Saturday 21 October 2017

एक अौर गौरी

नाम की बात करूं तो दोनों के नाम ‘ग’ से शुरू होते थे, अौर ‘ग’ से ही हमारे यहां ‘गणपति’ का नाम शुरू होता है. गणपति कहूं तो हमारी परंपरा के प्रथम स्टेनोग्राफर यानी कलमधारी भगवान ! कथा है कि वेद व्यास महाभारत की कथा कहते चले गए अौर गणपति उसे लिपिबद्ध करते गये. तो ये तीनों कलम की परंपरा के लोग थे - गणपति, गौरी अौर गालिजिया ! 

अपनी गालिजिया को अभी-अभी माल्टा के लोगों ने बम से उड़ा दिया - ठीक वैसे ही जैसे हमने अपनी गौरी लंकेश को गोलियों से भुन दिया था ! अाप समझ सकते हैं कि जिस कलम को खरीदना अौर बेचना इतना अासान है कि बस एक अात्मा का सौदा करके, इस सौदे को निबटाया जा सकता है, उसी एक कलम को चुप कराना इतना कठिन हो जाता है कि अापको बम-बंदूक तक पहुंचना पड़ता है ! गालिजिया माल्टा की एक खोजी पत्रकार थी जिसने उन सबका जीना मुहाल कर रखा था जिन्होंने राजनीतिक सत्ता को धन कमाने की मशीन में बदल रखा है. दुनिया के तमाम सत्ताधारी यही एक काम समान कुशलता से, लगातार करते रहते हैं - तब तक, जब तक किसी गौरी या गालिजिया की कलम की जद में नहीं अा जाते. माल्टा के राजनीतिज्ञ इसके अपवाद नहीं हैं. इसलिए गालिजिया का ‘रनिंग कॉमेंट्री’ नाम का ब्लौग सबकी जान सांसत में डाले हुए था. धुअांधार लिखा जाने वाला अौर धुअांधार पढ़ा जाने वाला यह ब्लौग माल्टा की राजनीति में जलजला रच रहा था. 

पनामा पेपर भंडाफोड़ के बाद से राजनीतिज्ञों के अार्थिक भ्रष्टाचार का जैसा स्वरूप उजागर हुअा है, वह सबको हैरानी में डाल गया है. उसकी धमक अब अपने देश तक भी पहुंच रही है. कागजी कंपनियां बना कर, उन देशों में, जिन्हें ‘टैक्स हैवन’ कहा जाता है, खरीद-फरोख्त का फर्जी कारोबार चलता है अौर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किए जाते हैं. अाज की हमारी सरकार विदेशों में जमा जिस अकूत काले धन के खिलाफ जबानी जंग छेड़े रहती है, वह इसी रास्ते सफर करता है. यह बात दूसरी है कि नोटबंदी के शेखचिल्लीपने के बाद इस बात की अौर इस दावे की हवा निकल गई है लेकिन यह सच किसी से छुपा नहीं है कि धंधा बदस्तूर जारी है. 

५३ साल की डाफ्ने कारुअाना गालिजिया ने इस धंधे से अपने देश के शासकों का सीधा रिश्ता खोज निकाला अौर देश को बताया कि प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कत की पत्नी एक कागजी कंपनी बना कर, अजरबेजान के शासक परिवार से मिल कर बेहिसाब पैसा बना रही हैं जो बाहरी बैंकों में जमा किया जा रहा है. इस भंडाफोड़ ने माल्टा की राजनीति में भूचाल ला दिया अौर लाचार हो कर प्रधानमंत्री मस्कत को नये चुनाव की घोषणा करनी पड़ी. वे जैसे-तैसे चुनाव तो जीत गये लेकिन न वह ताकत बची अौर न वह चेहरा ! चुनावी जीत अौर नैतिक हार में कितना कम फासला होता है, यह हमने अपने देश में बारहा देखा है. यही माल्टा में हुअा. प्रधानमंत्री मस्कत चुनाव तो जीत गये लेकिन लड़ाई हार गए अौर गलिजिया रोज-रोज अपने ब्लौग पर नये-नये खुलासे करने लगी. 

