Tuesday 18 July 2017

अपने अंदर के कायर से लड़ने का दौर


अादमी अकेला हो जाए तो अात्महत्या कर ले; अादमी भीड़ में बदल जाए तो हत्याअों का अंतहीन सिलसिला चल पड़े, अौर जिस समाज में ये दोनों स्थितियां एक साथ बन जाएं, वह समाज एक ऐसे जंगल में तब्दील हो जाता है जिसमें हर अादमी, हर दूसरे अादमी का शिकार करने में लग जाता है. हम अाज जिसे ‘मॉब लिंचिंग’ कह रहे हैं दरअसल यह समाज की  सामूहिक अात्महत्या है. भीड़ क्या है ? अादमियों की ऐसा जमावड़ा जिसकी अादमियत गुम कर दी गई है; जहां संख्या है लेकिन सत् नहीं है; जहां गिनने के लिए सर हैं लेकिन छूने के लिए दिल नहीं है; जहां नारे हैं,अावाज नहीं है.  

अादमी बहुत खतरनाक होता है. वह होता है तो सवाल पूछता है अौर जवाब की तलाश में जमीन-अासमान एक कर देता है; वह होता है तो सपने देखता है अौर उनको हािसल करने के लिए अपना सब कुछ होम कर देता है; वह होता है तो सारी दीवारें तोड़ने में लग जाते है ताकि रिश्तों का, सोच का अौर उपलब्धियों का अासमान बड़ा किया जा सके. अादमी का होना खतरे की घंटी है. इसलिए दुनिया का हर निजाम अादमी से डरता है अौर उसे भीड़ में बदलने की हर कोशिश में लगा रहता है.   

हमारे देश में अभी यही दौर चल रहा है. अाज यहां हर वह छोटी, संकीर्ण पहचान हरी की जा रही है जिसे पीछे छोड़ने की लंबी जद्दोजहद में हम लगे थे अौर किसी हद तक सफल भी हो रहे थे. भारतीय समाज जैसी विविधताअों से भरा लेकिन एक होने की कोशिश में लगा दूसरा कोई समाज संसार में है नहीं. हमारा देश एक ऐसी जीवंत सामाजिक प्रयोगशाला बन गया है जिसमें एक नया मनुष्य गढ़ा जा रहा है. एक धर्म, एक जाति, एक भाषा से बनता है एक देश जैसा समाज विज्ञान खारिज करते हुए, हम ऐसे अादमियों का समाज बनाने का प्रयोग कर रहे थे जो एक साथ तमाम स्वस्थ विविधताअों का प्रतिनिधि बन जाए. किसी गांधी ने कभी इसकी संभावना को साकार किया था अौर ‘ईश्वर-अल्ला तेरो नाम / सबको सन्मति दे भगवान’ गाया भी था अौर गवाया भी था. उन्होंने सारे देश को एक प्रार्थना-सभा में बदल देने की अद्भुत कोशिश की थी.

  एक यह कोशिश बहुत खतरनाक थी ! अपनी अलग-अलग दूकानें लगा कर जो बैठे थे उनके लिए यह अस्तित्व का सवाल बन गया. इसलिए ३० जनवरी का कायराना कारनामा हुअा. ढलती शाम में, प्रार्थना-स्थल पर ८० साल के एक प्रार्थनारत बूढ़े अादमी की सरेअाम गोली मार कर हत्या कर दी गई. अाजाद हिंदुस्तान में ‘मॉब लिंचिंग’ का यह पहला वाकया था. अौर फिर सबने वही कहा जो भीड़ कहती है - ‘हम कुछ जानते नहीं, हमने कुछ देखा नहीं, मारने वाले उस अादमी से हमारा कोई नाता नहीं’. कायरों की बहादुरी हमेशा ऐसी ही होती है. नाथूराम गोडसे के हाथ में जो पिस्तौल थी उसमें गोलियां कई लोगों, संगठनों अौर प्रवृत्तियों ने मिल कर भरी थीं अौर उनके निशाने पर गांधी नाम के व्यक्तिमात्र नहीं थे बल्कि उनके कारण पैदा हो रही वे संभावनाएं थीं जिनसे मानवीय चेतना उन्मुक्त हो सकती थी. 

