भिन्न बातें हैं. 

बोलने का सच यह है कि जब कभी हम बोलते हैं तो अपनी तरह से ही बोलते हैं लेकिन बोलते हमेशा दूसरे के लिए हैं. यदि सुनने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दूसरा कोई न होतो हम बोलें ही नहीं. बोलना बड़ी जिम्मेवारी है. बार-बार दोहराई लेकिन फिर भी ताजा-के-ताजा वह बात सौ टंच खरी है कि वाण से छूटा तीर व जुबान से निकली बात वापस नहीं आती है. इसलिए तो वाक्-संयम को गीता ने स्थितप्रज्ञ्य के लक्षणों में एक माना है.  राजनीति में स्थितप्रज्ञ्यता की न जगह मानी जाती हैन गुंजाइश !

नीतीश कुमार को उस रोज अपनी तरह से वह बात कहनी थी जो उन्होंने पहले कभी कही ही नहीं थीउन्हें अपनी सरकार की सफलता के झंडे भी लहराने थे जैसे हर राजनीतिज्ञ लहराता हैउन्हें विपक्ष पर गहरा कटाक्ष कर उसे व्यर्थ के बकवासी भी साबित करना था. इस नट-लीला में वे फंस गए. तनी हुई रस्सी पर संतुलन साधता नट संतुलन खो कर गिरता भी तो है न ! गिरना खेल के गलत होने का प्रमाण नहीं हैखिलाड़ी के चूकने का प्रमाण है. 

बोलना तीन तरह का होता है : गलत बोलना,  असभ्यता से बोलना तथा सर्वथा झूठ बोलना ! लोकतंत्र के संदर्भ में एक तीसरा प्रकार भी है : असंवैधानिक बोलना ! नीतीश कुमार ने उस रोज जो कहा व जिस तरह कहा वह दूसरी श्रेणी में रखा जा सकता है. भाषा की यह दिक्कत जगजाहिर है. वह यदि लोक-व्यवहार से गढ़ते-गढ़ते तराश न दी गई हो तो भोंढी लगती है और अपना अर्थ संप्रेषित करने में विफल होती है. कितनी तो आलोचना गांधीजी की हुईहोती रहती है कि उन्होंने संसदीय लोकतंत्र को बांझ व वेश्या’ कह कर स्त्री-जाति को हीन बताया. गांधीजी की तरफ से ऐसे अभद्र’ शब्द आएंकई लोगों को तो यही नहीं पचा. किसी को इसमें गांधीजी की पुरुष मानसिकता के दर्शन हुए. गांधीजी ने कहा : मैं जो कहना चाहता हूं उसके लिए इससे अधिक मौजूं शब्द मिला नहीं मुझे ! मिल जाएगा तो बदल दूंगा ! यहां मेरी तरफ से नीतीश कुमार व गांधीजी की तुलना या साम्यता का मतलब न निकालें पाठक बल्कि भाषा की मर्यादा का एक उदाहरण मात्र समझें. 

