खेल खेल में

विराट का खतरा


वैसे तो खेल अौर राजनीति में कोई सीधा रिश्ता होता नहीं है या कहूं कि होना नहीं चाहिए लेकिन हुअा ऐसा कि जिस दिन सरकार ने राष्ट्रपति-पद का अपना उम्मीदवार घोषित किया, उसी दिन अनिल कुंबले ने चैंपियंस ट्रॉफी में पराजित हुई भारतीय क्रिकेट टीम के मुख्य कोच के पद से इस्तीफा दे दिया. पाकिस्तान के हाथों मिली शर्मनाक पराजय के ठीक दो दिन बाद अौर वेस्टइंडीज के दौरे पर टीम के जाने से सिर्फ चार दिन पहले दिए इस इस्तीफे ने भारतीय क्रिकेट की जैसी किरकिरी की है वैसी तो श्रीनिवासन एंड कंपनी अौर फिर अनुराग ठाकुर एंड कंपनी ने भी नहीं की थी. जैसे राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में सरकार ने रामनाथ कोविंद को चुन कर कई राजनीतिक समीकरणों को एक साथ बनाने या बिगाड़ने का काम किया है, उसी प्रकार अनिल कुंबले ने मुख्य कोच के पद से इस्तीफा दे कर कई तरह के संकेत दिए हैं अौर कितने ही सवाल खड़े कर दिए हैं. 

इस इस्तीफे का पहला संकेत तो यही है कि भारतीय क्रिकेट की सलाहकार समिति को, जिसमें सर्वश्री सचिन तेँडुलकर, सौरभ गांगुली अौर वी.वी.एस. लक्ष्मण अाते हैं, अपनी जिम्मेवारी से तुरंत हट जाना चाहिए. भारतीय क्रिकेट के शलाकापुरुषों की जब भी गिनती की जाएगी, उसमें इन तीनों का शुमार होगा अौर इन तीनों को भारतीय क्रिकेट ने अौर क्रिकेटप्रेमियों ने जितना नाम अौर नामा दिया है, उसका दूसरा उदाहरण खोजना मुश्किल है. खेल-जीवन की समाप्ति के तुरंत बाद भारतीय क्रिकेट की बागडोर जिस तरह इन तीनों को सौंप दी गई, विश्व क्रिकेट में ऐसा भी शायद ही हुअा होगा. इसलिए इन तीनों पर यह जिम्मेवारी थी कि वे व्यक्तियों का चयन ही नहीं करते, उन स्वस्थ परंपराअों का चयन भी करते व संरक्षण भी करते जिनसे भारतीय क्रिकेट लगातार वंचित होता रहा है. इन्हें ही देखना था कि अाईपीएल जैसी प्रतियोगिताअों ने भारतीय क्रिकेट का जितना भला किया है, उतना ही बुरा भी किया कि इसे मूल्यविहीन बाजार में ला खड़ा किया है. ऐसी स्पर्धाअों ने खिलाड़ियों को वैसे मौके दिए हैं जो बिरलों को मिलते हैं, वैसा धन दिया है जैसा वे सपनों में भी नहीं सोच सकते थे; अौर इन सबसे पैदा होने वाला वह तेवर दिया है जो नाक पर मख्खी नहीं बैठने देता है. क्रिकेट की परंपराएं नहीं दीं, संयम व सादगी की जरूरत नहीं बताई. भारत की राष्ट्रीय टीम में इनकी कीमत भी उतनी ही है जितनी किसी की बैटिंग या बोलिंग की होती है. सचिन-सौरभ-लक्ष्मण की तिकड़ी अपने खिलाड़ियों को यह बात समझाने में विफल ही नहीं रही बल्कि उसने इनके सामने हथियार डाल दिए. इस हारी हुई तिकड़ी को अब मैदान से हट जाना चाहिए.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय क्रिकेट की गाड़ी को पटरी पर लाने का काम जिस विनोद राय समिति को सौंपा गया है, अब उसे भी जवाब देना चाहिए कि बीसीसीअाई के मैदान में यह सब हो क्या रहा है ? रामचंद्र गुहा ने इस समिति से इस्तीफा दे दिया लेकिन न न्यायालय ने, न विनोद राय ने देश को बताने की जरूरत समझी कि यह क्यों हुअा. क्रिकेट तो एक संपूर्ण खेल है जिसकी अपनी परंपराएं हैं, अपनी नैतिकता है. एक वक्त राजाअों-नवाबों-धनपतियों ने इसमें घुस कर इसे बहुत पतित किया, फिर राजनीतिज्ञों ने अपने यहां की गंदगी लाकर इस मैदान में बिखेरी अौर फिर बाजार ने इसे माल में बदल दिया. बाजार के पास बेशुमार धन होता है अौर हमने उसके ताल पर उन सबको नाचते देखा कि जिनके खेल पर हम नाचते थे. इनका अंत ऐसे हुअा कि न्यायालय ने सख्ती से बागडोर संभाल ली अौर विनोद राय एंड कंपनी को सौंप दी. इस समिति को भी देश को यह बताना चाहिए कि भारतीय क्रिकेट टीम ने भीतर यह क्या हुअा अौर कैसे कोई इन नतीजे पर पहुंचा कि कुंबले का सर कलम करना चाहिए अौर विराट का सलामत रखना चाहिए ? अगर यह समिति खामोश रहती है तो सर्वोच्च न्यायालय की अक्षमता उजागर होती है.
सवाल यह नहीं है कि विराट या कुंबले में से किसकी चलनी चाहिए; सवाल यह है कि कोच अौर कप्तान की जो लक्ष्मण-रेखा बनी हुई है उसे किसने पार किया ? जिसने यह किया हो उसे कदम वापस खींचने होंगे. कुंबले भारतीय क्रिकेट का जो श्रेष्ठ है उसके मजबूत प्रतीक हैं. खिलाड़ी के रूप में भी, प्रशासक के रूप में भी अौर खालिस इंसान के रूप में भी कुंबले जैसी ऊंचाई कम ही छू पाते हैं. विराट कोहली के बारे में ऐसा कुछ भी हम नहीं कह सकते. खिलाड़ी के रूप में वे एक असाधारण प्रतिभा हैं जिसे अभी खुद को सिद्ध करना है. अब तक उनके खेल में वह तराश नहीं है जो सचिन के पास थी; वह कला नहीं है जो लक्ष्मण के पास थी; वह धीरज नहीं है जो द्रविड के पास था अौर कप्तानी की वह साहस भरी बारीकी नहीं है जो सौरभ के पास थी. संभावनाएं उनमें सबकी की हैं. उसे सिद्धि तक पहुंचाना उनकी अपनी साधना का विषय तो है ही, भारतीय क्रिकेट के अनुशासन का भी विषय है. इसलिए कुंबले इस्तीफा दे दें क्योंकि विराट को उनसे दिक्कत थी ऐसा फैसला किस स्तर पर हुअा ? ‘हमें तो पता नहीं’- ऐसा कह कर सचिन-सौरभ-लक्ष्मण अपनी गर्दन नहीं बचा सकते अौर न विनोद राय अौर न सर्वोच्च न्यायालय ! ऐसा नहीं है कि कुंबले को हटाया नहीं जा सकता है. बीसीसीअाई उनका अनुबंध नया न करने का पूरा अधिकार रखती है. लेकिन सलाहकार समिति अनुबंध बढ़ाने की बात करती है अौर कप्तान के दवाब में उन्हें इस्तीफा देना पड़ता है, यह कैसे स्वीकार किया जाए

