Tuesday 5 March 2024

बुश्नेल, नवलनी और शाशा की कतार में

 कई बार ऐसा होता है कि घाव दिखता नहीं है लेकिन बहुत गहरा होता है; बहुत सालता है, लंबे समय तक धपधपाता रहता है - शायद ताउम्र ! कभी ऐसा कुछ होता है जब लगता है कि अब अपने होने का मतलब ही कहीं खो गया है. इन दिनों ऐसी ही मन:स्थिति से गुजर रहा हूं जब आप खुद की नजरों में ही कुछ कम व कुछ छोटे हो जाते हैं. 

बात दो लोगों की है- दो ऐसे लोगों की जिनमें अनगिनत लोग बसते हैं. ये दोनों ही लोग मेरे देश के नहीं हैं. मैं किसी भी तरह नहीं कह सकता कि इन दोनों कोकि इनमें से किसी एक को भी मैं जानता हूं. लेकिन ये दोनों इन दिनों मेरे भीतर ऐसी हलचल मचा रहे हैं कि मैं स्थिर नहीं हो पा रहा हूं. इनमें से एक रूस का है और दूसरा अमरीका का. कितनी हैरानी की बात है कि एक-दूसरे के सर्वथा विरोध में खड़े इन दो मुल्कों के दो लोगों में इतनी समानता है कि उनसे सैकड़ों मील दूर बैठा मैंभारत का एक स्वतंत्रचेता नागरिकइस कदर उद्वेलित हो उठा हूं कि जैसे बर्फ का कोई टुकड़ा तुम्हारे भीतरतुम्हारी आंतों में उतरता चला जाए. अत्यांतिक शीत की जलन कभी झेली है ?  

आरोन बुश्नेल नाम था उसका ! अमरीका की वायुसेना का सिपाही था. सेना में अनिवार्य भरती के नियम के कारण बुश्नेल  सेना में था. अनिवार्य सेना भर्ती का चलन शासकों को जितना भी रास आता होयह मानवीय स्वतंत्रता व गरिमा के एकदम खिलाफ है. लेकिन सभी शासक किसी-न-किसी स्वरूप में इसे बनाए रखते हैं. बुश्नेल के मन में युद्धों व हत्याओं को ले कर उलझन थी. वह अमरीका का एक सजग युवा था जो जानता था कि देश-दुनिया में कहांक्या हो रहा है और यह भी कि उसमें उसका अपना अमरीका क्या भूमिका निभा रहा है. अपने दोस्तों से इस बारे में उसकी बातें होती रहती थीं. वह भावुक थाअंतरात्मा की अदालत में अक्सर खुद से सवाल-जवाब करता था. फिर भी अब तक किसी ने नहीं कहा कि वह अपना काम जिम्मेवारी से नहीं करता था. 

 फलस्तीन पर इसराइली आक्रमण और उसमें अपने अमरीका की भूमिका ने उसे एकदम विचलित कर दिया. उसे ही क्योंसंसार भर के स्वतंत्रचेता नागरिकों ने गजा में इसराइली नरसंहार का प्रतिवाद किया है. हाल के वर्षों में किसी एक मुद्दे पर विभिन्न देशों के इतने सारे लोग घरों से बाहर निकले हों व अपनी सरकारों से रास्ता बदलने को कहा होऐसा यह एक उदारण है. 

