Tuesday 28 November 2017

184 किसान संगठन अौर एक किसान



राजधानी दिल्ली के संसद मार्ग पर अाज किसानों की जो रैली दिन भर जमी रही अौर लगातार अपनी बात कहती रही, वह इस अर्थ में नई थी कि उसमें 184 किसानों संगठनों ने शिरकत की थी. यह नया था कि जैसी टूट राजनीति के मंच पर है, वैसी ही टूट किसानों के मंच पर भी है. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हमारे सारे जन अांदोलन अापस में भी अौर एक-दूसरे के साथ भी इस कदर टूटे हुए हैं कि न अावाज एक हो पाती है, न निशाना ! टूट की यह त्रासदी  उन सबको भीतर-भीतर एक किए देती है जिनसे लड़ने का खम भरते हैं ये अांदोलन ! 

देश में अाज किसान दुखी है क्योंकि हर तरह से, हर तरफ से उसे दुखी करने की कोशिशें जारी हैं. हर किसी के पास किसानों के नाम पर बहाने के लिए एकड़ों अांसू हैं, पर कोई अपनी अांखों का कोर भी भिंगोना नहीं चाहता है. ऐसी त्रासदी के बीच असंगठित किसानों का एकजुट होना अौर राजधानी पहुंच कर दस्तक देना अाशा जगाए या न जगाए, ध्यान तो खींचता ही है. यह देखना भी हैरान कर रहा था कि रैली में चल-चल कर संसद मार्ग पर पहुंची महिलाअों की संख्या खासी थी अौर वे वहां किसान महिलाअों के रूप में अाई थीं. हम, जो किसानों का स्वतंत्र अस्तित्व कबूल करने को भी बमुश्किल तैयार होते हैं, महिला किसानों का यह स्वरूप, उनकी वैसी दृढ़ता, उनकी साहस भरी जागरूकता से हैरान-से थे. 

हमारे देश में महिलाअों व बच्चों को कोई असली नहीं मानता है. वे या तो छाया होती हैं या छलावा; असली नहीं होतीं ! बच्चे प्यारे होते हैं लेकिन उनका अस्तित्व नहीं होता ! लेकिन यहां मौजूद किसान महिलाएं ऐसी नहीं थीँ. वे थीं - अपनी वेदना अौर दर्द अौर दमन सबको संभालती, पीती हुई अपनी बातें कहे जा रही थीं. किसान महिलाअों की संसद वहीं संसद मार्ग पर बैठी थी अौर उस संसद की अध्यक्ष मेधा पाटकर बार-बार भर अाता अपना गला अौर बार-बार उमड़ अाती अपनी अांखें बचाती-छुपाती हमें अहसास कराना चाह रही थीं कि ये बहनें नहीं हैं, किसान महिलाएं हैं जो लड़ाई की सिपाही हैं. किसान मुक्ति संसद का यह स्वरूप अाकर्षक था लेकिन कहीं पीछे से नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत या नीतीश कुमार के संघ व शराब मुक्त भारत की पैरोडी भी याद अा रही थी. ऐसा इसलिए नहीं था कि किसानों के दर्द के बारे में याकि उनकी ईमानदारी के बारे में कहीं कोई शंका है लेकिन ऐसे अायोजन जो कहते कम हैं, सुनाते बहुत अधिक हैं, शंकित करते हैं.  

हमारा राजनीतिक प्रशिक्षण इस तरह हुअा है कि हम किसान को भी एक वर्ग मान कर, उसे उसके लाभ के सवाल पर संगठित कर लड़ाई में उतारना चाहते हैं. किसानों को लुभाने-भरमाने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने कहा कि वह स्वामीनाथन अायोग की सिफारिशों को लागू करेगी अौर फसल की लागत की दोगुनी कीमत देगी. यह सीधा सौदा था जिसकी व्यवहारिकता या शक्यता पर किसी ने विचार नहीं किया अौर भारतीय जनता पार्टी की झोली वोटों से भर गई. तब भी ये ही नेता थे अौर ये ही किसान संगठन थे. भारतीय जनता पार्टी ने अपनी जीत पक्की कर ली, सरकार बना ली अौर फिर यह सच्चाई बयान कर दी कि उसने चुनाव के वक्त जो कुछ कहा वह सब जुमलेबाजी थी अौर जुमलेबाजी व जुमलेबाजों का कोई धर्म या ईमान नहीं होता है. वह तब भी सच्चे थे, अाज भी सच्चे हैं. भारतीय जनता पार्टी से पिटने के बाद किसान नेताअों ने उन जुमलों को ही नारा बना लिया अौर कर्जमाफी, स्वामीनाथन् अायोग की सिफारिशें तथा लाभकारी मूल्य की मांग खड़ी कर किसानों को अपने झंडे के नीचे जमा करने लगे. एक तरह की राजनीतिक होड़ शुरू हुई जिसमें किसान कम, किसान नेता ज्यादा हावी हो गए. किसान नेता पार्टियों में टूटे हैं, वे वोटों का सौदा करते हैं, वे भी खुले या पोशीदा तौर पर नाम व नामा की होड़ में लगे हैं. राजस्थान के कोटा की एक सभा में पूछा एक किसान ने कि भाईजी, किस किसान की बात अाप करते हो ? किसान है कहां यहां ?  यहां मैं हूं जो भारतीय जनता पार्टी का किसान हूं; अाप कांग्रेस के किसान हैं अौर वह बहुजन समाज पार्टी का किसान है ! किसान कहीं हो याकि अाप खोज लो तो बात अागे चले ! वह किसान कहां है ? क्या इन १८४ संगठनों में है याकि इनके बाहर जो रह गये हैं उनमें है ? 

