Wednesday 24 April 2024

क्या लोकतंत्र की यह गुजारिश कोई सुन रहा है !

बेचारा सर्वोच्च न्यायालय ! अब उसके या उसके उच्च न्यायालय के जज रहे 21 महानुभावों ने उसे सावधान किया है ( धमकी दी है ! )  कि उसे दवाब में डाल कर मनचाहा फैसला पाने वाला एक गिरोह काम कर रहा है जिससे उसे बचना भी चाहिए व सतर्क भी रहना चाहिए. सार यह है कि कानूनी पेशे की रोटी खाने वाले ये 21 जज सर्वोच्च न्यायालय को बता रहे हैं कि आप इतने भोले हो कि कोई भी आपको लल्लू बना लेता है. वे यह भी कहते हैं कि मी लॉर्डआप घबराएं नहींहम हर क्षण आपकी मदद के लिए तैयार हैं. जब भी आप ऐसे दवाब में टूटने लगेंबस हमें पुकार लें. इससे पहले 2 सौ से ज्यादा ऐसे ही पेशेवर न्यायाधीशों ने सर्वोच्च न्यायालय को ऐसी ही चेतावनी दी थी. 

मैं जल्दी से खोजने लगा कि इन स्वनामधन्य महानुभावों के नाम क्या हैंतो मुझे खुद पर ही शर्म आई कि ऐसे दिग्गजों’ में से मैं किसी को भी खास नहीं जानता हूं. ये महानुभाव जिन अदालतों से जुड़े रहेउनके पन्नों में इनमें से किसी के नाम सेएक भी ऐसा मामला दर्ज नहीं मिलता है जिसने संवैधानिकता को मजबूत बनाने जैसा कोई काम किया हो. काले कोट का पेशा तो पेशा है जो ऐसे सभी महानुभाव करते हैं लेकिन काले कोट की आभा जगाने का माद्दा अलग चीज है. वह कभी-कभी हीकिसी-किसी में मिलता है. 

इन महानुभावों का इतना सारा किया जैसे काफी नहीं था कि प्रधानमंत्री ने भी सर्वोच्च न्यायालय को भरी क्लास में ( भरे-पूरे देश में ! ) मुर्गा बना दिया. बकौल प्रधानमंत्री इस देश में काला धन बनाने वाले गिरोह में अब सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल हो गया है और चुनावी बौंड’ को असंवैधानिक ठहराने के लिए देश को और सर्वोच्च न्यायालय को पछताना होगा. वे कहते हैं कि चुनावी बौंड की कल्पना उनके मन में तब कौंधी थी जब वे बुधत्व’ को उपलब्ध हुए थे. चुनावी बौंड उनके मन के उसी पवित्र क्षण’ की संतान है. गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए जब ऐसे ही किसी पवित्र क्षण’ में उन्होंने फैसला कर लिया था कि उन्हें येनकेनप्रकारेण देश का प्रधानमंत्री बनना ही हैतबसे ले कर अबकी बार 400 पार’ के नवीनतम पवित्र लक्ष्य’ का इतिहास पलटें हम तो पता चलता है कि देश को पछताने के एक नहींअनेक मोदी-कारण हैं. लेकिन अभी मैं सिर्फ चुनावी बौंड के पवित्र फैसले’ की ही बात करूंगा. 

