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सफाई पर सफाई अौर साफ कुछ भी नहीं ! 

 9.11.13
पुणे महाराष्ट्र की सांस्कृतिक नगरी है ! कभी ऐसा भी था कि पुणे अाज जो सोचता अौर करता था, महाराष्ट्र कल उसी रास्ते चलता था. कभी इसी नगरी से लोकमान्य तिलक, अागरकर अौर गोपालकृष्ण गोखले की अावाज उठती थी अौर उसकी प्रतिध्वनि सारे देश में सुनाई देती थी. लेकिन वह पुणे अब इतिहास की किताब में ही मिलता है. अाज पुणे की चर्चा जिन गलत कारणों से हवा में है उनमें एक है पाखानाघरों की मनुष्यों द्वारा सफाई की इतिहास बन चुकी प्रथा कावहां जारी रहना ! 
  सूखे पाखानाघरों में जा कर,  हाथ से मैला उठाना अौर सर पर  ढोना अादि वे प्रथाएं थीं जिनका अंत हो चुका है, ऐसी घोषणा सरकारें करती रहती हैं अौर बार-बार ऐसे दावों का खोखलापन जाहिर करने वाली सच्चाइयां सामने अाती रहती हैं. महाराष्ट्र सरकार ने १९९३ में यह घोषणा की कि यह प्रथा हमारे यहां से पूरी तरह समाप्त कर दी गई है. फिर २०११ में यह  जानकारी सामने अाई कि महाराष्ट्र में १,१७,६८८ पाखानेघर ऐसे हैं जिनमें सफाई अौर पानी का कोई इंतजाम नहीं है. यह अांकड़ा सामने अाते ही सरकार के मन में अौर नौकरशाहों के जेहन में यह सवाल उठना चाहिए था कि अगर राज्य में ऐसे पाखानेघर, इतनी बड़ी संख्या में हैं तो इनकी सफाई कैसे होती होगी अौर कौन करता होगा ? सवाल उठता तो जवाब भी देर-सबेर अाता ही लेकिन सरकार ने इनकी तरफ ध्यान देने के बजाए इन सवालों को तुरंत दफनाने की शुरुअात कर दी.  

एक बड़ा ही अाकर्षक मंजर सामने दिखाया गया कि पुणे के सफाई कर्मियों ने अपना अलग संगठन बना लिया है अौर कल तक जिस पेशे में उनका कोई भविष्य नहीं था, अब उसी पेशे में से उनकी अच्छी कमाई हो रही है. २००६ में इस पेशे में लगे कर्मियों की सहकारी समिति या कोअॉपरेटिव को सरकार ने मान्यता दी अौर पुणे के ४ लाख घरों के पाखाने की सफाई का ठेका इन्हें दे दिया गया. इनकी पोशाक तै की गई, हाथों में दस्ताने पहनाए गये तथा सबको लुढ़काने वाली गाड़ी दी गई ताकि वे मैला ढो कर, जब जहां बने, वहां पहुंचा सकें. यह भी तै हुअा कि इस काम के लिए इन्हें ३६ रुपये प्रति माह, प्रति घर मिलेंगे. भयंकर कुव्यवस्था व मानसिक दरिद्रता में से निकली हुई यह व्यवस्था थी जिसे इस पेशे में लगे अौर इस सहकारी समिति के २,३०० सदस्यों ने हाथोहाथ लिया ! कूड़ा-कचरा, प्लास्टिक के थैले अादि जमा करने वाले भी इसमें अा जुड़े अौर सर्वाधिक उपेक्षित व घृणित माना जाने वाला काम एक रोजगार की शक्ल लेने लगा. अामदनी भी बढ़ी अौर काम को एक उद्योग की शक्ल भी मिली.

गंदगी अौर कचरे की सफाई अौर उनको ठिकाने लगाना हमारे अाधुनिक समाज की सबसे पुरातन लेकिन बड़ी-से-बड़ी होती जा रही समस्या है. अालीशान भवनों की चमकती सुव्यवस्था में हमने जिसे छुपा दिया है, अपने सोने के कमरे के भीतर जो सबसे साफ-स्वच्छ जगह होती है  वह शौचालय होती है जिसमें सुगंधी फैलाने वाले स्प्रे छिड़क कर, सुंदर-से-सुंदर टाइलें लगा कर हमने अपनी रोज-रोज की गंदगी के नहीं होने का भ्रम पाल लिया है.  लेकिन जो छिपी होती है, वह गायब तो नहीं होती है ! वह अपने सबसे वीभत्स व विकराल रूप में अगर कहीं दिखाई देती है तो ठीक वहां जहां हमारे घर, मुहल्ले, कस्बे या नगर की सीमा पूरी होती है ! हम अपने महानगरों, बड़े शहरों, शहर बनने की कश्मकश में लगे कस्बों अौर फिर अपने अनगिनत गांवों को करीब से देखें तो पाएंगे कि हमने एक बहुत ही बड़ा, कल्पनातीत बड़ा कूड़ाघर बना लिया है अौर हमारे इस कूड़े को संभालने का उद्योग चला कर, अपनी कूड़े जैसी जिंदगी को कोई अाधार देने की कोशिश में लगे लाखों लोगों का सवाल चुनौती की तरह सामने खड़ा है. 

अभी-अभी संयुक्त राष्ट्रसंघ ने कूड़ा-जमा करने बारे में जो निर्देश-पत्र जारी किया है, उसमें पुणे की सहकारिता वाली पहल को प्रमुखता से जगह दी है. मल-निस्तारण व कूड़ा-संग्रह जैसे कठिन नाम दे कर दुनिया भर की सरकारें व नगरपालिकाएं जो काम कर रही हैं उसकी सबसे बड़ी चुनौती है कि इसे जमा करने वाली मानवीय शक्ति कहां से लाई जाए, जमा करने की इस पूरी पद्धति को कैसे सस्ता-से-सस्ता बनाया जाए ताकि यह चलाया जा सके अौर िफर यह भी कि जमा किया हुअा मल व कूड़ा कैसे निबटाया जाए ताकि अगली सुबह की अावक के लिए जगह बनी रहे ! महात्मा गांधी ने इस समस्या को किसी व्रत की तरह लिया था अौर उनके अाश्रम में अाने व रहने वाले हर व्यक्ति के लिए मल व कूड़े की सफाई अनिवार्य थी जिसका नेतृत्व वे स्वयं करते थे. उनका सूत्र कुछ इस तरह काम करता था : कम-से-कम बनाअो: सामूहिक अभियान के रूप में, अधिकाधिक हाथों से इसे समेटो अौर जो पर्यावरण को सिंचित करे, वैसी इसकी व्यवस्था करो ! कूड़े से कांचन नाम की ऐसी पहल कभी सर्वोदय अांदोलन के दैनिक कार्यक्रमों में शरीक होती थी. अाज वह सब भी इतिहास के कूड़ाघर में जमा हो गया है. 

करोड़ों-करोड़ की अाबादी का एक ही जगह केंद्रित होते जाना, अधिकाधिक कूड़ा बनाने वाली उसकी तथाकथित अाधुनिक जीवन-शैली का िवस्तार करते जाना हमें जैसे कूड़े-कचरे की अंधेरी, अनंत गहराई व चौड़ाई वाले रेगिस्तान में ला पटकती है. पुणे के प्रयोग की विशेषता इसी में है कि उसने इसे एक संगठित पेशे में बदल दिया है जिसका खर्च भी कम है अौर पर्यावरण पर जिसका बुरा असर नहीं पड़ता है. पुणे में कचरा-व्यवस्थापन के ज्वाइंट कमिश्नर सुरेश जगताप कहते हैं कि हमारी इस पहल से पुणे शहर प्रति वर्ष २.२ मीलियन डॉलर की बचत कर रहा है ! इस व्यवस्था से मल व कूड़ा अपनी-अपनी जगह पर ही जमा किया जाता है, वहीं उसकी छंटाई भी हो जाती है अौर वहीं से उसकी ढुलाई करना अासान व सस्ता भी होता है. 
पुणे की इस व्यवस्था को ही अाधार मान कर फिलीपींस अौर नेपाल ने भी काम शुरू िकया है. कोलंबिया की राजधानी बगोटा ने अपने १५००० कूड़ा जमा करने वालों को सरकारी सेवा का रूप दे दिया है अौर उन्हें प्रति टन ४४ डॉलर के हिसाब से मेहनताना दिया जा रहा है. ब्राजील में भी इस काम को सरकारी मान्यता मिली है अौर कूड़ा इकट्ठा करने का पेशा संगठित रूप ले रहा है. इनकी सहकारी समितियों को सफाई के अाधुनिक साधनों की खरीदी के लिए सरकार अार्थिक मदद, कर्ज अादि दे रही है. अब निजी कंपनियां इसमें उतर रही हैं जो अाधुनिक यंत्रों की मदद से कचरे में से तरह-तरह के उत्पाद बनाने में लगी हैं. अाज कल सामानों को जिस तरह की बोतलों, डब्बों या थैलों में बंद कर, उन पर रंगीन, खूबसूरत पन्नियां अादि लगा कर ग्राहक को देने का रिवाज चल पड़ा है, उसका फायदा यह हुअा है कि कूड़े से तरह-तरह के सजावटी सामान तैयार होने लगे हैं. कूड़ा या मल सफाई करने वालों की सहकारी समितियों को िनजी कंपनियों की इस पहल से नुकसान हो रहा है. 
हमारे देश में इस समस्या का एक दूसरा गहरा पहलू भी है कि यह पेशा जातीय अाधार पर चलता है. घर की अौर उसके अासपास की सफाई करना हर मनुष्य का बुनियादी कर्तव्य है, होना चाहिए अौर इसकी विज्ञान व कानूनसम्मत व्यवस्था बनाना किसी भी समाज व सरकार की पहली कसौटी होनी चाहिए. लेकिन हमारी सामाजिक कुप्रथा ने इसे कुछ जातियों के सर पर थोप दिया है अौर वे इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते रहने को अभिशप्त बना दिए गये हैं.  ऐसे ही अभिशप्त लोगों का एक प्रतिनिधि कहता है : “ हम जाति-प्रथा की सबसे अाखिरी सीढ़ी पर हैं. पता नहीं कबसे हमारी जाति के लोग मैला उठाने का काम करते हैं ! हमारे ही मत्थे यह काम रखा गया है. मैं बाजार के इलाके में मल सफाई का काम करता हूं तो मुझे सिर्फ पाखानाघरों में उतर कर ही सफाई नहीं करनी पड़ती है बल्कि सड़कों पर अौर फुटपाथों पर जो पाखाना अादि कर जाते हैं, वह भी साफ करना पड़ता है.” 

सुधीर जंजोट भी इसी जाति से अाते हैं. वे अपनी जाति के नेता भी हैं अौर पुणे नगरपालिका के कारपोरेटर भी हैं. वे कहते हैं: “ मनुष्य द्वारा मल की सफाई का मतलब सूखे पाखानाघरों की सफाई तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें पुणे शहर के उन पाखानाघरों की सफाई भी शामिल है जिनमें पानी की अपर्याप्त व्यवस्था है. इनकी सफाई विकटतर स्थिति बना देती है. १९९३ से, जब राज्य सरकार ने इस प्रथा पर रोक लगाने का एलान किया , तबसे अाज तक कितने ही सरकारी निर्देश-पत्र (जीअार) जारी हो चुके हैं जिन्हें न कोई पढ़ता है, न मानता है अौर न जिन पर कोई अमल करता है.” सुधीर व्यंग्य से कहते हैं : “ लोग एक ही काम करते हैं - ऐसी प्रथा पुणे में नहीं है, इसका दावा करते हैं !” 

लोग बढ़ते जा रहे     हैं; मशीनें बढ़ती जा रही हैं;  महानगर-शहर- गांवों के सारे ही उपलब्ध जलश्रोत दूषित होते जा रहे हैं; महानगरों में रेल पटरियों पर, खुले नालों में पाखाना करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है; गांवों में पगडंडियों पर चलने की हालत नहीं रह गई है. कूड़ा बढ़ता जा रहा है अौर सर विद्या नायपॉल का वह कथन सच साबित होता जा रहा है कि भारत एक विशाल, खुला शौचालय है ! सर नायपॉल अगर मुझे इजाजत दें तो मैं इसमें इतना फर्क जरूर करना चाहूंगा कि भारत की जगह दुनिया कर दूं ! ( 9.11.13)


छोटा मुंह बड़ी बात 


 5.11.13

उम्र अौर अनुभव से जो बच्चे हैं, वे जब बड़ों-सी बातें करते हैं तब अाल्हादकारी अानंद से मन भर उठता है.  यह कुछ वैसा ही है जैसा तब होता है जब बच्चा पहली बार अपने पांवों पर खड़ा होता है अौर डगमगाते दो-एक दिशाहीन कदम बढ़ाता है. हमारे अपने पांवों में रोमांच हो अाता है ! हम जानते हैं कि ये डगमगाते दो-एक कदम कहीं पहुंचेंगे नहीं, अगले पल ही गिर पड़ेंगे लेकिन उन लड़खड़ाते दो-एक कदमों में ही अपने भावी की पूरी यात्रा देख लेते हैं हम ! मानवीय सभ्यता का पूरा इतिहास, बगैर किसी प्रकार के भेदभाव के, उन्हीं डगमगाते दो कदमों के सुदृढ़ होने की कथा है. लेकिन यहां हिंदी के छोटा मुंह बड़ी बात मुहावरे से जो शीर्षक बनाया गया है, वह कुछ दूसरा ही कहता है. यह उन बच्चों के बारे में है जो अपनी अक्ल से बहुत अागे के अौर ज्यादा दावे करते हैं, जो अपने पांव से बड़े जूते में पांव धरते हैं अौर खुद को नहीं, जूते को दोष देते हैं; जो अपनी छाया को अपना असली कद मान लेते हैं अौर फिर उसे नापने में जुट जाते हैं. जो इतिहास पढ़ते भी कम हैं, समझते उससे भी कम हैं लेकिन इतिहास बनाने अौर बदलने की जल्दीबाजी में इतने होते हैं कि यही भूल जाते हैं कि इतिहास पढ़ने, समझने अौर उसकी गहराइयों में उतरने का क्रम समाज से खत्म नहीं हुअा है. इसलिए छोटा मुंह बड़ी बात करने वाले नरेंद्र मोदी उपहास के पात्र बनने लगे हैं. 
चुनावी हवा में उड़ते राजनीतिज्ञों के चरित्र की पहचान कराते हुए अाचार्य विनोबा भावे ने एक बड़ा ही मारक सूत्र बनाया था :  अात्मस्तुति, परनिंदा अौर मिथ्या भाषण जो करे वह चुनाव प्रवीण ! अगर इस सूत्र पर खरा उतरने की कोशिश ममें मोदी हों तब तो हमें कुक्ष नहीं कना है लेकिन अगर वे देश की जनता को अक्लहीन भीड़ मात्र समझते हैं अौर सोचते हैं कि वे  कुछ भी कह व कर के निकल जाएंगे तो हमें देश से कुछ कहना है. सरदार वल्लभभाई पटेल के बारे में इन दिनों मोदी जो कुछ कह रहे हैं, उनका इतिहास या सच्चाई से कोई नाता नहीं है. जैसे यह कि अपने गृहमंत्री  व उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल के निधन पर जवाहरलाल नेहरू उन्हें श्रद्धांजली देने नहीं गये ! इतिहास में लिखा है कि सरदार के निधन पर राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद अौर प्रधानमंत्री नेहरू दोनों मुंबई पहुंचे थे. सरदार व नेहरू, दोनों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वे हस्तियां हैं कि जिन्हें  भुलाना या जिन्हें छोटा-बड़ा बना कर तौलना बड़ी मूर्खता होगी. दोनों के बीच कई स्तरों पर फर्क था लेकिन दोनों जहां एक ही धरातल पर खड़े होते थे वह थी ईमानदारी ! दोनों मानते थे कि समाज का, देश का काम करना हो तो सत्ता की ताकत जरूरी है, दोनों ने गांधीजी से दूर जा कर अौर उनकी अनसुनी कर देश का विभाजन स्वीकार किया था अौर अाजाद मुल्क की सत्ता की सबसे बड़ी दो कुर्सियों पर बैठे थे. लेकिन कैसे बैठे थे ! जैसे किसी ने जलती ज्वाला में डाल कर, उनका अग्नि-संस्कार किया हो ! लेकिन दोनों में से कोई कभी विचलित नहीं हुअा. नरेंद्र मोदी जिस संघ परिवार से अपनी रिश्तेदारी का दम भरते हैं अौर जिसकी रजामंदी से वे प्रधानमंत्री की कुर्सी के करीब दिखाई दे रहे हैं, इसी विचारधारा ने वह घृणा का जहर फैलाया था जिसमें देश  टूटा, जला,विपन्न हुअा अौर अंतत: गांधी की बलि ले कर बुझा ! यह पूरा दौर इन दोनों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर पार किया था अौर देश को किनारे ले अाए  थे. तब इनमें से कोई भी अंध सत्ताकांक्षी होता तो यह देश या तो पाकिस्तान के रास्ते जाता या नेपाल के रास्ते या उस रास्ते जिस रास्ते बाबरी मस्जिद के विध्वंसकों ने देश को ले जाने की कोशिश की थी. लेकिन उस दहकते दौर में भी भारत ने अपना विवेक अौर रास्ता नहीं खोया, लोकतंत्र बनाए रखा अौर देश की एकता सुदृढ़ की तो इसका एकमात्र श्रेय गांधी की छाया में पली-बढ़ी इनकी अास्था को अौर दोनों के परस्पर विश्वास को जाता है ! दोनों में कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सवालों पर मतभेद थे जो वक्त के साथ-साथ गहरे ही होते गये अौर अंतत: एक दिन वह भी अाया जब दोनों ने भारतीय लोकतंत्र की पहली सरकार से अपना-अपना त्यागपत्र एक-दूसरे को भेज दिया !  फिर वह दिन भी अाया जब हमारी गोली खाने से ठीक पहले बूढ़े गांधी सरदार को सुन रहे थे. ३० जनवरी की संध्या बेला थी. भारत का गृहमंत्री बिरला भवन के उस छोटे-से कमरे में, गांधी के सामने जमीन पर बैठा था अौर गहरी पीड़ा के साथ कह रहा था -- बापू, अब सरकार में जवाहरलाल के साथ काम करना बहुत मुश्किल हुअा जा रहा है. मैं कदापि नहीं चाहता हूं कि किसी भी स्थिति में, मेरे कारण जवाहर की हैसियत कमजोर पड़े.  इसलिए मुझे अाप सरकार से अलग हो जाने की अनुमति दें. बापू ने भी वैसी अांतरिक वेदना से सब सुना अौर फिर अपनी घड़ी दिखाते हुए बोले - सरदार, प्रार्थना में देर हो रही है, इसलिए इस पर कल बात करता हूं ! ... गांधी के लिए वह कल फिर कभी नहीं अाया लेकिन सरदार अौर नेहरू दोनों के लिए वैसे कई कल अाए जब दोनों के बीच गांधी नहीं थे अौर मतभेदों का रेगिस्तान फैलता जा रहा था. लेकिन उस दिन गांधी ने जिसकी अनुमति नहीं दी, उसका दोनों ने पालन किया ! यह सत्ता की स्पर्द्धा नहीं थी, जैसी अाज सब तरफ, सारी मर्यादाएं भूल कर, जारी है बल्कि यह दो उद्भट स्वतंत्रता सेनानियों के बीच राष्ट्रहित की समझ का फर्क था जिसे दोनों पचा नहीं पा रहे थे. अाज इतिहास बता रहा है कि तब जो गांधी ने चुना अौर तब जो दोनों ने किया, वही सर्वोत्तम था अौर यह राष्ट्र कभी इन दोनों का ऋण चुका नहीं सकेगा.  
बराबरी के ऐसे लोग दूसरे भी तो थे न - राजेंद्रबाबू, मौलाना अाजाद, अाचार्य कृपालानी, राजाजी, जयप्रकाश,लोहिया वगैरह ! नेहरू से इनकी भी एक राय नहीं रही ! इनके बीच के मतभेदों की बात मोदी उस भाषा में क्यों नहीं करते जिस भाषा में वे सरदार अौर जवाहरलाल की करते हैं ! इसलिए कि वे गुजराती कार्ड खेल कर, गुजरातियों के मन की संकीर्णता को उभारना चाहते हैं; इसलिए कि वे संघ परिवार की बनाई लेकिन अब तक बन नहीं पाई उस छवि पर नया रंग लगाना चाहते हैं कि सरदार, गांधी अौर जवाहरलाल की विचारधारा के नहीं, हिंदुत्व की विचारधारा के करीब थे. कोई नरेंद्र मोदी देश को यह नहीं बताता है कि वह सरदार के गृहमंत्री का काल था जब राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर कानूनी प्रतिबंध लगा था अौर वह दस्तावेज किसी के भी देखने के लिए मौजूद है कि ऐसा प्रतिबंध लगाने की स्वीकृति देते हुए, सरदार ने टीप लगाई है कि गांधीजी की हत्या हिंदुत्ववादी विचारधारा के संगठनों द्वारा फैलाई घृणा के कारण हुई. 
भारतीय समाज में सांप्रदायिकता के बारे में सरदार अौर गांधी की समझ में फर्क था.     अौर कहूं तो गांधी की सोच के साथ चलने वाले थे ही कितने ? लेकिन अगर सरदार के मन में कहीं सांप्रदायिकता का वैसा विष होता जैसा बनाने-फैलाने में संघ परिवार लगा हुअा है तो क्या सरदार गंाधी के पास टिक पाते ? गांधी के मूल विश्वासों को चुनौती देने वाले कौन उनके पास टिक पाया ?  जिन्ना, सुभाष टिक पाए क्या ? अौर जवाहरलाल ही उस अाग से बच पाए क्या जब गांधी ने अाजादी के बाद के भारत की परिकल्पना के बारे में, दस्तावेजी बातचीत करने अौर इतिहास में उसे दर्ज कराने की सीधी चुनौती  उन्हें लिख भेजी थी अौर यह भी लिख दिया था कि इस प्रश्न पर हमारे रास्ते अलग होते हों तो हमें वह भी कर लेना चाहिए ? कभी समय निकाल कर हम यह काम करेंगे, ऐसा कह कर ही जवाहरलाल ने अपनी जान बचाई थी. मोदी यह सारा इतिहास जानते हों या न जानते हों, देश यह जाने, ऐसा वे हर्गिज नहीं चाहते हैं.  इसलिए वे उस सरदार को उभारने में लगे हैं जिनसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेज हो ! देश भर से लोहा जमा कर वे सरदार की जैसी मूर्ति बनवाने में लगे हैं, उसमें वे सरदार की नहीं इस्पाती छवि नहीं, अपनी वह छवि चमकाने का प्रयास कर रहे हैं कि जिसमें वे बला के निर्णय-वीर कहे जाते  हैं - मोदी जो कहते हैं, वह करते हैं  !  भला हो, अगर ऐसा है तो, लेकिन कोई बताए कि इसमें सरदार कहां अाते हैं ?  अपनी गोटी लाल करने के लिए जिसका जब,जहां अौर जैसा इस्तेमाल हो सके करना संघ परिवार की पुरानी रणनीति रही है. मोदी उस परिवार के सबसे नौसिखुअा खिलाड़ी हैं.
दिल्ली में सिखों के खिलाफ हुई सांप्रदायिक हिंसा का जिक्र कर संघ परिवारी कांग्रेस को कठघरे में बहुत खड़ा करते हैं ताकि गुजरात की अपनी नंग छिपा सकें. अभी, जब राहुल गांधी ने कहा कि वे अपनी दादी की हत्या के बाद अपने गुस्से पर लंबे समय तक काबू नहीं कर पाए थे, तब उनका उपहास करते हुए मोदी ने पूछा था कि सिखों के गुस्से की बात राहुल को याद नहीं अाई क्या ? लेकिन इतिहास उलटते हैं हम तो उसमें एक वह पन्ना भी मिलता है जिसका जवाब अगर कहीं से अाना है तो संघ परिवार से ही अाना है ! वह पन्ना लिखा है संघ परिवार से अभिन्न रहे नानाजी देशमुख ने ! इंदिराजी की हत्या के बाद फैले व फैलाए गये सिख विरोधी दंगों को जरूरी, जायज अौर हिंदुत्व के लिए अनिवार्य मानते हुए, देश के राजनीतिज्ञों को खास तौर पर संबोधित उस पत्र में नानाजी कहते हैं कि देश की एकता के लिए राजीव गांधी जरूरी हैं. उनके पत्र से साफ पता चलता है कि उन दंगों में कांग्रेसी तो शामिल थे ही लेकिन संघ परिवार  वालों का भी हाथ था. मोदी उस बारे में कुछ भी कहते नहीं हैं ! इंदिरा गांधी को संसद में दुर्गा कहने वाले अटलबिहारी वाजपेयी को भी यह बताना ही चाहिए कि सत्ता की मजबूरियां क्या-क्या करने को मजबूर करती हैं ! अगर वैसी मजबूरी नहीं होती तो गुजरात दंगों के बाद मोदी मुख्यमंत्री बने रहते क्या ? अटलजी ने उन्हें सार्वजनिक रूप से मुख्यमंत्री पद के सर्वथा अयोग्य घोषित कर दिया था. तब कहां था देश, कहां थी सरकार अौर कहां थी वह राजनीतिक नैतिकता कि जिसका रोना रोने वे मोदी पटना पहुंचे जो कभी इतने सालों अपने बगल की गुलबर्गा सोसाइटी में नहीं पहुंच पाए ? कितना क्षद्म अौर कैसा पतन है हमारे सार्वजनिक जीवन का जिसे भारतीय जनता पार्टी हवा दिए जा रही है !  
चुनाव अाएंगे, जाएंगे ! प्रधानमंत्री कितने ही समय की कब्र में दफन हो जाएंगे. लेिकन देश के सार्वजनिक जीवन में घोला जा रहा यह जहर लंबे समय तक हमें अभिशप्त बनाए रखेगा.  छोटा मुंह बड़ी बात का सारा रोना यही है  कि तुम वह सब सहने को अभिशप्त हो जाते हो जो  वैसे न तो सहा जाता है अौर न सुना जाता है. ( 5.11.13)      

खोदो, खोदो, गहरे खोदो ! 

1.11.13

कितनी तो बातें हैं कि जो हमें पता नहीं हैं; अौर इसलिए ही मैं कहता हूं कि खोदो, खोदो, गहरे खोदो ! जैसे कि हमें कहां पता है कि अब महानस्वप्नदर्शी बाबा शोभन सरकार क्या सपना देखते होंगे ?; जैसे कि  हमें कहां पता है कि अहर्निश प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वाले, मार्क्स की सर्वहारा की परिभाषा पर सौ टंच खरे उतरने वाले नरेंद्र मोदी ने संत सोभन महाराज के सपनों के बारे में पहले जो कहा अौर फिर पलटी खाते हुए दोबारा जो कहा, उससे भी उम्दा तीसरा बयान क्या देने की सोचते होंगे ?; अौर हमें कहां पता है कि सत्ता के स्वर्ण-मृग के खोने की अाशंका से कांपती, पगलाई कांग्रेसी जमात अब किस शोभन सरकार के सपनों के पीछे चल कर, २०१४ के चुनाव की वैतरिणी पार करने की सोचती होगी, जबकि उसके पास न राम हैं, न सीता, न लक्ष्मण अौर न कोई केवट !  कांग्रेस को दरअसल दरकार किसी शिखंडी की है ! लेकिन शिखंडी अाज के दौर में सबसे नायाब हैं जिन्हें अपनी कीमत भी मालूम है अौर अपनी भूमिका भी ! वे किसी ऐरे-गैरे के पास फटकते भी नहीं है अौर मुंहमांगी कीमत के बिना न कुछ करते हैं, न कहते हैं. अाज की राजनीति में इन्हें नेपथ्य-पटु कहते हैं. ( बकौल दुष्यंत कुमार : दोस्तो, अब मंच पर सुविधा नहीं है / अाज कल नेपथ्य में संभावना है ! ) अाप चाहें तो गुजरात से दिल्ली तक ऐसे चेहरे देख सकते हैं - कुछ शाह हैं, कुछ सिंह, कुछ पटेल, कुछ अौर !

