Sunday 28 January 2018

गांधी का हिमालय

      
     कभी गहरी पीड़ा अौर तीखे मन से जयप्रकाश नारायण ने कहा था : दिल्ली एक नहीं कई अर्थों में बापू की समाधि-स्थली है !’ देखें कि यह समाधि कहां है अौर कैसे बनी है ? … एक तो यही कि गांधी की हत्या इसी दिल्ली में हुई थी. लेकिन कहानी उससे पहले से शुरू होती है. 

यही दिल्ली थी कि जहां प्रार्थना करते गांधी पर, 20 जनवरी 1948 को बम फेंका गया था. वह बम उनका काम तमाम नहीं कर सका. उसका निशाना चूक गया. उनकी हत्या की  यह पांचवीं कोशिश थी. गांधी इनसे अनजान नहीं थे. उन्हें पता था कि उनकी हत्या की कोशिशें चल रही हैं, कि उनके प्रति कई स्तरों पर गुस्सा-क्षोभ-शिकायत का भाव घनीभूत होता जा रहा है. लेकिन वह दौर था कि जब इतिहास की अांधी इतनी तेज चल रही थी कि हमारी नवजात अाजादी उसमें सूखे पत्तों-सी उड़ जाएगी, ऐसा खतरा सामने था. इसकी फिक्र में जवाहरलाल, सरदार अौर पूरी सरकार ही रतजगा कर रही थी. गांधी भी अपना सारा बल लगा कर इतिहास की दिशा मोड़ने में लगे थे अौर यहां भी वे सेनापति की अपनी चिर-परिचित भूमिका थे. 
    
  ऐसे में ही अाई थी 29 जनवरी 1948 ! नई दिल्ली का बिरला भवन ! … सब तरफ लोग-ही-लोग थे … थके-पिटे-लुटे अौर निराश्रित !! … इतने लोग यहां क्यों हैं ? क्या पाने अाए हैं ? क्या मिल रहा है यहां ?… ऐसे सवाल यहां बेमानी हैं. कोई किसी से ऐसा कोई सवाल पूछ नहीं रहा है ! बस, सभी इतना जानते हैं कि यहां कोई है जो खुद से ज्यादा उनकी फिक्र करता है ! … अाजाद भारत की पहली सरकार के सारे सरदार भी यहां इनकी ही तरह बैठे-भटकते-बातें करते मिल जाते हैं. वे यहां क्यों हैं ? उन्हें यहां से क्या मिलता है ? वे भी ऐसा सवाल नहीं करते हैं. वे भी यहां इसी भाव से अाते हैं कि यहां कोई है जिसे उनसे ज्यादा उनकी फिक्र है. ईमान की शांति से पूरा परिसर भरा है… 

अौर जो यहां है वह ? …  80 साल का बूढ़ा … जिसका क्लांत शरीर अभी उपवास के उस धक्के से संभला भी नहीं है जो लगातार 6 दिनों तक चल कर, अभी-अभी 18 जनवरी को समाप्त हुअा है… 20 जनवरी को उस पर बम फेंका जा चुका है… तन की फिक्र फिर भी हो रही है लेकिन ज्यादा गहरा घाव तो मन पर लगा है. वह तार-तार हो चुका है…अपना तार-तार मन लिए वह अपने राम की प्रार्थना-सभा में बैठा, वह सब कुछ जोड़ना-बुनना-सीना चाहता है जो टूट गया है, उधड़ गया है, फट गया है. यह प्रार्थना-सभा उसके जीवन की अंतिम प्रार्थना अौर अंतिम सभा बनने जा रही है, यह कौन जानता था ? 

अौर फिर उसकी थकी लेकिन मजबूत; क्षीण लेकिन स्थिर अावाज उभरी : “ कहने के लिए चीजें तो काफी पड़ी हैं, मगर अाज के लिए 6 चुनी हैं. 15 मिनट में जितना कह सकूंगा, कहूंगा. देखता हूं, मुझे अाने में थोड़ी देर हो गई है, वह नहीं होनी चाहिए थी… एक अादमी थे. मैं नहीं जानता कि वे शरणार्थी थे या अन्य कोई, अौर न मैंने उनसे पूछा ही. उन्होंने कहा : ‘ तुमने बहुत खराबी कर दी है. क्या अौर करते ही जाअोगे? इससे बेहतर है कि जाअो. बड़े महात्मा हो तो क्या हुअा ! हमारा काम तो बिगड़ता ही है. तुम हमें छोड़ दो, हमें भूल जाअो, भागो !’ मैंने पूछा : ‘ कहां जाऊं?’ तो उन्होंने कहा;’ हिमालय जाअो !’ … मैंने हंसते हुए कहा:’ क्या मैं अापके कहने से चला जाऊं ? किसकी बात सुनूं ? कोई कहता है, यहीं रहो, तो कोई कहता है, जाअो ! कोई डांटता है, गाली देता है, तो कोई तारीफ करता है. तब मैं क्या करूं ? इसलिए ईश्वर जो हुक्म करता है, वही मैं करता हूं. अाप कह सकते हैं कि हम ईश्वर को नहीं मानते, तो कम-से-कम इतना तो करें कि मुझे अपने दिल के अनुसार करने दें… दुखियों का वली परमेश्वर है लेकिन दुखी खुद परमात्मा तो नहीं है… किसी के कहने से मैं खिदमतगार नहीं बना हूं. ईश्वर की इच्छा से मैं जो बना हूं, बना हूं. उसे जो करना है, करेगा… मैं समझता हूं कि मैं ईश्वर की बात मानता हूं. मैं हिमालय क्यों नहीं जाता ? वहां रहना तो मुझे पसंद पड़ेगा. ऐसी बात नहीं कि वहां मुझे खाना-पीना, अोढ़ना नहीं मिलेगा. वहां जा कर शांति मिलेगी. लेकिन मैं अशांति में से शांति चाहता हूं. नहीं तो उसी अशांति में मर जाना चाहता हूं. मेरा हिमालय यहीं है.” 

