Thursday 30 April 2020

इरफान का जाना

 
      पूरा देश तालाबंदी में गया तो जैसे कोई एक ताला खुला ही रह गया. नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के बंद द्वार में बंद हुअा मैं देखता रहा सामने की सूनी पड़ी सड़क पर वह अबाध मानव-झुंड जो अपना पूरा अस्तित्व संभाले चल रहा था- लगातार-लगातार ! कोरोना से डरी नगरीय सभ्यता ने उनके मुंह पर अपने दरवाजे बंद कर दिए थे. वे सब जा रहे थे - भाग या दौड़ नहीं रहे थेबस जा रहे थे. मैं जब-जब उन्हें देखतामन कहीं दौड़ कर पान सिंह तोमर’ के पास पहुंच जाता था ! यह फिल्म देखी है अापने मैंने जब से देखी तब से अाज तक वैसी दौड़ दोबारा देख नहीं पाया हूं. इरफान उस फिल्म में बहुत कुछ कर गये हैं लेकिन जिस तरह दौड़ गये वह भारतीय सिनेमा का एक मानक है. ये अनगिनत अौर अनचाहे दिहाड़ी मजदूरजो पता नहीं देश के किस कोने से निकले थे अौर पहुंचे थे अपनी राजधानी दिल्ली- अौर बिना स्वागतबिना अावाज,बिना सूचना उन्होंने राजधानी का सारा कल्मष खुद पर अोढ़ लिया. मुझे खूब पता है कि उनमें से किसी ने भी दिल्ली की राजधानी वाला चेहरा देखा भी नहीं होगाउनके लिए दिल्ली का चेहरा रोटी का चेहरा था. 

     पान सिंह तोमर’ के साथ भी ऐसा ही था लेकिन उसकी रोटी में अात्मसम्मान का जायका भी घुला हुअा था. इसलिए उसकी दौड़ अस्तित्व की दौड़ थी. सामने से जा रहे मजदूर दौड़ नहीं रहे थेवे कुछ कह भी नहीं रहे थेबोल ही नहीं रहे थे - बसअपनी अस्तित्वहीनता की कातर पुकार बन कर चले जा रहे थे. लेकिन मैं देख पा रहा था अौर सुन भी रहा था वह हाहाकार जो पान सिंह तोमर’ से उठा था अौर अाज राजधानी की सड़कों पर अाकार ले रहा थागूंज रहा था. अभिनय ( अभिनय ही क्योंकोई भी कला जो सच को छूने को छटपटा रही हो ) कितना लंबा सफर तै कर सकता हैक्या हमें इसका पता लगता है इरफान को पता था मेरे ऐसे कई सवालों का जवाब वे इस तरह देते थे मानो जवाब मुंह में घुला रहे हों लेकिन कह नहीं पा रहे हों.  

      इरफान को पान सिंह तोमर’ में देख कर लगा कि यह मुकम्मिल बात हुई. खास क्या था पान सिंह तोमर’ में उसकी सच्चाई ! फिल्म भी सच्ची थीकथानक भी अौर सबसे अादमकद था इरफान का अभिनय जो अभिनय जैसा था ही नहीं. उस एक पात्र में जैसे उन्होंने सब कुछ उडे़ल दिया था. वैसी बदहवास दौड़ कब किसी ने फिल्मी पर्दे पर दौड़ी मुझे दो बीघा जमीन’ के बलराज साहनी याद अाते हैं जो रिक्शा ले कर वैसे ही दौड़े थे जैसे अादमी नहींसारा अस्तित्व दौड़ रहा हो. दिलीप कुमार भी गंगा-जमुना’ में भयंकर दौड़े थे लेकिन फिर भी उसमें अभिनय था. इरफान की दौड़ में गरीबी भी थीअपमान भी थाचुनौती भी थी अौर बदला लेने की ललकार भी थी. वह पान सिंह तोमर सारी कहानीसारी फिल्म ले कर ही दौड़ पड़ा था. यह परिपूर्णता इरफान की विशेषता थी. 

      इरफान जिस तरह के कैंसर से ग्रस्त थे उसका इलाज बहुत मुश्किल थाअौर बहुत मुश्किल है. वैसे किस कैंसर का इलाज मुश्किल नहीं होता है ?  इसके चंगुल से जो निकल सके हैं वे भी उसके खूनी पंजों का दंश झेलते ही रहते हैं. इसलिए इरफान को जाना ही था. वे गये. बड़ी बात थी जिस तरह वे अौर उनका परिवार इससे लड़ा. बहुत सारी खबरें अौर बहुत सारी भाग-दौड़ अौर तकलीफों की बहुत सारी कहानियां इरफान के पास से नहीं अाईं.  बीमार हुएइलाज के लिए बाहर गयेलंबे समय तक बाहर रहे अौर फिर लौटे तो ऐसे कि नहीं लौटे. फिर वह फिल्म अा गई इंग्लिश मीडियम’. खबर मिली कि इरफान फिल्म कर रहे हैं तो अच्छा ही लगा लेकिन यह नहीं लगा कि वे अच्छे हो गये हैं. फिल्म देख कर भी नहीं लगा. वह बहुत कुछ वहां दीखता ही रहा जो कैंसर ने इरफान में से सोख लिया था. 

