Sunday 24 December 2023

क्या आप इस संसद को पहचानते हैं ?

 कांग्रेसमुक्त भारत बनाने की बदहवास होड़ को यही रास्ता पकड़ना था. देश भी तेजी से कांग्रेसमुक्त हो रहा है; संसद भी विपक्ष मुक्त हो गई है. संविधान में ऐसी मुक्ति की कोई कल्पना नहीं है. वहां तो संसदीय लोकतंत्र का आधार ही पक्ष-विपक्ष दोनों है. विपक्ष अपने कारणों से चुनाव न जीत सके तो वह जाने लेकिन जो और जितने जीत कर संसद में पहुंचे हैं, उन्हें पूरे अधिकार व सम्मान के साथ संसद में रखना सत्तापक्ष का लोकतांत्रिक दायित्व है. लोकसभा का अध्यक्ष इसी काम के लिए रखा जाता है कि वह संसदीय प्रणाली व सांसदों की गरिमा का रक्षक बन कर रहेगा. लेकिन हम यह नया भारत देख रहे हैं. इसमें भारत कहां है यह भी खोजना पड़ता है, इस नये भारत की संसद में विपक्ष कहां है, यह भी खोजना पड़ता है. एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हम अपने अस्तित्व की ऐसी शानदार जगह पर आ पहुंचे हैं जहां से वह हर कुछ खोजना पड़ रहा है जिसकी दावेदारी तो बहुत हो रही है लेकिन दिखाई कुछ भी नहीं देता है. 

   ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि विपक्ष ने संसद चलने में इतनी बाधा पैदा की कि उन्हें दंडित करना पड़ा. 60 के दशक से पहले अध्यक्ष की अपील व झिड़की काफी होती थी  कि संसद के कामकाज में बाधा डालने वाला रास्ते पर आ जाता था. 60 के दशक में विपक्ष ने भी अपने अधिकारों की मांग शुरू की. उसका स्वर तीखा होता गया. 70 के दशक में कांग्रेस ने इंदिरा गांधी के मनमाने के सामने गूंगे रह कर विपक्ष को संसद से बाहर कर दिया था. लेकिन वह आपातकाल का संदर्भ था. 

   जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थीतब उसने संसद को अंटकाने को हथियार की तरह बरतना शुरू किया. संसद की ऐसी-तैसी करते हुए भाजपा के अरुण जेटली व सुषमा स्वराज्य ने ऐसे बर्ताव को विपक्ष का जायज हथियार बताया था. उस वक्त के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने संसद को बंधक रखने जैसी प्रवृत्ति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया था. लेकिन जब आप फिसलन पर पांव धरते हैं तब गिरावट आपके काबू में नहीं रहती है. 

   2014 के बाद से संसद का सामान्य शील भी खत्म हो गया और इस बार इसे विपक्ष ने नहींसत्तापक्ष ने खत्म किया. सबसे पहले तो प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि हमारा विपक्ष देशद्रोहीराष्ट्रीय एकता का दुश्मनभ्रष्टाचारी तथा विभाजनकारी ताकतों का सफरमैना है. विपक्ष के लिए जवाहरलाल से मनमोहन सिंह तककिसी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं कहा था. अपार बहुमत से सरकार बनाए प्रधानमंत्री को विपक्ष को ऐसा कहने की जरूरत क्यों पड़ी इसलिए कि वे भयग्रस्त मानसिकता से घिरे थेघिरे हैं. उन्हें पता है कि यह जो सत्ता हाथ आई हैउसके पीछे आत्मबल नहींतिकड़में हैं. तिकड़म का चरित्र ही यह है कि वह कब छल कर जाएआपको पता भी नहीं चले. इसलिए रणनीति यह बनती है कि हर विपक्ष व हर असहमति को इतना गिरा दोपतित कर दो कि उसके उठने की संभावना ही न बचे. विपक्षसंवैधानिक संस्थाओंस्वतंत्र जनमतमीडियाराज्य सरकारों आदि का ऐसा श्रीहीन अस्तित्व पहले कभी नहीं था. विपक्षजिसने 60-65 सालों तक देश चलाया हैअगर देशद्रोहीभारत का दुश्मनविभाजनकारी ताकतों का सफरमैना तथा भ्रष्टाचारियों का सरदार होतातो क्या आपको वैसा देश मिलता जैसा मिला आप चुनाव जीत सकेप्रधानमंत्री बन सकेयही इस बात का प्रमाण है कि विपक्ष पर लगाए आपके आरोप बेबुनियाद हैं. विपक्ष दूध का धुला हैऐसा कोई नहीं कहेगा लेकिन आपका दूध शुद्ध हैऐसा भी तो कोई नहीं कहता है. 