प्रधानमंत्री ने कहा है कि काले धन की गिरफ्त से चुनावी प्रक्रिया को मुक्त करने के पवित्र उद्देश्य’ से चुनावी बौंड की योजना लाई गई थी. मैं जानना चाहता हूं कि नोटबंदी की तरह यह भी मायावी साधक मोदी’ की निजी उपलब्धि थी या इस बारे में जानकारों से मश्विरा भी हुआ था स्वर्गीय अरुण जेटली के अलावा कोई ऐसा एक नाम प्रधानमंत्री ले सकते हैं जिसकी नश्वर काया अब तक हमारे बीच मौजूद है तब के रिजर्व बैंक के गवर्नरबैंकिग की दुनिया के दूसरे बड़े नामकोई अर्थशास्त्रीचुनाव आयोग के अधिकारी कौन थे कि जिनके साथ इस पवित्र’ योजना की चर्चा-समीक्षा की गई थी क्या संसद में कभी इस पर विमर्श हुआ ?  अगर यह पवित्र मन की परिकल्पना थी तो इसमें गुप्तता के इतने प्रावधान क्यों थे दाता व आदाता का नाम किसी को पता नहीं चलना चाहिएइसकी इतनी सावधानी क्यों थी इस पर उस तरह नंबर क्यों डाला गया था कि जो जासूसी निगाहों से ही पढ़ा जा सकता था ?  गुप्त नंबर की यह तरकीब भी आपकी योजना में तो थी नहींबैंकों के गंभीर एतराज के बादलाचारी में आपके पवित्र मन’ ने इसे छिपा कर डालना कबूल किया था ! बताएं प्रधानमंत्री कि इतनी तिकड़मों के पीछे कौन-सा पवित्र मन काम कर रहा था ?  जो गुप्त होता हैवह पवित्र नहीं होता है.

मोदी-मार्का भ्रष्टाचार वह है जिसमें शब्दों के अर्थ ही बदल दिए जाते हैं. मोदी-सदाचार की नई परिभाषा है : सरकार जो भी करे ( नहींमोदी-सरकार जो भी करे ! ) वह सदाचारजो देश करे या कहे वह कदाचार ! किसी जड़बुद्धि को भी हंसी आ जाए ऐसी बातें प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी कु-योजनाओं के बचाव में कहते आ रहे हैं. नोटबंदी के लिए कहा : इतने दिनों में काला धन खत्म करने के अलावा फलां-फलां बात नहीं हुई तो मुझे फांसी पर चढ़ा देना ! नोटबंदी से वह सब तो कुछ होना नहीं था जिसका दावा किया गया था लेकिन फांसी की अवधि आते-न-आते सारी घोषणाएं ही बदल दी गईं. सियारमार्का मीडिया के धंधेबाज मालिक और दोनों हाथों धन समेटने में लगे कारपोरेट नई घोषणाओं को ले उड़े. ऐसा ही जीएसटी के साथ हुआ. इस शेखचिल्ली योजना की मूर्खताएं आज तक सुधारी जा रही हैं. कपड़े बदलनेढोल-नगाड़े बजाने व गले पड़ने को विदेश-नीति समझने वाली मसखरी का दौर समाप्त हुआ तो आज यह हाल है कि हमारी विदेश-नीति में न कोई नीति बची हैन आत्मसम्मान ! नेपालपाकिस्तानबांग्लादेशम्यांमारअफगानिस्तानचीन से ले कर फिजी तक में हमारी किरकिरी होती है और हम कभी अमरीकीकभी रूसी तो कभी यूरोपी हित का समर्थन कर अपने दिन निकाल रहे हैं. यूक्रेनफलस्तीन के मामलों में हम उस मूर्ख बच्चे से नजर आते हैं जो अपना रिपोर्ट कार्ड लहराता घर लाता है बगैर यह जाने कि उसे कितने विषयों में सिफर मिला है. विदेश-नीति के निर्धारण में गलतियां पहले भी होती रही हैं लेकिन गलतियों को मास्टर-स्ट्रोक बताने की मूढ़ता इसी सरकार की देन है. 