अाज वही पिस्तौल फिर मुंह खोल रही है. समाज को डराने की, भरमाने की अौर उसे भयभीत भेड़ों की तरह एक ही बाड़े में बंद करने की सारी कोशिशें इसी ‘पिस्तौल-क्रांति’ का हिस्सा हैं. इसके लिए प्रतीकों की जरूरत पड़ती है - ऐसे प्रतीकों की जो न बोल सकते हों, न प्रतिवाद कर सकते हों ! इसलिए धर्म, जाति, गाय, झंडा, मंदिर-मस्जिद, संविधान, संसद,नदियों, मूर्तियों जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल हो रहा है. जो कुछ भी हो रहा है, इन ‘अनाम-बेजुबान’ नामों से हो रहा है. नाम बदले जा रहे हैं, चेहरे बदले जा रहे हैं, नोट बदले जा रहे हैं, वोट बदले जा रहे हैं, ‘चाय की शराब’ बनाई जा रही है, अौर इंसानों को भीड़ बनाया जा रहा है. झूठ का सच्चा व्यापार किया जा रहा है. अौर ऐसा करने के लिए जो सबसे जरूरी है वह सबसे पहले किया जा रहा है कि लोगों को असहिष्णु बनाया जा रहा है. ‘वे सब देशद्रोही हैं जो हमसे असहमत हैं’ - यह अाज का नारा है. इसलिए अाज समाज में संवाद की जगह कम-से-कम होती जा रही है. शासन-प्रशासन से ले कर समविचारी संगठनों तक, प्रधानमंत्री से ले कर नीचे के मंत्रियों-अधिकारियों तक सभी थोक के भाव से बात का भात पका व परोस रहे हैं. सदन में घुसने से पहले सीढ़ियों पर सर टेकने से शुरू हुई यह कहानी यहां तक पहुंची है कि न सर का पता है, न सोच का - भाषण ही भाषण हैं जो भी लगातार अपनी चमक खोते जा रहे हैं. थोथा चना बाजे घना वाली हिंदी कहावत बार-बार दोहराई जा रही है. 

गाय अगर पवित्र अौर प्रिय है, तो हमें पूछना चाहिए खुद से भी अौर सरकार से भी कि जैसा जीवन हम जी रहे हैं अौर जैसे विकास की तरफ हम देश को धकेल रहे हैं उसमें गाय की कोई जगह है क्या ? अापने तो बताया नहीं कि अापकी स्मार्ट सिटी में गाय कहां अौर कैसे रहेगी; अौर नीति अायोग ने बताया नहीं कि उसके २०२० के ‘विजन स्टेटमेंट’ में गाय की जगह कहां बनती है ? जिसकी कोई जगह नहीं है अौर जिसकी कोई उपयोगिता नहीं है वह किसी के बचाए नहीं बच सकती है भले उसके नाम पर अाप अपनी कुर्सी बचा लें अौर लोगों की जानें ले लें. गाय हमें प्रिय अौर उपयोगी है अौर उसके पूरे वंश की हमारे जीवन में जगह है, क्योंकि हम खेतिहर समाज के लोग हैं जो जमीन पर जीवन जीते हैं. इस सरकार की बात करें कि उस सरकार की, कहानी यही है कि हम  खेतिहर समाज को पिछड़ा मानते हैं अौर इसकी बलि चढ़ा कर एक अौद्योगिक समाज बनाना चाहते हैं जो हमारी नजर में अाधुनिक समाज होगा. यह अाप ठीक कर रहे हैं कि गलत, इस बहस को उठाने के बजाए हम अापसे कहते हैं कि ठीक है, अाप यह चाहते हैं अौर यह अापका अधिकार है कि अाप उस दिशा में जाने की तैयारी करें, तो करें, बस इतना करें कि गौ-रक्षक अौर गौ-सेवा का मुखौटा न पहनें ! यह मुखौटा ही असली चेहरे की जान ले लेता है. गो-वंश का रक्षण व संवर्धन होना चाहिए यह वही कह सकता है जो खेतिहर संस्कृति अौर उसकी मर्यादाअों में मानता हो. 

भीड़ के हमले में मुसलमान मारे गये हैं, दलित मारे गये हैं, डायन कह कर महिलाएं मारी गई हैं. हम कह रहे हैं कि हत्याएं ‘हमारे नाम पर मत करो’, प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि गो-रक्षा के नाम पर लोगों की जान लेना गांधी-विनोबा को मंजूर नहीं था. प्रधानमंत्रीजी, अाप यह सच क्यों नहीं बताते हैं गांधी- विनोबा को तो अापका बनाया यह देश व समाज ही पसंद नहीं था ! उन्हें जमीन अधिग्रहण मंजूर नहीं था, उन्हें सरकार की यह बढ़ती ताकत मंजूर नहीं थी. गांधी को संसदीय लोकतंत्र की दिशा बहुत खतरनाक दिखाई देती थी अौर इसके ‘प्रधानमंत्री’ की देशभक्ति पर उनको गहरी शंका थी. विनोबा कहते थे कि सभ्यता के विकास-क्रम में पैदा हुई राज्यसंस्था सबसे ‘खतरनाक’ ताकत है जो ‘सामाजिक गुलामी’ के सिवा दूसरा कुछ दे ही नहीं सकती है. इसलिए मैं कहता हूं कि इन सबके खिलाफ समाज में चर्चा होनी चाहिए, संवाद होना चाहिए , असहमति की पूरी अाजादी होनी चािहए. इसके लिए जो कुछ भी करना हो सब ‘मेरे नाम से करो !’ मेरा नाम है - इस महान देश का अाम नागरिक ! यह अपने अंदर के कायर से लड़ने का दौर है. बशीर बद्र साहब ने सबकी तरफ से कह दिया है :“ मुझे पतझड़ों की कहानियां / न सुना सुना के उदास कर / नये हादसों का पता बता/ जो गुजर गया वो गुजर गया !