विभाजन एकदम साफ  है - मैदान में कप्तान ही पहला अौर अंतिम अादमी है जिसकी चलनी चाहिए; मैदान के बाहर कप्तान व कोच की जुगलबंदी है जिससे टीम को संयत व सक्रिय किया जाना है; अौर अंतत: कोच है कि जिसके प्रति कप्तान भी जवाबदेह है. अाज की स्थिति में हम देखें तो हमारे पास विराट का विकल्प है, कुंबले का नहीं है. अजिंक्य रहाणे ने धर्मशाला में विराट की जगह अत्यंत कुशल व संयत कप्तानी की थी अौर जीत कर दिखाया था. रोहित शर्मा भी जगह भर ही सकते हैं. अौर कुछ न हुअा तो अभी धोनी हमारे पास ही हैं. मतलब तत्काल कोई संकट खड़ा हो नहीं सकता है. अत: कुंबले अौर विराट के बीच यदि कोई मामला था तो विराट से बड़ी अासानी से कहा जाना चाहिए था कि साथ काम करने के रास्ते अापको खोजने हैं, क्योंकि कुंबले तो अभी हटाए जाने वाले नहीं हैं.

चैंपियंस ट्रॉफी की हार की बात करें. जब पिच अनजाना था अौर उसमें गेंदबाजों के लिए कुछ भी खास नहीं था फिर विराट ने बैटिंग क्यों नहीं ली ? फिर क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि फाइनल में पाकिस्तान जीता तो अपनी यह हार विराट के कारण हुई ? टॉस जीत कर फील्डिंग चुनना, पाकिस्तान की घबराई बल्लेबाजी को स्थिर होने का समय देना, अपने प्रभावी हो रहे तेज गेंदबाजों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर, उन्हें भोथरा बना देना, स्पिनरों का बकवास इस्तेमाल करना अौर मैच को हाथ से फिसलते देखते रहना - यह सब उस रोज हुअा. हमारा कप्तान एकदम सन्नाटे में था. उसी सपाट पिच पर पाकिस्तानी स्पिनरों ने हमें परेशान किया अौर तेज गेंदबाजों ने तो हमें उखाड़ ही फेंका. उस एक मैच में विराट लगातार तीन बार अाउट हुए ! वैसे कांटे के मुकाबले में, वैसी बुरी हालत में जिस पर सारा दारोमदार हो वैसा जिम्मेदार बल्लेबाज पहले जीवन-दान के बाद एकदम सतर्क हो जाता है, रक्षात्मक रवैया अपना लेता है, क्योंकि उसे मालूम है कि उसका जाना टीम को बिखेर देगा. लेकिन विराट जैसे चुनौती दे रहे थे कि मेरा कैच कौन ले सकता है ! मुहल्ला स्तर से भी बुरा प्रदर्शन था विराट का उस दिन ! कोई भी कोच हो, ऐसे प्रदर्शन के बाद यदि कप्तान की खिंचाई नहीं करता है, तो वह कोच बनने लायक नहीं है. हमारे यहां कप्तान होना या कप्तान बदलना ऐसा बड़ा मामला क्यों बना दिया जाता है ! प्रदर्शन के अाधार पर या खेल की जरूरत के अाधार पर कप्तान कभी भी बदला जा सकता है.  

सचिन-सौरभ-लक्ष्मण की तिकड़ी को यह कहना ही चाहिए था कि विराट कुंबले के साथ खेलने का मन भी बनाए अौर वातावरण भी या फिर हमें नया कप्तान चुनना होगा. विराट की प्रतिभा अौर उनका तेवर दोनों ही टीम अौर खिलाड़ियों के लिए अपशकुन बन सकते हैं यदि उनके बीच कोई कुंबलेनहीं रहा (  21.06.2017 ) 


कैसियस क्ले उर्फ मुहम्मद अली 
मुक्के का संगीत 

कैसियस क्ले उर्फ मुहम्मद अली गये - वहीं गये, जहां सभी जाते हैं अौर जहां से फिर कोई वापस नहीं अाता है ! यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि पिछले काफी वर्षों से वे न होने जैसी हालत में ही थी. पार्किंसंस की लपेट अौर विस्मृति का घटाटोप उन्हें जिस धुंधलके में ले गया था वहां से उन्हें बाहर लाना अाधुनिक चिकित्सा विज्ञान के बस का नहीं था अौर उन जैसे व्यक्ति को वैसी हालत में रखना अब प्रकृति को भी मंजूर नहीं था. इसलिए वे गये … लेकिन हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि क्ले या अली खेल की दुनिया से बाहर निकले तो क्यों अौर कैसे ? उन्होंने यह समझा अौर फिर हमें दिखलाया कि दुनिया खेल नहीं है अौर यह भी कि प्रतिबद्धता से जीवन जीना ही असली खेल है. खेल का जीवन अौर जीवन का खेल खेलने वाले मुहम्मद को विदा देता यह अालेख हमें याद दिलाता है कि खेल कभी खत्म नहीं होता, खेलने वाला चािहए. 

अाखिरी पड़ाव पर जब ताबूत पहुंचा तब वहां इतने लोग जमा थे कि जितने कभी किसी खिलाड़ी को विदा देने जुटे हों, ऐसा याद नहीं अाता ! ६ जून २०१६ केंटुकी के लुइसविले के फ्रीडमहॉल तक पहुंचने में २३ मील का फासला तै करना पड़ा था अौर अनुमान है कि तब रास्ते के दोनों अोर कोई ५० हजार लोग खड़े थे. हॉल में २२ हजार लोगों का जमावड़ा था अौर अब वहां तिल धरने की जगह नहीं थी. अंतिम श्रद्धांजलि पढ़ने जब अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति अौर संभवत: भावी राष्ट्रपति के पति बिल क्लिंटन खड़े हुए तो जैसे समय ने करवट ली. अमरीका की सबसे ताकतवर कुर्सी पर बैठ चुका यह अादमी अाज उस अादमी के सामने सर झुका रहा था जिसे झुकाने अौर तोड़ने में अमरीकी प्रशासन ने कभी पूरी ताकत झोंक दी थी. अौर वह अादमी था क्या ? … एक खिलाड़ी … एक मुक्केबाज… एक अश्वेत अमरीकी… जो बॉक्सिंग के रिंग में उतरने के बाद से लगातार रिंग के बाहर-भीतर की  दुनिया बदलने में लगा रहा. किसी ने कहा भी कि जैसे पिकासो के बाद पेंटिंग की दुनिया वैसी नहीं रही, जैसे माइकल जैक्सन के बाद नृत्य की दुनिया वैसी नहीं रही वैसे ही मुहम्मद अली के बाद बॉक्सिंग की दुनिया वैसी नहीं रही ! 

