फ़िल्मी दुनिया

गिरीश कर्नाड 

संस्कृति के सिपाही की विदाई  

मुझे अच्छा लगा कि गिरीश रघुनाथ कर्नाड को संसार से वैसे ही विदा किया गया जैसे वे चाहते थे : नि:शब्द ! कोई तमाशा न हो, कोई शवयात्रा न निकले, कोई सरकारी अायोजन न हो, तोपों की विदाई या उल्टी बंदूकें भी नहीं, कोई क्रिया-कर्म भी नहीं भीड़ भी नहीं, सिर्फ निकट परिवार के थोड़े से लोग हो- ऐसी ही विदाई वे चाहते थे… 

… मुंबई में समुद्र के पास, बांदरा में उनके अस्त-व्यस्त घर में लंबी चर्चा समेट कर हम बैठे थे. जीवन का अंत कैसे हो, ऐसी कुछ बात उस दिन वैसे ही निकल पड़ी थी अौर मैंने कहा था कि कभी बापू-समाधि ( राजघाट ) पर, शाम को  घूमते हुए अचानक ही जयप्रकाशजी ने कहा :  मुझे यह समाधि वगैरह बनाना बहुत खराब लगता है...जब ईश्वर ने वापस बुला लिया तो धरती पर अपनी ऐसी कोई पहचान छोड़ने में कैसी कुरूपता लगती है ! … हां, कोई बापू जैसा हो कि जिसकी समाधि भी कुछ कह सकती है, तो अलग बात है… समाज परिवर्तन की धुन में लगे हम सबकी समाधि इसी समाधि में समाई माननी चाहिए, बापू-समाधि की तरफ देखते-देखते वे बोले, अौर फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा,  तुम लोग ध्यान रखना कि मेरी कोई समाधि कहीं न बने!… गिरीश बड़े गौर से मुझे सुनते रहे,  अाज जयप्रकाश की समाधि कहीं भी नहीं है. वे चाहते थे कि उनका शरीरांत पटना में गंगा किनारे हो अौर इस तरह हो िक गंगा सब कुछ समेट कर ले जाएं !… ऐसा ही हुअा. अाज यह पता करना भी कठिन ही होगा कि उनका अंतिम संस्कार कहां हुअा था !… गिरीश धीमे से बोले,  अच्छा, यह सब तो मुझे पता ही नहीं था… मैं जेपी को जानता ही कितना था ! … लेकिन कुमार, यह अपनी कोई पहचान छोड़ कर न जाने वाली बात बहुत गहरी है… बहुत गहरी !

 … अभी मैं सोच रहा हूं कि क्या गिरीश को यह सब याद रहा अौर उन्होंने भी एकदम बेअावाज जाना पसंद किया ? … अब तो यह पूछने के लिए भी वे नहीं हैं !! 

     मैं उनको जानता था, पढ़ा भी था; मिला नहीं था कभी. इसलिए ‘धर्मयुग’ के दफ्तर के अपने कक्ष में जब धर्मवीर भारतीजी ने मुझसे कहा, प्रशांतजी, ये हैं गिरीश कर्नाड!, तो मैंने इतना ही कहा था, जानता हूं ! फिर भारतीजी ने उनसे मेरा परिचय कराया. गिरीश कर्नाड ने वैसी ही अात्मीयता से हाथ अागे बढ़ाया जैसी अात्मीयता उनके चेहरे पर हमेशा खेलती रहती थी. जब तक गीतकार वसंतदेव उनसे मेरे बारे में कुछ कहते रहे, वे मेरा हाथ पकड़े सुनते रहे अौर फिर बोले,  मुझे बहुत खुशी हुई यह जान कर कि ऐसे गांधीवाले भी हैं ! मैंने कुछ टेढ़ी नजर से उनकी इस टिप्पणी को देखा तो हंस पड़े, मानो कह रहे हों : इसे अनसुना कर दो भाई ! 

यह 1984 की बात है. यह ‘उत्सव’ की तैयारी का दौर था - शूद्रक के अति प्राचीन नाटक ‘मृक्षकटिक’ का हिंदी फिल्मीकरण! शशि कपूर से मेरा परिचय था तो मैं जानता था कि वे ऐसी किसी फिल्म की कल्पना से खेल रहे हैं. बात गिरीश कर्नाड की तरफ से अाई थी. तब कला फिल्मों का घटाटोप था. शशि कपूर मसाला फिल्मों से पैसे कमा कर, कला फिल्मों में लगा रहे थे. मुझे कभी-कभी लगता था कि उनकी इस चाह का कुछ लोग अपने मतलब के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. ‘उत्सव’ के साथ भी कुछ ऐसा ही तो नहीं ? - भारतीजी बोले,  चलिए, यह भी देखते हैं ! वे चाहते थे कि उनकी तरफ से मैं इसके बनने की प्रक्रिया को देखूं-समझूं अौर फिर इस पर  लिखूं :  फिल्म कैसी बनेगी पता नहीं. जब बन जाएगी तब देखेंगे लेकिन संस्कृत के इस अति प्राचीन नाटक का, अहिंदीभाषियों द्वारा हिंदी फिल्मीकरण अपने अाप में एक दिलचस्प विषय है जिसे आपको अांकना है. खुले मन से इनके साथ घूमिए-मिलिए-बातें कीजिए अौर फिर देखेंगे कि क्या बात बनती है. मैंने बात सुनी, स्वीकार की अौर तब से गिरीश कर्नाड से मिलना होने लगा.  गीतकार वसंतदेव मराठीभाषी थे. गिरीश का महाराष्ट्र से रिश्ता कुछ मजेदार-सा था. मां-पिता छुट्टियों में घूमने महाराष्ट्र के माथेरान में अाए थे. इसी घूमने में मां ने माथेरान में उनको जनम दिया. अाज भी माथेरान के रजिस्टर में लिखा है : 19 मई 1938; रात 8.45 बजे.  सो गिरीश मराठी से अनजान नहीं थे लेकिन थे कन्नड़भाषी ! भाषा का इस्तेमाल करना अौर भाषा में से अपनी खुराक पाना, दो एकदम अलग-अलग बातें हैं. गिरीश कन्नड़ भाषा से ही जीवन-रस पाते थे. इसलिए ही तो इंग्लैंड के अॉक्सफोर्ड में पढ़ाई के बाद भी वे वहीं या कहीं अौर विदेश में बसे नहीं, भारत लौटे अौर जो कुछ रचा वह सब कन्नड़ में ! अमरीकी नाटककार अो’नील ने ग्रीक पुराणों से कथाएं समेट कर जिस तरह उनका नाट्य-संसार खड़ा किया, उसने गिरीश को अचंभित भी किया अौर अाकर्षित भी. इतिहास, राजनीति, सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराएं, मिथक, किंवदंतियां, यौनिक अाकर्षण का जटिल संसार - सबको समेट कर, अपनी देशज जमीन से कहानियां निकालना अौर उन्हें अाधुनिक संदर्भ दे कर बुनना : गिरीश कर्नाड का यह देय हम कभी भूल नहीं सकते. ‘ययाति’ अौर ‘तुगलक’ ने इसी कारण रंगकर्मियों का ध्यान अचानक ही खींच लिया कि ऐसी जटिल संरचना को मंच पर उतारना चुनौती थी जिसे गिरीश ने साकार कर दिखाया था. मुझे अाज भी यह कहने का मन करता है कि गिरीश कर्नाड अव्वल दर्जे के अध्येता-नाट्य लेखक थे. बहुत सधे हुए व साहसी निर्देशक थे. अभिनय में उनकी खास गति नहीं थी लेकिन वे सिद्ध सह-कलाकार थे. हिंदी फिल्मों में उनका यह रूप हम सहज देख सकते हैं. कहीं से हमें वह धागा भी देखना व पहचानना चाहिए जो उसी वक्त मराठी में विजय तेंडुलकर, हिंदी में मोहन राकेश व बांग्ला में बादल सरकार बुन रहे थे. यह भारतीय रंगकर्म का स्वर्णकाल था. इब्राहीम अल्काजी, बी.वी.कारंत, प्रसन्ना, विजया मेहता, सत्यदेव दुबे, श्यामानंद जालान, अमल अलाना जैसे अप्रतिम रंगकर्मियों ने इस दौर में अपना सर्वश्रेष्ठ दिया. यह भारतीय रंगकर्म का पुनर्जागरण काल था.

‘उत्सव’ को बनते देखना कई मानी में मुझे खास लगा. इससे जुड़े किसी भी व्यक्ति को संस्कृत नहीं अाती थी, तो यह मात्र भाषा का सवाल नहीं था. यह उस पूरी भाव-भूमि से कट कर काम करना था जिसमें ‘मृक्षकटिक’ की रचना हुई थी. ये सभी रचनाकार अंग्रेजी को पुल की तरह इस्तेमाल करते थे. अापसी बातचीत भी. फिर अात्मा की जगह कहां बचती है ? सब कुछ बड़ा प्लास्टिक-प्लास्टिक हो रहा था. मैंने यह शशि कपूर से भी कहा, गिरीश से भी लेकिन हुअा तो वही, जो संभव था. ‘उत्सव’ खूबसूरत फिल्म बनी जिसमें खुशबू बहुत कम थी. ‘उत्सव’ का बनना पूरा हुअा अौर हमारा साथ-संपर्क भी कम-से-कम हुअा. 

फिर यह भी हुअा कि गिरीश कर्नाड हमारे दौर में अत्यंत संवेदनशील मन व अत्यंत प्रखर अभिव्यक्ति के सिपाही बन गये. राजनीतिक-सामाजिक सवालों पर वे हमेशा बड़ी प्रखरता से हस्तक्षेप करते थे. निशांत, मंथन, कलियुग से ले कर सुबह, सूत्रधार अादि फिल्मों में आप इस गिरीश कर्नाड को खोज सकते हैं. मालगुडी डेज में गिरीश नहीं होते तो क्या होता, हम इसकी कल्पना करें जरा ! वी.एस. नायपाल जिस नजर से भारतीय सभ्यता की जटिलताअों को देखते-समझते हैं अौर फिसलते हुए सांप्रदायिक रेखा पार कर जाते हैं, उसे पहली चुनौती गिरीश कर्नाड ने ही दी थी, अौर वे भी गिरीश कर्नाड ही थे जिन्होंने ‘अरबन नक्सल’ जैसे मूर्खतापूर्ण अारोप व गिरफ्तारी का प्रतिकार करते हुए, बीमारी की हालत में, जब सांस लेने के लिए उन्हें ट्यूब भी लगा ही हुअा था, समारोह में अाए थे अौर गले में वह पोस्टर लटका रखा था जिस पर लिखा था : मी टू अरबन नक्सल ! अपने मन की बात बोलना अगर नक्सल होना है, तो मैं भी अरबन नक्सल हूं ! … वे तब संस्कृति के सिपाही की भूमिका निभा रहे थे. 