चुनावी बौंड के मामले में अदालती चांटा खाने के बादअमित शाह मार्का छुटभैय्यों से अनाप-शनाप बयान दिलवाने के बाद अब अपने प्रायोजित इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने मुंह खोला है. वे जब भी किसी मुद्दे पर मुंह खोलते हैंदेश का मुंह खुला रह जाता है. उन्होंने कहा : अगर बौंड की मेरी योजना न होती तो यह पता ही नहीं चलता कि पैसा किधर से आया और किधर गया : मनीट्रेल ! प्रधानमंत्रीजीपूछने वाला तो यह पूछेगा कि महाशययदि आप ही न होते तो यह बौंड ही कहां होता ! पैसा कहां से आया और कहां गयाइतना ही नहींइस आने-जाने के पीछे सरकार ने कब,कहां व कैसे दलाली खाईयह भी देश को पता चला तो इसलिए नहीं कि आपका बौंड था बल्कि इसलिए कि सर्वोच्च न्यायालय इस बौंड के पर्दाफाश के पीछे ही पड़ गया था. चुनावी बौंड का रहस्य किसी स्तर पर न खुले इसके लिए जितनी तिकड़म संभव थीसरकार ने वह सब की. भाड़े के सारे वकील साहबानों व भ्रष्ट व कायर स्टेट बैंक की नौकरशाही तक को सरकार ने मैदान में उतार दिया लेकिन न्यायालय ने कुछ भी देखने-सुनने से मना कर इस बौंड योजना को बैंड ही कर दिया तो रास्ता ही नहीं बचा कि कहां सर छिपाएंकहां पांव ! 

प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि चुनावी बौंड की योजना के कारण चुनावी प्रक्रिया से काले धन की समाप्ति हुई. उनके अपने अर्थशास्त्रियों में से कोई एक मुझे समझा दे कि कोई धन काला होता है क्या धन तो सारे सफेद ही होते हैंइरादे काले-सफेद जरूर होते हैं. जब आप काले इरादे से धन छिपाते हैं तो वह काला हो जाता हैजब सरकार आपके काले इरादे वाले धन को पकड़ लेती है तथा कानूनी दंड वगैरह लगा कर उसे व्यवस्था में समाहित कर लेती है तो वही धन सफेद हो जाता है. जब सरकार अदालत में कहती है कि राजनीतिक दलों को चंदा कहां से व कितना मिला यह जानने का जनता को कोई अधिकार ही नहीं है तब वह काले इरादे से चल रही होती है. जब अमित शाह कहते हैं कि चुनावी बौंड योजना से हमें कितनी रकम मिली व विपक्ष को कितनी यह मत देखिए बल्कि देखिए यह कि हमारे कितने व विपक्ष के कितने सांसद हैंतब वे काले इरादे से बात कर रहे थे मानो डकैतों का कोई गिरोह है जो लूट में से बंटवारे पर लड़ रहा हो. लूट ही बुरी हैयह कोई नहीं कर रहा है. अब तक विपक्ष ने भी देश से कहां माफी मांगी है कि इस लूट का छोटा-बड़ा हिस्सा ले कर हमने भी पाप ही किया !             

सर्वोच्च न्यायालय ने इस संवैधानिक मुकदमे की जैसी उपेक्षा की और इसे कोई 10 साल तक लटाकाए रखावह ऐसा संवैधानिक अपराध है कि जिसकी सुनवाई के लिए भी कोई अदालत होनी चाहिए थी. संविधान निर्माताओं ने कल्पना ही नहीं की कि कभी ऐसा भी होगा कि मुकदमों की भीड़ में कोई सर्वोच्च न्यायालय यह विवेक भूल जाएगा कि वह क्यों बना हैऔर देश क्यों उसका बोझ ढोता है. सर्वोच्च न्यायालय की प्राथमिक भूमिका संविधान के संरक्षण की हैउसका पहला व अंतिम काम विधायिका को संविधान की मर्यादा में बांध कर रखना है. यह दायित्व ऐसा है कि जिसे संविधान की दूसरी कोई संरचना निभा नहीं सकती है. इसलिए सर्वोच्च न्यायाधीश को रोस्टर में यह विवेक करना ही चाहिए कि उसके पास मामलों का जो अंबार पड़ा है उसमें विधायिका की संवैधानिकता की जांच करने का कौन-कौन-सा मामला है. वे सारे मामले उसकी प्राथमिकता में पहले नंबर पर होने चाहिए. उसे भीड़ में एक बना देने से देश की संवैधानिक व्यवस्था भाड़ में जा रही हैयह उसे क्यों दिखाई नहीं दे रहा उसने भी काला चश्मा तो नहीं पहन रखा है !  