वैसे देखें तो मुक्केबाजी का खेल एक ऐसा खेल रहा है जिसे बहुत सारे लोग खेल मानने को ही तैयार नहीं होते हैं. अादमी के भीतर का तमाम जंगलीपन उभारने वाला, उसे क्रूर अौर वहशी बनाने वाला यह खेल सभ्य खेलों की दुनिया में बमुश्किल तो स्वीकृत हुअा लेकिन इसे कभी हार्दिकता नहीं मिली. खेल के बाजार में इसे कालों का खेल माना गया जिसमें कभी-कभार ही कोई गोरा दाखिल होता था. कहते थे कि बॉक्सिंग एक ऐसा खेल है जिसमें हजारों गोरे दर्शक, दो कालों को एक-दूसरे की धुनाई करते देखने जुटते हैं. लेकिन जैसे वेस्टइंडीज के काले युवाअों ने क्रिकेट को अपनी मुक्ति का रास्ता मान कर अपनाया अौर शिखर तक पहुंचे, कुछ ऐसा ही मुक्केबाजी के साथ भी हुअा. जिन अमरीकी अश्वेतों को कोई पहचानता नहीं था अौर जिन्हें कोई मानता नहीं था, मुक्केबाजी ने उन्हें पहचान भी दिलाई अौर मान्यता भी. मुहम्मद अली ने भी कहा : “ मेरे लिए मुक्केबाजी दुनिया को अपना परिचय देने का जरिया भर था.”

कहानी १८ साल की उम्र से शुरू हुई जब हाईस्कूल पास करने के बाद कैसियस क्ले नाम के भले अौर भोले से दीखने वाले किशोर ने रोम अोलिंपिक की तरफ रुख किया. किस्सा १९६० का है. लेकिन किस्सा तो इससे पहले से शुरू हो गया था. मुक्केबाजी की दुनिया में यह बच्चा सबसे पहले १९५६ में चर्चित हुअा जब नौसिखुअों की एक प्रतियोगिता में उसने भाग लिया - गोल्डन ग्लोव्स चैंपियनशिप ! जीता तो नहीं लेकिन छाप छोड़ गया. बच्चों में, रिंग में वैसी चपलता अौर वैसा अात्मविश्वास कम ही दिखाई देता है जो अपने मुक्के से भी छोटे इस बच्चे में घुमड़ता दिखाई दिया था. अात्मविश्वास से भरी इस कली को पक कर फूलने में  ज्यादा नहीं, बस तीन साल अौर लगे. १९५९ उस बच्चे ने गोल्डन ग्लोव्स चैंपियनशिप जीत ली. इससे कम उम्र के किसी दूसरे बच्चे ने अब तक यह चैंपियनशिप नहीं जीती थी. लाइट हैवीवेट वर्ग में उसे तब ही शीर्ष स्थान मिला था. अौर तब अाया था रोम अोलिंपिक ! १८ साल का लड़का दुनिया के नामी मुक्केबाजों को चुनौती देने रोम पहुंचा है, यह खबर ही िकसी को  चर्चित बना देने के लिए काफी है, अौर यहां अालम यह था कि क्ले अोलिंपिक ग्राम में किसी बादशाह की तरह झूमता फिरता था. उसकी जुबान तेज थी कि उसका तेवर कि उसका मुक्का, फैसला कर पाना कठिन था. तब अाज जैसा मीडिया भले नहीं था लेकिन नायकों को कब मीडिया की कमी होती है ! क्ले की बातों अौर अदाअों ने रोम अोलिंपिक में ऐसा समा बांधा कि उसे ‘ द मेयर अॉफ अोलिंपिक विलेज’ कहा जाने लगा; अौर इसी दौर में क्ले का वह गुण भी उभरता अाया कि उसे न जाने कितनी कविताएं याद थीं कि जिनकी पंक्तियों का वह अपने मुक्कों के साथ इस्तेमाल करता था. वह अाशु कवि भी था जो मौके पर ही कुछ ऐसी तुकबंदी रच लेता था कि सामने वाला मुक्कबाज रिंग के बाहर ही नॉकअाउट हो जाता था. ऐसा रंगीन मुक्केबाज इससे पहले रिंग में अाया ही नहीं था. लेकिन रोम पहुंचने से पहले एक अौर वारदात हुई. 

क्ले को हवाई जहाज से बहुत डर लगता था. उसे हमेशा लगता था कि यह हवा में उड़ता खटोला अगर गिरने लगा तो अादमी के पास बचने का कोई उपाय ही नहीं है ! इसलिए उसने अमरीकी अोलिंपिक संघ के सामने शर्त रखी कि वह हवाई जहाज से रोम नहीं जाएगा. बड़ी मुसीबत-मुसीबत से उसे समझाया गया कि उसे हवाई जहाज में पैराशूट नाम का उपकरण दिया जाएगा जिससे खतरे की घड़ी में वह अपनी जान बचा सकता है. पैराशूट मिला तो क्ले की जान में जान अाई अौर वह उसे खुद से चिपकाए हुए रोम पहुंचा. अौर िफर देखते-देखते वह अोलिंपिक मुक्केबाजी के फाइनल में खड़ा मिला. फाइनल में सामने था पोलैंड का धांकड़ मुक्केबाज जिग्जी पीट्रजायकोवस्की जिसके बारे में कहते थे कि इसका मुक्का तो बाद में खाना, पहले नाम तो पचा लो ! 

क्ले से किसी ने पूछा : “अब मुकाबला जिग्जी से है ! क्या कहते हो ?”

उसने अांखें अौर बाहें फैलाईं अौर कहा : “ अाइ एम द ग्रेटेस्ट!” … अौर उस रोज खुद को दिया ‘ मैं महानतम हूं !’ का यह खिताब ताउम्र उसके पीछे-पीछे चलता रहा.  

अोलिंिपक का स्वर्णपदक क्ले ने हासिल किया तो विशेषज्ञों ने उसके खेल में कई नई चीजें देखीं - क्ले ने मुक्केबाजी को घूसों की बमबारी में नहीं, इस खेल को उसने एक कला में बदल दिया था. रिंग में उसकी चपलता देखने लायक थी जैसे कोई नर्तक अपने कदमों को शास्त्र-शुद्ध बना रहा हो. उसके घूसों में बला की ताकत तो थी लेकिन क्रूरता नहीं थी. वह जीतना भी चाहता था लेकिन उसमें रौद्रता दिखाई नहीं देती थी. जीत के बाद वह अपने प्रतिद्वंद्वी का अपमान करने या उनका माखौल उड़ाने की बातें कम करता था, वह अपने बारे में ज्यादा बातें करता  था. िकसी ने कहा : “ यह सुंदर-सा दीखने वाला नौजवान उस खेल को सौंदर्य का स्पर्श देने की कोशिश कर रहा है जिसकी सौंदर्य व कोमलता से दुश्मनी है.”