नीतीश कुमार को साबित यह करना था कि उनकी सरकार के प्रयासों से जनसंख्या नियंत्रण का प्रयास सफल हुआ है. वे आंकड़ों से उसका प्रमाण भी देते रहे. विपक्ष उनका दावा मानने को तैयार नहीं था. इसलिए उन्हें विपक्ष को धूल-धूल कर देना थाउसे उसकी सही जगह दिखला देनी थी तो उनकी आक्रामकता बढ़ने लगी. वे बताने लगे कि जनसंख्या नियंत्रण में दिक्कत क्या-क्या आती है. पति या पुरुष कामुक हुआ जाता है और स्त्री उसके सामने बेबस हो जाती है. यह सब बताने में समर्थ भाषा हमने विकसित ही नहीं की हैक्योंकि यह सब गुप्त ज्ञान’ के भीतर आता है. हमारे समाज में यौन-शिक्षा का जैसा हाल है वह नीतीश कुमार की देन नहीं है बल्कि हम सबकी तरह नीतीश कुमार भी उसके शिकार हैं. हमारे यहां यौनिक संदर्भ की भाषा विकसित ही नहीं हुई है क्योंकि उसे हमने हमेशा अत्यंत निजीकिसी हद तक गुप्त विषय ( गुप्त रोग ! ) माना है. इसमें अंग्रेजी का हमारा अत्यंत सीमित  (व विकृत !) ज्ञान हमारा सहारा बनता है. अंग्रेजी का हमारा अज्ञान हमें वैसा कुछ कह कर निकल जाने की सुविधा देता है जिसे हम ठीक से समझते भी नहीं है. चुम्मा’ कहो तो अशिष्ट लगता है, ‘चुंबन’ कहो तो कालिदासीय क्लिष्टता लगती हैतो हम किस’ कहकर निकल जाते हैं जिसमें न मिठास मिलती हैन अपना कोई संदर्भ मिलता है लेकिन अंग्रेजी में है तो भद्र ही होगाऐसा जमाना मानता हैतो हम भी मानते हैं.  

नीतीश कुमार को कहना यह था कि लड़की पढ़ी-लिखीजानकार होगीजैसाकि हमारी सरकार उसे बनाने में लगी हैतो वह अपने पति की कामुकता को नियंत्रित कर सकेगीउसे गर्भ न रहने के प्रति सचेत कर सकेगी. इसे आप भदेशपन से कहेंगे तो नीतीश कुमार का हाल होगा आपकाअंग्रेजी में विद्ड्रॉल’ कहेंगे तो भद्रता मान कर आपको बरी कर दिया जाएगा. जब नीतीश कुमार आक्रामक हास्य की मुद्रा में यह सब कह रहे थे तो वे समझ रहे थे कि वे कुछ अटपटा कह रहे हैं लेकिन यही तो राजनीति हैऔर राजनीति ऐसी सावधानी कब रखती है ! वह तो हमेशा कह देने की बाद की प्रतिक्रिया सेअपने कहे की सार्थकता या निरर्थकता आंकती है और अपना अगला कदम चुनती है.  यही नीतीश कुमार ने भी किया. 

उनकी खुली सार्वजनिक माफी ही यह बताती है कि जो कुछ कहा उन्होंने वह इरादतन महिलाओं का अपमान करनेयौनिकता को राजनीतिक हथियार बनाने या अपनी यौन कुंठा को तुष्ट करने का जायका लेने जैसा नहीं था. वे इस नाहक के विवाद और अपनी रौ में बह जाने के परिणाम से त्रस्त व्यक्ति की ईमानदार माफी थी. स्त्री-वर्ग के रूप में बिहार की महिलाओं को नीतीश कुमार ने सशक्त ही किया हैउनमें उत्साह भरा हैउनकी उमंगों को अपनी व्यवस्था का आधार भी दिया है. मुझे अंदाजा नहीं है कि उनके मंत्रिपरिषद में यौन अपराधियों को कितनी जगह मिली हुई है याकि ऐसे अपराधियों के प्रति उनका रवैया कैसा है.  यदि यह आंकना हो तो प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्रिमंडल का चेहरा अच्छा नजर नहीं आएगा. लेकिन इस आधार पर नीतीश कुमार से इस्तीफे की मांग याकि दूसरे किसी को सरकार की बागडोर सौंप देने की मांग अतिवादी मांग है. मांगने करने वालों को यह समझना चाहिए कि  यह अपराध से कहीं बड़ी सजा देने की अविवेकी भूल होगी. व्यापक सार्वजनिक भर्त्सना के रूप में उन्हें अनगढ़ अभिव्यक्ति की वह सजा मिल चुकी है जो किसी राजनेता के लिए सबसे बड़ी सजा होती है. अब आगे की नितीश कुमार जानें. लेकिन कुछ तो हम भी जानें. हम सब बड़ी सावधान सावधानी बरतें कि किसी भी हाल मेंकैसी भी परिस्थिति में हमारी सार्वजनिक अभिव्यक्ति यौनिक गालियों या प्रतीकों का सहारा न ले. ऐसी हर अभिव्यक्ति औरत का अपमान करती हैऐसी हर अभिव्यक्ति यह भूल जाती है कि यौनिकता स्त्री-पुरुष दोनों की साझा विरासत है. हम जब ऐसे अपशब्दों में बात करते हैं तो खुद को भीअपनी महिला को भी और सारी महिला साथियों को भी क्षुद्रतर साबित करते हैं. नीतीश-प्रसंग यदि हमें इतना सचेत कर दे तो हमें उन्हें माफ तो कर ही देना चाहिए.  ( 17.11.2023) 

