Saturday 18 February 2023

यात्राओं से आगे की यात्रा

 बात राहुल गांधी से शुरू करूं या या इतिहास से ? इतिहास से ही करता हूं क्योंकि जो इतिहास का संदर्भ नहीं समझते हैं, वे बहुत जल्दी इतिहास बन जाते हैं. इसलिए राहुल गांधी की पदयात्रा को देखने से पहले भारतीय संस्कृति की तरफ देखते हैं जिसकी अपनी एक यात्रा निरंतर चलती रहती है.  हम यह ध्यान रखें कि जब हम यात्रा की बात करते हैं तो वह सफर से अलग मतलब रखती है.  

  ईश्वर से दिए पांवों से अलगचलने के दूसरे साधन जब तक मनुष्य ने खोजे नहीं थेतब तक पांवों उसका सबसे बड़ा व भरोसे का साथी था. प्राचीन ऋषियों-मुनियों-साधकों आदि का इतिहास हम न भी खंगालें तो भी यह देखना कितना लोमहर्षक है भारत को चार खूटों में बांधने की शंकराचार्य की यात्रा हो कि धर्मप्रवर्तन की गौतम बुद्ध की यात्रा या तीर्थंकर महावीर का परिभ्रमण होभारत ने पदयात्राओं से ही खुद को आकार लेतेसंस्कारवान होते पाया है. नवीन सत्य के उद्घाटन के लिए हो या सत्य से वृहद् समाज को जोड़ने के लिए हो या अपनी संस्कृति का उद्बोध जगाने के लिए होपदयात्राएं इस देश की संस्कृति का अधिष्ठान रही हैं. ऐसा संसार में दूसरी जगहों पर नहीं मिलता है या बहुत ही कम मिलता है.  

महात्मा गांधी के रूप में हमें एक ऐसा संस्कृति-पुरुष मिला जिसने प्राचीनतम व नवीनतम का सेतुबंध किया और ताउम्र हमारे मन-प्राणों को झकझोर कर आधुनिक बनाने का उद्यम किया. उस गांधी को हम सुदूर दक्षिण अफ्रीका में मिल मजदूरों को ले कर वह कूच करते पाते हैं जिसे रोकने-समझने में जनरल स्मट्स की गोरी सरकार बला की भोंदू नजर आई. गांधी के संदर्भ में हम बार-बार ऐसा होते पाते हैं. फिर हम 1930 में महात्मा गांधी को नमक सत्याग्रह के वक्त एक लंबी पदयात्रा करते पाते हैं जब वे साबरमती आश्रम से निकल कर388 किलोमीटर दूर दांडी के समुद्र तट तक जाते हैं. इस छोटी-सी पदयात्रा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जैसी धार व उत्कटता दीउसका दूसरा कोई सानी नहीं है. 

इसके बाद क्षितिज पर उभरते हैं आचार्य विनोबा भावे ! उन्होंने जिस तरह भूदान की पदयात्रा कीवह न भूतो न भविष्यति’ की श्रेणी का उपक्रम था. वह ज्ञात इतिहास में ऐसी एकमात्र पदयात्रा है  जिसका एक ही उद्देश्य था : अहिंसक क्रांति के लिए देश का मन तैयार करना ! क्रांति के मूल्यों को ले कर समाज से वैसी टक्कर लेने वाला दूसरा कोई अब तक सामने नहीं आया है. विनोबा के शब्दों में कहू तो यह विचार-क्रांति का तूफ़ान था. 

 इसके बाद भी यात्राओं या पदयात्राओं के दूसरे कुछ उदाहरण भी मिलते हैं जैसे बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा जिसने आजादी के बाद युवाओं को उनकी सामाजिक जिम्मेवारियों का व्यापक अहसास कराया. एक लंबी यात्रा जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे राजनेता चंद्रशेखर ने भी की जिसमें वे अपनी राजनीतिक जमीन तलाशते रहे. बाद में वे अल्पकाल के लिए देश के प्रधानमंत्री भी बने. पद के लिए पदयात्रा जैसे कुछ छिटपुट उदाहरण और भी मिलेंगे लेकिन जाने-अनजाने में राहुल गांधी ने इन सबसे अलग एक नया परिदृश्य रचा. 