तो यह सब शुरू हुअा तब से जबसे शोभन सरकार ने रात के एकांत में, नींद के अागोश में डूबी अपनी चेतना में देखे स्वप्न की बात सार्वजनिक की अौर उत्तरप्रदेश के उन्नाव को भारत की राजधानी बना दिया ! उनके सपने में साक्षात जगनियंता प्रकट हुए अौर उन्होंने बाबा शोभन से कहा - वत्स, इधर उन्नाव के डौंडियाखेड़ा के महल में सोने का अकूत भंडार दबा पड़ा है अौर उधर मनमोहन की मानवता कराह रही है ! जा, वस्त जा, दबा सोना बाहर निकाल अौर मेरे भक्तों की मुसीबत कम कर ! यह एकदम शास्त्रीय बात थी - भगवान ऐसे कामों में कभी हाथ गंदे नहीं करते हैं, किसी को माध्यम बनाते हैं ! मतलब बिचौलिया !! बिचौलिया संस्कृति अब भाई लोगों ने भले गंदी बना दी है नहीं तो यही हमारी भारतीय संस्कृति का अाधार हुअा करती थी. सो सोभनजी ने सुपात्र खोजे अौर सबको काम पर लगा दिया. डौंडियाखेड़ा में १९वीं शताब्दी केमहाराजा राजाराव रामबक्श सिंह का महल है जिसके नीचे १००० टन सोना दबा पड़ा है, ऐसा सोभन सरकार को भगवान ने बताया. अाधुनिक अर्थशास्त्र के प्रकांड पंडितों ने जैसा अनर्थशास्त्र रचा अौर देश को अंतहीन कड़की की हालत में डाल दिया है, उसमें १००० टन ईश्वरीय सोना मिलना तो जैसे पारसमणि मिलना है ! 

रीढ़ अौर व्यक्तित्वविहीन सरकार ने शोभन-स्वप्न की खुदाई शुरू करवा दी !  पुरातात्विक महत्व के स्थलों के उत्खनन अौर योजना बनाने में जो सरकारें हमेशा बेढ़ब रही हैं, वे ही तब बेहद सक्रिय व कार्यक्षम हो जाती हैं जब ऐसे किसी अासमानी इलहाम की खोजबीन करने का सरकारी इशारा हो ! अौर यहां तो मामला शोभनजी के भक्त, कृषि व खाद्य राज्यमंत्री चरणदास महंत का था. चरणदासजी सच में शोभनजी के चरणदास हैं ! सरकारी अादेशों का कम लेकिन नेपथ्य के लोगों की भूमिका का महत्व खूब समझने वाले भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के काबिल अधिकारियों ने जगह का मुअायना किया अौर शोभनजी के सपनों को साकार करने का पूरा वैज्ञानिक अाधार पाया ! खुदाई शुरू हो गई. एक-दो दिन नहीं पूरे १५ दिनों तक खुदाई चलती रही अौर पुरातत्व विभाग की लखनऊ सर्कल के अधिकारी  प्रवीण कुमार मिश्र जैसों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि जो मिल रहा है वह सोने से कम महत्वपूर्ण नहीं है. यह बिचौलिया-चरित्र है जो बड़ी बेशर्मी से वह सब कुछ करता-कहता है जिसे कहने-करने में शर्म भी अानी चाहिए अौर अपराधी बनाए जाने का डर भी होना चाहिए. लेकिन जब भक्त मंत्री  पीठ पर हो तब किसे अौर काहे का डर ! यह भी कहना नहीं है कि जो मिला है खुदाई में वह बेकार है. किसी पुराने दौर की ईंट से बनी दीवार, कांच अौर चूड़ियों के टुकड़े, कुछ पुरानी अाकृतियां - पुरातत्व की दृष्टि से इन सबका महत्व है ही कि लेकिन प्रवीण कुमार से यह क्यों न पूछा जाए कि यह खुदाई क्या इन चीजों को पाने के लिए शुरू कराई गई थी ? वह अादेश क्या है कि जिसके तहत इस खास जगह पर खुदाई का फरमान निकाला गया ? क्या पुरातत्व विभाग की किसी सूची में इस स्थान का नाम है कि जहां इतिहास की कोई दुम दबी होने का अंदेशा विभाग को रहा हो ?  अगर नहीं तो क्या शोभन सरकारों के स्वप्न ही खुदाई के अाधार होंगे ? 

उन्नाव की खुदाई के साथ-साथ कई अन्य विभूतियों को, कई तरह के स्वप्न अाए अौर कई जगह लोगों ने अपने स्तर पर ही खुदाई शुरू कर दी. सभी सोने के हिरण के पीछे भाग रहे  थे अौर वह मायावी सबको छलता जा रहा था. उन्नाव में जब कुछ भी हाथ नहीं अाया तब सरकार अौर पार्टी दोनों ने अपना पल्ला झाड़ लिया कि यह खुदाई पुरातत्व विभाग का अपना फैसला था, सरकार से उसका कोई लेना-देना नहीं है ! कोई पूछे कि पुरातत्व विभाग क्या सरकारी विभाग नहीं है ? क्या वह जनता के गाढ़े पैसों के बल पर नहीं चलता है ? जनता के वोट से बनने वाली अौर जनता के नोट से चलने वाली सरकारी व्यवस्था के प्रवीण  कुमार जैसे कल-पुर्जे ऐसा कहने की हिम्मत करते ही हैं तभी जब उन्हें पता होता है कि बिचौलिया संस्कृति उनकी रक्षा के िलए मौजूद है ! कांग्रेस के प्रवक्ता पी.सी. चाको ने जब बयान दे कर कहा कि कांग्रेस पार्टी इस खुदाई से कोई सरोकार नहीं रखती है तब शोभन सरकार के किसी बिचौलिए स्वामी अोमजी अवस्थी ने हुंकार भरी ! वे बोले - अापको सोना मिलेगा कैसे जबकि अापने हमारे बताए किसी निर्देश का पालन नहीं किया ! हमारे स्वामीजी जब चाहेंगे तब दो घंटे में सोना निकल अाएगा ! अब शोभन सस्वामी जी कब चाहेंगे यह तो चरणदास महंत को ही पता होगा.

हमें इतना ही पता है कि टनों मिट्टी काट-काट कर थक गये पुरातत्व विभाग ने उन्नाव में खुदाई बंद करवा दी है. वह तरह-तरह की झूठी बयानबाजी कर, इस खुदाई का अौचित्य साबित करने में लगी है. सरकार सोना न मिलने से बौखलाई, खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली भूमिका में है. नरेंद्र मोदी अब चुप्पी साधे हैं - शैतानियत की पहली पहचान मौके पे खामोशी होती है. अौर हम कह रहे हैं कि खोदो, भाई खोदो, गहरे खोदे ! अपनी नैतिकता अौर विवेक की खुदाई करो; अपनी सार्वजनिक जिम्मेवारियों की गहरी खुदाई करो; तुम जनता में जो अंधविश्वास अौर अंधेरा फैल रहे हो, करो, उसकी गहरी खुदाई करो ! यह देश अपने तथाकथित सेवकों की सेवा की अंधी खाई में गहरे दफन हो रहा है. खोदो, गहरे खोदो वह खाई कि इस देश का दम तोड़ता विवेक सांस खींचे, कमर सीधी करे अौर नेपथ्य-वीरों को झटक कर दूर फेंके. हमारा देश पुनर्जागरण की पीड़ा झेल रहा है. ( 1.11.13)  

क्या जेल से शुरू होगी कोई नई यात्रा 


04.10.13

अाशंका काफी पहले से थी, लालू प्रसाद यादव को अंदेशा भी था ! पिछले काफी दिनों वे तनाव में भी थे. राजनीति की उनकी चालें कोई खास परिणाम नहीं ला पा रही थीं. वे भी अौर उनके निकट के सभी लोग समझ तो रहे थे कि एक-एक कर रास्ते बंद होते जा रहे हैं लेिकन मन है न, जो किसी-न-किसी चमत्कार की अाशा पाले रहता है ! इसी अासमानी अाशा में इतना वक्त निकाला गया लेकिन वक्त भी, वक्त की तलाश में रहता है. लालू प्रसाद अब जेल में वक्त काट रहे हैं. 
बिहार की शायद ही कोई सड़क, गली रस्ता-दुरस्ता बचा रहा होगा कि जहां हमने भ्रष्टाचार मिटाएंगे : नया बिहार बनाएंगे का नारा साथ न लगाया हो ! इसलिए भी यह विसंगति गहरे काटती है कि लालू प्रसाद जेल भी गये तो भ्रष्टाचार के संगीन अारोप में ! लोकनायक जयप्रकाश को भी कोई मुगालता नहीं था अौर हम भी इस सच्चाई को जानते-समझते थे कि सन् ७४ की अांधी में जो अासमान चूम रहे हैं,  वे क्रांतिकारी विचार-अाचार की धरती पर चलना नहीं जानते हैं. यह सच्चाई तो अकबर इलाहाबादी ने तब ही लिख दी थी जब गांधी ने अांधी उठाई थी : मुश्ते-खाक हैं मगर अांधी के साथ हैं / बुद्धू मियां भी हजरते गांधी के साथ हैं !  लेकिन जयप्रकाश ने ही, इस अारोप के जवाब में कि सारे दिशाहीन,असामाजिक तत्वों को जमा कर जयप्रकाश क्रांति करने चले हैं, बार-बार कहा था कि अादमी बनाने का कोई कारखाना होता हो तो मुझे पता नहीं है लेकिन मैंने जीवन में यही देखा है कि अादमी को परिस्थिति की, क्रांति की भट्ठी में फेंक दो तो वह कुछ बन कर, निखर कर सामने अाता है. इसी अाशा से कितनी ही भिन्न पृष्ठभूमियों से, हेतुअों से अाए युवाअों को उन्होंने वक्त की भट्ठी में झोंक दिया था अौर सभी अपनी-अपनी तरह से उसमें से बाहर भी अाए. 
लालू प्रसाद उनमें ही एक थे. बहुत ही सामान्य पृष्ठभूमि से निकले, हमारी सामाजिक व्यवस्था की बनी सीढ़ियों में बहुत नीचे से उठे लेकिन साहसी, सरल अौर अपनी तरह की अात्मीयता रखने वाले ऐसे युवा थे तब लालू जिनकी मसें भींग ही रही थीं. इन्हीं सारे कारणों से लालू जयप्रकाश को भाते थे. लेकिन वे इस बात को ले कर काफी सजग भी थे अौर चिंतित भी कि अांदोलन के इन कर्णधारों का निजी स्तर कैसे विकसित हो, सजे-सुधरे ! लेकिन इंदिरा गांधी की सत्तालोलुपता ने इमर्जेंसी क्या लगाई, बहुत कुछ गड्डमड्ड हो गया ! वक्त दोनों के पास बहुत कम रह गया - जयप्रकाश अपनी अायु पूरी कर गये अौर हम सभी संपूर्ण क्रांति अपनी यात्रा ! 
जयप्रकाश से कुछ सीख कर दो तरह के युवा सामने अाए - 
एक वे, जो सत्ता की राजनीति में नहीं गये लेकिन समाज परिवर्तन के काम से पूरी प्रतिबद्धता से जुड़े रहे; दूसरे वे, जो सत्ता की राजनीति में पूरी तैयारी से उतरे ! जो उतरे उनमें लालू प्रसाद भी एक थे - अपने व्यक्तित्व की उन सारी विशेषताअों-छटाअों के साथ, जिनकी चर्चा हमेशा होती रही है. लेकिन जो सबसे दुखद पहलू रहा वह यह कि लालू प्रसाद समेत जयप्रकाश के सभी युवाअों को सत्ता की राजनीति ने पूरी तरह लील लिया ! १९४७ में गांधी के साथ काम कर चुके प्रमुख लोगों के साथ भी ऐसा ही हुअा था; १९७७ में जयप्रकाश के युवाअों के साथ भी ऐसा ही हुअा. इससे हम समझें कि इस दलीय राजनीति का कैसा मानवभक्षी सवभाव है ! सत्ता के इस गलियारे में इन्हें मिले वैसे लोग जिन्होंने इन्हें समझाया कि यहां बने रहना हो अौर जमाये रहना हो तो यही रास्ता है ! संपूर्ण क्रांति अादि की बातें तो बहुत दूर, राजनीति का भी एक ज्यादा नैतिक, मानवीय अौर परिवर्तनकारी रास्ता बनाया जा सकता है, यह भी सब भूल गये. अौर सत्ता ! वह तो वह रुखड़ा पत्थर है जो रगड़-रगड़ कर अापकी सारी चमक छुड़ा देता है अौर जब अाप बिल्कुल अाभाहीन बच जाते हैं तब वह अापको भीड़ में एक बना कर संतोष पाता है. 
लालू प्रसाद का यह हस्त्र एक शोकांतिका है. यह सिर्फ एक मित्र की कुघड़ी का दर्शक बनना मात्र नहीं है, एक संभावना का अंत देखने की पीड़ा भी है. वे एक बड़ी संभावना बन कर, उस समाज से उभरे थे जहां से कोई प्रतिभा अाती भी है, यह मामने को यथास्थिितवादी समाज तैयार नहीं होता है. वे कल भी अदालत में यही कर रहे थे कि उनका कोई अपराध नहीं है लेकिन जिस संसद में बैठ कर, जिस तरह के कानून बनाने में उन्होंने ने भी शिरकत की है, वह संसद अौर वह कानून उनकी बात मानने को तैयार नहीं है. 
कानून का रास्ता जहां तक खुला है, उन्हें  वहां  तक जाने  की अाजादी है लेकिन एक अौर अाजादी भी है उन्हें ! अाजादी कि जेल के एकांत में बैठ कर उस पूरी यात्रा पर नजर डालें कि लालू प्रसाद को बनना क्या था, पहुंचना कहां था अौर वह बना क्या अौर पहुंचा कहां ! यह अंतर्यात्रा अासान नहीं होती है लेकिन जब बाहरी रास्ते बंद हो जाते हैं तब यही एक रास्ता है जिस पर अाप पूरी अाजादी से चल सकते हैं. लालू अगर इस जेल से, जिसकी अवधि कितनी होगी पता नहीं, लालू को खोज कर बाहर अाए तो हम फिर से एक नया सफर देख सकते हैं. अगर यह खोज संभव नहीं हुई तो अागे कोई सफर भी संभव नहीं होगा. ( 04.10.13) 


राहुल भड़के !  

03.10.13 

       अमरीका से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वापस क्या लौटे, भारतीय राजनीति में बवंडर उठाने की कोशिश में लगे खिलाड़ियों के हाथ से तोते उड़ गये ! मोदी वाली भाजपा, मुलायम वाली समाजवादी पार्टी अौर पवार वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस तथा कुछ दूसरे छुटभ्भैयों की पूरी कोशिश चल रही थी कि मनमोहन बनाम राहुल, कैबिनेट बनाम पार्टी, राष्ट्रपति बनाम सरकार, मां बनाम बेटा अादि का ऐसा कुहराम मचाया जाए कि राजनीति में अपराधियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का अादेश जिस तरह मजाक बन कर रह गया, उसी तरह इस अध्यादेश के विरोधियों का भी माखौल बन जाए.  लेकिन मनमोहन सिंह ने हवा के बदलते रुख को पहचान लिया अौर अदालती अादेश को पलटने का जो मूढ़ता भरा फैसला उनकी कैबिनेट ने किया था, उसे खारिज करने की घोषणा कर दी. राष्ट्रपति ने उस अध्यादेश को अपनी स्वीकृति न दे कर मनमोहन सिंह को पहले ही सावधान कर िदया था. फिर बहुत देर से ही सही, उस गलत अध्यादेश से कांग्रेस को अलग करने की सार्वजनिक घोषणा राहुल गांधी ने की. अब मनमोहन सिंह संवैधानिक अौर राजनीतिक, दोनों तरह के संकट के सामने खड़े थे. ऐसे में सबसे समझदारी भरा अौर डूबती नाव में से थोड़ी नैतिकता बचा लेने का एक ही रास्ता था जिसे प्रधानमंत्री ने कबूल किया. इसमें प्रधानमंत्री के स्वाभिमान की बात उठाने वालों को यह याद नहीं है क्या कि इसी प्रधानमंत्री को चोर कहने वाले, देश का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहने वाले लोग इसी संसद में बैठे हैं.  
        
          परदे के पीछे क्या हुअा पता नहीं लेकिन कभी खेलमंत्री रह चुके अजय माकन की प्रेस कांफ्रेस में राहुल का खेल हुअा ! राहुल किसी बवंडर की तरह अवतरित हुए अौर जितनी देर रहे, भड़कते रहे ! उन्होंने जो कहा उससे सबसे अधिक शर्मनाक िस्थति तो अजय माकन की ही हुई, क्योंकि मंच पर राहुल के अाने से पहले वे जो भी कह रहे थे, राहुल ने न केवल उन सबको रद्दी की टोकरी में डाल दिया बल्कि प्रकारांतर से यह भी कहा कि यही कांग्रेस पार्टी की लाइन है अौर जो इस लाइन के साथ नहीं है वह कांग्रेस के साथ नहीं है मतलब मेरे साथ नहीं है ! अब दरबारी राजनीतिक का स्वाद चखते अजय माकन बगलें झांकते नजर अा रहे थे. 
                                                राहुल ने कहा क्या ? हमारी राजनीति में अपराधियों की जो मजबूत हैसियत बन गई है, उसे बचाए व बनाए रखने की जो शर्मनाक कोशिश मनमोहन सिंह सरकार ने की, अौर िजसे देश के सभी राजनीतिक दलों ने, दिखावटी एतराज के साथ स्वीकार कर लिया था, राहुल ने अपनी सरकार की उस कोशिश को जड़ से उखाड़ फेंका. अब तक हमने जितना राहुल गांधी देखा व समझा है, उससे पता चलता है कि उनकी सबसे बड़ी कमजोरी अौर कमी यही है कि वे किसी बात की गहराई में नहीं जाते हैं, शिगूफे ज्यादा छोड़ते हैं. वे बड़े तेवर के साथ जो कहते हैं उसमें सार बहुत कम होता है, थोथापन ज्यादा होता है. कहीं यह भी लगता है कि वे  तारतम्यता के साथ, िवस्तार से अपनी बात कहने में असमर्थ हैं. कांग्रेस के उपाध्यक्ष के रूप में भी अौर भावी कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में भी उनका पूरा अधिकार है कि वे सरकार व समाज से जुड़े सवालों पर हस्तक्षेप करें, देश को साफ-साफ बताएं कि वे कहना अौर करना क्या चाहते हैं. राहुल इस कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं. अपने फेंकू प्रतिद्वंद्वी से वे इस मामले में एकदम अलग खड़े न हों तो देश को एक साथ दो खोखले दावेदारों की पीड़ा से गुजरना होगा.
              राहुल ने अन्ना अांदोलन पर बहस के दौरान भी लोकसभा में  हस्तक्षेप करते हुए, अपनी बात रखी थी.  तब भी यही समझ में अाया था कि वे बेतरतीब बातों से ज्यादा कुछ कह नहीं पा रहे हैं. बाद के घटना-क्रम ने तो यह भी साबित कर दिया कि देश को धोखा देने की उस पूरी रणनीति में वे भी शामिल थे. वे जब चुनाव की सभाअों में बोलते हैं तब भी अौर जब वे किसी मुद्दे पर अपनी बात कहते हैं तब भी यह कमी साफ समझ में अाती है कि वे जितना कह पा रहे हैं वह भी उनका अपना नहीं है, अौर जो नहीं कह पा रहे हैं, उसमें उतरने की उनकी तैयारी नहीं है. लेकिन अाप भले सागर के किनारे टखने भर पानी में खड़े रहें, उससे सागर कम चौड़ा या कम गहरा तो हो नहीं जाता है ! 
                                                    लेकिन राहुल ने राजनीति में अपराधियों के संरक्षण पर जो एतराज प्रकट किया, क्या उससे कोई असहमत हो सकता है ? कहने वाले कह रहे हैं कि राहुल मनमोहन सिंह की कुर्सी हथियाने की राजनीति कर रे हैं ! यह बड़ी बकवास बात है. मनमोहन सिंह या कोई भी दूसरा कांग्रेसी , कोई भी अाज इस मुगालते में होगा कि वह राहुल को प्रधनमंत्री बनने से रोक सकता है याकि उसी जगह ले सकता है, इस पर विश्वास करना मुश्किल है ! राहुल को प्रधानमंत्री बनने से अब कोई रोक सकता है तो वह केवल अौर केवल इस देश का मतदाता है ! इसलिए हम तो यही देखेंगे कि कैबिनेट के सर्वथा अनैतिक फैसले के खिलाफ राहुल ने उस दिन जो कहा, वह किसी को कहना ही चाहिए था ! कहना तो उन्हें इससे भी पहले चाहिए था, उन्हें अपनी पार्टी में इसके िखलाफ जनमत बनाना चाहिए था, उन्हें अपनी सरकार को ऐसा कोई अध्यादेश लाने से रोकना चाहिए था. लेकिन जो तब करना चाहिए, क्या उसे अब करना गलत है ?  जब जागे तभी सवेरा वाले भाव से राहुल की इस पहल को देश स्वीकार करेगा !  
                                                            लेकिन जो तब भी नहीं जागे अौर अब भी नहीं, उनके बारे में देश क्या सोचेगा ? किसी भी राजनीतिक दल ने अध्यादेश का विरोध करने में कुछ भी दांव पर नहीं लगाया. अब सभी कह रहे हैं कि हमने भी इसका िवरोध किया था !  कैसे किया था ? क्या संसद का बहिष्कार किया ? क्या प्रेस को बुला कर कहा कि हम अपने दायरे में अदालत का निर्देश मानेंगे ही चाहे सरकार कुछ भी करे ? क्या यह अासान रास्ता नहीं था कि सभी राजनीतिक दल कहते कि सरकारी अध्यादेश कुछ भी कहे, हमारा अपराधी सांसद या विधायक पार्टी के स्तर पर ही हटा दिया जाएगा अौर हम उसे पार्टी की सदस्यता या चुनाव का टिकट नहीं देंगे ? 
                                                        हर पार्टी की दुम किसी अपराधी के बाहुबल के नीचे दबी है अौर हर पार्टी के अपने राजा भैया हैं ! वे सारी पार्टियां, जिनका अाधार ही अार्थिक या सामाजिक अपराधियों के कंधों पर टिका है, वे सबसे अधिक परेशान हैं. वे समझ रही हैं कि राहुल की इस पहल से राजनीति का जो स्वरूप बनेगा, उसमें उनके लिए जगह बने, यह कठिन हो जाएगा. वे यह भी समझ रहे हैं कि राजनीति में से कमाई का तत्व यदि निकल गया तो इसमें रहने की जद्दोजहद का मतलब भी क्या है ! 
                                                                भारतीय जनता पार्टी अौर सीपीएम अभी एक ही नाव पर सवार हैं. दोनों समझौते के हर रास्ते पर चलने को तैयार हैं कि जिससे चुनावी फायदा मिले लेकिन दोनों यह भी चाहते हैं कि क्रांतिकारी की अौर हिंदू ध्वजधारी की उनकी छवि पर दाग न लगे. इसलिए वे अध्यादेश के खिलाफ कुछ भी खास नहीं बोले लेकिन राहुल ने जब पहल अपनी तरफ कर ली तब खिसिया भी पड़े. सभी समझ रहे हैं कि राहुल राजनीति के कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं अौर चुनाव का हर दाव खेलना वे सीख गये हैं. इसलिए अासन्न चुनाव राहुल नाम मोदी नहीं होगा, राहुल नाम परंपरागत, तिकड़मी राजनीति होगा. राहुल की तिकड़में भी नई ही होंगी. (03.10.13)   