Wednesday 15 November 2023

कबीर दास की उल्टी वाणी

 चुनावी बुखार ऐसा ही होता है ! आप हमेशा ही सन्निपात में होते हैं. फिर आपको अहसास ही नहीं होता है कि आप जो कह रहे हैं वह कहने लायक है या नहीं; और यह भी कि आप जिनका गर्व से, अपनी उपलब्धि बना कर बखान कर रहे हैं, वह गर्व करने जैसी उपलब्धि है भी या नहीं ! चुनावी बुखार ऐसा ही होता है जिसका मरीज, बकौल विनोबा भावे, तीन ही बात बकता है : आत्मस्तुति, परनिंदा, मिथ्या-भाषण ! इन दिनों इनकी पराकाष्ठा हुई जा रही है. और आजकल के चलन के मुताबिक प्रधानमंत्री ही इन सबके सिरमौर हैं. 

अयोध्या मेंसरयू नदी के तट पर एक ही दिनएक ही वक्त में 22 लाख दीपों को प्रज्ज्वलित किया गया ! क्यों यह थी हिंदुओं की ताकत की घोषणा व वोटों को कमल का रास्ता दिखाने की प्रधानमंत्री की योजना ! इसके तुरंत बाद हमने देखा कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री व राज्यपाल गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड के किसी अधिकारी से यह प्रमाण-पत्र ले रहे हैं कि यह एक साथ सबसे अधिक दीप जलाने का विश्व कीर्तिमान हुआ ! यह सब सन्निपात का जीता-जागता उदाहरण है. 

22 लाख दीपों से पता क्या-क्या चला पहली बात तो यही पता चली कि ये 22 लाख दीप सरकारी थे. इनमें सरकारी तेल इनमें भरा गया था और जिनकी भी ड्यूटी लगाई गई होगीउन सबने इसे जलाया था. इन दीपों के पीछे अयोध्या के लोग नहीं थे. अगर लोगों की स्वस्फूर्त भागीदारी से ये दीप जुड़े व जले होते तो मुख्यमंत्री-राज्यपाल इसका प्रमाण-पत्र लेने क्यों अवतरित होते तो मिथ्याचार का पहला बैलून तो यही फूटा ! गिनीज वाले ऐसे व्यापारी हैं जो लोगों की सनक व बहक का व्यापार करते हैं. सरकार का मुखिया जब उनसे प्रमाणपत्र लेने की कतार में खड़ा हो जाता है तब समझ में आता है कि सरकार कैसी हैउसकी प्राथमिकताएं कैसी हैं. मुख्यमंत्री की समझ का यह दूसरा बैलून फूटा ! गिनीज वालों को बुलडोजर से सबसे ज्यादा घर गिराने वाली सरकारों की प्रतियोगिता करवानी चाहिए. इस श्रेणी में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री जरूर आला साबित होंगे. जब तक आपका घर बुलडोजर के सामने न हो तब तक इस अपराध की नृसंशता आपकी समझ में नहीं आएगी.  