अगले दिन हमने उनकी हत्या कर दी ! हमने अपने गांधी से छुटकारा पा लिया. उसके बाद शुरू हुई अाजाद भारत की एक ऐसी यात्रा जिसमें कदम-कदम पर उनकी हत्या की जाती रही. यह उन लोगों ने किया जो गांधी के दाएं-बाएं हुअा करते थे. कम नहीं था उनका मान-स्नेह गांधी के प्रति अौर न कम था उनका राष्ट्र-प्रेम ! लेकिन गांधी का रास्ता इतना नया था कि उसे समझने अौर उस पर चलने की समझ अौर साहस कम पड़ती गई अौर फिर एकदम चूक ही गई! इसलिए केंद्रित पंचवर्षीय योजनाअों का सिलसिला शुरू हुअा. गांधी ग्रामाधारित विकेंद्रित योजना, स्थानीय साधन व देशी मेधा से क्रियान्वयन की वकालत करते हुए गये. सरकार ने उसकी तरफ पीठ कर दी. गांधी ने कहा था कि सरकार क्या करती है, इससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह कैसे रहती है अौर कैसे काम करती है. इसलिए गांधी ने कहा कि वाइसरॉय भवन को सार्वजनिक अस्पताल में बदल दो अौर देश के राष्ट्रपति को मय उसकी सरकार के छोटे घरों में रहने भेजो. सारा मंत्रिमंडल एक साथ होस्टलनुमा व्यवस्था में रहे ताकि सरकारी खर्च कम हो अौर मंत्रियों की अापसी मुलाकात रोज-रोज होती रहे, वे अापस में सलाह-मश्विरा करते रह सकें. लेकिन सरकार ने किया यह कि वाइसरॉय भवन का नाम बदल कर राष्ट्रपति भवन रख दिया अौर प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री बड़े-बड़े बंगलों में रहने चले गये. सरकार ने कहा : देश की छवि का सवाल है ! उस दिन से सरकारी खर्च जो बेलगाम हुअा सो अाज तक बेलगाम दौड़ा ही जा रहा है. विनोबा ने गांधी की याद दिलाई कि उद्धार में उधार रखने की बात न करे सरकार,  लेकिन सरकार ने ‘चाहिएवाद’ का रास्ता पकड़ा. जिसे करना था वह चाहने लगा, जिसे चाहना था वह गूंगा हो गया. एक-दूसरे पर जवाबदेही फेंकने का फुटबॉल ऐसा शुरू हुअा कि असली खेल धरा ही रह गया. सामाजिक समता अौर अार्थिक समानता की गांधी की कसौटी थी- समाज का अंतिम अादमी ! उन्होंने सिखाया था; जो अंतिम है वही हमारी प्राथमिकताअों में प्रथम होगा. हमने रास्ता उल्टा पकड़ा : संपन्नता ऊपर बढ़ेगी तो नीचे तक रिसती-रिसती पहुंचेगी. बस, ऊपर संपन्नता का अथाह सागर लहराने लगा अौर व्यवस्था ने नीचे रिसने के सारे रास्ते बंद कर दिए. गांधी का अंतिम अादमी न तो योजना के केंद्र में रहा अौर न योजना का कसौटी बन सका. गरीबी की रेखाएं भी अमीर लोग ही तै करने लगे. गांधी ने कहा कि शिक्षा सबके लिए हो, समान हो अौर उत्पादक हो. सरकार ने तै किया कि सभी अपनी अार्थिक हैसियत के मुताबिक शिक्षा खरीद सकते हैं अौर सबसे अच्छी शिक्षा वह जो सामाजिक जरूरतों से सबसे कटी रहे. भारतीय समाज का सबसे बड़ा अौर सबसे समर्थ वर्ग उसी दिन से दूसरों के कंधों पर बैठ कर, पूर्ण गैर-जिम्मेवारी से जीने का अादी बन गया. हमारी शिक्षा करोड़ों-करोड़ युवाअों को न वैभव दे पा रही है, न भैरव ! दुनिया का सबसे युवा देश ही दुनिया का सबसे बूढ़ा देश भी बन गया है. 

गांधी के विद्रूप का यह सिलसिला अंतहीन चला. वह सब कुछ अाधुनिक अौर वैज्ञानिक हो गया जो गांधी से दूर व गांधी के विरुद्ध जाता था. 2 अक्तूबर अौर 30 जनवरी से अागे या अधिक का गांधी किसी को नहीं चाहिए था. यह मोहावस्था जब तक टूटी, बहुत पानी बह चुका था. वृद्ध-बीमार जवाहरलाल ने अपने अंतिम दिनों में लोकसभा में कबूल किया कि हमने सबसे बड़ी भूल तभी की जब गांधी का रास्ता छोड़ा… अौर अाज ? अाज तो हमने गांधी की अांख छोड़ दी है अौर उनका चश्मा भर कागज पर रख लिया है. गंदे मन से लगाया स्वच्छता का नारा सफाई नहीं, गंदगी फैला रहा है. अब नारा ‘मेक इंडिया’ का नहीं, ‘मेक इन इंडिया’ का है; अब बात ‘स्टैंडअप इंडिया’ की नहीं, ‘स्टार्टअप इंडिया’ की होती है. अब अादमी को नहीं, ‘एप’ को तैयार करने में सारी प्रतिभा लगी है. ‘नया गांव’ बनाने की बात अब कोई नहीं करता, सारी ताकतें मिल कर गांवों को खोखला बनाने में लगी हैं, क्योंकि बनाना तो ‘स्मार्ट सिटी’ है. देशी व छोटी पूंजी अब पिछड़ी बात बन गई है, विदेशी व बड़ी पूंजी की खोज में देश भटक रहा है. खेती की कमर टूटी जा रही है, उद्योगों का उत्पादन गिर रहा है, छोटे अौर मझोले कारोबारी मैदान से निकाले जा रहे हैं अौर तमाम अार्थिक अवसर, संसाधन मुट्ठी भर लोगों को पहुंचाए जा रहे हैं.  देश की 73% पूंजी मात्र 1% लोगों के हाथों में सिमट अाई है. सामाजिक समरसता नहीं, सामाजिक वर्चस्व अाज की भाषा है. अब चौक-चौराहों पर कम, राजनीतिक हलकों में ज्यादा असभ्यता-अश्वलीलता-अशालीनता की जाती है. लोकतंत्र के चारो खंभों का हाल यह है कि वे एक-दूसरे को संभालने की जगह, एक-दूसरे से टकराते-टूटते नजर अाते हैं. सारा देश जैसे सन्निपात में पड़ा है. 