रोम का स्वर्ण ले कर जब क्ले वापस अमरीका अाया तो उसके जीवन की दिशा तै हो चुकी थी. यौवन के तेज अौर तंज से लबरेज ६.३ फीट लंबे इस अश्वेत ने २९ अक्तूबर १९६० को पेशेवर मुक्केबाजी की दुनिया में कदम रखा अौर लोगों को चौंधियाता हुअा लगातार १९ मुकाबले जीत लिए जिनमें १५ तो नॉकअाउट थे. वह रिंग में नाचता-भागता लगातार विपक्षी पर हमले करता जाता. ऐसा लगता था जैसे विपक्षी उसकी छाया छूने की कोशिश में ही हलकान हुअा जा रहा हो. यह मुक्केबाजी का नया ही चेहरा था. 

इस तरह कोई तीन साल निकल गये अौर तब कहीं जा कर क्ले को पहला मौका मिला कि वह विश्व चैंपियनशिप पर निशाना लगा सके. तब मुक्केबाजी की बादशाहत सोनी लिस्टन संभालते थे. मोटे-ताजे अौर रिंग में ज्यादा भाग-दौड़ नहीं करने वाले लिस्टन की सारी ताकत उनके घूंसों में समाई थी. वे बस एक उस मौके का इंतजार करते थे जब उनका एक घूंसा ठीक से, ठिकाने पर पड़ जाए. फिर कोई पानी नहीं मांगता था. क्ले को यह मालूम था अौर उसे यह भी मालूम था कि ऐसे लोगों को गुस्सा दिलाना लड़ाई का एक हथियार होता है. सो क्ले ने इस रणनीति का पूरा इस्तेमाल किया अौर लिस्टन की तुलना भैंसे से कर डाली ! किसी ने पूछा : ऐसे भैंसे से लड़ोगे कैसे ? क्ले ने किसी कविता की एक पंक्ति सामने धर दी : “ तितली की तरह नाचो; मधुमक्खी की तरह काटो !” २५ फरवरी १९६४ को फ्लोरिडा के मियामी बीच पर ठीक ऐसा ही हुअा. अपने एक मुक्के की जगह निकालने की कोशिश में लिस्टन ने अली के कितने मुक्के खाए, न वे गिन सके, न दर्शक ! बारिश की तरह मुक्के बरसा-बरसा कर क्ले ने लिस्टन को बेहाल कर दिया. क्ले ने पहले ही कह दिया था : लिस्टन नॉकअाउट होगा ! … कल का छोकरा उसे नॉकअाउट करने की बात कर रहा है ! लिस्टन यह सोच-सोच कर ही अाग-बबूला हुअा जा रहा था; अौर पंडितों की भी यही राय थी कि इस कतरनी-सी जबान का क्या होगा जब लिस्टन का मुक्का पड़ेगा !! अौर ऐसा ही हुअा भी; लिस्टन का ऐसा हाल भी हो सकता है, यह कल्पनातीत था. ७वें चक्र के बाद जब अंपायर की घंटी बजी तो लिस्टन उठ-चल कर रिंग में लौटने की हालत में नहीं थे. 

दुनिया को अपना नया हैवीवेट विश्व चैंपियन मिला - २२ साल का कैसियस क्ले !

लेकिन खबरों की ऐसी सुर्खियों के साथ ही एक दूसरी खबर भी बड़े-बड़े हर्फों में साया हुई : क्ले ने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया ! बात कहीं पहले भी चली थी. अखबारों ने पाया था कि मियामी में क्ले विवादास्पद इस्लामी धर्म-प्रचारक माल्कम एक्स के साथ अक्सर घूमता, बातें करता मिला है. क्ले ने इस कयास पर मुहर लगा दी अौर बताया कि उसने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया है अौर इस्लामी धर्मगुरु ने उसे मुहम्मद अली का नया नाम दिया है. मुक्केबाजी के खेल में धर्म परिवर्तन का यह खेल किसी को रास नहीं अाया अौर न क्ले ने इसका कोई खास कारण ही बताया. शायद यह बात तूल भी पकड़ती लेकिन जिस बात का किसी के पास जवाब नहीं था वह था मुहम्मद अली का घूंसा ! सब तरफ उसके घूसों की बरसात थी, अौर कतरनी की तरह काटती उसकी जबान का जलवा था. लोग सोचने यह लगे थे कि इसके प्रतिद्वंद्वी इसके घूसों से पस्त होते हैं कि इसकी जीभ से ! लेकिन लोग यह भी देख-समझ रहे थे कि यह अादमी दूसरों का उपहास करता है, अात्म-प्रशंसा भी करता है लेकिन अपशब्द या घटिया बातें नहीं करता है.

हार का जख्म लिस्टन भूला नहीं था. इसलिए उसने मुहम्मद अली को फिर ललकारा अौर इस बार दोनों २५ मई १९६५ को रिंग में अामने-सामने थे. लोग अभी अपनी-अपनी सीटों पर जम कर बैठे भी नहीं थे अौर पहला चक्र शुरू ही हुअा था कि मुहम्मद अली का जहरीला बायां घूंसा हवा को काटता लिस्टन के जबड़े पर जा बैठा… अौर लिस्टन धराशाई हो गया ! हुंहकारता मुहम्मद अली धराशाई लिस्टन की विशाल काया के चारों बगल चक्कर काटता रहा, रेफरी की गिनती मंद-से-मंदतर होती लिस्टन के कानों में उतरती रही अौर उसकी अंाख बंद होती गई. लिस्टन नहीं उठा; रेफरी ने मुहम्मद अली का हाथ ऊंचा उठा दिया ! ‘सदी का मुकाबला’ पल भर का मुकाबला बन कर खत्म हो गया ! लेकिन हर किसी के चेहरे पर संतोष का भाव था, एक चमक थी क्योंकि ऐसा एक घूंसा कब देखने को मिलता है ! 

इसके बाद कोई २ साल तक, एक-एक कर के मुहम्मद अली ने ८ मुकाबले जीत कर विश्वविजेता का अपना खिताब बनाए रखा. अब कहीं कोई बचा नहीं था कि जो मुहम्मद अली को ललकारे. कहने वाले कहने लगे थे कि मुहम्मद अली अपना ग्लब्स जिस दिन खुद ही खूंटी पर टांग देगा, उसकी विदाई होगी. लेकिन अभी बहुत कुछ होना बाकी था. वह हुअा २८ अप्रैल १९६७ को ! 