संवैधानिक संरचनाएं जब अपना काम मुस्तैदी से व संवैधानिक तटस्थता से करती रहती हैं तब इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि सरकार किसकी है और उसका एजेंडा क्या है. यदि कैगईडीइंकमटैक्ससीबीआईचुनाव आयोगप्रेस काउंसिलमहिलाअल्पसंख्यक व बाल आयोगनिचले स्तर से ऊपर तक की न्यायपालिका अपना-अपना काम करती तो किसी सरकार की हिम्मत नहीं होती कि वह लोकतंत्र का गला दबोच करअपनी मनमानी करे. लेकिन इन सबने एक नहींअनेक अवसरों पर संविधान को विफल करअपनी संवैधानिक भूमिका से धोखा किया है. अदालत ने कभी सीबीआई को पिंजड़े में बंद तोता’ कहा था. कहा तो था लेकिन उसने ऐसा किया कुछ भी नहीं कि जिससे पिंजड़ा टूटेतोता बाहर आ कर बाज बन जाए. वह और ऐसी तमाम संवैधानिक संरचनाएं अपनी वर्तमान की हैसियत के लिए सरकार से उपकृत और भावी के लिए सरकार पर आश्रित रहती हैं. यह कायर गुलामी लोकतंत्र के लिए घातक है.    

 चुनावी बौंड के खुलासे से एक बार वह सड़ांध खुले में आ गई है जो इस सरकार ने पिछले 10 सालों में रचा है. अगर यहीं से भारत में संवैधानिकता की शुरुआत होनी हो तो वही सही लेकिन इस लोकतंत्र की इतनी गुजारिश ज़रूर है कि चंद्रचूड़ हों कि सूर्यचूड़सभी सुनें कि अब पीछे न लौटें. ( 23.04.2024)

Wednesday 10 April 2024

आज की चुनौती : कल का दायित्व

 घटनाएं इस तेजी से घट रह हैं मानो किसी ने उन्हें चर्खी पर चढ़ा दिया है; और यह खेल हम सबने बचपन में खेला ही है कि सतरंगी चर्खी को जब हम  तेजी से घुमाते हैं तो सारे रंग एकरूप हो जाते हैं और दिखाई देता है सिर्फ सफेद रंग का नाचता गोलाकार ! हमें आज तेजी से बदलती घटनाएं भी ऐसी ही दिखाई दे रही हैं. इस तीखी व तेज चक्करघिन्नी में सारे रंग एकरूप हो गए हैं - सिर्फ एक फर्क के साथ कि अब हमारे सामने जो चर्खी घूम रही है वह सफेद नहीं, काली है. यह बता रही है कि देश की तमाम राजनीतिक-सामाजिक-वैधानिक-पेशेवर ताकतों ने मिल कर इस देश को, इसकी व्यवस्था को और इसके संविधान को किस कदर छलने का जाल बुन रखा है.    

हमारे सामने दो तरह के लोग खड़े हैं : एक वे कि सत्ता जिनका आखिरी सत्य है. वे सब प्रधानमंत्री की रहबरी में सत्ता की अपनी भूख शांत करने के लिए सारे धतकर्म करते जा रहे हैं. यह चिंता का विषय तो है लेकिन किसी दूसरे धरातल पर. मेरी पहली व सबसे बड़ी चिंता यह है कि राजनीतिक सत्ता जिनका अंतिम लक्ष्य नहीं हैवे क्या कर रहे हैंक्या कह रहे हैं क्या खोज रहे हैं वे और क्या पा रहे हैं वेइनमें अधिकांश वे कायर लोग हैं जो जिंदगी भर सुविधा व संपन्नता के रास्ते तलाशते रहते हैं और किसी हद तक उसे पा भी लेते हैं. पा लेने के बाद वे ताउम्र सावधान रहते हैं कि कहीं से कुछ ऐसा न हो कि यह छिन जाए. इनमें न बौद्धिक ईमानदारी हैन रत्ती भर साहस ! ये सब खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं - शुद्ध शाब्दिक अर्थ में ! इनकी सारी चातुरीसारा ज्ञानसारी व्यवहार कुशलता आदि का कुल निचोड़ यह है कि जीने के सुविधाजनक रास्ते तलाशने में बुद्धि का इस्तेमाल कैसे किया जाए. कभी किसी से गांधी से पूछा था : आपको सबसे अधिक उद्विग्नता किस बात की होती है उन्होंने जो कहाउसका मतलब था: मैं इस बुद्धिजीवी वर्ग’ की बढ़ती जमात से सबसे अधिक उद्विग्न हूं ! 

