Friday 20 December 2019

लोकतंत्र के कठघरे में नागरिक

अाज सारा देश सड़कों पर है. कितना अजीब अौर शर्मनाक है यह मंजर !  जिस नागरिक ने देश को गुलामी से मुक्त किया,जिसने अपने देश का अपना लोकतंत्र बनाया अौर जिसने इस अौर ऐसी कितनी ही सरकारों को बनाया-मिटाया,अाज उसी नागरिक सेउसकी ही बनाई सरकार उसकी वैधता पूछ रही है अौर उसे अवैध घोषित करने का कानून बना कर इतरा रही है. कोई कहे कि नौकरों ने ( प्रधानसेवक ! ) मालिक तै करने का अधिकार ले लिया हैतो गलत नहीं होगा. यह लोकतंत्र के लिए सबसे नाजुक वक्त हैअौर ऐसा नाजुक वक्त तब अाता है जब सरकार संविधान से मुंह फेर लेती हैविधायिका विधान से नहींसंख्याबल से मनमाना करने लगती है;जब नौकरशाही जी हुजूरों की फौज में बदल जाती है अौर न्यायपालिका न्याय का पालन करने अौर करवाने के अलावा दूसरा सब कुछ करने लगती है.  भारत ऐसे ही चौराहे पर खड़ा है.  

            हाल यह है कि सरकार ने देश को दल में बदल लिया है अौर लोकसभा में मिले बहुमत को मनमाना करने का लाइसेंस बना लिया गया है. बहुमत को अंतिम सत्य मानने वाली सरकारों को सिर्फ अपनी अावाज ही सुनाई देती है;अपना चेहरा ही दिखाई देता है. वह भूल गई है कि नागरिक उससे नहीं हैंवह नागरिकों से है. नागरिक उसे चाहे जब तब बदल सकते हैंवह चाहे तो भी नागरिक को बदल नहीं सकती है. सरकारों को यह याद कराना जरूरी हो गया है कि वह नागरिक को खारिज नहीं कर सकती हैनागरिक उसे अाज ही अौर अभी ही खारिज कर सकते हैं. 

            नागरिकता की एक परिकल्पना अौर उसका अाधार हमारे संविधान ने हमें दिया कि जो भारत में जनमा है वह इस देश का नागरिक है. फिर यह भी संविधान ने ही कहा है कि कोई जनमा कहीं भी होयदि वह इस देश की नागरिकता का अावेदन करता है अौर संविधानसम्मत किसी भी व्यवस्था का उल्लंघन नहीं करता है तो सरकार उसे नागरिकता देने को बाध्य है. ऐसा करते समय सरकार न लिंग का भेद कर सकती हैन धर्म या जाति कान रंग या रेस या देश का. नागरिकता अनुल्लंघनीय हैनागरिक स्वंयभू है. उस नागरिक से बना देश या समाज किसी भी व्यक्तिपार्टीसंगठन या गठबंधन से बड़ा होता है - बहुत बड़ा ! इसलिए सरकार को याद कराना जरूरी हो गया है कि उसने नागरिक प्रमाणित करने का जो अधिकार खुद ही लपक लिया हैवह लोकतंत्रसंविधाननागरिक नैतिकता अौर सामाजिक जिम्मेवारी के खिलाफ जाता है.

            इतिहास में उतरें हम तो 1925 से,राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की स्थापना के बाद सेएक सीधी अौर साफ धारा मिलती है जो हिंदुत्व का अपना दर्शन बनाती है अौर दावा करती है कि वह इस देश को हिंदू राष्ट्र बना कर रहेगी. विनायक दामोदर सावरकरकेशव बलिराम हेडगेवारमाधव सदाशिव गोलवलकर अादि से प्रेरित अौर इनके द्वारा ही संगठित-संचालित हिंदुत्व के इस संगठन को जन्म से लगातार ही महात्मा गांधी से सबसे बड़ी चुनौती मिलती रही. महात्मा गांधी भारत की अाजादी की लड़ाई के सबसे बड़े सेनापति भर नहीं थे बल्कि भारतीय समाज के  नये दार्शनिक भी थे. वे खुद को हिंदू कहते थे - सनातनी हिंदू ! - लेकिन हिंदुत्व के संघ-परिवारी दर्शन के किसी तत्व को स्वीकार नहीं करते थे. गांधी को सीधी चुनौती दे करसाथ लेने की कोशिशें कर के अौर उनके साथ छल  की सारी कोशिशों के बाद भी जब गांधी हाथ नहीं अाएअौर भारतीय जनमानस पर उनके बढ़ते असर व पकड़ की कोई काट ये खोज नहीं पाए तब जा कर यह तय किया गया कि इन्हें रास्ते से हटाया जाए. यही वह फैसला था जो पांच विफल कोशिशों के बाद30 जनवरी 1948 को सफल हुअा अौर गांधी की हत्या हुई. हत्या के पीछे योजना यह थी कि हत्या से देश में ऐसी अफरा-तफरी मचेगीमचाई जाएगी कि जिसकी अाड़ में हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता पर कब्जा कर लेंगी. हिंदुत्व की इनकी अवधारणा सत्ता की बैसाखी के बगैर चल ही नहीं पाती है. इसलिए सत्ता की खोज इनकी सनातनी खोज है. 