वे ऐसे वक्तएक ऐसी पदयात्रा पर निकले जिसकी देश की हवा में कहीं भनक भी नहीं थी.  राहुल गांधी और कांग्रेस की उनकी टीम ने भी पदयात्रा की तैयारी वगैरह की जितनी भी बारीक योजना बनाई हो तथा अनुशासन आदि तैयार किया होयह तो नहीं सोचा था कि यह लोगों में ऐसी हलचल पैदा करेगा. किसी को भी यह अंदेशा नहीं था - राहुल गांधी को भी नहीं - कि यह पदयात्रा कांग्रेस को व देश को इस तरह आलोड़ित कर देगी. 

इस पदयात्रा का सत्ता में वापसी जैसा कोई उद्देश्य होगायह मानना संभव नहीं है. आज कांग्रेस जिस तरह टूट व चुक चुकी है उसके बाद यह सोचना कि एक पदयात्रा से वह इस कदर उठ खड़ी होगी कि सीधा दिल्ली में गद्दीनशीं हो जाएगीखतरनाक बचकानापन है. राहुल गांधी में ऐसा बचकानापन नहीं है. इसलिए पूरी यात्रा में कहीं भीकभी भी राहुल गांधी ने कांग्रेस की वापसी या अपनी सत्ता की बात नहीं की. उन्होंने जो बात सबसे ज्यादा की और इस यात्रा का जो परिणाम सबसे दृश्य है आज,वह यह है कि देश का सामान्य विमर्श कुछ बदला हुआ लगता है. जो बात कहीं से भूली जा रही थीवह जैसे याद आने लगी है. हिंदुत्व की जैसी विषैली व्याख्या और उसका जैसा वीभत्स चेहरा पिछले वर्षौं में सामने आया हैउससे सारे देश में एक सन्नाटा छा गया था. जो बोलना था वह एक ही व्यक्ति को बोलना थाजो करना था वह उन्मत्त भीड़ को करना था. बाक़ी किसी के पास कुछ कहने व करने जैसा बचा नहीं था. जनता को जब आप भीड़ में बदल देते हैं तो वह लोक की भूमिका से विमुख हो जाती है. यह डर का सन्नाटा भी था और विमूढ़ता का सन्नाटा भी था. 

ऐसा तब होता है जब समाज को कोई रास्ता नहीं मिलता है. तब डर कर चुप हो जाता है. रास्ता दिखाने वाला कोई सामने नहीं होता हैतो रास्ता भटक जाना स्वाभाविक होता है. बच्चा भी भटक जाता है जब घर उसे रास्ता नहीं दिखा पाता है. इसलिए बहुत जरूरी होता है कि देश का राजनीतिक तंत्र जैसे भीजिधर भी चलेलोक के स्तर पर एक प्रगतिशील नेतृत्व सामाजिक पटल पर मजबूती से खड़ा भी रहे तथा जनता से सीधे संपर्क में भी रहे. ऐसा नहीं होता है तो लोकतंत्र सिकुड़ कर तंत्रलोक बन जाता है जिसमें सबसे वाचाल सियारों का हुआं-हुआं होता रहता है.  ऐसा ही हाल हमारा हो गया था. राहुल गांधी की पदयात्रा ने यह सन्नाटा तोड़ा है. एक भिन्न आवाज आज अपनी जगह बनाने लगी है. यह पूरी तरह सजग नहीं हैइसे खतरों का पूरा अहसास नहीं है. लेकिन जो संभावना टूटती-सी लग रही थीजो लौ बुझती-सी लग रही थीवह फिर सर उठा रही है. 

यह लोकतंत्र का लोक है जिसने इस यात्रा के दौरान अपनी आंखें खोली हैं या कहूं कि जिसने सारा परिदृश्य नई तरह से देखना-समझा शुरू किया है. लेकिन यह भी खूब ठीक से समझने की जरूरत है कि राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भी और  विपक्ष को भी अपने अस्तित्व की लड़ाई अलग से लड़नी होगी.  यह यात्रा भारतीय जनता पार्टी को भी यह संकेत दे रही है कि सत्ता का सुख चाहे जितना लुभावना होसत्ता में शक्ति जनता से आती है. सत्ता जनता से मिलती है तथा जनता की आराधना से ही वह टिकती है. यह बात न कांग्रेस भूलेन भारतीय जनता पार्टीसारा विपक्ष ! मतलब यात्रा से आगे भी एक यात्रा है जिसे पूरी एकाग्रता से पूरी किए बिना किसी भी राजनीतिक दल का कल्याण संभव नहीं है. ( 10.02.2023)