जो अंधभक्ति का रोगी न हो व जिसकी दिमागी हालत ठीक हो वह तुरंत पूछेगा कि 22 लाख दीपों में कितना तेल जला होगा उनसे कितना प्रदूषण फैला होगा 22 लाख दीपों का कितना कचरा सड़कों पर जमा हुआ होगा उन्हें अयोध्या में कहां दफनाया जाएगा आज सारी दुनिया जिन संकटों से घिरती जा रही हैये 22 लाख दीप उन्हें और भी गहरा करेंगे. ये रोशनी वाली दीपों की दीपावली नहींमूढ़ता का अंधेरा फैलाने वाली सरकारी योजना थी. पराली जलाने वाले किसानों पर दिल्ली के प्रदूषण का ठीकरा फोड़ने वालों को यह समझना चाहिए कि 22 लाख दीपों ने उससे कई गुना ज्यादा जहर पर्यावरण में फैलाया है.  

हमें इन 22 लाख दीपों के बगल में मुंबई का यह चेहरा रख कर समझना चाहिए कि वहां कैसी आपात स्थिति में विशेष मार्शलों की नियुक्ति करनी पड़ रही है ये मार्शल मुंबई की सड़कों पर उतर कर रात-दिन इसकी निगरानी करेंगे कि कौन-कहां सड़कों पर गंदा बिखेर रहा हैकौन-कहां कूड़ा जला रहा हैऔर कौन-कहां सड़कों पर गंदगी फेंक रहा है. इन मार्शलों को यह अधिकार दिया गया है कि वे कानूनी निर्देशों का उल्लंघन करने वालों को वहीं-के-वहीं दंडित कर सकेंगे. मुंबई कूड़े के एक बड़े ढेर में बदलती जा रही है जिसे हिंदुत्ववादी मनमानी ने और भी बदसूरत बना दिया है. देश की राजनीतिक राजधानी भी और औद्योगिक राजधानी भी डेथ बाई ब्रेथ’ - सांस में छिपी मौत - जैसे संकट से गुजर रही है. एक स्थान परएक साथ जले 22 लाख दीपों ने मौत का सघन आयोजन ही किया हैभक्ति का विवेक नहीं जगाया है. 

हमें यह समझना ही चाहिए कि दीप जलानापटाखे फोड़नाआरती करनाढोल बजानाअजान देनासार्वजनिक तौर पर नमाज पढ़नानए साल का जश्न मनानाविभिन्न झांकियां निकालना आदि सारे आयोजन जब तक सीमित संख्या मेंनिजी विश्वासों की अभिव्यक्ति के तौर पर मनाए जाते थेसमाज में घुल जाते थे. जैसे-जैसे इनकी संख्या विशालतर होती गईइन्हें राजनीतिक हथियार की तरह आयोजित करवाया जाने लगानिजी आस्था की जगह यह भीड़ के उन्माद में बदलने लगी वैसे-वैसे यह असामाजिक होती गई. जैसे प्रकृति को आप अवकाश देते हैं - याद कीजिएकरोना के दौरान की बंदी - तो वह प्रदूषण का इलाज अपने आप कर लेती है. जब आप उसे सांस खींचने का मौका भी नहीं देते हैंतो उसका भीऔर समाज का दम भी घुट जाता है. इसलिए इन सारे सवालों को धार्मिक संकीर्णता के चश्मे से नहींहमारी आधुनिक जीवन-शैली व धार्मिक संकीर्णता से पैदा संकट के रूप में देखना चाहिए और उसका हल खोजना चाहिए. दीप में उन्माद का तेल जलाने सेविवेक का दीपक नहीं जलता है. 