            हत्या तो कर दी गई लेकिन देश में वैसी अफरा-तफरी नहीं मची कि जिसकी अाड़ ले कर ये सत्ता तक पहुंचें. जवाहरलाल नेहरू अौर सरदार पटेल ने देश को वैसी अफरा-तफरी से बचा भी लिया अौर निकाल भी लिया. इसलिए नेहरू इनके निशाने  पर थे अौर हैं. तब से अाज तक हिंदुत्व का यह दर्शन समाज में न वैसी जगह बना सका जिसकी अपेक्षा से ये काम करते रहे अौर न सत्ता पर इनकी कभी ऐसी पकड़ बन सकी कि ये अपने एजेंडे का भारत बना सकें. अटलबिहारी वाजपेयी के पांच साल के प्रधानमंत्रित्व में यह हो सकता था कि अटलजी ‘ छोटे-नेहरूका चोला उतारने को तैयार नहीं थे अौर संघी हिंदुत्व के खतरों से बचते थे. इसलिए अटल-दौर संघी हिंदुत्व की ताकत का नहींजमीन तैयार करने का दौर बना अौर उसकी सबसे बड़ी प्रयोगशाला नरेंद्र मोदी के गुजरात में खोली गई. सत्ता की मदद से हिंदुत्व की जड़ जमाने का वह प्रयोग संघ व मोदीदोनों के लिए खासा सफल रहा.  दोनों की अांखें खुलीं. 

            फिर कांग्रेस के चौतरफा निकम्मेपन की वजह से दिल्ली नरेंद्र मोदी के हाथ अाई. तब से अाज तक दिल्ली से हिंदुत्व का वही एजेंडा चलाया जा रहा है जो 1925 से अधूरा पड़ा था. यह गांधी को खारिज करभारत को अ-भारत बनाने का एजेंडा है. अब ये जान चुके हैं कि लोकतांत्रिक राजनीति में सत्ता का कोई भरोसा नहीं है. इसलिए ये अपना वह एजेंडा पूरा करने में तेजी से जुट गये हैं  जिससे लोकतांत्रिक उलट-फेर की संभावनाएं खत्म होंअौर सत्ता अपने हाथ में स्थिर रहे. नोटबंदी से ले कर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तक का सारा खेल समाज की ताकत को तोड़-मरोड़ देनेसंविधान को अप्रभावी बना देने तथा संवैधानिक संस्थानों को सरकार का खोखला खिलौना बनाने के अलावा कुछ दूसरा नहीं है.  

            भारत के सबसे बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस की त्रासदी यह है कि उसे सत्ता-रोग की बीमारी है. सत्ता गई तो वह सन्निपात में चली जाती है. इंदिरा गांधी उसकी अंतिम नेता थीं कि जिनके पास राजनीतिक नेतृत्व का माद्दा था. अाज कांग्रेस अपनी ही छाया से लड़तीलड़खड़ाती ऐसी पार्टी मात्र है जिसका राजनीतिक एजेंडा मोदी तय करते हैं. विपक्ष के दूसरे सारे ही दल सत्ता की बंदरबांट में से अपना हिस्सा लपक लेने से ज्यादा की न तो हैसियत रखते हैंन सपने पालते हैं. ऐसे में भारतीय लोकतंत्र का विपक्ष कहां है वह संसद में नहींसड़कों पर है. अाज युवा अौर नागरिक ही भारतीय लोकतंत्र के विपक्ष हैं. यह अाशा की भी अौर अाल्हाद की भी बात है कि लोकतंत्र लोक के हाथ में अा रहा है.  