   आप यह जरूर कह सकते हैं कि आजादी के बाद से अब तक विपक्ष ने जैसी सरकार चलाईजैसा समाज बनाया उससे भिन्न व बेहतर सरकार व समाज हम बनाएंगे. आपको यह कहने का अधिकार भी है व उसका आधार भी हैक्योंकि आपने सारे देश में एकदम भिन्न एक विमर्श खड़ा कर अपने लिए चुनावी सफलता अर्जित की है. लेकिन देश आजाद ही 2014 में हुआऐसा विमर्श बनाना व सत्ता की शक्ति से उसे व्यापक प्रचार दिलाना दूसरा कुछ भी होस्वस्थ्य लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने से कम नहीं है. अब यह राजनीतिक शैली दूसरे भी सीख चुके हैं. वे भी इतनी ही कटुता से स्तरहीन विमर्श को बढ़ावा दे रहे हैं. लोकतंत्र में सार्वजनिक विमर्श का सुर व स्तर सत्तापक्ष निर्धारित करता हैविपक्ष उसका अनुशरण करता है. संसद जिस स्तर तक गिरती हैदेश का सार्वजनिक विमर्श भी उतना ही गिरता है. 

   संसद के दोनों सदनों में अध्यक्ष का पहला व अंतिम दायित्व एक ही है : सदस्यों का विश्वास हासिल करना तथा सदस्यों का संवैधानिक संरक्षण करना है. प्रत्यक्ष या परोक्ष पक्षपात आपकी नैतिक पकड़ कमजोर करता जाता है. 2014 से यह लगातार जारी है. यह सच छिप नहीं सकता है कि विपक्ष संख्याबल में कमजोर है जिसे आप बराबरी का अधिकार व अवसर न दे कर लगातार कमजोर करते जा रहे हैं. आपके ऐसे रवैये से विपक्ष का जो हो सो होसदन लगातार खोखला होता जा रहा है. वहां व्यक्तिपूजानारेबाजीजुमलेबाजी तथा तथ्यहीनता का गुबार गहराता जा रहा है. ऐसी संसद न तो सदन के भीतर और न बाहर लोकतंत्र को मजबूत व समृद्ध कर सकती है. संविधान इस बारे में गूंगा नहीं है भले हम उसकी तरफ से मुंह फेर करनिरक्षर व सूरदास बन गए हैं. संविधान के सामने सर झुकाना व संविधान का गला काटना इतिहास में कई बार हुआ है. 