बुश्नेल के सामने यह सवाल कुछ दूसरी तरह से खड़ा हुआ था. वह प्रतिवाद करने वालों में एक तो था ही लेकिन वह जानता था कि वह गजा को मटियामेट करनेवालों में भी एक है. उसका अपराधबोध अलग स्तर का था . इसलिए उसका जवाब भी अलग तरह से आया जब 25 फरवरी 2024 की दोपहर25 साल के इस फौजी जवान को हम तेजी से चल करअमरीका स्थित इसरायली दूतावास की तरफ जाते देखते हैं. उसके अमरीकी वायुसेना की पोशाक पहन रखी हैहाथ में फ्लास्क की तरह का एक डब्बा है. वह मजबूत कदमों सेतेजी से चलता जा रहा है तथा स्वगत ही बोलता भी जा रहा है : मैं अमरीकी वायुसेना का एक सक्रिय फौजी हूंलेकिन अब मैं इस तरह के नरसंहार में किसी भी तरह का भागीदार बनने को तैयार नहीं हूंहमारे शासकों ने भले इसे सामान्य मान लिया हैमैं एक चरम कदम उठने जा रहा हूंफलस्तिनियों के साथ उपनिवेशवादी ताकतें आज जो कर रही हैंउनकी तुलना में मेरा यह चरम कदम कुछ भी नहीं हैयह नरसंहार मेरे लिए असह्य हो गया हैफलस्तीन को आजाद छोड़ दोफलस्तीन को आजाद छोड़ दोकहते-कहते वह दूतावास के बंद द्वार तक पहुंचता हैस्थिरता से खड़ा होता हैअपने हाथ का डब्बा अपने सर तक लाता हैउसमें रखा तरल पदार्थ उसे सर से नीचे तक भिंगो जाता हैखाली डब्बा वह एक तरफ फेंकता हैअपनी फौजी टोपी झटके से सर पर पहनता हैअपने पैंट की जेब से लाइटर निकालता हैनीचे झुक कर अपनी पैंट में लाइटर से आग लगाता हैलपट भभक उठती है… उसकी तेजस्पष्ट आवाज उभरती हैफ्री फलस्तीनफ्री फलस्तीन … दो-तीन आवाजों के बाद आवाज कमजोर पड़ने लगती हैलपटें इससे अधिक बोलने का मौका नहीं देती हैंअब तक सड़क पर छाया सन्नाटा टूटता है,सायरन की आवाज गूंजती हैकदमों की धमा-चौकड़ी सुनाई देती हैएक आवाज चीखती हैउसे जमीन पर गिरा दोउसे जमीन पर गिरा दोलेकिन न कोई दिखाई देता हैन कोई आगे आता हैफिर एक फौजी दिखाई देता है जो लपटों में घिरे आरोन की तरफ अपनी बंदूक तानेनिशाना लेने की कोशिश में हैफिर एक नागरिक दिखाई देता है जो उत्तेजना में चीखता हैआग बुझाने वाला यंत्र लाओआग बुझाने वाला यंत्र लाओफिर वह चीखकर कहता है हमें बंदूक नहींवह यंत्र चाहिएफिर कोई यंत्र लाता हैआग बुझाने की कोशिश होती हैयह सब चल रहा है लेकिन अब वहां बुश्नेल नहीं हैवह अपना प्रतिवाद दर्ज करसबकी पकड़ से दूर जा चुका है… 

हम बुश्नेल का पुराना ट्विट पढ़ पाते हैं : “ दूसरे लोगों की तरह मैं भी खुद से पूछता हूं कि अगर मैं दास प्रथा के दौरान जीवित होता तो क्या करताया जिम क्रो कानूनों ( रंगभेदी ) के समय या रंगभेद के चलन के दौरानअगर आज मेरा देश नरसंहार कर रहा है तो मैं क्या करूंगामैं जो करने जा रहा हूंवही मेरा उत्तर है.” बुश्नेल का एक फौजी साथीजो भी उसकी तरह ही युद्धहत्याअपनी सरकार के रवैये आदि के संदर्भ में अंतरात्मा की आवाज सुनता था और फौज से निकल सका थाबताता है कि बुश्नेल बहुत जिंदादिल दोस्त था. बहुत अच्छा गाता थाभावुक व ईमानदार था. हमेशा अन्यायजबर्दस्ती आदि की खिलाफत करता था. रुंधे गले से उसने कहा : ऐसा करने से पहले जिस पीड़ा से वह गुजरा होगाउसे मैं समझ सकता हूं. 

हम बुश्नेल के जल मरने को क्या समझें एक नासमझ का अतिरेक भराउन्मादीभावुक कदम ?आखिर क्या ही फर्क पड़ा गया फलस्तीनियों को याकि अमरीकी-इसराइली सरकारों को इनमें से किसी ने बुश्नेल  के लिए सहानुभूति से भरा एक शब्द भी तो नहीं कहा ! हम समझदार’ लोग ऐसा भी कहेंगे कि इससे तो कहीं अच्छा होता कि बुश्नेल जिंदा रह कर ऐसे अन्यायों का मुकाबला करता ! समझदारों’ के लिए न तर्कों की कमी हैन शब्दों की. बुश्नेल के लिए शब्दतर्क आदि पर्याप्त नहीं थे. उसे तो जवाब चाहिए था जो उसे कहीं मिला नहीं. जीवन जिन सवालों के जवाब देता ही नहीं हैमौत उन सवालों को समेट करआपको सुला लेती है. भीतर के हाहाकार से बेचैन बुश्नेल सो गया. उसे किसी को जवाब नहीं देना था. अपने पीछे छोड़ी दुनिया के हर इंसान के लिए वह खुद ही सवाल बन गया है कि सुनोकितनेआदमी’ बने और कितने आदमी’ बचे हो तुम ?  