गांधी अपना हिमालय छोड़ कर न तब गए थे अौर न अब गये हैं. वे साधनारत हैं क्योंकि देश को लौटना तो हिमालय की तरफ ही है.  ( 28.01.2018) 

Tuesday 23 January 2018

दावोस का सच



ऐसा कभी-कभार ही होता है कि सच खुद सामने अा कर झूठ का पर्दाफाश कर देता है ! ऐसा ही हुअा था जब तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक अोबामा अपने पद से विदा हो रहे थे. उन्होंने जाते-जाते कहा कि हमारी दुनिया का सच यह है कि संसार की कुल संपत्ति का 50% केवल 60 लोगों की मुट्ठी में है. दुनिया की सबसे अधिक संपत्ति, सारी दुनिया से समेट कर जिस एक देश ने अपनी मुट्ठी में कर रखी है, उसी के राष्ट्रपति ने जाते-जाते बता दिया कि संसाधनों अौर लोगों के बीच का सच्चा समीकरण क्या है; अौर प्रकारांतर से यह भी कबूल कर लिया कि यह सच इतना टेढ़ा कि इसे सीधा करना दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रपति के भी बस का नहीं है. 

अब जब धन्नासेठ दुनिया के सारे धन्नासेठ सत्ताधीश दावोस में जमा हैं अौर हमारे प्रधानमंत्री उन्हें भारत के विकास की सच्ची कहानी सुना रहे हैं, एक भयानक सच किसी दूसरे रास्ते हमारे अौर दुनिया के सामने अा गया है. ‘सबका साथ, सबका विकास’- यह जो माहौल देश भर में बनाया जाता रहा है, अौर जिसे साकार करने के लिए अनगिनत उपक्रम जोर-जोर से घोषित होते रहे हैं, हमारे हाथ उनका लब्बोलुअाब यह अाया है कि हमारे देश की 73% संपदा देश के केवल 1% लोगों के हाथों में सिमट गई है. इन 1% लोगों की संपत्ति पिछले एक साल में 21 लाख करोड़ बढ़ी है. ये अांकड़े अौर यह तस्वीर हमने नहीं बनाई है. यह किसी रेटिंग एजेंसी का वह अांकड़ा भी नहीं है जो किसी दवाब-प्रभाव से बढ़ाया या घटाया जा सकता है. वैसे तो सत्ताधीशों के हाथों में अांकड़े हमेशा ही खिलौनों-से रहे हैं, अौर हम यह खेल अौर खिलौना काफी समय से देख रहे हैं. लेकिन हमारे देश का यह अांकड़ा दावोस में ही जारी किया गया है अौर यह अध्ययन एक गैर-सरकारी संस्थान ने किया है. 

पिछले ही साल की बात है जब अॉक्सफेम ने यह अध्ययन जारी किया था कि भारत के 1% फीसदी लोगों की संपत्ति में 58% का इजाफा हुअा है. अौर अगर हम भूलें नहीं तो दावोस में ही पिछली बार कहा गया था कि विश्व शांति को सबसे बड़ा खतरा अगर किसी से है तो वह बढ़ती हुई विषमता से है. कहने का मतलब यह था कि कि अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को पाटने की बात तो अब राष्ट्राध्यक्षों के एजेंडे में ही नहीं है लेकिन यह खाई चौड़ी न हो यह सावधानी रखना धन्नासेठों व सत्ताधीशों के लिए जरूरी है क्योंकि यह अाग बहुत कुछ लील जाएगी. वर्ल्ड बैंक ने कभी कहा था कि उसका अार्थिक अध्ययन बताता है 2030 तक दुनिया से गरीबी खत्म हो जाएगी. अब वर्ल्ड बैंक खुद ही खत्म हो रहा है लेकिन 2030 तक दुनिया से गरीबी दूर हो जाएगी, ऐसा सपना अब मुंगेरीलाल भी नहीं देखते. 

अब फिर दावोस है. पिछली बार यहां चीन के राष्ट्रपति झी जिनपिंग का जलवा था. वे चीन का वह चमकीला चेहरा दुनिया को बेच रहे थे जिसे चीन के ही अधिकांश लोग नहीं जानते-पहचानते हैं. लेकिन चीन के राष्ट्रपति के पीछे एक अाभामंडल था कि वे दुनिया के सबसे बड़े िनर्यातक देश के प्रमुख थे. इस बार यही काम हमारे प्रधानमंत्री कर रहे हैं. उनके साथ हमारे देश के कारपोरेटों की बड़ी मंडली गई है, सरकारी अांकड़ों के विशेषज्ञ भी अपना ‘पहाड़’ ले कर वहां गये हैं. सब मिल कर वहां भारत को चमकाएंगे. यह चमक सच्ची होती तो किस भारतीय को खुशी व गर्व न होता लेकिन जो है नहीं, वह जब चमकाया जाता है तब धुंअा ज्यादा उठता है अौर अंधेरा फैलता है. हमारे प्रधानमंत्री के साथ ही यह सच्चाई भी वहां गई है कि उनके साथ दावोस पहुंचे इन्हीं कारपोरेटों की अाय में, 2017 में 20.9 लाख करोड़ रुपयों की बढ़ोत्तरी हुई है. इसका दूसरा मानी यह है कि 2017-18 का भारत सरकार का कुल बजट जितना था उस बराबर की कमाई इन कारपोरेटों ने 2017 में की है. अाज की तारीख में भारत में 101 अरबपति हैं जिनमें से 17 अरबपति 2017 में ही पैदा हुए हैं. अर्थशास्त्रियों की जमात में एक  सम्मानित नाम है टॉमस पिकेटी का. उनका अध्ययन बताता है कि भारत की सबसे गरीब जमात के सबसे पीछे के 50% लोगों की अाय में पिछले वर्ष में 0% की वृद्धि हुई है जबकि इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या 13% बढ़ी है. 