   18 दिसंबर 2023 एक ऐतिहासिक दिन बन गया है. इस दिन से एक सिलसिला शुरू हुआ है जो अब तक कोई 150 सांसदों को दोनों सदन से बाहर निकाल चुका है. ये सारे निलंबन अनुशासन के नाम पर किए गए हैं. अचानक इतने सारे अनुशासनहीन सांसद कहां से आ गए ?   पहले से सब ऐसे ही थे तो अब तक सदन चल कैसे रहा था पहले से नहीं थे तो इन्हें अनुशासनहीन बनाने की स्थिति किसने पैदा की हर निलंबित सदस्य दोनों अध्यक्षों की क्षमता पर भी और उनकी मंशा पर भी सवाल खड़े करता है. संसदीय लोकतंत्र के प्रति आपकी प्रतिबद्धता कैसी हैयह कैसे आंकेंगे हम आपके व्यवहार से ही न !  विपक्ष के इतने सारे सदस्यों को निलंबित कर देने के बाद संसद में लगातार संवेदनशील बिल पेश भी किए जाते रहेपारित भी किए जाते रहेतो यह मंजर ही घोषणा करता है कि संसदीय लोकतंत्र का कोई शील आपको छू तक नहीं गया है.               

   150 के करीब विपक्षी सांसदों को निलंबित करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं थासत्तापक्ष का ऐसा तर्क मान भी लें हम तो संसदीय लोकतंत्र की भावना के अनुरूप यह तो किया ही जा सकता था कि इतने निलंबन के बाद संसद की बैठक स्थगित कर दी जाती और विपक्ष के साथ नये सिरे से विमर्श किया जाता कि अब संसद का काम कैसे चलेगा संसदीय लोकतंत्र का एकमात्र संप्रभु मतदाता हैजिसने वह संविधान रचा है जिससे आप अस्तित्व में आए हैं. उसने जैसे आपको चुनकर संसद में भेजा है वैसे ही उसने विपक्ष को भी चुन कर संसद में भेजा है. दोनों की हैसियत व अधिकार बराबर हैं और दोनों के संरक्षण की संवैधानिक जिम्मेवारी अध्यक्षों की है. इसलिए अध्यक्षों को यह भूमिका लेनी चाहिए थी कि भले किसी भी कारणवश इनका निलंबन हुआ होइनको चुनने वाले मतदाता का अपमान हम नहीं कर सकतेसो संसद स्थगित की जाती है और हम सर जोड़ कर बैठते हैं कि इस उलझन का क्या रास्ता निकाला जाए. ऐसा होता तो अब्दुल हमीद अदम की तरह दोनों अध्यक्ष इस परिस्थिति को एक सुंदर मोड़ दे सकते थे कि "शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आपमहफिल में इस खयाल से फिर आ गया हूं मैं". इसकी जगह ऐसा रवैया अपना गया कि जैसे बिल्ली के भाग से छींका टूटा. क्या अब संसद में कौन रहेगाइसका फैसला मतदाता नहींसंसद का बहुमत करेगा यह संविधान की लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन है. यह तो नई ही स्थापना हो गई कि विपक्षविहीन संसद वैध भी है और हर तरह का निर्णय करने की अधिकारी भी है. फिर संसद की कैसी तस्वीर बनती है और संविधान का क्या मतलब रह जाता है इसका जवाब इस संसद के पास तो नहीं है. ( 22.12.2023)

नये साल की दहलीज पर

 365 दिनों के रिश्ते को एक झटके में तो आप विदा नहीं कह सकते हैं न ! भले ही 2023 का कैलेंडर चुक जाए, ये 365 दिन हमारे साथ रहेंगे.  और यह भी याद रखने जैसी बात है कि इन 365 दिनों ने कम-से-कम 365 ऐसे जख्म तो दिए ही हैं जो अगले 365 दिनों तक कसकते रहेंगे. अपनी कहूं तो यह दर्द और यह असहायता मुझे भीतर तक छलनी कर देती है कि हम हैं और मणिपुर भी है; कि हम हैं और कश्मीर भी है; कि हम हैं और उत्तरप्रदेश भी है; कि हम हैं और सार्वजनिक जीवन की तमाम मर्यादाओं को गिराती व संविधान को कुचलती सत्ता की राजनीति भी है. मेरा दम घुटता है कि हम सब हैं और यूक्रेन भी है; कि हम सब हैं और गजा भी है; अफगानिस्तान भी है व म्यांमार भी है; पास का पाकिस्तान भी है, सुदूर के वे सब नागरिक भी हैं जिनका अपना कोई देश नहीं है. जो कहीं, किसी देश के नागरिक नहीं माने जा रहे हैं लेकिन हैं वे हमारी-आपकी तरह ही नागरिक; हमारी-आपकी तरह इंसान ही. इंसान के माप की दुनिया भी तो नहीं बना पाए हैं हम ! 