नोटबंदी जैसा मूढ़ फैसला और फिर डैमेज कंट्रोल’ के लिए बार-बार बोला जाने वाला झूठजीएसटी की घोषणा के लिए संसद में आधी रात को आयोजित प्रधानमंत्री का खोखला आयोजन व उस अपरिपक्व योजना से हो रहे नुकसान को छिपाने की हास्यास्पद कोशिशेंप्रधानमंत्री का लगातार झूठ-अर्धसत्य-विज्ञान व इतिहास का उपहास करने वाली उक्तियांभारतीय समाज को खंड-खंड करने वाली जहरीली काईयां वाकवृत्तिसंविधान व न्यायपालिका की हिकारत भरी उपेक्षालोकतांत्रिक परंपराओं की धज्जियां उड़ानाविपक्ष के लिए समाज में घृणा फैलानालोकतांत्रिक समाज को पुलिसिया राज में बदलनानौकरशाही को चापलूसों की जमात में बदलनाफौज को राजनीतिक कुचालों में घसीट कर जोकरों की जमात भर बना देनाऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का नया तानाबाना तैयार करना जैसे कितने ही थपेड़े देश ने झेले हैंझेल रहा है. लेकिन इन तथाकथित बुद्धिजीवियों में से एक की भी मुखर व अडिग मुखालफत सामने आई हो तो मालूम नहीं है. इनमें से अधिकांश ढोलबाजों की जमात में नाचते मिलते हैं. 

कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र जारी हुआ. उससे हमारी लाख असहमति हो सकती है लेकिन प्रधानमंत्री का यह कहना कि उन्हें यह मुस्लिम लीग का घोषणापत्र लगता हैक्या राजनीतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं है उनका बयान बताता है कि उन्हें न तो इतिहास की धेले भर की जानकारी हैन वे उस दौर की राजनीति की कोई समझ रखते हैं. लेकिन मुझे गहरी वेदना तब हुई जब मैंने देखा कि दूसरे दिन सारे अखबारों ने प्रधानमंत्री के इस मूढ़ व जहरीले बयान को ज्यों-का-त्यों परोस दिया ! मीडिया की स्वतंत्र आत्मा होती तो वह लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी होती. वह ऐसे बयान या तो प्रसारित नहीं करती या फिर इसे खारिज करते हुए प्रसारित करती. लेकिन गोदी मीडिया’ हर समय लोकतंत्र की लाश पर ही खड़ी हो सकती है.  जो गोदी में हैं वे गुलाम ही रहेंगे.