छोटे देश का बड़ा आदमी

 कोई 50 लाख की आबादी वाला छोटा-सा देश न्यूजीलैंड आज कुछ बड़ा दिखाई दे रहा है, तो इसलिए कि किसी ने  उसे बड़ा होने का मतलब सिखलाया है. कितना बड़ा होने का ? … आदमकद ! वहां एक लड़की रहती है- जसिंडा केट लॉरेल आर्डर्न. कल तक वह न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री हुआ करती थी, आज नहीं है. 37 साल की उम्र में वह न्यूजीलैंड की और संसार की सबसे युवा प्रधानमंत्री बनी थीं और कोई साढ़े 5 साल तक प्रधानमंत्री बनी रहीं. फिर किसने उनको हराया ? किसने उन्हें हटाया ? संसद ने ? विपक्ष ने ? उसके अपने दल ने ? क्या उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा ? क्या अदालत ने उन्हें हटाया ? फौजी बगावत हुई ? आप ऐसे कितने ही सवाल पूछेंगे, लेकिन उन सबका जवाब होगा - नहीं ! 

जसिंडा अब प्रधानमंत्री नहीं हैंक्योंकि उन्होंने खुद ही प्रधानमंत्री नहीं रहने का फैसला किया. उन्होंने अपने देश को बताया : “ मैं एकदम खाली हो गई हूं. भीतर ऐसा कुछ बचा ही नहीं है कि जो मैं न्यूजीलैंड को दे सकूं. यदि मैं अब भी प्रधानमंत्री बनी रहती हूं तो यह न्यूजीलैंड की कुसेवा होगी. मैं यह पद छोड़ रही हूं… मैं आशा करती हूं कि मैं न्यूजीलैंड को बता सकी हूं कि आप मजबूत हो कर भी दयालु हो सकते हैंसहानुभूतिपूर्ण रहते भी निर्णायक हो सकते हैंआशावान रहते हुएप्रतिकूलताओं से अविचलित रह सकते हैं. और यह भी कि आप अपनी तरह का नेतृत्व दे सकते हैं - ऐसा नेतृत्व कि जो जानता हो कि कब उसे पीछे हट जाना चाहिए.

यह नई बात है. हम तो देश-दुनिया में ऐसे नेतृत्व की हुंकार सुनने के आदी हो गए हैं जो कहता है कि हम तो अगली सदी तक राज करेंगेकई नेता तो ऐसे हैं जिन्होंने कहना-सुनना छोड़ कर ऐसी संवैधानिक व्यवस्थाएं बना ली हैं कि वे जब तक रहेंगेकुर्सी पर ही रहेंगे. कई हैं कि जो हर उस सर  को कलम कर देने की सावधानी बरतते हैं जो कभी उनके कद का हो सकता है. जेसिंडा के लिए भी ऐसा करना मुश्किल नहीं था. उन्होंने वैसा कुछ नहीं किया बल्कि अपनी लेबर पार्टी से कह दिया कि अब अपना नया नेता चुनिए. पार्टी ने क्रिस हिपकिंस को अपना नया नेता चुना तो जरूर लेकिन चाहा कि जेसिंडा उनके लिए एजेंडा तय कर दें. जेसिंडा ने इससे भी इंकार कर दिया, “ उन्हें अपनी समझ और अपने अनुभव से चलना है. मैं उनके लिए रास्ता बंद कैसे कर सकती हूं .” 

जेसिंडा की यही खास बात है. 1917 में जब लेबर पार्टी ने उनको अपना नेता व देश का प्रधानमंत्री चुनातब से ले कर आज तकजब वे न अपनी पार्टी की नेता हैंन प्रधानमंत्रीजेसिंडा हमेशा नई जमीन तोड़ती रही हैं. 1918 में वे संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा को संबोधित करने पहुंचीं थीं तब उनकी गोद में उनकी बेटी थी. गोद में बेटी को ले कर वैश्विक मंच पर कौन खड़ा होता है सभी हैरान थे ! ऐसा नहीं था कि जेसिंडा से पहले कोई महिला राष्ट्रप्रमुख संयुक्त राष्ट्रसंघ को संबोधित करने आई नहीं थी लेकिन मातृत्व को ऐसी सहजता से दुनिया के मंच पर किसी ने स्थापित नहीं किया था. वे न्यूजीलैंड का वर्तमान ही नहींभविष्य भी संभालती हैंइसकी ऐसी सहज घोषणा कर जेसिंडा ने संसार भर की महिलाओं को आत्मविश्वास दिया था. संयुक्त राष्ट्रसंघ को भी नई नजर से जेसिंडा को देखना पड़ा था. मानव-मन में नई सभ्यता ऐसे ही पांव धरती है.  