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ताजा रपट हमारी कुछ दूसरी तस्वीरें ले कर अाया है. हम दुनिया की विकास सूचकांक में 62 वें स्थान पर हैं मतलब चीन( 26) अौर पाकिस्तान (47) से पीछे. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम दुनिया भर के देशों का ऐसा अध्ययन करते हुए यह देखता है कि वहां की सामान्य जनता के रहन-सहन का स्तर क्या है, पौष्टिक खाद्य की उपलब्धता कैसी है, पर्यावरण के संरक्षण की स्थिति क्या है अौर देश पर वह विदेशी कर्ज कितना है जिसका भावी पीढ़ियों पर बोझ पड़ेगा. यह अध्ययन बताता है कि अार्थिक रूप से कौन देश कितना सशक्त है इसका जवाब यह नहीं है कि हमने जनधन योजना में कितने बैंक खाते खोले बल्कि यह है कि उन खातों में अाज क्या जमा है अौर जो जमा है वह कहां से अाया है. पैसा कहां अौर कैसे पैदा हो रहा है अौर वह किन रास्तों से चल कर लोगों की जेबों तक पहुंच रहा है, यह रास्ता जाने बिना न विकास के अांकड़ों का कोई अर्थ होता है, न कमाई के अांकड़ों का. 

इसलिए दावोस में हमारा चेहरा चाहे जितना चमकाया जाए, उस चेहरे के पीछे की यह सच्चाई छिपाई नहीं जा सकेगी कि हमारी जेब लगातार खाली होती जा रही है, सरकारी खर्चे पर कोई प्रभावी रोक संभव नहीं हो पा रही है, बैंकिंग व्यवस्था की अराजकता संभाली नहीं जा पा रही है, रोजगारविहीन विकास की घुटन फैल रही है, खेती-किसानी की कमर टूट चुकी है, अौद्योगिक उत्पादन भी गिर रहा है अौर खपत भी. नोटबंदी ने हमारे अर्थतंत्र के मध्यम घटक का दम तोड़ दिया तो जीएसटी से उसे बेहाल कर दिया है.  किसी भी अर्थ-व्यवस्था की मध्यम कड़ी ही उसे संभालकर रखती है अौर ऊपर-नीचे के थपेड़ों से बचाती है. यह मध्यम कड़ी अाज जैसी बेहाल कभी नहीं थी. जीएसटी में जितनी बार, जितने बदलाव किए जा रहे हैं वे दूसरा कुछ बताते हों या न बताते हों, यह तो बता ही रहे हैं कि इसे लागू करने से पहले जितना अध्ययन व जितनी व्यवस्था जरूरी थी, वह नहीं की गई. अधपका फल या अधपकी फसल किसी के काम नहीं अाती है; खेत को जरूरत कमजोर कर जाती है. 

यह सब लिखते-जानते किसी तरह खुशी नहीं है मुझे. बहुत तकलीफ है, क्योंकि मामला इस प्रधानमंत्री या उस प्रधानमंत्री का नहीं है. इस या उस सरकार की भी बात नहीं है. बात देश की है जो किसी भी सरकार के बाद भी रहेगा, किसी भी प्रधानमंत्री के बाद भी चलेगा. वह कमजोर हो, घायल हो, खोखला हो तो तकलीफ कितनी दारूण होती है, यह मैं भी जानता हूं अौर अाप भी. ( 22.01.2018)  

महात्मा गांधी के साथ इतिहास की गलियों से वर्तमान तक का सफर




1948 की 12 जनवरी थी ! अभी-अभी अाजाद हुए देश की राजधानी दिल्ली का बिरला भवन… दमघोंट चुप्पी सब अोर जमी हुई थी - थरथराती हुई ! हर सुबह की तरह अाज भी 3.30 बजे सभी प्रार्थना के लिए जमा थे लेकिन कहीं कुछ था कि जो बर्फ की तरह जमा धरा था. बापू थे अौर प्रार्थना में डूबे थे… लेकिन जैसे वे वहां नहीं थे… अाज उनका मौन दिवस था … लेकिन यह दूसरे मौन दिवसों से कुछ अलग था, क्योंकि बापू कहीं भीतर ही गुम थे. प्रार्थना खत्म हुई, उन्होंने इधर-उधर देखा कि जैसे कुछ खोज रहे हों… मनु करीब अाईं अौर उनके सहारे वे उठे… उलझते-से पांवों से अपने कमरे की अोर चले… मनु ने उढ़ा कर सुला दिया अौर खुद भी सोने चली गईं… बापू सोये नहीं, उठ बैठे अौर कुछ लिखने लगे… 