   तमाम बड़ी-बड़ी संस्थाएंआयोगट्रस्ट और योजनाएं बनी पड़ी हैं कि इंसान को सहारा दिया जाए लेकिन आज दुनिया में जितने बेसहारा लोग ( सिर्फ रोहंग्या नहीं ! ) सड़कों पर हैं,  उतने पहले कभी नहीं थे. आज अपनी-अपनी सरकारों के खिलाफ जितने ज्यादा लोग संघर्षरत हैंउतने पहले कभी नहीं थे. आज असहमति के कारण जितने लोग अपने ही मुल्क की जेलों में बंद हैंउतने पहले नहीं थे. सरकार बनाने वाली जनता व उनकी बनाई सरकार के बीच की खाई आज जितनी गहरी हुई हैहोती जा रही हैउतनी पहले कभी नहीं थी. यह तस्वीर कहीं एक जगह की नहींसारे संसार की है. लोकतंत्र का लोक’ अपने तंत्र’ से परेशान है; ‘तंत्र’ अपने लोक’ को मुट्ठी में करने की बदहवासी में दानवी होता जा रहा है. हम यह भी देख रहे हैं कि कल तक प्रगतिशील नारों की तरफ आकर्षित होने वाले लोगबड़ी तेजी से प्रतिगामी नारों- आवाजों की तरफ भाग रहे हैंऔर वहां से मोहभंग होने पर फिर वापस लौट रहे हैं. यह सच में वापसी होती तो भी आशा बंधती लेकिन यह निराशा की वापसी है. 

   हत्या से ठीक पहले वाली रात यानी अपनी जिंदगी की आखिरी रात को गांधी ने भविष्यवाणी-सी जो बात संसदीय लोकतंत्र के लिए लिखी थीवह दस्तावेज हमारे बीच धरा हुआ है. कभी लगता है कि दुनिया उस तरफ ही भाग रही है. गांधी ने लिखा था : संसदीय लोकतंत्र के विकास-क्रम में ऐसी स्थिति आने ही वाली है जब लोक व तंत्र के बीच सीधा मुकाबला होगा. क्या हम उस दिशा में जा रहे हैंलेकिन यह मुकाबला निराशा या भटकाव के रास्ते संभव नहीं है. 2023 निराशा व अनास्था का यह टोकरा 2024 के सर धर कर बीत जाएगा और छीजते-छीजते मानव रीत जाएगा.    

   यह सब कहते हुए मैं भूला नहीं हूं कि आपाधापी के इस दौर में भी हर कहीं कोई आंग-सू’ भी है. मेरी आंखों में वे अनगिनत लोग भी हैं जो फलस्तीनियों के राक्षसी संहार का विरोध करने इंग्लैंडअमरीका आदि मुल्कों में सड़कों पर निकले हैं. मैं यह भी देख पा रहा हूं कि फलस्तीनियों व हमास में फर्क करने का विवेक रखा जा रहा है. मैं भूला नहीं हूं कि श्रीलंका के भ्रष्ट व निकम्मे सत्ताधीशों को सिफर बना देने वाला श्रीलंका का वह नागरिक आंदोलन भी इन्हीं 365 दिनों की संतान हैभले वह आज बिखर गया है. इन 365 दिनों में भारत समेत संसार की तथाकथित महाशक्तियां अपने स्वार्थ का तराजू लिए जैसी निर्लज्ज सौदेबाजी में लगी रही हैंउस बीच भी म्यांमार में नागरिक प्रतिरोध बार-बार अपनी ताकत समेट कर सर उठा रहा है. इन 365 दिनों की चारदीवारी के भीतर बहुत कुछ मानवीय भी घट व बन रहा है जिसे समर्थन व सहयोग की जरूरत है. 