मुझे याद आया कि इसी अमरीका में एक आदमी था मुहम्मद अली या कैसियस क्ले ! मुक्केबाजी के खेल में उन जैसे शलाकापुरुष कम ही आए. अनिवार्य सैनिक भर्ती का सवाल उनके सामने भी आया था. श्वेत प्रभुता के समाज में एक अश्वेत युवक के लिए आसान नहीं था कि वह अंतरात्मा की आवाज सुने व सत्ता को सुनाए. लेकिन मुहम्मद अली ने वह आवाज सुनी भी और सुनाई भी. उन्होंने अपना प्रतिवाद लिखा: “ मेरी अंतरात्मा मुझे इजाजत नहीं देती है कि महाशक्तिशाली अमरीका के लिए मैं अपने किसी भाई कोकिसी अश्वेत या कीचड़ में लिपटे किसी निर्धन-भूखे को गोली मार दूं ! और क्यों मार दूं उनमें से किसी ने तो मुझे निगर’ नहीं कहाउनमें से किसी ने तो मेरी लिंचिंग’ नहीं कीउनमें से किसी ने तो मुझ पर अपना कुत्ता नहीं छोड़ाउनमें से किसी ने मुझसे मेरी राष्ट्रीयता तो नहीं छीनीमेरी मां से बलात्कार नहीं कियामेरे पिता की जान नहीं ली… फिर क्यों मारूं मैं उनको मैं कैसे गरीब लोगों की जान लूं नहींआप मुझे जेल में डाल दो !” मुझे याद आया कि 1968 मेंजब चेकोस्लोवाकिया में तब की महाशक्ति सोवियत रूस की सेना घुस आई थी और उस छोटे-से देश की स्वतंत्र चेतना को कुचल कर रख दिया था तब जॉन पलाश नाम के एक युवक ने रूसी टैंक के सामने खड़े हो कर उसी तरह आत्मदाह कर लिया था जैसे अभी बुश्नेल ने किया. ऐसे दीवाने मर जाते हैं ताकि हमारे भीतर कहीं मनुष्यता के जीने की संभावना जिंदा रहे. यह गांधी के आमरण उपवास की तरह है या उनकी गोली खाने की ज़िद की तरह ! 

बुश्नेल के आत्मदाह के करीब साथ-साथ ही रूसी तानाशाह राष्ट्रपति ब्लादामीर पुतिन ने एलेक्सी नवलनी की हत्या करवा दी. मुझे लिखना तथा आपको समझना तो यह चाहिए कि पुतिन ने नवलनी की हत्या कर दी लेकिन बुश्नेल को समझदारी’ का पाठ पढ़ाने वाले मुझसे कहेंगे कि टेक्निकली’ हत्या पुतिन ने नहीं की. मैं नहीं जानता हूं कि कानून आत्महत्या के लिए उकसाने’ को जिस तरह अपराध मानता है वैसी कोई सजा पुतिन को क्यों नहीं दी जानी चाहिए. 

नवलनी ने पुतिन के जहरीले पंजों में अपनी गर्दन आप ही दे दी. जैसे हम सब जीवन की तरफ दुम दबाए भागते हैंनवलनी सर उठाए मौत की तरफ भागते रहे. वे कोई राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं थे. भवन निर्माण क्षेत्र के वकील थे और उसी क्रम में रूस के सरकारी कामों में व्याप्त भ्रष्टाचार का सवाल उठा कर सबसे पहले सामने आए. और फिर बात से बात बढ़ती गई. पुतिन की नीतियों के सबसे मुखर आलोचक के रूप में वे खड़े हुए. उन्होंने रूसी संसद’ का चुनाव भी लड़ा और शासन-प्रशासन के विरोध-अवरोध के बावजूद काफी सारा समर्थन जमा कर लिया. पुतिन ने भांप लिया कि यह आदमी और इसकी आवाज साधारण नहीं है. यह खतरनाक है. पुतिन जैसे एकाधिकारी मानसिकता वाले खतरे को उमड़ कर सामने आने नहीं देते बल्कि आगे बढ़ कर उसका गला मरोड़ देते हैं. इसलिए पहले झपाटे में ही पुतिन की पुलिस ने नवलनी को धर दबोचा. कई तरह के आरोपों का जाल बिछाया गया जिसमें चरमपंथी गतिविधियों में हिस्सेदारी से ले कर धोखाधड़ी तक का मामला शामिल था. जिस दिलेरी से उस गिरफ्तारी का सामना नवलनी ने कियाउससे पता चल गया कि पुतिन की आशंका कितनी सही थी. 