जो लिखा उसका अनुवाद सुशीला नैयर करती थीं. वे अनुवाद बोलती जाती थीं अौर मनु लिखती जाती थीँ. हर सोमवार को यह अनुवाद-बैठक होती थी. उस रोज भी हुई अौर सुशीलाजी ने पढ़ना शुरू किया कि अचानक वे चीख पड़ीं : “ अरे, मनु, देख यह क्या… वे जो पढ़ रही थीं अौर जो कह रही थीं उस पर उनका ही भरोसा नहीं बैठ रहा था… “ अरे… मनु…  देख… बापू तो कल से अनशन पर जा रहे हैं !!” … अौर मनु कुछ समझतीं कि सुशीलाजी बेतहाशा भागीं बापू के पास ! … बापू मौन थे. कुछ भी सुनना-कहना नहीं था उन्हें ! इशारे से इतना ही कहा कि बात तो मौन खत्म होने पर ही होगी, अभी तो जो लिखा है उसका अनुवाद करो ! … यह कैसे संभव है !! … उपवास फिर ? …  अभी ही तो बमुश्किल छह माह पहले कलकत्ता का वह भयंकर उपवास हुअा था … मौत एकदम सामने अा बैठी थी … पागल कलकत्ता … खून सवार था जिसके सर पर उसके सामने प्रार्थनारत उपवास पर बैठी बापू की वह दुबली-पतली काया … सारी शैतानी के केंद्र में थे सुहरावर्दी जो अाज खुद का सामना भी नहीं कर पा रहे थे…हैदरी मैंशन का वह दृश्य भला कौन भूल सकता था … जैसे तेज अांधी में कोई दीया जल रहा हो … हवा का हर झोंका जिसकी लौ को खात्मे तक खींच ले जाता था अौर बुझते-बुझते फिर-फिर लौ संभल कर स्थिर हो जाती थी… कलकत्ता में बापू के प्रार्थनामय उपवास से क्या होगा न कोई जानता था, न मानता था … लेकिन हर कोई भीतर-भीतर यह जान रहा था कि इस अादमी के अलावा दूसरा कोई नहीं है कहीं कि जो सब कुछ लील जाने वाली इस अाग को लील सकता है … इस अाग को लगाने-उकसाने वाले सुहरावर्दी को कहां पता था कि यह अादमी अपनी जान उनके हाथ में छोड़ कर इस कदर निर्विकार प्रार्थनारत हो जाएगा… सुहरावर्दी इस उपवास का मुकाबला नहीं कर सके अौर हालात पर काबू करने में उन्होंने खुद को झोंक दिया … फिर वह सब हुअा कि जिसे वाइसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन ने अपनी ‘वनमैन अार्मी’ का चमत्कार कहा … बापू को अस्तित्व की अाखिरी लकीर तक पहुंचा कर वह उपवास पूरा हुअा था… बापू की बात छोड़ें हम, बापू के लोग भी अभी उस उपवास से संभले नहीं थे… कि अनुवाद से निकल अाया यह नया उपवास !! … हालत कलकत्ता से भी बुरी है अौर यहां कोई सुहरावर्दी भी नहीं है. सुशीला,मनु सभी पागल हुए जा रहे थे लेकिन वे दोनों जान रही थीं कि अनुवाद पूरा करना उनकी पहली प्राथमिकता है… वह पूरा नहीं हुअा या अधूरा छोड़ा गया तो उपवास की परीक्षा अौर दारुण हो जाएगी… इसलिए घनश्यामदास बिरला तक बात पहुंचा कर दोनों अनुवाद पूरा करने बैठ गईं…

बात जंगल में अाग की तरह फैल गई. सरदार, जवाहर, राजेन बाबू, मौलाना, देवदास सभी… एक-पर-एक पहुंचने लगे …सब एक-दूसरे से अांखें चुरा रहे थे… किसी के पास कहने को कुछ नहीं था … ढले चेहरे, झुके कंधे अौर खोई निगाहें … सब कितनी ही रातों से सोये नहीं थे… सड़कों पर भागते, दंगाइयों से लड़ते, अधिकारियों को कसते अौर भीड़ को समझाते वक्त किधर से अा कर किधर जा रहा था, किसी को पता नहीं था… लेकिन यह सबको पता था कि यह बूढ़ा अादमी नहीं रहा तो किसी के बस का कुछ भी नहीं रह जाएगा… 

अाशंका सबको थी क्योंकि इस बार कलकत्ते से जब बापू लौटे तबसे ही जैसे कुछ था जो उन्हें मथ रहा था. वे बहुत चुप हो गये थे, ज्यादा सुनने में लगे रहते थे. हर खबर, हर अादमी, हर घटना जैसे उन्हें कुचल कर निकल जाती थी… वे अाए थे तब दिल्ली में रुकने की बात ही नहीं थी. उन्हें पश्चिमी पंजाब जाना था. कलकत्ते में अग्नि-स्नान कर के, अब वे पंजाब के दावानल में उतरना चाहते थे. दिल्ली तो रास्ते का पड़ाव भर था… लेकिन … दिल्ली स्टेशन उतरते ही वे उस बारूदी गंध को भांप गये जो सब तरफ फैली थी. उन्हें लेने स्टेशन पर सभी अाए थे लेकिन जैसे हर कोई उनसे नजरें चुरा रहा था. दिल्ली में किसी श्मशान की शांति पसरी हुई थी. 