संकट यह है कि इसमें कोई किसी से बेहतर बनना नहीं चाहता है. सभी दूसरे से बढ़ कर पतनशील होने में लगे हैं. राममंदिर की पूरी ठेकेदारी भाजपा ने खुद के लिए घोषित कर रखी है तो कांग्रेस को बड़ी मुश्किल हो रही है. अगर राम पूरे-के-पूरे भाजपा के खेमे में चले गए तो वोट का क्या होगाइसकी चिंता उसे खाए जा रही है. मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का कांग्रेसी चेहरा चीखता है: याद करो कि रामलला का ताला किसने खुलवाया था ! बताओ वहां पूजा-अर्चना की अनुमति किसने दिलवाई थी वह चीख-चीख कर बता रहा है उसने भी दूसरे कई मंदिर बनवाए हैं - भव्य व विराट मंदिरों के निर्माण का काम आज भी चल रहा है. तोहोड़ यह है कि हिंदू केवल आप नहींहम भी हैं. विदेशी हिंदुओं को नैतिक शक्ति देने इन दिनों अमरीका गए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रधान मोहन भागवत यह घोषणा काफी पहले कर चुके हैं कि भारत में रहने वाले सभी हिंदू हैं. सभी हिंदू हैं तो सभी से एक-सा व्यवहार क्यों नहीं हो रहा है भागवतजी 

एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री ने बड़े गर्व से घोषणा की कि देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन की जिस सुविधा का अंत अभी होने जा रहा थाउसे मैं 5 साल के लिए आगे बढ़ाने की घोषणा करता हूं. ऐसी घोषणाएं तो राजा-महाराजा करते थेलोकतंत्र में ऐसी घोषणा कोई प्रधानमंत्री तभी कर सकता है जब इसकी चर्चा व इसकी स्वीकृति मंत्रिपरिषद में हो चुकी हो. यदि संसद चल रही हो तो इसकी चर्चा संसद में होनी चाहिए. लेकिन यहां आलम तो यह है कि न मंत्रियों को न अपनीन अपने मंत्रालयों की हैसियत से सरोकार हैन मंत्रिपरिषद का कोई वैधानिक मतलब रहने दिया गया है. सारी व्यवस्था हुआं-हुआं करने वाले सियारों के झुंड में बदल दी गई है. लेकिन सियार कितना भी हुआं-हुआं करेंप्रधानमंत्री की एक इस राज-घोषणा ने उनके 9 वर्षों को खोखला करसड़क पर खड़ा कर दिया है. 

पिछले 9 सालों से विकास के जो तमाम दावे चीख-चीख कर किए जा रहे हैंआंकड़ों की बमबारीसबसे तेज अर्थ-व्यवस्था का नाराखरबों की अर्थ-व्यवस्था का आसमान छूने की घोषणासारी दुनिया को राह दिखाने का दमसंसार के हर कोने को छू आने की बाजीगरीक्या वह इन 80 करोड़ भारतीयों को छोड़ कर किया जाने वाला कारनामा है 80 करोड़ लोग यदि इतने विपन्न हैं कि मुफ़्त सरकारी अनाज ही उनका पेट भर सकता है तो इससे दो बातें साबित होती हैं. भारतीय ऐसी निकम्मी कौम के लोग हैं जो अपना पेट भरने लायक मेहनत भी नहीं करते हैंभारत सरकार इतनी निकम्मी है कि तमाम मनमानी व्यवस्था बनाने के बाद भी देश के 80 करोड़ लोग ऐसी विपन्नता के शिकार हैं कि सरकार खिलाएगी तो खाएंगेनहीं तो भूखे सो जाएंगे. यह आँकड़ा भूखे 80 करोड़ लोगों का कम80 करोड़ का वोट पा कर बनी सरकार के चरित्र का ज्यादा परिचय देता है. यह आंकड़ा नित नई काट व चमक वाले कपड़ों में सजे-धजे प्रधानमंत्री की छवि का विद्रूप बनाता है. हम किसी का चूल्हा ठंडा नहीं रहने देंगे जैसी दावेदारी के पीछे न ईमानदारी हैन अपनी विफलता का अहसास !  