2019 में न्यूजीलैंड को जैसे किसी ने तलवार की धार पर चढ़ा दिया ! आतंकवाद ने वहां पहली गंभीर दस्तक दी. एक श्वेत आतंकवादी ने दो मस्जिदों में अंधाधुंध गोलियां चला कर 50 से अधिक मुसलमान नागरिकों की हत्या कर दी और गोरे न्यूजीलैंड को अपने साथ खड़ा होने के लिए ललकारा भी. हर मुल्क में ऐसे आतंकवादी हमलों का जवाब पुलिस-फौज ही देती है. जेसिंडा ने इसका राजनीतिक जवाब दिया. वे बुरका पहन कर मस्जिद में पहुंच गईंमृतकों के आंसू पोंछेउनके परिजनों की सरकारी व्यवस्था कीघायलों के इलाज का इंतजाम किया और यह स्पष्ट घोषणा की कि न्यूजीलैंड अपने सभी नागरिकों का है. आतंकवादियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा : “ तुमने हमें अपने साथ बुलाया है तो तुम सुन लो कि मैं तुम्हें और तुम्हारे आमंत्रण को अभीयहीं से खारिज करती हूं.” इतना ही नहींसारे विपक्ष को साथ ले कर उन्होंने हथियारों की सार्वजनिक उपलब्धता के खिलाफ कानून भी पारित करवाया. न्यूजीलैंड आतंकवाद की कगार से उस दिन वापस लौटा तो अब तक वहीं खड़ा है. 

फिर सारी दुनिया कोरोना की सुनामी से घिरी. न्यूजीलैंड भी उसकी चपेट में आया. जेसिंडा के नेतृत्व की परीक्षा थी. जेसिंडा ने सरकार की पूरी ताकत और मातृत्व का पूरा खजाना ही खोल दिया. मानवीय स्पर्श के साथ आवश्यक सख्ती भी हुई. न नागरिकों को मौत के भरोसे छोड़ने जैसी अमानवीयता हुई वहांन मौत के घबराए लोगों का बेजा इस्तेमाल किया गया. पश्चिमी दुनिया में यह लड़ाई सबने लड़ी लेकिन न्यूजीलैंड में मौत की दर सबसे कम रही. उसके चेहरे पर कोरोना के जहरीले पंजों के निशान भी सबसे कम दिखाई दिए. कहते हैं कि उन दिनों न्यूजीलैंड में करोना ज्यादा फैला था कि जेसिंडाकहना कठिन था. नये प्रधानमंत्री क्रिस हैपकिंस उसी कोरोना-युद्ध की पैदावार हैं. इसी दौर में न्यूजीलैंड पर प्राकृतिक आपदा भी आई लेकिन जेसिंडा ने देश का हाथ कभी नहीं छोड़ा. 

ऐसा नहीं है कि जेसिंडा को हर मामले में सफलता ही मिली. कई विफलताएं भी उनके खाते में लिखी हुई हैं. न्यूजीलैंड संसार का सबसे महंगा मुल्क है. महंगाई सबको दबोचे हुई है. लोगों को घरों की बड़ी किल्लत हैऔर घर बनाने का सरकारी दावा पूरी तरह विफल रहा है. बच्चों की दुरावस्था न्यूजीलैंड की बहुत बड़ी व करुण समस्या है. सामाजिक-आर्थिक विषमता से वहां का समाज बुरी तरह जकड़ा है. ऊपर के 10%लोगों की मुट्ठी में देश के 50% से अधिक संसाधन हैं. राजनेता ऐसा मानते हैं कि सत्ता व सरकार के पास जादू की छड़ी है. इसलिए सभी सत्ता पाने को बेचैन रहते हैं. वे देश से वादा भी करते हैं कि सत्ता में आए तो जादू कर देंगे. लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्हें पता चलता है कि सत्ता के पास कितनी सीमित सत्ता है. अपने लिए सुविधाएं-संपत्ति जोड़ने की बात अलग है लेकिन समाज के लिए बहुत कुछ कर सकने की क्षमता व संभावना इस व्यवस्था में है नहीं. महात्मा गांधी ने इसे ही समझाते हुए स्वतंत्र भारत के शासकों से कहा था :  “ कुर्सी पर मजबूती से बैठो लेकिन कुर्सी को जकड़ कर मत रखो ( सिट ऑन इट टाइटली बट होल्ड इट लाइटली !” ). हमारे शासक करते इससे एकदम उल्टा हैं. जसिंडा ने ऐसा नहीं किया. जब तक कुर्सी पर रहींमजबूती सेमूल्यों को पकड़ कर रहींजब लगा कि अब कुछ नया करने जैसा अपने पास है नहीं तो कुर्सी खाली कर दी. 