मौन पूरा हुअा. बापू को ही कहना था, बापू ने ही कहा: “ पंजाब जाने के लिए अाया था यहां लेकिन देखा कि दिल्ली तो वो दिल्ली बची नहीं है. हमेशा ही हंसी-मजाक करने वाले सरदार के चेहरे पर हंसी की एक रेखा  नहीं थी. मैंने समझ लिया कि यह मेरा पहला मोर्चा है. सिपाही तो वही है न जो सामने अाए मोर्चे पर डट जाए न कि अागे के किसी मोर्चे के लिए इस खतरे से मुंह फेर ले. मैंने भी अपना धर्म समझ लिया. दिल्ली हाथ से निकली तो हिंदुस्तान निकला समझिए ! … यह खतरा मोल नहीं लिया जा सकता है. मैंने देखा कि हिंदू, मुसलमान, सिख एक-दूसरे के लिए पराये हो चुके हैं. कल की दोस्ती का अाज कहीं पता नहीं है. ऐसे में कोई सांस भी कैसे ले सकता है ! जो मिला उसी ने बताया कि दिल्ली में मुसलमानों का रह पाना अब संभव नहीं है. मुसलमान भाइयों के चेहरे पर एक ही सवाल मैं पढ़ पा रहा था : “ हम क्या करें ? “ मेरे पास कोई जवाब नहीं था. ऐसा बेजुबान तो मैं कभी भी नहीं हुअा था. ऐसी लाचारी के साथ जीना तो मैं कभी कबूल न करूं. लेकिन करूं क्या !! ऐसे में कोई सत्याग्रही कैसे अपनी भूमिका तै करे अौर उस निभाये ? यही सवाल मुझे मथे जा रहा था. फिर जैसे भीतर ही कहीं बिजली कौंधी… रोशनी में मुझे अपना कर्तव्य साफ दिखाई दे गया! जब दूसरे की जान की कोई कीमत नहीं की जा रही हो तब अपनी सबसे कीमती चीज को, अपनी जान को अपनी राजी-खुशी से दांव पर लगा देने का रास्ता ही तो बचता है न ! इस प्रार्थना के साथ मैं उपवास के रास्ते अा लगा हूं कि मुझमें अगर पवित्रता है तो यह अाग बुझेगी ही ! मेरे उपवास का कोई अरसा नहीं है, कोई शर्त भी नहीं है. मेरी प्रार्थना से जब यह अावाज अाएगी कि सभी कौमों के दिल मिल गये हैं अौर वे किसी बाहरी दवाब के कारण नहीं बल्कि अपना धर्म समझ कर रास्ता बदल रहे हैं, मेरा उपवास छूट जाएगा…”, वे थोड़ा रुके जैसे अपने ही भीतर कुछ टटोल रहे हों. अाज उनके शब्द मुंह से नहीं, अात्मा की अतल गहराइयों से निकल रहे थे, “ अाज एशिया के अौर दुनिया के ह्रदय से भारत की शान मिट रही है. इसका सम्मान कम होता जा रहा है. अगर इस उपवास के कारण हमारी अांखें खुलें तो वह शान वापस लौट अाएगी. मैं अापसे हिम्मत के साथ कहता हूं कि अगर भारत की अात्मा खो गई तो अाज के झंझावात में घिरी दुखी अौर भूखी दुनिया की अाशा की अंतिम किरण का भी लोप हो जाएगा… मेरे कोई मित्र या दुश्मन - अगर ऐसा कोई अपने को मानता हो, तो - मुझ पर गुस्सा न करें. कई लोग हैं कि जो उपवास के मेरे तरीके को ठीक नहीं मानते हैं. मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे बर्दाश्त करें अौर जैसी अाजादी वे खुद के लिए चाहते हैं वैसी ही अाजादी मुझे भी दें. एक ईश्वर ही है कि जिसकी सलाह से मैं चलता हूं. मुझे दूसरी कोई सलाह चाहिए नहीं. अगर यह उपवास मेरी भूल है, ऐसा जिस किसी भी क्षण मुझे लगेगा, मैं सबके सामने अपनी भूल कबूल कर उपवास छोड़ दूंगा. लेकिन इसकी संभावना कम है. अगर मेरी अंतररात्मा की अावाज स्पष्ट है,जो है ऐसा मेरा दावा है, तो उस अावाज को रद्द कैसे किया जा सकता है ! इसलिए अाप सबसे मेरी प्रार्थना है कि मेरे साथ दलील न करें, मेरे फैसले को उलटने की कोशिश न करें. जिस निर्णय को बदला नहीं जा सकता, उसमें अाप मेरा साथ  दें… शुद्ध उपवास भी शुद्ध धर्म-पालन की तरह है. उसका बदला अपने-अाप मिल जाता है. मैं कोई परिणाम लाने के लिए उपवास नहीं करता. मैं उपवास करता हूं क्यों कि तब वही मुझे करना चाहिए... अगर मुझे मरना है तो शांति से मरने दें. मुझे शांति तो मिलने ही वाली है, यह मैं जानता हूं. हिंदुस्तान का, हिंदू धर्म का, सिख धर्म का अौर इस्लाम के नाश का बेबस दर्शक बने रहने के बनिस्बत मृत्यु मेरे लिए सुंदर रिहाई होगी… जो लोग दूसरे विचार रखते हैं, वे मेरा जितना भी कड़ा विरोध करेंगे, मैं उनकी उतनी ही इज्जत करूंगा. मेरा उपवास लोगों की अात्मा को जाग्रत करने के लिए है, उसे मारने डालने के लिए नहीं. जरा सोचिए तो सही कि अाज हमारे प्यारे हिंदुस्तान में कितनी गंदगी पैदा हो गई है ! इसलिए अापको तो खुश होना चाहिए कि हिंदुस्तान का एक नम्र सेवक, जिसमें इतनी ताकत है, अौर शायद इतनी पवित्रता भी है कि वह इस गंदगी को मिटा सके, वह कदम उठा रहा है. अगर इस सेवक में ताकत अौर पवित्रता नहीं है, तब तो यह पृथ्वी पर बोझ रूप है. जितनी जल्दी यह उठ जाए अौर हिंदुस्तान को इस बोझ से मुक्त करे, उतना ही उसके लिए अौर सबके लिए अच्छा है. मेरे उपवास की खबर सुन कर सब दौड़ते हुए यहां, मेरे पास न अाएं. अाप जहां हैं वहां का वातावरण सुधारने का प्रयत्न करें, तो यही काफी है… उपवास के दरम्यान मैं नमक, सोडा अौर खट्टे नींबू के साथ या इनके बिना पानी पीने की छूट रखूंगा.”

बात पूरी हो गई ! 

सन्नाटा अौर गहरा हो गया ! अब कोई एकदम शांत व उत्फुल्ल था तो बापू ही थे.  अब उन्हें रास्ता मिल गया था - सत्याग्रही का अंतिम रास्ता ! दोपहर में वे स्वतंत्र भारत के पहले वाइसरॉय माउंटबेटन से मिलने गये. लौटे तो सारा कमरा खचाखच भर चुका था. “ अब यह क्या ?…” वे परेशानी से हंसे, अौर फिर बोले, “ कोई भी न घबराये ! सभी जहां-जहां हैं, वही रहें अौर अपना काम करें.” देवदास गांधी से बोले- “ पटना के मोर्चे पर ही रहना है !” जवाहरलाल भी हैं अौर सरदार भी हैं. देवदास इस उपवास से सहमत नहीं हैं. उन्हें लगता है कि यह बापू के अधैर्य का प्रतीक है. सरदार तो बहुत ही नाराज हैं… सरकार कानून-व्यवस्था बनाने में परेशान है अौर बापू ने बिना सलाह-मश्विरे के अनशन शुरू कर दिया ! यह क्या बात हुई ? … देवदास गांधी ने पूछा : यह अनशन मुसलमानों के लिए है अौर हिंदुअों के खिलाफ है ? जवाब अाया : हां, यहां यह मुसलमानों के लिए है अौर हिंदुअों के सम्मुख है. पाकिस्तान में यह हिंदुअों के लिए है अौर मुसलमानों के सम्मुख है. यह उपवास हर उस कमजोर अौर अल्पसंख्यक के लिए है जिसे कोई ताकतवाला, बड़ी संख्या वाला दबा या डरा रहा है. ऐसे मुल्क कैसे चल सकता है ? 

