Wednesday 21 March 2018

अापकी खामोशी !


             
         
उर्जित पटेल बोले ! … इस साल की सबसे बड़ी सुर्खी !!…उत्तरप्रदेश व बिहार के उप-चुनाव में ‘नशा’ जोड़ी की अात्ममुग्धता को जो ठोकर लगी है, उससे भी कहीं बड़ी खबर यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के मुंह में जबान है अौर वह काटती भी है. 
       
देश की बैंकिंग-व्यवस्था की यह सिरमौर संस्था ने कभी ऐसी अपमानजनक भूमिका स्वीकार नहीं की थी जैसी उर्जित पटेल ने इसे स्वीकार करने पर विवश कर दिया. यह चुप्पी अौर भी घुटन भरी इसलिए लग रही थी कि उर्जित पटेल ने उस जूते में पांव डाला था जिसे रघुराम राजन ने उतारा था. रघुराम कैसे अर्थशास्त्री या गवर्नर थे इस बारे में जुदा-जुदा राय हो सकती है लेकिन इस बारे में शायद ही कोई मतभेद हो कि अपने छोटे लेकिन अत्यंत नाजुक दौर की गवर्नरी में उन्होंने रिजर्व बैंक को एक अस्तित्व व हैसियत दिला दी थी. रघुराम राजन रिजर्व बैंक के टी.एन.शेषन थे. बैंकिंग अौर रिजर्व बैंक जैसी व्यवस्था को कभी समझने की जहमत न उठाने वाले अाम भारतीय के लिए भी रघुराम राजन का मतलब हो गया था.  

फिर अचानक ही वे बेमतलब हो गये ! हटाये गये. फिर हमने उर्जित पटेल का नाम सुना, अौर फिर हमने कुछ भी नहीं सुना. रघुराम राजन के जाते ही इस सरकार ने देश की अार्थिक व्यवस्था पर जैसे हमला ही बोल दिया. ऐसा लगा कि जैसे रिजर्व बैक अौर सरकार के बीच रघुराम किसी चट्टान की तरह थे कि जिसके हटते ही सब तलवार भांजने लगे. भारतीय बैंकिंग व्यवस्था को अपमानित करने का ऐसा दौर कभी देखा नहीं था जैसा उर्जित पटेल ने देखा व सहा. बैंकिंग व्यवस्था जैसे देशद्रोहियों का अड्डा घोषित कर दी गई अौर नोटबंदी कर उसकी सांस बंद कर दी गई. हर बैंक अौर बैंकिंग व्यवस्था से जुड़ा हर बड़ा-छोटा अादमी चोर, कालाबाजारी घोषित कर दिया गया अौर फिर उससे ही कहा गया कि वह खुद को ‘ जी हुजूर’ साबित करे. अौर उर्जित पटेल से ले कर नीचे तक सब यही साबित करने में लग गये. 