तब वियतनाम युद्ध अपने चरम पर था. अमरीकी सरकार ने उस युद्ध को अपनी नाक का सवाल बना लिया था अौर देशभक्ति से जोड़ कर, अंधा उन्माद पैदा कर दिया था. वैसे भी सभी जवान अमरीकियों को कानूनत: सेना में भर्ती होना पड़ता है; अौर तब तो मामला वियतनाम युद्ध का था. मुहम्मद अली को भी अनिवार्य सैन्य सेवा के तहत फौज में रिपोर्ट करने का अादेश मिला. मुहम्मद अली ने अादेश का पालन किया अौर फौजी भर्ती अड्डे तक पहुंचा भी लेकिन उसने फौजी भर्ती से इंकार कर दिया. उसने दो बातें कहीं : अब धर्मत: उसे अनिवार्य फौजी भर्ती के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है अौर दूसरी बात यह कि उसका जमीर युद्ध के खिलाफ है ! बात निकली अौर अाग भड़की !! अली को वहीं-के-वहीं गिरफ्तार कर लिया गया, उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया, न्यूयॉर्क एथलेटिक कमीशन ने उसका बॉक्सिंग लाइसेंस रद्द कर दिया, उससे उसका हैवीवेट बेल्ट ले लिया गया. कल का विश्वविजेता सामान्य अपराधी बना दिया गया. अनिवार्य फौजी भर्ती से इंकार की सजा में उसे कम-से-कम ५ सालों की कैद अौर १० हजार डॉलर का जुर्माना भरना पड़ता ! यह सब इतनी जल्दी-जल्दी हुअा कि इस बात को चल निकलने का अाधार मिल गया कि मुहममद अली के इस्लाम कबूल करने अौर उसके काले होने की वजह से यह सब किया जा रहा है. लेकिन मुहम्मद अली ने अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ अदालत में अपील की अौर अपने बयान में इस अफवाह का खंडन ही नहीं किया बल्कि अपनी लड़ाई का मतलब भी साफ किया. अदालत ने उसकी गिरफ्तारी मुकदमे का फैसला होने तक रद्द कर दी अौर उसे अाजाद नागरिक की तरह जीने का अवसर दिया. मुहम्मद अली की लोकप्रियता धूल में  मिल चुकी थी, उसे सुनने अाने वाले मुंह बिचका कर निकलने लगे थे. अब उसके पीछे चीखने-चिल्लाने वाली भीड़ कहीं नजर भी नहीं अाती थी. लेकिन मुहम्मद अली ने बाजी पलट दी.  एक दूसरा मुहम्मद अली सामने अा खड़ा हुअा जिसने पहली बार किसी मंच से यह सार्वजनिक घोषणा की कि वियतनाम युद्ध गलत अौर अमानवीय है. वह कॉलेजों में, नागरिक संगठनों के मंचों पर जाने लगा. कल तक जो जबान कतरनी की तरह प्रतिद्वंद्वियों की ऐसी-तैसी करती थी, वह जबान अब अकाट्य तर्क खड़ी करने लगी अौर नैतिक सवाल उठाने लगी.  अब लोग फीस दे कर उसका भाषण सुनने अाने लगे.

उसने कहा : मैं वियतनाम जा कर उन लोगों को क्यों मारूं जिन्हें न मैं जानता हूं, न देखा है, न सुना है ? उनमें से तो किसी ने मुझे ‘निगर’ कह कर बुलाया नहीं; किसी ने हब्शी कह कर मेरा अपमान नहीं किया; उनमें से किसी ने मुझे बस की सीट से इसलिए नहीं उठाया कि मैं काला हूं; उनमें से किसी ने मुझे होटल में चाय पीने; थियेटर में जाने या पार्क में अाराम करने से तो रोका नहीं ! किसी ने मुझे कभी गाली भी नहीं दी तो फिर उन्हें किस बात की सजा दूं मैं ? अौर वह भी उन्हें मार कर ?… मुहम्मद अली के एक-एक शब्द श्वेत अमरीका की अात्मा पर घन की तरह गिरते थे. वह एक साथ तीन मोर्चों पर युद्ध लड़ने में जुटा था : युद्ध मात्र के खिलाफ; देशभक्ति की भ्रामक परिभाषा गढ़ कर, फैलाए जा रहे उन्माद के भी खिलाफ अौर अमरीकी समाज में फैले रंगभेद के कोढ़ के खिलाफ ! यह दौर काफी लंबा चला - साढ़े तीन साल; अौर इस पूरी अवधि में मुहम्मद अली किसी दूसरे ही रिंग में लड़ता रहा. १९७० में जा कर कहीं अदालती फैसला अाया - सर्वोच्च न्यायालय के अादेश से मुहम्मद अली को उसका बॉक्सिंग लाइसेंस वापस मिला अौर फिर सर्वसम्मति से अदालत ने उस पर से सारे मुकदमे वापस ले लिये. तब तक हवा का रुख भी बदल गया था. अमरीकी समाज में, कॉलेजों अौर क्लबों में वियतनाम युद्ध का घोर विरोध चल रहा था अौर अनिवार्य फौजी भर्ती के अादेश की होली जलाई जा रही थी. अब सभी मुहम्मद अली की बात बोल रहे थे. 

मुहम्मद अली ने फिर से अपना ग्लब्स निकाला, फिर से जूते चढ़ाए अौर ४३ महीनों बाद फिर से िंरग में उतरा ! तारीख थी २६ अक्तूबर १९७०. सामने था जेरी क्वेरी. मुकाबला चला, ३ चक्र तक लड़ कर जेरी परास्त भी हुअा.  मुहम्मद अली का सारा ध्यान हैवीवेट विश्व चैंपियनशिप तक पहुंचने का रास्ता तैयार करने में लगा था अौर यह मौका अाया ८ मार्च १९७१ को जब अपराजेय जो फ्रेजियर के सामने मुहम्मद अली खड़ा हुअा. वातावरण में सनसनी थी, माहौल में तनाव चरम पर था. जो ने कहा था : मैं खेलता ही हूं जीतने के लिए; अली ने जवाब दिया था : मैं जानता ही नहीं कि हार क्या होती है ! … मुकाबला लंबा चला, कांटे का चला अौर निर्धारित राउंड तक चला ! अौर अंतिम राउंड के अंतिम दौर में अली जो के खतरनाक बाएं हुक की चपेट में अा गया अौर पहली बार लोगों ने अली को धराशाई होते देखा ! सबको सांप सूंघ गया… अली ने यथासंभव जल्दी की अौर उठ खड़ा भी हुअा… लेकिन सेकेंड की देरी हो गई. सारे रेफरियों ने मशविरा किया अौर एक राय से अली को पराजित घोषित कर दिया. पेशेवर मुक्केबाजी में यह अली की पहली पराजय थी.  