गलिजिया की रट यही थी कि हमारे छोटे-से द्वीप-देश का सारा राजनीतिक-सामाजिक जीवन भ्रष्टाचार से बजबजा रहा है. हमारा व्यापार-तंत्र धन की हेरा-फेरी अौर घूस खाने-खिलाने में लिप्त है अौर अपराधियों से सांठ-गांठ कर चल रहा न्यायतंत्र या तो नाकारा हो गया है या चाहता ही नहीं है कि अपराधियों तक कोई पहुंचे. माल्टा को अपराधियों ने अपना गढ़ बना लिया है अौर हमारा छोटा-सा द्वीप-देश माफिया-प्रदेश में बदल दिया गया है. वह बार-बार याद दिलाती थी कि पिछले १० सालों में माल्टा में माफिया ने १५ हत्याएं की हैं जिनमें कार को बम से उड़ा देने के मामले भी हैं. कभी कोई पकड़ा नहीं गया है, तो पकड़ने वाले कहां हैं ? कि पकड़ने वाले ही अपराधियों के साथ हैं ? जब वह ऐसे सवाल पूछ रही थी तब उसे कहां पता था कि उसकी कार में लगाया गया बम फटने पर ही है. 

अपने अंतिम ब्लौग में उसने प्रधानमंत्री के मुख्य अधिकारी के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की बात प्रमाण के साथ लिखी थी. उसने कुछ कागजातों का भी जिक्र किया था. यह सब लिख कर उसने  अपना वह अंतिम ब्लौग बंद किया था - उसके कार में रखा बम इसके अाधे घंटे के बाद फटा था अौर कार समेत गालिजिया की धज्जियां उड़ गई थीं. अपने अंतिम ब्लौग का अंत करते हुए उसने लिखा था “ : जिधर देखिए उधर शैतानों के झुंड हैं ! स्थिति बहुत नाजुक है !!” 

अब शैतानों का झुंड खामोश है. वह राजतंत्र, वह व्यापार-तंत्र अौर वह न्यायतंत्र, जिसकी बात गालिजिया ने की थी, अभी खामोश है. अाप याद करें कि गौरी की हत्या के बाद भी सारा तंत्र इसी तरह खामोश था अौर अगर कहीं कोई अावाज थी तो यही बताने के लिए थी कि ‘ हमने नहीं किया, हमसे कोई नाता नहीं !’ गालिजिया के साथ भी ऐसा ही  हुअा. प्रधानमंत्री मस्कत ने कहा: “ इस हत्या से मैं स्तब्ध हूं ! सभी जानते हैं कि करुअाना गालिजिया मेरी सबसे कटु राजनीतिक व निजी अालोचक थी जैसी वह दूसरों के लिए भी थी. फिर भी मैं कभी भी, किसी भी तरह इस बात की अाड़ ले कर उस बर्बर कृत्य का समर्थन नहीं करूंगा जो किसी भी तरह की सभ्यता व प्रतिष्ठा के खिलाफ जाता है.” 

लेकिन जिस सच को कहने की हिम्मत प्रधानमंत्री नहीं जुटा सके, वह कहा गालिजिया के बेटे मैथ्यूज ने : “ मेरी मां की हत्या कर दी गई क्योंकि वह कानून के शासन व उसका उल्लंघन करने वालों के बीच खड़ी थी… अौर वे ऐसा कर सके क्योंकि वह इस लड़ाई में अकेली थी.” 