नवलनी ने अपनी भूमिका संसदीय विपक्ष की रखी. वे जेल से भी लगातार अपनी बात कहते रहेमुकदमों में अपना पक्ष रखने आते रहे. वे प्रखरता से लेकिन शांति से अपना पक्ष रखते थे. परिणाम यह हुआ कि नवलनी पुतिन की खिलाफत की सबसे मजबूत आवाज बन कर ही नहीं उभरे बल्कि रूसी समाज में असहमति की आवाज के उत्प्रेरक भी बन गए. रूसी संविधान में मनमाना संशोधन कर पुतिन अपनी स्थिति मजबूत करते रहे और नवलनी ऐसे हर कदम का पर्दाफाश करते रहे. फिर खबर आई कि वे जेल में बीमार हो गए हैं. इस खबर के पीछे का सच सभी जानते थे इसलिए रूसी समाज से भी और बाकी दुनिया से भी पुतिन पर दवाब बढ़ा और हार कर नवलनी को इलाज के लिए जर्मनी भेजना पड़ा. यहां यह बात सामने आई कि नवलनी के रक्त में जहर पहुंचाया गया है. अपने विरोधियों को खत्म करने में रसायनों के इस्तेमाल की ऐसी खबर रूस में किसी से छिपी नहीं थी. नवलनी उसके ठोस प्रमाण बन कर सामने आए. 

यह मौका था कि जब नवलनी रूस लौटने से इंकार करजर्मनी में राजनीतिक शरण की मांग कर सकते थे. ऐसा कर सारी उम्र विदेश में बसर कर देनेवाले असहमत रूसी राजनीतिज्ञों-कलाकारों की कमी नहीं है. लवलनी को ऐसा समझाने की कोशिश भी की गई लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. पुतिन की आंखों में आंखें डाल कर बातें कहने-लड़ने को वे जर्मनी से रूस लौट आए. उन्होंने कहा: मैं किसी सेकिसी भी तरह डरता नहीं हूं. 

इस बार नवलनी को वैसी जेल में डाला गया जिसे हिटलर कंसन्ट्रेशन कैंप’ कहता था. रूस के ध्रुवीय प्रदेश में बनी ऐसी जेलों को वहां पीनल कॉलोनी’ कहते हैं. यहां राजद्रोही’ सश्रम कैदी बना कर रखे जाते हैं. असाधारण बर्फीली आंधी व वर्षा से दबा-ढका यह सारा इलाका सामान्यत: मनुष्यों के रहने लायक नहीं माना जाता है. ऐसे ही इलाके में बनी है यह पीनल कॉलोनी’ जहां देशद्रोही नवलनी डाल दिए गए. उन पर कई नये आरोप मढ़े गए और अंतत: 2021 की जनवरी में उन्हें 19 साल की जेल की सजा सुनाई गई. यह सजा और उसके पीछे के इरादों को अच्छी तरह समझ रहे नवलनी ने न हिम्मत हारी व धैर्य छोड़ा. उन पर मुकदमा चलता रहा और वे हर पेशी में ऑनलाइन हाजिर हो कर अपना पक्ष रखते रहे. हर बार उनका मनोबल व उनका सहज मानवीय हास्य-परिहास किसी को भी स्तंभित करता था.  

अधिकाधिक संवैधानिक अधिकार अपनी मुट्ठी में कर लेने तथा अपने लिए आजीवन राष्ट्रपति का पद सुरक्षित कर लेने के साथ ही पुतिन की बर्बरता बढ़ गई. चापलूस नौकरशाहीक्रूर व स्वार्थी पुलिस तथा चप्पे-चप्पे को सूंघते जासूसी संगठन के बल पर पुतिन ने रूस को साम्यवादी तानाशाही’ का नया ही नमूना बना दिया. फिर भी नवलनी के समर्थकों तथा पुतिन विरोधी दूसरी ताकतों ने असहमति की आवाज दबने नहीं दी. ऐसी हर आवाज को जेल से नवलनी का समर्थन मिलता रहा. बात तेजी से तब बदली जब पुतिन ने यूक्रेन पर हमला किया. नवलनी ने इस हमले का जोरदार प्रतिवाद किया. इस बार वे ज्यादा मुखर भी थे और ज्यादा कठोर भी ! 

अपने बच्चों के साथ उनकी पत्नी यूलिया जर्मनी जा बसी थीं. उन्होंने लवलनी का मामला अंतरराष्ट्रीय भी बना कर रखा और रूस के भीतर के अपने साथियों का मनोबल भी बनाए रखा. वे हमेशा कहती रहीं : हम हारेंगे नहींहम चुप नहीं रहेंगेहम माफ नहीं करेंगे. 