      हमारे संविधान का पहला अध्याय यही कहता है. सड़कों पर उतरे लोग संविधान की इसी बात को बार-बार दुहरा रहे हैं. सड़कों पर उतरे युवाअों-छात्रों-नागरिकों में सभी जातियों-धर्मों के लोग हैं.  सीएबी या सीएए किसी भी तरह मुसलमानों का सवाल नहीं है. वे निशाने पर सबसे पहले अाए हैं क्योंकि दूसरे सभी असहमतों को निशाने पर लेने की भूमिका इससे ही बनती है. इसलिए लाठी-गोली-अश्रुगैस की मार के बीच भी सड़कों से अावाज यही उठ रही है कि हम पूरे हिंदुस्तान कोअौर इस हिंदुस्तान के हर नागरिक को सम्मान व अधिकार के साथ भारत का नागरिक मानते हैं. कोई भी सरकार हमारी या उनकी या किसी की नागरिकता का निर्धारण करेयह हमें मंजूर नहीं है. इसलिए कि सभी सरकारें जिस संविधान की अस्थाई रचना हैंजनता उस संविधान की रचयिता भी है अौर स्थाई प्रहरी भी ! सरकारें स्वार्थभ्रष्ट अौर संकीर्ण मानसिकता वाली हो सकती हैं. सांप्रदायिक भी हो सकती हैं अौर जातिवादी भी ! सरकारें मौकापरस्त भी होती हैं अौर रंग भी बदलती हैंयह बात किसी से छिपी नहीं है. यह संविधान से बनती तो है लेकिन संविधान का सम्मान नहीं करती हैयह वोट से बनती है लेकिन वोटर का माखौल उड़ाती है. यह झूठ अौर मक्कारी को हथियार बनाती है अौर इतिहास को तोड़-मरोड़ कर अपना मतलब साधना चाहती है. अाज यह हमारी नागरिकता से खेलना चाह रही हैकल हमसे खेलेगी. यह चाहती है कि इस देश में नागरिक नहींसिर्फ उसके वोटर रहें. सत्ता के खेल में यह समाज को खोखला बना देना चाहती है. इसलिए लड़ाई सड़कों पर है. जब संसद गूंगी अौर व्यवस्था अंधी हो जाती है तब सड़कें लड़ाई का मैदान बन जाती हैं. 

      जो समाज अपने अधिकारों के लिए लड़ता नहीं है वह कायर भी होता हैअौर जल्दी ही बिखर भी जाता है. लेकिन उसे इस बात की भी गांठ बांध लेनी पड़ेगी कि हिंसा हमेशा अात्मघाती होती है. निजी हो या सार्वजनिककिसी भी संपत्ति का विनाश दरअसल अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है. जब लड़ाई व्यवस्था से हो तब व्यक्ति गौण हो जाता है. सरकार को यह समझाना है या समझने के लिए मजबूर करना है कि वह नागरिकता के निर्धारण का अपना कदम वापस ले ले. यह उसका काम है ही नहीं. अगर देश में घुसपैठियों का संकट है तो यह सरकार कीअौर सिर्फ सरकार की जिम्मेवारी है कि वह अपनी व्यवस्था को चुस्त बनाए. घुसपैठिए बिलों से देश में दाखिल नहीं होते हैं. वे व्यवस्था की कमजोरी में सेंध लगाते हैं. वे जानते हैं कि सेंध वहीं लग सकती है जहां दीवार कमजोर होती है. इसलिए अाप सरकार बनेंषड्यंत्रकारी नहींअाप अपनी कमजोरी दूर करेंनागरिकों को कमजोर न करें.

