Saturday 30 June 2018

चुनाव अायोग को नींद कैसे अाती है


अभी-अभी अाए 14 चुनाव परिणामों ने ( 10 विधानसभा के अौर 4 लोकसभा के ) कितने चेहरों को नंगा कर दिया है अौर कितने पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी है ! भारतीय दलीय राजनीति की यह अांतरिक सुनामी है. 2018 में 2019 का ऐसा नक्शा बनेगा, इसकी उम्मीद न नरेंद्र मोदी मार्का भारतीय जनता पार्टी को थी, न अपनी जोड़-तोड़ का नक्शा बनाते विपक्ष को थी. अब चुनावी महाभारत में अामने-सामने खड़ी दोनों सेनाअों के महारथियों के पास खासा वक्त है कि वे अपनी लड़ाई अौर फौज का नया नक्शा बनाएं. लेकिन इन चुनावों का एक संकेत अौर भी है जिसे न समझ पाना या जिसकी उपेक्षा करना हमें बहुत भारी पड़ सकता है क्योंकि चुनावों में लड़ती तो पार्टियां हैं लेकिन कसौटी पर हमेशा चुनाव अायोग होता है.  

महाभारत के महारथी कर्ण के रथ का चक्का उनके अभिशाप की कीच में ऐसा फंसा था कि उनकी जान ले कर ही बीता. हमारे चुनावी महाभारत के ‘कर्ण’ हमारे चुनाव अायोग की विश्वसनीयता का चक्का, उसकी अपनी कमजोरियों की कीच में ऐसा फंसता जा रहा है कि कहीं उसे ले न डूबे ! हमारा चुनाव अायोग हमारे लोकतंत्र की मशीन का एक पुर्जा मात्र नहीं है, वह हमारे संसदीय लोकतंत्र का ऐसा प्रहरी है जिसकी स्वतंत्र हैसियत है. यह हम तब तक अच्छी तरह जान व समझ नहीं पाये थे जब तक हमें मुख्य चुनाव अायुक्त के रूप में टी.एन. शेषन नहीं मिले थे. भले उनकी खोपड़ी कुछ उल्टी थी लेकिन चुनाव अायोग को सीधा खड़ा करने का काम उन्होंने जिस तरह किया उस तरह पहले किसी ने नहीं किया था. शेषन साहब ने हमारे चुनाव अायोग को खड़ा होने लायक पांव भी दिया अौर उसकी रीढ़ भी सीधी की. लेकिन सवाल है कि उनके बाद क्या हुअा ? उनके बाद भी चुनाव अायोग तो है, मुख्य चुनाव अायुक्त भी हैं अौर दूसरे अायुक्तों की भीड़ भी बढ़ी है लेकिन लगता है कि अायोग का शेषन शेष नहीं बचा है. 

अभी-अभी एक खबर अा कर बीत गई अौर बहुत हद तक अचर्चित ही रह गई लेकिन जिसे पहले पृष्ठ पर, पहली सुर्खी मिलनी चाहिए थी. खबर यह थी कि हमारे चुनाव अायोग के सभी उपलब्ध पूर्व मुख्य चुनाव अायुक्तों की एक सम्मिलित बैठक हुई- मतलब की सारे ‘कर्ण’ मिल बैठे. ऐसा संभवत: पहली बार ही हुअा. 9 पूर्व मुख्य अायुक्तों ने, वर्तमान मुख्य चुनाव अायुक्त अोमप्रकाश रावल तथा उनके दोनों सहयोगियों के साथ चर्चा की. अायोग के सबसे वरिष्ठ सदस्य  सुनील अरोरा भी इसमें शामिल थे जो चाहेंगे तो 18 दिसंबर 2018 को भारत के मुख्य चुनाव अायुक्त बन जाएंगे जिनकी देखरेख में 2019 का अाम चुनाव होगा. 

