साहित्य जगत

साहित्य, साहित्यकार आौर पाठक
यह रिश्ता कुछ जटिल है. जो लिखता है आौर जो लिखा जाता है क्या उनके बीच कोई संबंध है ? जो लिखता है, जो लिखा जाता है आौर जो उसे पढ़ता है, क्या उनके बीच कोई संबंध है ? सवाल बहुत पुराना है लेकिन जवाब बदलते जाते हैं - लिखने वाली की, पढ़ने वाले की आौर जो लिखा गया है उसकी चेतना जैसे-जैसे समृद्ध होती जाती है, जवाब बदलते जाते हैं. तो मेरी बात यदि ठीक है तो उससे इतना तो साफ होता है कि इन तीनों के बीच एक संबंध है जो तीनों को ही समृद्ध करता है आौर यह संबंध लगातार विकसित भी होता रहता है. 

‘अज्ञेय’ लिखते हैं : कहानी एक बिंदु तक हम बनाते हैं / जिसके बाद कहानी हमें बनाती है/ क्या उस बिंदु की पहचान हमें आती है ? तो हम जो रचते हैं ‘अज्ञेय’ महसूस करते हैं कि वह हमें भी रचता है ! इसलिए ‘अज्ञेय’ हमारे साहित्य के सबसे सावधान रचनाकारों में हैं क्योंकि वे रचना से खेलते नहीं, उनसे आकार ग्रहण करते हैं. विनोबा भावे मराठी साहित्यकारों में अत्यंत समादृत रचनाकार हैं. जीवन सारा उनका समाज रचने में बीत गया लेकिन मराठी साहित्य उनका अवदान स्वीकार करता है. विनोबा कहते हैं कि जो समाज के सहित चलता है वही साहित्य है ! समाज को साथ ले कर चलना आौर समाज को आगे निकलने की राह पर ले कर चलना - विनोबा की कसौटी यह है कि साहित्य व साहित्यकार दोनों को इन दोनों भूमिकाआों में काम करना चाहिए बल्कि वह ऐसा करे, विनोबा कहते हैं कि तभी उन्हें साहित्य या साहित्यकार मानना चाहिए. 

इसलिए हम पाते हैं कि साहित्य की जरूरत सबको होती है - गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में अपना संघर्ष प्रारंभ किया तो साथ ही अपना अखबार भी प्रारंभ किया; अौर वह भी गुजराती अौर अंग्रेजी, दोनों में प्रारंभ किया. भारत आ कर, स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर संभालने के साथ ही गांधी एक नहीं, अलग-अलग भाषाआों में कई अखबार चलाते हैं. वे इन अखबारों के संपादक भी हैं, मुख्य लेखक भी हैं. गांधी क्या कहते हैं, इसे जानने के लिए हर किसी को इन अखबारों को देखना पड़ता है. वाइसरॉय स्वंय लिखते हैं कि गांधी के साथ मेरा यह विवाद कभी नहीं हुअा कि वे क्या कहते व सोचते हैं, क्योंकि उनके अखबार में उनका सब कुछ दर्ज किया मिल ही जाता है.  
साम्यवादी क्रांति में साहित्य व साहित्यकारों की भूमिका भुलाई ही नहीं जा सकती है लेकिन उसके साथ ही यह विद्रूप भी हमेशा ध्यान में रखना जरूरी है कि सोवियत रूस में भी, आौर दूसरे साम्यवादी देशों में भी क्रांति की सफलता के बाद सबसे क्रूर व शर्मनाक दमन साहित्यकारों का ही हुआ. ‘क्रांतिकारियों की सरकारों’ ने अपनी पूरी ताकत इसमें लगाई कि साहित्य अौर साहित्यकार को राजतंत्र के साथ जुड़ कर चलना व लिखना चाहिए. क्रांति की सफलता के बाद, ‘क्रांतिकारियों’ को सबसे अधिक भय क्रांति से ही लगने लगता है, क्योंकि उनको अपनी सत्ता के बन जाने में क्रांति की पूर्णता दिखाई देती है जबकि साहित्य हर विफलता व सफलता से आगे के सपने देखने व दिखाने लगता है. ‘अज्ञेय’ इसे ही उस बिंदु की पहचान खो जाना कहते हैं जहां से साहित्य हमें आौर समाज को रचने लगता है. साहित्य मनुष्य को संवेदनशील ही नहीं बनाता है, उसे स्वतंत्रचेता भी बनाता है. इसलिए सभी तरह की सत्ताआों के लिए, चाहे वह धन की सत्ता हो कि कुर्सी की कि लाठी की हो कि धर्म-संप्रदाय-भाषा-प्रांत या लिंग की, साहित्य बहुत खतरनाक होता है. 

तो नई परिभाषा बनानी हो तो मैं कहूंगा कि जनतंत्र में साहित्य की भूमिका प्रगतिशील उत्प्रेरक की ही हो सकती है; आौर इसके लिए अनिवार्य है कि साहित्यकार भी नई चेतना से संपन्न, समाजधर्मी रचनाकार हो. जो साहित्यकार समाजधर्मी होगा वह मानवधर्मी भी होगा आौर वैसा साहित्यकार ही जनतंत्र का स्वस्थ हिस्सा बन कर, जनतंत्र को स्वस्थ बना सकता है. लोकतंत्र का साहित्य आौर साहित्य का लोकतंत्र एक-दूसरे के पोषक होते है. यह शील अभी हमें भी आौर साहित्यकार को भी सीखना बाकी है. ०००
      

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