      अाज से कुछ ही दिन पहले की तो बात है जब वर्दीधारी पुलिस राजधानी दिल्ली की सड़कों पर प्रदर्शनकारी बन कर उतरी थी. सरकार के खिलाफअपने अधिकारियों के खिलाफ उसने नारे लगाए थे. सड़कें जाम कर दी थीं. तब वे वर्दीधारी वकीलों का मुकाबला करने में जनता का समर्थन चाहते थे. तब किसी ने उन पर अश्रुगैस के गोले दागे क्या लाठियां मारीं क्या पानी की तलवारें चलाईं नागरिकों ने एक स्वर से कहा था कि ये अपनी बात कहने सड़कों पर तब उतरे हैं जब दूसरे किसी मंच पर इनकी सुनवाई नहीं हो रही है. पुलिस को भी ऐसा ही समझना चाहिए. पुलिस को नागरिकों से जैसा समर्थन मिला थाक्या नागरिकों को पुलिस से वैसा ही समर्थन नहीं मिलना चाहिए अाज पुलिस नागरिकों से ऐसे पेश अा रही है मानों दुश्मनों से पेश अा रही है. पुलिस भी समझेसरकारी अधिकारी भी समझेंराजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी समझेंहमारे अौर उनके मां-बाप भी समझें कि यह लड़ाई नागरिकता को बचाने की लड़ाई है. इसलिए हिंसा नहींहिम्मतगालियां नहींवैचारिक नारेपत्थरबाजी नहींफौलादी धरना ! गोडसे नहींगांधीभागो नहींबदलोडरो नहींलड़ोहारो नहींजीतोअौर इसलिए भीड़ का भय नहींशांति की शक्ति अौर संकल्प का बल ही नागरिकों की सबसे बड़ी ताकत है. वह यह ताकत अौर संयम न खोए तभी यह सरकार समझेगी. सरकार समझे अौर अपने कदम वापस ले तो हमारा लोकतंत्र ज्यादा मजबूत बन कर उभरेगा.  ( 18.12.2019)

Tuesday 17 December 2019

यह गलती बहुत बड़ी होगी

         अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर रिव्यू पिटिशन या पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का फैसला क्यों किया यह तो पता नहीं लेकिन मुझेयह खूब पता है कि उनका यह फैसला उन्हें भी शर्मशार करेगा अौर देश को भी ! जीत का रहस्य यह है कि वह संयम में शोभा पाता हैहार का खोखलापन यह है कि वह बेवजह जख्म को हरा करता रहता है. 

 अयोध्या विवाद का जो फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया हैउसके बाद हिंदूमुसलमान तथा देश के दूसरे सभी धर्मावलंबियों ने खासी समझदारी अौर प्रौड़ता का परिचय दिया है. ऐसा नहीं है कियह फैसला सबको संतोषजनक लगा है. शिकायतें हैं लेकिन संयम का अहसास भी है. सबको संतोषजनक लगेऐसा कोई रास्ता अगर होता तो इस मामले को न्यायालय तक अाने की जरूरत ही क्योंहोती ! ऐसा कोई रास्ता था नहीं - न हिंदुअों के पासन मुसलमानों के पासन सरकारों के पासन समाज के पास ! इसलिए हमने अदालत को इसमें शरीक किया अौर सबने यह सार्वजनिक घोषणा कीकि अदालत का फैसला हमें मंजूर होगा. तो अदालत का फैसला अा गयाफिर उसे नामंजूर कैसे किया जा सकता है ?तब तो पहले ही कहना था कि हमारे मनमाफिक फैसला अाएगा तो कबूलकरेंगे,नहीं तो खारिज करेंगे. 

 अदालत के फैसले में अंतर्विरोध भी हैं अौर कई मामलों में भटकाव भी है. इन पंक्तियों के लेखक ने भी फैसले की विसंगतियों को उजागर किया है अौर अदालत का भी अौर समाज का भी ध्यानउधर खींचा है. ऐसी कई दूसरी अावाजें भी उठी हैं. लेकिन मुझ समेत सबने यह तो कहा ही है कि हम फैसले को अमान्य नहीं करते हैं.  उसकी विसंगतियां सबके सामने रखना उसका मजाक उड़ाना याउससे इंकार करना नहीं है बल्कि मानवीय प्रयासों की सीमा बताना है. यही भूमिका अॉल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी लेनी चाहिए. दूसरे सभी पक्षकारों की तरह उसने भी अदालत में मुख्तसरअपनी बातअपनी दलीलें रखी ही थीं. अदालत को उनमें सार कम लगा अौर उसने विपरीत फैसला दियातो यह हार या अपमान नहीं हैअसहमति है. 

