Friday 2 February 2018

'पद्मावत' की पाठशाला

बाढ़ का पानी उतरता है तो बाढ़ के साथ बहती एक-एक चीज थमती हुई अपनी -अपनी जगह लग जाती है, कुछ ऐसा ही उन सबके साथ हो रहा है जो संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ से जुड़े थे - यहां तक कि ‘पद्मावती’ का ‘ई’ भी अपनी जगह जा लगा है अौर बचा रह गया है केवल ‘पद्मावत’ ! भारतीय सिनेमा, भारतीय सेंसर बोर्ड, भारतीय प्रशासन अौर राज्य व केंद्र की सरकारों ने मिल कर शायद ही कभी देश के चेहरे पर इस कदर धूल मली होगी ! लेकिन जब अापको अपने चेहरे की नहीं, मुखौटों की फिक्र होती है तब चेहरों पर ऐसे ही कालिख पुत जाती है. 

संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’ कमाई अच्छी कर रही है. विरोध से ही तो फिल्म का इतना प्रचार हुअा कि भंसाली को दूसरा कोई ‘ प्रमोशन’ करना नहीं पड़ा. इसके लिए करणी सेना को भंसाली धन्यवाद तो दे ही सकते हैं. मुफ्त प्रचार के बाद कमाई भी खूब अच्छी हो रही है. भंसाली की वे सारी फिल्में सफल बनीं हैं अौर चली हैं जिनके पीछे कोई नजरिया नहीं था. बस कहानी थी, अच्छी किस्सागोई थी अौर उसकी भव्यतर प्रस्तुति थी. भंसाली माल पहचानते भी हैं अौर बेचना भी जानते हैं. लेकिन अाप उनकी फिल्मों में वैसा कुछ खोजने लगेंगे जो उनका हेतु ही नहीं है तो गलती अापकी है, भंसाली की नहीं.  ‘पद्मावती’ तो खुद ही जायसी की कल्पना के पंखों पर सवार हो कर हम तक पहुंची है. अब उसमें किंवदंतियों, किस्सों व सिनेमाई अाजादी की छौंक डाल कर भंसाली ने जो परोसा है, हमें उसी दायरे में फिल्म देखनी भी चाहिए अौर अपनी राय भी बनानी चाहिए. 

हमने, जिन्होंने ‘पद्मावती’ का हिंसक विरोध करने वाली ‘हिंदुत्व ब्रिगेड’ की मनमानी का विरोध किया था, उसे गलती से भी फिल्म का या फिल्म में कही बातों का समर्थन नहीं माना जाना चाहिए. हम तो हर भंसाली के उस अधिकार का समर्थन कर रहे थे ( अौर अभी भी करते हैं ! ) कि जिसे कुछ लिखना, बनाना, गाना, नाचना, रंगना या बोलना है. उस पर सरकार की रोक नहीं होनी चाहिए. उसे कोई व्यक्ति, पार्टी या गुट अातंकित करे, इसे देखना व रोकना सरकार की जिम्मेवारी है; बल्कि जो ऐसा न करे, वह सरकार ही नहीं है !  किसी भी भंसाली का यह अधिकार दरअसल व्यक्ति का नहीं, लोकतंत्र का अविभाज्य अंग है; कहूं कि अगर यह अधिकार अक्षुण्ण नहीं है तो हम लोकतंत्र की लाश के रखवाले भर हैं, क्योंकि लोकतंत्र की तो हत्या तभी कर दी हमने जब किसी को उसकी अभिव्यक्ति से रोकने या मारने का काम किया. 

अौर यही है जिसकी बात मैं ‘पद्मावत’ के संदर्भ में करना चाहता हूं. इसलिए कहता हूं कि जब राजस्थान में चल रही शूटिंग में घुस कर ‘करणी सेना’ ने भंसाली पर पहला हमला किया था तब से अाज तक संजय लीला भंसाली का एक भी बयान कोई मुझे दिखलाए कि जहां वे हिम्मत के साथ इन लोगों का विरोध करते हों. वे तो पहली वारदात के बाद से ही घिघियाती अावाज में सबको यही भरोसा दिलाते अा रहे हैं कि हमने कुछ भी ऐसा नहीं बनाया है कि जिससे राजपूती अान-बान-शान ( हिंदुत्व ब्रिगेड !) में खम पड़ता हो. वे कहते ही रहे - करणी सेना मेरी फिल्म का सेंसर बोर्ड बन जाए ! इसे कहते हैं : कायरों के कृत्य का कायराना समर्थन !  ‘हम कलाकार हैं, हमें राजनीति से क्या लेना ?’ जैसे वाक्यों से खुद को हर जिम्मेवारी से अलग कर लेना कला के व्यापारियों की ढाल है. राजनीतिक पोशाक पहन कर अलोकतांत्रिक-असामाजिक कृत्यों को अंजाम देने वाले एकाधिक संगठन देश में हैं जो भंसाली जैसों की खुराक से ही जिंदा रहते हैं. लेकिन इस बार यह भी हुअा कि करणी सेना के साथ हिंदुत्ववाली राज्य सरकारें भी तलवार ले कर उतर पड़ीं. पंजाब की कांग्रेसी सरकार भी बहती गंगा में डुबकी लगाने लगी अौर हमने क्षोभ से देखा कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व पीठ फेर कर खड़ा हो गया ! सत्ता के हमाम में सभी एक-से ही नंगे मिलते हैं. 