इसके बाद अली ने छोटे-बड़े १० मुकाबले जीते अौर फिर केन नॉर्टन से हारा. ६ माह बाद फिर से नॉर्टन-अली मुकाबला हुअा अौर इस बार अली ने बदला ले लिया. िफर अाया वह मैच जिसका अली को इंतजार था - फ्रेजियर !  मुकाबला अच्छा चला लेकिन नॉक अाउट नहीं हुअा. अंकों के अाधार पर अली जीता. अब विश्वविजेता का खिताबी मुकाबला सामने था. तब विश्वविजेता की कुर्सी पर फोरमैन बैठा था. जॉर्ज फोरमैन-अली के इस मुकाबले की खूब हवा बनाई गई, हर तरफ यह चर्चित हुअा, भारी भीड़ जुड़ी. अली समझ रहा था कि सीधी लड़ाई की उसकी ताकत कम होती जा रही है. उसे अपनी ताकत के मुताबिक अपनी रणनीति बनानी थी अौर उसने बनाई. अब तक तितली की तरह भागने वाला अली इस मैच में कुछ अौर ही सोच कर उतरा था. फोरमैन ने जैसे ही हमला शुरू किया अौर अली पर हावी होने लगा, अली ने रिंग के साथ बंधी रस्सी की अाड़ ली अौर फिर उस पर ही झूल गया. यह अजीब नजारा था जो रिंग में पहले देखा नहीं गया था. रस्सी पर झूलते अली पर फोरमैन ने खूब मुक्के बरसाए लेकिन रस्सी पर झूलते अली ने सबकी मार से खुद को बचाया अौर बोलता गया : अरे, वे सब कह रहे थे कि तुम्हारे मुक्के में जो लुइस जैसी ताकत है ! कहां गई वह ताकत ? उसकी हर टिप्पणी से फोरमैन उबलता जाता था अौर पूरी ताकत से हमला करता था. लेकिन रस्सी पर जूलता अली ऐसे प्रहारों से न रिंग में गिरा, न नॉकअाउट हुअा अौर न अंकों का हिसाब लगाने का मौका अाया. रस्सी पर झूलते अली को मार-मार कर जब फोरमैन हलकान हो गया अौर उसके मुक्के हल्के पड़ने लगे तब अचानक अली ने पैंतरा बदला अौर उस पर टूट पड़ा. थका फौरमैन जब तक भांपता कि यह क्या हो रहा है अौर अली करना क्या चाह रहा है तब तो वह रिंग में धराशाई हो चुका था. यह अाठवां अौर अंतिम चक्र था. फोरमैन गिरा तो फिर नहीं उठ पाया. नॉकअाउट हो गया. सात साल पहले अली से जो ताज किसी खिलाड़ी ने नहीं बल्कि राज्य ने छीन लिया था, अली ने उसे फिर झपट लिया. एक वृत पूरा हुअा. ‘रोप-ए-डोप’ नाम का एक नया ही हथियार बॉक्सरों को मिला. मुक्के के कई अनोखे प्रहार मुहम्मद अली ने नये मुक्केबाजों को सिखाए.

इसके बाद अली लगातार खेलता रहा अौर लगातार १० मुकाबले जीते. इसमें जो फ्रेजियर का वह मुकाबला भी शामिल था जो बदला चुकाने के लिए फ्रेजियर ने तीसरी बार उछाला था. इस मुकाबले में फ्रेजियर लहूलुहान हो कर हारा था. उसके भवों के ऊपर गहरा घाव लगा था अौर होठ भी कट गये थे. इस खेल के जंगलीपने पर तब कई तीखी टिप्पणियां हुई थीं अौर अली ने भी कहीं कहा कि इस खेल से अांतरिक बर्बरता को बढ़ावा मिलता है. इसी दौर में अली ने नॉर्टन को १५ चक्र तक चले मुकाबले में अंकों के अाधार पर हराया था. 

१९७८ कुछ दूसरे रंग ले कर अाया. साल की शुरुअात में ही अली को पराजय का मुंह देखना पड़ा जब लियोन िस्पंक्स ने १५ चक्र के मुकाबले में अंकों के अाधार पर उसे हराया. अब एक बार फिर अली के हाथ से विश्वविजेता का िखताब छिन गया ! ७ माह के भीतर ही अली ने फिर से स्पिंक्स को ललकारा अौर १५ चक्रों के मुकाबले में, सर्वसम्मत फैसले से उसे पराजित कर दिया अौर पुन: विश्वविजेता बन गया. बॉक्सिंग के इतिहास में अली पहला खिलाड़ी बना जिसने तीन बार विश्वविजेता का खिताब छीना या जीता ! लेकिन अब उम्र अपना असर दिखाने लगी थी. इसका सम्मान कर अली ने १९७९ में अवकाश लेने की घोषणा कर दी. सही समय पर लिया यह सही फैसला था. लेकिन सटोरियों, दलालों, धनपतियों के अाग्रह पर अली ने अपना फैसला बदला अौर एक बार फिर रिंग में कदम रखा. लेकिन दो बड़ी पराजयों के बाद ३९ साल के अली ने रिंग को अलविदा कर दिया. हिसाब लगाया गया कि अली ने ३७ नॉकअाउट के साथ कुल ५६ मुकाबले जीते थे अौर ५ हारे थे. बॉक्सिंग में ऐसा कीर्तिमान किसी दूसरे खिलाड़ी के नाम न तब था अौर न अाज है. रिंग से बाहर जा कर भी मुहम्मद अली प्रतिमान बन कर अाज भी रिंग में खड़ा है तो अपने इसी प्रदर्शन के बल पर.

अब तक वियतनाम युद्ध भी खत्म हो चुका था, मुहम्मद अली का केरियर भी ढलान की तरफ था लेकिन उसने अपनी जो सामाजिक भूमिका चुनी थी, उसका अाकर्षण बरकरार था. प्रशासन, सरकारी नीतियों, रंगभेद जैसे सवालों पर उनकी टिप्पणियां हमेशा सुनी जाती थीं अौर चर्चा का विषय बनती थीं. लिस्टन से जीतने के बाद उसने कहा था : तुम्हारी अांखें जो देख नहीं पाती हैं, उस तक तुम्हारा मुक्का पहुंच कैसे सकता है ! वैसी ही एक बात उसने अब कही : जिसमें तुम्हारा भरोसा नहीं है, वह तुम पा कैसे सकते हो !  अात्मविश्वास की यह ताकत अली में कूट-कूट कर भरी थी. अली को साबित करना था कि अमरीकी राष्ट्र-राज्य की दीवारों से टकरा कर भी उसका मुक्का टूटा या कमजोर नहीं पड़ा है. उसने समय की शिला पर जैसे यह उकेर कर लिख दिया. किसी समीक्षक ने लिखा भी : न कभी उसके कदम गलत पड़े, न मुक्के ! अली ने कहा : मैं तुम्हारे समाज का वह हिस्सा हूं जिसे तुम पहचानते नहीं लेकिन बेहतर है कि अब तुम इसके अादी हो जाअो ! अमरीका ही नहीं सारा विश्व यह पहचान सका कि मुहम्मद अली के पास घन की तरह चोट करने वाला घूंसा ही नहीं है बल्कि बेहद संवेदना से भरा एक मन भी है अौर अपनी तरह की गहन अास्था भी है. अली के प्रशिक्षक एंजिलो डूंडी ने बहुत ठीक कहा : हम यह देख नहीं सके कि अली की प्रतिभा का चरम क्या हो सकता था, क्योंकि वह काल तो राज्य से लोहा लेने में खो गया ! 