   2023 के अंतिम दिनों में, 12-28 नवंबर के दौरान मौत की सुरंग में घुटते 41 लोग जिस तरह 400 घंटों की मेहनत के बादजीवन की डोर पकड़ कर हमारे बीच लौट आएवह भूलने जैसा नहीं है. यह चमत्कारकिसी नेता या सरकार ने नहीं कियाआदमी के भीतर के आदमी ने किया. यह कहना भी बेजा बात है कि मशीनों ने नहींमनुष्य के हाथों ने ही अंतत: उन श्रमिकों को बचाया. सच का सच यह है कि मशीनों ने जहां तक काम कर दिया था यदि उतना न किया होता तो इन श्रमिकों का बचना कठिन थाउतना ही सच यह भी है कि जहां पहुंच कर मशीनें हार गई थीं वहां से आगे का काम हाथों ने न किया होता तो इन श्रमिकों का बचना असंभव था. मशीनों व इंसानों के बीच यही तालमेल व संतुलन चाहिए. जब गांधी कहते हैं कि आदमी को खारिज करने वाली मशीनें मुझे स्वीकार नहीं हैं लेकिन आदमी की मददगार मशीनें हमें चाहिएतो वे वही कह रहे थे जो सिल्कयारा-बारकोट सुरंग में फंसे श्रमिकों को बचाने में साबित हुआ.

   उन सबको सलाम जो यह कठिन काम अंजाम दे सके लेकिन उन सवालों को उसी सुरंग में दफना नहीं  दिया जाना चाहिए जिनके कारण यह त्रासदी हुई. दुर्घटनाओं के पीछे असावधानियां होती हैं. निजी असावधानी की कीमत व्यक्ति भुगत लेता है लेकिन जिस असावधानी का सामाजिक परिणाम होवह न छोड़ी जानी चाहिएन भुलाई जानी चाहिए. उसका खुलासा होना चाहिए तथा असावधानी की जिम्मेवारी तय होनी चाहिए. कोई बताए कि खोखले दावों व जुमलेबाजियों के प्रकल्प के अलावा हमारे सरकारी प्रकल्पों को पूरा होने में इतना विलंब क्यों चल रहा है सुरंगों की ऐसी खुदाई में श्रमिकों को असुरक्षित उतारने वाले ठेकेदार व अधिकारी कौन थे उनको क्या सजा मिल रही है ऐसी खुदाइयों के जो सुनिश्चित मानक बने हुए हैंयहां उनका पालन क्यों नहीं किया गया इसके जिम्मेवार कौन थे व उनकी क्या सजा तय हुई न धरती मुर्दा हैन पहाड़ ! इनके साथ व्यवहार की तमीज न हो तो आपको इनसे दूर रहना चाहिए. पूरा हिमालय हमारी मूढ़ता व संवेदनशीलता का पहाड़ बन गया है. उत्तरकाशी का यह हादसा भी भुला दिया जाएगा क्योंकि विकास के जहरीले सांप ने हमें बेसुध कर रखा है. तो 2024 का एक संकल्प यह भी हो सकता है : सांप से बचो तो हिमालय बचेगा भी और हमें बचाएगा भी.                     