इतना ही नहीं हुअा, यह पूरी बैंकिंग व्यवस्था जिस खाताधारक की जेब के भरोसे चलती है उस खाताधारक को सरेअाम सारे देश में एक साथ सड़कों पर, चौराहों पर, गलियों में जिस तरह अपमानित किया गया, उसकी कोई मिसाल दुनिया में है या नहीं, मुझे नहीं मालूम. वह खाताधारक एक व्यक्ति की एक घोषणा के साथ, रातोरात चोर-कालाबाजारी-अार्थिक अपराधी-देशद्रोही बना कर सड़कों पर ठेल दिया गया. उसके ही पैसों पर पलने वाली सरकार ने उसे ही एक-एक पैसे के लिए मोहताज बना दिया. जलती धूप में गंदी नालियों के किनारे, सड़कों की धूल फांकते, घंटों भूखे-प्यासे एक पांव पर खड़े लोगों की वैसी कतारें शायद ही दुनिया में कभी, कहीं देखी गई होंगी. अौर ये वे लोग थे जिनका पैसा पसीने से पैदा होता है, सत्ता-संपत्ति-कुर्सी के पेड़ में फलता नहीं है. करोड़ों-करोड़ खाताधारक भिखमंगे बना दिए गये. सरकार की इस (कु)नीति से बैंकिंग व्यवस्था के किसी भी अधिकारी ने विरोध प्रकट किया ? क्या रिजर्व बैंक ने कभी यह सवाल उठाया कि भारतीय मुद्रा का नियमन उसका क्षेत्र है, तो सरकार ने उसे विश्वास में ले कर अौर उसे साथ में ले कर काम क्यों नहीं किया? इब्ने इंसा के किसी जासूसी उपन्यास के नायक की तरह बरत रहे प्रधानमंत्री को बैंकिंग व्यवस्था के लोगों ने अर्थ-तंत्र के मैदान में उतार लाने की कोशिश क्यों नहीं की, यह सवाल मैं पूछ नहीं रहा हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि कुर्सी के बहादुरों का बहादुरी से कैसा व कितना नाता होता है. मैं उर्जित पटेल से यह भी नहीं पूछ रहा हूं कि जब नोटबंदी की घोषणा से पहले भारतीय जनता पार्टी ने अपने अौर अपनों के नोटों का इंतजाम किया-करवाया था, तब अापकी अावाज क्यों गुम थी ?  लेकिन यह पूछे बिना कोई कैसे रहे कि उस दौर में किसी ने क्यों नहीं बैंकों को इतना निर्देश दिया कि नोटबंदी के मारे लोगों के साथ इज्जत व सहानुभूति का व्यवहार हो; नोट जमा करवाने या बदलवाने के वक्त उन्हें सम्मानजनक जरूरी सुविधाएं की जाएं; नौकरशाही के फरमानों का शैतानी पालन न किया जाए अादि-अादि. सरकार ने उन्हें अपमानित किया तो बैंकिंग व्यवस्था ने उन्हें हर कदम पर जलील किया. 

उर्जित पटेल तब भी कुछ नहीं बोले. जब नोटबंदी की मियाद के बारे में, नोटों की उपलब्धता के बारे में, एटीएम मशीनों के नाम पर लोगों को पल-पल छला जा रहा था; उर्जित पटेल तब भी नहीं बोले जब लोगों को डराया जा रहा था; उर्जित पटेल तब भी कुछ नहीं बोले जब बैंकिंग व्यवस्था से जुड़े लोगों को कामचोर, चोर, भ्रष्ट अादि कहा जा रहा था; उर्जित पटेल तब भी नहीं बोले जब यह बात सड़कों तक फैल रही थी कि उनकी बैकिंग व्यवस्था के बड़े-छोटे लोग पुराने नोटों की अदला-बदली का नाजायज धंधा कर रहे हैं. उस पूरे दौर में देश में रिजर्व बैंक नाम की कोई संस्था है यह पता करना भी मुश्किल था अौर यह खोजना भी मुश्किल था कि उर्जित पटेल नाम का अादमी कहां है. 


अब उर्जित पटेल नरेंद्र मोदी के गुजरात की राजधानी गांधीनगर में, गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के समारोह में बोल रहे हैं कि जहां तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों का सवाल है रिजर्व बैंक की हैसियत इस कदर कमजोर कर दी गई है कि वह कोई प्रभावी भूमिका अदा ही नहीं कर सकता है. वे यह भी कह रहे हैं कि पंजाब नेशनल बैंक के नीरव मोदी अौर ‘अपने’ मोहित भाई जब सारा घपला कर रहे थे तब रिजर्व बैंक ने सरकार को सावधान किया था लेकिन उसने अनसुनी कर दी. उन्होंने वह तक कहा जिसे सरकार अपने खिलाफ बयान मान ले सकती है अौर जिसे एकजुट होता विपक्ष हथियार बना सकता है. लेकिन मैं दूसरी बात पूछूंगा : अगर रिजर्व बैंक को इतना अप्रभावी बना जा रहा था तब अापने क्या किया अौर क्या कहा ? अाप जिस पद पर थे अौर हैं, उर्जित बाबू, उसका तकाजा है कि रीढ़ की हड्डी सीधी रहे. रीढ़ सीधी हो तो हिम्मत अाप-से-अाप अा जाती है. यह वक्ती साहस टिकेगा नहीं उर्जित पटेल बाबू ! अगर रिजर्व बैंक अौर उसके गवर्नर को ऐसा लगा हो कि अब तक जो हुअा सो हुअा लेकिन अब अर्थ-तंत्र के मामले में वह अपनी जिम्मेवारी को प्रतिबद्धता से निभाएगा तब तो इस साहस का कोई मतलब है अन्यथा बातें हैं बातों का क्या !! ( 16.03.2018)