एक रुका हुअा फैसला 

29.09.13
  
र्षों-वर्ष से जिसकी मांग की जा रही थी, वह संसद से भले न मिल सका, न्यायालय से तो मिला ! भारतीय मतदाता को यह अधिकार मिला कि वह चुनाव में विभिन्न पार्टियों द्वारा खड़े किए गये उम्मीदवारों को अपने विवेक की कसौटी पर कसे अौर अगर उसे लगे कि सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं तो वह सबको रद्द करने का बटन दबा सके ! मतलब अब वोट देने वाली मशीन पर पार्टियों का एकछत्र राज नहीं रहा, उसका एक बटन मतदाताअों के हाथ में भी अा गया ! इधर लगातार ऐसा ही हो रहा है कि लोकतंत्र के नाम से चलने वाली सरकारें जब लोगों की लोकतांत्रिक अाकांक्षाअों को अांकने में समर्थ अौर ईमानदार नहीं रह जाती हैं तब न्यायपालिका अागे अाती है. यह एक साथ ही भारतीय लोकतंत्र की दुरावस्था व उसकी अांतरिक शक्ति का प्रतीक है. 
भारतीय लोकतंत्र के जन्म के साथ ही लोकनायक जयप्रकाश ने
 यह खतरा पहचाना था कि यह शासन-पद्धति हमारे लोभ-बेईमानी-चातुरी व निकम्मेपन का शिकार हो कर भ्रष्ट हो सकती है. इसलिए वे एकदम शुरू से अावाज उठाते रहे, सुझाव देते रहे कि पतनशील होने से रोकने के लिए हमें कई व्यवस्थागत उपाय करने होंगे. उनसे बहुत पहले, १९०८ में, महात्मा गांधी ने हिंद-स्वराज्य नाम की अपनी पुस्तिका में ब्रितानी शैली के संसदीय लोकतंत्र की अंतर्निहित कमजोरियों की मारक विवेचना कर चुके थे. अपनी इन्हीं असहमतियों के कारण जयप्रकाश भी इस संसदीय लोकतंत्र के हामी नहीं थे; वे उस संविधान-सभा में भी शामिल नहीं हुए जिसने भारतीय संविधान की रचना की. वे महात्मा गांधी की इस बात से सहमत थे कि भारतीय संविधान की अात्मा, इसकी अपनी संस्कृति व परंपरा में से खोजी जानी चाहिए ताकि यह हमारी जरूरतों को पूरा करने लायक ठोस भी हो अौर लचीली भी ! लेकिन विडंबना देखिए कि जिस अादमी ने सैद्धांतिक अाधार पर संविधान-सभा का बहिष्कार किया, जिसने कभी किसी चुनाव में उम्मीदवारी नहीं की, जो कभी किसी संसद या विधानसभा में नहीं गया,  जो जीवन भर कभी पंचायत से ले कर संसद तक के टिकट का प्रत्याशी नहीं रहा, उसी अादमी की किस्मत में यह बदा था कि वह इस संसदीय लोकतंत्र के पतन को रोकने की लड़ाई में सबसे अागे रहे अौर जब, १९७४-७७ के दौर में इसे मर्मांतक चोट पहुंचाने की पक्की योजना पर काम हो रहा था, तब उसने ही अपनी गर्दन अागे कर, इसे बचाया भी था. भारतीय लोकतंत्र के विकास का कोई भी इतिहास उस जयप्रकाश के जिक्र के बिना अधूरा भी होगा अौर बेईमानी भरा भी जिसने लोकतंत्र के तथाकथित मंदिरों में कभी कदम नहीं रखा बल्कि ग्रामस्वराज्य के अाधार पर, लोकतंत्र का नया स्वरूप खड़ा करने की साधना में जीवन भर लगा रहा. 
जयप्रकाश ने दो बातों की पुरजोर मांग उठाई थी - हमारे
मतदाता को पार्टियों के उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार मिलना चाहिए अौर प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार मिलना चाहिए - राइट टू रिजेक्ट अौर राइट टू रिकॉल ! उनकी इन दोनों मांगों का शुरू में उपहास किया गया, एक हारी हुई समाजवादी पार्टी के नेता का प्रलाप माना गया. समय बीतने के साथ-साथ यह माना जाने लगा कि ये परिकल्पनाएं तो अच्छी हैं लेकिन व्यावहारिक नहीं हैं. जयप्रकाश देश भर में इन सुझावों  के बारे में जनमत बनाते रहे अौर यही कहते रहे कि अगर ये सुझाव लोकतंत्र के हित में हैं तो इन्हें व्यावहारिक बनाने का रास्ता खोजने के लिए ही तो हमने चुनाव अायोग, न्यायपालिका, कानून व संविधान के पंडित, विधि मंत्रालय अादि-अादि बना रखे हैं. इन सबको सर जोड़ कर बैठना चाहिए अौर देश को बताना चाहिए कि यह व्यावहारिक कैसे बनेगा. उन्होंने चुनाव अायोग के साथ, सरकार के साथ कितनी बातें कीं, इस विषय पर अध्ययन-दल गठित किए, उनकी रिपोर्टें प्रकाशित कीं. १९७४ के संपूर्ण क्रांति के अपने अांदोलन में उन्होंने इन दोनों मांगों को केंद्र में रखा था अौर इसे नई धार दी थी. १९७७ में, जब कांग्रेस की हार हुई अौर अाजादी के बाद पहली बार केंद्र में एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी तो उसके सामने भी यह मांग रखी गई. उन्होंने  छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी नामक अपने युवा संगठन को इस मांग के समर्थन में राष्ट्रव्यापी हस्ताक्षर अभियान चलाने का निर्देश दिया अौर अभियान का पहला हस्ताक्षर खुद ही किया. 
इन पंक्तियों के लेखक के जब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से 
इस मांग के समर्थन में हस्ताक्षर करने को कहा तो वे तुनक कर बोल थे : अपने डेथ-वारंट पर मैं कैसे दस्तखत कर सकता हूं ! उन्होंने दस्तखत नहीं किया. लेकिन उसी दौर में किसी चुनाव याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जयप्रकाश की इस मांग का समर्थन किया अौर कहा कि दलों को कोई-न-कोई ऐसी प्रक्रिया खोजनी ही चाहिए जिससे उम्मीवार का चयन करने में मतदाताअों की राय ली जा सके. अगर राजनीतिक दल ऐसा नहीं करेंगे तो मतदाता अौर उनके बीच ऐसी खाई पैदा होती जाएगी कि जिसे पाटना असंभव होगा. राजनीतिक दलों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया अौर इससे बच निकलने की कोशिश करते-करते अाज वे इस मुकाम पर पहुंचे हैं कि उन्हें थोड़े-बहुत वोट भले मिल जाएं, मतदाता का भरोसा तो कत्तई नहीं मिलता है. इसलिए चुनाव अाज राजनैतिक नहीं, अापराधिक हथकंडों से जीती जानेवाली तिकड़म से अधिक कुछ नहीं रह गई है. 
        अन्ना हजारे ने अपने अांदोलन के क्रम में इस मांग को फिर से गति दी अौर इसके समर्थन में दवाब खड़ा किया. कल तक जो इस परिपल्पना का उपहास करते थे, अाज इसे राजनीतिक जरूरत के रूप में स्वीकार करते हैं. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश इसी बात की गवाही देता है. चुनाव अायोग के लिए यह स्वर्णिम अवसर है. राजनीतिक दलों के स्वार्थी गठबंधन इस फैसले को लागू होने से रोकने की कोशिश करें, इससे पहले वह अदालत के इस निर्देश को तुरंत अमल में लाए. हर बार अायोग को यह व्यवस्था तो करनी ही पड़ती है कि वह नये उम्मीदवारों के नाम मशीन में दर्ज करता है, उनकी घटती-बढ़ती संख्या के मुताबिक मशीन तैयार करता है अौर वह भी तब करता है जब नामांकन पूरा हो जाता है. मतलब यह कि मशीन में अाज-के-अाज ही अावश्यक व्यवस्था बनाना संभव है. चुनाव अायोग को मतदाताअों के हित में यह तत्परता दिखानी ही चाहिए अौर अाज ही अदालत को यह बता देना चाहिए कि वह विधानसभा के नवंबर के चुनाव  से ही ऐसा बटन जोड़ने में समर्थ है.   
दूसरा बड़ा सवाल है कि खारिज करने के इस अधिकार का चुनाव पर असर क्या होगा ? सारी शक्ति तो वहां छुपी है. यदि मतदाता सारे उम्मीदवारों को बहुमत से खारिज कर देता है तब यह उसके निर्देश का मजाक ही हो जाएगा अगर अायोग इसका हिसाब लगाने लगेगा कि जितने मत गिरे, उनमें सबसे अधिक किसे मिले ! खारिज करने के अधिकार की अात्मा यह है कि मतदाताअों का बहुमत यदि किसी निर्वाचन-क्षेत्र में सबको खारिज कर देता है तो वहां का चुनाव रद्द माना जाएगा अौर अायोग को नये चुनाव की व्यवस्था करनी होगी. राजनीतिक दलों को यह असंदिग्ध संदेश जाना ही चाहिए कि उम्मीदवार चुनने का उनका अधिकार अमर्यादित नहीं है. वे अाज तक जिन अाधारों पर उम्मीदवारों का चयन करते अाए हैं, उसमें उन्होंने मतदाता की कोई भूमिका बनने ही नहीं दी है. पार्टियों ने दो-चार-दस अयोग्य, अमान्य, अस्वीकृत लोगों को टिकट दे दिया क्यों कि वे अपने बाहुबल से, धनबल से, जातिबल से, फर्जीवाड़े से, जाति-धर्म का उन्माद जगाने से चुनाव जीत सकते हैं. बस, अब मतदाता की लाचारी है वह इन्हीं बोगस लोगों में से किसी के नाम का बटन दबाए. खारिज करने का अधिकार उन्हें पहली बार यह शक्ति देता है कि वे पार्टियों को उनकी अौकात बता सकते हैं अौर सीधे ही कह सकें कि हमें अापके इन जोकरों में से कोई कबूल नहीं है. अाप इनसे बेहतर लोगों को ला सकते हो तो लाअो वरना चुनाव से किनारे हटो ! पार्टियों के हाथ में बंधक लोकतंत्र को मुक्ति मिल जाएगी. फिर पार्टियों को पता चलेगा कि येनकेनप्रकारेण उम्मीदवार खड़ा कर देना अंतिम हथियार नहीं है, अंतिम हथियार तो मतदाता के हाथ में है कि वह समर्थन देने से पहले ही हमें खारिज न कर दे ! इसलिए उम्मीदवार चुनने के स्तर पर ही पार्टियों को सावधानी बरतनी होगी. 
एक स्वस्थ लोकतंत्र का त्रिभुज मतदाता के निम्न चार शक्तियों के मेल से बनता है - १. १८ साल की उम्र होते ही बगैर किसी भेदभाव के मतदाता बनने का अधिकार, २. अपना उम्मीदवार खुद चुनने का अधिकार ( लोक-उम्मीदवार ) या पार्टियों द्वारा चुने गये उम्मीदवारों में से किसी को समर्थन देने का अधिकार, ३. उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार, तथा ४. प्रतिनिधि वापसी का अधिकार ! ६५ सालों से कछुए की चाल को मात करने वाली दौड़ लगा कर हमारा लोकतंत्र जहां पहुंचा है, वहां से अागे या तो बिखराव है या फिर पुनर्सर्जन ! क्या होगा अागे यह इस पर निर्भर है कि हमारा मरदाता अपनी भूमिका को कितनी गहराई से समझता है. अगर व्यायपालिका ने अपनी कमर सीधी रखी तो लोकतंत्र करवट बदलकर रहेगा. ( 29.09.13)  

यह तो बुश का अमरीका है !

16.09.13

सीरिया के रासायनिक हथियारों का शोर अोबामा का अमरीका जिस तरह मचा रहा है, उससे याद अा रही है उस शोर की जो बुश के अमरीका ने सद्दाम हुसैन के गुप्त अाण्विक हथियारों के जखीरे के बारे में मचाया था ! शोर भी एक बम है जिसका इस्तेमाल जब श्रीमंत लोग या राष्ट्र करते हैं तो वह अफगानिस्तान को मलबे में बदल देता है, विएतनाम की नसों में नापाम बम का जहर भर देता है. अौर बाद में इतिहास के किसी कोने में दर्ज किया जाता है कि यह सारा शोर प्रायोजित था !

  बराक अोबामा को अमरीका ने अपना राष्ट्रपति इसलिए ही नहीं चुना था कि उन्होंने अमरीकियों को यह विश्वास दिलाया था कि वे अाज भी िस्थति को पलटने के लिए कुछ कर सकते हैं ! उनका ‘यस वी कैन’ का नारा ही नहीं था जिसने अमरीिकयों को विमूढ़ता की मन:स्थिति से बाहर निकाला था. उसका ज्यादा बड़ा व ठोस कारण यह था कि काला-गोरा दोनों अमरीका, बड़ी व्यग्रता अौर दृढ़ता से उस बुश से छूटना चाहता था जिसने नाहक की िस्थतियां बना कर, अमरीका को कितने ही युद्धों में फंसा दिया था. युद्धखोरी पहले विश्वयुद्ध के बाद से ही अमरीकी अर्थ-व्यवस्था का अाधार रही है लेकिन बुश ने अमरीकी प्रतिष्ठा की भी अौर उसकी अंतरराष्ट्रीय हैसियत की भी जैसी लुटिया डुबोई, उसने अमरीका को हर स्तर अपमानित व व्यथित कर दिया था. अार्थिक अौर राजनीतिक दोनों तरह की मंदी ने अमरीका को तब ऐसी स्थिति में डाल दिया था कि उसकी अंतरराष्ट्रीय चर्चा केवल अफगानिस्तान व सद्दाम के बहाने होती थी जिसमें उसके बारे में गहरी हिकारत भरी होती थी.
सारा अमरीका अपनी इस छवि से छूटना चाहता था अौर अोबामा ने विश्वास दिलाया था कि वे अमरीका को इस दुरावस्था से निकाल ले जाएंगे. अौर अोबामा ने शुरुअात भी ऐसे ही पराक्रम के साथ की थी. लगा था कि अमरीका को लंबे समय बाद एक ऐसा राष्ट्रपति मिला है जिसे यह मुगालता नहीं है कि वह सारी दुनिया का थानेदार है. संभालने, बनाने अौर सुधारने के लिए अमरीकी समाज में ही इतना कुछ है कि उसे करते-करते ही किसी की भी उम्र निकल जाए ! अोबामा ने वहीं से बात शुरू की थी - अपना देश बनाने के बिंदु से ! बुश के हाथ से छूटा अमरीका अचानक नैतिक जमीन खोजने लगा था अौर इसी कोशिश ने अोबामा को एक अंतरराष्ट्रीय नेता की हैसियत दिला दी थी. अाज सारी अंतरराष्ट्रीय राजनीति इतनी खोखली अौर दोहरे चरित्र की हो गई है कि कोई शांति का मुखौटा पहन लेता है तो लोग उसे ही शांतिदूत मानने लगते हैं. लेकिन शांति अौर न्याय बहुत रुखड़े पत्थर हैं जिनसे त्वचा ही नहीं अात्मा भी घिसनी पड़ती है अौर तब कहीं जा कर रोशनी की कोई धुंधली किरण फूटती है. यह कठिन है. लगता है, अोबामा ने इस कठिनाई से तौबा कर लिया है अौर अच्छे राष्ट्रपति की अपनी छवि की जद्दोजहद से वे ऊब गये हैं.  अब वे दुनिया को बताना चाहते हैं कि अमरीका का असली चेहरा तो बुश का ही चेहरा है.

सीरिया में अमरीका अपनी उपस्थिति उसी तरह अौर उन्हीं कारणों से बनाना चाहता है जिन कारणों से बुश ने अफगानिस्तान अौर ईराक में कदम रखा था. इसके पीछे बहाना भले सीरियाई राष्ट्रपति बशर-अल असद की ज्यादतियों का हो लेकिन बात ईरान से सीरिया की निकटता की अौर उसके तेल-साम्राज्य की ही है. यह कदापि कोई कारण नहीं हो सकता है कि अमरीका या दूसरा कोई मुल्क अपनी फौज उन देशों में भेज दे जहां सामाजिक असंतोष भड़क उठा  हो. अगर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में व्यवहार का यही ढंग मान्य हो तो अोबामा को अंदाजा है कि कितने ही देश अमरीका में घुस अाएंगे ? धन अौर धमाके को बाद कर दें तो अमरीका को सोचना चाहिए कि उसके पास दुनिया को देने के लिए बचता क्या है !

राष्ट्रपति असद ने अपने नागरिकों के एक वर्ग का विश्वास खो दिया है लेकिन इसका मतलब यह कैसे हो गया कि उस वर्ग को हथियार व  पैसे दे कर उकसाने का अमरीका को अधिकार है ? अगर राष्ट्रपति असद की यह लोकतांत्रिक जिम्मेवारी है कि वे अपने असंतुष्ट नागरिकों की सुनें अौर उनकी शिकायतों का हल निकालें तो अमरीका अौर उसके खानदानी  देशों की अंतरराष्ट्रीय जिम्मेवारी है कि वे असद की मुश्किलों का लाभ उठा कर, उनके देश में मनमानी करने की कशिश न करें ! यह इतनी सीधी-सी नैतिक स्थिति है ! लेकिन हम जानते हैं कि जब मन में मैल हो तब सबसे सीधी व नैतिक भूमिका स्वीकार करना एवरेस्ट चढ़ने के बराबर हो जाता है.

रूस व चीन की राजनीति कुछ भी हो, उन दोनों ने सीरिया पर अमरीका अौर उसके खानदानी देशों के हमलों की जगह सीरिया की अंतरराष्ट्रीय जांच का अच्छा विकल्प सामने रखा है. संयुक्त राष्ट्र संघ बना ही इस परिकल्पना से था न कि वह विश्व-परिवार के उन मुल्कों पर अंकुश रखेगा जो सर्वमान्य मर्यादा का उल्लंघन करेंगे ! सीरिया ने ऐसा किया है क्या, पहले इसकी विश्वसनीय जांच हो अौर फिर काररवाई की बात सोची जाए.  अोबामा बताएं कि असद के रासायनिक हथियारों में ऐसा क्या बुरा है जो अमरीका  के द्रोन हमलों में, नेपाम बमों में, कारपेट बांबिंग में नहीं है ? अोबामा ने अमरीकी कांग्रेस से जब सीरिया पर हमले की इजाजत मांगी थी तब कहीं भी यह तर्क नहीं था कि सीरिया अमरीकी सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रहा है. कह तो यही गया कि सीरिया ने रासायनिक हथिारों का इस्तेमाल किया है ! रासायनिक हथियार यानी क्या ? दम घोंटने वाली  गैसें - क्लोरीन, मस्टर्ड गैस, साइनाइड अौर सारीन जैसे घातक तत्वों से बनाई गैसें अादि ! क्या अोबामा हमें यह बताना चाहते हैं कि अमरीका जिन अत्याधुनिक हथियारों से सारी दुनिया में लोगों को मारता है, वे  इन गैसों से कम अमानवीय हैं ? दुनिया के सारे ही हथियार मानवद्रोही होते हैं अौर जब -जब उनके इस्तेमाल की नौबत अाती है तब-तब यह साबित होता है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व नाकारा अौर असफल लोगों का जमावड़ा भर है. तो जरूरत नेतृत्व को बदलने की होती है, न कि हथियारों को ! बुश की जगह अोबामा को चुन कर अमेरीकियों ने यही तो किया था !

भारत को अोबामा से कहना चाहिए कि हमारी दोस्ती अपनी जगह है लेकिन न्याय की भी अपनी जगह होती है  अौर वह पक्की होती है ! हमें इस मामले में रूस व चीन के साथ खड़े हो कर, अमरीका अौर सीरिया दोनों से कहना चाहिए कि वे अपनी सीमा में रहें - सीमा, जो सिर्फ सरहद नहीं होती है, लक्ष्मण-रेखा भी  होती है. (16.09.13)

फांसी का मतलब 

11.09.13

एक ऐसे अादमी के लिए जो हमेशा से ही फंासी की सजा को खत्म करने के पक्ष में काम करता रहा है अौर जो अाज भी इस सजा को खत्म किए जाने का हिमायती है, फांसी की मांग के समर्थन में लिखना कठिन काम है. लेकिन अाज मैं वह कठिन काम करने बैठा हूं. मुझे लग रहा है कि दिल्ली गैंगरेप कांड के अपराधियों को अदालत चाहे जो सजा सुनाए, हमें इस मामले में मुख्य बात से भटकना नहीं चाहिए. भटकाव दो तरह का होता है; एक वह जब हम इसलिए भटकते हैं कि हमें रास्ता मालूम नहीं है; दूसरा वह जब हम इसलिए भटकते हैं कि हम रास्ते पर चलते हुए घबराते हैं. दोनों ही िस्थतियों में परिणाम एक ही होता है - हम चाहते कहीं हैं, पहुंचते कहीं हैं !

हम साफ समझ लें कि किसी भी अपराध में सजा देने के पीछे मंशा क्या होती है - समाज को बदलना याकि व्यक्ति को बदलना याकि ऐसी परिस्थिति बनाना कि कोई अपराध करे ही नहीं ? मुझे लगता है कि इसमें से कुछ भी, किसी भी सजा का हेतु नहीं होता है याकि हम यह कहें कि सजा दे कर हम इनमें से कुछ भी हासिल नहीं कर पाते हैं. किसी भी सजा से कोई भी अपराध खत्म नहीं होता है. सजा देने से लोगों में सुधार होता है, ऐसी बात भी नहीं है. जैसे अपराध व्यक्ति की निजी कमजोरी में से पैदा होता है, वैसे ही सजा भी अपराधी व्यक्ति को मिलती है अौर उसका मकसद बस इतना ही होता है कि वह अादमी फिर से वैसा अपराध न कर सके ! अाप एक सजा से एक व्यक्ति को काबू में कर सकते हैं, व्यापक समाज को काबू में नहीं कर सकते ! सजा देने से इससे अधिक या इससे अलग कुछ प्राप्त होता हो तो वह अवांतर उपलब्धि है जो सजा के कारण नहीं, व्यक्ति की ग्रहणशीलता के कारण मिलती है. अपराध, न्याय अौर सजा का त्रिकोण बस इतनी ही जगह घेरता है.

व्यक्ति असंभव संभावनाअों का पुतला है. इसलिए अपने विकास के क्रम में मनुष्य इस मुकाम पर पहुंचा कि अपराध की सजा ऐसी होनी चाहिए कि अपराधी मनुष्य की असीम संभावनाअों का अंत न हो जाए बल्कि उसके साकार होने की संभावना बनी रहे. फांसी की सजा इस बुनियादी संभावना के खिलाफ जाती है अौर इसलिए इसका चलन खत्म होना चाहिए. अपराध हुअा, उसकी सजा हुई अौर अपराधी को एक लंबा कालखंड ऐसा मिला कि जिसमें वह बारंबार तन्हाई में, अपने किए पर विचार कर सके . संभव है कि उसकी चेतना उसमें प्रायश्चित के भाव जगा सके अौर वह एक बेहतर इंसान बन सके.

लेकिन एक पहलू अौर भी है अौर बहुत महत्वपूर्ण पहलू है ! हम एक अादमी के खूनी होने अौर हिटलर के खूनी होने में फर्क क्यों करते हैं ? इसलिए न कि एक ने उन्माद में अपराध किया है, जबकि हिटलर ने योजना बना कर, लोगों को तिल-तिल जला कर उन्हें खत्म करने का अपराध किया है. हिटलर का सबसे बड़ा अपराध विश्वयुद्ध छेड़ना नहीं है. उसका सबसे बड़ा अपराध खुद को छोड़ कर, दूसरे सारे मनुष्यों को तुच्छ समझने अौर उन्हें हीनतर अवस्था में पहुंचा कर, उन्हें मनुष्यता से नीचे गिराने में है. उसके अपराध की वीभत्सता अौर उसकी क्रूरता ऐसी है कि समाज में उसकी उपस्थिति सह्य करना असंभव की हद तक कठिन है अौर जीवित हिटलर हमेशा ही दूसरों में हिंसक प्रवृत्ति को उभारने का कारण बना रहेगा. इसलिए कोई हिटलर, कोई फ्रैंको, कोई याह्या खान, कोई िबन लादेन अपने सारे अपराधों के बाद भी समाज में जीवित रहे, चले-बोले-हंसे तो यह मनुष्यता की उर्ध्वगामी यात्रा को बाधित करता है. ऐसे लोग मनुष्यता की पराजय के प्रतीक बन जाते हैं अौर इसलिए इनकी सजा का एक ही मकसद होता है - इन्हें समाज की चेतना से दूर करना !

बलात्कार भयंकर स्तर का मनोरोग है जिसका इलाज सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर खोजना होगा. इसका इलाज ढूंढते समय हमें यह भी ध्यान में रखना ही होगा कि स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक अाकर्षण अौर प्यार का जो रहस्यमय अंश है, वह मनुष्यगत है, अलौकिक है. हम व्यक्ति के स्तर पर भी अौर समाज के स्तर पर भी इतने अनुशासित व सांस्कृतिक नहीं हो पाए हैं कि काम-भावना का सौंदर्य समझ व जी सकें. इसलिए वह कुरूप व कामी बन कर यहां-वहां प्रकट होता रहता है.  हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यह अादिम भूख व अाकर्षण दोतरफा है.

अब हम िदल्ली गैंगरेप की तरफ अाते हैं. ये चारो अपराधी,
 िजनके मुकदमे की इतनी चर्चा  होती रही अौर जिन्हें मिलने वाली सजा को लेकर देश में एक बहस उठ खड़ी हुई है कि अदालत को क्या फैसला लेना चाहिए, बलात्कार के अपराधी भर नहीं हैं. एक लड़की के साथ जबर्दस्ती करना, उसका बलात्कार करना बीमार अपराधी का एक चेहरा है; लेकिन एक लड़की को योजनापूर्वक जाल में फंसाना, उसे निरुपाय कर, उसकी शारीरिक मर्यादा को विछिन्न करते हुए, उससे दुर्व्यवहार करना अौर फिर उसकी हत्या कर डालने की नृशंसता दिखाना बीमार अपराधी का चेहरा नहीं है, हत्यारे का चेहरा है. उसके मन में लड़की के प्रति ही नहीं, मनुष्य के प्रति श्रद्धा या सम्मान का भाव नहीं है. अब वह लड़की तो नहीं है लेकिन लड़कियां तो हैं; वह लड़की तो नहीं है लेकिन उसके परिजन तो हैं; वह लड़की तो नहीं है लेकिन हम-अाप तो हैं. सवाल यह है कि ये चारो अगर जीवित रहते हैं, समाज में अाते-जाते हैं तो क्या उसकी कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्तिश: अौर समूहत: हमारे मन पर होगी ? इनका जिंदा रहना हमें बार-बार उस लड़की का अौर सारी ही लड़कियों का विद्रूप करता दिखाई देगा.

जेल में अपराधियों की जरखेज फसल पैदा होती है. हमारे अपराधी राजनेताअों ने जेल अौर समाज के बीच की दूरी इतनी कम कर दी है कि यह मानना कि अाजीवन कारावास देना अपराधी को समाज से काट देना होता है, यथार्थ नहीं है. इनको फांसी देने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि अब समाज में इनकी जगह बची नहीं है. सुधारना,बदलना, प्रायश्चित का मौका देना अादि-अादि बातों से अलग, इस मामले में इनको दृश्य से हटा देना ही एकमात्र रास्ता बचता है. यह कुछ वैसा ही है जैसे हम घर में अा गिरी गंदगी साफ करते हैं यह जानते हुए भी कि गंदगी फिर अा सकती है अौर उन्हीं दरवाजों-खिड़कियों से अा सकती है जिन्हें खोजने-खोलने में हमने सैकड़ों साल लगाए हैं !  हम गंदगी साफ करते हैं तो खुद को इस बारे में ज्यादा सावधान भी करते हैं कि हमसे ऐसी गंदगी घर में अौर पड़ोस में िफर से न हो. हम इस गंदगी को साफ करें अौर ईश्वर से यह भी कहें कि हे परमपिता परमेश्वर, हमें माफ करना क्योंकि हम नहीं जानते हैं कि हमें ऐसे मामलों में दूसरा क्या करना चाहिए ! ( 11.09.13)  


खतरे में है लोकतंत्र ! 
(10.09.13)

कहीं किसी भरोसे के अादमी ने सुनाया था यह वाकया ! सोवियत संघ के सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री निकीता ख्रुश्चेव भारत की यात्रा पर थे. ध्यान रहे कि मैं पुतिन के विखंडित रूस की बात नहीं कर रहा हूं; बात कर रहा हूं निकीता ख्रुश्चेव के यूएसएसअार की ! ख्रुश्चेव तब के संसार की दो महाशक्तियों में से एक के अाका ही नहीं थे बल्कि वह हस्ती थे कि जिनके सामने पड़ने से अमरीकी भी अौर सारे यूरोपीय देशों के महारथी भी बचते थे. संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में जब ख्रुश्चेव साहब ने अपना जूता लहराया था तो अमरीकी टेबल के नीचे दुबक गये थे. ख्रुश्चेव साहब बला के हिम्मती, मुंहफट अौर प्यारे इंसान थे; अौर ऐसे सारे लोगों से हमारे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अच्छी छनती थी.

ख्रुश्चेव साहब की जवाहरलाल से कुछ खास ही पटरी बैठती थी. इसलिए भारत में उनके स्वागत में जमीन-अासमान एक किया जा रहा था.देश के जिन शहरों में उनके कार्यक्रम रखे गये थे, उनमें इंदौर भी था. अाज का इंदौर भी कोई खास बेहतर तो नहीं हुअा है लेकिन उस वक्त का इंदौर तो एक बड़ा लेकिन अत्यंत भठा हुअा कस्बा-सा ही था. सड़कें तो थी ही नहीं अौर उन पर बेतरतीब गाड़ियों का रेलमरेला उन्हें अौर भी दयनीय बना देता था. अौर उसी पर दौड़ रहा था ख्रुश्चेव साहब का शाही काफिला ! वे हैरान थे अौर चुप थे ! गाड़ियां कैसे चलती हैं अौर बिना एक-दूसरे से लड़े-टकराए कैसे निकलती हुई गंतव्य तक पहुंचती है, उनकी समझ में नहीं अा रहा था. अाखिर विदाई की सभा में वे बोले : मैं, कम्यूनिस्ट का बच्चा, अापके शहर को देखकर मानने लगा हूं कि सच में भगवान होता है अौर वह यहीं, इसी इंदौर में रहता है !