 अदालत ने अपनी असहमति जाहिर कर दी है अौर हम जिस संवैधानिक व्यवस्था के तहत रहते अौर अपना देश चलाते हैं उसमें हमारी सर्वोच्च अदालत सहमति-असहमति का अाखिरी दरवाजा है. हमने ही स्वीकार किया है कि यहां से अागे सहमति-असहमति नहींनिर्णय होगा अौर सभी उसे मान कर चलेंगे. हम यहां से अाया निर्णय कबूल न करें या अंत-अंत तक कबूल न करने का तेवर दिखाते रहेंतो यह पराजित मानसिकता को अधिक ही तीखा बनाएगा,अौर दूसरे पक्ष को भी कटुता पर उतरने के लिए मजबूर करेगा. मैं जानता हूं कि मंदिर बनाने की अनुमति पा जाने के कारण ही हिंदुत्व धड़ा इतनासंयम दिखा रहा है लेकिन अदालती न्याय में ऐसा तो हरदम ही होता है. सारे मुस्लिम समाज को यह बात समझनी चाहिए कि मस्जिद के विवाद को पीछे छोड़ कर हम जितनी जल्दी अागे निकल जाएंगेहिंदुत्व का विषदंत उतनी ही जल्दी भोथरा हो जाएगा. वहां भी ऐसे तत्व हैं कि जो चाहते हैं कि चिंगारी छिटकेकि जहरीली हवा चले कि अाग भड़के ! हमें उनके हाथ खेलना नहीं हैउनको बेअसर करनाहै. 

 राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अायोग के वर्तमान अध्यक्ष घैरुल हसन रिजवी ने भी बयान दे कर मुस्लिम समाज को अागाह किया है कि पुनर्विचार याचिका का विचार प्रतिकूल परिणाम लाएगा. हमारीसंवैधानिक व्यवस्था में पुनर्विचार याचिकाएं मुकदमा फिर से खोलने का उपकरण नहीं हैं. सामान्य प्रक्रिया तो यही है कि न्यायाधीश महोदय अपने चैंबर में ही वादी-प्रतिवादी दोनों की बातें सुन लते हैं,उस रोशनी में अपने ही फैसले की समीक्षा कर लेते हैं अौर फिर याचिका को स्वीकृत या अस्वीकृत करते हैं. क्या अभी-अभी जिस विवाद की इतनी लंबी सुनवाई हुई हैउस संदर्भ में अॉल इंडिया मुस्लिमपर्सनल लॉ बोर्ड ऐसा कोई एकदम नया साक्ष्य ले कर अाया है कि जिससे इस फैसले की बुनियाद ही बदल जाए मेरा ख्याल नहीं है कि ऐसा कोई साक्ष्य किसी के हाथ लगा है. तब सारा मामलासाक्ष्यों के अाधार पर बनने वाली मनोभूमिका का है. तो 5 जजों की विशेष संविधान पीठ के सामने हमने जो कुछ कहादिखायाबताया उन सबके अाधार पर ही अदालत ने गहरे विमर्श अौर हर तरह कीसंभावनाअों को तौलते हुए एक मनोभूमिका बनाई अौर वही फैसले के रूप में हमारे समक्ष रखा है. एक पक्ष को मंदिर बनाने के लिए संगठन खड़ा करने की अनुमति मिली तो दूसरे पक्ष को 5 एकड़ जमीनमिली जिसका वे मनचाहा इस्तेमाल कर सकते हैं. अभी तो वह जमीन का टुकड़ा भर हैपूरा मुस्लिम समाज जमीन के उस टुकड़े को जमीर की राष्ट्रीय अावाज में बदल दे सकता है - जमीरजो हिंदू यामुसलमान नहीं होता है,खालिस इंसान होता है. एक बड़ी लकीर खींचने का ऐसा वक्त हमारे हाथ में अा गया है कि जिसके अागे फिर कोई दूसरी मस्जिद या मंदिर या चर्च या गुरुद्वारे का सवाल न खड़ानहीं कर सकेगा. जड़ कटे अौर कोई एक नया पौधा उगेऐसी कोई सलाहियत हमें खोजनी है. 

  पराजय या डर की मनोभूमिका होगी तो हम यह काम नहीं कर सकेंगे. अात्मविश्वास से भरा अौर पुरानी सारी शंकाअों-कुशंकाअों को पीछे रख करपुरानी लिखावटें मिटा करभारतीय समाज काएक बड़ा घटक सारे समाज को संबोधित करते हुएसाथ लेते हुए कुछ नया लिखने की कोशिश करे,  यह वैसा अवसर है. अदालत ने चाहा हो या न चाहा होउसके इसी फैसल को हम ऐसे अवसर मेंबदल सकते हैं. अभी समाज में ऐसी ग्रहणशीलता बनी है. इसे पुनर्विचार याचिका वगैरह डाल कर हमें खोना नहीं चाहिए. इससे मुस्लिम समाज का अहित तो होगा हीपूरा भारतीय समाज इससे अाहतहोगा. 