Saturday 10 March 2018

काबे किस मुंह से जाअोगे गालिब



मानवीय सभ्यता का एक दौर वह भी था जब दूसरों की मूर्तियों को, उनके अास्था-स्थलों को तोड़ना, उनके पुरुषों की हत्या करना अौर उनकी अौरतों को अपमानित करना, लूटना-खसोटना, हर स्तर पर उनका विनाश करना सब सभ्य समाज में स्वीकार्य था. फिर हमने ही इनका निषेध करना शुरू किया. हमने ही  सभ्यता के पन्ने पलटे व नये पन्नों में लिखा कि ऐसा हर व्यवहार मानवता की सांस्कृतिक चेतना पर प्रहार करने वाला, हमारी सांस्कृतिक यात्रा को पीछे धकेलने वाला अौर मनुष्यता को अपमानित करने वाला माना जाएगा. धीरे-धीरे यह सब मूल्यों-मानक के रूप में स्वीकार्य होता गया अौर हम वहां से कई कदम अागे निकल अाए. ऐसा नहीं कि प्रतिगामी ताकतें समाप्त हो गईं. हुअा कि ऐसी ताकतें सब तरफ से निषेध व निंदा से हतप्रभ होती-होती पीछे चली गईं. 

लेकिन अभी जब मैं यह लिख रहा हूं, मुझे ऐसा लग रहा है जैसे हम उसी दौर की तरफ तेजी से लौटने की यात्रा में लगे हैं अौर जो ताकतें नेपथ्य में चली गई थीं, मुख्य मंच पर अट्टहास कर रही हैं. त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी की शून्य से शिखर तक की यात्रा में खतरनाक कुछ भी नहीं था बल्कि वह लोकतंत्र की शक्ति का ही प्रमाण था. लेकिन उसके बाद जो हुअा अौर सारे देश में जिस तरह उसे फैलाया गया, वह खतरनाक है, लोकतंत्र के लिए अपशकुन है.  त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति का तोड़ा जाना, मूर्ति का सर धड़ से अलग करना,उससे फुटबॉल खेलना अौर त्रिपुरा के नये राजनीतिक नेतृत्व द्वारा, वहां के राज्यपाल द्वारा अौर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेताअों द्वारा उसका सहर्ष समर्थन करना जैसे सारे देश के मुंह पर कालिख पोत गया. देश की सामूहिक चेतना कभी इतनी अपमानित अौर बदरूप नहीं हुई थी जितनी इस घटना से अौर इसके बाद की घटनाअों के दौर से हुई है. शर्म से झुका है हमारा माथा ! यह शर्म व पीड़ा वैसी ही है जैसी बामियान में महात्मा बुद्ध की ऐतिहासिक मूर्तियों को तालीबानों द्वारा विनष्ट करने की वारदातों से हुई थी जबकि कहां दूरदराज का बामियान अौर कहां हमारा भारत ! लेकिन शर्म तो शर्म है अगर अापको अाती हो ! भौगोलिक दूरियां यदि मानवीय चेतना को कुंद करती होतीं तो गांधी की हत्या के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ ने शर्म व शोक से सर नहीं झुकाया होता अौर हम चेकोस्लोवाकिया में रूसी टैकों की धड़धड़ाहट को इस तरह नहीं सुन पाते मानो वह हमारी छाती पर चढ़ने वाला हो अौर बांग्लादेश के जन्म की पीड़ा को हमने अपनी नसों में उतरते महसूस नहीं किया होता. दुनिया भौगोलिक रूप से ही नजदीक नहीं अा गई है बल्कि मानवीय चेतना ने भी लंबा सफर तै कर  लिया है. 