इस विमर्श की जितनी खबरें अब तक बाहर अाईं हैं उनसे पता चलता है कि सारे ‘कर्णों’ ने जिन दो बातों की बावत अपनी चिंता व्यक्त की, वे थे वर्तमान चुनाव अायोग की अनुभवहीनता अौर इसकी निष्पक्षता पर गहरी शंका ! भारत के भावी मुख्य चुनाव अायुक्त सुनील अरोरा इसी वर्ष नई पोस्टिंग पर चुनाव अायोग में अाए अाइएएस अधिकारी हैं. वे जब 2019 का अाम चुनाव करवाएंगे तब उनके पास मात्र 10 विधानसभाअों के चुनाव करवाने का अनुभव होगा. उस रोज के विमर्श में मौजूद सारे मुख्यायुक्तों ने एक स्वर से कहा कि इतना-सा अनुभव नाकाफी है राष्ट्रीय चुनाव संपन्न करवाने के लिये. दूसरी चिंता चुनाव अायोग की निष्पक्षता पर पैदा हुई राष्ट्रीय शंका के बारे में थी.  इन दोनों चिंताअों के बारे में देश क्या कहता व करता है, 2019 के चुनाव की कुंडली उसी से लिखी जाएगी. यह खतरे की घंटी है. 

चुनाव की ताकत यह है कि उसके गर्भ से हमारे संसदीय लोकतंत्र के खिलाड़ी पैदा होते है. चुनाव अायोग इसमें मिडवाइफ या नर्स या दाई का काम करता है.  मिडवाइफ या नर्स या दाई कच्ची हो तो जच्चा अौर बच्चा दोनों की जान खतरे में पड़ जाती है. यह काम नीमहकीमों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. तब सवाल उठता है कि हमारे चुनाव अायुक्तों को किस अाधार पर चुना जाता है ? नौकरशाही के बड़े पुर्जे इस मशीन में लगा देने से बात नहीं बनती है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जिनकी अास्था हो अौर जिनमें अावश्यक तटस्थता भी हो वैसे परखे लोगों की जरूरत अायोग में होती है. इसकी कोई सुनिश्चित व्यवस्था बननी चाहिए. 

यह तो व्यक्तियों की बात हुई. दूसरा महत्वपूर्ण पहलू व्यवस्था का है. चुनाव अायोग के पास संवैधानिक ताकत चाहे जितनी भी हो, उसकी असली ताकत उसकी विश्वसनीयता है. हमारे संविधान निर्माताअों ने अनपढ़, गरीब, अशिक्षित अौर अौरत-मर्द का फर्क किए बिना सबके हाथ में एक, अौर केवल एक वोट दे कर ईश्वरीय विधान के बराबर का काम किया. चुनाव अायोग की जिम्मेवारी है कि वह इस विधान की अात्मा को हर हाल में बचाए. जाति-धर्म-पैसा-डंडा सबका जोर लगा कर इसकी अात्मा का हनन होता रहा है अौर कानून के रास्ते इसका मुकाबला करने की कोशिशें भी चलती रही हैं. पहले से स्थिति में सुधार भी हुअा है. लेकिन हमने पाया कि कागज का वोट लूटना भी अासान था, उसकी गिनती में गड़बड़ी भी अासान थी, उसमें होने वाली कागज की भयंकर खपत पर्यावरण का संकट गहरा भी करती थी. इन सारे सवालों का जवाब बन कर इवीएम मशीनें सामने अाईं. इन मशीनों को खरीदने में बहुत सारा पैसा लगा, शेषन साहब ने मतदाता पहचान पत्र बनवाने में बेहिसाब पैसा फूंका लेकिन चुनावी प्रक्रिया में भरोसा बनाने अौर बढ़ाने का सवाल इतना बुनियादी था कि हमने यह सारा बोझा उठाया. मशीनें तटस्थ होती हैं, यह भोली मान्यता ‘शाइनिंग इंडिया’ की विफलता के बाद, सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी के लालकृष्ण अाडवानी ने तोड़ी. उसके बाद से लगातार ऐसा होता रहा कि इवीएम मशीनों की तटस्थता शक के दायरे में अाती गई है. मशीन तटस्थ हो सकती है लेकिन उसके पीछे बैठा अादमी नहीं, यही शंका थी जिसे चुनाव अायोग को निर्मूल करना था. वह इसमें विफल होता रहा. उसने खुद ही ऐसा माहौल बना दिया मानो मशीनों की निष्पक्षता पर सवाल उठाना अायोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाना है. इसने मामला अौर बिगाड़ दिया. 