   मैं यह भी देख रहा हूं कि समाज का अर्द्ध-साक्षर लेकिन बेहद सुविधा प्राप्त वह वर्गजो न हींग लगे व फिटकरी लेकिन रंग आए चोखा’ वाली शैली में जीवन जीने के आसानकायर रास्तों की खोज में रहता हैजिसने आजादी की लड़ाई में बमुश्किल कोई भूमिका अदा की लेकिन जो आजादी का भोग सबसे ज्यादा भोगता रहा हैजिसने हमेशा एकाधिकारशाही का मुदित मन स्वागत किया हैजिसने पिछले वर्षों में हिंदुत्व की लहर पर चढ़ करअपनी खास हैसियत का लड्डू खाने का सपना देखा हैअब मोहभंग जैसी स्थिति में पहुंच रहा है. उसे लगने-लगा है कि उसके हाथ मनचाहा लग नहीं रहा है. आजादी के तुरंत बाद ही सत्ता व स्वार्थ की जैसी आपाधापी मची उससे हैरान गांधी ने कहा था: समाज भूखा है यह तो मैं जानता था लेकिन वह भूख ऐसी अजगरी हैइसका मुझे अनुमान नहीं था. सांप्रदायिकता-जातीयता-एकाधिकारशाही हमेशा ही वह दोधारी तलवार है जो इधर-उधरदोनों तरफ बारीक काटती है. जब तक दूसरे कटते हैंहम ताली बजाते हैंजब हम कटते हैं तब ताली बजाने की हालत में भी नहीं बचते हैं. अब कहींकोई ताली नहीं बची है. सर धुनने की आवाजें आ रही हैं. यह सन्निपात की स्थिति है और  सामाजिक सन्निपात हिटलरी मानसिकता को बढ़ावा देता है. 

   नये साल की दहलीज पर खड़ा हमारा देश अपनी निराशा से निकलेसन्निपात की आवाजों को सुने-समझे तो नये साल में कोई नई संभावना पैदा हो सकती है. संभावना सिद्धि नहीं है. उसे सिद्धि तक पहुंचाने के लिए मानवीय पुरुषार्थ का कोई विकल्प नहीं है. हमें याद रखना चाहिए कि चेहरे बदलने से, ‘म्यूजिकल चेयर’ खेलने से विकल्प नहीं बनते हैं. उनके पीछे गहरी समझ व संकल्प की जरूरत होती है. नया साल हमारे नये पुरुषार्थ का साल बने इस कामना के साथ हम पुराने 365 दिनों को विदा दें तथा नये 365 दिनों का स्वागत करें. 

 

मुश्किल से जो लब तक आई है एक कहानी वह भी है

और जो अब तक नहीं  कही  है एक  कहानी वह  भी है.

( 19.12.23)

Wednesday 6 December 2023

5 राज्यों का चुनाव परिणाम - जादूगर का हैट : जादूगर का खरगोश

       कभी जादूगर का खेल देखा है ? हर बार जब वह हमारी आंखों के सामने, हमारी ही असावधानी की आड़ में हमें छल जाता है, तो यह जानते हुए भी कि यह जो सामने हुआ वह हकीकत नहीं, बारीक धोखा है, हम स्तंभित हुए जाते हैं. जादूगर का हर नया जादू हमसे कहता है कि ज्यादा सावधान हो कर बैठो और पकड़ सको तो मेरी चाल पकड़ो ! राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जादूगर के बेटे हैं लेकिन जादू दिखा कोई दूसरा रहा है. 

5 राज्यों में हुआ चुनाव ऐसी जादूगरी का नमूना है. अब जब चुनावी धूल बैठ चुकी हैघायल अपने घावों की साज-संभाल में लगे हैंविजेता अपनी जीती कुर्सियां झाड़-पोंछ रहे हैंहम जादू के पीछे का हाल देखने-समझने की कोशिश करें. 