सवाल यह नहीं है कि लेनिन महान थे या नहीं, अौर शासक दल के बड़बोले लेकिन राजनीतिक निरक्षरता के धनी एक महानुभाव ने जैसा कहा कि वे अातंकवादी थे, तो वे अातंकवादी थे या नहीं, यह सवाल भी नहीं है. बात एकदम सीधी है कि विश्व इतिहास को अौर हमारी चेतना को चालना देने वाली स्मृतियों के साथ हमारा नाता क्या होगा ? क्या उन्हें हम तोड़ेंगे, ढाहेंगे, विनष्ट करेंगे अौर उन्हें अपमानित कर, सारी मानवीय चेतना का अपमान करेंगे ? फिर कैसे कह सकेंगे कि टायलेट की सीट पर हिंदू देवी-देवताअों के चित्र बनाना, बीयर की कोई ब्रांड राम के नाम से जारी करना कुसभ्यता है ? लेनिन से हमारे चाहे जितने मतभेद हों, विश्व इतिहास में मानवीय गरिमा व चेतना का वैसा पैरोकार खोजे न मिलेगा. वे किसी वाद के प्रतीक-पुरुष भर नहीं हैं बल्कि दुनिया के अार्थिक-सामाजिक परिवर्तन का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, लेनिन का नाम छोड़ कर वह इतिहास बन ही नहीं सकता है. यह पहचानना साम्यवाद का प्रचार नहीं, भारतीय परंपरा के साम्ययोग का विवेक है.

क्या कोई पार्टी अाज जीत गई तो वह कल को इतिहास से पोंछ डालने की अधिकारी हो जाएगी ? तो कल को वह हार जाएगी तो? क्या तब जीतने वाला फिर उसे भी पोंछने का अधिकारी हो जाएगा ? क्या यह खेल इसी प्रकार खेला जाता रहेगा अौर हम भीड़ की तरह इसे देखते रहेंगे ? फिर कोई ताजमहल तोड़ेगा अौर कोई सड़कों के नाम की पट्टियां उखाड़ेगा, अौर अपने लोगों के नाम की पट्टियां गाड़ेगा ताकि कल कोई उसे भी उखाड़ फेंके. कभी साम्यवादियों ने, स्टालिन ने यह किया था कि शासक बदलने के साथ ही इतिहास भी बदला जाने लगता था.  

हमारे यहां भी एक अभागा दौर चला था कि जब चीन के अध्यक्ष माअो को अपने भावी हिंदुस्तान का भी अध्यक्ष घोषित करने वाले नक्सलियों ने महात्मा गांधी की मूर्तियां तोड़ने का अभियान चलाया था. न मूर्तियां बनाने से गांधी महान बने थे, न तोड़ने से उनका कद रत्ती भर भी छोटा हुअा. हां, बनाने व तोड़ने वाले न जाने कब के इतिहास के कूड़ाघर में फेंक दिए गये.  तब जयप्रकाश नारायण ने एक सार्वजनिक वक्तव्य में कहा था : “ यदि हिंसावादियों ने गांधीजी को अपना दुश्मन माना है, तो इसमें अाश्चर्य क्या ? बल्कि मुझे तो इसकी खुशी है कि रक्त क्रांति वाले गांधीजी के विचारों में इतनी शक्ति पाते हैं अौर उनसे इतना भय खाते हैं कि उनका नामोनिशांन मिटाने पर उतारू हो गये हैं. लेकिन ये बड़े नादान लोग हैं. सत्य कभी मिटाया नहीं जा सकता. उसे मिटाने की जितनी कोशिश होगी, वह उतना ही अधिक निखरेगा अौर चमकेगा.”  अब जयप्रकाश नारायण भी नहीं हैं लेकिन सत्य तो है - निखरता हुअा, चमकता हुअा ! 

त्रिपुरा में लेनिन से शुरू हुअा अराजकता का यह अभियान अब तक पेरियार, अांबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, महात्मा गांधी तक पहुंचा है. इसका अंत कहां होगा ? श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मूर्ति तोड़ने वाला वामपंथ अौर अांबेडकर या गांधी की मूर्ति तोड़ने वाला दक्षिणपंथ अापको एक साथ ही, एक-से अंधपंथ का अनुयायी नहीं लगता है? अंधे इतिहास बनाने का दावा कर रहे हैं. 

कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने इस मूर्ति भंजन अभियान की कड़ी निंदा की है. लेकिन कहां ? उनका कोई अाधिकारिक बयान अब तक तो प्रकाशित नहीं हुअा है. कहा जा रहा है कि उनकी ‘कड़ी निंदा’ गृहमंत्रालय को दी गई है. फिर मंत्रालय क्या कर रहा है? अखबारों की खबर बताती है कि गृहमंत्री ने त्रिपुरा सरकार से कहा है कि वह नई सरकार के बनने तक कानून-व्यवस्था संभाले तथा अपराधियों से कड़ाई से निबटे. मतलब उनके लिए यह कानून-व्यवस्था का मामूली मामला भर है जिसे वे नई सरकार के मत्थे मढ़ कर किनारे हो जाना चाहते हैं. प्रधानमंत्री ने मूर्ति तोड़े जाने की ‘कड़ी निंदा’ कब की ? जब पेिरयार की मूर्ति तोड़ने का बाजाप्ता निर्देश तमिलनाड के भाजपा अधिकारी ने दिया अौर वह पोशीदा निर्देश सार्वजनिक हो गया अौर मूर्ति तोड़ी गई. जब त्रिपुरा में लेनिन की दो-दो मूर्तियां तोड़ी गईं तब उन्हें ऐसा ‘कड़ा निर्देश’ देने की जरूरत नहीं लगी थी, क्योंकि लेनिन से बदला लिया जा सकता है, पेरियार के लोग बदला लेने लगेंगे, तो सौदा महंगा हो जाएगा. यह घटिया राजनीति की घटिया चाल भर है. ऐसी ही कड़ी निंदा गौरक्षकों की हिंसा की भी की गई थी, दलितों पर हिंसा की भी की गई थी, मुसलमानों पर हमलों की भी की गई थी. यह वह बोली है जो दोनों तरफ दो तरह  से सुनाई देती है. इसलिए हिंसा भी जारी रहती है अौर ‘कड़ी निंदा’ भी. लेकिन हम क्या करें, शर्म से झुका हमारा माथा  ऐसे बयानों से उठता नहीं है. वह अाहत है अौर बार-बार पूछता है : काबे किस मुंह से जाअोगे गालिब / शर्म तुमको मगर नहीं अाती ! ( 09.03.2018)             

               

Tuesday 6 March 2018

ये जश्न, ये हंगामे !


              उत्तर-पूर्व में जैसे सारे रंग बदरंग हो गये हैं अौर केसरिया चमक उठा है ! सवाल यह नहीं है कि यह बड़ा चुनाव था या छोटा; सवाल यह है कि यह भारत के तीन राज्यों का चुनाव था अौर चुनाव ही हैं कि जिनके ईंधन से संसदीय लोकतंत्र की गाड़ी चलती है. भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता की अपनी गाड़ी में इन चुनावों के कारण पर्याप्त ईंधन भर लिया है. जिन्होंने इन चुनावों की अहमियत नहीं समझी उनकी टंकी खाली पड़ी है. 