लेकिन अभी एक अौर लोहा लेना तो बाकी ही था. उम्र ढली तो अली की शारीरिक कमजोरियां उभरने लगीं. १९८४ में डॉक्टरों ने पाया कि उस पर पार्किंसंस रोग का हमला हुअा है. मुक्केबाजी के दौरान सर पर पड़ी लगातार मार का भी असर ऐसा होता है. धीरे-धीरे अली की स्मृति ने उसका साथ छोड़ना शुरू किया. बोलने में वह लड़खड़ाने लगा अौर तन कर सीधे चलना असंभव-सा होने लगा. लेकिन अली ने इन सबसे लोहा लिया. वह अपने सामाजिक दायित्व पूरे करने सारी दुनिया घूमने लगा अौर एक सार्वजनिक वक्ता के तौर पर उसका सम्मान बढ़ने लगा. १९९० में वह ईराकी नेता सद्दाम हुसैन से मिलने पहुंचा अौर उसने हुसैन के लोगों द्वारा बंधक बनाए अमरीकियों की रिहाई में बड़ी भूमिका निभाई.  १९९६ में अटलांटा में गर्मियों का अोलिंपिक हुअा. उसकी ज्योति प्रज्वलित करने का सम्मान सबकी तरफ से मुहम्मद अली को दिया गया. २००२ में संयुक्त राष्ट्रसंघ का शांतिदूत बन कर अली अफगानिस्तान पहुंचा था. शताब्दी की समाप्ति पर बीबीसी ने जब खेल की दुनिया के ‘सदी का व्यक्तित्व’ चुनने के लिए संसार भर से नाम मांगे तो अली सर्वोच्च रहा. खेलों की सबसे बड़ी पत्रिका ‘स्पोर्टस इलेस्ट्रेटेड’ ने भी अली को ‘शताब्दी की खेल हस्ती’ का सम्मान दिया. २००५ में उसी राज्य ने, जिसने कभी अली का विश्व चैंपियन का बेल्ट उतरवा लिया था, अली को व्हाइटहाउस बुला कर फ्रीडम मेडल से सम्मानित किया. अौर फिर लुइसविले ने अपने इस सुपुत्र की याद में मुहम्मद अली सेंटर फॉर पीस एंड सोशियल रिस्पांसिबिलिटी की स्थापना की. अली ने कहा : मैं जब नहीं रहूंगा तब अापको इसी केंद्र के इर्द-गिर्द घूमता मिलूंगा ! … मैं जानता हूं कि मैं अब कहां जा रहा हूं … मुझे इस यात्रा की सच्चाई मालूम है. अब मुझे वैसा बनने की जरूरत ही नहीं रही जैसा अाप मुझे बनाना चाहते रहे. मैं अब अपनी तरह का बनने के लिए अाजाद हो गया हूं.” 


मुहम्मद अली ने चार शादियां कीं अौर ७ बेटियों अौर २ बेटों के पिता बना. उसकी एक बेटी ने भी पेशेवर मुक्केबाजी की दुनिया में कदम रखा अौर खासा नाम कमाया. ९ जून २०१६ को जब उसका जनाजा लुइसविले की मुस्लिम कब्रिस्तान में पहुंचा तो ये सभी वहां मौजूद थे. चारो तरफ सुरक्षा का कड़ा इंतजाम था, क्योंकि कई अाला हस्तियों के साथ पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन वहां मौजूद थे. वे उस राज्य के प्रतिनिधि बन कर अाए थे िजसने अली का जीवन ही छिन्न-भिन्न कर डाला था. पता नहीं, उन्हें वह याद अाया या नहीं जो कभी  अली ने अपनी गर्दिश के दिनों में कहा था अौर जो उस दिन जैसे कब्रिस्तान में गूंज रहा था : “ मैं बड़ी अासानी से किसी के भी निशाने की जद में अा सकता हूं. मैं सब कहीं घूमता-भटकता हूं अौर हर कहीं, हर कोई मुझे जानता है. मैं रोज ही सड़कों पर फिरता हूं अौर कोई भी मेरी सुरक्षा के लिए नहीं होता है. मेरे पास कोई बंदूक नहीं है, मेरे साथ कोई संरक्षक नहीं है. इसलिए अगर किसी को मेरी तलाश है, कोई घात लगाए बैठा है तो उससे कह दो कि अाए अौर मेरा काम तमाम कर दे ! … बस, इतना याद रखे कि उसे ईश्वर की खींची वह लकीर पार करनी होगी जिसे पार किए बिना कोई मुझ तक नहीं पहुंच सकता… तुम्हारी बंदूक की गोली भी ईश्वर के नियंत्रण से बाहर नहीं होती है.”  ( 4.07.2016) 