मेरी अाखिरी मुलाकात कुछ अजीब-सी हुई जब मैं किसी दूसरे से मिलने दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल के रेस्तरां में पहुंचा. ढलता दिन था अौर मुझे खाली कुर्सियों-टेबलों की कतारों के बीच, नितांत अकेले बैठे गिरीश कर्नाड दिखाई दिए. उनका ड्रिंक सामने धरा था. देख कर लगा मुझे कि वे अकेले नहीं हैं, कहीं खोये हैं. कुछ संकोच से मैं उनके पास पहुंचा. हम मिले. कुछ पहचान उभरी, कुछ खोई. कुछ बातें, कुछ फीकी हंसी. मैंने उनका हाथ दबाया अौर उस तरफ निकल गया जिधर मुझसे मिलने कोई बैठा था… गिरीश रेस्तरां के रंगमंच के बीचोबीच कब तक बैठे रहे, मैंने नहीं देखा. ( 13.06.2019) 

अोम पुरी 

खुद की पहचान खोजता खोया हुअा अादमी  


पर्दे पर चलती फिल्म जैसे अचानक कट जाती है, अोम पुरी के साथ ऐसा नहीं हुअा ! … उनके जीवन की फिल्म धीरे-धीरे बनी थी, धीरे-धीरे परवान चढ़ी थी अौर धीरे-धीरे ही रोशनी के बाहर होती चली गई. उसे दमकते हुए जितनों ने देखा था, उतनों ने ही उसे अाभाहीन होते भी देखा… अौर फिर वह बुझा नहीं, भहरा कर गिर पड़ा …  लेकिन अोम पुरी की कई फिल्में है कि जो न कभी बुझेंगी अौर न गिरेंगी ही … मौत जीवन का अंत तो करती ही है लेकिन वह उसे मिटा दे, यह उसके बस का नहीं है. एक स्मृति-अालेख  


बड़ी अजीब सी हालत थी! श्याम बेनेगल का घर. हम बैठे बातें कर रहे थे कि फोन बजा; फोन तो क्या इटरकॉम था. श्याम बाबू ने फोन उठाया, कुछ सुना, सुनते रहे… अौर कुछ देर कुछ बोले नहीं, फिर बोलो, अा जाअो !  …. अौर अोम पुरी अा गए. बड़ी बदहवास-सी सूरत में, बड़े बदहवास हाल में. अा गए कुछ ऐसे कि बैठें कि खड़े रहें, यह भी तै कर पाना मुश्किल ! फिर वहीं बैठ भी गए जहां हम बैठे थे. श्याम बाबू कब उठे अौर किधर गए पता नहीं चला लेकिन लौटे तो पता चला कि उनके लौट अाने का एक ही मतलब था कि अब अोम पुरी को चल देना चाहिए. अोम उठे, श्याम बाबू उनकी तरफ अौर वे श्याम बाबू की तरफ बढ़े… अौर दोनों के बीच एक लिफाफा अागे निकला… पकड़ा गया … जेब की तरफ गया अौर श्याम बाबू की दबी अावाज सुनी मैंने : अभी इससे ज्यादा कुछ है नहीं मेरे पास ! … अोम पुरी निकल गये…

“ अोम पुरी हैं !”, श्याम बाबू न मालूम किसे संबोधित कर रहे थे. अोम पुरी को वहां कोई न जानता हो, ऐसा नहीं था. अोम पुरी का काम ही उनकी पहचान थी अौर वह पहचान अब पहचानी जा रही थी अौर श्याम बाबू की फिल्में ही इस पहचान को मजबूत बना रही थीं. श्याम बाबू उन दिनों फिल्में नहीं बनाते थे, फिल्मों का वह वातावरण बनाते थे जिसमें से पैदा हो रहे थे नसीर, शबाना, अोम जैसे कई-कई लोग जिन्होंने थोड़े वक्त के लिए हिंदी सिनेमा का चेहरा ही बदल दिया. इस बदले हुए वक्त का सबसे प्रतिनिधि चेहरा था अोम पुरी का जिनके बारे में कभी शबाना अाजमी ने कहा था कि ऐसा बदसूरत अादमी भी कभी हीरो बन सकता है क्या ! 

अोम उस दिन पैसों की मांग ले कर श्याम बेनेगल के पास अाए थे. इसलिए नहीं कि श्याम बाबू के पास उनका कुछ बकाया निकलता था बल्कि इसलिए कि अोम के पास तब मुंबइया फिल्मी संसार में रहने लायक पैसे नहीं थे. ऐसे कुछ अौर प्रसंग भी मुझे याद अाते हैं अौर वे सब इसलिए नहीं कि अोम से मेरा कोई खास परिचय था बल्कि इसलिए शायद कि हम एक-से दायरे में उठते-बैठते थे. अोम पुरी ने मुंबइया फिल्म संसार में खुद को जमाने के लिए खासी मशक्कत की. लेकिन शयाम बेनेगल, गोविंद निहलानी, केतन मेहता, कुंदन शाह जैसे लोग नहीं होते अौर उनके मन में तब वैसी फिल्में बनाने का जोम नहीं उठा होता तो अोम पुरी, नसरुद्दीन शाह जैसों का उभरना अौर जमना असंभव था. उस दौर ने, जिसे समांतर सिनेमा कहा गया, कहानी, अभिनय अौर उद्देश्य को इतनी प्रबलता से उभारा कि व्यावसायिक सिनेमा की चूलें हिल गईँ. ऐसा इसलिए नहीं हुअा कि व्यवसायिक सिनेमा को इनसे किसी तरह का खतरा हुअा बल्कि इसलिए हुअा कि सिनेमा अंतत: संप्रेषण का माध्यम है अौर समांतर सिनेमा का संप्रेषण इतना ताकतवर था कि व्यवसायिक सिनेमा उसके सामने एकदम नकली लगने लगा था. नकली को इतनी शक्ति व शिद्दत के साथ असली बना देने में ही अोम पुरी जैसों का लोहा व्यवसायिक सिनेमा को भी अौर हम दर्शकों को भी मानना पड़ा.   

अोम पुरी उस भारत के प्रतिनिधि थे जिसके पास तुम्हें अौर हमें अौर दुनिया को देने के लिए अपने अलावा दूसरा कुछ नहीं था. देव अानंद ने एक बार मेरे ऐसा कहने पर कबूल किया था कि उनके दौर में हीरो का मतलब ही ‘क्लासी’ होना था ! वे कहते गए थे कि संघर्ष हमने भी कम नहीं किया लेकिन हमारा संघर्ष खुद को जमाने के लिए था, रोटी के लिए नहीं था. हमें मालूम था कि रोटी अाने के दूसरे रास्ते भी हैं हमारे पास - शिक्षा थी हमारे पास, भाषा थी- हिंदी भी अौर अंग्रेजी भी, सख्सियत थी, अच्छा-खासा चेहरा-मोहरा था, हमारी जान-पहचान का दायरा भी खासा बड़ा था. हमें दुनिया के सामने खुद को साबित करना था न कि अपना पेट भरना था हालांकि पेट तो हर किसी को भरना ही होता है. फिर वे एक बड़ी बात भी बोल गए कि हमारे दौर की फिल्मों में हीरो के अलावा दूसरे सारे पात्र खाली जगह को भरने भर के लिए होते थे अौर इसलिए एक अच्छा हीरो है यानी कि बिकाऊ हीरो है अौर एक सुंदर हीरोइन है तो फिल्म बन भी जाती थी अौर मोटा-मोटी चल भी जाती थी. इन लोगों ने - तब देव ने अपनी फिल्म में नसीर को लिया था - हमारे सिनेमा को यह समझ दी कि सिनेमा में खाली जगह को भरने जैसा कुछ नहीं होता है बल्कि हर खाली जगह इस बात का प्रमाण है कि डिरेक्टर या राइटर का दिमाग खाली है ! नसीर को मैंने जो रोल अॉफर किया वह बहुत छोटा था अौर वह मना कर देता तो मुझे हैरानी नहीं होती लेकिन वह एकदम अासानी से अंदर अा गया, क्योंकि उसमें यह माद्दा था कि वह उस खाली जगह को इस तरह भर देगा कि उस जगह का मतलब बदल जाएगा. 

अोम पुरी ने अपनी फिल्मों में खाली जगहों को भरने का यही काम इतनी खूबसूरती से किया कि फिल्मी व्याकरण ही बदल गया. फिर उनकी वह अनगढ़-सी सख्सियत, खुरदुरी-सी अनाकर्षक सूरत, रुखड़ी-सी भाषा, बे-तराशी हुई अावाज अौर ‘क्लासी’ न होना ही एक नई अाभा से भर उठा. पहले हम फिल्मों में हीरो देखने जाते थे, अोम पुरी जैसों ने हमें अपने में ‘हीरो’ देखने की समझ दी. ‘गांधी’ फिल्म में अोम का रोल पल भर का ही था अौर वह भी फिल्म के उन बेहद लोमहर्षक क्षणों के दौरान पर्दे पर अाया था जब गांधी का जादू पर्दे का हर कोना जैसे अपनी गिरफ्त में लिए बैठा था अौर ऐसी संभावना थी ही नहीं, ऐसा कोई भी कहीं नहीं था कि जो कहानी के उस पल की बुनावट को पार कर, अपना कोई कोना गढ़ ले ! उस पल में, उस फ्रेम में अोम जैसे ही नमूदार होते हैं, जैसे दृश्य का को ही ९० अंश घूम जाता है ! गांधी कहीं किनारे चले जाते हैं, बेन किंग्स्ले जैसा अभिनेता खाली जगह भरने के काम अाता है अौर पूरा पर्दा अौर हमारी चेतना का हर कण अोम के पात्र से जा जुड़ता है. यहां अोम सांप्रदायिकता की अाग में जले-झुलसे ऐसे हिंदू के रूप में सामने अाते हैं जिसका पूरा परिवार मुसलमानों के हाथ मारा गया है अौर जिसने अंधी प्रतिक्रिया में, भयानक हिंसा करते हुए कत्ल किए; अौर अंतत: उसके हाथ अाया एक मुसलमान बच्चा ! गांधी के अनशन पर थूकने जैसी प्रतिक्रिया में वह अपने हाथ की सूखी, मुड़ी-तुड़ी रोटी उनके सामने फेंक देता है अौर उन्हें ललकारता हुअा पूछता है कि अब उस मुसलमान बच्चे का वह क्या करे ? यह छोटा दृश्य सबकी चेतना को जकड़ लेता है. अोम का जादू, निर्देशक की अद्भुत समझ अौर उससे बंधी हमारी जड़ता तभी टूटती है जब लंबे उपवास से क्षीण हुई गांधी की अावाज अाती है कि उस बच्चे को अपने बच्चे की तरह पालो लेकिन यह ध्यान रखना कि तुम उसकी परवरिश मुसलमान बच्चे की तरह करना. मानवीय इतिहास में गांधी ने तो ऐसे कितने ही पन्ने जोड़े हैं लेकिन सिनेमा के इतिहास में निर्देशन अौर अभिनय की ऐसी पराकाष्ठा के कुछ ही उदाहरण खोजे जा सकते हैं. 

ऐसा ही एक दूसरा उदाहरण अभी याद अाता है ‘अाक्रोश’ का ! लहनिया भीखू नाम का एक अादिवासी व्यक्ति अौर व्यापक तौर पर अादिवासी जीवन दोनों को एक साथ समेटती, १९८० में बनी यह फिल्म गोविंद निहलानी की पहली अपनी फिल्म थी. अौर कहूं तो अोम पुरी की भी यह पहली फिल्म थी कि जिसमें वे नायक की भूमिका में थे. भीखू अपनी पत्नी की हत्या के अारोप में जेल में बंद है अौर वह चुप है. पूरी फिल्म में भीखू मौन ही रहा - वज्र मौन, जो इतनी गहरी अौर इतनी व्यापक चीख से भरा था कि अापकी चेतना के पर्दे फट जाएं. वह मौन है मतलब यह नहीं कि वह गूंगा है. वह गूंगा इसलिए है कि उसे समझ में नहीं अाता है कि वह किसके लिए, किससे अौर क्यों बोले, क्योंकि बहुत बोलने वाले वाचाल लोगों के समाज ने ही तो उसकी पत्नी का बलात्कार कर, उसे मार डाला अौर फिर उसी अपराध में उसे जेल में डलवा दिया. तो बोलना क्यों ? एक प्रतिकार, एक अस्वीकार अौर अात्मप्रतारणा है उसकी चुप्पी !! अौर फिर सहना जब असह्य हो जाता है तब वह चीत्कार उठता है - सदियों-सदियों से कुचली जाती मूक अात्मा… असहायता अौर अपमान के बोध से भर कर चोट खाई अात्मा की वह चीख अासमान तक को भेद देने को अामादा हो जाती है. तब वह किसी व्यक्ति की नहीं, संपूर्ण समाज की चीख बन जाती है. अोम की वह चीख अंतत: फिल्म को अावाज भी देती है अौर अाकार भी ! सिनेमा में ऐसे जादुई पल भी कभी-कभार ही घटित होते हैं. 