  गांधी ने एक अाजाद मुल्क में धर्मों की जिस भूमिका को रेखांकित करने की कोशिश की थीउस भूमिका को समझने अौर उस दिशा में मजबूती से बढ़ने का यह समय है. अाज गति नहींदिशामहत्वपूर्ण हैउन्माद नहींविवेकप्रतिक्रिया नहींप्रक्रिया महत्वपूर्ण है. क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कोई ऐसी पहल कर सकेगा कि 5 एकड़ जमीन का वह टुकड़ा भारतीय समाज के स्वस्थ तत्वों कीसाझेदारी का नमूना खड़ा करे जिन्हें अाकाश चूमता मंदिर बनाना हो वे बनाएंजमाना तो अापके पांव किस कीचड़ में सने हैंयह भी देखेगा. हमारे पांवों में भारतीय समाज के नये साझा स्वरूप का बलहो अौर हमारे निर्माण में भारतीय समाज के साझा अस्तित्व की तस्वीर होतो यह संकट स्वर्णिक अवसर बन सकता है. बकौल फैज’ : 


यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क,
 उनकी रस्म नई है अपनी रीत नई
यूं ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
 उनकी हार नई है अपनी जीत नई
( 26.11.2019) 

Wednesday 4 December 2019

संविधान के चमगादड़

         क्या आपको मालूम है कि हमारा एक संविधान भी है कि जिसे बनाने में कोई तीन साल लगे अौर जिसे लिखने में एक अादमकद अादमी ने अपना जीवन-दीप सुखा डाला था ? अौर क्या अापको यह भी मालूम है कि इसे बनाने अौर लिखने में जो लोग जुटे लगे थे, उनमें सेकरीब-करीब सभी भारत की अाजादी की लड़ाई के तपे-तपाये सिपाही थे जिनकी पूरी जवानी अपने सेनापति महात्मा गांधी के पीछे चलते अौर लड़ते बीती थी ? क्या अापको मालूम है कि अभी-अभी 26 नवंबर की जो तारीख बीती है वही हमारा संविधान दिवस है ? अौर ठीकउसी संविधान दिवस पर, संविधान के नाम पर शपथ लेने वाले महाराष्ट्र के राजनेताअों ने संविधान के शब्दों की अौर उसकी अात्मा की धुर्रियां ऐसी बिखेरी हैं कि अब संविधान की घायल अात्मा की कराह के अलावा वहां कुछ सुनाई नहीं देता है

  कई बार लगता है, अौर अब तो बार-बार, हर रोज लगता है कि संविधान एक बड़ा वटवृक्ष है जिसकी शाखाअों पर हम सभी चमगादड़ों-से उल्टा लटके हैं ; अौर जो उल्टा लटका है उसे कभी कुछ सीधा दिखा है क्या ? इस संविधान को बनाने में जिसने सबसे ज्यादामजदूरी की उस बाबासाहब भीमराव अांबेडकर ने इसे लिपिबद्ध कर, जब अपनी कलम धरी तभी यह भी कहा कि कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग होते हैं. अौर जो कभी पल भर के लिए भी संविधान सभा में गया नहीं, उसका एकशब्द लिखा नहीं, उस प्रक्रिया को कभी तवज्जो दी नहीं लेकिन जिसकी गहरी, विशाल छाया संविधान अौर उसके निर्माताअों पर पड़ती रही, उस महात्मा गांधी ने बहुत कुरेदने पर कुछ इस अाशय की बात कही : देश चलेगा कैसे इसकी फिक्र में ये सब दुबले हुए जा रहे हैं, मैं इसफिक्र में पड़ा हूं कि देश बनेगा कैसे !! 

 चमगादड़ो, सोचो अौर बताअो कि जो बनेगा नहीं, वह चलेगा कैसे ?  