यूक्रेन ने रूसी प्रमाद को जैसा जवाब दियाउसकी सेना ने रूस पर जैसे आक्रमण किएपश्चिमी राष्ट्रों ने जिस तरह व जिस पैमाने पर यूक्रेन की सैन्य मदद कीइन सबने पुतिन को हैरान कर दिया. हर यूक्रेनी नागरिक फौजी बन जाएगापुतिन को इसकी कल्पना नहीं थी. तानाशाही का शास्त्र यही बताता है कि हर तानाशान सफलता पा कर ज्यादा मचलता हैविफलता पा कर पागल हो जाता है. पुतिन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. कभी वियतनाम में अमरीका के साथ भी ऐसा ही हुआ था. हमने पड़ोसी बांग्लादेश की जन्मकथा में भी यही होते देखा है. यूक्रेन बचेगा या मटियामेट हो जाएगापता नहीं लेकिन यह पता है कि रूस व पुतिन इतिहास में कभी भी सम्माननीय हैसियत नहीं पा सकेंगे. इतिहास की भी अपनी काली सूची होती है. 

जेल की भयंकर मशक्कतमानसिक विशादबाहरी सन्नाटा और जहर से खोखली हो गई शारीरिक क्षमता के साथ-साथ बढ़ती उम्र की प्रतिकूलता नवलनी को घेरने लगी हो तो आश्चर्य नहीं. हालांकि अपनी आखिरी पेशी के दौरान टीवी पर वे जितने दृढ़ व जाब्ते में लग रहे थेउससे यह मानना संभव नहीं था कि उनका स्वाभाविक अंत करीब है. अचानक ही रूसी सरकारी तंत्र ने दुनिया को खबर दी कि ह्रदय के अचानक काम करना बंद कर देने के कारण 15 फरवरी 2024 को नवलनी की मौत हो गई. 

पुतिन जिस तरह झूठ का समानार्थी शब्द बन गया हैउससे कौन बता सकता है कि मौत की यह तारीख भी सच्ची है या नहीं. खबर पाते ही नवलनी की मां पीनल कॉलोनी’ पहुंचीं. उन्हें अपने बेटे से मिलना नहीं थाउसका शव लेना था. लेकिन वहां के अधिकारियों ने उन्हें कोई खबर नहीं दी और वापस लौटा दिया. पूरे सप्ताह वे भागती-दौड़ती रहीं फिर कहीं उन्हें मृत नवलनी मिले. शर्त यह थी कि उन्हें दफनाने का सारा संस्कार गुप्त रीति से करना होगा. न कोई सार्वजनिक समारोह होगान शवयात्रा निकाली जाएगी. 

अब पीछे की कहानी खुल रही है हालांकि कहानी का अंतिम पन्ना खुला है कि नहींकौन जानता है. कहानी बता रही है कि देश के भीतर-बाहर का दवाब ऐसा था कि पुतिन को लाचार हो कर नवलनी के भ्रष्टाचार विरोधी संगठन’ से एक समझौता करना पड़ा जिसके पीछे जर्मन सरकार का जबर्दस्त दवाब भी काम कर रहा था. समझौता यह हुआ कि जर्मनी की जेल में बंद एक रूसी जासूस वादिम क्रासिकोव की रिहाई की एवज में नवलनी को देशबदर कर जर्मनी भेज दिया जाएगा. पुतिन के लिए यह एक टाइम बम’ को खुले में छोड़ देने जैसा समझौता था. वह जानता था कि यह खेल मंहगा पड़ सकता है. इसलिए उसने एक दूसरी योजना बनाई. बीमार नवलनी से उस दिन की भयंकर बर्फबारी में भी मजदूरी करवाई गई. बेदम हुए लवलनी को पुतिन के आदेशानुसार उसके गुर्गे ने छाती पर जोरदार प्रहार कर नीचे गिरा दिया. गिरे नवलनी फिर उठ नहीं सके. बर्फानी तूफान के बीच उनकी सांस जम गई. यूलिया जब समझौते की दूसरी औपचारिकताओं को पूरा करने में लगी थींनवलनी कैसे भी समझौते की पहुंच से दूर निकल गए. यूक्रेनी फौजी गुप्तचर एजेंसी के प्रमुख क्रायलो बुदानोव ने कहा कि उनकी जानकारी के मुताबिक नवलनी की मौत ‘ ह्रदय में खून का थक्का’ जम जाने से हुई. 

अन्य कारणों का व कहानी के दूसरे पन्नों का खुलासा होता रहेगा लेकिन बुश्लेन को मानसिक बीमारी का या भटकी मानसिकता का शिकार बताने वाले नवलनी को क्या कहेंगे हर उस आदमी को क्या कहेंगे जो जीवन अपनी शर्त पर जीना चाहता है क्या जो सत्ता में हैं उनको ही अपने रंग-ढंग से जीने का अधिकार है क्या मनुष्य की अपनी कोई आजादी और उस आजादी की अनुल्लंघनीय गरिमा नहीं होती है ?