टुकड़ों में बापू ने जब भी कुछ कहा, उन्हें जोड़ दें तो बात कुछ इस तरह बनती है : मैं जब से यहां हूं, देख रहा हूं कि लोग मेरे मुंह पर एक बात कहते हैं अौर होती है दूसरी बात ! सरकार के दो बड़ों के बीच गंभीर मतभेदों का दंड अाम जनता को भुगतना पड़ रहा है. सरकार के भीतर गंदगी बढ़ती जा रही है… भगवान सभी को शुद्ध करें अौर सम्मति दें… दो शब्द अपने मुसलमान भाइयों से अदब के साथ कहना चाहता हूं. यह अनशन उनके नाम से शुरू हुअा है तो उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है. उन्हें कम-से-कम इतना तो निश्चय करना ही चाहिए कि हम हिंदू अौर सिखों के दोस्त बन कर रहेंगे. जो यूनियन में रहना चाहते हैं वे यूनियन के प्रति वफादार रहें. ये लोग कहते तो हैं कि हम वफादार रहेंगे पर अाचरणा वैसा नहीं करते. मैं तो कहूंगा कि कम बोलो पर कर के ज्यादा दिखाअो… मैं तो कहूंगा कि चाहे पाकिस्तान में सभी हिंदू-सिख काट डाले जाएं, तो भी यहां एक नन्हा-सा मुस्लिम बच्चा भी सुरक्षित रहना चाहिए. जो कमजोर हैं, निराधार हैं, उन्हें मारना बुजदिली है. पाकिस्तान में जितनी मार-काट मचे, दिल्ली अपने फर्ज से न चूके !सुहरावर्दी जैसे भी, जिन्हें गुंडों का सरदार कहा जाता है, जहां चाहें अाजादी से घूम-फिर सकें… अाज मैं हिम्मत के साथ कहता हूं कि पाकिस्तान एक ‘पाप’ ही है. मै पाकिस्तान के नेताअों के खेल या भाषण देखना नहीं चाहता. मैं तो मांगता हूं उनका सदाचरण, सत्कर्म ! अगर ऐसा होगा तो भारत के लोग अपने-अाप सुधर जाएंगे. अाज मुझे शर्म के साथ कहना पड़ता है कि हम लोग सचमुच पाकिस्तान की बुराइयों की नकल कर रहे हैं…

ऐसी पृष्ठभूमि में शुरू हुअा उपवास 18 जनवरी 1948 तक यानी 6 दिनों तक चलता रहा. हर दिन जैसे एक अाग में वे भी अौर उनके साथी भी उतरते थे अौर फिर उससे कहीं ज्यादा दहकती अाग में प्रवेश की तैयारी करते थे. करीब 80 साल के होने जा रहे बापू ने अाश्चर्यजनक मानसिक व शारीरिक उत्फुल्लता से ये 6 दिन निकाले. अावाज लगातार क्षीणतर होती गई अौर बोलना, चलना असंभव होता गया. लेकिन वे सबको संभालते-संवारते चलते गये. सभी बेसहारा थे - जो सांप्रदायिक अाग में जले वे भी अौर वे भी जो इस अाग से लोगों को बचाने में लगे थे, एकदम अकेले व बेसहारा थे…  अासारा बस यही था - 80 साल का बूढ़ा ! … वाइसरॉय अौर सारी भारत सरकार अौर सारा भारत सारे दिन-रात यहीं के चक्कर काटता मिलता था. बापू रोज सुबह 3.30 पर उठते अौर रात 9 बजे सोने जाते. …

 लेकिन उपवास कैसे छूटे ? बापू ने इसकी सात शर्तें सामने कर दीं : 1. महरौली में िस्थत ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तयार की मजार महफूज रहेगी अौर मुसलमानों को वहां अाने-जाने में कोई खतरा नहीं होगा. अाने वाला उर्स का मेला पहले की तरह ही लगेगा अौर महरौली के हिंदू-सिख इसकी गारंटी दें कि वहां मुसलमानों को कोई खतरा नहीं होगा. 2. दिल्ली की 117 मस्जिदों पर हिंदू-सिख शरणार्थियों ने कब्जा कर लिया है या उन्हें मंदिर में बदल लिया है. वे सब मुसलमानों को वापस कर दी जाएं अौर वहां के हिंदू-सिख यह भरोसा दिलाएं कि सभी मस्जिदें पहले जैसी ही रहेंगी अौर मुसलमान वहां बेखटके अा-जा सकें. 3. करौलबाग, सब्जीमंडी अौर पहाड़गंज में मुसलमान अाजादी से अा-जा सकें अौर उन्हें कोई खतरा न हो। 4.जो मुसलमान डर से या परेशान हो कर पाकिस्तान चले गये हैं वे अगर वापस अा कर फिर से बसना चाहें तो हिंदू-सिख उसमें बाधा न बनें.5. रेलों में सफर करने वाले सुरक्षित सफर कर सकें. 6. मुसलमान दूकानदारों का बहिष्कार न किया जाए.  7. दिल्ली शहर के जिन इलाकों में मुसलमान रहते हैं उनमें हिंदुअों-सिखों के बसने का सवाल वहां के मुसलमानों की रजामंदी पर छोड़ दिया… बस, यही सात बातें, अौर कुछ नहीं !! … उनका एलान ही समझिए कि मेरी जान बचानी हो तो भारतीय समाज को सात कदमों का यह सफर पूरा करना होगा. 

किया, लोगों ने सात कदमों का यह सफर पूरा किया ! 18 जनवरी को भावावेश में कांपती अावाज में कांग्रेस के सभापति राजेंद्र प्रसाद ने बापू के कमरे में मौजूद दिल्ली के अाला प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कहा : सबने उन बातों की गारंटी दी है जिनका जिक्र अापने हमसे किया है. हालात की निगरानी के लिए कुछ समितियां भी हम बना रहे हैं… फिर तो सभी बोले - मौलाना अाजाद भी, हबीब-उल रहमान, गोस्वामी गणेश दत्त, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के हरिश्चंद्र, पाकिस्तान के हाईकमिश्नर जहीद हुसैन, सिखों के हरवसन सिंह, दिल्ली के उपायुक्त रंधावा, फिर सबकी तरफ से अंतिम बात राजेन बाबू बोले : अब अाप उपवास छोड़ें ! 