तो अपना समाज बचाने अौर बनाने के लिए एक नहीं, कई गालिजिया की जरूरत है जिसके हाथ में कलम हो. 
( 19.10.2017) 

           

Sunday 15 October 2017

अांबेडकर डर-डर कर चलता सफर

  


यह हिसाब कोई लगाता नहीं है लेकिन किसी-न-किसी को लगाना चाहिए कि भारतीय समाज में बाबसाहेब अांबेडकर ने अपनी दलित पहचान को हथियार बना कर जो राजनीतिक सफर शुरू किया था, वह इतने वर्षों कहां पहुंचा है अौर अब अाज इसकी संभावनाएं कितनी बची हैं अौर कितनी सिद्ध हुई लगती हैं ! यह जानना या इसका अाकलन करना जरूरी इसलिए नहीं है कि इससे बाबासाहेब की महत्ता में कोई फर्क पड़ेगा याकि इसके अाधार पर हम उन्हें विफल करार दे सकते हैं. सवाल उनकी महत्ता या विफलता का नहीं है बल्कि समाज के हर उस अादमी की सार्थकता का है जो सामाजिक न्याय व समता के दर्शन में किसी भी स्तर पर भरोसा करता है. एक स्तर पर यह इसका भी अाकलन हो सकता है कि दलित नेतृत्व के नाम पर अाजादी के बाद जो राजनीति चली अौर जिसने बाबासाहेब को अाक्रामक प्रतीक बना कर सबको धमकाने-डराने का काम किया, वह सारत: क्या साबित हुई अौर उसमें अब कितनी अौर कैसी संभावना बची है.

अांबेडकर को हिंदू समाज ने जैसा जीवन दिया, अांबेडकर ने उसे वैसा ही प्रत्युत्तर दिया अौर वही उसे वापस लौटाया ! उनके मन व चिंतन में हम गहरी प्रतिक्रिया अौर तीखा विक्षोभ देखते हैं, वह वहां से अाया है. हम उसे अस्वीकार या स्वीकार कर सकते हैं लेकिन इन दोनों से ज्यादा बड़ी बात यह है कि हम उसे समझ सकते हैं. जिसे हम समझ सकते हैं वह प्रतिभाव बहुत ठोस होता है. अांबेडकर के संदर्भ में वह इतना स्वाभाविक अौर स्वाभिमान से भरा है कि उसकी तरफ से अांख फिराना अांख का अपमान होगा. इसलिए अांबेडकर के वक्त में किसी के लिए भी उनसे अांख चुराना संभव नहीं हुअा था, अांख मिलाने की स्थिति भी बिरलों की ही थी. अांख मिलाने वालों में गांधी सबसे अव्वल थे.

गांधी अौर अांबेडकर दोनों का बोधिवृक्ष एक ही था - जातीय अपमान व घृणा ! गांधी बोध को तब उपलब्ध हुए जब वे दक्षिण अफ्रीका के मारित्सब्बर्ग स्टेशन पर, एक सर्द रात में रेल के डिब्बे से सामानसहित निकाल फेंके गए थे. अांबेडकर जन्म से ही ऐसे दारुण अनुभवों से गुजरते हुए बोध को तब उपलब्ध हुए जब बडोदरा के उस पारसी होस्टल से उन्हें सामानसहित निकाल फेंका गया जिसमें बडोदरा महाराजा के निर्देश पर, उनके एक विशिष्ट मंत्री की हैसियत से उन्हें रखा गया था. गांधी दक्षिण अफ्रीका के उस स्टेशन से उठे तो कटुता व विक्षोभ के तमाम बंधनों को काटते हुए एक नई दुनिया के सर्जन में प्राणपण से जुट गये - एक ऐसी दुनिया, जो मूल्यों के लिहाज से भी अौर व्यवहार के लिहाज से भी अाज की दुनिया से एकदम भिन्न होगी. अांबेडकर बडोदरा के होस्टल से उठे तो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर इतनी प्रखरता से भासमान हुए कि लोगों की नजरें चौंधिया गईँ. अचानक ही तब के अछूत समाज को अपनी खोई हुई अावाज अौर अपना खोया हुअा व्यक्तित्व मिला अौर वह बोलता-चलता अौर हर विमर्श में अपनी जगह बनाता दिखाई देने लगा.