      इरफान से मेरा बहुत कम अौर बहुत हल्का मिलना हुअा था अौर वह भी तब जब वे ऐसे इरफान नहीं बने थे. उनका बंबई अाना अौर फिल्मी दुनिया का दरवाजा खटखटाना अौर दरवाजे का खुलना बहुत लंबा चला था. काफी सारा समय अौर काफी सारा अपना सार उन्होंने उस दौर में गंवाया जिसे फिल्मी भाषा में स्ट्रगल’ कहते हैं. वैसे ही दौर मेंकभी-कभार जब मैं फिल्मी पार्टियों में जाता था तब झिझकते-से इरफान से मिलना हुअा. ऐसा भी हुअा कि वे टाइम्स अॉफ इंडिया के दफ्तर में अाए तो मुलाकात हुई. इरफान की अांखें बहुत गहरी थीं - जितनी बाहर थीं उतनी ही भीतर भी थीं. अांखों में खोज भी थी अौर गहराई भी. इसलिए भी मुझे इरफान याद रहे. उनकी अावाज में भी एक अात्मा थी जो गूंजती  रहती थी - फोन पर पकड़ में अाने वाली अावाज ! सुनते ही मैं कहता था : हांइरफानजी ? ‘अच्छायाद हूं मैं अापको !’ मैंने एकाधिक बार कहा होगा कि नहींयाद से नहींअावाज से पहचाना मैंने अापको.  

      उस रोज भारतीय विद्या भवन में फोन अाया : मैं यहीं हूं … नीचे ! मैं ऊपर अाऊं या अाप नीचे अा सकेंगे तो हम लंबे समय बाद मिले थे. यह मकबूल’ के बाद की बात है. मैंने मकबूल’ पर अौर उसमें इरफान पर जो लिखा था उसके बाद मिलने न अातायह तो कैसी बात होती!” मैंने बधाई दी कि अब वह मुकाम बन रहा है जिसके लिए इतना इंतजार किया. हांलगता तो है कुमार साहब … लेकिन यहां लगने अौर होने में इतना फासला होता है कि लगते-लगते बात लग नहीं पाती है’- भारतीय विद्या भवन के नीचे मिलने वाली खास सैंडविच खाते हुए इमरान बोले थे. ऐसे डायलॉग’ बनाते रहना इरफान को खूब अाता था.

      इरफान फिल्मों में किसके उत्तराधिकारी थे मोतीलालबलराज साहनी अौर किसी हद तक संजीव कुमार के. वे इनसे अच्छे या बुरे नहीं थेइनकी परंपरा को अागे ले जाने वाले कलाकार थे. वे परदे पर छाते नहीं थे क्योंकि छाना अभिनय नहीं होता हैप्रदर्शन होता है. वे पर्दे पर अपनी जगह बना लेते थे जिस पर दूसरे की छाया टिकती नहीं थी. कहानीकैमरारोशनीगीत-संगीतसंवाद तथा अदाअों का पूरा जाज-जंजाल- सब मिल कर पूरी ताकत झोंक दते हैं तब कहीं जा कर पर्दे पर एक हीरो या हीरोइन खड़ा हो पाता है. बंबइया फिल्मों में तो हीरो या हीरोइन की इंट्री’ कैसे होयह भी गहन विचार का विषय होता है अौर कैसी-कैसी हास्यास्पद फूहड़ता हमें झेलनी पड़ती है. इरफान जैसों की इंट्री’ अौर एक्जिट’ कैसे होगी न वे कभी सोचते हैंअौर न हमवे अाते हैं अौर अपना अमिट प्रभाव छोड़ कर चले जाते हैं. यही कला हैइसे ही कलाकार कहते हैं. इरफान कलाकार थे - विशुद्ध !

      पीकू’ में उनकी परीक्षा बहुत गहरी हुई जब कमर्शियल बंबइया फिल्मी व्याकरण के दो उस्तादों के साथ सीधा सामना था उनका. अमिताभ बच्चन अौर दीपिका पडुकोणअौर कहानी भी इन्हीं दोनों को समेटने अौर इनकी परिक्रमा करने में लगी हुई थी. दोनों ने अपना वह सब इस फिल्म में झोंक दिया था जिसके लिए वे जाने व माने जाते हैं. तो इरफान के लिए काफी था कि वे उनके साथ हो भर लेते. कहते भी हैं न लोग कि फिल्म में दिलीप कुमार हों कि देव अानंद हों तो दूसरे किसी के करने के लिए बचता क्या है ! कैमरा तो वहीं रहना है. पीकू’ भी  फिल्म तो उन दोनों की ही थी तो इरफान से कोई ज्यादा मांगता भी क्या लेकिन पीकू’ में इरफान ने एक फ्रेम भी ऐसा नहीं छोड़ा जिसमें वे उन दोनों के साथ थे भर. पहले दृश्य से ही वे पर्दे पर उस तरह अपनी जगह’ बनाते चले कि अाप कहीं भी उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते हैं. अमिताभ बच्चन के साथ वे हर फ्रेम में वैसी ही ठसक से खड़े रहे थे जैसी ठसक से अमिताभ बच्चन शक्ति’ में दिलीप कुमार के सामने खड़े रहे थे. दीपिका का सम्मोहन कहीं उनकी चमक को दबा नहीं सका. पीकू’ इरफान की अदाकारी अौर इस कला पर उनकी पकड़ यानी क्राफ्ट पर उनकी पकड़ का बेहतरीन नमूना है. नेमसेक’ इसी इरफान का दूसरा सिरा है. वहां पर्दे पर जगह बनानी ही नहीं थीस्वंय पर्दा बन जाना था. तब्बू अौर इरफान को पर्दे पर विस्थापन लिख देना था अौर वह ऐसा लिखा उन दोनों ने कि अमिट हो गया.   