अब २ सरा २०० नहीं होगा 

11.10.13 


सवाल सब तरफ से उठने लगे थे - खीज से भी भरे अौर ऊब से भी - अौर जवाब कहीं से नहीं अा रहा था. सचिन रमेश तेंडुलकर भी कुल मिला कर कह यही रहे थे कि मुझे कब क्रिकेट को अलविदा कहना है, यह मैं तै करूंगा ! इसमें सचिन नया क्या कह रहे थे ? यह बात तो हर खिलाड़ी के बारे में सच है कि वह कब अपने खेल को अलविदा कहेगा, इसका फैसला उसका ही होता है. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि खेल का मैदान न कहे तो भी अापकी विदाई का फैसला कहीं, कोई अौर भी कर देता है. अाप उसका फैसला मान लेते हैं जैसे वी.वी.एस. लक्ष्मण; या फिर बहुत करते हैं तो यह कि कुछ वक्त के लिए उसकी अनदेखी करते हैं, जैसे सचिन तेंडुलकर ! लेकिन फैसला करने वाला ऐसा चतुर सुजान है कि अाप कितना भी चाहें, उसके अादेश का पालन करने से बच नहीं सकते हैं. २३ साल अौर ३३२ दिनों के बाद सचिन के उस अादेश का पालन करने की घोषणा की.  
यह भी कहना काफी नहीं है कि मुझे खेलने में अब भी अानंद अाता है याकि चुनौती मिलती है, इसलिए मैं खेलना जारी रखूंगा. कोई पलट कर यह भी तो पूछ सकता है न कि भाई अापको भले खेलने में अानंद होता हो, हमें भी तो अापका खेल देखने में अानंद मिले ? अौर यह भी जरूरी है कि अापका खेल सिर्फ अापको ही नहीं,  विपक्ष को भी चुनौती लगे ! इसमें से कुछ भी अब सचिन के पक्ष में नहीं रह गया था. इसलिए सचिन के जाने का सबको इंतजार था. अब किसी को इसकी फिक्र नहीं है कि २०० टेस्ट में से बचे २ टेस्ट में सचिन क्या करते हैं. जिसने इतने एवरेस्ट सर किए हैं, वह शिखर छू कर कैसे लौटता है, इसकी कहानी में किसे, कितनी दिलचस्पी हो सकती है. अब जो भी होगा, अांकड़ों में होगा; चांद तो इस अादमी ने कब का छू लिया है ! 
अब अगर होना है तो यह अाकलन होना है कि सचिन की विदाई का मतलब किन-किन चीजों की विदाई होगा ? तो सबसे पहली विदाई हुई शिखर पर बैठी वह शालीन विनम्रता जिसमें जबर्दस्त शक्ति थी लेकिन अहंकार नहीं था. उनमें कैसी भी दावेदारी नहीं थी जबकि क्रिकेट के इतिहास में, खेल का उन जैसा दूसरा दावेदार खोजना कठिन होगा. वह गजल गाई है न जगजीत सिंह ने - कुछ न कुछ तो जरूर होना है / सामना अाज उनसे होना है - सचिन जब भी, दुनिया के जिस कोने में भी बल्लेबाजी के लिए मैदान में उतरते थे, लगता था कि कोई यही गजल गा रहा है ! एक-से-एक धुरंधर गेंदबाजों का सचिन ने सामना किया लेकिन हर बार ऐसा ही हुअा कि सचिन ने नहीं, गेंदबाजों ने सचिन का सामना किया ! अांकड़े इसलिए ही सचिन की पूरी कहानी नहीं कह पाते हैं, क्योंकि अांकड़ों में बंध कर वे कभी  खेले नहीं. अांकड़े जमा होते गये अौर पहाड़ ही बन गया उनका, लेकिन हमने देखा कि यह अादमी तो उनसे अलग अौर कहीं ऊपर बैठा हुअा है ! अांकड़ों की फिक्र होती तो सचिन को कम-से-कम तीन साल पहले ही मैदान छोड़ देना चाहिए था, क्योंकि इन तीन सालों में दूसरा कुछ नहीं हुअा, अांकड़े खराब होते गये. ब्रेडमैन का ९९ का रन अौसत सचिन का कभी नहीं रहा लेकिन अाज जो अौसत बचा है, ५३.८६ वैसा होने का भी कोई कारण नहीं था.
कहा जा रहा है कि सचिन कभी विवादों में नहीं रहे ! यह क्या कोई गुण है ? दो ही तरह के लोग अविवादित रहते हैं: एक वे जो बला के कायर होते हैं; दूसरे वे जो जानते हैं कि रोटी में मक्खन किधर लगा है ! सचिन ने इतनी लंबी पारी खेली है कि इनमें से कुछ भी उनके साथ होना स्वाभाविक था लेकिन हुअा यह कि मैदान में सचिन का खेल अौर मैदान के बाहर उनका व्यवहार जैसे रोज ही नया बयान जारी करते थे. विवाद पैदा ही तब होता है जब अापके पास अपनी तरह से कुछ कहने या देने को नहीं होता है. सचिन ने यह सब कुछ इस तरह से निभाया क्रिकेट की साख का नाम ही सचिन बन गया. एक बार कप्तानी छोड़ी तो फिर कभी उसकी जोड़-तोड़ में नहीं रहे. कितने ही कप्तानों के साथ वे खेले, अजहरुद्दीन जैसे कप्तान के साथ भी अौर ग्रेग चैपल जैसे कोच के साथ भी, लेकिन कभी किसी के नीचे नहीं खेले. साथ निभाना लेकिन ताबेदारी में नहीं रहना सचिन के व्यक्तित्व से हमेशा यही संदेश जाता रहा. वे हमेशा भारत के अनधिकृत कप्तान बने रहे.
“मैंने भी कभी सचिन के साथ खेला है” से लेकर “मैंने सचिन के साथ बहुत मैच खेले हैं” तक की बात गर्व से कही जाती रही है. लेकिन अाने वाले दिनों में सबसे बड़ा क्रिकेट-प्रश्न होगा - क्या अापने सचिन को खेलते देखा है ? जिसने सचिन को खेलते नहीं देखा है, वह अास्ट्रेलिया के तूफानी बल्लेबाज मैथ्यू हेडन की इस बात को कैसे समझ सकेगा : मैंने भगवान को देखा है; वह भारत में नंबर ४ पर बल्लेबाजी करता है ! मैं हमेशा सोचता हूं कि सचिन तेंडुलकर अौर राहुल द्रविड़ के बीच का फर्क क्या है ? सचिन के पास जो कुछ सुंदर अौर शुभ है वह सब कुछ राहुल के पास भी है. अांकड़ों की किताब खोलें हम तो पाएंगे कि राहुल उसमें सचिन के बाद ही खड़े हैं अौर कोई बहुत बड़ी दूरी भी नहीं है. राहुल ने टीम की जरूरत के मुताबिक वह सब कुछ किया है जैसा दूसरे किसी ने नहीं किया है. टीम की जरूरत के मुताबिक सचिन का बैटिंग अॉर्डर कभी नहीं बदला अौर न कभी यही हुअा कि सचिन को टीम की जरूरत के मुताबिक सचिन को विकेटकीपिंग करनी पड़ी. दुनिया में सबसे अधिक कैच लेने का रिकार्ड सचिन के नाम नहीं, राहुल के नाम दर्ज है. फिर भी एक खाई है जो पाटी नहीं जा सकती है. राहुल वह खिलाड़ी है जिसने अपनी अविचलित साधना के बल पर अासमान छुअा है; सचिन अासमान से ही पैदा हुए अौर अपनी अविचलित साधना के बल पर उन्होंने सारा अासमान घेर लिया ! सचिन में क्रिकेट नैसर्गिक था, राहुल में वह मेहनत से पाया हुअा था. राहुल ने खुद को घिस-घिस कर राहुल बनाया था; सचिन ने अपना हीरा तराशा था. सचिन ने राहुल के लिए कहा : मास्टर टेक्नीशियन ! सचिन के लिए एंडी फ्लावर ने कहा : दुनिया में दो तरह के बल्लेबाज हैं - एक सचिन तेंडुलकर, दूसरे बाकी सभी ! अौर फिर विव रिचर्ड्स ने कहा : वह ९९.५ % परिपूर्ण है ! 
अाज क्रिकेट जिस तरह, जिस परिमाण में खेल जा रही है वह खिलाड़ी को एकदम ही निचोड़ लेती है. खिलाड़ी क्रिकेट से अौर क्रिकेट खिलाड़ी से जो अौर जितना पा रहा है, वह कोई २३ सालों तक देते रहना शारीरिक क्षमता के बाहर है. अब तो तुरंता क्रिकेट की तरह तुरंता खिलाड़ी भी अा रहे हैं जो जुगनू की तरह चमक कर बैठ जाते हैं. इसलिए कोई दूसरा सचिन संभव न हो शायद. दूसरा कोई २०० मैच खेल नहीं सकेगा.  
इतना कुछ है जो सचिन के साथ विश्व क्रिकेट से विदा हो जाएगा ! सचिन के जब क्रिकेट की बड़ी दुनिया में कदम रखा था तब वह सुनील गावस्कर की दुनिया थी. बाजार तब इस दुनिया में अपनी जगह बनाने की कश्मकश में लगा था. लेकिन खेल खेल की जगह था, पेशा नहीं था. अाज जब सचिन इस दुनिया से विदा हो रहे हैं, यहां चिंतित चर्चा यह है कि क्रिकेट में खेल जैसा कुछ बचा है कि नहीं ? अब का क्रिकेट श्रीसंत का अौर श्रीनिवासन् का क्रिकेट है जिसमें सत्ता है, पैसा है लेकिन साधना नहीं है. इसलिए अब मुमकिन नहीं होगा कि कोई सचिन फिर उभरे. लेकिन सचिन ही यह भरोसा भी जगाते हैं कि अगर भगवान चाहेगा तो फिर दुनिया के किसी-न-किसी क्रिकेट-कोने में, कोई सचिन पैदा होगा. तब हम उसे अासानी से पहचान जाएंगे क्योंकि असली सचिन तो हमारे पास है. ( 11.10.13 )   

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