यह वाकया मुझे इन दिनों बेहद याद अाता है क्योंकि अगर भगवान नहीं है तो मैं भी खुश्चेव साहब की अावाज में अावाज मिला कर पूछना चाहता हूं कि यह देश चल कैसे रहा है मियां ? इसे कोई चला तो नहीं रहा है. देश चलाने के लिए हमने जिन्हें चुना था, वे खुद को ही नहीं चला पा रहे हैं तो देश क्या चलाएंगे ! कई विधान सभाअों के चुनाव सर पर हैं; अौर फिर सर पर है २०१४ का लोकसभा का चुनाव ! कांग्रेस ने मान लिया है कि उसके पास अपना किया ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिसे ले कर मतदाता के सामने जाया जा सके ! इसलिए वह सिरे किस्म-किस्म के ऐसी योजनाएं संसद से पारित करवाती जा रही है जिनका कोई भविष्य नहीं है. कांग्रेस मान रही है कि वह इनके बल पर मतदाताअों से वोट ले सकेगी. शिक्षा व शिक्षकों का कोई प्रभावी ढांचा हो कि न हो, बच्चों को शिक्षा का अधिकार जरूर मिल जाए ( शिक्षा का अधिकार ); बच्चे पढ़ें कि ना पढ़ें, दोपहर का भोजन जरूर करें ( मिड डे मील ); अपनी गर्दन पर िकसी का हाथ पहुंचे ऐसी कातिल सूचनाएं लोगों को ना मिलें लेकिन सरकारी खजाने में सूचना मांगने की फीस जरूर जमा होती रहे ( सूचना का अधिकार); देश अौर देश के लोग उत्पादक बनें कि न बनें पर निट्ठले खाना जरूर खाते रहें ( अन्न सुरक्षा ); कहां, किसे ,क्या अौर कितना मिल रहा है इसकी चिंता किए बगैर गरीबों के नाम पर पैसों की लूट चलती रहे (मनरेगा); खेती-किसानी अौर खेतिहर उत्पादन का अांकड़ा कुछ भी हो, उद्योगों के लिए जमीन हड़पो का अांदोलन कानूनी चलता रहे ( भूमि अधिग्रहण); विदेशी निवेश को ललचाने की कोशिश में अपने रुपये की इज्जत धेले भर भी न रहे कि न रहे लेकिन देश को खालिस बाजार बना कर रखो ( विदेशी पूंजी के लिए सभी दरवाजे खोलना) अादि-अादि ! अगर इन सारी कसरतों से कांग्रेस को इतने वोट मिल जाएं कि वह २०१४ के चुनाव में से सबसे बड़ी पार्टी बन कर बाहर अाए तो यह चमत्कार ही होगा ! अौर चमत्कार तो होते ही हैं, ऐसा लोग कहते हैं.

ऐसा कोई चमत्कार अगर हुअा तो भी कांग्रेस की अौर  राहुल गांधी की राह अासान नहीं होगी. अाने वाले दिनों में राजनीति जैसी पेशेवर बनने जा रही है उसमें सबसे बड़े दल से कहीं ज्यादा अहम होगा यह देखना कि सबसे बड़ा गठबंधन किसका बनता है ! राजनीति का पेशा करने वाले जान गये हैं कि सत्ता के बाजार उनकी क्या कीमत है. इसलिए जो सबसे बड़ा दल होगा वह सबसे बड़े सौदों के लिए लाचार होगा, अौर तब हर सरकार मनमोहन सिंह गति को प्राप्त होगी.

भारतीय जनता पार्टी सबसे बुरी दशा में है. उसे लगता है कि उसके पास तुरुप का एक पत्ता है जिसका नाम नरेंद्र मोदी है. कोई पूछे कि क्या रमन सिंह या शिवराज सिंह चौहान बुरे मुख्यमंत्री हैं तो भाजपा मानने को तैयार नहीं होगी. फिर गुजरात मॉडल की इतनी चर्चा क्यों ? देखें तो जहां से गुजरात चला है अौर जहां से छत्तीसगढ़ या मध्यप्रदेश चला है, तो नरेंद्र मोदी की अपेक्षा इनका कामकाज ज्यादा बेहतर रहा है. फिर क्या है कि जिसकी बिना पर संघ परिवार की नजर में नरेंद्र मोदी सबसे बीस ठहरते हैं ? अत्यंत अात्मकेंद्रित राजनीतिक क्रूरता मोदी की वह विशेषता है जिस कारण वे भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों से बीस पड़ते हैं अौर हिंदुत्व के दर्शन से मेल खाते हैं.  िहदुत्व का पूरा दर्शन ( अगर इसे दर्शन कहा जा सके ! ) अधिनायकवादी मानसिकता का पोषक है. यहां एक नेता, एक धर्म, एक विश्वास, एक जीवन-शैली, एक प्रार्थना, एक किताब अादि का बोलबाला चलाने की कोशिश चलती है. यह अकारण नहीं है कि बाल ठाकरे को हिटलर बहुत पसंद अाता था; अाडवाणी को जिन्ना एक अादर्श दिखाई देते हैं अौर संघ परिवार को संसदीय प्रणाली से ज्यादा बेहतर राष्ट्रपति प्रणाली लगती है. प्रधानमंत्री का उम्मीदवार पहले घोषित हो अौर फिर उसके नाम से चुनाव लड़ा जाए, यह दूसरा कुछ नहीं, अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली की भद्दी पैरोडी भर है ! हमारी संसदीय प्रणाली में कल्पना यह है कि प्रधानमंत्री सांसदों के समर्थन से शक्ति पाता हो, भाजपा जिस दर्शन को अागे बढ़ा रही है उसमें यह निहित है कि सांसद अपने चयन में भी अौर भविष्य में मिलने वाले अवसरों में भी प्रधानमंत्री से दबे रहें अौर उसके प्रति अनुग्रहीत रहें. 

लेकिन राजनीति के इस छोटे खेल में भाजपा यह न भूले कि तुरुप के एक पत्ते से लोकतंत्र की राजनीति का खेल खेलने वाले या तो िहटलर की राह जाते हैं या इंिदरा गांधी का रास्ता पकड़ते हैं. यह बात दुनिया के इतिहास में बार-बार साबित हो चुकी है. भारतीय जनता पार्टी कह सकती है कि उसे इससे एतराज नहीं है लेकिन यह देश को उससे सख्त एतराज है. वह एतराज ही तो केंद्रीभूत हुअा था जयप्रकाश नारायण में कि इंदिरा गांधी का कठोर राजनीतिक शिराजा बिखर गया था ! वह चमत्कार भाजपा के अाज के छुटभैयों ने देखा भले न हो लेकिन लालकृष्ण अाडवाणी, यशवंत सिन्हा, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज्य जैसे कुछ तो उसकी ही पैदावार हैं. वे उस अनुभव को दरकिनार करेंगे तो अपने पांव पर अाप कुल्हाड़ी मारेंगे.

सत्ता के खोये स्वाद को पाने की बेचैनी में अाज भाजपा कुछ भी कहे-करे, यह तीखी सच्चाई है कि एनडीए दौर में सभी दलों ने उसका साथ छोड़ दिया है. जो छोड़ गये वे सब दूध के धुले नहीं थे, अौर न हैं लेकिन भारतीय सत्ता-बाजार में डेयरी का यही दूध तो बिकता है ! नरेंद्र मोदी को केंद्र में सरकार बनाने के लिए जिस गठबंधन की जरूरत होगी, उसमें ऐसे ही ग्वाले शामिल होंगे ! अासान नहीं होगा तब नरेंद्र मोदी के साथ चलने वालों को खोजना ! अाडवाणी को तो याद ही होगा वह दौर भी जब जनसंघ राजनीतिक अछूत माना जाता था अौर अटलबिहारी वाजपेयी कितनी ही बार इसका रोना रो चुके थे. वह तो राममनोहर लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद का दौर अाया कि जिसने जनसंघ को अपने साथ खींच लिया. वह घुलना-मिलना नहीं हुअा होता तो सन् ७४ में जयप्रकाश के साथ अाना भी शक्य नहीं हुअा होता ! अौर फिर तो जयप्रकाश ने जनसंघ को सारे कपड़े बदलने पर ही मजबूर कर दिया ! वह सारा इतिहास अौर वह सारा सफर अगर भारतीय जनता पार्टी को याद हो तो उसे यह समझते देर नहीं लगेगी कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की शर्त के बाद, गठबंधन के सदस्य खोजना बहुत कठिन होगा; अौर जो साथ अाएंगे भी वे पूरा सौदा करेंगे अौर तब जो सरकार बनेगी, वह मनमोहनी से अलग क्या होगी !   
      
ऐसी त्रासदी के सामने देश खड़ा है - ऐसा  दोराहा  जहां  से  दो  रास्ते फूटते तो िदखाई देते हैं लेकिन दोनों एक ही अंधी गुफा में जा कर खो जाते हैं. राहुल गांधी या कि नरेंद्र मोदी जैसे सवाल एकदम बेमानी हो गये हैं क्योंकि यहां बदलता है सिर्फ नाम ! दिशा अौर शैली में कोई अाधारभूत अंतर नहीं है. दलों की इस मुट्ठी में से जो लोकतंत्र को बाहर निकाल सके, वैसे किसी जयप्रकाश की देश को जरूरत है. अौर जयप्रकाश १९७७ में, केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के मुखिया का चुनाव करने के बाद, जनता पार्टी के विजयी सांसदों की सभा में कह गये : लोकतंत्र दो ताकतों के मेल से चलता है - लोक अौर तंत्र ! तंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में जाते-जाते हमने देश को तानाशाही की कगार पर पहुंचा दिया ! अाप यह गलती मत करना. लोक की सीधी अौर सक्रिय भूमिका उजागर हो अौर वह समाज की बुनियादी इकाइयों में बैठ कर अपना कामकाज चलाए तभी हम पश्चिमी लोकतंत्र के कठघरे से बाहर निकल कर, अपने देश की प्रतिभा के मुताबिक लोकतंत्र गढ़ सकेंगे.

इस दिशा में पहल किए बिना न कोई मनमोहन, न कोई मोदी अौर न कोई राहुल ही कोई राह निकाल या पा सकते हैं. सन् १४ की चुनौती दलों को ही नहीं, मतदाताअों को भी है कि जिसका वोट है, उम्मीदवार भी उसका ही हो; ऐसा हो तो लोकतंत्र की लगाम दलों के हाथ से निकल कर मतदाता के हाथ में जाती है अौर तब कहीं लिखा जा सकता है लोकतंत्र का नया संस्करण  ! (10.09.13)

यह परिक्रमा पूरी हुई 

29.8.13

८४ कोसी परिक्रमा इस तरह कभी पूरी नहीं हुई होगी जैसी अभी-अभी पूरी हुई है ! सभी कह रहे हैं कि वह शुरू ही नहीं हो सकी तो पूरी कैसे होती, लेकिन मैं कह रहा हूं कि वह शुरू भी हुई अौर पूरी भी हुई अौर उससे कई तरह के नतीजे निकले हैं जिन पर गौर करने की जरूरत है.

विश्व हिंदू परिषद द्वारा अायोजित इस यात्रा के पीछे पूरा संघ परिवार खड़ा था अौर इससे जुड़ा था भारतीय जनता पार्टी के नये रणनीतिकार नरेंद्र मोदी का गणित ! उत्तरप्रदेश के बिल में मोदी ने अमित शाह नाम का जो चूहा छोड़ा है, उसने राम मंदिर का पुराना सिक्का फिर से चलाने का यह रास्ता खोजा था. भारतीय मानसिकता में विदेशी सामानों का अजीब-सा अाकर्षण है - फिर चाहे वह सामान हो कि अादमी; अौर यहां  विदेशी से मतलब बाहर का - मतलब, इसमें अमरीका से अयोध्या तक कुछ भी समाता है ! तो उत्तरप्रदेश की पिटी-पिटाई संघ-परिवारी फौज के लिए अमित शाह भी इंपोर्टेड हैं अौर इसलिए उनकी कीमत भी ज्यादा है ! तो  उनकी चाणक्य-बुद्धि से राजनीति का राजसूय यज्ञ किया गया अौर परिक्रमा का दिग्विजयी अश्व छोड़ा गया. जो हिसाब नहीं लगाया गया वह यह कि राजनीतिक स्वार्थ अौर लोगों के भोले विश्वास का जोड़ बिठाए बिना अाप उन्माद की वह अाग नहंीं जला सकते हैं जिस पर सत्ता की रोटी सिंकती है. अप्रैल-मई में जो परिक्रमा परंपरागत तरीके से अयोध्या में हो चुकी थी वह फिर से अचानक ही अगस्त में कैसे की जा रही है, यह सीधा-सा सवाल था जिसका जवाब सोचा नहीं गया.  

किसी को कानोकान खबर न हो अौर अपने साथ के तथाकथित साधु-संतों को जुटा कर परिक्रमा शुरू कर दी जाएगी तो कोई रोक नहीं सकेगा, अौर इस अबाध परिक्रमा के गर्भ से राम मंदिर का उन्माद खड़ा किया जा सकेगा, कुल सोच इतनी ही थी. रणनीति तैयार हो गई अौर काफी दूर तक चली भी. लेकिन अमित शाह को ऐसी ही रणनीतियां बनाने का अनुभव रहा है जिसके पीछे राज्यशक्ति का सहयोग बिन मांगे मिलता है. इसलिए गुजरात के अखाड़े में ही उनकी सारी पहलवानी चली है. मोदी ऊपर, अमित शाह नीचे, तो फिर कौन टांग खींचे ! लेकिन यहां तो गुजरात नहीं, उत्तरप्रदेश था अौर मोदी नहीं मुलायम सिंह थे ! विश्व हिंदू परिषद भी अशोक सिंघलों अौर प्रवीण तोगड़ियाअों के बीच  जिस तरह अाज टूटी हुई है, उसका हिसाब नहीं लगाया गया. मोदी को अपना भावी घोषित कर भारतीय जनता पार्टी ने अपने पांव पर अाप ही कुल्हाड़ी मार ली है कि सांप्रदायिकता का खुला खेल फरूक्खाबादी खेलते वह हिचकती है. चाहती है लेकिन खेल नहीं पाती है क्योंकि अाज की राजनीतिक जरूरत यह है कि मोदी का वह चेहरा छिपा ही रहे. इसलिए वह भी इस परिक्रमा के साथ नहीं हो पाई. संघ परिवार के दूसरे सदस्यों को भी हिदायत दी गई कि परिक्रमा-प्रयोग में सभी शरीक न हो जाएं - प्रयोग विफल भी हो सकता है अौर विफलता सबको समानरूप से नुकसान पहुंचाए, यह तो कोई रणनीति न होगी !

इस अाधी-अधूरी भूमिका ले कर परिक्रमा-प्रयोग शुरू हुअा ! साधु-संत भी राजनीतिक चालों-कुचालों के जानकार हो गये हैं. पुराने स्थापित महंतों को मैदान में नये दावेदारों की उपस्थिति नागवार गुजरी अौर उन्होंने परिक्रमा को शास्त्रसम्मत मानने से इंकार कर दिया. केंद्र ने मुलायम सिंह से कह दिया कि परिक्रमा हुई तो कानून अापकी परिक्रमा शुरू कर देगा ! दूसरी तरफ मुलायम को मालूम है कि वे कुछ भी कर के हिंदुअों के मन में भारतीय जनता पार्टी वाली जगह नहीं बना सकते बल्कि ऐसी कोशिश भी करेंगे तो अपने दूसरे अाधार खो देंगे ! मायावती का अपना अाधार खासा मजबूत है लेकिन वह लखनऊ जीतने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसलिए वे भी इसी घात में बैठी हैं कि मुलायम चूकें तो वे मंच पर अा जाएं. किसी भी कारण से मायावती का मंच तक पहुंचना कितना घातक होता रहा है, यह मुलायम सिंह से बेहतर कौन जानता है ! इसलिए मुलायम सिंह यादव के अखिलेश यादव ने वह सारी कड़ी काररवाई की जिससे ८३ कोस तो छोड़िए, संघ परिवारी अपनी परिक्रमा भी नहीं कर सके !
लेकिन परिक्रमा परिणामहीन नहीं रही ! इसने सबसे पहली बात यह स्थापित की कि बहुत भ्रष्ट व स्वार्थी हो जाने के बाद भी राज्य-तंत्र में इतनी ताकत बची है कि वह ठान ले अौर राजनीतिक नेतृत्व टांग न खींचे तो वह किसी भी चुनौती का मुकाबला कर सकता है. इसलिए अाज भी रोना तंत्र का नहीं, राजतंत्र का ही है ! यह राजनीति व्यक्ति व समाज को प्रतिगामी ताकत में बदलती है अौर राजतंत्र को खोखला बना कर अपने हित में इस्तेमाल करती है. यह राजनीति व्यक्ति व समाज दोनों से द्रोह करती है. 

परिक्रमा ने संघ परिवार को बताया कि राम मंदिर से नहीं, उसके नाम से की जा रही राजनीति से लोगों का मन ऊब चुका है. इसलिए चुनाव का मुद्दा कुछ नया खोजें अौर मंदिर जैसे सवाल जिस तरह अदालत के पास पड़े हैं, वैसे ही  पड़े रहने दें. परिक्रमा ने तथाकथित साधु-संतों को बताया कि समाज की उनमें कोई अास्था बची नहीं है. वे राजनीतिक गठबंधन कर के अपनी रही-सही हैसियत भी गंवा रहे हैं.

परिक्रमा ने समाज को सावधान किया कि भोले विश्वासों  अौर अंधी अास्थाअों को छलने वाली ताकतों से सावधान रहे अन्यथा समाज भी बिखर जाएगा अौर अास्थाएं भी ! एक परिक्रमा अगर इतने सारे परिणाम लाती है तो उसे हम विफल कैसे कह सकते हैं. ( 29.8.13)

यह बलात्कार कितना िघनौना है !

26.08.2013 

शायद यही होना सबसे जरूरी था कि देश की राजधानी दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के बाद, देश की अार्थिक राजधानी मुंबई में सामूहिक बलात्कार हो ! मुंबई के अत्यंत धनाढ्य व व्यस्त इलाके महालक्ष्मी में है किसी कपड़ा-मिल का वह खंडहरनुमा अवशेष कि िजसके सुनसान में प्रेस-फोटोग्राफर लड़की अौर लड़के के साथ सामूहिक बलात्कार हुअा. लड़के के साथ बलात्कार ? नहीं, चौंकने जैसी कोई बात नहीं है बल्कि समझने जैसी है !  बलात्कार का मतलब ही है कि अापके साथ कोई वह करे जिसके लिए अाप रजामंद या तैयार नहीं हैं.  

      लड़की के साथ ऐसा होता है तब वह ज्यादा वीभत्स व हैवानी लगता है क्योंकि उस जबर्दस्ती का परिणाम लड़की के शरीर व मन पर इतना गहरा होता है कि वह बलात्कार से गुजर कर वह िफर सामान्य हो जाए, यह बहुत कठिन होता है. इसका लड़की के मजबूत या कमजोर होने से कोई रिश्ता नहीं है बल्कि इसका रिश्ता उस प्राकृतिक संरचना से है जिसे लड़की कहते हैं. यह लड़की देखने में ही पुरुष से अलग नहीं होती है बल्कि अपनी अांतरिक संरचना व संवेदना में भी अलग होती है.
बलात्कार पुरुष के साथ भी होता है भले कि उसका कोई परिणाम उसके शरीर पर हुअा दिखाई न देता हो लेकिन अादमी केवल शरीर नहीं होता है न ! दिल्ली के बलात्कार कांड के बाद जो बच गया उस लड़के से या मुंबई के बलात्कार के बाद के लड़के से पूछिए कि क्या हुअा उनके मन के साथ !  घोर शक्तिहीनता अौर अंधेरे के दहाड़ते सागर जैसी निरुपायता के अनुभव से गुजरने के बाद जो बचता है वह पुरुष फिर पुरुष नहीं हो पाता है.  बलात्कार से जिंदगी खत्म नहीं होती अौर वैसा कुछ होता हो तो हमें उससे जूझना व जीतना अाना ही चाहिए लेकिन इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि कैंसर के हमले से हम घायल नहीं होते !
गहरे शर्म के साथ मैं यह पूछना चाहता हूं कि उन दोनों को उस सुनसान खंडहर के अंधेरे में घुसने की जरूरत क्यों थी ? क्या वे दोनों किसी एकांत की खोज में थे ? अगर नहीं तो फिर वह कैमरेबाजी अनावश्यक थी, अक्ल से दुश्मनी थी. चोरी करना बुरी बात है लेकिन मनुष्य-मन की इस कमजोरी को उभरने का मौका न मिले, इसके प्रति सावधानी बरतना हमारा भी दायित्व है. अाज देश-समाज में जैसा माहौल बना रखा है हमने उसमें गहरे शर्म के साथ कहना पड़ता है कि हमें अपनी-अपनी तरह से सावधान रहने की जरूरत है. लड़कियों को ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि  वे अंधेरे की अासान शिकार होती हैं.    
मुंबई बलात्कार की खबर फैली तो सबसे सही बात कही फिल्मकार करण जौहर ने. उन्होंने कहा कि नहीं, कोई भी शब्द पर्याप्त नहीं हैं कि मैं उनसे अपनी प्रतिक्रिया बता सकूं ... इसलिए गहरे शर्म व शोक के साथ मौन रह जाने दें मुझे ! लेकिन करण जौहर की तरह मेरे लिए यह रास्ता भी खुला हुअा नहीं है. बलात्कार के बाद तरह-तरह के बलात्कार की जैसी चौतरफा लहर देश में दौड़ती है, उसे देखते रहना अौर चुप रहना बहुत संतापदायक है; खुद को खुद की नजर में गिराने जैसा जघन्य पतन है. इसलिए यह कहना जरूरी है कि यह सार्वजनिक बलात्कार कितना िघनौना है !

कैसे पचा लें हम उनको जो अपनी राजनीति के अाधार पर बलात्कारों में फर्क करते हैं ? अगर बलात्कार की शिकायत किसी अासाराम बापू के बारे में है तो उमा भारती बलात्कार की शिकार हुई लड़की की बात सुनने को भी तैयार नहीं होती हैं; बस, अासाराम बापू को निर्दोष बताती चली जाती हैं. उन्हें कैसे पता कि अासाराम निर्दोष हैं, तो उनका जवाब था कि अासारामजी खुद ही ऐसा कह रहे हैं. वे यह सुनने के लिए भी नहीं रुकीं कि अासाराम जो कह रहे हैं वे सारी बातें एक-एक कर गलत निकलती जा रही हैं अौर बलात्कार की शिकार लड़की एक ही बात कह रही है अौर उसकी बात को काटने वाला कोई तथ्य सामने नहीं अा रहा है तो हम अासाराम की बात सच मानें, यह कैसे संभव है ! भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन कहते दिखाई दिए कि अारोप से क्या होता है, साबित तो कुछ हुअा नहीं है. क्या दिल्ली अौर मुंबई के बलात्कार के अारोपियों पर कुछ साबित हुअा है ? लेकिन कुछ बातें जमीन पर िखंची लकीर की तरह होती हैं कि जिनके लिए किसी साक्ष्य की जरूरत नहीं पड़ती है. ऐसे मामले में तो अारोपी को ही खुद को निरपराध साबित करना होता है अौर जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक वह शक के घेरे में अौर सहानुभूति से दूर होता है. फिर अासाराम बापू के मामले पर हिंदुत्व की राजनीित उमा भारती करें अौर भारतीय जनता पार्टी परदे के पीछे से उसका समर्थन करे तो हम चुप कैसे रहें  ?

मुंबई भाजपा की राजनीति में अभी-अभी पैदा हुई हैं शाइना एन.सी.  ! पहले फैशनजगत से जुड़ी अौर अब राजनीति  में घुसपैठ करने में लगी शाइना एन.सी. ने एक अफसोस भरी टिप्पणी अखबारों में लिखी है कि मुंबई शहर अपनी चमक खोता जा रहा है. फैशन की या कपड़ों की चमक कैसे जाती है, यह भले शाइना को पता हो लेकिन वे यह नहीं समझ पा रही हैं कि कोई शहर अपनी जड़ों से कैसे कटता है ! जिस शहर के नागरिक सत्ता व राजनीति में अपनी जगह बनाने की हड़बड़ी में शहर को धूल में मिलाते नहीं हिचकते, वे अाज जैसी ही हालत में होते हैं. साइना पार्टी-लाइन का राई-रत्ती पालन करती हैं अौर इसलिए सच से कोई साबका नहीं रखती हैं.

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य स्मृति ईरानी दिल्ली बलात्कार पर जितनी ताकत से चीखती-चिल्लाती दिखाई देती हैं, वे ही कभी भूल से भी यह नहीं कहती हैं कि गुजरात की उनकी पूरी मोदी सरकार बलात्कार की अपराधी है ! िफर तो बात यहां पहुंचती है न कि हिंदू महिलाअों के साथ हुअा बलात्कार निंदनीय है, मुसलमान महिलाअों के साथ हुअा बलात्कार चलता है ! इस देश में सांस लेने वाले सारे धर्मावलंबी अगर ऐसा ही मानस बना लें तो किस धर्म की अौरत भारत में सुरक्षित रह जाएगी ? अगर तर्क यहां से चलता है तो यहां तक पहुंचता है कि बलात्कार की शिकार महिला किस पार्टी की है अौर जहां बलात्कार हुअा वहां किस पार्टी का राज है ! ऐसे लोग हैं कि जो मानते हैं कि बलात्कार अपने-अाप में िंनदनीय व अमानुषिक नहीं है, असली बात है  उसके साथ जुड़ी सच्चाइयों से निकलने वाला समीकरण ! वह हमारे अनुकूल है तो बलात्कार की तरफ पीठ की जा सकती है; प्रतिकूल है तो भारतीय संस्कृति से लेकर अौरत की अस्मिता तक का नारा इससे जोड़ कर अपनी गोटी लाल की जा सकती है.

कांग्रेस के किसी भी हैसियतदार अादमी ने मुंबई के इस बलात्कार कांड पर कोई टिप्पणी नहीं की. उस खेमे से कोई शोर उट्ठा ही नहीं ! उठता भी कैसे - सरकार अपनी है ! अवसरवादी राजनीति की नैतिकता शुरू ही यहां से होती है कि जो अपनी पार्टी का है या सत्ता पाने में मददगार हो सकता है, वह गलत हो ही नहीं सकता !  इसलिए दिल्ली के बलात्कार कांड से दहले हुए मुल्क की अांख में धूल झोंकने के लिए वर्मा कमीशन बनाया गया लेकिन उसकी सिफारिशें किसी पार्टी को स्वीकार नहीं हुईं क्योंकि बलात्कार किसी के निशाने पर नहीं है, सबकी चिंता वैसी गलियां बनाए रखने की है जिनसे हो कर उनका अपना कोई बलात्कार बच निकले ! अापको नहीं लगता कि यह खुला बलात्कार बेहद घिनौना है ! हमने राजनीति स्पर्धा अौर खोखले विकास की अाड़ में, अापाधापी में जीने वाला जैसा समाज बनाया है, उसमें बलात्कार ही सबसे सहज हथियार बच गया है. (26.08.2013)


कानून हमारी जेब में ! 

18.8.13

घटना अगस्त माह के मध्य में घटी जब यह खबर बिजली की तरह कोल्हापुर में फैलती गई कि झारखंड से अाए मजदूरों में से किसी ने २ साल की एक बच्ची से बलात्कार किया है ! किसी निर्माण परियोजना पर काम कर रहे इन मजदूरों में से किसी ने पड़ोस के मजदूर-परिवार से परिचय बनाया अौर फिर उसकी मासूम बच्ची को फुसला कर, उसे किसी सुनसान जगह पर ले गया अौर फिर उसके साथ बलात्कार किया. खबर घिनौनी थी, किसी को भी उद्वेलित करने वाली थी, इससे जुड़ी क्रूरता जघन्य थी अौर वहशीपन की यह पराकाष्ठा थी.  देश भर से ऐसी खबरें रोज ही अा रही हैं. उस रोज यह कोल्हापुर से अाई थी. लेकिन इस घटना के बाद की घटना ऐसी है जिसके कारण इसे दूसरी घटनाअों से अलग कर के देखना हमें जरूरी लगा है. 