      ऐसा नहीं कि इरफान से पहले कोई कलाकार नहीं हुअा याकि इरफान ही अंतिम लकीर खींच कर गये. ऐसा कहना या सोचना बड़ी बेजा बात होगी. कलाकारों को ऐसी नजर से देखना ही कला को नहीं समझना है. कलाकार इतना ही करता है ( या कहूं कि कर सकता इतना ही है !) कि अपनी जगह बनाता है अौर उसकी कला संवेदना की फसल लगाती है. इरफान ने अपने बहुत छोटे कला-जीवन में बहुत बड़ी जगह बना ली अौर संवेदनाअों की ऐसी जरखेज फसल उगाई कि हम भरे मन से जितना चाहें काटें-बटोरें.  ( 30.04.2020)

Wednesday 22 April 2020

यह दोधारी तलवार है

कोरोना की मार से बेहाल देश से प्रधानमंत्री ने एक गहरे राज की बात कही : कोरोना धर्म-जाति का भेद नहीं करता है. मैं इस रहस्योद्घाटन से अवाक रह गया ! यह तो हम जानते ही नहीं थे. मैं खोजने लगा कि प्रधानमंत्री ने यह कब कहा : देश के नाम अपने पहले संदेश में कहा जब उन्होंने जनता कर्फ्यू का कार्यक्रम देश को दिया था अौर ताली-थाली-घंटी-शंख बजाने को कहा था नहींतब तो नहीं कहा. देश के नाम दूसरे संदेश में कहा जब उन्होंने 21 दिनों की तालाबंदी घोषित की थी अौर 9 तारीख को 9 मिनट तक दीपटॉर्च या मोबाइल की रोशनी जलाने को कहा था नहींतब तो नहीं कहा. देश के नाम तीसरे संदेश में कहा जब तालाबंदी अागे बढ़ाई अौर यह धमकी भी दी कि यदि उनके अादेशों का पालन नहीं हुअा तो कहीं-कहीं दी जाने वाली छूटों को भी तत्काल रद्द कर दिया जाएगा नहींतब भी नहीं कहा. इन तीनों संदेशों में कहीं भी कोरोना के इस धर्मद्रोही चरित्र का खुलासा नहीं किया उन्होंने.  

      फिर इतने बड़े सच का उद्घाटन कहां किया सुन रहा हूं कि ऐसा ट्वीट किया उन्होंने. अपने परम ज्ञानी अब ट्वीट पर ही ज्ञानवार्ता करते हैं. मैं सोचता रहा कि जब अाप सदेहसामने अा कर देश से बातें करते हैं अौर सारा देश टीवी के सामने होता है तब यह सच क्यों नहीं बताया गया सच का सच तो यह है न कि वह जितना फैलता है उतना ही शक्तिशाली होता है. लेकिन कुछ सच ऐसे भी होते हैं जो इसलिए बोले जाते हैं कि वे सुने भी न जाएं अौर दर्ज भी हो जाएं कि वे कहे भी गये हैं. यह सच की राजनीति है. 

      कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक हैं ये बीमारियां ! इनका वायरस पिछले लंबे समय से पाला अौर फैलाया जा रहा है. यह है घृणा अौर अविश्वास का वायरस ! नागरिकता कानून के खिलाफ चले अांदोलन के समय से घृणा का यह वायरस फैलाया जाता रहा जो अंतत: राजधानी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे के रूप में फूटा. मैं सोचता हूं कि यदि कोरोना नहीं फूट पड़ा होता तो हम क्या कर रहे होते सारे देश में सांप्रदायिक दंगों की अाग बुझाते होते अौर कुछ लोग मरते-मारतेहोते. कोरोना अाज सांप्रदायिक दंगों का वैक्सीन बन गया. 