  अब जवाब बापू को देना था लेकिन अब अावाज इतनी भी नहीं रह गई थी कि सुनी जा सके ! उन्होंने अपनी बात लिखवाई जिसे प्यारेलालजी ने पढ़ कर सुनाया : “ यह मुझे अच्छा तो लगता है, मगर एक बात अगर अापके दिल में न हो तो यह सब निकम्मा समझिए ! इस मसविदे का अगर यह अर्थ है कि दिल्ली को अाप सुरक्षित रखेंगे अौर बाहर चाहे जितनी भी अाग जले, अापको परवाह न होगी, तो अाप बड़ी गलती करेंगे अौर मैं भी उपवास छोड़ कर मूर्ख बनूंगा. मैं देखता हूं कि ऐसा दगा अाज हिंदुस्तान में बहुत चलता है. हमें अाला दर्जे की बहादुरी दिखानी है. यह कहना कि हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुअों का है अौर पाकिस्तान सिर्फ मुसलमानों के लिए है, तो इससे बड़ी बेवकूफी क्या हो सकती है ! शरणार्थी समझें कि पाकिस्तान का उद्धार भी दिल्ली के ही मार्फत होगा… अाज हम सीखें कि कोई भी इंसान हो, कैसा भी हो, उसके साथ हमें दोस्ताना तौर पर काम करना है. हम किसी के साथ, किसी हालत में दुश्मनी नहीं करेंगे, दोस्ती ही करेंगे. शाहिद साहब अौर दूसरे चार करोड़ मुसलमान यूनियन में पड़े हैँ. वे सब-के-सब फरिश्ते तो हैं नहीं. हममें अच्छे लोग भी हैं अौर बुरे भी. मुसलमान बड़ी कौम है. यहीं नहीं, सारी दुनिया में मुसलमान पड़े हैं.  अगर हम ऐसी उम्मीद करें कि सारी दुनिया के साथ हम मित्र भाव से रहेंगे तो क्या वजह है कि हम यहां के मुसलमानों से दुश्मनी करें. मैं भविष्यवक्ता नहीं हूं फिर भी ईश्वर ने मुझको अक्ल दी है, दिल दिया है. उन दोनों को टटोलता हूं अौर अापको भविष्य सुनाता हूं कि अगर किसी-न-किसी कारण से हम एक-दूसरे से दोस्ती न कर सके, वह भी यहां के ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के अौर सारी दुनिया के मुसलमानों से हम दोस्ती न कर सके तो हम समझ लें - इसमें मुझे कोई शक नहीं है - कि हिंदुस्तान हमारा न रहेगा, पराया हो जाएगा. गुलाम हो जाएगा - पाकिस्तान गुलाम होगा, यूनियन भी गुलाम होगा अौर जो अाजादी हमने पाई है वह हम खो बैठेंगे… मैं फाका छोडूंगा. ईश्वर की जो मर्जी होगी, वही होगा. अाप सब साक्षी बनते हैं, तो बनें. 

12.25 मिनट हुअा था जब काल जर्जरित काया को मौलाना अाजाद ने 12 अौंस ग्लूकोज मिला रस पिलाया… कल तक जो बिजली गुल थी, अाज, अभी सबके चेहरों पर दमक उठी… कितने सारे लोग रो रहे थे… जवाहरलाल रो रहे थे कि हंस रहे थे, कहना कठिन था. वे इस पूरी अवधि में मौन ही रहे थे- पीड़ा में अौर संभवत: इस ग्लानि में कि यह अाजाद भारत था, यह उनकी सरकार थी अौर छह माह के भीतर बापू को ऐसी पीड़ा से गुजरना पड़ा… वे इस प्रकरण की समाप्ति के बाद चले गये… वे कोई सौ बुर्काधारी मुसलमान महिलाएं वहां रह गईं कि जो अाज यह कहने अाई थीं कि अाप उपवास तोड़िए. बापू ने हाथ जोड़े अौर सारी ताकत समेट कर इतना कहा : मेरे सामने क्या बुरका ? …मैं तो अापका बाप-भाई हूं… ह्रदय का पर्दा ही काफी है !… बहनों ने तुरंत बुरका निकाल दिया… इंदिरा गांधी ने सिर्फ बापू से कहा : पंडितजी भी अापके साथ अनशन कर रहे हैं ! … जाते कदम रुके… एक कागज मंगवाया अौर अशक्त हाथों से लिखा : चिरंजीव जवाहरलाल, अनशन छोड़ो !… बहुत वर्ष जियो अौर हिंद के जवाहर बने रहो.
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यह सब क्या हुअा ? अाज यह हमारे इतिहास का हिस्सा है याकि यही हमारा वर्तमान है ? एक अादमी पागल हो तो हम उसे पागलखाने में डालते हैं, हजारों-लाखों-करोड़ों लोग पागल हो जाएं तब ? कहां रखेंगे अाप उनको ?…अौर अाप कौन, अाप भी तो पागलों की उसी दुनिया में हैं ? समाज को भीड़ बना कर, इंसानों को पागलों की जमात बना कर जब सत्ता अौर संपत्ति का शिकार किया जा रहा हो, तब एक अादमी के बस का बचता ही क्या है भले वह अादमी महात्मा गांधी ही हो ? … बच रहता है यही अात्मबलिदान !! … बापू का यह उपवास, जिसे हमने उनका अंतिम उपवास बना दिया कि जिसके बारह दिन बाद हमने उनका अंत ही कर दिया, सद्विवेक जगाने की अांतरिक पीड़ा से उपजा हाहाकार था ! हमारे भीतर जो खो गया है, सो गया है, उन्मादियों ने जिसे जहरीला बना दिया है, उस पर विवेक की बूंदें गिराने का यह उपक्रम था… अाज भी कुछ ऐसा ही दौर लौटता लगता है. क्या इसे ही इतिहास का दोहराना कहते हैं ? अगर यह इतिहास का यांत्रिक दोहराव मात्र है तब तो बहुत फिक्र नहीं क्योंकि तब तो बापू भी होंगे ही कहीं दोहराने के लिए … लेकिन नहीं, ऐसी कार्बन कॉपियां इतिहास में चलती ही नहीं हैं. हर दौर को अपना गांधी खुद ही पैदा करना पड़ता है. ( 21.01.2018)