अगर कोल्हापुर की पुलिस की मानें तो वे १५-२० लोग थे जो मोटरसाइकलों पर सवार हो कर अाए थे. उनके हाथों में हर तरह के हथियार थे. स्थानीय महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राजू िदंडरोले की अगुवाई में उन्होंने उन मजदूरों की अस्थाई बसाहट पर हमला किया जो उत्तरप्रदेश व बिहार से अाए थे अौर यहां ठेकेदारों के साथ विभिन्न निर्माण परियोजनाअों पर काम कर रहे थे. हमला सुनियोजित था अौर सामने जो भी पड़ रहा था, उसे ही निशाने पर ले रहा था. मजदूरों की अच्छी कुटाई-पिटाई करने के बाद यह विजयी टुकड़ी वहां से अागे निकल गई. 

इलाके के पुलिस अधिकारी जब यह अांखों देखा हाल बता रहे थे तब किसी ने उनसे पूछा नहीं कि अापको यह कैसे पता कि लोग कितने थे; कि उनके हाथ में क्या था; कि वे मोटरसाइकल पर सवार थे; कि उन्होंने उत्तरप्रदेश व बिहार के मजदूरों पर ही हमला किया ? अक्सर हम अधिकारियों, नेताअों व पुलिस वालों से वैसे सवाल पूछते नहीं हैं जिनसे उनकी शान में बट्टा लगे लेकिन अगर उस दिन कोल्हापुर में किसी ने वैसे सवाल पूछे होते तो पुलिस अधिकारी क्या जवाब देता ? या तो वह कहता कि उसने यह सब अपनी अांखों देखा है, तो तुरंत सवाल उठता कि पुलिस क्या इसलिए रखी गई है कि वह लोगों को वारदात की तैयारी करते देखे अौर वारदात हो जाने के बाद उसका विवरण समाज को दे ? पुलिस का पहला अौर एकमात्र काम यह नहीं है क्या कि वह किसी भी वारदात की तैयारी में लगे लोगों को तभी धर दबोचे जब वे कुछ कर न पाये हों ?  पुलिस का दूसरा जवाब यह हो सकता था कि उसे यह सब प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया, तब उससे पूछा जाना चाहिए था कि जब यह सब घट रहा था तब वह थी कहां ? अगर पुलिस का काम केवल इतना है कि किसी को मार-पीट कर कोई चलता बने तब पिटी पार्टी थाने में अा कर गुहार लगाए अौर तब कहीं जा कर पुलिस मामला दर्ज करे अौर अखबारवालों को बताए कि ऐसा हुअा है, तब पुलिस हम रखें ही क्यों ?

कोल्हापुर महाराष्ट्र का एक बड़ा शहर है जहां तेजी से उद्योगों का विकास व विस्तार हो रहा है. जहां कहीं भी विकास की हमारी गाड़ी पहुंचती है वहां पहुंचते व पहुंचाए जाते हैं मजदूर ! मशीनें कितनी भी क्यों न बन गई हों,इंसानी श्रम का कोई िवकल्प नहीं है ! हमारे देश के अधिकांश गरीब राज्यों से अपना श्रम ले कर मजदूर देश भर में अाते-जाते हैं. कहें तो हमारे तथाकथित विकास की जड़ में बिहार, उत्तरप्रदेश, अांध्र, अोडिसा से अाए मजदूर ही होते हैं.  वे अच्छे-बुरे-ईमानदार-बदनीयत तथा दूसरी तमाम कमजोरियों के वैसे ही शिकार होते हैं जैसे हम अौर अाप हैं ! वह मजदूर, जिसने उस मासूम बच्ची को अपनी हवस का शिकार बनाया, इनमें से किसी भी श्रेणी का हो सकता है. वह चाहे जिस भी श्रेणी का हो, उससे निबटने के लिए पूरा पुलिस-तंत्र है, कानून है, अदालत है. एक संगठित, जागरूक समाज की भूमिका भी इसमें बनती ही है - अगर वह कहीं हो ! लेकिन महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अौर शिव सेना किसी भी तरह संगठित व जागरूक समाज की परिभाषा में नहीं अाते हैं; बल्कि इससे विपरीत अगर कोई समाज हो तो ये दोनों जरूर उसके अंग बन सकते हैं. इसलिए किसी एक बलात्कारी से बदला लेने अाए मनसे व शिसे के लोगों को यह अधिकार कहां से मिला या किसने दिया कि वे मजदूरों की बसाहट पर हमला बोलें, मारपीट करें अौर फिर यह धमकी भी दें : खैरियत चाहते हो तो कोल्हापुर छोड़ दो अन्यथा हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे ? 

जवाब दिया मनसे के जिलाध्यक्ष अभिजीत सलोखे ने ! अभिजीत ने कहा: हमारे माननीय अध्यक्ष राज साहेब ठाकरे ने हमसे कह रखा है कि उत्तर भारत से जो मजदूर यहां अाते हैं, वे अगर थोड़ी भी बदत्तमीजी करें तो उनकी पूरी धुलाई करें. हमने वही किया ! चाचा बाल ठाकरे की  शिव सेना अौर भतीजे राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के बीच महाराष्ट्र का अाका बनने की जो होड़ चली थी, वह बाल ठाकरे के निधन के बाद से ज्यादा ही खुले में अा गई है।  दोनों  को पता है कि वे अलग-अलग भी अौर एक साथ मिल कर भी बाला साहब की खाली जगह नहीं भर सकते. लेकिन उस खाली जगह को हथियाने की होड़ में दोनों लगे हैं.  दोनों जानते हैं कि बाला साहब जैसी अवसरवादी राजनीति का पहला अध्याय है अतिवादी बोली बोलना अौर मराठियों को छोड़ कर, दूसरे किसी भी प्रांत के लोगों को सुविधानुसार निशाने पर लेना. कोल्हापुर में मनसे के कार्यकर्ताअों ने यही किया. क्षोभ इसका कम था कि एक बच्ची के साथ बलात्कार हुअा, खुशी यह थी कि इसी या किसी बहाने की अाड़ में उत्तर भारतीयों पर हमला करने का मौका मिला. 

यह खतरनाक खेल है. देश में असहिष्णुता का जैसा माहौल बना हुअा है अौर जिस तरह उसे हवा दी जा रही है, उसमें प्रांतवादी सांप्रदायिकता के भड़कने का पूरा खतरा है. कितने शर्म की बात है कि कोल्हापुर में ऐसी घटना घट जाती है अौर मुंबई की नींद भी नहीं टूटती है. राज ठाकरे को तो इस घटना पर कुछ नहीं ही बोलना था, मुख्यमंत्री , उप-मुख्यमंत्री अौर गृहमंत्री में से भी कोई नहीं बोला ! पार्टियों के हिसाब से देखें तो सोनिया कांग्रेस अौर शरद पवार कांग्रेस, दोनों इसमें अा जाते हैं. तो हम कह सकते हैं कि महाराष्ट्र की राजनीति की सारी प्रमुख पार्टियां इस बारे में एक राय हैं कि उत्तर भारतीयों को मुंबई में नहीं रहना चाहिए;  अौर वे फिर भी यहां रहते हैं तो हम उनकी सुरक्षा की जिम्मेवारी नहीं ले सकते ! तो फिर ऐसा भी होगा कि कोई किसी की सुरक्षा की जिम्मेवारी नहीं लेगा अौर सभी सड़कों को एक-दूसरे का  मुकाबला करते मिलेंगे ! क्या इस देश व इसके नागरिकों के साथ इससे क्रूर दूसरा भी कुछ हो सकता ! चाहे शिवसेना हो कि मनसे कि कोई तीसरा, राजनीतिक दलों को ऐसा लगता है कि कानून सारे-के-सारे उनकी जेब में हैं जो जरूरत पड़ने पर दूसरों को दिखाए जाते हैं, जरूरत न पड़ने पर खुद खाए जाते हैं.    

यह अादमी प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं है 

15.8.13
  

लालकिला ने पता नहीं कितनी जश्ने-अाजादी देखी व सुनी है ! वह जैसे हिंदुस्तान के इतिहास के पन्ने-पन्ने संभाले हुए है अौर उसे एक-से-दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाता है. पता नहीं लालकिले की प्राचीर चढ़ते हुए हमारे प्रधानमंत्रियों को यह इतिहास-बोध होता है या नहीं अौर वे अपनी लघुता के अहसास से रू-ब-रू होते हैं या नहीं लेिकन लालकिले को यह तो जरूर पता चलता होगा कि उसकी सीढ़ियां चढ़ रहे कदमों में कितनी ताकत इतिहास ने भरी है अौर कितनी संयोगों ने ! वह अगर हमारी बोली में बोल सकता ( अपनी बोली में तो वह हमेशा बोलता ही रहता है ! ) तो बोलता कि मेरी सीढ़ियां चढ़ता हर कदम पिछले कदमों से बौना व कमजोर होता जा रहा है. अब हम लालकिले से नहीं सुनते हैं किसी जवाहरलाल नेहरू को जो इस मौके पर देश से बातें करते थे, सरकार की बोली नहीं बोलते थे. जिन्होंने  लालकिले से जय हिंद बोलने की ही नहीं बल्कि दूसरी कितनी ही परंपराएं  बनाई थीं. जिन्होंने यह बात समझी अौर समझाई थी कि देश किसी भी सरकार व किसी भी प्रधानमंत्री से बड़ा होता है.

लालकिला ही हमें यह भी बता सकता है कि सत्ता की राजनीति के िशखर पर बैठे-बैठे कैसे वही जवाहरलाल नेहरू कदम-दर-कदम नीचे उतरते गये अौर उनकी सारी अाभा चुकती गई. सत्ता कुछ अजीब ही शै है. यहां तक पहुंचने का रास्ता कठिन है लेकिन उससे भी कठिन है यहां बने रहने की कीमिया ! वहां पहुंचने के लिए जितनी लंबी व तेज दौड़ लगानी पड़ती है, वहां बने रहने के िलए उससे भी ज्यादा लंबी व कठिन दौड़ दौड़ने की जरूरत पड़ती है. इधर अापने दौड़ना बंद किया अौर उधर अाप दौड़ से बाहर हुए ! बाहर होने का यही भय है जो बड़ी कीमत वसूलता है अौर अापको अापके सारे अादर्शों की कब्र पर खड़ा कर देता है. अगर अापके अस्तित्व का एकमात्र कारण अापका पद है तो यह पतन जल्दी होता है अौर निश्चित ही होता है. 
अभी-अभी, १५ अगस्त को हमने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लालकिले से बोल कर एक नया कीर्तिमान बनाते देखा. बताने वाले बताते हैं कि वे लालकिले से देश को सबसे अधिक बार संबोधित करने वाले प्रधानमंत्री हैं. होंगे, लेकिन अाप लालकिले से पूछें तो वह शायद यही बताएगा कि वे बोले चाहे जितनी भी बार हों, वे देश के ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें देश ने सबसे कम सुना है. मनमोहन सिंह देश के सबसे अाभाहीन व प्रेरणाहीन प्रधानमंत्री हैं. उनके पास देश को भरोसे में लेने की न तो भाषा है, न शैली अौर न उपलब्धियां ! वे कभी राष्ट्र के नेता नहीं रहे, कभी राजनीतिक- सामाजिक कार्यकर्ता नहीं रहे ! जनता नाम का बिजली का नंगा तार उन्होंने कभी छुअा नहीं. चुनाव के रास्ते लोकसभा में पहुंचने का अनुभव भी उनके पास नहीं है. वे नौकरशाह रहे हैं जो कई कारणोंवश बरास्ते वित्तमंत्री प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गया ! अगर उनके जैसा कोई दूसरा प्रधानमंत्री खोजना हो तो हम मोरारजी देसाई तक पहुंचते हैं. लेकिन दोनों में एक फर्क था - अौर वह बड़ा फर्क था - कि मोरारजी देसाई नौकरशाह की कुर्सी छोड़ कर राजनीित में उतरे तो पूरी तरह उतरे ! कांग्रेस के कार्यकर्ता रहे, संगठक रहे, पार्टी के अध्यक्ष रहे, लगातार चुनाव लड़ते रहे. कांग्रेस पार्टी के भीतर के सत्ता-संघर्ष में सक्रिय रहे. वे देश के पहले नौकरशाह प्रधानमंत्री रहे जिसने उसी अंदाज में सरकार चलाई अौर गंवाई. मनमोहन सिंह की न तो वैसी पृष्ठभूमि रही है अौर न वे उन अनुभवों से गुजरे हैं जिनसे गुजर कर कोई ठोस राजनीतिक कार्यकर्ता बनता है. इसलिए लंबे समय से प्रधानमंत्री रहते हुए भी वे देश को कभी यह अहसास नहीं करा सके कि देश में कोई प्रधानमंत्री भी है.

लालकिला बताएगा कि इस वर्ष प्रधानमंत्री एक बात भी ऐसी नहीं बोल सके कि जो अगले वर्ष तक याद रखने लायक हो. वे पाकिस्तान की मूर्खता के शिकार हुए फौजी जवानों की स्मृति में दो अच्छे वाक्य नहीं कह सके.  वे जीवनावश्यक चीजों की लगातार बढ़ती कीमतों के बोझ तले पिसते लोगों को यह बताते हुए हिचके भी नहीं कि सरकार कितने करोड़ लोगों को एक-दो अौर तीन रुपये की दर से अनाज देती है याकि मनरेगा में याकि मि-डे मील में कितनों को खाना खिलाया जाता है. उनकी सरकार की छत्रछाया में फैलता-फूलता भ्रष्टाचार अौर बेहिसाब महंगाई कितने घरों को खाने-पीने से वंचित कर रही है, इसका कोई हिसाब बताया होता उन्होंने अौर फिर यह बताया होता कि उनकी सरकार कैसे इनसे लड़ने की तैयारी कर रही है तो भी हमें अगले साल तक इसे याद रखते. लेकिन उन्हें तो बच्चों से जयहिंद बुलवाने की इतनी जल्दी थी कि वे ऐसा कुछ भी कहे बगैर लालकिले से उतर गये. लोग पूछते ही रह गये कि क्या ये फिर चढ़ेंगे ?

लेकिन कहीं कोई अौर भी था जो खुद को प्रधानमंत्री मान कर , किसी कल्पना के लालकिले से, अपनी कल्पना के देश को संबोधित कर रहा था.  राजनीतिक अभद्रता के इस छोर पर खड़े थे भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ! १४ अगस्त को ही उन्होंने राजनीतिक शिष्टता की सारी सीमाएं तोड़ते हुए घोषणा कर दी थी कि कल १५ अगस्त को लालकिले से वर्तमान प्रधानमंत्री का अौर भुज के मैदान से भावी प्रधानमंत्री का मुकाबले का भाषण होगा ! देश देखेगा कि कौन बेहतर बोलता है !! उन्होंने यह भी कह दिया कि एक तरफ निराशा की बातें होंगी, दूसरी तरफ अाशा की ! लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण के बाद जब नरेंद्र मोदी ने बोलना सुना िकया तो उनकी भाषा अौर उनका तेवर किसी चौराहे पर खड़े हो कर माल बेचते अादमी का था. चाह रहे थे वे कि प्रधानमंत्री की सारी बातों का ऐसा जवाब दें कि उनकी खटिया खड़ी हो जाए लेकिन इस जोम में वे यह भूल गये कि वे अपनी खटिया खुद ही खड़ी कर रहे हैं अौर वह सब कुछ, जो अब तक देश से छुपा है, सब पर उजागर हो रहा है.

मनमोहन सिंह अच्छे व सधे वक्ता नहीं है, यह सबको मालूम है - पिछले कई सालों से हम इस पीड़ा को झेल रहे हैं. लेकिन हमें इसका भी अहसास है कि मनमोहन सिंह अाधुनिक समझ रखने वाले एक संजीदा व्यक्ति हैं. अपनी राजनीतिक समझ व कमजोरियों को उन्होंने चुप रह कर साधने की कोशिश की है. अंतरराष्ट्रीय मंच पर वे दूसरे किसी भी प्रधानमंत्री की तुलना में कम या हल्के नहीं पड़े हैं. नरेंद्र मोदी इसके विपरीत भीड़बाज अादमी हैं जो अब तक गुजरात में सीमित थे तो हमें बहुत साबका नहीं पड़ता था. देश के दूसरे मुख्यमंत्रियों के बारे में हम जानते ही कितना हैं अौर उसकी जरूरत भी कितनी है ! लेकिन जब कोई अादमी राष्ट्रीय मंच पर अा कर अपनी हैसियत दर्ज करवाने की बेचैनी दिखलाता है तब उसे देखने-जांचने-अांकने की कसौटियां बदल जाती हैं. नरेंद्र मोदी उस दिन एक तीर में कई शिकार करने की कोशिश में लगे थे लेकिन गर्जन-तर्जन के अलावा उनके पास कहने को कुछ था ही नहीं ! वे सावधान थे कि राष्ट्रीय मंच पर खुद को जमाने के चक्कर में कहीं गुजरात उनके हाथ से छूट न जाए इसलिए उन्होंने सवाल यह खड़ा किया कि प्रधानमंत्री ने सरदार पटेल का नाम क्यों नहीं लिया ? कोई उनसे उलट कर पूछे कि नाम तो प्रधानमंत्री ने तिलक महाराज का भी नहीं लिया, राजेंद्र बाबू को भी याद नहीं किया, राजगोपालाचारी की बात ही नहीं निकाली तो ? यह समझने के लिए ज्यादा ज्ञानी होने की जरूरत नहीं थी कि प्रधानमंत्री स्वतंत्रतासेनानियों की हाजिरी नहीं ले रहे थे. वे सरदार का नाम लेते तो उससे सरदार की हैसियत बढ़ जाती अौर नहीं लिया तो उनका कद छोटा पड़ गया, क्या नरेंद्र मोदी गुजरातियों को यह बताना चाह रहे थे ? तो नाम तो मोदी ने महात्मा गांधी का भी नहीं लिया अौर राजगुरु-सुखदेव का भी नहीं, किसी ने इसकी फिक्र की क्या ? मोदी अप्पल-टप्पल कुछ भी बोल रहे थे यह मान कर कि कोई बात तो िनशाने पर लगेगी ! लेिकन सारी बातें अगर कुछ कर पा रही थीं तो उनके खोखलेपन की चुगली कर रही थीं. मानसिक गुलामी की बात कही उन्होंने लेकिन यह भूल गये कि अाज के हिंदुस्तान में चालाकी से कहें अाप या भोंडेपन से, किसी एक वर्ग या समुदाय की बात करने से ज्यादा गहरी मानसिक गुलामी दूसरी नहीं है. यह अंग्रेजों की सिखाई कूटनीति है जिससे उन्होंने हमारे देश के सामाजिक जीवन में जहर घोला था. अाज भी उसी लकीर के फकीर बने हैं मोदी जैसे लोग !

प्रधानमंत्री ने लालकिले से देश के किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया; मोदी भी उनकी ही तरह बज्र गूंगे साबित हुए. उनके पास भी  नीतियों के स्तर पर, कार्यक्रमों के स्तर पर, सोच व कल्पना के स्तर पर कुछ भी ऐसा नहीं था कि जो वे देश से बांट सकें. हां, उनके पास वह शालीनता भी नहीं थी जो मनमोहन सिंह के पास अब तक रही है. देश कई स्तरों पर गहरी निराशा, विमूढ़ता अौर दिशाहीनता से गुजर रहा है. ऐसे में अगर राजनीतिक विमर्श की शालीनता भी हमने खो दी तो पतन को रोकना कठिन हो जाएगा. इसलिए मैं पूरी जिममेवारी से कहना चाहता हूं कि नहीं, यह अादमी प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं है - अगर भारतीय जनता पार्टी ने इन्हें प्रधानमंत्री बनाया तो वह भी पछताएगी अौर देश भी ! ( 15.8.13)

अभागे समय में हम ! 

4.08.2013

जब देश मछली-बाजार में बदल जाता है तब कहां से कौन, कब अौर क्या बोल रहा है, यह न तो पता चलता है अौर न इसकी किसी को फिक्र होती है ! अर्थहीन शोर सबके हक में काम करता है - जो बोलते हैं वे भी बेखौफ रहते हैं कि इसे कोई गंभीरता से सुनेगा नहीं; जो सुनते हैं वे भी अनसुनी कर देते हैं कि कल अपनी बारी भी होगी !  

इस बाजार में सबसे ज्यादा शोर भारतीय जनता पार्टी अौर कांग्रेस के खेमे से उठ रहा है.  याद करें भाजपा के बौद्धिक स्तर के परिचायक सांसद चंदन मित्रा का वह सुचिंतित ट्विट कि नरेंद्र मोदी की अालोचना करने के अक्षम्य अपराध की सजा के तौर पर अमर्त्य सेन को मिला भारत-रत्न उनसे छीन लेना चाहिए.  भाजपा इस बेदिमाग बयान को अभी भुला व छिपा भी नहीं पाई थी कि मुंबई में अपनी नेतागिरी जमाने की बदहवास कोशिश में लगे नितेश राणे का पागल बयान अाया. अब अाप पूछेंगे - यह नितेश राणे हैं कौन ! तो पहले हम यही जान लें फिर जानते हैं कि उन्होंने कहा क्या ! 

कभी मुंबई की शिव सेना के सबसे बेढब नेता अौर बाल ठाकरे की अाज्ञा-कु-अाज्ञा के अंधपालक रहे नारायण राणे अाज की तारीख में महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता अौर सरकार में उद्योगमंत्री हैं. लेकिन कभी वे दिन भी थे जब राणे खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थे. यह १९९९ की राजनीित का खेला था. मनोहर जोशी की मनमानी से नाराज बाल ठाकरे ने उनसे छीन कर, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नारायण राणे को बिठा दिया था. १ फरवरी से १७ अक्तूबर १९९९ तक यह कुर्सी उनके पास रही. फिर सरकार ही नहीं रही.  फिर यह भी हुअा कि शिव सेना के भीतर शक्ति-संतुलन बदलने लगा अौर चतुर बाल ठाकरे ने बेटे उद्धव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.  इस घोषणा से राज ठाकरे को कैसा लगा यह तो बहुत बाद में सामने अाया, राणे उससे काफी पहले सामने अा गये. उन्होंने उद्धव की योग्यता पर ही सीधे अंगुली उठा दी तो बिना देर किए बाल ठाकरे ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. बस, उस दिन से महाराष्ट्र की राजनीति में एक नया ध्रुव बना - राणे बनाम शिव सेना ! 

शिव सेना ने राणे को छोड़ा अौर राणे ने विधानसभा छोड़ दी. यह राणे की बेजोड़ रणनीति थी,क्योंकि उनके इस्तीफे से नौबत उप-चुनाव की अा गई अौर उसमें राणे ने शिव सेना को ऐसी पटकनी दी कि वह अाज तक उसकी धूल झाड़ रही है. चुनाव जीतने के बाद  राणे कांग्रेस में अा गये; अौर वे कहते हैं कि वे इसी अाश्वासन पर कांग्रेस में अाए थे कि कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री बनाएगी. लेकिन वह दिन अाज तक नहीं अाया. अाया वह दिन जब २००८ में मुंबई पर हुए अातंकी हमले के बाद विलासराव देशमुख को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. तब राणे ने बहुत कुलाबे मारे थे, दिल्ली-मुंबई एक कर दी थी लेकिन दिल्ली ने कुर्सी दे दी अशोक चव्हाण को. राणे हत्थे से उखड़ गये अौर सीधे सोनिया गांधी को निशाने पर ले िलया. कांग्रेस ने उन्हें ६ साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया. अब राणे की समझ में अाया कि उन्होंने अपने सारे रास्ते खुद ही बंद कर लिए हैं.  इसलिए उन्हें दिल्ली पहुंच कर, सोनिया िब्रगेड से सार्वजनिक माफी मांगनी पड़ी. तब कहीं जा कर निलंबन वापस हुअा अौर कांग्रेस ने जब, जहां जो दिया उसे लेकर राणे को संतोष करना पड़ा. वह दौर अाज तक जारी है लेकिन राणे अाज भी मानते हैं कि वे, अौर सिर्फ वे ही मुख्यमंत्री बनने की लायकियत रखते हैं. 

नितेश राणे इन्हीं नारायण राणे के सुपुत्र हैं. पिता की राजनीतिक विरासत संभालने की हर कोशिश में, पिता के बढ़ावे पर, लगे हैं. स्वाभिमान संगठन के संस्थापक हैं अौर घर के मराठी अखबार ‘प्रहार’ की सहायता से, बेसिर-पैर के बयान देकर खुद को बाजार में बनाए रखते हैं. जब राणे-परिवार ने देखा कि वह महाराष्ट्र की राजनीति में एकदम नेपथ्य में जा रहा है अौर नरेंद्र मोदी-भाजपा वह सारी जगह छीनते जा रहे हैं जिस पर बाल ठाकरे ने अपना एकाधिकार बना रखा था, तो उन्होंने नई रणनीति बनाई. संकीर्ण प्रांतीयता को उभार कर राजनीति करना कितना अासान है, यह नारायण राणे से बेहतर कौन जान सकता है लेकिन जब तक वे कांग्रेस की क्रीज के भीतर खड़े हो कर बल्लेबाजी कर रहे हैं, उनके लिए खुल्लमखुल्ला ऐसा करना संभव नहीं है. इसलिए उनकी शह पर नितेश ने यह काम किया अौर एक ही वार से राज व उद्धव, दोनों  ठाकरेअों  को घायल कर दिया.  दोनों ठाकरे इस बयान से सन्न हैं क्योंकि ऐसे ही अंधे व तर्कशून्य बयान से अाज तक उनकी  राजनीति चलती व चमकती अाई है.  

अब देखें कि नितेश राणे ने कहा क्या ! भाजपा जिस तरह मोदी-स्तुति कर रही है अौर खुद को  गुजराती पहले अौर भारतीय बाद में समझने वाले गुजराती जिस तरह मोदी-जाप कर रहे हैं, उस पर जिन्हें एतराज है, वे क्या करें ? सही जवाब तो यह है कि जो राजनीति में हैं, उन्हें इसकी राजनीतिक काट खोजनी चाहिए; लेकिन एक रास्ता यह भी तो है कि संकीर्णता का जवाब ज्यादा घातक संकीर्णता से दिया जाए !  नितेश राणे ने वही किया. उन्होंने ट्विट किया :  जिन गुजरातियों को गुजरात व मोदी अादर्श दिखाई देते हैं, वे सभी मुंबई से चले जाएं ! मुंबई के सारे गुजराती अगर यही कह रहे हैं कि गुजरात मॉडल अादर्श है अौर मोदी ही रोल-मॉडल हैं, तो वे यहां घास क्यों छील रहे हैं ! इस धरती का नमक खाते हुए भी जो वहां का गाते हैं, उन्हें वहीं चले भी जाना चाहिए. राणे जैसा चाहते थे वैसा ही हुअा - वे अौर उनका बयान तेज चर्चा का विषय बन गया. अब राणे ने बात अौर अागे बढ़ाई : गांठ के मोटे गुजरातियों ने महाराष्ट्र से कमाया खूब है लेकिन सारी कमाई लगाई गुजरात में है ! पता नहीं वे अंबानियों को निशाने पर ले रहे थे कि उन सब गुजराती व्यापारियों को जो मुंबई में रहते हैं लेकिन अपने व्यापारिक संस्थान गुजरात में चलाते हैं. राणे इस पर भी बरसे कि अपने दौलत के बल पर गुजरातियों ने मुंबई के कई-कई इलाकों में ऐसी हालत बना रखी है कि वहां किसी मराठी का घर खरीदना संभव ही नहीं है, क्योंकि ये गुजराती अपनी सोसाइटी में किसी भी मांसाहारी को घुसने ही नहीं देते हैं. मराठी यह भेद-भाव कैसे सहें ! राणे अपनी रौ में इतने बहके कि अमिताभ बच्चन पर भी निशाना साध बैठे कि मुंबई से काम व दाम दोनों कमाने वाले अमिताभ बच्चन गुजरात के ब्रांड एंबेसडर बने हुए हैं, तो वहीं चले भी जाएं ! 