इसलिए वे दूसरों से एकदम अलग नजर आ रही हैं. युवकों का नेतृत्व उम्र से ही नहींनजरिए से भी नया हो सकता है. शर्त है तो यही कि युवा कंधे पर बूढ़ा सर न हो ! जेसिंडा इसका उदाहरण हैं. ( 25.01.2023)

चुनाव जीतते दल : हारता लोकतंत्र

 लोकतांत्रिक प्रसव वेदना से गुजर रहे दिल्ली, हिमाचलप्रदेश व गुजरात के गर्भ से चुनाव-परिणाम का जन्म हो चुका है. अब सारे सर्जन, डॉक्टर, नीमहकीम अपने आरामगाहों में लौट चुके हैं. जिन चैनलों की नाल कब की कट चुकी है, वे सब चुनाव परिणामों के विश्लेषण के नाम पर आपसी छीछालेदर में लगे हैं. यह छपने या सुनने वाले मीडिया के सबसे बदरूप चेहरे को बर्दाश्त करने का, सबसे शर्मनाक दौर है.  

 हर चुनाव में कोई दल जीतता हैकोई हारता है. इस चुनाव में भी यही हुआ है. लेकिन पार्टियां ऐसे दिखा रही हैं कि हारा तो दूसरा हैहमारे हिस्से तो जीत-ही-जीत आई है ! आम आदमी पार्टी इसी का राग अलाप रही है कि इस चुनाव ने उसे राष्ट्रीय दल बना दिया हैकांग्रेस अपनी नहींदूसरों की हार का विश्लेषण करने में निपुणता दिखा रही हैभाजपा के प्रधान भोंपू ने इशारा कर दिया तो सारे भाजपाई एक ही झुनझुना बजा रहे हैं कि हमने सारे रिकार्ड तोड़ डाले ! सबकी एक बात सही है कि सभी अपना झूठ छिपा रहे हैं. 

चुनाव परिणाम का कोई नाता अगर उस लोकतंत्र से भी होता हो कि जिसके कारण चुनावी राजनीति व संसदीय लोकतंत्र का अस्तित्व बना हुआ हैतो हमें यह खूब समझना चाहिए कि दल जीत रहे हैं, ‘हम भारत के लोग’ और उनका लोकतंत्र लगातार हारता जा रहा है. संविधान अब एक पुराने जिल्द की रामायण भर बची है जिसका राम कूच कर गया है. कौनक्या जीता इसकी इतनी वाचाल चर्चा की जा रही है ताकि किसी को याद करने की फुर्सत न रहे कि हम कहांक्या हार रहे हैं.   हम चुनावों की संवैधानिक पवित्रता व उसका राजनीतिक अस्तित्व हार रहे हैंहम चुनाव आयोग हार रहे हैंहम चुनावों की आचार संहिता हार रहे हैंहम बुनियादी लोकतांत्रिक नैतिकता हार रहे हैं. हम हर वह नैतिक प्रतिमान हार रहे हैं जिसके आधार पर हमारा संविधान बना हैहम हर वह लोकतांत्रिक मर्यादा हार रहे हैं जिसके बिना लोकतंत्र भीड़बाजी मात्र बन कर रह जाएगा. हर चुनाव में जातीयता जीत रही हैधार्मिक उन्माद जीत रहा हैधन-बल व सत्ता-बल जीत रहा हैझूठ व मक्कारी जीत रही है. यह तस्वीर को काली करने जैसी बात नहीं हैतस्वीर को ठीक से देखने-समझने की बात है. 