 लेकिन एक बड़ा फर्क भी हुअा - गांधी जब अपनी नई दुनिया का नक्शा बनाते अौर उसके कील-कांटे गाड़ते-ठोकते थे तो वह बुनियादी परिवर्तन के लिए ही होता था. उन्हें अपनी नई दुनिया अपने लिए नहीं बनानी थी, सारे इंसानों के लिए बनानी थी अौर इसलिए उन्हें ढांचे व मन दोनों स्तरों पर लगातार काम करना था. अांबेडकर के लिए सारे इंसानों का मतलब अपने अछूत समाज से शुरू होता था अौर अाज के समाज में जहां उसकी जगह बनती थी, वहां समाप्त हो जाता था. राजनीति का मतलब ही यही होता है - जो अाज है उसमें अपनी जगह बनाना; जो प्राप्त है उसमें से अपना हिस्सा लेना ! गांधी का रास्ता अलग जाता था क्योंकि वह अलग संसार बनाने में लगा था. यह फर्क था, है अौर जब तक हम इसे बुनियादी तौर पर समझ नहीं लेंगे तब तक बना रहेगा. इसलिए गांधी को यहीं छोड़ कर हम अागे चलते हैं. 

भारतीय समाज में अपने अछूत समाज के लिए जगह बनाने के अपने धर्मयुद्ध में अांबेडकर कहां पहुंचे अौर उनका समाज कहां पहुंचा, इसका अाकलन अाज करना शायद संभव भी है अौर जरूरी भी क्योंकि उनके नाम पर चलाई गई पूरी दलित राजनीति अाज अौंधै मुंह गिरी अौर बिखरी पड़ी है. तब वाइसरॉय की कौंसिल में जगह पाने अौर बाद में लोकसभा में जगह बनाने की अपनी कोशिशों के कारण अांबेडकर की वही विरासत बनी, वही उनके समाज ने पहचानी अौर वही संभाली भी. अपने अाखिरी दिनों में अांबेडकर खुद भी इस कटु सत्य को पहचान सके थे अौर क्षुब्ध-लाचार इसे देखते रहे थे. उनका यह अवसान भी करीब-करीब गांधी की तरह ही था. अाखिरी दिनों में अांबेडकर के सेवक रतिलाल रत्तू ने इसका मार्मिक विवरण लिखा है. 

भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाने की अांबेडकर की वह कोशिश बहुत रंग नहीं ला सकी क्योंकि ताउम्र अांबेडकर कभी भी पूरे दलित समाज के सर्वमान्य नेता नहीं बन सके. प्रचलित राजनीति में इस सर्वमान्यता से प्राप्त संख्याबल का ही निर्णायक महत्व होता है. इसी गणित से हिंदू समाज की सिरमौर जाति ब्राह्मण समाज से अाने के बाद भी जवाहरलाल नेहरू को चलना पड़ा, स्त्री-जाति से अाई इंदिरा गांधी को चलना पड़ा, यही गणित था जिसकी चूल बिठाने में कांशीराम की सारी उम्र गई अौर यही समीकरण है कि जिसने मायावती से ले कर तमाम दलित नेताअों को हलकान कर रखा है अौर अाज सभी अपने-अपने पिटे मोहरे संभालने में लगे हैं. सवाल है कि क्या सत्ता का समीकरण बिठा लेने से समाज का समीकरण भी बनता अौर बदलता है ? अौर शायद यह भी कि क्या समाज का समीकरण न बदले तो सत्ता का बदला हुअा समीकरण टिकाऊ होता है ? जवाब हम अांबेडकर के नाम पर चलने वाली राजनीति में खोजें तो पाएंगे कि समाज के सामान्य विकास का जितना परिणाम दलित समाज पर हुअा है, उसके अलग या अधिक राजनीति ने उसे कुछ भी नहीं दिया है. 