अोम पुरी जैसे ‘सामान्य’ व्यक्ति ने फिल्मों में अाने की सोची इसमें साहस था क्योंकि फिल्मी दुनिया में सूरतों के बारे में एक बनी-बनाई समझ है जिसे तोड़ने का साहस कोई जन्मना कलाकार ही कर सकता है. यह इसलिए भी संभव हुअा कि अोम पुरी इब्राहिम अल्काजी के स्कूल से निकले थे. अल्काजी के एनएसडी ने भारतीय रंगकर्म को कितना दिया है, इसका अब तक पूरा अाकलन नहीं हुअा है. अल्काजी ने अभिनय को सूरत से बाहर निकाल कर रंगमंच पर जिस तरह स्थापित किया, उसने अोम पुरी जैसे कलाकारों को अात्मविश्वास दिया कि उन्हें कैमरे से लड़ने की नहीं बल्कि कैमरे से जुड़ने की जरूरत है. अोम मानते भी थे कि वे जो बने अौर जितना कुछ कर सके, उन सबके पीछे अल्काजी का होना था. नसीरुद्दीन शाह, शबाना अाजमी, स्मिता पाटील, अोम पुरी, दीप्ति नवल, अमोल पालेकर, अमरीश पुरी, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, सईद मिर्जा, कुंदन शाह, केतन मेहता अादि-अादि सभी एक ही दौर में भासमान हुए तो यह केवल संयोग तो नहीं हो सकता है. कहीं कुछ था कि जो इन्हें अाधार दे रहा था. एनएसडी अौर पुणे इंस्टीट्यूट के शुरुअाती स्वरूप को भूल कर हम चलेंगे तो इसे समझ नहीं पाएंगे.
   
जाने भी दो यारो, तमस, अर्धसत्य, मकबूल, भवनी भवाई, अारोहण, गिद्ध, अघात, मिर्च-मसाला … इनमें से अाप अपनी पसंद के दो-एक नाम इधर या उधर कर सकते हैं लेकिन अोम पुरी की सबसे अच्छी फिल्मों की कोई भी सूची बना कर अाप देखें तो पाएंगे कि वही सूची हिंदी सिनेमा की सबसे अच्छी फिल्मों की सूची भी होगी. ऐसा अाप दिलीप कुमार, संजीव कुमार या अमिताभ बच्चन या शबाना अाजमी या नसीरुद्दीन शाह या किसी दूसरे के बारे में नहीं कह सकते हैं ! इससे समांतर सिनेमा की सार्थकता व शक्ति को मापा जा सकता है. अोम पुरी कब भारत से निकल कर हॉलिवुड पहुंच गए, पता भी नहीं चला. अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ भी ऐसी नहीं थी कि वे हॉलिवुड में अपनी धाक जमा पाते लेकिन उनकी धाक तो उनके अभिनय में थी, सो धाक जमनी ही थी, जमी. इरफान खान, अनिल कपूर, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पडुकोण जैसे कई हमारे सितारे अब तो वहां पहुंच कर अपनी जगह बना चुके हैं लेकिन वहां गए अपने सितारों की सबसे अच्छी फिल्मों की सूची भी अाप बनाएंगे तो उसमें गांधी, सिटी अॉफ ज्वाय, माइ सन द फैनेटिक, इस्ट इज इस्ट, द हंड्रेड फुट जर्नी जैसी अोम पुरी की फिल्मों को शामिल करना ही होगा. 

कई लोग मानते हैं, जिनमें वे लोग भी हैं जिन्हें समांतर सिनेमा की वजह से ही जमीन भी मिली अौर जगह भी कि वह सब लाचारी का करतब था. सबकी असली मंजिल तो वही व्यावसायिक सिनेमा है, बॉक्सअॉफिस है जहां पहुंचने अौर जम जाने की होड़ में बहुत कुछ निरर्थक किया जा रहा है अौर सब किए-कराए को व्यर्थ बनाया जा रहा है. अोम पुरी का अपना फिल्मी जीवन भी इसकी ही गवाही देता है. जिस अोम पुरी के चरित्रांकन का सभी लोहा मानते थे लेकिन जिसे ‘सोना’ नहीं मिल पाता था वही अोम पुरी फिर ‘सफल’ होने लगे अौर ‘फलने-फूलने’ लगे; फिल्में भी मिलने लगीं अौर सम्मान भी; वे मुख्य धारा में पहुंच गये अौर स्वीकार भी कर लिए गए; पैसों की वैसी किल्लत भी नहीं रही; पश्चिम के सिनेमा तक उनकी पहुंच बन गई अौर वे हमारे उन थोड़े से कलाकारों में गिने जाने लगे जिन्हें पूरब-पश्चिम सभी पहचानते हैं लेकिन वह बात कहीं छूट गई जिसके लिए अोम पुरी थे. अोम पुरी की फिल्में उस दायरे में बंध गईं जिसे तोड़ने से उनका काम शुरू हुअा था. इसमें किसी की अालोचना नहीं है, कला अौर बाजार के रिश्ते को पहचानना है. बाजार जब कला से बड़ा हो जाता है तब हमेशा कला को विषपान करना पड़ता है.  

अोम पुरी का जीवन एक दूसरे स्तर पर भी विषाक्त हुअा- जीवन के अनुशासन अौर कला की पवित्रता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में खोट थी या अाती गई थी ! अगर मैं कहूं कि अोम पुरी भारतीय सिनेमा के विनोद कांबली थे तो शायद बात को समझना अासान हो ! निजी जीवन में वे खुद से वैसी लड़ाई नहीं लड़ सके जैसी लड़ाई लड़े बिना न कला जी पाती है,न कलाकार. शराब ने अौर दूसरी कमजोरियों ने उन्हें दबोच रखा था. इससे उनका पारिवारिक जीवन भी गंदलाता गया अौर फिल्मों का उनका चुनाव भी दरिद्रतर हुअा. वे जिस तरह गये अौर जिस अवस्था में गये वह कलाकार को यशस्वी तो नहीं ही करता है. उनके जाने से एक ऐसी जगह खाली हुई है जिसे भरने का पुरुषार्थ उन्होंने ही किया था अौर जिसे वे ही खाली छोड़ कर चले गए. वे खुद को खोजने में खो गये कलाकार थे जिसे अंतत: बाजार ने लील लिया. अर्धसत्य का ही एक संवाद कुछ इस तरह था कि एक पलड़े पर नपुंसकता, दूसरे पलड़े पर पौरुष अौर ठीक तराजू के कांटे पर टंगा अर्धसत्य ! यही अर्धसत्य अोम पुरी के जीवन का संपूर्ण सत्य था. ( 10.01.2017)   



  अभिनय के कितने ही शिखर ... !


तब हमारे स्कूल में ऐसा ही चलन था ! चलन था लिख रहा हूं लेकिन पहले ही बता दूं कि अंगुलियों पर गिने जा सकें इतने ही लड़के थे हमारे बीच जो इस चलन को चलाये रखने की हैसियत रखते थे - हर फिल्म का, पहले दिन का पहला शो देखने का चलन ! .... अौर फिर अगले दिन भर, कॉलर ऊंचा कर के स्कूल में ऐसे घूमना जैसे पानीपत की लड़ाई अभी-अभी जीत कर लौटे हों ! अौर ऐसे कितने ही कड़के हुअा करते थे जो दिन भर उनके पीछे घूमते थे कि वह फिल्म के बारे में, उसकी हिरोइन के बारे में, हीरो के बारे में, किसी गाने में हुई कोई खास नजाकत के बारे में थोड़ा तो कुछ बता दे ! वे पता नहीं क्या-क्या शर्तें पूरी करवाते थे तब कहीं जा कर थोड़ी बहुत बातें बताते थे. मुझे याद है कि वे दिन ऐसे हुअा करते थे जब फिल्में किसी हवा की तरह हमारे मन में सरसराती थीं, किसी खुश्बू की तरह बहती थीं. मुझे याद है कि राज कपूर की संगम लगी थी- जैसे सारे शहर में अाग लही थी ! पहले दिन का पहला शो वालों ने जो सनसनी पैदा की थी वह न फिल्म के बारे में थी, न गानों के बारे, न विदेश के सारे लोकेशनों के बारे में अौर न अपनी ही पिस्तौल से अपनी जान लेने वाले राजेंद्र कुमार के बारे में; हालांकि जब हममें से अधिकांश लड़कों ने फिल्म देख ली तब हम सब इस बारे में एक राय थे कि राजेंद्र कुमार जो किया वही एकमात्र रास्ता था; अौर फिर कल्पना में ही, खुद को वैसी परिस्थिति में डाल कर, हमने भी खुद को कितनी ही बार गोली मारी थी. अाखिर सबके पास अपनी-अपनी राधाएं तो होती ही थीं... लेकिन तब सबसे बड़ी सनसनी थी राधा बनी वैजयंतीमाला का बुड्ढा िमल गया वाला गाना ... लेकिन नहीं, गाना तो यह बताने का बहाना हुअा करता था कि उस गाने में वैजयंतीमाला के कपड़े के गले का काट कितना गहरा था ! इतना गहरा कि जो डूबा वह निकल ही नहीं सका !!...

यह जमाना इकलौते परदे वाले सिनेमा हॉलों का था अौर हॉल क्या थे  कि अाज के मॉलों जैसे थे जहां खरीदी की हैसियत अपनी नहीं होती है लेकिन घूमने की शान कोई कैसे छीन सकता है ! शाम हुई कि सिनेमा हॉल पहुंचे अौर कभी हॉल की भव्यता तो कभी पोस्टर से झांकती सुंदरता देखते थोड़ा वक्त बिताया अौर फिर वापस लौटे ! हमारे यहां तो ऐसा भी था कि सिनेमा हॉल का दरवाजा ऐसे बंद रहता था कि हम सड़क से ही या बहुत हुअा तो हॉल के परिसर में घूम लेते थे लेकिन भीतर नहीं जा सकते थे.  लोहे की जाली के भीतर लगे होते थे फिल्म के फोटो जिसे कितने ही कोणों से झुक कर, टेढ़े-सीधे हो कर हम देखते थे. लेकिन हम देखते क्या थे ? 
  किसी से भी पूछिए िक उसने किसी फिल्म में क्या देखा तो जवाब में जो सुनने को मिलता था वह न कहानी के बारे में होता था, न अभिनय  के बारे में, निर्देशन जैसा कुछ होता है यह हम जानते तो थे लेकिन वह फिल्म में कहां पर दिखाई देता है यह न जानते थे, न खोजते थे. हम जो देखते थे अौर जिसकी गहरी छाप हमारे मन पर पड़ती थी वह थी हीरो की अदा ! बालों का लटकना-लहराना, पैंट की काट से लेकर उसकी लंबाई, चलना अौर बोलना - सब सम्मोहित करते थे. अभिनय की समझ तो अभिनेता को भी करते- करते अाती है ( जिन्हें नहीं अाती है कभी, उनकी बात छोड़ दें ! ), हमें देखते-देखते अाती है ! लेकिन हम शुरू में जिसे देखते हैं वह हीरो होता है अौर जो हमें बांधता है वह उसकी अदा होती है. फिर जाने कब हम उस हीरो की जगह खुद ही ले लेते हैं अौर उसकी अदाएं हमारी अदा बन जाती है. 

“ऐसा हमारे साथ भी होता है”, देव अानंद थोड़ा हंसे मानो खुद से ही खुद का मजा ले रहे हों, “ हम जब फिल्मों में अाए थे तब दो नामों की धूम थी - जिसे देखो वह यही कहता था कि भाई क्या कहें, अशोक कुमार अौर मोतीलाल की बात ही अौर है ! ... हम भी देखते थे कि भाई क्या कमाल है !! ... मोतीलाल अौर अशोक कुमार दोनों बहुत सारी मैनरिज्म के साथ अपना काम करते थे अौर अाप एक्टिंग समझें कि न समझें, इन मैनरिज्म में बंध ही जाते हो ! मैंने अपने केरियर के एकदम शुरू में ही यह समझ लिया था अौर इसलिए जैसे ही मैंने महसूस किया कि मेरे पांव अब जम गये हैं, मैंने अपने लिए कुछ मैनरिज्म तै किए अौर गौर से देखने लगा कि इसे मेरे फैंस कैसे लेते हैं !”
अशोक कुमार की बात निकली तो मुझे याद अाया कि दिलीप कुमार ने कहीं बताया कि वे जब फिल्मों में अाने की सोच ही रहे थे, तब किस्मत फिल्म बन रही थी जिसके नायक थे अशोक कुमार. देविका रानी उनकी नायिका थीं अौर उन्होंने ही अशोक कुमार से दिलीप कुमार का परिचय करवाया. अशोक कुमार बहुत अपनेपन से मिले अौर सेट के किसी कोने में बैठ कर दिलीप कुमार उन्हें काम कर देखते रहे. दिलीप कुमार याद करते हैं  : “कितना प्रयासहीन व स्वाभाविक अभिनय था उनका ! अौर तभी उन्होंने मुझे वह गुरुमंत्र दिया जिसे मैंने सारी जिंदगी याद रखा. उन्होंने कहा : अभिनय की बुनियादी बात यह है कि अभिनय मत करो ! मैं जानता हूं कि मेरी यह बात उलझन में डालने वाली है अौर तुम्हें परेशान भी करेगी लेकिन जिस दिन तुम खुद कैमरे के सामने अाअोगे, इस बात को समझ जाअोगे. 
“  मुझमें िदखावा या बड़बोलापन नहीं था. मैंने इसी को अपने मैनरिज्म में ढाला !” 