      अाज देश में उसी धर्मविशेष के खिलाफ फिर जहर भरा जा रहा है मानो उसी धर्म के लोगों ने कोरोना का विषाणु बनाया है अौर भारत को बर्बाद करने के लिए उसे फैलाया है. कोई पूछे कि क्या इन शातिर लोगों को उस सच की जानकारी ही नहीं थी कि जिसे प्रधानमंत्री जानते हैं कि कोरोना धर्म-जाति का भेद नहीं करता है अगर उन्हें यह जानकारी थी तो वे ऐसी मूर्खता कैसे कर गये अब तो मरेंगे वे भी जैसा कि वे मर रहे हैं. अगर उन्हें इस सच की जानकारी नहीं थी तो वे वैसे शातिर नहीं हैं कि जैसा उन्हें बताने की कोशिश हो रही है. दिल्ली की तब्लीगी मरकज अादि में जो चूक हुई वह वैसी ही है जैसी चूक हर धर्मांधता करती है. हिंदुअों के कितने अायोजन कोरोना के इस दौर में भी हुए हैंहो रहे हैं जिनमें ‘ अापकी बताई कोई सावधानी’ नहीं बरती जा रही है. उसकी चर्चा न सरकार करती हैन समाचार चैनल बोलता है. समाचार अौर सरकारी प्रचार की जैसी जुगलबंदी इन दिनों चल रही है उसके बाद तो यही देखना है कि इस देश में कलम कब सर उठा कर चल पाती है ! 

      लेकिन एक राज की बात मुझे भी मालूम हुई है. घृणाअफवाह अौर अविश्वास का वायरस  भी न देशोंन इंसानों के बीच भेद करता है. यह जब फैलता है तब सिर्फ शिकार करता हैशिकार की धर्म-जाति-रंग-भाषा-भूषा नहीं देखता है. वह ग्राहम स्टेंस को उनके दो मासूम बच्चों के साथ बंद गाड़ी में अाग के हवाले कर देता है अौर हम मरने अौर मारने वालों के धर्म का पोथा बांचते रह जाते हैं. यह वायरस जब फैलता है तब मुंबई जैसे महानगर की धड़कनों में बसने वाले पालघर में 3 निरपराध लोगों की हत्या कर डालता है. उन 3 में 2 साधु थे अौर तीसरा था उनकी गाड़ी का ड्राइवर. अभागी घटना की खबर अाई अौर घृणा का राजनीतिक वायरस सक्रिय हो गया. दिल्ली से भाजपा के भोंपू संबित पात्र नेमुंबई से पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अौर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अादित्यनाथ ने इसे हिंदू साधुअों की योजनापूर्वक की जा रही हत्या करार दिया अौर उन सबको कठघरे में खड़ा किया जो संविधाननागरिक अधिकार की पैरवी अौर सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं. जहरीली अावाज में पूछा गया कि ये लोग अब क्यों नहीं कुछ बोल रहे अपने सवाल का जवाब संबित पात्र ने खुद ही दिया : अब ये लोग कैसे बोलेंगेहिंदू साधुअों की किसे फिक्र है !! 

     सांप्रदायिकता के सवाल पर महाराष्ट्र सरकार अौर उसके मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की छवि भी कुछ साफ नहीं रही है लेकिन सत्ता का जादुई पत्थर सबको रगड़ डालता है. उद्धव ठाकरे ने भी नये कपड़े पहन लिए हैं. उन्होंने तुरंत ही मामले की सच्चाई देश के सामने रख दी. पता चला कि यह सांप्रदायिकता का नहींमियां की जूती मियां के सर वाला मामला था. पिछले दिनों मॉबलिंचिंग नाम का जो नया वायरस बना हैयह उसी का करिश्मा था. इस हथियार से अब तक कितने ही मुसलमानों की जानें ली गई हैं लेकिन एक भी मामले की कानूनी जांच अौर एक को भी कानूनी सजा नहीं हुई है. लेकिन घृणा का वायरस तो फैला हुअा है. पालघर में पिछले दिनों से बच्चाचोर की अफवाह का वायरस फैलाया गया . ये सभी एक-से ही गुण-धर्म के वायरस हैं. दोनों बेचारे साधु अौर उनका ड्राइवर इसी वायरस के शिकार हुए. हत्यारे यदि इस वायरस के शिकार नहीं होते तो इन्हीं साधुअों की चरणरज लेते पाये जाते. जब अफवाह-वायरस के शिकार लोग दोनों साधुअों को बच्चाचोर समझ कर उनकी अंधाधुंध पिटाई कर रहे थेपुलिस वहां नहीं थीऐसी बात नहीं थी. वह वहीं थी लेकिन वह अपनी जान बचा रही थी. वह तब भी ऐसा ही करती थी जब मारा जा रहा अादमी हिंदू नहीं हुअा करता थावह अाज भी वैसा ही कर रही है. अाप वही काट रहे हैं जो अापने बोया है. हम दोनों तरफ से कट रहे हैं क्यों कि हमें ऐसी फसल मंजूर नहीं है. ( 22.04.2020)

Monday 6 April 2020

यह सांप्रदायिकता कोरोना है

            अभी जब मैं यह लिख रहा हूंदेश-दुनिया में कोरोना अपनी कहानी के अगले पन्ने लिख रहा है. भारत में उसने अभी तक 2056 लोगों को दबोचा है अौर 53 लोगों को उठा ले गया है. आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं है लेकिन यह जिस तेजी से रंग बदल रहा है उससे यह जरूरी हो गया है कि हम आपस में न लड़ेंबीमारी से लड़ें. लेकिन आदमी का दुर्भाग्य तो यही है न कि वह आपस में लड़ कर भले कट मरे लेकिन लड़ता है जरूर ! 

            दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में मुसलमानों की एक रूढ़िवादी जमात तबलीगी जमात की अंतरराष्ट्रीय आॉफिस है- निजामुद्दीन मरकज ! देश का जागरूक,तरक्कीपसंद मुसलमान समाज इससे कोई निस्बत नहीं रखता है. वे इसे मुसलमानों का अार.एस.एस.कहते हैं. इसी मरकज से कोरोना से संक्रमित लोगों की बड़ी संख्या मिली है. इतनी बड़ी संख्या में कोरोना संक्रमित लोग किसी जगह से दिल्ली में अब तक नहीं मिले थे. इसी 13-14 मार्च 2020 को इस अंतरराष्ट्रीय केंद्र पर देशी-विदेशी 4000 लोगों का धार्मिक सम्मेलन हुआ था. सम्मेलन में आए प्रतिनिधि बाद में देश के विभिन्न इलाकों में गये. यहां से कोरोना के फैलाव की वह भयंकर कहानी शुरू हुई जो अब फैलती हुई दानवाकार हुई जा रही है. लोग मरे भी हैंअलग-थलग भी कर दिए गये हैं अौर सारे देश में छानबीन हो रही है कि इन्होंने कहांकितनों को संक्रमित किया है. यह असंभव-सा काम संभव बनाने में वे लोग जुटे हैं जिन्हें इससे भी जरूरी काम करने थे. कुछ लोगों की शैतानियत भरी अंधताबेहद गैर-जिम्मेवाराना व्यवहार अौर धार्मिकता की अधार्मिक समझ ने अाग में घी डालने का काम किया है. तबलीगी जमात ने पूरे होश-अो-हवाश में यह काम किया है. मरकज के प्रमुख हजरत मौलाना शाद को हम सुनें व उनका रवैया देखें तो लगता ही नहीं है कि इन महाशय का अक्ल से कोई नाता भी है. यह मानसिक कोरोना है. नहींयह जमात कोरोना बीमारी फैलाने में नहीं लगी थीयह अपने लोगों को मानसिक कोरोना की जकड़ में रखने में लगी रही हैलगी हुई थी. इन्हें अपने जमात के इस अंधविश्वास को अौर गहरा करना था कि खुदाकुरान अौर मस्जिद अौर उनका मौलाना सब किसी भी ‘ शक्ति’ से ज्यादा शक्तिमान हैं. 

            इनका धंधा ही धोखे पर चलता है जैसे सारे धर्म-संगठनों का चलता है. ऐसे अंधों में भी ये सबसे बड़ी अंधता के शिकार हैं. अब जब कि सभी पकड़े गये हैंपकड़े जा रहे हैं अौर इनका निजामुद्दीन मरकज’ बंद कर दिया गया हैहमें यह पूरा मामला दिल्ली सरकारदिल्ली पुलिस अौर भारत सरकार के हवाले कर देना चाहिए अौर अपना पूरा ध्यान करोना से सुरक्षादूसरों की मदद अौर सावधानियां रखने में लगाना चाहिए. यही सब कोरोना से लड़ने अौर उसे हराने के तरीके हैं. 

            लेकिन ऐसा कैसे हो भला देश में अविकसित बुद्धि वाले अंधे बच्चों’ की संख्या कम तो नहीं है ! इन अंधे-अल्पबुद्धि बच्चों’ में चालाक लोगों ने इतना जगह भर रखा है कि उसने इस सारे मामले को हिंदू-मुसलमान में बदल डाला है. अब तक जो कोरोना था वह देखते-देखते सांप्रदायिक हो गया. इसकी मारक क्षमता हजार गुना बढ़ गई है. तबलीगी जमात के बारे में कहते हैं कि यह जमीन के नीचे (कब्र) अौर अासमान के ऊपर (स्वर्ग) की जिंदगी की बात करती है. लेकिन मुसलमान हों कि हिंदू कि कोई अौरसबका समाज तो धरती पर रहता है न ! उसे धरती पर कैसे जीना है अौर धरती पर कैसे मरना हैयह बताना-सिखाना सच्चा धर्म हैयही है धार्मिक काम है. जिन्हें नीचे अौर ऊपर की फिक्र है उन्हें जल्दी से वहीं जा करधरती पर रहने वाले समाज का इंतजार करना चाहिए.  