दलित राजनीति के नाम पर कई नेता बने भी हैं अौर स्थापित भी हो गए हैं लेकिन उनका दलित समाज से वैसा अौर उतना ही नाता है जितना किसी भी सवर्ण नेता का उसके अपने समाज से है. अगर हम ऐसा कहें कि तमाम दलित नेता सवर्ण राजनीतिक नेताअों की अच्छी या बुरी प्रतिच्छाया बन कर रह गये हैं, तो गलत होगा क्या ? सत्ता तक पहुंचने के तमाम समीकरणों का अनिवार्य परिणाम यह हुअा है कि दलित राजनीति जोड़-तोड़ का, राजनीतिक सौदा पटाने का अखाड़ा बन गई है अौर धीरे-धीरे वह पूरी तरह बिखर गई है. दलित समाज अौर दलित राजनीति के बीच भी उतनी बड़ी व गहरी खाई खुद गई है जितनी सवर्ण राजनीति व सवर्ण समाज के बीच है. जिस भूत से लड़ने का अांबेडकर का संकल्प था वही भूत  दलित राजनीति को कहीं गहरे दबोच चुका है. तब अांबेडकर की इस सोच की मर्यादा समझ में अाती है कि जैसे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है यह भ्रामक है वैसे ही समाज परिवर्तन सत्ता की ताकत से होता है, यह भी भ्रामक है. 

सत्ता पाने की अाराधना अौर समाज बदलने की साधना दो भिन्न कर्म हैं जो भिन्न मन व संकल्प से करने होते हैं. समाज बदलेगा तो एक नई राजनीति बनेगी ही लेकिन इसी राजनीति के बंदरबांट से कोई नया समाज बनेगा यह वह अात्मवंचना है जिसे पहचानने में अांबेडकर विफल हुए थे अौर दलित राजनीति जिससे लहूलुहान पड़ी है. यहां से अागे का कोई रास्ता तभी बनेगा जब गांधी-अाबेडकर का नया समीकरण हम तैयार कर सकेंगे. अाज भारतीय समाज इसी मोड़ पर खड़ा किसी नये अांबेडकर की प्रतीक्षा कर रहा है. ( 14.10.2017 ) 

Sunday 1 October 2017

गांधी का झाडू


सफाई की बात इन दिनों इतनी जोर-जोर से देश में चल रही है कि साफ-साफ शक हो रहा है कि सफाई के नाम पर कहीं हमें तो साफ मूर्ख नहीं बनाया जा रहा है ! इस सरकार को या अौर भी साफ कहूं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का श्रेय देना ही होगा कि स्वच्छता को उन्होंने एक मुद्दा बना दिया ! प्रधानमंत्री झाडू ले कर निकले तो सत्ताभीरू हमारा उच्च वर्ग भी झाडू ले कर खड़ा हो गया. सारे मंत्रियों को भी लगा कि उद्घाटन करते हुए फोटो खिंचाने की ही तरह ही, झाडू ले कर फोटो खिंचवाना भी मंत्रालय का एक काम है; अौर उद्घाटन कर के भूल जाना जैसे सत्ताधर्म है वैसे ही फोटो खिंचवा कर झाडू फेंक देना भी सत्ता-चरित्र है. लेकिन परेशानी यह पैदा हो गई कि प्रधानमंत्री ने इस खेल का झाडू महात्मा गांधी से ले लिया; इधर उन्होंने लिया अौर उधर महात्मा गांधी ने अपना झाडू चलाना शुरू कर दिया!
प्रधानमंत्री ने यह काम तो बड़ा किया कि देश की सफाई को राजनीति का सवाल बना दिया ! हमारा देश सच में इतनी गंदगी समेट कर जीता है कि दम घुट जाए ! वी.एस. नायपॉल ने तो लिखा ही दिया न भारत एक विस्तीर्ण खुला शौचस्थल है ! अौर हम रोज-ब-रोज उन खबरों द्वारा नायपॉल को सही साबित करते चलते हैं जो बताती हैं कि मेनहोल की सफाई में करने उसमें उतरे इतने मजदूरों ने जहरीली गैस की चपेट में अा कर दम तोड़ दिया. अभी जब मैं यह सब लिख रहा हूं, खबर बता रही है कि राजधानी दिल्ली के सबसे निकट की बस्ती गुड़गांव में मेनहोल की सफाई के लिए उसमें उतरे ३ सफाईकर्मचारियों ने जहरीली गैस से अवश हो कर दम तोड़ दिया अौर चौथा अस्पताल में अत्यंत नाजुक हालत में है. यही अखबार बता रहा है कि देश की अौद्योगिक राजधानी मुंबई के एलफिंस्टन रोड स्टेशन के गंदे-टूटे-संकरे १५० साल पुराने पुल पर मचाई गई भगदड़ में २३ लोग कुचल कर मरे हैं अौर घायल सभी अस्पतालों में हैं. अौर यही अखबार यह भी बता रहा है कि देश में यहां-वहां उस दिन बलात्कार की कितनी ही घटनाएं हुई हैँ. सड़कों पर बिखरी दृश्य गंदगी अौर हमारी व्यवस्थाजन्य गंदगी अौर हमारे मन-प्राणों में बसी गंदगी को साथ जोड़ लें तो खुद से ही घिन अाने लगेगी; अौर तब हम यह समझ सकेंगे कि महात्मा गांधी ने देवालय अौर शौचालय की सफाई को देवत्व से क्यों जोड़ा था. दरअसल में गांधी के देवता किसी देवालय में ( उसका नाम मंदिर-मस्जिद-चर्च-नामघर-अातशबहेराम-गुरुद्वारा जैसा कुछ भी हो ! ) बसते ही नहीं थे. कहीं देखा है ऐसा फोटो कि किसी देवालय में बैठकर गांधी पूजा-अर्चना कर रहे हों कि ध़्यान लगा रहे हैं कि शस्त्र-पूजा कर रहे हैं ? गांधी के देवता उनके भीतर बसते थे अौर वे स्वंय हर इंसान के भीतर बसे देवता के अाराधक थे. जब मन मंदिर हो तब वह मन जिस तन में रहता है, उसे कितना पवित्र रखने की जरूरत है, यह जीएसटी की जटिलता की तुलना में, कहीं अासानी से समझा जा सकता है. 