किसी भी सरकार या व्यवस्था की कसौटी यह है कि उसके लोग भूखनंगछत से वंचित तो नहीं हैं और जीने की न्यूनतम सुविधाओं से महरूम तो नहीं हैं आप इस संदर्भ में सवाल क्या पूछेंगेयह सरकार खुद ही कह रही है कि 9 सालों से लगातार सत्ता में रहने तथा अमृतकाल की घोषणा करने के बाद भी 80 करोड़ लोग खाने को मोहताज हैं. यह उपलब्धि नहींशर्म का विषय है. कबीर को पता था कि ऐसे लोग आ सकते हैं. इसलिए उन्होंने कुछ उलटबासियां लिख छोड़ी हैं : बरसे कंबलभींगे पानी ! सूरदास बना राष्ट्र कबीरदास को देखे-समझे कैसे 

चेहरा   बता   रहा   था   कि   मारा है भूख ने

हाकिम ने कह दिया कि कुछ खा के मर गया।

13 नवंबर 2023

Friday 10 November 2023

कितनी खोखली आवाजें

  

कैसे शोरों से भर गया है भारत !  जैसे सारे देश में कोई हांका पड़ा है. हर तरफ से आवाजें-ही-आवाजें आ रही हैं. कोई यह नहीं देख या सोच रहा है कि कौनकिसे सुन रहा है. इन आवाजवालों को इसका होश भी नहीं है कि वे कह क्या रहे हैं. 

2014 में बनी भारत सरकार2018 में चुनावी बौंड की योजना ले कर आई थी. यह अंधेरे में काला कपड़ा पहन कर लूट करने की संवैधानिक योजना थी जिसे तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री मोदी की स्वीकृति से तैयार किया था. इसके गुण-दोष व इसी वैधानिकता पर विचार करने वाली य़ाचिका वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय की जेब में पड़ी थी. कैसा गजब है कि ऐसे संवैधानिक मामलेजिनका देश के वर्तमान व भावी से निर्णायक संबंध हैन्यायालय पहुँच तो जाते हैं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय प्राथमिकता के आधार पर उनकी सुनवाई नहीं करता है. कोई पूछे कि महाराष्ट्र विधान सभा का अध्यक्ष यदि अपने सदस्यों की वैधता का मामला राजनीतिक कारणों से वर्षों लटकाए रखता है तो चीफ जस्टिस उसे धमकाते हैं कि आप अनिश्चित काल तक उसे रोके नहीं रख सकतेऔर आप ऐसा करेंगे तो हम आदेश जारी करेंगेफिर सर्वोच्च न्यायालय ऐसे महत्वपूर्ण मामले को कब तक लटकाए रख सकता हैइसकी जवाबदेही नहीं होनी चाहिए किसी भी राजनीतिक व संवैधानिक संरचना को यह नहीं भूलना चाहिए कि अंतत: सब इसी संविधान की संतान हैं और यह संविधान भारत की जनता की संतान है. सर्वभौम सिर्फ जनता है जिसके प्रति संविधान की रोशनी में हर कोई जवाबदेह है.  

  फिर भारत की सर्वोच्च अदालत में खड़े हो कर भारत के एटर्नी जेनरल आर. वेंकटमणी यह लिखित बयान कैसे दे रहे हैं हैं कि भारत की जनता को यह जानने का अधिकार ही नहीं है कि किस आदमी नेकिस पार्टी को कितना पैसा दिया है जो सरकार जनता के वोट से बनती और जनता के नोट से चलती हैउस सरकार का कानूनी नुमाइंदा जब यह कहता है कि जनता को यह जानने का अधिकार है ही नहीं कि उसके पैसे का कौनकैसा इस्तेमाल कर रहा है तब वह कह यह रहा होता है कि जनता की कोई हैसियत ही नहीं है. इन वेंकटरमणी महाशय को भी महीन की तनख्वाह जनता ही देती है और अदालतों की यह सारी व्यवस्था भी जनता के पैसों पर ही टिकी हुई है. फिर अदालत में खड़े हो कर ऐसा कहना महान मूढ़ता का या फिर महान अहमन्यता का प्रमाण है. यह देश की जनता की सार्वभौमिकता पर हमला है. 