लेकिन अभी रूस की ही शाशा स्कोचिनलेंको का प्रसंग बाकी है. शाशा कलाकार व संगीतकार हैं तथा सेंट पीट्सबर्ग में रहती हैं. वे राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हैंन पुतिन की खिलाफत का कोई काम उन्होंने कभी किया है. लेकिन वे अभी जेल में हैं और उनकी यह सजा 7 साल लंबी है. उनका अपराध यह है कि वे फौज के खिलाफ अफवाह फैलाती हैं. ऐसा क्या किया शाशा ने उन्होंने यूक्रेन में रूसी बर्बरता से विचलित हो कर एक ऐसा मासूम काम किया जिसकी कोई सजा हो ही नहीं सकती है. खबर आई थी कि यूक्रेन के मारियोपोल के आर्ट स्कूल पर रूसी जहाजों ने बम बरसाया जब वहां 400 से अधिक लोगों ने शरण ले रखी थी. शाशा इस खबर से बेहाल हो गईं. अपने शहर के मॉल में खड़ी-खड़ी वे सोचने लगीं कि क्या करूं मैं ऐसा कि जिससे अपने देश के इस वहशीपन का प्रतिकार हो सके ! उन्हें कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने मॉल के कुल जमा पांच सामानों पर लगी उनका मूल्य बताने वाली पर्चियां निकाल करउनकी जगह अपनी नई पर्चियां लगा दीं जिन पर युद्ध विरोधी संदेश लिखे थे. उन्होंने लिखा था : “ हमारे बच्चों को जबरन फौज में भर्ती कर यूक्रेन भेजा जा रहा है. युद्ध की कीमत हमारे बच्चों की जान से चुकाई जा रही है.” पुलिस को कुछ पता भी नहीं चला लेकिन उस मॉल से सामान खरीदे किसी ग्राहक ने अपने सामान के साथ नत्थी शाशा की यह पर्ची पढ़ी और उसे ले कर पुलिस के पास पहुंचापुलिस शाशा के पास पहुंची और शाशा जेल पहुंची. अब वह जेल में है - 7 लंबे सालों के लिए ! 

मेरी तरह आपको भी लगता हो कि बुश्नेलनवलनी और शाशा एक ही कतार में खड़े हैं तो आप भी मेरे साथ शर्म व विवशता का भाव लिए इस कतार के एकदम अंत में खड़े हो जाइए. ( 04.03.2024) 

भारत-रत्नों की भरमार

 कहावत पुरानी है कि भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है !  तो समझिए कि वैसे ही काल से देश गुजर रहा है. कहा जा रहा है कि यहां हर कुछ, हर ओर से छप्पड़ फाड़ कर बरस रहा है ! हम भी देख रहे हैं कि छप्पर हो कि न हो, बारिश खूब हो रही है. जुमलों की बारिश, आंकड़ों की बारिश, घोषणाओं की बारिश ! आत्म-प्रशंसा की बारिश तो बहाल किए दे रही है. बेचारे कबीर ने ऐसा ही कुछ देखा होगा तो यह उलटबांसी लिखी होगा : बरसे कंबल, भींगे पानी ! 

 तो इस बारिश में अब तक पांच रत्न’ भी बरस चुके हैं. तब से रोज सुबह अखबार इसलिए ही खोलता हूं कि देखूं कि आज कौन-सा रत्न’ बरसा आज ही नहींमैं पहले से भी हैरान रहता था कि यदि हमारे देश में इतने रत्न हैं तो हम इतने दरिद्र व फूहड़ क्यों हैं इस वर्ष के रत्नों को छोड़ दें तो 48 रत्नों की खोज हमने पहले ही कर ली थी. अब ( याकि अब तक !) हो गए हैं 53 यानी अर्द्ध-शतक पूरा हो चुका है. लेकिन बल्लेबाज क्रीज पर है और चुनाव-टाइम पूरा होने से पहले कई ओवर बाकी भी हैंतो मतलब कि हे गुणग्राहकोअपनी पोथी बंद मत करना अन्यथा नये रत्नों’ से वंचित रह जाओगे.  