गुजरात हम सबके लिए गहरे सबब का विषय होना चाहिए. इसलिए नहीं कि वह एक ही पार्टी को लगातार से चुन रहा है बल्कि इसलिए कि वह गर्हित कारणों से लगातार अविवेकी फैसला कर रहा है और देश की तमाम लोकतांत्रिक ताकतें मिल कर भी उसे इस मूर्छा से बाहर नहीं ला पा रही हैं. गुजरात उस हाल में पहुंचा दिया गया है जिस हाल मेंयूरोप में कभी जर्मनी पहुंचा दिया गया था. जब जहर नसों में उतार दिया जाता है तब ऐसी की अंधता जन्म लेती है. दुनिया ने भी और हमने भी ऐसी अंधता पहले भी देखी है बल्कि कहूं तो हमारी आजादी अंधता के ऐसे ही दौर में लिथड़ी हम तक पहुंची थी. गांधी ने ऐसे ही नहीं कहा था कि ऐसी आजादी में उनकी सांस घुटती हैऔर हम जानते हैं कि अंतत: उनकी सांस टूट ही गई. 

गुजरात में देश के गृहमंत्री कहते हैं कि 2002 में हमने यहां जो सबक सिखलायाउसका परिणाम है कि यहां आज तक शांति बनी हुई है. वे देश को खुलेआम धमकी दे रहे हैं कि सांप्रदायिक नरसंहार का रास्ता हम जानते हैंयह भूलना मत ! यह शर्मनाक हैलोकतंत्र के खात्मे का एलान हैसंविधान की आत्मा की हत्या है. वे सैकड़ों सभाओं-रैलियों व रोड-शो में यह सब कहते रहे लेकिन न चुनाव आयोग ने कुछ कहान न्यायालय ने ! संविधान ने अपने इतने हाथ-पांव इसलिए ही तो बनाए थे कि एक विकलांग होने लगे तो दूसरा उसकी जगह ले लेएक गूंगा होने लगे तो दूसरा बोले ! यहां तो सभी विकलांगगूंगे और बहरे बनते जा रहे हैं. 

गुजरात का सामूहिक नैतिक पतन हुआ है. यह सारे देश में हो रहा है. दिल्ली नगरपालिका के चुनाव में खेल का मैदान ही बदल दिया गयागुजरात में चुनाव आयोग ने अपना अनुशासन ही ताक पर रख दिया. झूठमक्कारीसरकारी संसाधनों व धन-बाहुबल से चुनाव जीतने का प्रपंच किसे नहीं दीखा ?लोकतंत्र और चुनाव-तंत्र में फर्क है. तभी तो संवैधानिक व्यवस्था ऐसी बनाई गई कि चुनाव को 5 साल में एक बार आना हैलोकतंत्र को रोज-रोज अपने चरित्र में उतारना है. मन लोकतांत्रिक बने तो व्यवहार अपने आप लोकतंत्र अपनाने लगता है. चुनाव लोकतंत्र की आत्मा नहींउसका एक अंशमात्र है. यहां तो चुनाव को ही लोकतंत्र बना दिया गया है जिसमें अपने प्रधान को आगे रख कर सारी पैदल सेना उतारी जाती हैऔर वह पुरानी मान्यता शब्दश: अमल में लाई जाती है कि प्यार व युद्ध में सब कुछ जायज है. यह लोकोक्ति ही लोकतांत्रिक नहीं है.

संसदीय लोकतंत्र एक चीज हैसंवैधानिक लोकतंत्र एकदम भिन्न चीज है. एक ढांचा हैदूसरी आत्मा है. आत्मा मार करढांचा जीत लिया है हमनेऔर मरे हुए लोकतंत्र को बड़े धूमधाम से ढो रहे हैं. तभी तो हर असहमति को डांट कर कहते हैं : ‘ वोट हमें मिला है !’ भीड़ की स्वीकृति लोकतंत्र की अंतिम कसौटी नहीं होती है. हम कैसे भूल सकते हैं कि हमारी गुलामी को भी भीड़ की स्वीकृति थी. आजादी की लड़ाई लड़ने वाले तब भी अल्पमत में थे. इसलिए लोकतंत्र की दिशा भीड़ को शिक्षितजाग्रत जनमत में बदलने की होती है. हम सोचें कि हमारी आजादी की लड़ाई के गर्भ से अगर लोकतंत्र का जन्म नहीं हुआ होता तो चुनाव का यह सारा तामझाम भी नहीं होता न तो बुनियाद कहें कि अंतिम कसौटी कहेंलोकतंत्र ही है कि जिसका संरक्षण-संवर्धन करना है. वह बना रहास्वस्थ व गतिशील रहा तो बाकी सारा कुछ रास्ते पर आ जाएगा. 