कई जगहों पर, कई चुनाव परिणाम ऐसे अाये जिनने भी शक गहरा कर दिया. कोई भी बटन दबाएं हम, वोट किसी एक खास पार्टी के पक्ष में दर्ज होता है, ऐसे अनेक उदाहरण मिले. यह तकनीकी गड़बड़ी से ही होता हो तो भी यह भरोसे को जड़ से हिला देता है. अभी कैराना-पालघर अादि के उप-चुनावों में दोनों ही मशीनों का जैसा कबाड़ा हुअा, उसका जवाब अगर चुनाव अायोग यह देता है कि कितनी फीसदी मशीनें गड़बड़ हुईं तो यह बचकाना जवाब है. जिन चुनावों का इतना राजनीतिक महत्व था कि प्रधानमंत्री से लेकर कई भावी प्रधानमंत्री उसमें पिले पड़े थे, उसकी मशीनों में ऐसी गड़बड़ी हो तो श्रीमान, इसे अापकी बर्खास्तगी का अाधार बनाया जा सकता है. 

चुनाव अायोग यह भूल गया कि राजनीतिक दल भले अपना फायदा या नुकसान देख कर इवीएम का समर्थन या विरोध करते हैं, अाम मतदाता तो अापकी प्रक्रिया अौर अापके परिणाम में भरोसा खोजता है. इवीएम मशीनें वह भरोसा खो रही हैं. उसमें अब अापने एक वह वीवीपीएटी मशीन भी जोड़ दी है जो कागज की रसीद भी निकालती है. मतलब अापने यह तो कबूल कर ही लिया कि इवीएम मशीनें गड़बड़ी या विफलता से परे नहीं हैं. इसे विश्वास की एक अौर बैसाखी देना जरूरी है. तो हुअा ऐसा कि इन मशीनों के कारण चुनाव खर्च तो बेहिसाब बढ़ ही गया है, कागज की बर्बादी रुकने का संतोष भी जाता रहा. चुनाव कितने चरणों में कराए जा रहे हैं, अब कोई इसकी चर्चा नहीं करता है लेकिन उससे खर्चा बहुत बढ़ता है अौर विश्वसनीयता नहीं बढ़ती है, इसकी चर्चा तो होनी ही चाहिए. दुनिया के अधिकांश मुल्क ऐसी मशीनों से चुनाव नहीं कराते, तो क्यों, इसका अध्ययन भी देश के सामने रखा जाना चाहिए. यह सब इसलिए कि चुनाव अायोग के पास जो एकमात्र पूंजी है - मतदाता का विश्वास - वह दांव पर लगा है; अौर यह भरोसा टूटा तो चुनाव अायोग किसी भुतहा महल में बदल जाएगा. 


मैं उनमें नहीं हूं कि जो कहते हैं कि हमें पुराने मतपत्रों वाले चुनाव अौर गिनाव पर लौट जाना चाहिए. लेकिन मैं उनमें हूं जो मानते हैं कि इवीएम की इस प्रणाली की बार-बार जांच-परख होनी चाहिए; मतदाताअों की शंकाअों के समाधान का हर संभव रास्ता पारदर्शी तरीके से अपनाया जाना चाहिए. अौर एक सच, जो चुनाव अायोग को हमेशा याद भी रखना चाहिए अौर दोहराते भी रहना चाहिए वह यह कि उसकी विश्वसनीयता इवीएम मशीनों से नहीं बनती है. वह तो बनती है चुनाव में उतरने वाले हर दल व हर अादमी के प्रति उसकी एक सी तटस्थता से ! इसलिए चुनाव अायोग बने तो कबीर बने, न कि ए.के. जोति; अौर सारे देश से कबीर की तरह कहे भी अौर देश देख भी : ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर ! ( 02. 06.2018) 

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