  देव अानंद कुछ अौर कहें इससे पहले मैंने ही पूछा : “लोग तो कहते हैं कि अभिनेताअों में अापसे ही वह शुरू होता है जिसे अदाएं कहते हैं !” 

- ऐसा जो कहते हैं वे बेचारे अशोक कुमार अौर मोतीलाल से माफी मांगे पहले ! अरे, अशोक कुमार ने हमें परदे पर सिगरेट पीने का अंदाज सिखाया; मैं अाज भी याद करता हूं कि महल में उनकी अदा का जादू कैसा चला था ...  बालों को संवारने का उनका ढंग भी अलग ही था. अौर मोतीलाल... वे तो सर से पांव तक शोमैन ही थे ! ... अपनी बात कहूं तो मैंने यह समझ लिया था कि मुझे यूसुफ अौर राज के बीच अपनी जगह बनानी है. राज तो कपूर परिवार से अाता था जिसकी अपनी फिल्म कंपनी थी. उसके लिए अासान था कि दूसरा कोई काम न दे तो अपनी फिल्म बना ले ! यूसुफ को बड़े बैनरों की बैकिंग थी...कुछ लोग थे जो उसे लेकर ही फिल्में बनाते थे ... वैसे तब फिल्मों में अाज-सा कंपटीशन भी नहीं था... फिर भी मैंने अपने को ऐसी छवि में ढाला कि जो इनसे अलग हो अौर जिसकी नकल न की जा सके. 

“अापके  बाल, अापकी चाल अौर हीरोइनों के साथ अापकी छेड़छाड़, झुक कर उनकी बराबरी में अाना  - अाज तक लोग उनकी मिसालें देते हैं.” 

देव हंसे थोड़ा अौर उन बालों पर हाथ फिराया जो अब पहले जैसे नहीं रह गये थे - “यह सब मैंने कोशिश कर-कर के बनाया था. एक बार जब तुम्हारी मैनरिज्म लोग पसंद करने लगते हैं तब सब कुछ सेफ हो जाता है. तुम करते जाते हो अौर लोग देखते जाते हैं ! ...फिर तुम एक दिन पहचानते हो कि अरे, मैं तो मैनरिज्म में ही बंध कर रह गया ! लेकिन तब तक तुम खुद के रचे जाल में इतने उलझ चुक होते हो कि रिस्क नहीं लेना चाहते हो !... राज के साथ ऎसा ही था ... यूसुफ ने अपनी मैनरिज्म के बावजूद भी अपना काम बहुत ऊंचा उठाया, बहुत निखारा उसने खुद को !”

देव     का बोलना रुका तो मुझे राज कपूर की ऊंची वाली पैंट अौर थोड़े भोलेपन में छिपी चालाकी याद अाई ! इसी अदा ने देश-विदेश में लोगों को उनका दीवाना बनाया था. नहीं, राज कपूर कभी भी हास्य कलाकार नहीं रहे लेकिन उन्होंने जितना अौर जैसा हास्य भारतीय सिनेमा में पैदा किया, वह कम के बूते की बात है. लोग चार्ली चैपलिन की नकल का उन पर अारोप लगाते हैं लेकिन वह सिर्फ नकल होती तो वह असर पैदा नहीं कर पाती कि अाप श्री ४२० या जागते रहो देख कर ठहाके न लगाएं बल्कि कहीं संजीदा हो कर, खुद में सिमट जाएं. 

अदाअों की बेहतरीन टक्कर देखनी हो तो अंदाज देखिए ! दूसरी कोई फिल्म नहीं है कि जिसमें राज कपूर अौर दिलीप कुमार साथ अाए हों अौर साथ हों नर्गिस जैसी बला की संपन्न लड़की कि जिसे रूप-अदा अौर अल्लहड़पने से महबूब खान ने ऎसे सजाया था कि अाप अवाक रह जाएं ! कोई कहे कि यह मल्टीस्टारर फिल्म का एक उदारहण था तो मैं उससे कहूंगा कि उसे फिल्म देखना िफर से सीखना चाहिए. मल्टीस्टारर फिल्म का मतलब होता है कि अाप एक ऐसी फिल्म बना रहे हैं जिसमें दर्शकों को खींच लाने के लिए अाप एक साथ कई पत्ते चलते हैं. शायद यह भी कहा जा सकता है कि जब िनर्माता-निर्देशक को किसी एक स्टार की क्षमता पर ऎसा भरोसा न हो कि यह पूरी िफल्म को अपने भरोसे खींच ले जाएगा, तब वह दूसरे स्टार को भी अपनी  फिल्म से जोड़ता है. यह कुछ वैसा ही है जैसे घाट में चढ़ने वाली रेलगाड़ियों में एक नहीं, दो इंजन जोड़ देते हैं. स्टार के बल पर जो चले वह है मल्टीस्टारर; कहानी के बल पर जो चले अौर स्टार को अपना किरदार बना ले, वह है फिल्म अंदाज ! अाप अंदाज देखें तो सोच भी नहीं सकेंगे कि इसमें से किसी भी अभिनेता को किसी दूसरे के साथ बदला भी जा सकता है !  कहानी को बगैर कमजोर किए या बिखेरे अदाअों की ऎसी जंग हमारे यहां कम ही देखने को मिलती है. 

दिलीप कुमार ने मैनरिज्म का बहुत बड़ा संसार खोल दिया! सबसे पहले तो संवाद बोलने की उनकी शैली ही थी जो दूसरों को परेशान कर देती थी. वे साफ बोलते थे, उनका उच्चारण अादर्श था लेकिन वे इतने धीमे से बोलते थे कि साथी कलाकार परेशान हो जाते थे कि उन्होंने क्या कहा अौर कहां से हमें कहना है ! अशोक कुमार ने तो एक बार परेशान होकर कहा भी था कि वे ऐसा करते ही इसलिए हैं कि दूसरा घबरा जाए ! लेकिन अशोक कुमार चूके भी यहीं पर क्योंकि यह तो दिलीप की अभिनय शैली का ही हिस्सा था कि वे सब कुछ अपनी पकड़ में रखते थे- अावाज भी, भाव भी, अदाएं भी अौर संवाद भी ! उन्हें ऐसा ही सहज लगता था. उन्होंने कहा भी है - “ ऐसा नहीं है कि मैं जान-बूझ कर बहुत ही धीमी अावाज में अपने संवाद बोलता था. मैं अपनी रोज की जिंदगी में भी ऐसी ही अावाज में बोलता हूं. मेरे पिता भी ऐसे ही थे - जब वे परेशान हों तो भी उन्हें चिल्लाते या पांव पटकते हमने नहीं देखा ! मेरी मां भी बहुत शांत व कोमल थीं.” 
राज-देव-दिलीप की त्रिमूर्ति को हटा दें तो भी अच्छे अौर बहुत अच्छे अभिनेताअों की कमी नहीं है अपने पास लेकिन हम बात तो अदाअों की कर रहे हैं. अौर अदाअों के बल पर जो हमारे परदे पर छा गये उनमें राज कुमार को भूलना संभव ही नहीं है. राज कुमार कितने अच्छे अभिनेता थे इस बारे में मतांतर हो सकता है लेकिन अदाअों का उनका जादू सब पर भारी पड़ता था, यह हमने बार-बार देखा है. उन्हें भारी-भरकम संवाद इसलिए दिए जाते थे कि उनका बोझ, उनकी तरह दूसरा कोई उठा ही नहीं सकता था. अपनी अदाअों के बल पर हम वक्त में राज कुमार को पूरी फिल्म अपने कंधों पर उठाए देख सकते हैं. वक्त का वह संवाद कि जिनके अपने घर शीशे के हों वे दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते याकि सामने खड़े गुंडे के हाथ से खुला चाकू लेते हुए यह कहना कि जानी, यह बच्चों के खेलने की चीज नहीं है, हाथ में लग जाएगा तो खून निकल अाएगा अावाज व अदा के जादू का बेजोड़ नमूना है ! वक्त मल्टीस्टारर थी अौर उसमें बलराज साहनी, सुनील दत्त, शशि कपूर के साथ साधना व शर्मिला टैगोर भी थीं अौर फिल्म पर निर्देशक यश चोपड़ा की पूरी पकड़ थी लेकिन फिल्म के जिस फ्रेम में राज कुमार नहीं होते थे, वह कुछ फीका पड़ जाता था. 

अदाअों  की ऎसी ही बादशाहत कायम की शम्मी कपूर ने ! शम्मी कपूर अपने पूरे शरीर से अभिनय करते थे फिर भी उनकी फिल्में हम अभिनय के लिए नहीं देखते थे. तीसरी मंजिल हमने देखी क्योंकि विजय अानंद ने फिल्म का क्राफ्ट क्या होता है उसकी जैसे क्लास ही खोल दी थी अौर फिर था राहुलदेव बर्मन का वह संगीत जिसके बाद से हिंदी फिल्में कभी पुरानी तरह से गा नहीं सकीं. लेकिन शम्मी कपूर की अदाअों में उनकी चीख-चिल्लाहट, बदन का थरथराना, गिरना अौर गिरते-गिरते संभलना अौर अपनी हिरोइनों को हर संभव कोणों से चकरघिन्नी नचाना कुछ ऎसा था जैसा किसी ने किया नहीं था. अभिनय की किताब के सारे पन्ने शम्मी कपूर ने बिखेर कर रख दिए. 

राजेश खन्ना के बारे में प्रचारित किया गया कि वे पड़ोस के लड़के जैसे  सामान्य व सहज हैं लेकिन अापके पड़ोस में उन जैसा अदाअों में जीने वाला कोई अा रहे तो मुसीबत हो जाए ! उनकी स्टाइल गुरुकुर्ते से ही शुरू नहीं होती थी बल्कि उनकी धूप-सी खिलने वाली हंसी अौर संवाद अदाएगी में अावाज का कुछ अलग-सा इस्तेमाल भी उन्हें दूसरों से अलग करता था. राजेश थियेटर से अाए थे, सो कुछ उसका असर भी था उन पर ! बाबर्ची अौर अानंद में वे जिस तेजी से, अावाज में भरपूर उतार-चढ़ाव लाते हुए बोलते हैं, वह अदा उनके साथ चिपक गई जिसे दूसरे दोहरा नहीं सके. लेकिन राजेश खन्ना के बारे में हम जब भी बात करेंगे तब-तब हमें याद अाएगा कि वे अभिनय में भी अपने समकालीनों से कम नहीं थे. मैनरिज्म, प्रतिभा को लोकप्रियता की चासनी में उन्होंने खूब लपेटा था !  