आजादी की अनोखीलंबी लड़ाई के बाद मिले लोकतंत्र की इतनी कम कीमत लगाते हैं हम लोकतंत्र के बिखर जाने के कारण हमारे पड़ोसियों का हाल देखने के बाद भी यदि हम इसकी तरफ से इतने उदासीन हैं तो हमें किसी भी गुलामी से परहेज कैसे होगा चौतरफा विकास के तथ्य व सत्यहीन आंकड़ों का जो घटाटोप रचा गया है वह यदि सच हो तो भी हमें यह कहना चाहिए कि नागरिक स्वातंत्र्यमीडिया की आजादीव्यक्तित्वहीन न्यायपालिकाअन्यायपूर्ण श्रम-कानूनों की कीमत पर हमें कोई भीकैसा भी विकास नहीं चाहिए. पिंजड़ा सोने का हो तो भी खुली हवा से उसका सौदा नहीं हो सकता हैयह बात कितनी भी पुरानी होअंतरात्मा पर स्वर्णाच्छरों में दर्ज रहनी चाहिए. लेकिन प्रेस-मीडिया के लोगों को अपनी कलम के बारे में उतना भी सम्मान नहीं है जितना किसी भिखारी को अपने भीख के कटोरे के बारे में होता है. कुर्सी को अंतिम सत्य मानने वाले राजनीति के धंधेबाजों का रोज-रोज अपनी पार्टी छोड़ बीजेपी में जाने का क्रम मुझे शर्मसार करता है लेकिन मीडिया का रोज-रोज ईमान बदलना अकुलाहट से भर देता है. आजाद भारत के कोई 75 सालों में जिस जमात ने 6 इंच की कलम उठाना व संभालना नहीं सीखाक्या उसे कभी लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जा सकता है देश में मीडिया जैसी कोई संकल्पना आज बची ही नहीं है. धंधा है जो धंधे की तरह चलता है. इस रोने का कोई औचित्य नहीं है कि हम पर मालिकों का दवाब है और नौकरी छोड़ने की हमारी स्थिति नहीं है. आप बताएक्या कभी 10 पत्रकारों ने भी मिल कर यह बयान निकाला है कि हम दवाब में काम करने को तैयार नहीं हैं और ऐसे दवाब में काम करने से अच्छा होगा कि हम सब त्यागपत्र दे दें. ऐसी कोई नैतिक आवाज कहीं से उठे तो !  

धंधेबाजों का पूरा कुनबा चुनावी बौंड के घोटाले को सार्वजनिक होने से रोकने में किस तरह लगा थायह सारे देश ने देखा. सरकारी तंत्र इसमें क्यों लगा थायह बात तो समझी जा सकती है लेकिन सत्ता के इशारे पर नाचते देश-दुनिया के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक की भूमिका को किस तरह समझेंगे आप उसका तो धेले भर का स्वार्थ नहीं था कि यह जानकारी देश के सामने न आए. लेकिन उसने अपनी पूरी साख दांव पर लगा दी. हर अदालती डंडे के सामने उसकी हालत गली के उस कुत्ते-सी हो रही थी जो दुम दबा कर कायं-कायं कर रहा हो. उसने कभी कोई नैतिक भूमिका लेने की कोशिश ही नहीं की. अब स्टेट बैंक एक खोखला साइनबोर्ड भर रह गया जिसे किसी भी गैरतमंद सरकार को बंद कर देना चाहिए. नई संहिता के साथ उसकी नई संरचना लाजिमी है. 

हमने यह भी देखा कि वकालत का धंधा करने वाले वे सारे नामी-गरामी लोगजिन्होंने अपनी ऐसी छवि गढ़वाई है कि वे हैं तो संविधान हैन्याय हैकैसे-कैसे तर्कों के साथ सामने आ रहे थे ! वे सब सर्वोच्च अदालत को समझा व धमका रहे थे कि चुनावी बौंड की कोई भी जानकारी सार्वजनिक हो गई तो न्यायपालिका सदा-सर्वदा के लिए कलंकित हो जाएगी तथा देश तो गड्ढे में गया ही समझिए! इन सबके पीछे करोड़ों की वह फीस बोल रही थी जो इनकी छवि का आधार है. इनकी कोई नैतिक रीढ़ बनी व बची नहीं है.

यह असली खतरा है. सरकारें आएंगीजाएंगी. जब भीजो भी सरकार आएगी उसे भी अपने ऐसे ही रीढ़विहीन लोगों की जरूरत होगी. ऐसे ही बुद्धिजीवीपत्रकारमीडिया संस्थान उसे भी तो चाहिए होंगे ! इसलिए लोकतंत्र के पैरोकारों की जमात खड़ी करना प्राथमिक शर्त है. हमें आज का दायित्व पूरा करना है और कल का दायित्व निभाने की ताकत संयोजित करनी है. दोनों काम साथ-साथ करने हैं. ( 10.04.2024 )