गांधी का नाम बार-बार ले कर, अपनी हर बात से उन्हें जोड़ कर प्रधानमंत्री खामख्वाह खुद के लिए भी अौर अपने सहयोगियों के लिए भी मुसीबत पैदा कर लेते हैं. गांधी का झाडू बहुत खतरनाक था, अौर अाज भी है. वे अपने पास अाने वाले हर व्यक्ति के हाथ में झाडू पकड़ा देते थे अौर उसे शौचालय का रास्ता दिखला देते थे - फिर वह किसी भी जाति-धर्म-संप्रदाय का हो; कि अवर्ण हो कि सवर्ण; कि जवाहरलाल नेहरू हों कि जमनालाल बजाज ! हां, ऐसी सफाई-सेना की अगली कतार में वे खुद खड़े रहते थे. अपने जीवन के जिस पहले कांग्रेस अधिवेशन में वे शामिल हुए वहां सबसे पहले उनकी नजर गई नेताअों की लकदक के पीछे छिपी गंदगी पर ! लिखा है उन्होंने कि अधिवेशन-स्थल पर लोगों के लिए जो शौचालय बनाए गये थे उनकी हालत ऐसी थी कि भीतर जाने के लिए पांव धरने की जगह नहीं थी. तो मोहनदास करमचंद गांधी ने व्यवस्थापकों के पास खुद जा कर सफाई कर्मचारी का काम मांगा अौर सफाई में जुट गए. फिर तो हालत ऐसी बनी कि लोग इंतजार करते रहते थे कि दक्षिण अफ्रीका से अाया यह नीम-पागल कब शौचालय से निकले कि हम जाएं !! गांधी जाने से पहले अौर निकले से पहले सारी अौर पूरी सफाई करते थे. अौर जब गांधी कांग्रेस के भीतर पहुंचे तो यह सफाई यहां तक पहुंची कि कांग्रेस की भाषा भी साफ हुई, कपड़े भी साफ हुए, कांग्रेसी होने का मतलब भी साफ हुअा ! 