अच्छे, बहुत अच्छे, साधारण अौर अकारण ही चल निकले िकतने ही लोग इस बीच में अाये अौर गये लेकिन अमिताभ बच्चन के उदय के साथ सब कुछ का मानी ही बदल गया ! अमिताभ के बारे में िदलीप कुमार ने जो कहा, उससे ज्यादा सही बात दूसरी किसी ने कही नहीं - “ अमिताभ एक सधे हुए व पूर्ण अभिनेता हैं. शक्ति में हमने साथ-साथ काम किया अौर मैंने देखा कि उस सारे दृश्यों में, जहां उन्हें कुछ भी बोलना नहीं था, वे गजब का असर पैदा कर गये ! मैंने समझ लिया कि इस अादमी ने अभिनय की जड़ पकड़ ली है ! दर्शकों के लिए नहीं, कैमरे के लिए अभिनय करना जब अाप जान जाते हैं तब जा कर अभिनय पूरा होता है, अाप पूर्णता प्राप्त करते हैं.” दूसरी तरफ अमिताभ को अच्छी तरह याद है कि “ दूसरी बहुत सारी बातों के साथ-साथ राज कपूर, दिलीप कुमार अौर देव अानंद की फिल्में ही थीं जिन्हें देख-देख कर मैं बड़ा हुअा.”  अमिताभ के चौड़े पांयचे की पतलून पहनी अौर उस पर शर्ट पहनी िजसे कमर के ऊपर गांठ से बांध दिया ! वे एंग्री यंगमैन की जिस भवि को तब गढ़ रहे थे, यह बाना उससे सीधा जुड़ जाता था. यह बाना चल निकला - अमिताभ जैसा दिखना हो या अमिताभ जैसा बनना हो तो लड़कों ने इस तरह के कपड़े पहनने शुरू कर दिए. 

हिंदी सिनेमा में जब अमिताभ बड़े हुए तब कोई नहीं था कि जो उनके  अासपास भी था. थे जरूर दूसरे अभिनेता भी लेकिन वे सभी अमिताभ को सीधी टक्कर दे सकने की हैसियत नहीं रखते थे. एक संभावना विनोद खन्ना की थी लेकिन वे जल्दी ही पर्दे के पीछे अौर भगवान रजनीश के पास पहुंच गये. थोड़ी-बहुत संभावना शत्रुघ्न सिंहा में भी थी लेकिन शत्रुघ्न कभी फिल्म के मुख्य नायक के रूप में स्वीकार नहीं हुए अौर नायक की बराबरी की भूमिका हमारे यहां रची ही कितनी जाती है ! एक दोस्ताना कर के अमिताभ ने भी इस अादमी से अाने वाला खतरा भंप लिया अौर इससे किनारा कर लिया. इसके बाद जो भी बचे थे उनकी जरूरत अमिताभ को नहीं थी,  उन सबको खुद को बनाए व चलाए रखने के लिए अमिताभ की जरूरत थी.  फिल्म उद्योग कभी किसी एक अादमी पर इस तरह अविलंबित नहीं हुअा था जैसा अमिताभ पर हुअा. लेकिन इस उजाले का एक अंधेरा कोना भी था . अपने ही रचे इस जंगल में अमिताभ खो गये - कितनी ही फूहड़ फिल्में भी उनके नाम से दर्ज हुईं अौर कितनी ही छिछली हरकतें भी ! बहुत गिर कर खुद को ऊंचा उठाया अमिताभ ने ! इसी दौर में अमिताभ ने बार-बार खुद को दोहराया भी अोर देव अानंद की उस बात को फिर से एक बार साबित कर दिया कि अदाएं अापको अापके ही जाल में उलझा कर, खत्म भी कर देती हैं ! अासमान पर चढ़ने के बाद,अमिताभ देख नहीं पाए कि िकधर से वक्त फिसल गया; अौर फिर एक वह दौर भी अाया जब अमिताभ हाशिये पर फेंक दिए गये.  अपनी नाव चलाते रहने के लिए वे गोविंदा तक की बांह पकड़ने पर मजबूर हुए. लेकिन वे वहां से फिर उठे तो अासमान भी छोटा पड़ जाए ऐसी बुलंदियां छुईं उन्होंने ! इसमें उनकी मदद की उनकी सर्वप्रियता ने, बड़ी मेहनत से गढ़ी सहजता ने, अाभिजात्यपूर्ण व्यक्तित्व ने !  काम के प्रति ऐसा अनुशासन था उनमें जैसा, सलमान खान वाला मुंबइया फिल्म जगत जानता-पहचानता नहीं है; अौर अावाज पर ऐसा नियंत्रण था उनका कि जिसके बल पर उन्होंने अग्निपथ जैसी फिल्म को अासमान में पहुंचा दिया ! अमिताभ के साथ-साथ िहंदी फिल्मों के व्याकरण ने भी करवट बदली अौर मेलोड्रामा कम-से-कम होने लगा. अपनी मजबूर सख्सियत को, सहजता के लिफाफे में बंद कर, अाभिजात्यपूर्ण तेवर से पर्दे पर पेश करना अमिताभ की अदा बन गया !  अमिताभ के पास अा कर, धीरे-धीरे हीरो की व्यक्तिगत अदाअों ने वह जगह खाली कर दी अौर अभिनय की निपुणता ने उस पर कब्जा कर लिया. अमिताभ अाज उसके ही प्रतीक बने खड़े हैं - चाहे छोटे पर्दे पर  हों कि बड़े पर्दे पर !  
कहने वाले कहते हैं कि अमिताभ दिलीप कुमार की नकल करते हैं. दिलीप कुमार की नकल करने वालों में हम गिनें तो मनोज कुमार भी हैं अौर राजेंद्र कुमार भी अौर कई दूसरे भी! क्या अमिताभ को हम इनके साथ खड़ा कर सकते हैं ?  कोई हां कहे तो उसे फिल्में देखने की अपनी अांख जांच करवानी चाहिए. हमें वह बात समझनी चाहिए जो अशोक कुमार ने दिलीप कुमार को समझाया था - अभिनय की बुनियादी बात यह है कि अभिनय मत करो ! अमिताभ अाज इसके प्रतिमान-से बन गये हैं. 

हम अमिताभ अौर शाहरुख खान को साथ रख कर इसे बेहतर समझ सकते हैं. सफलता अौर लोकप्रियता में अमिताभ के साथ अाज कोई खड़ा हो सकता है तो वह शाहरुख ही हैं ! शाहरुख इस सच्चाई को इतनी गंभीरता से लेते हैं कि वे अमिताभ की नकल करने की जगह सीधा वही बनने से परहेज नहीं करते ! अमिताभ की सफल फिल्मों को फिर से बना व बनवा कर शाहरुख ने खुद को उनके चोले में डालने की कोशिश की है अौर कई लोग कहते हैं कि वे इसमें सफल भी रहे हैं. लेकिन क्या किसी को ऐसा लगता है कि कोई डॉन या कोई देवदास पहले से बनी न होती तो भी शाहरुख की ये फिल्में सफल होतीं ?  ये चलीं तो इसलिए कि लोग देखना चाहते थे कि शाहरुख दिलीप कुमार अथवा अमिताभ बनते हैं तो कैसे लगते हैं अौर कितना बन पाते हैं !  

शाहरुख अदाअों से सफलता पाने के सबसे बड़े उदाहरण हैं. हकलाते हुए संवाद बोलने की उनकी अदा, गालों में पड़ते गड्ढे, गहरी अांखें अौर भव्य सारा परिवेश अौर उनसे जुड़ा सब कुछ भव्य, दिव्य अौर विशाल ! शाहरुख खान इसमें से ही पैदा हुए अौर कोई दो दशकों से ऐसे ही जमे हुए हैं. बीच में एक वीर-जारा अाई थी जिसमें शाहरुख ने अपनी बनी छवि को तोड़ने या अपने दायरे से बाहर निकलने की हिम्मत की थी. वह भी बहुत शंका के साथ अौर यश चोपड़ा ने भी पूरी सावधानी रखी थी कि िफल्म में किसी-न-किसी रास्ते से वह सब डाला ही जाए जिससे शाहरुख जाने-पहचाने जाते हैं. इस एक उदाहरण को छोड़ दें हम तो बाकी सभी जगह वे खुद ही होते हैं- खुद को दोहराते हुए ! कहूं तो ऐसा कह सकता हूं कि जिस तरह मनमोहन देसाई अौर प्रकाश मेहरा ने अमिताभ को अौसत दर्जे का, फूहड़पने की हद करते हुए कमाने वाली मशीन में बदल दिया, कुछ वैसा ही करण जौहर ने शाहरुख के साथ किया अौर इसलिए बहुत जल्दी इस समीकरण की हवा भी निकल गई. यश चोपड़ा न होते तो शाहरुख के पास गिनाने को क्या होता, इसका हिसाब वे खुद ही लगाएं. 
अदाएं तो नहीं लेकिन अपने व्यक्तित्व की भव्यता से अपनी जगह बनाई ऋतिक रोशन ने ! अपनी पहली फिल्म कहो ना प्यार है से अपना लोहा मनवाने वाले ऋतिक की लुटिया डूबी करण जौहर की कभी खुशी कभी गम में ! लेकिन अाशुतोष गोवारीकर की जोधा अकबर में ऐसी धज के साथ ऋतिक अाए कि सबसे होश गुल हो गये. जिंदगी ना मिलेगी दोबारा में भी ऋतिक जिस तरह अाए, वह सबसे अलग था-- कहते हैं कि गालिब का था आंदाजे-बयां अौर !  कोई मिल गया वाली दोनों फिल्में भी सिर्फ इसलिए खास नहीं थीं कि उनमें दूसरे ग्रह से आए किसी प्राणी की कहानी हिंदी में पहली बार कही गई थी याकि कुछ अतिमानवीय शक्तियों का चमत्कार हमें देखने को मिला था ! कोई मिल गया में ऋतिक जिस तरह परदे पर अाए उस तरह किसी दूसरे अभिनेता ने काम किया हो तो मुझे याद नहीं ! नेत्रहीनता या ऐसी किसी विकलांगता को लेकर अभिनय तो कई लोगों ने किया है - दीदार में दिलीप कुमार को देखें अाप या कोशिश में संजीव कुमार अौर जया भादुड़ी को देखें. ब्लैक की रानी मुखर्जी को कोई कैसे भूल सकता है ! अाप माइ नेम इज खान में शाहरुख को भी देखें ! अौर देखना न भूलें दर्शील सफारी को जिसने तारे जमीन पर को अासमान में पहुंचा दिया ! इन सबने अच्छा काम किया है लेकिन ऋतिक ने कोई मिल गया में जिस तरह अविकसित मानस वाले किशोर से युवा तक की भूमिका निभाई है वह अपना उदाहरण अाप है. वहां वे अपने संपूर्ण अस्तित्व से पात्र को जीते हैं. अमिताभ बच्चन पर हालांकि मेकअप करने वालों ने बहुत काम किया था अौर पा को जीने में अमिताभ को बहुत मेहनत लग रही है, यह भी हम देख पा रहे थे, फिर भी मैं  कहूंगा कि पा में अमिताभ अपनी जगह से काफी ऊपर उठते हैं- ब्लैक की तरह !  लेकिन ऋतिक अपनी संपूर्ण सख्सियत में ही अदा के उदाहरण हैं. अाप चाहें तो जोधा-अकबर देख लें या फिर नई वाली अग्निपथ ! जिस अभिनय में से अदाएं खुद ही बनती हैं, ऋतिक उस श्रेणी में अाते हैं. यह वह श्रेणी है जिसमें अामिर खान भी अाते हैं हालांकि अामिर की तुलना में ऋतिक ज्यादा बड़ा दायरा खींचते हैं. यह वह श्रेणी है जिसमें सलमान खान या सैफअली खान कभी नहीं अाते हैं. 

अभिनय का यह जो विस्तीर्ण पन्ना मैंने खोला है, इसका हाशिया बहुत बड़ा है - पन्ने से भी बड़ा ! अापको वहां अदाअों से दमकते-बुझते कितने ही ऐसे सितारे मिल जाएंगे जिन्हें अाप मेरी सूची में देखना चाहते होंगे. मुझे भी  कुछ नाम इतने प्रिय हैं िक जिन्हें मैं इस सूची में रखना चाहता था. लेकिन मैं यह भी तो चाहता हूं कि हम अभिनय अौर अदाअों का फर्क करना सीखें ! अौर सिनेमा के साथ मुश्किल यह भी है कि यह सिर्फ अौर सिर्फ अभिनय के बल पर चलता नहीं है. इसलिए बलराज साहनी, संजीव कुमार, इरफान खान, नसीरुद्दीन शाह, अोम पुरी जैसे कई नाम छूट जाते हैं. लेिकन सच तो यह है कि ये छूट नहीं जाते हैं, ये अपना नाम किसी दूसरे पन्ने पर दर्ज कराते हैं. उन पन्नों की बात फिर कभी ! ..