मोदी-शाह ने जिस नई चुनावी-शैली की नींव 2014 से डाली है उसकी विशेषता यह है कि न उसका आदि हैन अंत ! यह सतत चलती है. चुनाव की तारीख घोषित हुई तब चुनावी-मुद्रा में आनाचुनाव की तारीख तक चुनाव लड़ना और फिर जीत-हार के मुताबिक अपना-अपना काम करना - ऐसी आरामवाली राजनीति का अभ्यस्त रहा है यह देशइसके राजनीतिक दल ! मोदी-शाह मार्का  राजनीति इसके ठीक विपरीत चलती है. वह तारीखें देख कर नहीं चलतीनयी तारीख़ें गढ़ती है. चुनावी सफलता की तराजू पर तौल कर वह अपना हर काम करती है. इनके लिए चुनाव वसंत नहीं है कि जिसका एक मौसम आता हैयह बारहमासी झड़ी है. उनके लिए विदेश-नीति भी चुनाव हैयूक्रेन-फलस्तीन-गजा-इसरायल भी और पाकिस्तान भी चुनाव हैंजी-20 भी चुनाव हैखेल व खिलाड़ी भी चुनाव हैंचंद्रयान भी चुनाव हैसरकारी तंत्र व धन भी चुनाव के लिए है. उनके लिए जनता भी एक नहीं हैकई है जिनका अलग-अलग चुनावी इस्तेमाल है. 

मार्च 2018 में प्रधानमंत्री ने जनता का एक नया वर्ग पैदा किया था : विकास के लिए प्रतिबद्ध जिले ! 112 जिलों की सूची बनी. ये जिले ऐसे थे जिनके विकास की तरफ कभी विशेष ध्यान नहीं दिया गया था. जो बड़े राजनीतिक पहलवान हैं वे अपने व अपने आसपास के चुनाव क्षेत्रों के लिए सारे संसाधन बटोरने में मग्न रहते हैं. नये चुनाव क्षेत्रों का सर्जन किसी के ध्यान में भी नहीं आता है. मोदीजी ने अपनी रणनीति में इसे शामिल किया और 112 जिलों की सूची बना दी.  किसी ने नहीं समझा कि यह चुनाव की नई कांस्टीट्यूएंसी तैयार करने की योजना है. इन जिलों में से 26 जिले ऐसे थे जो मध्यप्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थान तथा तेलंगाना के 81 चुनाव-क्षेत्रों में फैले थे. ये सभी अधिकांशत: आदिवासी व अन्य पिछड़े समुदायों के इलाके थे. पहली बार इन इलाक़ों को लगा कि कोई है जो इनका अस्तित्व मानता ही नहीं है बल्कि उन्हें आगे भी लाना चाहता है. यहां विकास की क्या कोशिशें हुईं उनकी समीक्षा का यह मौका नहीं है. मौका है यह समझने का कि इन 81 चुनाव क्षेत्रों में भाजपा ने इस बार कांग्रेस को कड़ी मार लगाई. 2018 में जहां इन क्षेत्रों में भाजपा ने बमुश्किल 23 सीटें जीतीं थीं2023 में उसने यहां 52 सीटें जीती हैं - पिछले के मुकाबले दोगुने से ज्यादा. यह अपने लिए नये चुनावी आधार गढ़ने की योजना का एक हिस्सा था. स्मार्ट सिटी योजनाअलग-अलग समूहों को नकद सहायता की लगातार घोषणा आदि सब चुनाव के नये कारक हैं जिनके जनक मोदीजी हैं.  

इस बार 5 राज्यों के चुनाव को 2024 के बड़े चुनाव का पूर्वाभ्यास करार दिया गया था. कांग्रेस ने हिसाब यह लगाया कि कहां-कहां लंबी सत्ता का जहर’ भाजपा को मार सकता हैकहां-कहां हमारी सरकार का अच्छा काम’ हमें फायदा दे सकता है. कांग्रेस की नजर इस पर भी थी कि चुनाव का परिणाम ऐसा ही होना चाहिए कि इंडिया’ में डंडा हमारे हाथ में रहे. यह गणित बुरा भी थाअपर्याप्त भी. जब एक जादूगर अपने हैट से नये-नये खरगोश निकाल कर दिखा रहा हो तब मजमा उस नट को कैसे देखता रह सकता है जिसे तनी हुई रस्सी पर संतुलन साधने का एक ही खेल आता है और वह भी ऐसा कि संतुलन बार-बार डगमगाता भी रहता है !