इसलिए कह रहा हूं कि इन चुनावों में पार्टियां जीती हैंहम भारत के लोग’ व हमारा लोकतंत्र हारा है. यह हार हमें बहुत महंगी पड़ेगी. ( 11.12.2022) 

                                                                                                                                     

नदव लापिद की ‘कश्मीर फाइल्स’

 जिस तरह का सच यह है कि आईना झूठ नहीं बोलता, उसी तरह का सच यह भी है कि कैमरा झूठ नहीं बोलता. इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सच प्राकृतिक है; झूठ गढ़ना पड़ता है- फिर वह झूठ सौंदर्य प्रसाधनों से बोला जाए या खुराफाती-स्वार्थी इंसानी दिमाग से ! गोवा में आयोजित भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आखिरी दिन, महोत्सव की जूरी के अध्यक्ष इस्राइली फिल्मकार नदव लापिद ने यही बात कही - न इससे कम कुछ, न इससे अधिक कुछ ! इसके बाद गर्हित राजनीति का जो वितंडा हमारे यहां फूट पड़ा, वह भी इसी सच को मजबूत करता है कि सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे / झूठ की कोई इंतहा ही नहीं. 

   इतिहास बनाना इंसानी साहस की चरम उपलब्धि हैइतिहास को विकृत करना मानवीय विकृति का चरम है. हम दोनों ताकतों को एक साथ काम करते देखते हैं. इंसानी व सामाजिक जीवन में कला की एक अहम भूमिका यह भी है कि वह इन दोनों के फर्क को समझे व समझाए ! जो कला ऐसा नहीं कर पाती है वह कला नहींकूड़ा मात्र होती है. इसलिए कोई पिकासो गुएर्निका’ रचता हैकोई चार्ली चैपलिन द ग्रेट डिक्टेटर’ बनाता हैकोई एटनबरो गांधी’ ले कर सामने आता है. अनगिनत पेंटिंगोंफिल्मों के बीच ये अपना अलग व अमर स्थान क्यों बना लेती हैंइसलिए कि युद्ध की कुसंस्कृति कोविकृत मन की बारीकियों को तथा इंसानी संभावनाओं की असीमता को समझने में ये फिल्में हमारी मदद करती हैं. तो कला की एक सीधी परिभाषा यह बनती है कि जो मन को उन्मुक्त न करेउद्दात्त न बनाए वह कला नहीं है. 

   दूसरी तरफ वे ताकतें भी काम करती हैं जो कला का कूड़ा बनाती रहती हैं ताकि सत्य व असत्य के बीच काशुभ व अशुभ के बीच काउद्दात्तता व मलिनता के बीच का फर्क इस तरह उजागर न हो जाए कि  ये ताकतें बेपर्दा हो जाएं. विवेक की इसी नज़र से गोवा फिल्मोत्सव में बनी जूरी को 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्मों को देखना-जांचना था. लापिद इसी जूरी के अध्यक्ष थे. जूरी में या उसके अध्यक्ष के रूप में उनका चयन सही था या गलतइसका जवाब तो उन्हें देना चाहिए जिनका यह निर्णय था लेकिन 5 सदस्यों की जूरी अगर एक राय थी कि कश्मीर फाइल्स’ किसी सम्मान की अधिकारी नहीं हैतो इस पर किसी भी स्तर परकिसी भी तरह की आपत्ति उठना अनैतिक ही नहीं हैघटिया राजनीति है जिसका दौर अभी हमारे यहां चल रहा है. 