इससे भी हैरानी की  बात यह है कि देश की सर्वोच्च अदालत ऐसा सरकारी दंभ सुन भी लेती है और चुप भी रहती है. अदालतें वैसे तो लोगों को धमकाती ही रहती हैंजज महाशयों को यह कहने की आदत है कि हम आपको बता देंगे कि हम कौन हैं लेकिन जब सामने सत्ता का प्रतिनिधि खड़ा हो तो अदालत भी ऊंचा सुनने लगती है और बोलते हुए हकलाने लगती है. 

राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए धन कहां से मिलेयह यक्ष प्रश्न है. यह आर्थिक व राजनीतिक भ्रष्टाचार की गंगोत्री है. तब सवाल यह उठता है कि चुनावी बौंड योजना क्या चुनाव में धनपतियों के हस्तक्षेप पर रोक लगाती है इस हस्तक्षेप को काबू में करने की कोई कोशिश अब तक प्रभावी नहीं हुई है क्योंकि राजनीतिक दल ईमानदार नहीं हैं. जरूरत ऐसा रास्ता खोजने की थीऔर हैकि जिससे इस गठबंधन शह दिया जा सके. तो सामने आई चुनावी बौंड योजना. यह वह अनैतिक योजना है जो बेईमानी को कानूनसम्मत बनाती है. दाता कौन हैयह पता नहीं है. आप पता करेंयह आपका अधिकार नहीं है. जिन्हें भीतरखाने पता हैवे इस खेल में शरीक हैं. इस तरह की गुमनामी किसी को धनबल से जनबल को परास्त करने का असंवैधानिक अधिकार देती है. इससे दाताओं को सत्ता का अभय मिलता है. इसलिए ही तो 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी को अकूत धन मिलता रहा है. बाकी पार्टियां सुदामा से ज्यादा हैसियत नहीं रखती है. यह भारतीय जनता पार्टी का कमाल नहींसत्ता का कमाल है. कल को दूसरी कोई पार्टी सत्ता में होगी तो यह सारा धन उसकी तरफ बहने लगेगा. ऐसी व्यवस्था न नैतिक हैन लोकतांत्रिक और न संविधानसम्मत. चुनावी बॉंड वैसी सरकारी पहल थी जिसे लोकतांत्रिक संविधान की रक्षा की संवैधानिक शपथ लेने वाली न्यायपालिका को आगे बढ़ कर निरस्त कर देना था. लेकिन ऐसा करना तो दूर,अदालत इसकी सुनवाई को ही तैयार नहीं हुईऔर अब उसके सामने ही बगैर किसी रोक-टोक के सरकार कह रही है कि जनता को यह जानने का अधिकार ही नहीं है कि सत्ता व धनपति मिल कर कैसा खेल रच रहे हैं. यूपीए कानून जिस तरह अदालत के संवैधानिक अधिकार की तौहीन करता हैचुनाव बौंड भी उसका वैसा ही माखौल उड़ाते हैं.     

मणिपुर का नाम आते ही सरकार को सांप सूंघ जाता है. कई शब्द प्रधानमंत्री के शब्द-ज्ञान के बाहर हैं. मणिपुर भी ऐसा ही एक शब्द है. गृह मंत्रालय ने अपने शब्दकोश से यह शब्द निकला ही दिया है. वहां हो क्या रहा है और हो क्यों रहा है जैसे सवाल आज कौन पूछे और किससे छापे वाला और फोटोवालादोनों मीडिया अब देश में कहीं बचा नहीं है. मीडिया के नाम पर सत्ता की जुगाली करते व्यापारिक संस्थान हैं जो कागज भी गंदा करते  हैं और देश का मन भी. आज गजापट्टी में भी हमारे यहां से ज्यादा सार्थक मीडिया सांस लेता है. 