चेहरे

िजनसे नूर बरसा, चांदनी खिली अौर हवाअों ने सांस ली !

ये शै भी कुछ अजीब है जिसे हम सूरत कहते हैं ! सबके पास सूरत नहीं होती हालांकि भगवान ने सबको वह दिया ही है कि जिसे सूरत कहते हैं ! अापने  भी तो देखा ही होगा कि जितनी बड़ी भीड़, उतने ही चेहरे लेकिन सभी-के-सभी गुम ! ... वहां चेहरे नहीं होते हैं केवल सर होते हैं... लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई ऐसा भी चेहरा सामने अा जाता है कि जिससे नूर बरसता है ... िक जिसे देख कर चांदनी िखलती है... कि जिसे देख कर हवाएं सांस लेती हैं ! वह कोई जन्नत है कि जहां ऐसी सूरतें बसती हैं कि जो जीने को अर्थ देती हैं, जीने का पैगाम देती हैं अौर मौत तक साथ देती हैं ... बकौल मियां गालिब - मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने अौर मरने का / उसी को देख कर जीते हैं जिस कातिल पे दम निकले ! 

यह मात्र सुंदरता नहीं है हालांकि यह सुंदरता के अावरण में ही लिपटा होता है; यह एकदम खुला होता है - एकदम सामने - हाथ से छू लें इतनी दूरी पर; फिर भी रहस्य के अनगिनत पर्दे खिंचे रहते हैं... कोमलता इतनी कि अपना होना भी भार लगे... अौर भार इतना कि न नजरों से उठे न नजारों से !!!...नहीं बेहिजाब वो चांद-सा कि नजर का कोई असर न हो / उसे इतनी गर्मिए-शौक से बड़ी देर तक न तका करो ...

... वर्षों पहले की बात है. मुंबई के सन एंड सैंड होटल में, पूल के अासपास हम जमा थे... यह शत्रुघ्न सिन्हा का उदय-काल था अौर तब उनके पास रामायण नहीं थी. बांदरा बैंडस्टैंड पर, तब हम देवदूत नाम की एक ही बििल्डंग में रहते थे ... सन एंड सैंड होटल में उनकी जन्मदिन की पार्टी थी... न सूरतें कम थीं वहां अौर न वे कम थे जो हर कबूतर को दाना डालते हैं... इतने में वे अाईं !!! ... हल्की-सी गुलाबी रंग की साड़ी ... साड़ी उन्हें बांध नहीं रही थी बल्कि उन्मुक्त कर रही थी ... चमकता चेहरा जैसे चहक रहा था... कितने ही कैमरे चमके अौर बुझे... एक अफरातफरी मची ... सीधे मिलने वाले सीधे अौर चोर नजरों से मिलने वाले चोर नजरों से ... सब अचानक ही सक्रिय हो उठे ... वे इससे गाफिल नहीं थीं कि वे सारी नजरों में हैं लेकिन यह भी तो था कि कोई उनकी नजर में नहीं है यह सारी नजरें जानें-पहचानें... कुछ ऐसा ही अालम बना ... ये मुमताज थीं !!! ... संगेमरमर पर किसी ने कमसिनी की बर्क लपेट दी हो जैसे ... फिल्मों में जिस जगह से मुमताज ने अपना सफर शुरू किया था उसके बारे में नियम तो यही कहता है कि उन्हें वहीं दफन हो जाना चाहिए था - दारा सिंह जैसों के साथ काम करने वाली एक बी ग्रेड नायिका ! लेकिन मुमताज वहां से उठीं अौर दिलीप कुमार, देव अानंद की नायिका बनीं... वे राजेश खन्ना जैसे को संभालने लगीं फिल्म-दर-फिल्म तो इसके पीछे उनका यह सौंदर्य सबसे बड़ा कारण था. अभिनय की तराजू पर उनकी कोई खास बड़ी जगह न थी, न है; लेकिन वक्त का इतना बड़ा दरिया पार कर लेने के बाद भी मुझे सन एंड सैंड में बुना गया सौंदर्य का वह मायाजाल उलझाता है तो अाप उसके असर का अंदाजा लगाइए ! यह जादू है ही ऐसा कि जिसका अंदाजा अगर अापने लगा लिया तो फिर वह जादू ही क्या रहा !! वह गहराई ही क्या कि जिसकी अापने थाह पा ली हो ...
मुझे लगता है कि अाप इस कहानी को कहीं से भी शुरू करें पहला पन्ना मधुबाला के नाम का ही होगा ! मधुबाला यानी जीवन के उल्लास से भरी अौर रह-रह कर छलकती गगरी... अभी सोच रहा हूं तो लगता है कि मधुबाला न होतीं तो हमारी कई नायिकाएं - मुमताज, परवीन बाबी से लेकर दीपिका पडुकोणे तक - परदे तक पहुंच ही नहीं पातीं. मधुबाला के पास वह सब कुछ था, अौर भरपूर था कि जिससे सपने बनते हैं... बहुत तराशा हुअा बदन... बला की शैतानी भरी अांखें... हंसी ऐसी कि खिलती-छन कर अाती धूप भी हतप्रभ हो जाए... मधुबाला की प्रतिभा को उनके सौंदर्य ने ढक कर रखा था... जिसे चकाचौंध हो जाना कहते हैं न, कुछ उस तरह का सौंदर्य था उनका ... इतना सहज था उनका होना कि उसे किसी दावे की जरूरत नहीं पड़ती थी... प्रचार व उभार देने वाली अाज-सी स्थितियां तब होतीं जब मधुबाला हमारी फिल्मों में थीं तो हमें हम उनकी पूरी ऊंचाई का अंदाजा लगा पाते ... मैं इसी खोज में बढ़ता ही चला जाता हूं / कोई अांचल है जो कोहसारों पे लहराता है... कुल जिंदगी ही तो उनकी ३६ साल की रही जिसमें कई वे साल भी थे जब वे परदे पर नहीं थीं अौर कई वे साल भी जब वे बीमार होती रहीं. कितने नामों से उनका नाम जुड़ा अौर कितनी-कितनी बार झन्न से टूट गया ... अाखिरी बार वे किशोर कुमार से जुड़ीं ... अौर फिर जिंदगी की डोर तोड़ गईं ... लेकिन तीन... केवल तीन फिल्में देख लीजिए अौर अाप मधुबाला का पूरा जादू महसूस कर लेंगे -  िमस्टर एंड मिसेज 55, चलती का नाम गाड़ी अौर फिर मुगले अाजम.

मधुबाला से एकदम अलग ध्रुव पर बसती हैं मीना कुमारी !

 कभी इस सवाल का जवाब खोजिएगा कि मीना कुमारी अभिनय की दुनिया में नहीं अाई होतीं तो किसका नुकसान ज्यादा हुअा होता- मीना कुमारी का या हमारा? मीना कुमारी उस दर्जे की अदाकारा थीं कि जो अभिनय का संसार रचती हैं. उनमें गहरी मांसलता थी लेकिन सौंदर्य उनका अोस नहाए किसी सफेद गुलाब जैसा था. तमाम किस्से हैं कि जो मीना कुमारी को अोस नहाए गुलाब की उस डाल से नोच फेंकना चाहते हैं लेकिन वे इनकी पहुंच से कहीं दूर, अौर बहुत अलग डाल पर ही डोलती रहती हैं. उन्हें इस तरह तोड़ने की कोशिश कमाल अमरोही ने भी की थी जिनसे शादी करना मीना कुमारी की जिंदगी की सबसे बड़ी कई भूलों में एक भूल थी. मीना कुमारी को तोड़ने की कमाल ने बार-बार कोशिश की अौर बार-बार अौंधे मुंह गिरे थे अौर तब उन्हें होश अाया था अौर तब बनी थी पाकीजा ! जब पाकीजा बनी तब मीना कुमारी खत्म हो रही थीं - उनकी भावुक मूर्खताअों ने उन्हें तार-तार कर दिया था; अौर शराब व दूसरे नशों ने उन्हें खोखला कर दिया था. शायद यही कारण था कि वे पाकीजा में अभिनय की अपनी वसीयत लिख गईं. एक नाम ऐसा है जिसके साथ उन्होंने बहुत कम काम किया अौर कहते हैं कि इसके पीछे कमाल अमरोही का यह फरमान भी था कि वे कभी भी दिलीप कुमार के साथ काम नहीं करेंगी लेकिन यह सच कोई भी देख सकता है कि मीना कुमारी सबसे ज्यादा उभरती हैं जब वे दिलीप कुमार के साथ काम करती हैं. इसका कारण कहीं इसमें भी छुपा है कि दोनों एक परिपूर्ण कलाकार के रूप में गढ़े गए थे. दोनों ट्रेजडी किंग एवं क्वीन के रूप में जाने भी जाते थे. लेकिन जैसे इस दायरे में दिलीप कुमार को बांध कर हम अपनी फिल्मों का बहुत कुछ खो देंगे वैसा ही मीना कुमारी को बांधने की कोशिश का भी हस्र होगा. मीना कुमारी के पास अापको एक भी खोखले या नकली भाव नहीं मिलेंगे. अांसुअों से भरी उनकी दो गहरी अांखों ने जितनी बातें कही हैं उतनी बातें दूसरी नायिकाएं सारी कसरत कर के भी नहीं कह पाई हैं... जिसे ले गई अभी हवा, वो बरक था दिल की किताब का / कहीं अांसुअों से मिटा हुअा, कहीं अांसुअों से लिखा हुअा... बालों के घने जंगल में खोई अांसू भरी उनकी अांखें या किसी किरण की तरह उतरती उनकी हंसी सौंदर्य का नया ही प्रतिमान गढ़ती हैं. साहब बीबी अौर गुलाम अाप देख लें तो मेरी सारी बातें अाकार ले लेंगी. लेकिन मैं चाहूंगा कि अाप कोहीनूर भी देखें, दिल अपना अौर प्रीत पराई भी देखें, चित्रलेखा भी अौर मेरे अपने भी. मुझे तो लगता है कि दिल एक मंदिर भी अाप देखें तो मीना कुमारी का वह देख लेंगे जो उन्हें अप्रतिम बनाता है. 
नर्गिस की बात करते हुए मेरे जेहन में उभरती है एक मीनार - तीखी नोक - सीधे अासमान को ललकारती ! नर्गिस ने उस लड़की को पर्दे पर खड़ा किया जो तब समाज में थी लेकिन जिसके होने को कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं था लेकिन जो अपनी जगह बनाने को परेशानहाल, तड़प रही थी. उसमें प्यार करने की गहराई अौर प्यार पाने की तड़प दोनों थी अौर वह पूरी शिद्दत व ताकत के साथ सामने अाती थी. राज कपूर की फिल्में अपना सारा मतलब ही खो देंगी अगर अाप नर्गिस को उनमें से निकाल देंगे. अाग, बरसात, अावारा, श्री ४२० अादि में हम जिस नर्गिस को देखते हैं वह सौंदर्य को लुभाने वाले हथियार के अंदाज में नहीं,  िकसी ऐसे हथियार की तरह बरतने वाली लड़की है जो अापका नशा हिरण कर दे... इसी सब्ज पेड़ की अोट में अभी चांद हार के सो गया / तेरे पाक होठों को चूम ले, यह कहां किसी की मजाल है ... सौंदर्य का जैसा तीखापन हमने नर्गिस में पाया वैसा फिर कभी दिखा ही नहीं. लेकिन नर्गिस को उसकी परिपूर्णता में देखना हो तो अाप देखें अंदाज ! िदलीप अौर राज जब अपनी जान उड़ेल कर अामने-सामने काम कर रहे हों तब उनके बीच उतरना अौर अपनी मजबूत जगह बना लेना बिरलों के बस का है अौर वह नर्गिस के बस में था. लेकिन मदर इंडिया की नर्गिस किसके बस की बात थी ? नर्गिस अौर केवल नर्गिस के बस की बात थी. 