कांग्रेस राष्ट्रीय दल है तो सही लेकिन उसके पास राष्ट्रीय सत्ता नहीं हैजो सत्ता है उसे भी वह संभाल नहीं पा रही है. उसके पास राष्ट्रीय पहचान व कद का एक ही नेता है जिसका नाम है राहुल गांधी ! राहुल गांधी की जानी-अनजानी बहुत सारी विशेषताएं होंगी लेकिन देश जो देख पा रहा है वह यह है कि वे अब तक राजनीतिक भाषा का ककहरा भी नहीं सीख पाए हैंउनके पास वह राजनीतिक नजर भी नहीं है जो चुनावी विमर्श के मुद्दे खोज लाती है. कांग्रेस में दूसरा कोई पंचायत स्तर का नेता भी नहीं है. कांग्रेस के पास उसका कोई शाहकोई योगीकोई शिवराजकोई हेमंता नहीं हैवह किसी को बनने भी नहीं देती है. 

दूसरी तरफ भाजपा है. उसके पास भी एक ही राहुल’ है : नरेंद्र मोदी ! उनके पास हर मौसम की भाषा हैगिद्ध-सी वह राजनीतिक नजर है जो हर मुद्दे को अपने हित में इस्तेमाल करने की चातुरी रखती है. उनका कद इतना बड़ा बनाया’ गया है कि उसे कोई छू नहीं सकता है. फिर नीचे कई नेता है जिनका अपना आभा मंडल है. इन सबके साथ है एक परिपूर्ण प्रचार-तंत्रएक परिपूर्ण धन-तंत्र तथा एक परिपूर्ण मीडिया-तंत्र है. कांग्रेस का सबसे बड़ा नेता कांग्रेसियों की नजर में भी पर्याप्त नहीं हैभाजपा का नेता भाजपाइयों की नजर में राजनीतिक नेता ही नहींअवतार भी है. दोनों का मुकाबला बहुत बेमेल हो जाता है.

इंडिया’ के घटक जानते हैं कि कांग्रेस के कारण ही वे इंडिया’ हैं लेकिन वे जो जानते हैंवह मानते नहीं हैं. इसलिए कोई बंगाल को तो कोई उत्तरप्रदेश को तो कोई तमिलनाड को तो कोई बिहार’ को इंडिया’ मान कर चलता है. इस तरह सब बिखरी मानसिकता से एक होने की कोशिश करते हैं. यह असंभव की हद तक कठिन काम है. 2014 से ले कर अबतक भाजपा की रणनीति यह रही है कि वह अपना राजनीतिक आधार बनाने व बढ़ाने के लिए वक्ती नफा-नुकसान का हिसाब नहीं करती है. कांग्रेस छोड़ने वाले मौसमी राजनीतिज्ञों को उसने अपने लोगों के ऊपर तरजीह दी और उनके बल पर अपनी सामाजिक स्वीकृति स्थापित की. उसका गठबंधन सबसे बड़ा बना लेकिन उसने यह भी सावधानी रखी कि कोई इतना बड़ा न हो जाए कि उसके सर पर हाथ रखने लगे. इंडिया’ गठबंधन में ऐसी सावधान उदारता के दर्शन भी नहीं होते हैं. 

राजनीति संभव संभावनाओं का खेल है. 2023 फिर से बताता है कि संभव संभावनाओं में असंभव संभावना छिपी होती है. भाजपा वैसी संभावनाओं को पकड़ने की हर संभव कोशिश करअसंभव को साधती आ रही है. दूसरे संभव को असंभव बनाने के खेल से बाहर ही नहीं आ पाते. क्या 2024 इसी कहानी को दोहराएगादेखना है कि कौन नये खरगोश बना व दिखा पाता है.  

( 06.12.2023)