            हमें यह देखना अौर समझना ही चाहिए कि संकट के इस दौर में हमें वही अौर उतना ही कहना-लिखना-दिखाना-बताना है जितना संकट का मुकाबला करने में सहायक हो. बाकी बातें दबा देने कीपीछे कर देनी की हैंठीक वैसे ही जैसे सांप्रदायिक दंगों के वक्त संप्रदायों का नाम नहीं लेने की समझदारी की जाती है. अाखिर कोरोना से ठीक पहले दिल्ली के प्रायोजित दंगे के वक्त भड़काऊ भाषण देनेवाले अपराधियों पर मुकदमा चलाने की बात अदालत ने क्यों की थी क्योंकि किसी भी अाग में घी डालना अमानवीयता हैअनैतिकता है. कोई पूछे कि मुंबई के वर्ली पुलिस कैंप में 800 पुलिस का जमावड़ा क्यों था कि जिनमें से एक कांस्टेबल को कोरोना निकला है अौर अब सबको अलग-थलग किया जा रहा है अौर ये 800 पुलिसकर्मी अपनी जिम्मेवारी निभाने कितनी जगहों परकितने लोगों के बीच गयेकोई पता कर भी सकता है क्या लेकिन जब अापने पुलिस को ही  समाज में स्वतंत्र छोड़ा है अौर उसे ही हर जिम्मेवारी निभानी है तो उन बेचारों के कैंपों काउनके जमावड़े का अाप विरोध कैसे कर सकते हैं मुंबई का ही वर्ली कोलिवाडा वहां का सबसे खतरनाक संरक्षित इलाका घोषित किया गया है अौर वहीं से निकल कर तीन लोग सैर करते पकड़े गये तो कोई हंगामा मचाए कि क्या अौर कैसी निगरानी-व्यवस्था है सरकार की अौर मध्यप्रदेश में विधायकों को जिस तरह भेंड़-बकरियों की तरह होटलों-होटलों में घुमाया गयाखरीदा गया अौर फिर सरकार गिराने के लिए उनका जमावड़ा किया गयाक्या वह कोरोना के खतरे से सावधान करने का तरीका था अौर अयोध्या में रामलला की मूर्ति का मुख्यमंत्री द्वारा स्थानांतरण इसी वक्त करने की योजना क्यों बनी अौर कैसे उसकी अनुमति हुई सवाल तो यह भी किया जाना चाहिए कि हरिद्वार जैसे स्थानों पर भीड़ लगी है अौर वहां से निकल कर लोग यहां-वहां जा रहे हैं तो वह कैसे हो  रहा है क्या ये सारे सवाल हंगामा करने लायक नहीं हैं हैंलेकिन क्या अभी हंगामा किया जाना चाहिए नहींअभी अपनी सामाजिक व निजी कमजोरियों पर पछताते हुए हमें सावधानी अौर एकता की ही बात करनी चाहिए न इस कोरोना-काल से जो बचेंगे वे इन सारे मामलों की जांच भी करें अौर सजा भी दें अौर अागे के यम-नियम भी बनाएं - जरूर बनाएंलेकिन अभी तो इसे अधिकारियों के हाथ में सौंप करहमें अभी की चुनौती का एकाग्रता से मुकाबला करना चाहिए !
  
            वे सारे लोगसंगठन अौर चैनल अौर एंकर देश के लिए कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक हैं जो इसे सांप्रादायिक कोरोना में बदल रहे हैं. कहते हैं कि इस कोरोना विषाणु की उम्र 14 दिनों की होती हैइतिहास बताता है कि सांप्रदायिक कोरोना की उम्र हजारों साल की होती है. लाखों के थाली व ताली बजाने अौर दीप जलाने से भी यह मरता नहीं है. इसके लिए मन के दीप जलाना जरूरी है. ( 05.04.2020)

Sunday 5 April 2020

‘क’ से कोरोना नहीं, ‘क’ से करुणा

अपनी रोज की चिर-परिचित दुनिया अपनी ही आंखों से बदली हुईबदलती हुई दिखाई दे रही है. कल तक जो निजी शक्ति के घमंड में मगरूर थे अाज शक्तिहीन याचक से अधिक व अलग कुछ भी बचे नहीं हैं. बच रहे हैं तो सिर्फ अांकड़े… मरने के अौर मरने से अब तक बचे रहने के.

            कोई हाथ जोड़ कर माफी मांग रहा है जबकि उसकी सूरत व सीरत से माफी का कोई मेल बैठता नहीं है… असहायता व मौत सामने देख कर कितने ही हैं जो महानगरों से भाग चले हैं बिना यह जाने कि वे एक मौत से निकल करदूसरों की मौत लिए दूसरी मौत के मुंह में ही जा रहे हैं… अौर शक्ति की ऊंची कुर्सी पर बैठा कोई उनसे कह रहा है कि अाप मेरा शहर छोड़ कर मत जाइए… हम अापके लिए खाने-पानी अौर निवास की व्यवस्था करेंगे… जनाबयदि अापने यह पहले ही कहा होताकिया होता तो अाज इतने कातर बनने की नौबत उनकी या अापकी अाती ही क्यों… पद की ताकत का नशा उतरता है तो सब कुछ इतना ही खोखला अौर कातर हो जाता है … अाप देखिए नदुनिया के पहले अौर दूसरे नंबर की इकॉनमी का दावा करने वालों के चेहरे पर हवाई उड़ रही हैचेहरे की रंगत बदली हुई है. कोरोना का मुखौटा लगा कर मौत ने सबसे गहरा वार उन देशों पर किया है जो अाधुनिक सभ्यता व विकास के सिरमौर बने फिरते थे… अौर जिनका उच्छिष्ट बटोरने को हम हर दूसरे दिन किसी-न-किसी यात्रा पर निकलते थे… अौर चंपू लोग कहते थे कि यह नई डिप्लोमेसी है … वहां अब सब कुछ लॉकडाउन है. न गले लगने वाला है कोईन लगाने वाला ! अब तो कह रहे हैं अाप कि दो गज की दूरी से हंसना-बोलना ही अच्छे इंसान की पहचान है. अौर वह बेचारा बहादुरशाह जफर ? … दो गज जमीं भी ना मिली कूए-यार में !           