  इस बारे में अभी कोई विवाद है ही नहीं कि इस वक्त भारतीय जनता पार्टी का मतलब ‘नशा’ है ! मुझे यह ‘नशा’ कहां से मिला ? प्रधानमंत्री के पसंददीदा खेल से मुझे यह ‘नशा’ मिला - नरेंद्र मोदी का ‘न’ अौर अमित शाह का ‘शा’ बराबर ‘नशा’ ! यह ‘नशा’ अाप निकाल दें तो फिलवक्त देश के 29 पूर्ण राज्यों में से 20 में सीधे या मिल कर तथा केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी शून्य हो जाएगी. इसलिए पार्टी इस ‘नशे’ को घूंट-घूंट कर नहीं, घटाघट पीये जा रही है. इस नशे को गाढ़ा करने वाला जो, जहां से, जिस तरह, जिस कीमत पर मिले वही सोना है.
 संसदीय लोकतंत्र का शुरू से ही यह चलन रहा है कि जो चुनाव जितवा सके वही सबसे बड़ा सर्वमान्य नेता ! नेहरू-खानदान शुरू से यही करता अाया अौर इसलिए सर्वमान्य बना रहा. उसका वह जादू जैसे-जैसे टूटा वैसे-वैसे इस खानदान का रुतबा कम होता गया. भारत की किसी भी राजनीतिक पार्टी में इस बराबरी का दूसरा कोई जवाहरलाल या खानदान पैदा नहीं हुअा. किसी ने कभी तो किसी ने कभी यह या वह चुनाव जीता या जिताया जरूर लेकिन वह जुगनू की चकमक से अधिक कुछ नहीं था. यह ’नशा’ भी 2014 से ही चढ़ा है, चढ़ता ही जा रहा है. दो-एक विक्षेप हुए भी हैं तो वह ‘हैंगअोवर’ मान लिया जा सकता है. इसमें भी कोई शक नहीं कि 2014 से अब तक हुए एक-एक चुनाव के पीछे ‘नशा’ ने जिस तरह ‘तन-मन-धन’ झोंक दिया है, उसका भी दूसरा कोई उदाहरण मिलना मुश्किल है. ‘सत्ता मिलना बहुत कठिन होता है, मिल गई सत्ता को टिकाये रखना उससे भी कठिन’ - ‘नशा’ इस उक्ति का मूर्त रूप है. अभी कुछ अौर राज्य हैं जो ‘नशा’ग्रस्त नहीं हैं. उन सबकी तरफ भी अपनी ही शैली में ‘नशा’ बढ़ता जा रहा है. चुनावतज्ञ जानते हैं अौर बताते हैं कि उन सबमें भी ‘नशा’ ऐसा ही चढ़ेगा. वे ठीक ही कहते होंगे शायद क्योंकि ‘नशा’ करने वाले अौर ‘नशा’ की संगत में रहने वाले ही सही जानते अौर कहते हैं. 

 लेकिन क्या देश भी नशा है ? क्या संसद का अौर राज्यों में सरकारो का बनना अौर चलना देश के बनने अौर चलने का पर्यायवाची है ? क्या चुनावी जीत-हार के ईंधन से ही देश चलता है ? अगर देश पार्टियों से अलग अौर कोई बड़ी इकाई नहीं है तो क्यों ऐसा है कि 70 सालों से पार्टियां जीतती अा रही हैं अौर देश हारता अा रहा है ? अौर हम ठंडे मन से सोचें तो पाएंगे कि इन 70 सालों में विचारधारा के मामले में खिंचड़ी सदृश्य कांग्रेस से ले कर वामपंथी, दक्षिणपंथी, जातिपंथी, क्षेत्रपंथी अादि तमाम दावेदारों को हमने केंद्र से ले कर राज्यों तक में अाजमाया है. सभी एक-से साबित हुए या एक-दूसरे से बुरे ! देश जिन तत्वों से बनता है अौर चलता है, उन तत्वों की कसौटी पर देखें तो हमारे  हाथ क्या लगता है ? 

 नगालैंड देश के सबसे विपन्न राज्यों में अाता है अौर वहां यह हाल रहा इस बार कि 196 उम्मीदवारों में से 114 करोड़पति थे. यह भी जान लें हम कि 196 उम्मीदवारों में केवल 5  महिलाएं थीं. वाम की पताका जहां दो दशकों से अधिक से लहराती अा रही थी उसके 297 उम्मीदवारों में से 35 करोड़पति थे. मेघालय का समाज मातृसत्ता वाला समाज है जहां शादी के बाद पति पत्नी के घर जाता है अौर बच्चे मां का उपनाम धारण करते हैं. घर की सबसे छोटी बेटी पैतृक संपत्ति की वारिस होती है. यह है मेघालय का समाज; अौर मेघालय की राजनीति ? उसने 372 उम्मीदवारों में से, जिनमें 152 करोड़पति थे, केवल 33 महिलाअों को टिकट दिया. यह हमारी नई राजनीतिक संस्कृति की घोषणा है. इसकी नींव वहां दिल्ली में हैं जहां बैठे सांसदों की अौसत संपत्ति 14 करोड़ रुपयों की बैठती है. 525 सांसदों में से 442 करोड़पति हैं जो 2014 में देश का सबसे मंहगा चुनाव-युद्ध जीत कर अाए हैं. अब ऐसी संसद अौर ऐसी विधानसभाएं  देश-समाज का विकास किस चश्मे से देखेंगी? कभी देश का सबसे दरिद्र अादमी हमारे लिए चुनौती हुअा करता था, क्योंकि गांधी ने उसे ही कसौटी बना दिया था; अाज वही जमीन पर हो कि जंगल में कि जल में कि हवा में, निरंतर हमारे निशाने पर है- चुनौती के रूप में नहीं, शिकार के रूप में !  