राणे के बयान पर कोई खास बवाल नहीं मचा, क्योंकि बवाल मचाने वाले सब-के-सब ऐसी ही संकीर्णता की राजनीति के भरोसे जिंदा हैं. मोदीमय भाजपा ऐसे सवालों पर बोले भी तो किस मुंह से ! उसके तरकश में हर तरह की संकीर्णता के वाण ही तो रहे हैं ! अौर ठकारे-बंधुअों के हाथ से अाप संकीर्णता की गदा छीन लें तो वे निहत्थे ही नहीं हो जाएंगे, निराधार भी हो जाएंगे. अौर कांग्रेस ? वह इतना ही कह कर कन्नी काट गई कि हम इस बयान की जांच कराएंगे. राणे ने भी बाद में अपने तेवर थोड़े ढीले कर लिए ताकि बात कह भी दी अौर जान बच भी गई ! लेकिन ऐसे सारे खेल में मारा कौन जा रहा है ? वह हिंदुस्तानी, जो अाज भी इस जद्दोजहद में लगा है कि कोई उसे भारतीय से छोटी पहचान में कैद न कर दे ! जो साराभाइयों की तरह गुजरात में रह कर सांप्रदायिकता से लड़ने की अाजादी चाहता है; जो मुंबई में रह कर उन दो लड़कियों की तरह उस शोक से मुक्ति चाहता है जो बाल ठाकरे की गमी के दौरान मुंबई पर लाद दी गई थी; जो दिल्ली में रह कर भी अाजादी चाहता है कि वह मोदी के समर्थन में बेखौफ बोले-लिखे-प्रदर्शन करे ! मुंबई को इस बात का गर्व होना चाहिए कि उसके यहां वे अमिताभ बच्चन सुरक्षित रहते हैं जो पता नहीं कितने पैसों की या निजी महत्ता की खातिर उस गुजरात की चमक-दमक का प्रचार करते हैं जो दरअसल गुजरात का नहीं, एक उस व्यक्ति की छवि को चमकाने की कोशिश है जिसने भारतीय लोकतंत्र को गहरे घाव दिए हैं ! लेकिन यह चयन अमिताभ का अपना है अौर लोकतंत्र उन्हें इसकी अाजादी देता है. अाखिर दुर्गाशक्ति नागपाल नाम की अाइएएस लड़की का निलंबन उसी मुलायम सिंह की सरकार ने किया है न कि राज्यसभा में जिसकी नुमाइंदगी जया बच्चन करती हैं ? वे तो इस पर कुछ नहीं बोलीं; न वे राज बब्बर बोले जो तब भी नहीं मुंह खोले थे जब अाइएएस अशोक खेमका को कांग्रेसी सरकारें फुटबॉल बना कर खेल रही थीं. इसलिए दुम तो सबकी फंसी है कहीं-न-कहीं !  

याद अाता है कि वर्षों पूर्व साहिर लुधियानवी ने पूछा था : जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं ? फिर याद  अाता है कि वर्षों पूर्व ही गुरुदत्त ने प्यासा फिल्म बना कर साहिर के इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की थी. अब बाजार में हल्ला बढ़ ही नहीं गया है बल्कि वह हल्ला बोल में बदल गया है. अब फिर से इस सवाल का जवाब देने की जरूरत अान पड़ी है कि जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं ? ... लेकिन यह सवाल अाप कहीं प्रधानमंत्री से न पूछ बैठिएगा ! ( 4.08.2013)  


िनसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन ... 

 (   26.7.13) 

पाकिस्तानी जेल में बंद फैज अहमद फैज को अपने मुल्क के बारे में लिखना पड़ा था :  निसार में तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां / चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले ! भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद अतिवाचाल किंतु अतिमंद चंदन मित्रा को भी ऐसा ही मुल्कपसंद है कि जहां कोई भी सर उठा कर न चले --- कम-से-कम नरेंद्र मोदी के सर से ऊंचा तो नहीं ही ! यह याद करना शर्मनाक है कि चंदन मित्रा नाम के ये सज्जन कभी पत्रकार हुअा करते थे, क्योंकि जिस पत्रकारिता की बुनियाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की नींव पर ही होती है, उसके बारे में जिसके मन में कोई सम्मान न हो तो उसका पत्रकार होना, एक दुखदाई घटना मानी जानी चाहिए ! लेिकन दुख का दुख यह है कि वह अापकी गलती से घटा हो कि दूसरे की, शर्म अौर दुख समान ही देता है. 

चापलूसी कहें कि अाज के संदर्भ में बुद्धिजीवी कहें, वह इस कायरता से ग्रसित होता है कि कहीं उसके जीने के रास्ते न बंद हो जाएं ! इसलिए उसकी सारी बुद्धि इसी में लगी होती है कि कैसे जीते रहें ! यह परिभाषा मुझे अज्ञेयजी से ही मिली थी कि जिसकी सारी बुद्धि जीने में लगी हो वह बुद्धिजीवी ! अागे उन्होंने लिखा था : कमखर्च अौ’ बालानशीं ! देश में थोक के भाव मिलने वाले ऐसे चंदन मित्राअों के प्रति हम सहानुभूति भी रखें फिर भी संघ परिवार की निगरानी में भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से जैसा माहौल बनवाया जा रहा है, वह इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी से भी बुरे अागत का अाभास देता है ! इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक लाभ के  लिए  संसदीय लोकतंत्र पर ताला लगाने की कोशिश की थी, अाज संघ परिवार जिस तेवर व भाषा में बात कर रहा है वह एक खास विचारधारा के दरबे में देश को बंद करने की दिशा है जिसमें न संसद होगी, न दल, न वैचारिक मतभेद, न स्वतंत्रता ! पता नहीं कि नाजी जर्मनी में हिटलर ने ऐसी कोई रेखा खींची थी या नहीं लेकिन भारतीय जनता पार्टी के मान्य लोग ऐसी गहरी रेखा खींच रहे हैं कि अाप नरेंद्र मोदी के साथ हैं तो देशभक्त हैं, नरेंद्र मोदी से असहमत हैं तो देशद्रोही हैं. इसी, अौर एकमात्र इसी अाधार पर चंदन मित्रा कि खुली घोषणा है कि अगर नरेंद्र भाई देश के प्रधानमंत्री बने तो अमर्त्य सेन से भारत-रत्न का सम्मान छीन लिया जाएगा ! अौर भाजपा के सभी मान्यवर इससे सहमत हैं ! सामंती मानसिकता इसके अागे जाती ही नहीं है कि प्रजा को इनाम-इकराम देना उसकी दया व उदारता का प्रमाण है अौर प्रजा को भी अपनी भक्ति का अविचल प्रमाण देते रहना चाहिए. अापने उसमें चूके तो सम्मान वापस ! ऐसा ही कहना है भारतीय जनता पार्टी का ! 

चंदन मित्रा ने जो कहा, राजीवप्रताप रूड़ी ने उसका समर्थन इस सावधानी से किया कि सांप भी मर जाए अौर लाठी भी न टूटे ! रूड़ी ने कहा कि अमर्त्य सेन बहुत विद्वान अादमी हैं, इसलिए उन्हें नरेंद्र मोदी के बारे में ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी ! रूड़ी कहते हैं कि नरेंद्र मोदी देश की शिराअों में बहते रक्तसमान हैं ! अमर्त्य सेन उनका अपमान कैसे कर सकते हैं ! कीर्ति अाजाद ने तो अमर्त्य सेन को यह सीख दे डाली कि राजनीति उनका मैदान नहीं है फिर उन्होंने इसमें कदम ही क्यों रखा ! कीर्ति अाजाद कह यह रहे थे कि अमर्त्य सेन को अपनी अौकात में रहना चाहिए. भाजपा की प्रवक्ता निर्मला सीतारमन् जब सामने अाईं तब तक बात बहुत बिगड़ चुकी थी लेकिन उन्होंने बमुश्किल इतना ही कहा कि अमर्त्य सेन से भारत-रत्न लेने वाली बात पार्टी लाइन नहीं है ! लेकिन वे यह नहीं बता सकीं कि इस मामले में पार्टी लाइन क्या है ! भारत-रत्न किसी तरह अटलबिहारी वाजपेयी को मिल जाए इसकी कोशिश भारतीय जनता पार्टी व लालकृष्ण अाडवाणी करते रहे हैं. ये लोग भारत सरकार भी चलाते रहे हैं, तो इन्हें इतना तो पता ही होगा कि भारत-रत्न किसी ऐसे व्यक्ति को अर्पित करते हैं जिसके व्यक्तित्व की चौतरफा उपलब्धियों से देश खुद को उपकृत महसूस करता है ! किसी के अच्छे प्रधानमंत्री होने से या किसी के अच्छे डॉक्टर या इंजिनियर होने से उसे भारत-रत्न नहीं देते हैं. उसके लिए पद्मश्री से पद्मविभूषण तक के सम्मान हैं लेकिन भारतवर्ष जिसे पा कर धन्यता का अनुभव करे, भारत-रत्न तो ऐसे बिरलों के लिए है. इस देश के चौतरफा पतन का अपराध जिस राजनीति ने किया है, उसी ने भारत-रत्न की गरिमा भी बहुत गिराई है. इसका भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल हुअा है. जिसे नोबल पुरस्कार मिला, उसे भारत-रत्न भी मिल जाए, यह समझ व सोच की दरिद्रता है. लेिकन अभी हम भारत-रत्न की पात्रता-अपात्रता का विचार नहीं कर रहे हैं. अमर्त्य सेन को अटलजी की सरकार ने यह सम्मान दिया तो उनकी पात्रता-अपात्रता का जवाब उसे ही देना है लेकिन यह बात समझने जैसी है कि किसी सरकार की अौकात से बाहर की बात है कि वह किसी से भारत-रत्न का सम्मान वापस ले ले ! कोई व्यक्ति अंतरात्मा की अावाज पर यह सम्मान वापस कर दे, यह हो सकता है लेकिन कोई राज्य किसी भारत-रत्न से यह सम्मान छीन ले, यह इसकी परिकल्पना से बाहर की बात है. महात्मा गांधी ने केसरे-िहंद जैसी उपाधियां वापस कर दीं, गुरुदेव ने सर की उपाधि लौटा दी; जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के अांदोलन के दरम्यान फणीश्वरनाथ रेणु ने अपना पद्मश्री का सम्मान वापस कर दिया, नागार्जुन ने सरकारी अार्थिक मदद लौटा दी लेकिन कभी अंग्रेजों ने या कांग्रेसी सरकार ने नहीं कहा कि हम अापको दिया यह सम्मान अापसे छीन लेंगे क्योंकि अब अाप हमारे “गुड-बुक” में नहीं रहे ! भारतीय जनता पार्टी यह करना चाहती है. 

अौर अमर्त्य सेन ने ऐसा कुफ्र कहा क्या ? सवाल पूछने वाले ने पूछा कि जिस गुजरात मॉडल की इतनी चर्चा है, उस बारे में अापकी राय क्या है ? अमर्त्य सेन के अार्थिक दर्शन से जिसका थोड़ा भी परिचय है, वह जानता है कि उनका जवाब क्या होगा ! दुनिया में उनकी ख्याति ही इस कारण है कि वे सामाजिक न्याय, समता, शिक्षा, रोजगार अादि को अार्थिक विकास के अाधारभूत मानकों में गिनते हैं अौर उसके अाधार पर ही सेन-मॉडल तैयार हुअा है. यह मॉडल सही है या नहीं, यह मानने का हमारा अधिकार कोई हमसे छीन नहीं सकता है जैसे यही अाधार सही है, यह मानने का अधिकार हम अमर्त्य सेन से नहीं छीन सकते हैं. यह बौद्धिक दुनिया है जिसमें उसी स्तर पर बहस हो सकती है. दूसरी दुनिया वह है जो धरती पर काम करती है. सेन-मॉडल धरती पर उतर नहीं सकता है, यह अगर धरती पर काम करने से प्रमाणित होता है तो सेन-मॉडल कालवाह्य हो जाएगा. अगर धरती पर किया काम साबित करता है कि सेन-मॉडल ही है जो अार्थिक विकास का सर्वस्पर्शी मॉडल देता है तो वह अागे जाएगा. इसलिए अगर सेन साहब कहते हैं कि गुजरात मॉडल उन्हें नहीं भाता है अौर वे उसके दावों को स्वीकार नहीं करते हैं तो इसका जवाब अार्थिक-दर्शन के निरक्षरों से गालियां दिलाना नहीं है बल्कि धरती पर ( गुजरात की ही धरती पर ही सही ! ) इसे उतार कर दिखाना ही हो सकता है. सेन साहब को गुजरात-मॉडल से ज्यादा उपुयक्त बिहार-मॉडल लगता है तो ऐसे ही एक विदेशी-बसे अर्थशास्त्री भगवती साहब को बिहार से अधिक ठीक गुजरात का मॉडल लगता है. दोनों के पास अपने-अपने तर्क हैं अौर हमें अाजादी है कि हम अपनी पसंद तै करें. लेकिन यह अाजादी किसी को भी नहीं है ( भाजपाई माफ करेंगे, नरेंद्र मोदी को भी नहीं है ! ) कि वे किसी सेन या भगवती का सर कलम कर दें ! 

इस सवाल के बाद ही दूसरा सवाल सेन सहब से पूछा गया कि वे प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को देखना पसंद करेंगे ?  थोड़ी हिचक व संकोच के साथ सेन साहब ने कहा - नहीं, मैं तो नहीं पसंद करूंगा ! वे ऐसा क्यों कह रहे हैं, इसके कारण भी उन्होंने बताए. कीर्ति अाजाद कहते हैं कि राजनीति सेन साहब का मैदान नहीं है, वे इसमें उतरते ही क्यों हैं ! अब उनका ही तर्क कोई उनके सर मढ़ दे कि भाई साहब, ये अक्ल की बातें अापका मैदान नहीं है, इससे दूर ही रहें तो ? किसी भी इंसान को राजनीति समझने, चुनने अौर उसे अभिव्यक्त करने का अधिकार है ( कम-से-कम अब तक ! ) अौर इस अधिकार का निर्धारण इससे नहीं किया जा सकता कि वह देशी है कि विदेशी, वह राजनीति का पेशा करता है या नहीं ! 

नरेंद्र मोदी इस देश के करोड़ों को नापसंद हो सकते हैं, हैं; फिर भी उनको पूरा अधिकार है कि वे भारत में जहां चाहें वहां जाएं अौर अपनी शैली की राजनीति के लिए देश से स्वीकृति व सहमति मांगें ! यही लोकतंत्र है. चंदन मित्राअों से शह पा कर भाजपा का ही कोई बोल गया कि सेन साहब से नोबल पुरस्कार भी छीन लेना चाहिए. इधर अमर्त्य बाबू हैं कि कह रहे हैं कि अटलजी मांगें तो मैं भारत-रत्न अाज ही वापस कर दूं; उधर भाजपा है कि इतना कहने की सौजन्यता भी नहीं दिखा पा रही है कि उसे अपने सांसद की बहक पर खेद है अौर वह ऐसी प्रवृत्ति अौर सोच का निषेध करती है. नरेंद्र मोदी इस बारे में कुछ कहें, इसकी तो कोई कल्पना ही नहीं कर सकता है क्योंकि ऐसे कितने ही बयान तो वहीं से पैदा होते रहे हैं.  लालकृष्ण अाडवाणी भी चुप ही रहे हैं जबकि उन्हें कम-से-कम इतना तो कहना ही चाहिए था कि एनडीए सरकार में रह कर जो कुछ गलत निर्णय हमलोगों ने किए, सेन साहब को भारत-रत्न देना उनमें से एक है ! 

यह सारी शैली - ५ रुपये अौर १२ रुपये में भरपेट खाना मिलने वाली कांग्रेसी घोषणा भी - राजनीति को तेजी से रसातल में ले जा रही है. एक अौर भारत-रत्न हैं जयप्रकाश नारायण ! उन्होंने भी सत्ता की राजनीति छोड़ी थी लेकिन जनता की राजनीति में गहरी पड़ व पैठ रखते थे ( कीर्ति अाजाद नोट करें अौर चाहें तो उनसे भी भारत-रत्न वापस लेने का प्रस्ताव करें ! ) अौर अाज राजनीति के मंच पर विदूषक की भूमिका निभा रहे कितने की पात्रों-कुपात्रों का जन्म उनके ही कारण हुअा, वे सालों पहले कह गये थे कि यह राजनीति तो गिररही है, अभी अौर भी गिरेगी, टूटेगी-फूटेगी, छिन्न-भिन्न हो जाएगी ! बहुत कठोर शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा था : इस राजनीति से अाज भी जो लोग आाशा लगाए बैठे हैं, वे सूखी हड्डियां चूस रहे हैं अौर अपने ही रक्त के अास्वादन से अानंदित हो रहे हैं. 

यह दुखद है  लेकिन सच है कि हम उसी अभागे दौर से गुजर रहे हैं ! (   26.7.13) 

मोदी के रखवाले ! 

(24.7.13)
भारतीय जनता पार्टी ने न केवल भारत का प्रधानमंत्री तै कर दिया है बल्कि भारतीय राजनीति का एजेंडा भी तै कर दिया है ! यह अलग बात है कि उसके अध्यक्ष राजनाथ सिंह को इसकी घोषणा करने की हिम्मत नहीं हो पा रही है.  गोवा में लंबी खींच-तान के बाद, बहुत हिम्मत कर के वे जो कह सके वह इतना ही था कि नरेंद्र मोदी चुनाव संचालन समिति के अध्यक्ष रहेंगे. इधर यह घोषणा हुई अौर उधर बिहार के मुख्यमंत्री नितीश  कुमार ने भाजपा गठबंधन से नाता तोड़ लिया ! किसी ने कटाक्ष किया कि मोदी अभी प्रधानमंत्री-पद के उम्मीदवार तो बनाए नहीं गये हैं, फिर यह जल्दीबाजी क्यों, तो नितीश कुमार ने कहा कि उनका कदम किस तरफ जा रहा है, यह जान लेने के बाद मैं उसका इंतजार क्यों करूं ? नितीश कुमार ही सही निकले ! देश में भले ऐसी घोषणा करने की हिम्मत राजनाथ सिंह को नहीं हुई लेकिन अमरीका जा कर उन्होंने बता दिया कि मोदी ही भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री हैं ! नितीश कुमार सही निकले; राजनाथ सिंह चालाक निकले ! भारतीय जनता पार्टी के वे कई लोग बुद्धू निकले जो अब तक हां-ना के व्यामोह में पड़े थे ! नरेंद्र मोदी सबसे सही निकले कि गुजरात का चुनाव तीसरी बार जीतने के साथ ही उन्होंने जिस तरह खुद को देश का प्रधानमंत्री मान कर बोलना-लिखना-चलना-दिखना शुरू कर दिया था, वह सही रणनीति थी. 

लेकिन नरेंद्र मोदी को सच्चे मन से देश का प्रधानमंत्री अगर किसी ने स्वीकार किया है तो वह कांग्रेस ही है ! इन दिनों भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी सेवा कर रहे हैं दिग्विजय िसंह, मुंबई के अदिति रेस्तरां पर हमला करने वाले कांग्रेसी युवा, कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद जैसे लोग !  इन सबने अौर इनके जैसे कितने ही दूसरे कांग्रेसियों ने मान लिया है कि अब मोदी-रथ को रेसकोर्स पहुंचने से रोका नहीं जा सकता है. राह न रोक सकें तो राह में कांटे तो बिछा ही सकते हैं, इसी मानसिकता से ये लोग मोदी की किसी भी बात का जवाब देने से चूकते नहीं हैं ! 

भाजपा ने जैसे ही अपनी गरदन मोदी को सौंप दी वैसे ही कांग्रेस ने दो काम किए - राहुल गांधी को कहीं परदे के पीछे छिपा लिया अौर नरेंद्र मोदी पर सीधा निशाना साध लिया ! दोनों का नतीजा एक ही है - भारतीय राजनीति के मंच पर अब एक ही नायक बचा है ! वही दिखाई भी देता है अौर वही सुनाई भी देता है. 

हम देखें कि नरेंद्र मोदी क्या कह रहे हैं कि जिसका जवाब देने में पूरी कांग्रेस जुटी है, तो हाथ कुछ बेजान-से चुटकुलों के अलावा कुछ अाता नहीं है ! गुजरात दंगों के संदर्भ में कार के नीचे अाने वाले िपल्ले का भोंडा उदाहरण ले लेें हम या फिर सेक्यूलरिज्म का बुर्का अोढ़ने वाली या फिर खेलों में स्वर्णपदक न लाने वाली कांग्रेस जैसी टिप्पणी या फिर मोदी का यह कहना कि मैं तो यह काम फौज को सौंप दूंगा कि वह हमें खेलों का स्वर्णपदक ला कर देती रहे -- इन सबको अगर जोड़ दें हम तो मोदी की तस्वीर कैसी बनती है ? मोहन भागवत से लेकर अारएसएस के किसी भी प्रचारक से अाप यही तर्क अौर ऐसे ही चुटकुले सुन सकते हैं ! इस अर्थ में मोदी की जन्मकुंडली पर अाप शक कर ही नहीं सकते ! लेकिन कांग्रेस है कि राजनीति को अौर सांप्रदायिकता, विकास व विषमता को किसी गंभीर विमर्श का विषय बनाने के बजाए, मोदी को जिंदा रखने में लगी हुई है. 

दिग्विजय सिंह पूछते हैं कि मोदी की धर्म-निरपेक्षता की परिभाषा क्या है; तो कोई पूछे दिग्विजय सिंह से कांग्रेस की हालत ऐसी क्यों हो गई है कि उसे मोदी से धर्म-निरपेक्षता सीखनी पड़ रही है ? दिग्विजय सिंह इसका जो भी जवाब दें, सच्चाई यह है कि ऐसा इसलिए है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व - सोनिया गांधी, राहुल गांधी अौर मनमोहन िसंह - सांप्रदायिकता के सवाल पर जीभ हिलाने को भी तैयार नहीं होता है. वैचारिक स्तर पर कांग्रेस कभी इतनी गूंगी नहीं थी जितनी अाज है. कोई पूछे कि सांप्रदायिकता का सवाल मोदी के संदर्भ में ही क्यों याद अाता है कांग्रेसियों को ? हम कैसे भूल जाएं कि हर संभव मौके पर भारत के सभी राजनीतिक दलों ने समाज में सांप्रदायिकता का जहर घोला है अौर उसका चुनावी फायदा उठाया है !  संघ परिवारियों अौर दूसरों में अगर कुछ फर्क है तो बस इतना कि वे सांप्रदायिकता के दर्शन में विश्वास करते हैं जबकि दूसरे सांप्रदायिकता का वक्ती इस्तेमाल कर, उसका फायदा उठाते हैं. 

नरेंद्र मोदी अाज जिस मतदाता को संबोधित करते हैं वह सालों से पीछे छूट जाने, उपेक्षित रह जाने, मुसलमानों की तुलना में जीने वाली मानसिकता से ग्रसित, उन्माद की खाद पर जीने वाला भारत है जो संख्या में कम है लेकिन मौके की तलाश में रहता है. केंद्र में सरकार बनाने के लिए अटल-अाडवाणी ने इसी भारत का सहारा लिया था; लेकिन केंद्र में अपनी सरकार टिकाने के लिए उन्होंने इसी भारत को दूर भी फेंक दिया था. यह भारत वह है जिसने महात्मा गांधी की हत्या के बाद पुणे में पेड़े बांटे थे. यह भारत वह है जो भारतीय जनसंघ के उस एजेंडा से जुड़ा रहा जिसे यूपीए बना कर, अटल-अाडवाणी ने दफना दिया था. भारतीय राजनीति के एक खास मोड़ पर यूपीए गठबंधन ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी अौर सांप्रदायिक राजनीति के जिन को सत्ता की बोतल में बंद कर दिया लिया था. यह बात यहां तक गई थी कि पूरे पांच साल, पूरे अधिकार से दिल्ली की सरकार चलाने के बाद भी अटल-अाडवाणी ने राम मंदिर की एक ईंट भी चढ़ने नहीं दी थी जबकि बाबरी मस्जिद ध्वंस जैसी करतूत करवाने की अपरिमित ताकत व अबाध अवसर उनके पास था. अाज वे सारे तत्व गोलबंद हो रहे हैं अौर नरेंद्र मोदी को इस भीड़ को उकसाने का काम दिया गया है. इसके अलावा मोदी-मॉडल में कहीं, कोई सार नहीं है. इसलिए कांग्रेस अगर समर्थ होती तो वह नरेंद्र मोदी से सवाल पूछती नजर नहीं अाती बल्कि देश भर में घूम-घूम कर राजनीति के नये संदर्भ खड़ी करती दिखाई देती. लेकिन हम देख रहे हैं कि ठीक इसी मौके पर कांग्रेस को लकवा मार गया है. वह नेतृत्वविहीनता की िस्थति से गुजर रही है अौर ऐसे में उसक लोग जो कर रहे हैं, उसका फायदा मोदी को हो रहा है. भाजपा के भीतर जो ताकत नरेंद्र मोदी को पूरी तरह गद्दीनशीन होने से रोक  रही है अौर राजनाथ सिंह को अमरीका जा कर पार्टी के अंदरूनी फैसले करने पर मजबूर कर ही है, वह भी कांग्रेस के इस रवैये से हतप्रभ है.
   
कांग्रेस का यह रवैया उसे  उन दलों से भी अलग-थलग कर रहा है जो नरेंद्र मोदी के सवाल पर नया गठजोड़ करने की सोचते हैं.भारतीय राजनीति कोई रास्ता तलाश रही है. यह कांग्रेस के लिए नेतृत्व खोजने अौर उसे सक्रिय करने की घड़ी है. (24.7.13)


अदालत पर अदालत 

 (16.5.13)

कोयले की खान में उतरोगे तो कालिख लगेगी ही - यह कहनी बहुत पुरानी है. सर्वोच्च न्यायालय यह अब सीख-समझ पा रहा है तो भगवान उसका भला करे ! कोलगेट घोटाले की जांच को सीधे अपनी देख-रेख में लेने से पहले अगर अदालत को यह कहनी याद होती तो वह सावधान भी होती लेकिन उसने तो यह जिम्मेवारी ले ली ! अब कालिख उड़ाई जा रही है अौर अदालत से कहा जा रहा है कि माइ लॉर्ड, अापकी बातों से लोकतंत्र की छवि धूमिल हो रही है ! लोकतंत्र अौर लोकतांित्रक संस्थाअों की ऐसी चिंता उन्हें हो रही है जिन्हें किसी भी स्तर की अनैतिकता करते अौर लोकतंत्र के मुंह पर कालिख मलते कभी क्षण भर की झिझक भी नहीं हुई ! लेकिन क्या कीजिएगा, लोकतंत्र है तो यह सब भी होगा ही ! 