            ऐसी दुनिया पहले कब देखी थी हमने कभी दादी-नानी बहुत याद कर-कर के बताया करती थीं कि कैसे उनके गांव में हैजाप्लेग फैला था अौर फिर कैसे गांव ही नहीं बचा थाकि कैसे एक दिन बैलगाड़ी पर लाद कर अपना गांव वे सब कहीं निकल गये थे जो निकलने के लिए जिंदा बचे थे… उनकी यादें भी अब उस बहुत पुराने फोटोग्राफ-सी बची थीं जिनका रंग बदरंग हो गया है… जो समय की मार खा कर फट गया है… उसमें जो दीखता है वह अाकृतिहीन यादों का कारवां है जिसे वे ही पहचान पाते हैं अौर कह पाते हैं जिन्होंने उसे कभी ताजादमरंगीन देखा था… दादी-नानी कहती थीं कि हम तब बच्चा थे न … लंबे समय बाद जब नाना-दादा कोई अपना गांव-घर देखने वापस गये थे तो उन्हें वहां अपना पूरा गांव वैसा ही खड़ा मिला था जैसा छोड़ कर वे गये थे… उनकी बातें सुनते-सुनते अचानक ही मेरी समझ में यह बात अाई कि जहां अादमी नहीं होता है वहां कुछ भी खराब या बर्बाद नहीं होता है … मैंने यह कहा भी… यादों को समेटती दादी-नानी ने मेरी बात नहीं काटी ( वे लोग कभी कुछ काटते कहां थेजोड़ते थे !)… तो जोड़ा : नहीं बेटा… अादमी नहीं है जहां वहां घर-मकान तो हो सकते हैंजिंदगी कहां होती है … मैंने फिर समझा कि अादमी होना जरूरी है… तो बात अागे बढ़ी … तुम्हारे दादा-नाना को गांव के सारे घर-झोपड़े वैसे ही मिले जैसे वे थे… बस नहीं मिला तो कोई अादमी कहीं नहीं मिला… जो मरे अौर जो मरने से डर कर गांव छोड़ कर चले गयेगांव के लिए तो वे सब मर गये न! … तो गांव अपने घर-झोंपड़े संभाले वैसा ही खड़ा था जैसे इंतजार में हो कि कोई अाए तो जीवन अाए… वे कहती थीं कि गांव में कहीं कोई कुत्ता या चिड़िया भी अापके दादा-नाना को नहीं दिखाई दिया… फिर खुद को संभालती हुई कहतीं कि अादमी नहीं तो कुत्ता-बिल्ली भी क्या रहेगीतो कोरोना पहला नहीं है जो अादमी को जीतने या अादमी को हराने अाया है… पहले भी कई दफा ऐसा हुअा है.  

            बात कुछ यों भी समझी जा सकती है कि सृष्टि के अस्तित्व में अाने के बहुत-बहुत बाद अादमी का अस्तित्व संभव हुअा था… यह प्राणी दूसरे प्राणियों से एकदम अलग था… यह रहने नहींजीतने अाया था… इसे साथ रहना नहींकाबू करना था… लेकिन सारे दूसरे प्राणीवायरस या विषाणु अादि कैसे समर्पण कर देते ! सारी सृष्टि अासानी से अादमी के काबू में नहीं अाई. जबजिसेजहां मौका मिला उसने अादमी पर हमला किया. अाप याद करें तो पिछले ही कुछ वर्षों में कितने ही विषाणुअों के हमले की अाप याद कर सकते हैं. सबने इसका नामो-निशान मिटाने की कोशिश की. कितनी ही महामारियों ने इसे गंदे दाग की तरह धो कर धरती से साफ करना चाहा… प्रकृति ने इसे हर तरह की प्रतिकूलता में डाला … इसने हर तरह की लड़ाई लड़ कर अपना अस्तित्व बचाया… हर जीत के साथ इसे लगने लगा कि अब सारा कुछ उसकी मुट्ठी में है. बसयह मुट्ठी ही सबसे बड़ा अभिशाप हो गया ! … अादमी ने मान लिया कि सब कुछ उसकी मुट्ठी में है. वह चाहे जैसे जीएगाउसकी मर्जी… कि तभी कोरोना ने हमला कर दिया… यह उसी लड़ाई का नया मोर्चा है. उस दिन अमरीका में रह रहे किसी भारतीय डॉक्टर ने कहा कि हम हरा तो इसे भी देंगे ही भले इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़े ! … यह जीतने की अौर हराने की भाषा ही हमारी अादि भाषा है. यह सबसे बड़ा विषाणु है. यह भाषायह नजरयह नजरिया बदला होगाबदलनी होगी हमें हमारी प्रकृति !