 जो नहीं बना है उसे ही चलाने की पीड़ा से हम भी गुजर रहे हैं अौर हमारा संविधान भी ! जरा हिसाब तो लगाइए कि हमारा समाज कितनी जगहों से, कितनी तरह से टूटा है ? हमारी पुरागाथा का अष्टावक्र भी शरमा जाए इतना विकलांग विकृत है हमारा समाज जिसमेंजातियां मिलती हैं, उप-जातियां मिलती हैं; धर्म अौर संप्रदाय; अधर्म अौर जहरीली सांप्रदायिकता ; कुसंस्कारी भाषाएं अौर बोलियां; रीति-रिवाज भी अौर परंपराएं भी अौर पतनशील रवायतें भी. ये सब मिलते हैं; अौर मिलते हैं इन सबसे चिपके हुए उन्मत्त हम लोग; लेकिन जोनहीं मिलता है वह है एक पूरा, खालिस हिंदुस्तानी ! जबकि हमारा संविधान जैसे ही बोलना शुरू करता है, एकदम पहला वाक्य ही बोलता है कि हम भारत के लोग अपने लिए यह संविधान बना कर, अपने ऊपर लागू करते हैं. ‘ हम भारत के लोग’ - जो संविधान इससे छोटीकिसी पहचान को मानता ही नहीं है, हम बौने लोगों ने उसे ही कितनी जंजीरों में इसे बांध रखा है ! इंसान हो कि संविधान किसी को भी बांध देना विकास की, प्रस्फुरण की नहीं बोंसाई बनाने की प्रक्रिया है. बोंसाई, जो प्राकृतिक नहीं है; बोंसाई जो फुलवारियों में नहीं हमारेड्राइंगरूमों में मिलता है. इसलिए संविधान भी हमें समाज में नहीं, शपथ-ग्रहण समारोहों में मिलता है

 कभी यह बोध जागता है हममें कि जब हम सड़क के गलत किनारे अपनी साइकिल खड़ी करते हैं, जब हम सड़कों को अपनी कारों की पार्किंग की तरह इस्तेमाल करते हैं, जब हम सड़क पर पैदल चलते इंसानों को अपनी गाड़ी से हिकारत की नजर से देखते हैं अौर उनकेलिए अपनी गाड़ी किनारे नहीं कर लेते हैं, जब हम सड़क पर थूकते हैं या पान की पिचकारी छोड़ते निकल जाते हैं, अौर जब हम किसी भी कारण से, किसी भी अादमी या प्राणी पर हाथ या हथियार छोड़ते हैं तब हम संविधान के मुंह पर कालिख पोत रहे होते हैं ? अरे चमगादड़ो, संविधान रोज-रोज लोकतंत्र को जीने की कला सिखाने का शास्त्र है; पूजने का अौर महफिलों में सर लगाने का ग्रंथ नहीं

  टिकट की लंबी कतार के अाखिरी सिरे पर खड़ा था वह - अखबार में अांखें गड़ाए कदम-दर-कदम बढ़ रहा था - उसने किसी को धक्का दिया, किसी पर चिल्लाया, अपने से 5-10 लोग अागे खड़े किसी को नोट पकड़ाने की कोशिश की वह उसका टिकट भी लेले. उसे जाने की जल्दी तो थी लेकिन वह धैर्य की बांह गहे था. तभी एक अादमी ने पीछे से अा कर उसके कंधे पर हाथ रखा. मैंने देखा, वह संविधान था. तभी अपना अस्तित्व किसी तरह संभालती-लड़खड़ाती, कांपती-सी एक वृद्धा भी अा लगी कतार में. उसने अखबार से नजरबाहर निकाली, वृद्धा की तरफ देखा अौर फिर कतार से बाहर अा कर, उसे संभालते हुए सीधा टिकट खिड़की पर ले गया-“ इन्हें पहले टिकट ले लेने दो !” टिकट लेने वाले से उसने कहा. उस अादमी ने भी वृद्धा को देखा अौर अपना हाथ पीछे ले लिया. खिड़की के भीतर बैठेअादमी ने भी देखा कि कतार से बाहर का कोई, कतार तोड़ कर खिड़की पर पहुंचा है. उसने देखा अौर वृद्धा को टिकट दे दिया. टिकट ले कर उसी तरह कांपती-लड़खड़ाती वह चल पड़ी. वह अादमी फिर लौट कर कतार के पीछे अा लगा. मैंने देखा - संविधान वहीं खड़ा थालेकिन इस बार वह अानंद भरी हंसी से भरा था


 चमगादड़ो, संविधान के वृक्ष पर उल्टा लटकना नहीं, उसके साथ सीधा खड़ा रहना सीखो ! ( 27.11.2019)