महात्मा गांधी ने 150 साल पहले जब हिंद-स्वराज्य’ नाम की किताब लिखी थी तब भारत-रत्न’ का जन्म भी नहीं हुआ था. उस किताब में बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी बातें उन्होंने लिखीं. वह तो उनका भाग्य ही मानता हूं कि जैसे उस समय भारत-रत्न’ का जन्म नहीं हुआ था वैसे ही उस समय यूएपीए’ का जन्म भी नहीं हुआ थानहीं तो महाशय धरे भी जाते और धकियाए भी जाते ! हिंद-स्वराज्य’ में महात्माजी ने संसदीय लोकतंत्र की कटु समीक्षा करते हुए प्रधानमंत्री नाम के अनोखे प्राणी की आंतरिक विपन्नता पर ऊंगली उठा दी और लिख दिया कि वह अपनी सत्ता का सौदा कई तरह सेकई स्तरों पर करता है जिनमें एक तरीका सम्मान बांटने का भी है. गुलाम खरीदने की प्रथा बंद हो गई तो बड़े लोगों को गुलाम बनाने के नये रास्ते खोजने पड़े. महात्माजी ने यह भी लिख दिया कि प्रधानमंत्री नाम का यह प्राणी देशभक्त होता हैउन्हें इस पर भी शक है. जो बेचारा सारा देश अपनी तर्जनी पर उठाए फिरता है ( माफ कीजिएदेश नहींअब वह संसार उठाए फिरता है ! ) उसके बारे में ऐसी शंका !! मुझे पक्का विश्वास है कि महात्माजी को यह सब लिखने-कहने की छूट कांग्रेस व जवाहरलाल नेहरू ने दे रखी थी वरना रत्नों की ऐसी बेइज्जती सनातनी देश भला बर्दाश्त करता क्या ! यह अकारण नहीं है कि यह सरकार कांग्रेस-मुक्त देश बनाने में जुटी है और  सफलता के करीब है. कांग्रेस-मुक्त हो गया देश तो महात्माजी तो साथ ही निबट जाएंगे. इसलिए वे’ उनके बारे में कम ही बोलते हैं. बुद्धिमान को इशारा काफी होता है तो कई हैं उनके’ लोग जो उनका इशारा समझ चुके हैं और अपना काम बखूबी कर रहे हैं.

आपको यह भी देखना चाहिए कि रत्नों की इस खोज में सरकार ने पार्टी का भेद भी नहीं किया है. सबको एक नजर सेएक ही तराजू पर तोला गया है. टके सेर भाजीटके सेर खाजा! मैं यह भी देख रहा हूं कि जिन्हें काल के कूड़ेघर में फेंक दिया गया थाउन्हें भी जब वहां से निकाल कर झाड़ा-पोंछा गया तो इस मीडिया नाम के जमूरे को उनमें नई ही रोशनी व चमक दिखाई देने लगी. अब कोई पिछले सालों की सारी खाक छान कर मुझे बताए कि कर्पूरी ठाकुर की किस विशेषता का जिक्र किसनेकब किया और इस मीडिया ने कब उनकी चमक कबूल की अब तो कई दावेदार पैदा हो गए हैं कि जो कह रहे हैं कि कर्पूरी ठाकुर जैसे रत्न को भारत-रत्न’ न मिलने के कारण वे सालों से सोये नहीं हैं. अब जा कर उन्हें नींद आएगी ! मुझे भी अच्छा लगता है जब कोई चैन की नींद सोता है. लेकिन कर्पूरी ठाकुर का क्या जैसे-जैसे लोग उनकी जैसी-जैसी प्रशंसा कर रहे हैं उससे उनकी नींद हराम हो गई हो तो हैरानी नहीं. अंग्रेजी अखबारों ने उनकी प्रशंसा में अब क्या-क्या नहीं लिखा जबकि उनके रत्न बनने से पहले इन अखबारों ने कभी उनकी सुध भी नहीं ली और कभी ली भी तो उनको बेसुध करने के लिए ही ली. 

सुध लेने की बात निकली ही है तो मैं सोच रहा हूं कि 2014 में ग्रह-परिवर्तन के बाद से किसने लालकृष्ण आडवाणी की सुध ली. वे भारतीय जनता पार्टी के सौरमंडल के किस कोने में रहे अबतकइसका पता उनमें से किसे है जो आज उनकी अक्षय-कीर्ति के गान गा रहे हैं वे गा भी रहे हैं और कनखी से देख भी रहे हैं कि यह गान कहीं मर्यादा के बाहर तो नहीं जा रहा है जिस इशारे से लालकृष्ण आडवाणी को भारत-रत्न’ बनाया गया हैसबको पता है कि उस इशारे के इशारे से आगे नहीं निकलना है. 

भारतीय राजनीति के शिखरपुरुषों में शायद ही कोई दूसरा होगा जिसे लालकृष्ण आडवाणी जैसी हतइज्जती झेलनी पड़ी होगी. असामान्य बेशर्मी से उन्हें सरेआम अपमानित करने का कोई अवसर चूका नहीं गया. आज वे और उनका परिवार कृतकृत्य हो कर उस अपमान का सौदा भारत-रत्न’ से करने में जुटा है. यह ज्यादा दुखद इसलिए है कि आडवाणी-परिवार व जयंत सिंह परिवार के संस्कारों में अब कोई फर्क बचा ही नहीं है.   