 अब विकास खोजे कहीं मिलता नहीं है याकि जो मिलता है उसे ही अाप विकास मान लें.  विकास के दानवाकार अांकड़े जरूर मिलते हैं. लेकिन हम जान गये हैं कि अांकड़ों का कोई सच नहीं होता. हर सत्ता के पास अांकड़ों के अपने कारखाने होते हैं जो मन मुताबिक, सुविधाजनक अांकड़ों का उत्पादन करते रहते हैं. जब लोक से मिलने वाली सत्ता सरकारों के लिए पर्याप्त नहीं पड़ती अौर वे कानून बना कर अपरिमित सत्ता व अधिकार अपने हाथ में करने लगती हैं, तब लोकतंत्र विफल होने लगता है. जब शिक्षा समाज का स्वाभाविक उपकरण न रह कर, शिक्षा के नाम पर खुलने वाली दूकानों में बंद हो जाती है अौर सरकारें उन दूकानों की पहरेदारी से अधिक कुछ करने लायक नहीं रह जाती हैं तब समाज नकली अौर अमानवीय होने लगता है. इसे अाप इस तरह समझें कि शिक्षा की बेहतरीन दूकानों की सजती जा रही है कतारों के बावजूद हमारा देश बेहिसाब भ्रष्ट अौर बेहद क्रूर होता जा रहा है! इस समाज में सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है जो सबसे अनैतिक रास्तों से सत्ता-संपत्ति हासिल करता है. अौर यह सिर्फ राजनीतिज्ञों पर लागू नहीं होती है, यह किसी माल्या या नीरव मोदी तक सीमित नहीं है बल्कि यह नशा हम सब पर हावी है क्योंकि हम सब इसी स्कूल की पैदावार हैं.

 बुरी शिक्षा बेरोजगारी का कारखाना होती है. हमारे यहां ऐसे कारखाने अनगिनत हैं. बेरोजगारी हमारे वर्तमान को विषाक्त करती है, हमारे भावी को निराशा, हतवीर्यता अौर अपराध की तरफ धकेलती है. इसलिए ही तो वह अभिशाप है. अाज पूरा देश इसकी गिरफ्त में है. गांव पामाल हो गये हैं. कुशिक्षा ने उसकी जड़ों में मट्ठा डाल दिया है, हमारे तथाकथित ‘मीडिया’ ने उसमें जहर घोल दिया है. वहां का सारा स्वरोजगार हमारी नीतियों ने चुन-चुन कर खत्म कर दिया है; अौर उनकी कब्र पर बने कस्बे-नगर-महानगर नये ‘स्लम’ बन गये हैं जिनमें गुंडों की टोलियों का राज व वेश्याअों का व्यापार भर बच गया है. यहां अब कोई राज या कानून नहीं चलता है, इनके साथ तालमेल बिठा कर सब अपना धंधा चला रहे हैं. 

कोई भी समाज अपनी एकता व समरसता की ताकत से बहुतेरी मुश्किलों का सामना कर लेता है. जब उसी एकता व समरसता को अाप निशाना बनाते हैं तो समाज दम तोड़ने लगता है. यही रणनीति हमें गुलाम बनाने व गुलामी को मजबूत करने में काम अाई थी, वही रणनीति अाज दूसरी तरह से वही काम कर रही है. न सपने बचे हैं, न प्रतिबद्धता अौर न बुनियादी ईमानदारी ! बच गये हैं चुनाव जिनके अांकड़ों से सब खेल रहे हैं जबकि देश दम तोड़ रहा है. ( 5.03.2018)