बात यह है कि अाज देश को अौर इसके लोकतंत्र को किसान अांदोलन की जरूरत नहीं है. उसे जरूरत है एक सर्वस्पर्शी जनांदोलन की जिसका नेतृत्व किसान करे. मैं क्यों कहता हूं कि किसान करे ? इसलिए कि लड़ाई क्या है अौर किसके बीच है ? यह लड़ाई सभ्यताअों के बीच है जिसे वर्गों या पेशों में इस कदर उलझा दिया गया है कि हम असली लड़ाई अौर असली सिपाही की पहचान भूल गए हैं. अगर लड़ाई अपने लिए सुविधा या अधिकार का एक छोटा टुकड़ा मांग लेने या छीन लेने की है तो यह वर्गीय लड़ाई या पेशों की लड़ाई ठीक ही है. तब किसान भी इतना ही मांगेंगे कि उन्हें कर्जों से माफी मिल जाए अौर लागत कीमत मिल जाए; बैंक या हवाई सेवाअों के अधिकारी भी अपना वेतन बढ़वाने की मांग ले कर हड़ताल पर उतरेंगे अौर अालू-प्याज के अाढ़ती कीमतों के छप्पर फाड़ कर निकल जाने का अौचित्य बता देंगे अौर फिर कीमत दो-एक रुपये उतर अाने को हम भी बड़ी राहत मान कर कबूल कर लेंगे. सांसद अौर विधायक अौर देश की सबसे ऊंची कुर्सियों पर बैठे नौकरशाह सभी अपना-अपना वेतन बढ़ाते रहेंगे अौर हमें सबको स्वीकार कर चलना होगा. सारे राजनीतिक दलों की योजना में ऐसा देश सबसे मुफीद बैठता है, क्योंकि बिल्लियों की ऐसी ही लड़ाई में तो फैसले का तराजू बंदरों के हाथ में होता है अौर वे अपनी सुविधा देख कर उसे कभी इधर तो कभी उधर झुकाते रहते हैं. 

यह लड़ाई खेतिहर सभ्यता अौर अौद्योगिक सभ्यता के बीच है. हमारा देश खेतिहर सभ्यता का देश है. इसका अौद्योगिक विकास भी खेतिहर सभ्यता को केंद्र में रख कर ही किया जाता सकता है. खेतिहर सभ्यता मतलब मात्र किसान नहीं, पूरा खेतिहर समाज ! वे सारे लोग, वे सारी प्रणालियां, वे सारे पशु-पक्षी जो खेती से जुड़े हैं इस लड़ाई के केंद्र में है. परिवर्तन का यह अांदोलन खेतिहर परिवार के नेतृत्व चलेगा तभी परिणामकारी होगा. तब यह लड़ाई कर्जमाफी की नहीं होगी बल्कि खेती-किसानी कर्ज के बिना कैसे हो, इसकी खोज की होगी अौर ऐसी व्यवस्था बनाने की होगी कि जिसमें किसान को भाव मांगने की जरूरत नहीं होगी बल्कि उसे उसके जीवनयापन की सारी सुविधा अौर सारे अवसर समाज द्वारा सुनिश्चित होंगे. खेती-किसानी वह पेशा या नौकरी नहीं है कि जो हर साल हड़ताल करे अौर इस या उस पार्टी का दामन थामे ताकि उसे सुविधा का एक टुकड़ा मिले कि उसकी उपयोगिता का अाकलन करने के लिए अायोग बैठे अौर पे कमीशन की तरह किसान कमीशन भी बनाया जाए. यह हमारे अस्तित्व का अाधार है. हम अपनी तमाम भौतिक सुविधाअों के बावजूद खेती पर निर्भर रहते हैं. इसलिए ऐसा समाज बने कि जो खेती-किसानी को केंद्र में रखता हो अौर ऐसी खेती-किसानी हो जो संपूर्ण समाज को पालने-पोसने का कर्तव्य निभाती हो. किसान न तो ऐसी भूमिका ले पा रहे हैं, न ऐसी भूमिका के लिए उन्हें तैयार किया जा रहा है. इसलिए सारे किसान अांदोलन एक सीमित दायरे में अपने लाभ-हानि की बात करते हैं अौर मजदूर यूनियनों का चरित्र अोढ़ लेते हैं. व्यवस्था इन्हें उसी तरह लील जाती है अौर लील जाएगी जिस तरह उसने सारा मजदूर अांदोलन लील लिया है. 