कोलगेट जांच को मनमोहन सरकार का निजी मामला बनाते जब सीबीअाई जरा भी नहीं शर्माई अौर जिस पर चोरी का अारोप है, उसे ही जांच रिपोर्ट बनाने का अधिकार भी दे दिया तो अदालत ने कहा कि क्या अाप पिंजड़े में कैद तोते जैसे नहीं हैं कि जिसके कई मालिक होते हैं अौर जो हमेशा अपने मालिक की जबान ही बोलता है ! अदालत ने सीबीअाई से पूछा कि अापका काम सरकारी व राजनीतिक अाकाअों से बातचीत करना है कि जांच के संदर्भ में उनसे पूछताछ करना ? सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से सीधे ही कहा कि वह सीबीअाई की स्वायत्तता स्थापित करने की दिशा में ठोस योजना व कानून बनाए व निश्चित अवधि में हमारे सामने उसे पेश करे अन्यथा अदालत को इस मामले में दखल देना होगा ! उसने यह भी कहा कि सरकार के किसी भी मंत्री को, यहां तक कि प्रधानमंत्री को भी यह अधिकार नहीं है कि वे अदालत की सीधी देख-रेख में चल रही किसी तहकीकात की रिपोर्ट को, अदालत की अनुमति के बिना देखने, बदलने या सुधारने की कोशिश करें. अदालत ने सरकारी स्तर पर फैलाए जा रहे इस भ्रम का भी निवारण किया कि सीबीअाई सरकार के अंतर्गत काम करती है, इसलिए कानूनमंत्री को यह अधिकार है कि वह किसी भी जांच के संदर्भ में उससे पूछताछ करे या जरूरी समझे तो सीबीअाई के निदेशक को जांच रिपोर्ट के साथ अपने यहां तलब करे अौर िरपोर्ट में फेर-बदल करवाए. अदालत ने कहा कि जहां तक सीबीअाई की व्यवस्था का सवाल है, वह सरकार की जिम्मेवारी है लेकिन जब तहकीकात अादि का सवाल अाता है तब वह सरकार की किसी भी दखलंदाजी से बाहर होती है ! मतलब यह कि अदालत की नजर में न्यायपालिका के संदर्भ में जैसी जिम्मेवारी सरकार की है अौर कामकाज में वह जिस तरह स्वतंत्र व स्वायत्त है, वैसी ही िस्थति सीबीअाई की भी है. स्वायत्तता उसे सरकार की कृपा से नहीं, अपनी वैधानिक िस्थति के कारण मिली हुई है. 

ऐसा संभवत: पहली बार ही हुअा कि सर्वोच्च न्यायालय ने कोलगेट जैसे गंभीर मामले की सुनवाई के दौरान सरकार को भी अौर सीबीअाई को भी उनकी भूमिका की अौर उनकी मर्यादा की याद ही नहीं दिलाई बल्कि उस मर्यादा को पार न करने का कानूनी निर्देश भी दे दिया. अपना राजनीतिक रसूख अौर अपना नैतिक बल लगातार खोती जा रही मनमोहन सरकार के लिए यह खासी कड़वी गोली थी ! कर्नाटक में हुई अपनी चुनावी जीत को उछालने अौर उसके जश्न से देश को चकाचौंध करने का अवसर उसके हाथ से निकल गया. अदालती िटप्पणियों ने उसकी बत्ती गुल कर दी !  यह भी हुअा कि रेलमंत्री का घपला अौर कानूनमंत्री की गैर-कानूनी काररवाइयां अापस में मिल गईं अौर सरकार के लिए खुद को बचाने का रास्ता नहीं रहा. कांग्रेस पार्टी ने यह स्थिति पहले भांप ली अौर यह कहना शुरू कर दिया कि दोनों मंत्रियों से तुरंत इस्तीफा ले कर हमें अपनी नाक बचानी चाहिए. लेकिन प्रधानमंत्री की नाक की परिभाषा कुछ ऐसी ही है कि न देश को समझ में अाती है न पार्टी को ! इसलिए काफी सारी नाक गंवाने के बाद दोनों मंत्रियों की विदाई हुई अौर हमें अपने संविधान की अांतरिक शक्ति का अंदाजा हुअा. 
यह सब अदालत के कारण हुअा ! हम ऐसा लगातार ही देख रहे हैं कि अदालत कभी यहां तो कभी वहां लोकतंत्र की गाड़ी को पटरी पर ला रही है. कई बार ऐसा भी हुअा है कि अदालतों को वह करना पड़ा है जो न तो उनका काम था अौर न उनकी जिम्मेवारी लेकिन संविधान कहता ही है कि लोकतंत्र चलाने अौर बनाने की जिम्मेवारी सामूहिक है. इसका एक घटक कमजोर पड़ा या पथभ्रष्ट हुअा तो बगैर इंतजार किए दूसरे घटक को उसकी जगह ले लेनी चाहिए अौर उस जिम्मेवारी को तब तक संभाले रखना चाहिए जब तक पहला घटक स्वस्थ हो कर काम संभाल न ले ! इसलिए हमारी संवैधानिक संस्थाअों में कोई सर्वोपरि नहीं है, बल्कि सभी परस्परावलंबित हैं. सभी अपने-अपने दायरे में पूर्ण स्वायत्त हैं लेकिन संविधानप्रदत्त जिम्मेवारियों के निर्वहन में ये सभी एक-दूसरे के साथ गुंथे हुए हैं. सर्वोपरि बस एक ही है,अौर वह जनता है जिसके वोट से सरकारें बनती हैं अौर जिसके नोट से सरकारें चलती हैं, जिसने अपने लिए संविधान बना कर, अपने ऊपर लागू किया है. 
विधायिका के बारे में यह भ्रम बनाया अौर फैलाया गया है कि वह सर्वोपरि है. पिछले दिनों, जब अन्ना हजारे का अांदोलन सांसदों की नींद हराम किए था, तब सांसद बार-बार कहते थे कि संसद सर्वोपरि है जिसे सड़क पर बैठे लोग चुनौती नहीं दे सकते हैं ! सड़कों, खेतों-खलिहानों में रहने वालों की ताकत से जब अाप सांसद बन कर, संसद में पहुंच सकते हैं तो उनके कहने से संसद अपना एजेंडा बना या बदल क्यों नहीं सकती ? कानून बनाने का काम संसद का है लेकिन उसे कोई कानून बनाने के लिए प्रेरित या मजबूर कर ही सकता है समाज ! लेकिन दिग्विजय सिंह जैसे लोग हैं कि जो समाज का वोट चाहते हैं, समाज की अोट भी चाहते हैं लेकिन समाज की चोट न सह सकते हैं, न स्वीकार कर सकते हैं. 

उन्होंने यह सवाल खड़ा किया है कि अदालत ने सीबीअाई के बारे में जैसी टिप्पणी अभी-अभी की अौर जैसी टिप्पणी वह करता ही रहता है उससे क्या वह लोकतांित्रक संस्थाअों को मलिन कर, कमजोर नहीं कर रहा है ? वे बड़ी गंभीरता से कह रहे थे कि वे अदालत की बहुत इज्जत करते हैं लेकिन एक नागरिक की हैसियत से वे यह सवाल उठा रहे हैं कि अदालत अपराध की जांच करे अौर सजा दे,इसमें तो कोई एतराज नहीं है लेकिन अदालत ऐसी टिप्पणियां करे जिनसे मुकदमें का कोई रिश्ता नहीं है, जिसकी कोई कानूनी हैसियत नहीं है अौर जो हमारी प्रशासनिक संस्थाअों की छवि खराब करती हैं, तो उसके बारे में अदालतों को सावधान नहीं करना चािहए ? 

िदग्विजय सिंह की बात ऐसे समय अाई है जब वे अपनी पार्टी व सरकार के साथ कठघरे में हैं. वह ऐसे समय अाई है जब उन्हें नहीं बोलना चािहए था. हमारी राजनीतिक बिरादरी ने देश, सरकार, अौर प्रशासन की जैसी हालत बना रखी है, उसमें अदालत की टिप्पणियों का सबसे अच्छा जवाब तो यही होता कि चुप रहा जाए अौर वह सब किया जाए जो अदालत ने कहा है. लेकिन धीरज के साथ काम करना अौर सोच-समझ कर, सोची-समझी भाषा में बात कहना दिग्विजय सिंह की विशेषता कभी नहीं रही है. इसलिए वे पार्टी में भी अलग-थलग पड़ जाते हैं अौर जिस नेहरू-परिवार से उनकी निकटता की बात की जाती है, वह परिवार भी कभी उनके बचाव में नहीं अाता है.  इस बार भी ऐसा ही हुअा ! 

अदालत अगर मतिशून्य मशीन भर नहीं है तो हमें उसके फैसलों का पालन करने को जितना तैयार रहना चाहिए, उतनी ही तैयारी रखनी चाहिए कि हम उसकी टिप्पणियों को भी सहें, उनसे सीखें ! अदालती टिप्पणियां किसी पागल का प्रलाप नहीं हैं, हमारे संविधान की सबसे प्रमुख संरक्षक संस्थान की अांतरिक भाव-दशा का परिचायक हैं. वह चंपारण की अदालत का अंग्रेज जज ही था जिसने अारोपी महात्मा गांधी के कठघरे में अाते ही, अपनी कुर्सी से उठकर उनका सम्मान ही नहीं किया था बल्कि यह भी टिप्पणी की थी कि उसे मालूम है कि उसकी अदालत के कठघरे में जो अादमी खड़ा है, वैसा विशिष्ट कोई दूसरा कभी उसकी अदालत में अाया नहीं; अौर सजा देने के बाद यह भी सार्वजनिक टिप्पणी की कि यदि महारानी की सरकार उसकी दी सजा में कटौती करती है या उन्हें माफ कर देती है तो इससे उसे बेहद खुशी होगी. मुकदमें से असंबद्ध अदालत की ये दोनों टिप्पणियां, अाज दुनिया की न्यायपालिकाअों के इतिहास में कोहिनूर की तरह दमकती हैं !  गुलाम भारत पर राज कर रहे किसी भी अंग्रेज के तब भी नहीं कहा था कि महारानी की सरकार के इस घोषित दुश्मन को, भरी अदालत में ऐसा मान दे कर जज ने साम्राज्य की हेठी की है ! अदालती टिप्पणियां न्यायकर्ता के मानस में चल रही उथल-पुथल का अंदाजा देती हैं. वे बताती हैं कि संविधान की धाराएं अौर कानून का तटस्थ मिजाज जो भी कहेगा, कहेगा लेकिन हालात हमें कहां पहुंचा रहे हैं ! 
सारा देश क्षुब्ध है अौर न्यायपालिका हैरान है कि देश का राजनीतिक समुदाय पतन के किस गड्ढे में समाता जा रहा है !  पार्टियों का भेद किए बिना कहा जा सकता है कि दिग्विजय सिंह समेत हर राजनीतिक नेता जब विपक्ष में होता है तब यह अारोप लगाता है कि सीबीअाई का इस्तेमाल पार्टी हित में किया जा रहा है; कि न उसकी स्वतंत्रता बची है अौर न स्वायत्तता ! अौर हर पार्टी सत्ता में अाते ही सीबीअाई का बेजा इस्तेमाल करने लगती है. सीबीअाई का हर अवकाशप्राप्त निदेशक टेलिविजनों के कार्यक्रमों में अा कर बड़ी बहादुरी से राज खोलता है कि सरकारें सीबीअाई का गलत इस्तेमाल करती हैं लेकिन अाज तक एक भी निदेशक ऐसा तो नहीं अाया कि जिसने पद से इस्तीफा दे िदया हो कि उससे गलत काम करवाया जा रहा था ! केरियरिज्म,पदलोलुपता अौर नैतिक कायरता का इससे भी बड़ा कोई उदाहरण हो सकता है क्या ? अदालत ने इसी पीड़ा को तीखी अभिव्यक्ति दी जब उसने सीबीअाई को िपंजड़े में बंद अौर अपने राजनीितक अाकाअों की बोली बोलने वाला तोता कहा. अदालत ने उसकी छवि खराब नहीं की, उसकी बनी हुई छवि का िववरण दिया अौर सरकार से कहा कि वह इसकी छवि सुधारने की दिशा में फलां-फलां कदम भी उठाए.

हमारी अदालतें अौर हमारी न्याय-प्रणाली दूध की धोई नहीं है. उनमें न्याय बिकता है, सिफारिशें चलती हैं,पैसों के बल पर अनगिनत तारीखें ली जाती हैं अौर जजों की कुर्सियों पर ऐसे लोग भी पहुंचते हैं जिनकी वहां पहुंचने की योग्यता नहीं होती !  हमने देखा है कि सामाजिक न्याय व समता के सवाल पर हमारी अदालतें अधिकांशत: यथािस्थति के साथ जाती हैं. न्याय का यह ढांचा इतना विशाल हो गया है कि उसके बोझ तले सबसे पहले न्याय का ही गला घुट जाता है. अभी-अभी सर्वोच्च न्यायालय ने खुद यह शर्मनाक तथ्य सामने लाया है कि बहू को जलाने के एक मामले में पंजाब की एक अदालत ने इतनी बार तारीखें बढ़ाई हैं कि अाज कोई दो साल से भी अधिक हुए लेकिन जलाई गई लड़की की एक बार भी डॉक्टरी जांच नहीं हुई है. अदालत के पास न तो अपने हाथ-पांव हैं न अपनी अांखें हैं. पुलिस उसका यह सारा काम करती है; अौर हमारी पुलिस कैसी है ? अपने दुर्भाग्य का यह पन्ना अभी हम ना खोलें तो ही अच्छा होगा ! तो यह सच है कि कोई ६५ साल पहले, अाजाद होते ही हमने जो पोशाकें अपनी व्यवस्थाअों को पहनाई थीं, वे तार-तार हो चुकी हैं. सिलाने, पैबंद लगाने या एक-दूसरे से अदला-बदली करने की हालत में भी वे नहीं बची हैं. सब कुछ नया बनाना है. लेकिन जब तक नया कुछ बनता नहीं है तब तक क्या हम पुराना सब बंद कर देंगे ? कर सकेंगे ? यह न तो संभव है, न उचित ! 

इसलिए अभी अदालत ने जो कहा सीबीअाई के बारे में अौर दिग्विजय सिंह ने जो कहा अदालत के बारे में, उन्हें अलग-अलग कर के देखना होगा. दिग्विजय सिंह खुद ही वह तोता हैं जो अपने राजनीितक अाका की जबान बोलते हैं. जब तक मंत्रियों का इस्तीफा नहीं हुअा था, वे  इस्तीफे की मांग को नाजायज, विपक्ष की साजिश अादि बता रहे थे अौर जैसे ही इस्तीफा ले लिया गया, वे इसे कांग्रेस पार्टी की नैतिक सावधानी का प्रतीक बताने लगे ! वे ऐसा करें क्योंकि वे इससे अलग कुछ कर भी नहीं सकते क्योंकि सत्ता के खेल का व्याकरण ऐसे ही चलाया जाता है. लेकिन वे अगर कर सकें तो इतना करें कि न्यायपालिका को अपने खेल का हथियार न बनाएं !  अाज इसकी हैसियत को छोटा करने की हर कोशिश लोकतंत्र को खोखला करेगी जो अाज की िस्थति में कदापि शुभ नहीं है.(16.5.13)


गड्ढे भरते नरेंद्र मोदी : 1 

(11.04.2013)

राहुल गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ! भारतीय जनता पार्टी वालों को सामान्यत: तो ऐसा क्रम पसंद नहीं अाएगा लेकिन अभी उन्हें इससे कोई एतराज नहीं है. राहुल गांधी के बाद नरेंद्र मोदी अपनी बात ले कर देश के सामने अा रहे हैं, इससे उन्हें साबित करने में अासानी हो रही है कि देखिए, हमारा नेता कितना सयाना है, कितना अच्छा वक्ता है, कितना गहरा विचारक है अौर किस तरह वह समाज के हर वर्ग के साथ तालमेल िबठा लेता है ! इसलिए दिल्ली में, सीसीअाई के कारपोरेट जगत को राहुल ने जब अपनी अंटकती-भटकती बातें बताईं तब उसका उपहास करने वाले भारतीय जनता पार्टी के लोगों के मन में लड्डू फूट रहे थे. उन्हें पता था कि कुछ ही दिनों बाद, उनका नेता कारपोरेट जगत के दूसरे क्लब फिक्की की महिला उद्यमियों को संबोधित करेगा तो एकदम सीधा मुकाबला हो जाएगा अौर राहुल हवा में उड़ जाएंगे. वह दिन अाया भी, गया भी लेकिन हवा में कौन उड़ गया, इसका िहसाब लोग अाज तक लगा रहे हैं. इसमें राहुल गांधी की कोई विशेषता नहीं है कि कांग्रेसी जिसका जश्न मनाएं लेकिन ऐसा बहुत कुछ है जिसका भाजपाई शोक मनाएं. 

नरेंद्र मोदी इन दिनों जो कर रहे हैं, उसे देश का प्रधानमंत्री बनने की ड्रेस-रिहर्सल कहा जाना चाहिए. वे पहले राजधानी दिल्ली में, फिक्की की महिलाअों के बीच में अाए, फिर वहीं एक समाचार चैनल के समारोह में अपना विशेष चिंतन पेश किया अौर फिर वहां से सीधे पहुंचे कोलकाता !  उन्हें पता था कि इन सभी जगहों पर वे जो कुछ भी कहेंगे-करेंगे वह सारे देश में देखा जाएगा अौर उनके लोग, उनकी हर बात अौर हर अदा को, प्रधानमंत्री बनने की उनकी योग्यता के प्रमाण के रूप में पेश करेंगे. इसलिए कपड़ों से लेकर अपनी भाषा, अपनी प्रस्तुति, अपनी कटुक्तियों, अपने चेहरे के भावों अादि सब पर उन्होंने सावधानी से काम किया था अौर यह सारा इतनी मेहनत से साधा गया था कि नरेंद्र मोदी बहुत हद तक  प्लािस्टक के हुए जा रहे थे. हम उनकी कटोक्तियां, बेढब टिप्पणियों अौर छिपी धमकियों वाले वाक्य भी नहीं सुन पाए; अौर वे सारे उपदेश भी अनसुने रह गये जिन्हें देने की उनको अादत पड़ गई है. मुझे लगता है कि गुजरात के लोगों के लिए भी यह पहचानना मुश्किल हुअा होगा जिस अादमी को उन्होंने अहमदाबाद से, विमान पर बिठाया था वही दिल्ली उतरा क्या !  मोदी इन सारे अायोजनों में भले बबुअा के मूर्तिमान स्वरूप बने हुए थे. यह बहुत कुछ मोदी का राहुलीकरण था जो देखने में अटपटा अौर सुनने में बेहद कच्चा लग रहा था. 

िफक्की की महिला उद्यमियों से उन्होंने उद्योग-धंधे की कोई बात नहीं की अौर न उन्हें यह बताते की ही जरूरत समझी कि उनका गुजरात महिला उद्यमियों को कैसी सुविधाएं देने को तैयार है ताकि गुजरात भी अौर वे भी प्रगति कर सकें. हिंदुत्ववादियों को महिलाअों की ऐसी कोई अाधुनिक भूमिका सहज ग्राह्य नहीं होती है. इसलिए मोदी भी, कम-से-कम अपने गुजरात के संदर्भ में लगभग अर्थहीन हो चुके मां-बहन-शक्तिदायिनी-मुक्तिदायिनी अादि-अादि विशेषणों से अागे कहीं पहुंच ही नहीं पाए. यही कारण था कि महिलाअों के अारक्षण के सवाल पर भी अपनी या अपनी पार्टी की कोई स्पष्ट भूमिका रेखांकित करने के बजाये, वे गुजरात की महिला राज्यपाल पर, बड़े संयमित शब्दों में सारी जिम्मेदारी डाल कर किनारे हो गये. 

उन्होंने इतनी ईमानदारी भी नहीं बरती कि सभा को यह भी बता दें कि राज्यपाल ने मोदी ने उस बिल का पूरा समर्थन ही नहीं किया है बल्कि प्रशंसा भी की है. साथ ही यह भी कहा है कि अापने इसे कंपलसरी वोटिंग के साथ जिस तरह जोड़ कर पेश किया है, वह ठीक नहीं है, दोनों को अलग-अलग पेश करें. इसमें राज्यपाल का पक्ष सही है मुख्यमंत्री का, यह हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं है, हमारे लिए महत्वपूर्ण है मोदी साहब से यह जानना कि क्या राज्यपाल के असहमति के अधिकार को वे मान्य करते हैं अौर उसकी इज्जत करते हैं ? दूसरों की राय कोई मतलब नहीं रखती है, ऐसा प्रशासन अब तक मोदी ने गुजरात में चलाया है. जब तक भाजपा में थोड़ी-बहुत अांतरिक शक्ति बची हुई थी, ऐसे मोदी को वहां जगह नहीं मिली थी.  जैसे-जैसे पार्टी कमजोर व खोखली होती गई है, ऐसे तत्वों की बन अाई है. यह वृति लोकतंत्र की नहीं, अधिनायकवादी तंत्र की प्रतीक है अौर अधिनायकवाद के बारे में जो एक छिपा स्वीकार हिंदुत्ववादियों के भीतर है उससे सीधा जुड़ता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि श्रीमती इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी महत्वाकांक्षा को, भारतीय समाज के जिन तत्वों ने सबसे पहले स्वीकार किया था अौर उसकी विरुदावलि गाई थी, उनमें हिंदुत्ववादी भी थे, कारपोरेट जगत भी था, किताबी बुद्धिवादी भी थे. शिव सेना के ऐसे स्वर्गीय तत्त्व बाल ठाकरे भी थे जो खुलेअाम हिटलर की तानाशाही की सिफारिश करते थे अौर अपने राजनीतिक व्यवहार में वैसा ही बरतते भी थे. ऐसे ही कई तत्व अाज भी हैं जो दबे-िछपे ऐसी बातें करते हैं. मोदी ने कुल मिला कर उच्च मध्यम वर्ग की मानसिकता को भाने वाली बातें कर के, फिक्की के अायोजन से छुट्टी पाई. 

टीवी चैनल के कार्यक्रम में मोदी ने यह जताने की भरपूर कोशिश की कि वे एक राजनीतिक चिंतक हैं जिसने गुजरात में कई तरह के प्रयोग कर, कुछ ऐसे सत्य पाये हैं कि जिसे देश को बताना ही जरूरी नहीं है बल्कि जिस पर देश को चलाना भी जरूरी हो गया है. ऐसा ही एक चिंतन उनका गवर्मेंट अौर गवर्नेंस के बीच फर्क का था. राहुल गांधी ने भी कहा था कि देश किसी एक व्यक्ति के चलाने से चल नहीं सकता है, मोदी ने भी इसे स्वीकार करते हुए कहा कि कोई सरकार अकेले दम पर राज्य नहीं चला सकती है. लोगों का सहयोग जरूरी है. मोदी ने इस बारे में गुजरात का अपना अनुभव भी बताया. लेकिन कहीं भी उन्होंने यह नहीं कहा कि सरकार अौर प्रशासन में जिस फर्क व दूरी की बात वे करते हैं, क्या गुजरात में ऐसा कुछ साकार हुअा है ? सारे अधिकार अौर सारे िनर्णय जब एक ही व्यक्ति अौर एक ही कुर्सी से जुड़े होते हैं, जैसा कि  मोदी के गुजरात में है, तब शब्दों का ऐसा खिलवाड़ अच्छा लगता है.  

हकीकत यह है कि िब्रतानी ढंग के जिस प्रशासनिक ढांचे को हमने अपने यहां चलाये रखा है उसकी ताकत इसी में है कि शासन-प्रशासन की ऐसी जुगलबंदी बनी रहे िक एक-दूसरे के स्वार्थ पर कभी अांच न अाए. इसलिए हम देखते हैं कि १९९२ के गुजरात दंगों के बाद की जांच में सबसे बड़ी बाधा अगर कहीं से अा रही है तो वह मोदी की सरकार अौर मोदी के प्रशासन की तरफ से अा रही है. जिन अधिकारियों ने अौर जिन राजनीतिज्ञों ने भी, दंगों के दौरान का अपना कोई सच दुिनया के सामने रखा या रखना चाहा, उनका क्या हुअा यह हम देख रहे हैं. परिणाम यह हुअा कि हमारी न्यायपालिका को यह विधान करना पड़ा है कि अपराध भले  गुजरात में हुअा है, उसकी जांच गुजरात के बाहर होगी, क्योंकि गुजरात में स्वाभाविक न्याय का कोई अाधार नहीं बचा है. ऐसा पहले, कभी किसी राज्य के साथ नहीं हुअा. इस बारे में मोदी अौर मोदीमय भाजपा कभी कुछ नहीं कहती है. जब ऐसी िस्थति गुजरात में है तब तो सरकार व प्रशासन का मोदी-फार्मूला विफल हुअा न !
ममता बनर्जी के कोलकाता में पहुंच कर मोदी ज्यादा खुले मतलब असली रंग में अाये. उन्होंने यहां यह साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी कि वे प्रधानमंत्री बनने की जमीन तैयार करने के लिए घूम रहे हैं. एक कुर्सीप्रधान व्यावहारिक राजनीतिज्ञ की तरह वे हवा सूंघ रहे हैं कि भविष्य में कब, किसके समर्थन की जरूरत अान पड़े !  यह सब कोई नया मॉडल हो तो यह मोदी अौर भाजपा को ही मुबारक हो लेकिन हम देख रहे हैं कि सत्ता पाने की राजनीति भले ममता को खूब अाती हो, सत्ता का कोई वैकल्पिक समीकरण भी हो सकता है, यह उन्होंने न सीखा है, न समझा है. इसलिए वे इतनी जल्दी अपनी दिशा भी खो चुकी हैं अौर संतुलन भी; अौर इसलिए बार-बार कोलकाता में दिल्ली का हौव्वा खड़ा करने के अलावा उन्हें अब कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है. वे तेजी से बंगाल हारती जा रही हैं. भारतीय जनता पार्टी भी इसी तरह वह सारी जमीन कांग्रेस से हारती गई जो उसने अटल-राज में कमाये थे. इसलिए यह ठीक ही है कि मोदी ममता के साथ अपना साम्य देखते हैं. लेकिन भाजपा को इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि अगर मोदी ने इस साम्य को ज्यादा दूर तक ले जाने की कोशिश करेंगे तो कहां होगी पार्टी ? 

मोदी कहते हैं कि लोगों का इस व्यवस्था में भरोसा नहीं रहा है ! अगर यह सच है तो मोदी भी इसमें शामिल हैं न ! ऎसा कह कर वे मनमोहन सिंह पर तीर चलाते हैं लेकिन वे खुद भी अपने ही तीर के निशाने पर अा जाते हैं, यह देख नहीं पाते हैं, क्योंकि व्यवस्था तो एक ही है जिसे गुजरात में वे अौर दिल्ली में मनमोहन सिंह चला रहे हैं. सरकार अलग बात है अौर व्यवस्था अलग, इसे भूल कर अाप कैसे चल सकते हैं ? मोदी बार-बार दोहराते हैं कि 2500 करोड़ के घाटे की गुजरात की अर्थ-व्यवस्था अाज 6,700 करोड़ रुपयों के फायदे में चल रही है. इसे वे अपनी उपलब्धि बताते हैं. ऐसे कितने ही अांकड़े मनमोहन-सरकार के पास भी थे लेकिन अाज सब कहां बिला गये ? दरअसल बताना तो यह चाहिए न कि घाटे से फायदे में अाने वाली यह रकम अाई कहां से ? क्या राज्य की यानी लोगों की उत्पादन क्षमता बढ़ी अौर वे स्थाई रूप से संपत्तिवान हुए ? गुजरात में बेरोजगारी की दर क्या थी अौर अाज क्या है ? मोदी हर साल अहमदाबाद में बड़े-बड़े अार्थिक सम्मेलन करते हैं, कारपोरेट जगत को जमा करते हैं. ऐसे अायोजनों में निवेश के जो अांकड़े घोषित होते हैं उनमें से कितने धरती पर उतरते हैं ? जो धरती पर उतरते हैं, वे समाज के सभी वर्गों तक पहुंचते हैं ? ऐसे सवालों के जवाब मिलें तभी पता चलेगा कि गुजरात में व्यवस्था के स्तर पर कोई फर्क अा रहा है क्या ? (  अगली किस्त कल पढ़ें .) 