जब मणिपुर के बारे में कुछ न बोलने का निर्देश है तब मणिपुर के बारे में बोल रहे हैं असम राइफल्स के डायरेक्टर जेनरल लेफ्टिनेंट जेनरल पी.सी. नायर ! कभी रवायत रही थी कि फौज-पुलिस राजनीतिक बयानबाजी नहीं करती थीउन्हें इसकी अलिखित संवैधानिक-सी मुमानियत थी. लेकिन नया ढर्रा तो यह बना है कि फौज विदेशी मामलों पर नीतिगत बयान देती हैसरकार उससे ही अपने कारनामों पर पुताई करवाती है और हमें महावीर चक्र वाले चूहे दिखाई देने लगते हैं. आज पुलिस का अधिकारी मणिपुर के भूत-भविष्य व वर्तमान की तस्वीर खींचता है. जब लोकतंत्र में से लोक’ खत्म हो जाता है तब तंत्र’ अपनी ही प्रतिध्वनि से आसमान गुंजाता है. अपनी ही सुनता-सुनता है. 

नायर साहब कह रहे हैं कि मणिपुर धीमे-धीमे शांति की तरफ लौट रहा है. और वे बेहद चिंतित हैं कि मणिपुर में बड़े पैमाने पर जो हथियार लूटे गए हैंवे कहीं गलत हाथों में न पड़ जाएं. राज्य सरकार कह रही है कि सरकारी हथियार गोदाम से जो हथियार लूटे गए हैंउनका चौथाई भी लौटा नहीं है. नायर साहब कहते हैं कि यदि ये हथियार वापस नहीं लौटे तो इसका मतलब होगा कि ये गलत हाथों में चले गए हैं. उनमें से बहुत सारे आतिवादियों के हाथ में पहुंच गए होंगे. वे गहन विश्लेषण करते हैं और कहते हैं कि इन हथियारों की मदद से अतिवाद फिर सर उठा सकता है. उनसे पूछना यह चाहिए कि सरकारी गोदामों से यदि हथियार लूट लिए गए तो आपकी नौकरी अब तक सलामत कैसे है उनसे पूछना यह भी चाहिए कि यदि गोदामों से हथियार लूट लिए गए यह सच हैतो क्या इससे यह साबित नहीं होता है कि गोदाम की चाभियां गलत हाथों में थीं नायर साहब जैसे बड़ी कुर्सियों वाले अधिकारी होते ही इसलिए हैं कि वे सही व गलत का विवेक करें. आप रो रहे हैं कि हथियार कहीं अतिवादियों के हाथ न पहुंच जाएं मतलब क्या हथियार दो तरह के लोगों के हाथ में गए हैं : अतिवादी व शांतिवादी यहीं समस्या की जड़ है. 

जनजातियों के बीच टकराव का इतिहास बहुत पुराना है. हमारे समाज में जातीय संगठनों के आपसी संघर्ष इसका ही आधुनिक संस्करण हैं. मणिपुर में भी मैतेई व कुकी लोगों के बीच यह पहला संघर्ष नहीं है. फिर क्या हुआ कि इस बार संघर्ष का स्वरूप इतना भयंकर व इतना लंबा हो गया है फिर क्या हुआ कि मणिपुर में सत्ता पेट्रोल ले कर आग बुझाने पहुंच गई मणिपुर की दो जनजातियों के बीच का संघर्ष देशी-विदेशी हथियारों की जंग में बदल गया तो नायर साहब जैसों की जरूरत क्या है देश को फौज-पुलिस का काम किसी एक पार्टी की तरफ से खेलना नहीं होता है बल्कि लड़ाई को दबाना होता है. उस रास्ते में कोई भी आए उसे भी उतनी ही सख्ती से रास्ते से हटाना होता है. नायर साहब जैसे इस सच्चाई को छुपा जाते हैं कि हथियार लूटे ही नहीं गए हैंबांटे भी गए हैंपहुंचाए भी गए हैं. किसी को सत्ता का सहारा हैतो किसी को बाहरी ताकतों का उकसावा है. हिंदुस्तान उनके बीच पिस रहा है. ( 03.11.2023 )