            जीतना अौर हराना नहींछीनना अौर फिर दया करना नहींहम सीखें करुणा ! सबके प्रतिप्रकृति के छोटे-बड़े हर घटक के प्रति करुणा ! दया नहींउपकृत करना नहींअभय देना नहींकरुणा से जीना. दया तब तक रचनात्मक नहीं होती है जब तक दया मात्र रहती है - इसे पात्र की जरूरत पड़ती है. कोई चाहिए  कि जिस पर हम दया करें. दया जब सक्रिय होती है तो करुणा में बदल जाती है. करुणा में करना जरूरी है. जो करणीय नहीं हैवह करुणा नहीं है. जब गांधी कहते हैं कि प्रकृति से हमें उतना ही लेने का अधिकार है जितना कम-से-कम पर्याप्त हैतब वे हमसे करुणा की भूमिका में जीने की बात कहते हैं. अौर फिर वे यह भी कहते हैं कि वह जो अावश्यक अल्पतम लिया है तुमनेवह भी प्रकृति को वापस करना हैयह याद रखना. 

            हमारी यह सर्वग्रासी सभ्यता लोभ अौर हिंसा की प्रेरणा से चलती है. दूसरे से अधिक अौर दूसरे के बिना ! सबसे बड़ासबसे ज्यादासबसे ज्ञानीसबसे ताकतवर जैसे हमारे प्रतिमान करुणा को काटते हैं. सबके बराबरसबके लिए अौर सबके साथ जीना सीखना करुणा की पहली सीढ़ी अौर अंतिम मंजिल है. मनुष्य को सीखना होगा कि जरूरत भर उत्पादन होगाजरूरतें बढ़ाने के लिए कोई उत्पादन नहीं होगा. ऐसा होगा तो चीन को अपना पागल उत्पादन अौर हमें उसे समेटने की अपनी पागल होड़दोनों बंद करनी होगी. जहरीले रसायनों को पी कर जीने वाले विकास को विनाश मानना होगाअौर उसे बंद करना होगा - एकदम अौर अभी ! यह सब बंद करने के बाद जो बचेगा वही असली अौर स्वस्थ विकास होगा. मान लीजिए कि धरती पर उतना ही विकासउतनी ही सुविधाउतने ही संसाधन हमारे हिस्से के हैं. इसलिए तो गांधी समझा रहे थे : लाचारी की नहींस्वेच्छा से स्वीकारी गरीबी ! 

            अाज के विकास से मालामाल हुअा कोई काइयां तुरंत पूछेगा : दुनिया की इतनी बड़ी जनसंख्या की भूख अापकी करुणा से तो नहीं मिटेगी फिर यह मान कर कि उसका यह रामवाण व्यर्थ नहीं जाएगाबड़ी अाक्रामकता से वह अपने समर्थकों को उकसाएगा. हां,हां करने वाली बड़ी जमात खड़ी हो जाएगी. लेकिन कोई तो होगा मुझ-सा जो उससे पूछेगा : जरा बतानाक्या यह सारी अापाधापी भूख मिटाने के लिए है कितनों की कितनी जरूरतें तुम पूरी करते हो अौर कितनी जरूरतें पैदा करते होयह हिसाब भी लगाया है कभी तुमने-हमने सोचा है कभी कि दुनिया की इतनी बड़ी जनसंख्या को लोभ व हिंसा से विरत कर दो तो इंसानी जरूरत कितनी थोड़ी-सी बचती है देखो नकोरोना-काल में हम सब कितने कम में अपना काम चलाने पर मजबूर हो गये हैं काम चल रहा है न ? … अौर मजबूर हो गये हैं तो यह समझ भी पा रहे हैं कि इतने में काम चल सकता है. जीना बहुत महंगा सौदा नहीं है यदि जीना ही धन्यता है. हड़पनासब कुछ पर धाक जमाना अौर अपने लिए अौर अपनों के लिए सब कुछ समेट लेना न हो तो कितना चाहिए इज्जत की जिंदगी अौर ईमान की रोटीबस ! यह तुम्हारी बनाई दुनिया में असंभव-सी बात है. लेकिन तुम्हारी सक्रिय करुणा से बनी दुनिया में बात यहीं से शुरू होती है. यह करुणा सबको संपन्न भी कर सकती हैसंतुष्ट भी. गांधी फिर कहते हैं : प्रकृति हममें से एक का भी लालच पूरा नहीं कर सकती हैलेकिन जरूरत पूरा करने से वह कभी चूकेगी नहीं. तो बदलना क्या है अपना प्रतिमान ! जो सब कुछ हड़प करसबसे अागे खड़ा हो गया है वह हमारा प्रतिमान नहीं हैजो सबसे पीछे खड़ा है अौर सबसे अधिक बोझ उठाए हैवह हमारा प्रतिमान है. कतार के इस सबसे अंतिम अादमी का जिस समाज में स्वाभिमानपूर्ण जीवन संभव व स्वीकार्य होगावह करुणामय समाज ही होगा.  वहां तुम न चाहो तो भी सब एक ही दरी पर अा जाएंगेअौर तुम जिसे खोज रहे थे वह समता भरा अानंद भी तुम्हारे हाथ में होगा. 

            कोरोना से ग्रसित यह समाज हमसे कह रहा है कि इसे कोरोना से बच कर निकलना है तो वह करुणा के सहारे ही संभव है. इसलिए बारहखड़ी बदलो. खुद को भी अौर अपने बच्चों को भी सिखाअो : ’ से करोना नहीं, ‘’ से करुणा !! ( 03.04.2020 )