नूतन सुंदर थीं ? ... मैं कह नहीं पाऊंगा. कह इतना ही पाऊंगा कि नूतन बस नूतन थीं जिसमें सुंदरता-सहजता-सादगी का सौंदर्य मूर्तिमान हुअा था. उनका सौंदर्य ऐसा था नहीं कि जो अांखों पर हमला करता है बल्कि वह सौंदर्य था जो कहीं भीतर-ही-भीतर अापको गढ़ता है, सजाता है, संवारता है अौर सौंदर्य को देखने की नई अांख देता है. नूतन में हम उस भारतीय सौंदर्य को अपने चरम पर देख सकते हैं कि जिसका दावा करने में लगी िकतनी ही नायिकाएं खुलते-खोलते हवा हो गईं ! नूतन के सौंदर्य को हम मन-ही-मन नाप-तौल सकते हैं; पहचान सकते हैं अौर अगर अक्ल हो तो अपनी समझ का विस्तार भी कर सकते हैं. उनके चेहरे पर एक कोई फालतू या गलत रेखा नहीं थी अौर उनकी अांखें इतना कुछ बोलती थीं कि अाप फिर से बारहखड़ी पढ़ने लगें... कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम के / यूं ही साथ-साथ चलें सदा, कभी खत्म अपना सफर न हो... साड़ी का भड़कीला सौंदर्य भले अाज विद्या बालन ने स्थापित किया है लेकिन साधारण-सी साड़ी में सौंदर्य का सारा शास्त्र लपेट कर नूतन पहले ही हमें अवाक कर चुकी हैं. विमल राय ने अपनी ऐसी ही कल्पना को नूतन को सौंप दिया तो बंदिनी, सुजाता बनी, अनाड़ी बनी लेकिन नूतन को देखना हो तो अाप तेरे घर के सामने भी देखें. सीमा, छलिया अौर सरस्वतीचंद्र अगर अापने देख ली तो सौंदर्य की कितनी ही कथाएं लिख सकेंगे अाप ! अौर बात चूंकि नूतन की कर रहा हूं मैं इसलिए यह कहना जरूरी है कि जब अाप नूतन को देख रहे हों तब अाप भूल नहीं सकेंगे कि अाप अभिनय की दुनिया में उतरी हमारी सबसे मोहक प्रतिभा को देख रहे हैं. 

इस सूची में रेखा को नहीं  लें  हम तो क्या होगा ? सबसे पहली बात तो यही होगी कि यह सूची व्यर्थ हो जाएगी. रेखा की सुंदरता ने अपनी जगह इसी तरह हासिल की- दावा डाल कर ! ... कभी वे दिन भी थे जब लोग सौंदर्य का उल्टा ढंूढते नहीं थे, बस, रेखा कह देते थे; फिर वे दिन भी अाए जब सौंदर्य की परिभाषाएं इस तरह बनाई व बदली गईं कि रेखा को रेखांकित किया जा सके. अाप समझ सकें तो इसमें रेखा की परिपूर्णता समझें. रेखा की सुंदरता को एक खास किस्म की तैयारी की जरूरत होती थी यानी कि वे बहुत सजी-संवरी होती थी. एक ऐसा दौर भी हमने देखा है जब सारे नामी निर्देशक रेखा को साथ ले कर काम करना चाहते थे अौर हमने इसी दौर में खूबसूरत देखी, घर अौर इजाजत देखी. हमने रेखा को वह सारा पर्दा घेरते देखा जिस पर कितने ही खास चेहरे अपना कब्जा किए हुए थे. अभिनय में एक खास किस्म की प्रौढ़ता अौर चेहरे पर स्वाभिमान की गहरी छटा - यह वह रेखा थी जो अमिताभ बच्चन के साथ देखी नहीं गई थी. अमिताभ के साथ हमने जिस रेखा को कितनी ही हिट फिल्मों में देखा था वह किसी के जादू में कैद रेखा थी जिसकी सुंदरता अौर जिसका अभिनय दोनों किसी के लिए हुअा करता था. सिलसिला में हमने रेखा को वह दायरा पार करते देखा अौर फिर कोई दायरा उसे बांध नहीं सका. रेखा छाती ही गईं. उत्सव में रेखा ने सौंदर्य की एक नई खिड़की खोली; इजाजत अौर घर में वे अभिनय की उस प्रौढ़ता को छूती हैं जहां वे कभी पहुंच सकेंगी, ऐसा लगता नहीं था. उमराव जान में वे सौंदर्य अौर अभिनय का वह शिखर छूती हैं जिसकी चाहत सभी करते हैं लेकिन पहुंच कम ही पाते हैं... इस शहर में इक लड़की बिल्कुल है गजल जैसी / बिजली-सी घटाअों में, खुशबू-सी हवाअों में ... रेखा ने समय रहते अपने चारो अोर एक रहस्य बुन लिया. अब कभी-कभार जो रेखा हमें दिखाई देती हैं वह उनकी छाया भी छू नहीं पाता है क्योंकि रेखा की यूक्लिड की परिभाषा ही ऐसी है ! उनका सौंदर्य उसी अावरण में अाज भी याद अाता है, लुभाता है अौर कसमसाता है. 

मुझे लगता है कि रेखा के पर्दे पर अाने की जमीन अगर किसी एक ने तैयार की तो वह थीं वहीदा रहमान !  अक्सर चांद याद अाता है जब हम वहीदा को याद करते हैं तो इसलिए नहीं कि उनकी फिल्म का नाम चौदहवीं का चांद था बल्कि इसलिए कि चांद का सौंदर्य भी छूने के लिए नहीं, निहारने के लिए होता है. वहीदा रहमान में ऐसी कुछ बात थी कि वे सच भी थीं अौर ख्वाब भी... मैं मुहब्बत से महकता हुअा खत हूं, मुझको / जिंदगी  अपनी किताबों में छुपा कर ले जाए... बहुत तराशा हुअा बदन अौर बहुत अनछुई-सी उपस्थिति थी उनकी जिसे हमने प्यासा में देखा अौर साहब बीबी अौर गुलाम में देखा. मीना कुमारी की वैसी उपस्थिति में, जिसमें किसी का भी दम टूट जाए, केवल वहीदा ही जी सकती थीं. फिल्म के छोटे-से कोने में भंवरा बड़ा नादान है गाती हुई जैसे कई सारी वे िखड़कियां वे खोलती जाती हैं जो फिल्म के अंधेरे ने बंद कर रखी थी. प्यासा की याद करें हम जब अाज सजन मोहे अंग लगा लो के साथ वहीदा पर्दे पर अाती हैं अौर फिल्म सांस लेने लगती है ! वहां भी वहीदा फिल्म के केंद्र में नहीं हैं लेकिन उनके अाते ही फिल्म केंद्र बदल लेती है. कागज के फूल को लोग गुरुदत्त की फिल्म कहते हैं, मुझे वह उतनी ही वहीदा की फिल्म भी लगती है. बहुत प्रयासहीन था उनका होना ! गाइड में राजू गाइड जितनी ही कोशिशें करता है कि उसकी उपस्थिति दर्ज होती रहे, रोजी उतनी ही निष्प्रयास गहरे उतरती जाती है. कांटों से खींच के ये अांचल गाती हुई वहीदा जैसी दिखाई देती हैं वैसी उन्मुक्तता पर्दे पर कितनी देखी है अापने ? नूतन की तरह ही वहीदा ने भी अपनी एक ऊंचाई बना रखी थी जिससे नीचे वे कभी अाईं ही नहीं. 

माधुरी दीिक्षत ने जब पर्दे पर कदम रखा तब एक बड़ी जगह खाली पड़ी थी जिसे सौंदर्य कहते हैं. ऐसा नहीं था कि इस बीच सौंदर्य की दुनिया में कोई सूखा पड़ा था ! हेमा मालिनी, राखी, श्रीदेवी, डिंपल, परवीन बाबी ... कितने तो नाम थे ! सबका अपना सौंदर्य था, अपना मुकाम था. इन सबके नाम भी बड़ी-बड़ी फिल्में दर्ज हैं अौर इनने भी बड़े मुकाम हासिल किए हैं लेकिन वो बात होती है न कि कतार वहां से शुरू होती है जहां हम खड़े होते हैं जैसी कोई हस्ती अाई तो उसका नाम माधुरी था ! माधुरी का अाना अौर खिलना बहुत कुछ रेखा की तरह था. जब अाई तो लगा ही नहीं कि यह कुछ ले कर अाई है; अौर जब हमने उन्हें पहचाना तो पहचाना कि इसने तो यहां अाते-अाते वह सब समेट लिया है जो दूसरों के पास नहीं था. तेजाब में १-२-३ गाना तो सीखा उसने था लेकिन उसके साथ यह गाना गाया सारे देश ने ! दीदी तेरा देवर दीवाना कितने देवरों को दीवाना कर गया ! माधुरी में मादकता थी, मांसलता थी अौर था वैसा खुलापन जिसकी खोज सभी निर्देशकों को रहती है लेकिन बहुत खोज-खोज कर भी वे जो पाते हैं उसमें सस्ता उद्रेक होता है या घटिया दिखावा ! ऐसी लड़कियों की सूची बहुत लंबी है जो मुंबइया जादू से खिंची यहां अाती तो हैं लेकिन फिर किसी अंधेरे, गुमनाम कोने में, अपना इस्तेमाल किए जाने का इंतजार करती हैं. माधुरी ने ऐसा कोई कोना कबूल नहीं किया बल्कि सारा संसार अपना बना लिया. माधुरी की ताकत इसमें ही थी कि वे किसी के भी सपनों में बसने वाली वह लड़की थी जो कोमल भी है अौर तनी हुई भी. 

माधुरी ने तेजी से अपने व्यक्तित्व पर काम किया अौर जल्दी से उसे अपनी शर्तों पर स्थापित भी कर लिया. माधुरी ने वे सारी जगहें अपनी मुट्ठी में कर लीं जो किसी दौर में, किसी नायिका को शायद ही मिली हो. इस बारे में इससे ज्यादा क्या कहा जा सकता है कि माधुरी एक साथ ही यश चोपड़ा की भी हिरोइन थीं अौर प्रकाश झा की भी. एक ही समय में अयूब खान अौर शाहरुख  खान; संजय दत्त अौर सलमान खान की नायिका बनने में माधुरी को कोई परेशानी नहीं होती थी क्योंकि अपनी जगह पर वे इतनी मजबूती से खड़ी रहती थीं कोई िकनारे लगा ही नहीं सकता था. मुझे मृत्युदंड अौर दिल तो पागल है कि माधुरी को एक साथ पसंद करने में कोई परेशानी नहीं होती है क्योंिक दोनों फिल्मों में वे एक लड़की के रूप में हमारी स्वप्निल उड़ान में भी हमारे साथ ऊंची पेंगे लेती हैं अौर जमीन पर भी हमारे साथ कदम मिला कर चलती हैं. इधर माधुरी हंसीं अौर उधर हजार-हजार कलियां चटकीं, फूल खिले, किरणें फूटीं अौर अाप हतप्रभ रह गये... जब सहर चुप हो, हंसा लो हमको / जब अंधेरा हो, जला लो हमको !!  ... मकबूल फिदा हुसैन जब माधुरी पर फिदा हुए तब यह सब था जिसे उन्होंने पहचाना था. वे दर्जनों बार हम अापके हैं कौन देखते रहे तब इस माधुरी के पर्दे से गये कुछ दिन निकल चुके थे. माधुरी के बाद की पीढ़ी अपने रंग जमाने लगी थी. संजय लीला भंसाली देवदास बना रहे हैं यह खबर कितनों को ही गुदगुदा चुकी थी; अौर यह भी पता चल चुका  था कि वे पारो के रूप में ऐश्वर्या राय को ले चुके हैं. अब भंसाली की चंद्रमुखी कौन, यही सवाल था.   अौर जब खबर अाई कि वे माधुरी को इसके लिए तैयार कर रहे हैं तो बस एक-सी ही प्रतिक्रिया सब तरफ थी - अाज दूसरा कोई है ही नहीं कि जिसकी कल्पना हम चंद्रमुखी के रूप में कर सकते हैं ! विमल राय ने भी अपनी चंद्रमुखी वैजयंतीमाला में ही पाई थी न ! वैजयंतीमाला यानी अपने दौर की माधुरी या कहें कि माधुरी यानी इस दौर की वैजयंतीमाला ! यह दूसरी बात है कि फिल्म की कसौटी पर भंसाली के देवदास ने बड़े हिचकोले खाये लेकिन माधुरी ?  वे तो दिल तो पागल है वाले समय को जैसे थामकर बैठी थीं ! वे फिर से साबित कर गई कि वे पर्दे से भले दूर गई हैं, उनका जादू टूटा नहीं है !  