लेकिन अाप देखिए कि समय भी कैसे पाठ पढ़ाता ! करणी सेना की लाइन से जिस किसी ने भी थोड़ी भी अलग बात की, उसे ही धमकी मिली. दीिपका की नाक-कान काटने या भंसाली की जान लेने की ललकार तो पहले ही हो चुकी थी. कायरता इतनी कि अाप यह भी नहीं कह सके कि दीपिका या भंसाली का जो भी करना है, मैं करूंगा ! करणी सेना के बहादुरों ने दूसरों को उकसाया कि तुम यह कर दो अौर इतने पैसे ले जाअो ! राजपूति स्वाभिमान या जातीय गरूर भी बाजार में ठेके पर उठाया गया.यह सब खुले अाम किया जा रहा था लेकिन हत्या की धमकी अौर उकसावे के अारोप में किसी राज्य ने किसी की गिरफ्तारी नहीं की बल्कि राज्यों ने करणी सेना में दाखिला ले लिया. 

फिर एक अौर मजेदार मोड़ अाया ! खबर अाई कि जयपुर लिट फेस्टिवल में इस बार प्रसून जोशी हिस्सा नहीं लेंगे. यह क्या हुअा ? साहित्य के नाम पर सजे बाजार में, बिकाऊ माल न पहुंचे तो बाजार कैसे चले ! लेकिन प्रसून जोशी ने बड़ी शालीनता से कहा कि वे नहीं चाहते हैं कि लिट फेस्टिवल की गरिमा कम हो, अशांति हो, साथी साहित्यकारों को अौर साहित्यप्रेमियों को तकलीफ हो, इसलिए वे जयपुर नहीं जाएंगे. प्रसून जोशी वहां ऐसा क्या करने वाले थे कि समारोह की गरिमा कम हो जाती, साहित्यकारों व साहित्यरसिकों को तकलीफ हो जाती ? ‘हिंदुत्व ब्रिगेड’ के नये सहसवारों में शान से शामिल प्रसून जोशी को इनाम में जिस सेंसर बोर्ड की अध्यक्षता मिली है, वही उनके गले की फांस बन गई. ‘हिंदुत्व ब्रिगेड’ जो हासिल करना चाह रहा था वह तो सेंसर बोर्ड का अधिकार ही था न ! फिर क्या पुलिस, क्या कानून, क्या संविधान अौर क्या संविधानसम्मत संस्थाएं अौर क्या प्रसून जोशी, सब ठेंगे पर ! मुख्यमंत्रियों ने ऐलान करना शुरू कर दिया कि वे अपने राज्य में ‘पद्मावती’ के प्रदर्शन की इजाजत नहीं देंगे मानो सारा सूबा उनका गुसलखाना हो कि वे जैसे चाहेंगे, वैसे बरतेंगे. केंद्र तो किसी गिनती में नहीं था क्योंकि ऐसी मनमानी की शुरुअात ही तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी  जब अामिर खान की फिल्म पर इसलिए बंदिश लगा दी थी उन्होंने कि अामिर खान ने गुजरात दंगों की निंदा की थी अौर नर्मदा अांदोलन का समर्थन किया था. तब केंद्र में वह मनमोहनी सरकार थी जिसे अपने सरकार होने का अहसास ही नहीं था. उस सरकार ने एक बार भी कमर सीधी की होती तो गुजरात की मनमानी के वक्त ही ऐसा इलाज निकल अाता कि किसी ‘पद्मावती’ की ऐसी हालत नहीं होती. लेकिन सत्ता कई स्तरों पर, कई तरह की कायरता फैलाती है. सत्ता की कायरता उन सबकी कायरता को चालना देती है जो भीड़ की अाड़ ले कर बहादुरी का स्वांग करते हैं.

ऐसे कई बहादुर तब सामने अाए जब कलबुर्गी, पनसारे अादि की हत्या के संदर्भ में सरकार व साहित्यिक संस्थानों का वज्र गूंगापन कई लेखकों-पत्रकारों-स्वतंत्रचेता नागरिकों को साल गया था अौर उनने सरकारी सम्मान वापस कर, सरकार की इस संवेदनहीनता से खुद को अलग करना शुरू कर दिया था. सरकार ने इसे अपनी सत्ता को चुनौती माना अौर देश को बताना चाहा कि साहित्यकार वे ही नहीं है जो सम्मान वापस कर रहे हैं, वे भी हैं जो इसका विरोध कर रहे हैं. अौर सड़क पर जो ‘साहित्यसेवी’ दिखाई दिए उनमें प्रसून जोशी भी थे, अनुपम खेर भी; या कहूं कि अनुपम खेरों, प्रसून जोशियों का जमावड़ा ही था जो चीख-चीख कर कह रहा था कि नरेंद्र भाई के शासन में कहीं असहिष्णुता है ही नहीं ! इन महान साहित्यकारों ने घोषणा कर दी कि असहिष्णुता शब्द वैध है ही नहीं ! फिर बाढ़ उतरी अौर हमने देखा कि ये सारे बहादुर इस या उस सरकारी कुर्सी पर जा बैठे ! इनकी कुर्सियों के पीछे असहिष्णुता में गौरी लंकेश ही नहीं मारी गईँ, कितने ही अनजान-असहाय लोग जहां-तहां घेर कर भीड़ द्वारा मारे गये. अाज भी वह असहिष्णुता जारी है अौर लोग मारे जा रहे हैं. 


प्रसून जोशी को अाज उसी अवैध असहिष्णुता का सामना करना पड़ रहा है अौर अगर वे जयपुर लिट फेस्टिवल में जाने का साहस जुटा पाते तो इसी के शिकार हो सकते थे. असहिष्णुता अमानवीयता का दूसरा नाम है. प्रसून जोशियों, अनुपम खेरों को शायद यह अहसास हो कि जब भीड़ की असहिष्णुता हमला करती है तब व्यक्ति कितना अकेला अौर असहाय हो जाता है - फिर उसका नाम फेलू खान हो कि प्रसून जोशी ! ( 02.02.2018)