गड्ढे भरते नरेंद्र मोदी : 2 


    मोदी बार-बार प्रशासन की उस शैली की बात कहते रहे जिसे वे गुजरात-मॉडल का नाम देते हैं. क्या है यह गुजरात मॉडल ? वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं अौर इन लंबे दौर में एकदम निर्द्वंद सत्ता उनके हाथ में रही है. पहले दौर में उनकी प्रशासनिक शैली की एकमात्र उपलब्धि रही कि समाज के अल्पसंख्यकों व असहमत लोगों को डरा-डमका अौर मार डाल कर एकदम हाशिये पर पहुंचा दिया जाए ताकि कोई पथ-बाधा बचे ही नहीं. हमने मान लिया कि यह मोदी-मॉडल का एक तत्व है. दूसरा तत्व क्या है ? जब मोदी बार-बार कहते हैं कि उन्होंने प्रशासनिक ढांचे में कई तरह के सुधार किए हैं तो हम सच्चाई जाने बगैर उसे सही मान लेते हैं, अौर फिर पूछते हैं उनसे कि गुजरात तो देश के सबसे तथाकथित उन्नत राज्यों में एक था ही तो फिर उसके साथ मोदी पिछले दस सालों से कर क्या रहे हैं ? भयंकर किस्म के सामाजिक अपराध, तस्करी, अवैध शराब, दबंग जातियों का वर्चस्व, चिमनभाई पटेल मार्का राजनीति अौर फिर भाजपा मार्का सांप्रदायिक राजनीति से अलग, मोदी-मॉडल में क्या-क्या है, हम जानना चाहें तो क्या जवाब है ? 

मोदी ने जवाब दिया अौर कुछ इस तरह दिया मानो सबको लाजवाब ही कर दिया ! उन्होंने कहा कि हम इतने वर्षों तक कांग्रेस के बनाये गड्ढे भर रहे थे, गुजरात का भव्य-दिव्य नवनिर्माण तो अब शुरू होगा ! मोदी की मानें तो कांग्रेसियों की, गड्ढे करने की क्षमता का कायल होना पड़ेगा. लेकिन गुजरात ही नहीं, कांग्रेसियों की इस क्षमता का प्रमाण तो सारा देश ही है !! लेकिन इसी सिक्के का दूसरा पहलू यह भी नहीं है क्या कि मोदी-मॉडल गड्ढे भरने से ज्यादा कुछ कर ही नहीं सकता है ? मोदी खुद ही कह रहे हैं कि गुजरात में हमने नया कुछ भी नहीं किया है क्योंकि सारा समय गड्ढे भरने में गया ! करना तो अब शुरू होगा. तब फिर किस मॉडल की बात सारे देश में की जा रही है ? यह तो वही घिसा-पिटा, राजनीतिक-प्रशासनिक अकुशलता को छिपाने का गैर-ईमानदार मॉडल है जो अपने से पहले के शासन पर, अगर वह दूसरे दल का शासन था तब तो ज्यादा अासानी से चस्पां किया जाता है. मनमोहन सिंह सरकार के लोग भी इसी मॉडल का सहारा लेकर सारी गड़बड़ियों का ठीकरा अाजतक अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार पर फोड़ते हैं; अौर हम पाते हैं कि मॉडल चाहे किसी का भी हो, उसका ठीकरा फूटता तो हमारे ही सर पर रहा है. 

मोदी गुजरात में अौर नीतीश कुमार बिहार में करीब-करीब साथ ही अाये. अगर मॉडल की भाषा में बात करें तो गुजरात में मोदी-मॉडल तो  बिहार में नीतीश-मॉडल काम कर रहा है. नीतीश से पहले बिहार में लालू यादव का एकक्षत्र राज रहा अौर उन्होंने अपने लंबे शासन-काल में जो किया उसे नीतीश तो जंगल-राज ही कहते हैं. मतलब यह कि गड्ढों वाली बात करें तो नीतीश को विरासत में गड्ढे नहीं, ज्वालामुखी से बने गह्वर मिले ! अब हम देखें कि बिहार में नीतीश-मॉडल ने क्या हासिल किया है अौर उसी अवधि में गुजरात में मोदी-मॉडल ने क्या हासिल किया है. विकास के अाज जितने भी प्रतिमान माने जाते हैं उन सभी को जांचें हम तो पाएंगे कि नीतीश-मॉडल ने बिहार में, मोदी-मॉडल के गुजरात से कहीं ज्यादा उपलब्धियां हासिल की हैं. गुजरात की तरह बिहार में नीतीश एकमात्र नहीं हैं. उनका भाजपा के साथ गठबंधन है अौर सुशील मोदी जैसा काबिल अादमी उनके साथ है. फिर भी अगर बिहार इस बात का उदाहरण बना हुअा है कि गठबंधन की सरकार कैसे चलाई जाती है तो इसमें नीतीश-मॉडल का हाथ है. बिहार में अपना मॉडल चलाने के लिए नीतीश को जरूरत नहीं पड़ी कि बिहार के सामाजिक समीकरण का क्रूर ध्रुवीकरण किया जाए. उन्होंने बिहार में खुलेपन का अौर बराबरी का माहौल बनाए ही नहीं रखा है बल्कि उसकी पहरेदारी भी की है. 

भूमि अधिग्रहण का सवाल अाज किसी भी सरकार के लिए एसिड टेस्ट बन गया है. सारे देश में किसान इस एक सवाल को लेकर जितना अशांत है, उतना किसी भी दूसरे सवाल पर नहीं है. पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी बड़ी कीमत चुका कर यह सीख पाये हैं कि मेहनतकश वर्ग किसी का गुलाम नहीं होता है - उनका भी नहीं, जो उसके लिए काम करने का दावा करते हैं. ममता बनर्जी भी अब उसी अांच में तपने लगी हैं. नरेंद्र मोदी गुजरात में इस सवाल पर जो कर रहे हैं वह बुद्धदेव भट्टाचार्य से अलग क्या है ? गुजरात में किसानों की जमीन का सौदा, सरकार की दलाली में कारपोरेटों के लिए किया जा रहा है. कारपोरेट का चेहरा कहीं अदानी का है, कहीं अंबानी का, कहीं टाटा का तो कहीं किसी दूसरे का लेकिन दलाल का चेहरा सब जगह एक ही है- मोदी-मॉडल ! बंगाल अौर गुजरात में फर्क है तो यह कि मोदी के यहां किसानों की कोई जागरूक-संगठित ताकत नहीं है. चालाकी अौर दमन की ताकत से मोदी किसानों से निबट रहे हैं अौर उम्र का नौवां दशक पार कर रहे सर्वोदय के चुन्नी भाई वैद्य अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगा कर, उसका मुकाबला कर रहे हैं. ऐसे मुकाबलों में हार-जीत नहीं होती है, संघर्ष की विरासत होती है जो चुन्नीभाई जैसों को गांधी-विनोबा-जयप्रकाश से मिली है अौर वे जिसे अगली पीढ़ी को सौंपने में लगे हैं. अौर ऐसे में मोदी किस मुंह से कहते हैं कि अौद्योगिक विकास, कृषि के विकास की कीमत पर नहीं होना चाहिए !  यह तो वही निरर्थक जुमला है जो मनमोहन सिंह भी बोलते हैं अौर मोदी भी !  

गुजरात के सौराष्ट्र के इलाके में अभी-अभी ही मैं था अौर मैंने देखा कि पानी की कैसी किल्लत है ! कहां-कहां से पानी जुटा रहे हैं लोग ! पिछले साल भी बारिश ने धोखा दिया अौर इस साल भी आसार अच्छे नहीं हैं. लेकिन १२ सालों में मोदी-मॉडल ने इस समस्या के बारे में क्या किया ? मैंने देखा कि वहां दलितों को पानी की कमी से भी अौर उूंची जातियों के दुर्व्यवहार से भी जूझना पड़ता है. मोदी कहते हैं कि गुजरात के हर गांव में चौबीस घंटे बिजली के रहती है लेकिन सौराष्ट्र के गांवों में ऐसा नहीं मिला. कस्बों में बिजली बराबर जाती है अौर गांवों में किसान बिजली के लिए परेशान रहता है. नर्मदा का पानी कहां-कहां पहुंचा है अौर किन-किन को मिल रहा है, कभी इसका हिसाब भी तो किया जाए !    

अब कुछ वैसी बातें जिन्हें मोदी ने इस तरह कहा जैसे वे कई मार्के की बात कह रहे हैं लेकिन उनमें सार बहुत नहीं था. जैसे यह कि देश के  एक-एक राज्यों के जिम्मे दुनिया के एक-एक देश कर देने चािहए ताकि हम सारी दुनिया को संभाल लें. क्या सच में मोदी जब प्रधानमंत्री बनेंगे तब देश को वे संभालेंगे अौर दुिनया को राज्यों के भरोसे छोड़ देंगे ? अभी भी हम देख ही तो रहे हैं कि हमने तमिलनाड के जिम्मे अपना एक पड़ोसी देश श्रीलंका छोड़ दिया है ! मोदी सरीखे वहां के सारे राजनीतिज्ञ अपने चुनावी हित के अागे राष्ट्रीय हित की बलि चढ़ा रहे हैं ! 

अपनी बात को गहरी समझ का अाधार देते हुए मोदी ने कहा कि अब दुनिया में युद्ध, कूटनीति जैसी कोई बात तो बची नहीं है, दो देशों के बीच अाज जो भी बचा है वह कॉमर्स बचा है. तो व्यापार अादि के लिए विदेश विभाह का इतना बड़ा तामझाम क्यों चाहिए ? क्या मोदी के इस गंभीर चिंतन से भाजपा सहमत है ? परिस्थिति का सरलीकरण करने से परििस्थति सरल नहीं हो जाती है ! क्या मोदीसमेत भाजपा को यह समझने की जरूरत नहीं है कि अाज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि अाज राजनीति व्यापार-धंधे की पोशाक पहन कर सामने अाती है ? वह वक्त बीत गया जब साम्राज्यवाद के विकास के लिए उपनिवेश बनाने पड़ते थे अौर उसके लिए जरूरी होता था कि अाप अपनी फौज ले कर शशरीर वहां उपस्थित हों. अाज उसकी जरूरत नहीं रही है. अापकी पूंजी अौर अापका माल जहां पहुंचता है  वहीं अापका उपनिवेश बन जाता है. पहले अाप विदेश-नीति को अलग अौर उद्योग-व्यापार नीति को अलग अाधार पर चलाते थे. अाज दोनों गड्डमड्ड हो गये हैं. इसलिए अाज जरूरी यह है कि सरकार व प्रशासन दोनों स्तर पर, राजनीति व व्यापार की गहरी समझ हो  अौर दोनों को साथ ले कर चलने का नाजुक संतुलन बनाया जाये. िस्थति पहले से अासान नहीं, जटिल हुई है. इसलिए अार-पार की लड़ाई की धमकी देने वाले अटलबिहारी वाजपेयी भी कभी लड़ाई छेड़ नहीं सके ! 

ऐसी ही मोदी की यह बात भी है कि हमें गुजरात के साथ लगनेवाली  पाकिस्तानी सीमा पर सौर उूर्जा के संयंत्र लगा देने चाहिए. मोदी कहते हैं कि इससे सीमा की सुरक्षा भी हो जाएगी अौर हमें बिजली भी मिलने लगेगी. क्या ऐसे सुझावों के पीछे सिर्फ यह बताने की चालाकी है कि हमारे पास विकल्प भी हैं अौर योजनाएं भी ? यािक सच में इन्हें नहीं सूझता है कि अंतरराष्ट्रीय सीमाअों की सुरक्षा इस तरह नहीं की जा सकती है कि हमारी फौजें दुश्मन पर भी नजर रखें अौर सौर उूर्जा के संयंत्रों पर भी ! फिर रोज ही यह खेल होगा कि कभी यहां तो कभी वहां दुश्मन ने कोई छोटा हथगोला ही फेंक दिया अौर करोड़ों का संयंत्र जल भी गया अौर बिजली गुल हो गई तो अंधेरे का फायदा उठा कर कई अातंकवादी भीतर घुस अाये !  ऐसी सोच बचकानी ही नहीं है बल्कि बहुत खतरनाक भी है. मोदी चाहें तो भाजपा के पूर्व फौजी जसवंत सिंह से बात कर लें; या फिर खंडूरी साहब से ! ये दोनों अगर सहमत हों तो गुजरात से ही यह प्रयोग शुरू हो, अौर फिर अपने सहयोगी प्रकाश सिंह बादल के पंजाब में मोदी इसे करें ! करना तो दूर, करने की कोशिश में ही इन्हें समझ में अा जाएगा कि यह व्यर्थ की लफ्फाजी है !  

मुझे लगता है कि राष्ट्रीय मंच पर मोदी का यह अवतरण उन्हें भी अौर भाजपा को भी बहुत उल्टी िस्थति  में डाल गया है ! दोनों की छवि को नुकसान हुअा है. पप्पू अौर फेंकू वाले स्तर से इसे देखें तो कहना होगा कि राहुल गांधी ने पप्पू की अपनी छवि को एक नये रंग से देखने पर हमें मजबूर किया है अौर हमें लगता है कि पप्पू प्रधानमंत्री बने कि न बने, वह बड़ा जरूर हो रहा है. नरेंद्र मोदी ने इन सारे अायोजनों में, फेंकू की उनकी छवि को पक्का किया है. अब अपनी पार्टी में, फिर अपने गठबंधन में अौर फिर अपने देश में उन्हें गंभीर नेता के रूप में मान्यता मिले, यह  ज्यादा ही कठिन हो गया है. (11.04.2013)


एक राहुल : दूसरा राहुल 

(05.04.2013)
         
               इस बार राहुल गांधी राजधानी दिल्ली के मंच से बोले ! चुनावी भाषणों से अलग वे जब भी बोलते हैं तो वह एक घटना बन जाती है क्योंकि राहुल बोलते भी हैं यह देश को कम ही पता चलता है; अौर वे क्या बोलते हैं, यह तो देश अौर भी कम जानता है. इसलिए भारतीय उद्योगपतियों की सबसे बड़ी संस्था सीअाइअाइ के मंच से जब राहुल गांधी बोलने अाए तो सभी उत्सुक भी थे अौर हैरान भी कि वे क्या बोलेंगे ! जब उन्होंने पोिडयम पर जा कर, कागज के पुलिंदों में से देख-देख कर बोलना शुरू किया तब गहरी निराशा हुई. वे न तो ठीक से बोल पा रहे थे अौर न ठीक से पढ़ पा रहे थे. उनकी अावाज में थरथराहट भी थी अौर उनका पूरा हावभाव किसी ऐसे घबराये व्यक्ति का था जिसे सुनना व देखना िकसी सजा के बराबर होता है. वे अपना ही उपहास करते दिखाई दे रहे थे. 

              राहुल गांधी हिंदी बोलते हैं तब कम, अंग्रेजी बोलते हैं तब ज्यादा पता चलता है कि भाषा पर उनकी पकड़ कम है अौर अपनी बात ठीक से कहने के िलए उन्हें शब्द खोजने पड़ रहे हैं. इसलिए वे कभी भी किसी कुशल वक्ता की छाप नहीं छोड़ पाते हैं. वैसे शायद यह उस पीढ़ी की ही विशेषता है जो मानती है कि भाषा ज्यादा कुछ नहीं, एक माध्यम भर है जिससे हम अपनी बात दूसरे तक पहुंचाते हैं. मैंने मोटा-मोटा कहा अौर अापने मोटा-मोटा समझा, बस, भाषा की भूमिका पूरी भी हुई अौर खत्म भी !  हम अपने घरों में भी यह रोज ही देखते हैं कि हमारी नई पीढ़ी भाषा में सौंदर्य की, संस्कार की, कोमलता अौर प्रांजलता की जरूरत मानती भी नहीं है अौर चाहती भी नहीं है. हमने उन्हें जैसा परिवेश दिया है, घर से लेकर बाहर तक जैसे माहौल का वे रोज-ब-रोज सामना करते हैं, अपने सार्वजनिक जीवन में हम जैसा रेगिस्तान बना व फैला रहे हैं, चूसे हुए गन्ने-सी सत्वहीन जैसी शिक्षा-पद्धति हमने उन पर लाद रखी है, उन सबका मिला-जुला परिणाम हमें मिल रहा है. राहुल गांधी उसका एक नमूना हैं. इसलिए यह मेरी शिकायत राहुल गांधी की कम, अपनी ज्यादा है. 

                        राहुल गांधी उस रोज जब अपनी उस दुरावस्था से बाहर निकले, पोडियम की कैद छोड़ कर, मंच पर सीधे टहलते हुए, सवालों के जवाब के बहाने अपना मन खोलने लगे तब हमने एक नये राहुल को देखा व सुना ! भाषा व अभिव्यक्ति की उनकी समस्या है ही अौर उस पर उन्हें काफी काम करने की जरूरत है. वैसे जवाहरलाल से राहुल गांधी तक, नेहरू-परिवार का कोई भी सदस्य बहुत कुशल वक्ता नहीं रहा है. एक परिपूर्ण व्यक्तित्व के धनी पंडित नेहरू अपने गहरे इतिहास-बोध व खासे भाषा-सौंदर्य के बल पर अपनी अल्पता को पूरा कर लेते थे लेकिन बाकी नेहरुअों में तो यह सब भी नहीं था. राहुल इन सारी अल्पताअों से बाहर अा सकेंगे तो ज्यादा िखलेंगे. लेिकन अभी तो हमारे पास जो राहुल हैं वे वही हैं जो उस रोज सीअाइअाइ के मंच पर खड़े थे. 

राहुल  गांधी     ने  जब  अपनी  बात  कहनी  शुरू  की  तब  कुछ वक्त लगा श्रोताअों को यह समझने में कि यह अादमी कुछ अलग-सी अौर कुछ ऎसी बातें कह रहा है जो इन दिनों का कोई घुटा राजनीतिज्ञ कहता नहीं है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि ऐसे सवाल वह समझता भी नहीं है अौर ऐसे सवाल उसकी चिंता या चिंतन के दायरे में अाते भी नहीं हैं. राहुल गांधी ने पहली बात तो यही कही कि देश किसी मनमोहन सिंह के चलाने से नहीं चलेगा, नहीं चल रहा है; अौर फिर यह भी कहा कि किसी राहुल गांधी की राय क्या है, यह जानना बहुत अहम बात नहीं है. उन्होंने कहा कि हमारा राजनीतिक ढांचा इतना सिकुड़ा हुअा है कि उमसें हम कुछ सैंकड़ा संासद अौर कुछ हजार विधायक भर समाते हैं. इतनी छोटी जमात, इतनी बड़ी अाबादी का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है ? एक अरब से ज्यादा की हमारी अाबादी अगर हमारे राजनीतिक ढांचे से बाहर ही रहेगी तो संवाद की, अपेक्षाअों की, कागजी योजनाअों को धरती पर उतराने की जो खाई बनती जाती है, वह भरेगी कैसे ? किसी व्यक्ति या किसी पार्टी का सवाल नहीं है, सीधी सच्चाई यह है कि यह अतिकेंद्रित राजनीतिक प्रणाली अाज का हिंदुस्तान संभालने में अक्षम है.  उन्होंने स्वीकार किया िक वामपंथी दल हैं अौर कुछ द्रविड पार्टियां हैं कि जो गांव व प्रधान से रिश्ता जोड़ कर रखने की कोशिश करती हैं लेिकन दूसरी जगहों पर एकदम सन्नाटा है. यह सन्नाटा जब तक नहीं टूटेगा अौर वह संवादहीनता के कारण बनी खाई पाटी नहीं जाएगी तब तक हमें हमारी समस्याअों के जवाब मिलेंगे नहीं. 

यह भारत का वह नौजवान है जो लंबे अरसे से इस इंतजार में रहा है कि इस नहीं तो उस पार्टी को या इस नहीं तो उस नेता को वोट देकर, नई सरकार बनाने से उसके जीवन के सवालों के हल मिलेंगे. वह ऎसा करता भी है लेकिन हर बार पाता है कि वह तो वहीं का वहीं रह गया जबकि कोई दूसरा उसके कंधे पर बैठ कर, उसकी पहुंच से बहुत दूर निकल गया ! ६५ सालों के अनुभव के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस खेल में कुछ धरा नहीं है. कोई भी अादमी या पार्टी ऎसी नहीं है जो दूसरे के लिए कुछ करती है. अब कुछ करना है तो अपने भरोसे करना है. यहां तक बात पहुंच गई है लेकिन अपने भरोसे कुछ कैसे किया जा सकता है, यहंा अाकर वह अंटक जाता है. राहुल गांधी भी यहीं अा कर अंटकते हैं. 

  हमारी दिक्कत यह हो गई है कि हम सरकार को सर्वशक्तिमान मान कर देखते हैं अौर चाहते हैं कि वह एक मंत्र बोल दे अौर हमारा रास्ता खुल जाए. कारपोरेट जगत में यह बीमारी सबसे ज्यादा है क्यंोंकि उन्हें अपना पैसा अौर अपनी कमाई सबसे पहले दिखाई देती है अौर यही अंतिम सच की तरह उनके सामने रहती है. इसलिए उन्हें एक ऐसा व्यक्ति या ऐसा एक नेता सबसे मुफीद लगता है जो कहे कि बस, मेरे पास अा जाअो, मैं सारी बीमारियां दूर कर दूंगा. यही सारे लोग थे जिन्होंने अाजादी के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू की उस कमजोरी को खूब हवा दी कि जिससे वे सब कुछ सरकार कर देगी, अाप बस वोट डालते जाअो, वाला माहौल बनाने में लग गये अौर कुछ अमरीका से तो कुछ सोवियत रूस से ला कर अपना हिंदुस्तान बनाने का ख्वाब पालने लगे. यही लोग थे जिन्होंने महात्मा गांधी को दकियानूसी अौर जवाहरलाल को अाधुनिक विकास का प्रतीक बनाया था अौर देश को गांधीजी के रास्ते से बहुत दूर ही नहीं बल्कि उससे उल्टी दिशा में ले गये थे. लेकिन अाप भटक सकते हैं, अाप लोगों को भी भटका सकते हैं लेकिन वक्त न तो भटकता है, न भटकाता है. इसलिए अाज राहुल गांधी को लग रहा है कि संसद में बैठ कर, बड़े-बड़े कानून बना कर, योजनाएं फैला कर भी हम देश में वह कर नहीं पा रहे हैं जिसकी देश को जरूरत है. यह अहसास उनमें जागा है क्योंकि वे देश के कुछ वैसे राजनीतिज्ञों में हैं जो गांव-गलियों में जाता रहा है, जिसने वोट पाने के लिए जमीन नापी है; अौर तब उसके मन में यह सवाल अाया है कि यह चुनावी खेल तो ठीक है, सत्ता अौर सरकार भी ठीक है लेकिन ये सभी जिस अाधार पर खड़े होने हैं वह अाधार कहां है ? 

       राहुल के भाषण के बाद भाजपा की तरफ से जो प्रतिक्रिया अाई है वह तो अत्यंत दरिद्र राजनीतिक समझ का परिचय देती है जो विपक्ष का एक ही मतलब समझती है कि अपनों की छोड़ कर, सबकी खिल्ली उड़ाअो ! हमारी राजनीति अाज जिस स्तर पर जी रही है उसमें हम यह भूल ही गये हैं कि कई बार ऐसा भी होता है कि अाप गंभीर राजनीतिक प्रक्रिया के संदर्भ में  िवमर्श करते हैं अौर तब अापको ज्यादा गहराई में उतर कर सोचना-समझना-बोलना चाहिए.  

            लेकिन कारपोरेट जगत की प्रतिक्रिया एक ही बात बताती है कि वह ऐसे राहुल की तलाश में है जो उसे उसकी समस्याअों से निकलने की जादुई कुंजी थमा दे. वह यह मानने व समझने को तैयार नहीं है कि राजनीतिक प्रणाली की जिस जड़ता का जिक्र राहुल गांधी ने किया है, उद्योग जगत की अधिकांश मुसीबतें उसी का नतीजा हैं. शेयर बाजार का सूचकांक यदि उन्हें अपने स्वास्थय का सूचक लगता है तो उन्हें इसकी चिंता करनी ही होगी कि इस बाजार का अाधार कैसे बड़ा हो अौर यह देशी पूंजी के दम पर कैसे चले ! जिस ग्रोथरेट की बात प्रधानमंत्री इस तरह करते हैं मानो वह किसी दूसरे ग्रह से अाने वाला है, उसकी हकीकत तो यह है कि हमारे उत्पादन की अाधार-भूमि जब तक अाज से काफी बड़ी नहीं होगी, उसमें लगने वाली अधिकांश पूंजी हमारे अपने संसाधनों से जुटाई नहीं जाएगी अौर हमारा बाजार हमारे अधिकांश उत्पाद का उपभोक्ता नहीं होगा तब तक हमारी वृद्धि-दर पीपल के पत्तों की तरह हिलती-डोलती रहेगी अौर हमेशा विदेशी निवेश की मोहताज बनी रहेगी. मनमोहन सिंह जैसा सिद्ध अर्थशास्त्री भी लाख सर मार ले, इसे बदल नहीं सकता है; हम देख ही रहे हैं कि अाधुनिक अर्थशास्त्रियों की हमारी पूरी टोली का दम फूल रहा है लेकिन यह महंगाई, यह मंदी, अौद्योगिक व खेतिहर उत्पादन की गिरावट, बेरोजगारी किसी पर भी हम काबू नहीं कर पा रहे हैं.  इस बदहाली का ही नतीजा है कि हमारा समाज अपराध अौर अंधाधुंधी की चपेट में अा गया है. कारपोरेट जगत को यह समझने की जरूरत है कि वे भले हवामहल में रहते हों, उनके उद्योग-धंधों की जड़ें इसी धरती में धंसी हैं अौर उस स्तर पर जो भयंकर खाई बनी हुई है, जिसे राहुल बार-बार िडसकनेक्ट कह रहे थे, वह सबको डुबा रही है. इसलिए हमारे सारे प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं अौर उनके जवाब भी समग्रता में ही मिलेंगे. 

         राहुल गांधी जो कुछ कह रहे थे, उसे वे पूरी तरह समझ भी रहे थे, यह कहना कठिन है. लेकिन इतना तो साफ है कि एक धुंधली-सी समझ उनकी बनी है. इसे बहुत मांजने की जरूरत है अौर इस प्रक्रिया में भारतीय समाज के हर तबके को शामिल करने की जरूरत है. राहुल गांधी ने ठीक ही कारपोरेट जगत को साथ ले कर चलने की बात कही. हमारा कारपोरेट जगत यथार्थ की धरती पर उतर कर, मजदूरों के साथ, ग्रामीण उद्यमियों के साथ, मनरेगा में काम करने वालों के साथ, विकास के नाम पर जिनकी जमीन का अधिग्रहण हुअा है उनके साथ बैठगा तो कई नये रास्ते खुलेंगे. कभी जयप्रकाश नारायण ने एक किताब लिखी थी - भारतीय समाज-रचना का पुनर्निर्माण - रिकंस्ट्रक्शन अॉफ इंडियन पॉलिटी ! राहुल गांधी को वहां तक जाना होगा. 

          हो सकता है राहुल गांधी कल को भारत के प्रधानमंत्री बन जाएं अौर यह भी हो सकता है कि वे इन सारी बातों को भूल जाएं अौर एक दिशाहीन राजनेता की तरह देश चलाने में जुट जाएं. जब वे ऐसा करेंगे तब भी देश नहीं चला सकेंगे.  नये तरह से बनाये बिना अब यह देश नहीं चलाया जा सकेगा ! राहुल गांधी ने यह बात अपनी तोतली अावाज में कही है. लेकिन सच तोतली अावाज में बोला जाए तो सच नहीं होता है, यह किसने कहा ? सच तो यह है कि सच तोतली अावाज वाले ही बोलते हैं. ( 05.04.2013)

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