कर्पूरी ठाकुर हों कि लालकृष्ण आडवाणी कि चौधरी चरण सिंह कि नरसिम्हा राव कि स्वामीनाथनकौन कहेगा कि ये सब विशिष्ट जन नहीं हैं लेकिन कोई नहीं कहेगा कि इनमें विशिष्टता थी तो क्या थी हमारी परंपरा में मृतकों के लिए सच बोलने का चलन नहीं है. यह भी सही है कि याद ही रखना हो तो शुभ को याद रखना चाहिए. फिर भी एक सवाल तो बचा रह जाता है कि कैसे फैसला करेंगे कि कौन किस श्रेणी का हकदार है 

सरकार के पास नागरिक सम्मान की चार श्रेणियां है न ! क्या ये श्रेणियां व्यक्ति का कद नापने के इरादे से बनाई गई हैं नहीं, ‘पद्मश्री’ से पद्मविभूषण’ तक की सारी श्रेणियों को आंकने का आधार इतना ही हो सकता है कि किसनेकिस क्षेत्र में ऐसा काम किया कि जिसका उनके क्षेत्र पर गहरा असर पड़ा एक बड़ा डॉक्टर या इंजीनियर या प्रोफेसर पूरे समाज पर नहींअपनी विशेषज्ञता के किसी पहलू पर ही असर डालता हैतो वह पद्मश्री’ से नवाजा जा सकता है. कोई इससे बड़े दायरे को प्रभावित करता है तो पद्मभूषण’ और जो कई दायरों को प्रभावित करता है तो वह पद्मविभूषण’ से नवाजा जा सकता है. अगर राज्य द्वारा सम्मान कोई राजनीतिक क्षुद्रता की चालबाजी नहीं है तो ऐसे तमाम सम्मान व्यक्ति के छोटे या बड़े होने का फैसला नहीं करतेभारतीय समाज पर उस व्यक्ति के असर का आकलन भर करते हैं. खिलाड़ीअभिनेतावैज्ञानिक जैसी हस्तियां अपने-अपने क्षेत्र में आला हो सकती हैं लेकिन संपूर्ण भारतीय समाज व उसकी मनीषा पर उनका ऐसा कोई असर नहीं हो सकता कि जो व्यापक रूप से हमारी सोच-समझ को प्रभावित करता हो. यह सब भूल कर जब राज्य किसी को इस्तेमाल करने की छुद्रता करता है तब सम्मान अपमान में बदल जाता है. गांधी जिस अर्थ में इन सम्मानों को सत्ता की चालबाजी कहते हैंउसे गहराई से समझने की जरूरत है. 

हमने राजनीतिक चालबाजी के लिए इन नागरिक सम्मानों को व्यक्ति की हैसियत से जोड़ दिया है. जहां यह हैसियत से जुड़ जाता हैवहाँ ऐसे सारे सम्मान खरीदे व बेचे ही जाते हैं क्योंकि ऐसे सौदों की हैसियत खास लोगों की ही होती है. 

भारत-रत्न’ का सीधा मतलब है कि आप ऐसे किसी व्यक्ति की बात कर रहे हैं जिसने भूत-भविष्य व वर्तमान तीनों स्तरों पर भारतीय मनीषा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है. यह वक्ती उपलब्धि की बात नहीं हैजिस हद तक इस नश्वर संसार में किसी की अविनाशी कीर्ति हो सकती हैउसकी बात है. अगर इस कसौटी को मान लें हम तो हमारे 53 भारत-रत्नों में से 3 भी इस पर खरे नहीं उतरेंगे. कोई क्रिकेट खेलता हो कि कोई गाना गाता हो वह हमारे वक्त का प्रतिनिधि हो सकता है,  ‘भारत-रत्न’ नहीं हो सकता है. प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन जाना भारत-रत्न’ का अधिकारी हो जाना हर्गिज नहीं हो सकता है. लेकिन यही तो हो रहा है.               

रत्नों का यह बंटवारा दरअसल किसी दूसरे को नहींदूसरे के बहाने खुद को महिमामंडित करने की चालाकी है. हमने अपने गणतंत्र को इसी नकल पर संयोजित किया तो राज्य-पुरस्कारों का चलन भी शुरू किया.   हम भीतर से जितने दरिद्र होते हैंबाहरी अलंकरणों से उसे उतना ही छिपाने की कोशिश करते हैं. आज वही तमाशा चल रहा है. भारत-रत्न’ इतना खोखला कभी नहीं हुआ था. ( 16.02.2024)