सफाई कर्मकांड नहीं है; राजनीतिक चालबाजी का हथियार नहीं है; दूसरों को दिखाने अौर फोटो खिंचवाने की बेईमानी नहीं है. सफाई मन:स्थिति है जो तन-मन-धन की सफाई के बगैर चैन पा ही नहीं सकती है. प्रधानमंत्री का छेड़ा स्वच्छता अभियान इसलिए असर पैदा नहीं कर पा रहा है कि यह २ अक्तूबर अौर ३० जनवरी को भय व अादेश से यहां-वहां चलता है लेकिन यह अाज तक पता नहीं चला है कि स्वच्छता-संकल्प के बाद से प्रधानमंत्री से ले कर सचिन तेडुलकर तक के घर से एक नौकर या एक चपरासी कम हुअा है या नहीं, क्योंकि प्रधानमंत्री अब अपनी केबिन खुद ही साफ कर लेते हैं अौर सचिन बांदरा की गलियां साफ करते हों कि न करते हों, अपना कमरा तो खुद ही बुहारते हैं. स्वच्छता की यह समझ गांधी वाली है. अाप वह चश्मा देखिए न जो प्रधानमंत्री के इस अभियान का प्रतीक-चिन्ह बनाया गया है - चश्मा गांधी का है. उस चश्मे की एक कांच पर ‘स्वच्छ’ लिखा है अौर दूसरी पर ‘भारत’. जिधर भारत है उधर ‘स्वच्छता’ नहीं है, जिधर ‘स्वच्छ’ है उधर ‘भारत’ नहीं है !  यह सच्चाई की स्वीकारोक्ति है तब तो कुछ कहना नहीं है अन्यथा यह पूछा व समझा ही जाना चाहिए कि इन दोनों के बीच इतनी दूरी क्यों है ? यह अास्था व रणनीति की दूरी है. 

शौचालयों के अंधाधुंध निर्माण की सच्चाई का अाकलन पिछले दिनों प्राय: हर चैनल पर दिखाया गया ! सारा शौचालय-अभियान अरबों रुपये के घोटाले में बदल गया है. तंत्र भ्रष्ट हो, लगातार भ्रष्ट बनाया जा रहा हो तो उसके द्वारा किया काम स्वच्छ कैसे हो सकता है ? गांधी का झाड़ू इसलिए ही इतना खतरनाक था कि बाजवक्त उससे सभी पिटे हैं. नमक सत्याग्रह शुरू करने से पहले तत्कालीन वाइसराय को लिखे पत्र में सीधा ही पूछा उन्होंने कि अापके अपने वेतन में अौर इस देश के अादमी की अौसत कमाई में कितने का फर्क है, इसका हिसाब लगाएं अाप ! अौर फिर हिसाब भी लगा कर समझाया कि ब्रिटेन का प्रधानमंत्री अपने देश को जितना लूटता है, उससे कई-कई गुना ज्यादा अाप हमें लूट रहे हैं ! गांधी का झाडू चलेगा तो अाज के तमाम जन-प्रतिनिधियों से पूछेगा ही न कि अाप भी यह हिसाब लगाएं अौर हमें बताएं कि करोड़ों की बढ़ती बेरोजगारी, सदा-सर्वदा असुरक्षा में जीती लड़कियां अौर राष्ट्रीय स्तर पर अात्महत्या करते किसानों-मजदूरों के इस देश में अपनी सेवा की कितनी कीमत वसूल रहे हैं अाप ? मन की, हेतु की अौर अाकांक्षाअों की सफाई होगी, वहां हमारा अात्मप्रेरित झाडू चलेगा अौर चलता रहेगा तब ही, अौर केवल तब ही देश के शहर-नगर-गांव-मुहल्ले भी साफ होने लगेंगे, साफ रहने लगेंगे. 

सफाई मन की  जरूरी है ! वहां गंदगी का साम्राज्य फैला हुअा है. ( 1.10. 2017)