मुझसे कोई पूछ रहा है कि क्या मेरी सूची में हेमा मालिनी भी नहीं हैं अौर काजोल भी नहीं  ? डिंपल को कैसे भूल रहा हूं मैं अौर कटरीना को ? मैं कहूं कि मैं इन सबको भूल तो सकता ही नहीं क्योंकि कितने ही इंद्रधनुषी ख्वाब इन सबके ईर्द-गिर्द बुने गये हैं ! लेकिन यह मर्यादा मेरी है कि मैं किसी से किसी को बेहतर मान कर नहीं चल रहा, मैं सबसे अच्छा चुनने की मर्यादा से बंधा हूं. इसलिए मेरी सूची में अाती हैं स्मिता पाटील ! स्मिता को सुंदर मानने में थोड़ी दिक्कत होगी क्योंकि वे सारे सांचे तोड़ कर सुंदर थीं. पूरा अस्तित्व सुंदर हो तब लड़की कितनी सुंदर होती है यह जानना हो तो िमर्च मसाला की स्मिता को देखें या फिर अर्धसत्य की स्मिता को ! मैंने स्मिता का वशीभूत कर लेनेवाला सौंदर्य मंथन में पहचाना था. नमकहलाल में उनका शारीरिक सौंदर्य उभारने की जितनी कोशिश की गई अौर उस कोशिश में स्मिता जितनी मांसल लगीं क्या उसकी किसी को याद है ? खास  किस्म की मानसिकता से उभारा गया शरीरी सौंदर्य के इससे ज्यादा चर्चित उदाहरण हैं हमारे पास ! स्मिता इस फिल्म में बेहद असहज लगीं अौर जो असहज है, वह कैसे सुंदर हो सकता है ! स्मिता का सौंदर्य अनगढ़ा था. इसलिए वह मंडी में भी उभरा था अौर मराठी फिल्म उंबरठा में भी ! अर्थ में अभिनय की ऐसी जटिल स्थितियां थीं कि दूसरा कोई सौंदर्य अांखें खोज ही नहीं सकीं. लेकिन अपने व्यक्तित्व के बल पर वे भूमिका में भी उभर अाती हैं अौर चक्र में भी ! किसी स्लम में जवान हुई लड़की का खुले नल के नीचे, सबकी अांखों के बीच नहाना स्मिता ने जिस तरह चक्र में निभाया, अाप खोज सकें तो उसमें उनका सौंदर्य खोजिए अौर फिर अाप भी समझ जाएंगे कि मेरी इस सूची में स्मिता हैं क्यों ! मिर्च मसाला में वे अपने रूप के ही नहीं, अपने अस्तित्व के जादू के साथ जिस तरह छाती जाती हैं, उसमें तो नसीरुद्दीन शाह जैसे धनी अभिनेता के पांव भी उखड़ने लगते हैं. हमारा फिल्मी व्याकरण अब तक हो कर भी इतना प्रौढ़ नहीं हुअा है जो स्मिता पाटील जैसी प्रतिभाअों को पाल-पोस अौर पचा सके. इसलिए कितनी ही व्यर्थ की फिल्मों में हमने स्मिता को व्यर्थ किया अौर जब वे किसी हादसे में जान खो बैठीं तब हम पहचान पाये कि यह जो खोया है हमने वह खजाना दोबारा न मिलेगा, न भरेगा... जुगनू कोई सितारों की महफिल में खो गया / इतना न कर मलाल जो होना था हो गया ! 

स्मिता के साथ ही मैं तब्बू का नाम दर्ज कर रहा हूं क्योंकि मैं मानता हूं कि वे कई अर्थों में स्मिता की उत्तराधिकारी हैं. स्मिता की तरह ही तब्बू को पचा सके, हमारे फिल्म उद्योग का हाजमा ऐसा नहीं है. तब्बू में बेहद तराश है, उनकी सुंदरता में बेहद गहराई है अौर उनकी अावाज में वह कशिश है जो मन की घाटी में गूंजती रहती है. मकबूल से अधिक तब्बू को कुछ कहने की जरूरत नहीं है. वे पूरी फिल्म में अोस की बूंद-सी ठहरती-थरथराती फिसलती हैं अौर पंकज कपूर अौर इरफान खान जैसे धांकड़ों को ठहरने नहीं देती हैं - कैसी सियाह रात थी दहलीज पर खड़ी / वो मुस्कुरा  दिए तो उजाले बरस गये ! भड़कीले-दमकीले अौर अाक्रामक सौंदर्य के इस दौर में जैसा सौंदर्य़ हम भूल-से चले थे तब्बू ने उसे फिर से साकार कर दिया. भाषा अौर भूषा दोनों में तब्बू अपनी अलग पहचान व स्थान रखती हैं. फिर देखें हम तब्बू को चीनी कम अौर नेमसेक में !  कहूं तो इन तीन फिल्मों में तब्बू ने तीन सागर पार किए हैं अौर फिर अपने परों को झाड़ कर, कहीं अलग बैठ गई हैं. चीनी कम में सारा ध्यान अमिताभ बच्चन पर था, नेमसेक में इरफान थे सामने. कोई दूसरी लड़की होती तो इतना ही काफी मानती कि उसे ऐसे दो उस्तादों के साथ काम करने का मौका मिला लेकिन तब्बू ने दोनों को यह अहसास करवाया कि उन्हें तब्बू के साथ काम करने का मौका मिला. 

ऐश्वर्या कि करीना ? कोई भी कहेगा कि यह कैसी तुलना है ! ऐश्वर्या का सौंदर्य सर्वमान्य ही नहीं है बल्कि अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में विजयी हुअा है. मैं ऐश्वर्या राय की याद करता हूं तो मुझे गुरु याद अाती है जिसमें वे अपनी सूरत अौर सीरत के शिखर पर हैं. अद्भुत सौंदर्य की बानगी देखनी हो तो हम दिल दे चुके सनम देखी है हमने अौर जोधा अकबर भी ! धूम २ में बड़ी बेबाकी से ऐश्वर्या वह सांचा तोड़ने की कोशिश करती हैं जिसमें उन्होंने खुद को बांध रखा था. यहां हम उस ऐश्वर्या को देखते हैं जो वह कर रही है जो उसके भीतर है नहीं. इसलिए ऐश्वर्या धूम २ में बहुत अच्छी लगीं लेकिन असली नहीं लगीं. वे बहुत सुंदर हैं अौर अच्छा ही काम करती हैं लेकिन कहीं कुछ ऐसा है कि उनका सौंदर्य अांखों से अागे नहीं जाता है. प्लािस्टक की बात उन्हें  लेकर जो की जाती है उसका संदर्भ कुछ इसी से जुड़ता है. 

करीना इससे बहुत अलग नहीं हैं लेकिन वे बहुत जीवंत हैं अौर इसलिए वे मेरी इस सूची में हैं. उनके साथ प्लास्टिक जैसी बात भी कोई नहीं करता है. करीना ने कपूर खानदान की अभिनय विरासत को जिस तरह संभाला है उस तरह रणबीर कपूर से पहले किसी दूसरे ने नहीं संभाला था. ऐसा कह कर मेरा इरादा न ऋिष कपूर से उनका अौर न करिश्मा कपूर से उनका कोई श्रेय छीनने का इरादा है. इन दोनों ने हमें यह दिखलाया कि कपूरों के खून में अभिनय का कीड़ा पलता ही है ! ऋषि कपूर एक दौर में सफल भी बहुत रहे लेकिन ऋषि या करिश्मा ने कोई नई जमीन नहीं तोड़ी. मैं तो यह देख रहा हूं कि अब, जबकि ऋषि कपूर चॉकलेटी हीरो की भूमिका छोड़ कर कहीं अलग िनकल अाए हैं, वे अपना सबसे बेहतर काम दिखा पा रहे हैं - चाहे नई अग्निपथ हो या दिल्ली ६ !  करीना शफ्फाफ खूबसूरत हैं जिसे वे सारे अाधुनिक संसाधनों से, अाधुिनक वस्त्र-विन्यास से संभालती-संवारती हैं. जब वी मेट इस कदर पसंद की गई तो इसलिए कि उसमें हमें वह करीना दिखाई दी जो असलियत में वे हैं. मुझे याद है कि शाहरुख खान के साथ अशोक में जब करीना अाई थी तब एकदम नई थी. रोल की मांग बहुत ज्यादा थी - इतनी ज्यादा कि कोई नई लड़की घबरा ही जाए ! करीना ने अपनी कमान संभाल कर रखी अौर फिल्म को पार लगाया. हमें उस काम का कच्चापन ध्यान में नहीं अाया, इस नई लड़की की तैयारी ध्यान में अाई. उस समय को पार कर करीना बहुत अागे निकल अाई हैं अौर अब वे अोंकारा करने लगी हैं... कई अजनबी तेरी राह में मेरे पास से यूं गुजर गये/ जिन्हें देख कर यह तड़प हुई, तेरा नाम ले के पुकार लूं ...  करीना जब वी मेट में खूबसूरत भी लगती हैं, तेज भी लगती हैं  अौर कैमरे से दोस्ती करती भी दिखाई देती हैं. उस फिल्म में अाप करीना अौर शाहिद कपूर के बीच का यह फर्क पहचान सकते हैं. कभी खुशी कभी गम कोई ऐसी फिल्म नहीं है कि जिसका संदर्भ लेकर हम किसी के बारे में कोई बात कर सकें. उसमें करीना को जिस तरह पेश किया गया था वह बहुत घटिया था. लेकिन मैं उसकी बात इसलिए कर रहा हूं कि करीना ने उस घटियापने को जिस तरह निभाया उसमें कैमरे के साथ मजबूत होती उसकी दोस्ती दिखाई देती है. ३ इडियट्स में यही दोस्ती परवान चढ़ती है अौर हम अामिर से बराबरी करती करीना को देखते हैं. ग्लैमर के साथ सुंदरता अौर सुंदरता के साथ अभिनय यह सारा कुछ अभी हमें तलाश में दिखाई दिया जहां करीना ने अामिर को सर के बल खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. फिल्में बनाने वाले कुछ ढंग की फिल्में बनाएं अौर करीना कुछ ढंग की फिल्में चुनें तो हम उस करीना को देख सकेंगे जिसका उभरना अभी बाकी है. 

मैं विद्या बालन को इस सूची में नहीं ले पा रहा हूं केवल इसलिए कि वे उम्र का वह पड़ाव पार कर चुकी हैं जहां करीना जैसों से उनका मुकाबला हो ! विद्या अपनी हर फिल्म को अपना व्यक्तित्व देती हैं अौर इसलिए जब तक उन्हें मतलब की फिल्में मिलती रहेंगी, विद्या की जगह कोई नहीं ले सकेगा... मेरे सामने जो पहाड़ थे, सभी सर झुका के चले गये / जिसे चाहे तू ये उरूज दे, जिसे चाहे तू ये जवाल दे... लेकिन जब अासमान छोटा पड़ जाए तब अच्छा पतंगबाज अपनी पतंग समेट लेता है. विद्या को भी बार-बार किसी डर्टी पिक्चर की खोज क्यों करनी चाहिए ?  वे परिणीता में भी अौर पा में भी वह सब दे पाती हैं जो सौंदर्य व प्रतिभा के अनोखे मेल से बनी उन जैसी लड़की दे सकती है. 

सौंदर्य का यह संसार खुलता-फैलता ही जाएगा अगर हम इसे समेट न लें अौर जैसा हर के बारे में बशीर बद्र साहब को कहने दिया है हमने वैसे ही  उन्हें ही अंत में भी कहने न दें : हम तो अांखों में संवरते हैं, वहीं संवरेंगे / हम नहीं जानते अाईने कहां रखे हैं !!  ०००
 
               


No comments:

Post a Comment