   लापिद ने जूरी के अध्यक्ष के रूप में महोत्सव के मंच से जब कश्मीर फाइल्स’ को अश्लील शोशेबाजी’ ( ‘वल्गर प्रोपगंडा’ का यह मेरा अनुवाद है) कहा तब वे कोई निजी टिप्पणी नहीं कर रहे थेजूरी में बनी भावना को शब्द दे रहे थे. जूरी के बाकी तीनों विदेशी सदस्यों ने बयान दे कर लापिद का समर्थन किया है. भारतीय सदस्य सुदीप्तो सेन ने अब जो सफाई दी है वह बात को ज्यादा ही सही संदर्भ में रख देती है : “ यह सही बात है कि यह फिल्म हमने कला की कसौटी पर खारिज कर दी. लेकिन मेरी आपत्ति अध्यक्ष ने बयान पर है जो कलात्मक’ नहीं था. वल्गर’ व प्रोपगंडा’ किसी भी तरह कलात्मक अभिव्यक्ति के शब्द नहीं हैं.”  मतलब साफ है कि कश्मीर फाइल्स’ कहीं से भी कला से सरोकार नहीं रखती हैइस बारे में जूरी एकमत थी. ऐसा क्यों थाइसकी सबसे गैर-राजनीतिक सफाई जो कोई भी अध्यक्ष दे सकता थालापिद ने दी. उन्हें यह बताना ही चाहिए था कि क्यों जूरी ने उन्हें सौंपी गई 14 फिल्मों में से मात्र 13 फिल्मों में से ही अपना चयन कियाऔर 14वीं फिल्म को फिल्म ही नहीं माना जूरी के अध्यक्ष लापिद का धर्म था कि वे यह बताते. जिन शब्दों में लापिद ने वह बतायावह कहीं से भी राजनीतिकगलतअशोभनीय या कला की भूमिका को कलंकित करने वाला नहीं था. 

   हमारे यहां ही कला-साहित्य-पत्रकारिता का आसमान इन दिनों इतना कायर व कलुषित हो गया है कि वहां कला व सच की जगह बची नहीं है. जूरी के विदेशी सदस्यों ने अपने बयान में इसे पहचाना है : “ हम लापिद के बयान के साथ खड़े हैं और यह साफ करना चाहते हैं कि हम इस फिल्म की विषयवस्तु के बारे में अपना कोई राजनीतिक नजरिया बताना नहीं चाहते हैं. हम केवल कला के संदर्भ में ही बात कर रहे हैं और इसलिए महोत्सव के मंच का अपनी राजनीति के लिए व नविद पर निजी हमले के लिए जैसा इस्तेमाल किया जा रहा हैउससे हम दुखी हैं. हम जूरी का ऐसा कोई इरादा नहीं था.” 

   जब नविद से पूछा गया कि जिस फिल्म को जूरी ने किसी सम्मान के लायक नहीं मानाउस फिल्म पर आपको कोई टिप्पणी करनी ही क्यों चाहिए थीनविद ने बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी बात रखी. यह कहने की जरूरत नहीं है कि ईमानदारी से खूबसूरत कलात्मक अभिव्यक्ति दूसरी नहीं होती है. नविद ने कहा : “ हांआप ठीक कहते हैंजूरी सामान्यत: ऐसा नहीं करती है. उनसे अपेक्षा यह होती है कि वे फिल्में देखेंउनका जायका लेंउनकी विशेषताओं का आकलन करें तथा विजेताओं का चयन करें. लेकिन तब यह बुनियादी सावधानी रखनी चाहिए थी कि द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्में महोत्सव के प्रतियोगता खंड में रखी ही न जाएं. दर्जनों महोत्सवों में मैं जूरी का हिस्सा रहा हूंबर्लिन में भीकेंस में भीलोकार्नो और वेनिस में भी. इनमें से कहीं भीकभी भी मैंने द कश्मीर फाइल्स ’ जैसी फिल्म नहीं देखी. जब आप जूरी पर ऐसी फिल्म देखने का बोझ डालते हैंतब आपको ऐसी अभिव्यक्ति के लिए तैयार भी रहना चाहिए.

   सारा खेल तो यही था. यह सरकारी आदेश था या आयोजकों की स्वामी भक्ति का खुला प्रदर्शन थायह तो वे ही जानें लेकिन चाल यह थी कि झांसे में एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सरकारी क्षद्म का यह चीथड़ा दिखा लिया जाए. जूरी मेजबानी के दवाब में आ कर अगर इसे सम्मानित कर देतो बटेर हाथ लगीहाथ नहीं लगी तो दुनिया भर में हम अपना प्रचार दिखा गएयह उपलब्धि तो हासिल होगी ही. नविद ने यह सारा खेल बिगाड़ दिया. इसलिए हमने देखा कि नविद को भारत स्थित इसराइल के राजदूत से गालियां दिलवाई गईं. जिन अनुपम’ शब्दों में ‘ द कश्मीर फाइल्स’ गैंग ने नविद का शान-ए-मकदम कियावह कला के चेहरे पर गर्हित राजनीति का कालिख मलना तो था हीअंतरराष्ट्रीय कला बिरादरी में भारत को अपमानित करना भी था. ( 05.12.2022)