किसान अपनी जमीन से उखड़ा हुअा अौर अौद्योगिक इकाइयों की छाया में जीने वाला मजदूर नहीं है जैसाकि व्यवस्था उसे बनाना चाहती है. वह अपनी जमीन से जुड़ा अौर जमीन से जीवन रचने वाला स्थायी समाज है. वही खेतिहर सभ्यता का अाधार है. हम राजा को याचक बनाने की गलती कर रहे हैं जो विफल भी होगी अौर सत्वहीन भी बनाएगी. ( 20.11.2017)  

अापने ठीक कहा है उप-राष्ट्रपतिजी !


अभी जब कोई कुछ कह नहीं रहा बल्कि सभी चिल्ला रहे हैं हमारे उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कुछ कहा है ! उन्होंने जो कहा है, उसमें खास कुछ नहीं है लेकिन जैसे माहौल में जिस तरह उन्होंने यह  बात कही है उससे वह बात बहुत खास ही नहीं बन गई है वरन बहुत जरूरी भी बन गई है.

किसी फिल्म या किसी रचना या किसी वक्तव्य को ले कर यदि देश में ऐसी अफरा-तफरी मच जाए कि देश मछलीबाजार बन जाए अौर व्यवस्था बनाने की जिनकी जिम्मेवारी हो वे व्यवस्था का माखौल उड़ाने में लग जाएं तो मानना चाहिए कि देश गंभीर रूप से बीमार है. मतलब देश को गहन इलाज की तत्काल जरूरत है. जब अादमी कैंसर से पीड़ित हो तब डॉक्टर यह नहीं देखता है कि उसकी सूरत कैसी है कि वह कितनी सीढ़ियां तेजी से चढ़ लेता है कि वह कितनी दंडबैठकी लगाता है कि वह कितना खाता है. डॉक्टर जानता है कि मामला वहां है जहां कहते हैं कि बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी ! इसलिए वह दूसरा कुछ भी न देखते-सोचते, इलाज में जुट जाता है. ऐसा ही देश व समाज के साथ भी होता है. अाप दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थ-व्यवस्था हैं कि अाप अपने पड़ोसियों पर भारी पड़ते हैं कि दुनिया सारी अापकी ही सुनती है जैसी बातें भूल कर इस बीमार देश-समाज के इलाज की बात सोचें हम, उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा है. एक साहित्यिक मेले में बोलते हुए उन्होंने कहा कि यदि देश के लोग एक-दूसरे को हिंसक धमकियां दे रहे हों, शारीरिक क्षति पहुंचाने की चुनौती उछाल कर करोड़ों रुपये इनाम देने की बात कह रहे हों तो किसी लोकतंत्रिक देश में यह स्वीकार्य नहीं हो सकता है. अापको दूसरे से शिकायत हो सकती है, अाप किसी से असहमत हो सकते हैं तो अापको जिम्मेदार अधिकारी के पास जा कर अपनी शिकायत या असहमति दर्ज करानी चाहिए अौर समुचित काररवाई का इंतजार करना चाहिए. लेकिन अाप शारीरिक दंड देने या हिंसक धमकियां उछालने की बात नहीं कर सकते हैं. 

उप-राष्ट्रपति जिस मामले का सीधा संदर्भ ले रहे थे वह फिल्म ‘पद्मावती’ से जुड़ा है. इतिहास में रानी पद्मावती भले दो पंक्तियों से ज्यादा की जगह न घेरती हों लेकिन इतिहास के पन्नों से निकल कर अाज के वर्तमान में उन्होंने कोई डेढ़ अरब के इस देश को हतप्रभ कर रखा है. इतिहास कहानी भी है, सच्चाई भी; इतिहास रास्ता भी है अौर रास्ते का पत्थर भी; वह अांख भी है अौर अंधता भी; वह कान भी है अौर वज्र बहरापन भी ! मतलब इतिहास तो अपनी जगह है अौर रहेगा भी, देखना तो यही है कि अाप उससे बरतते कैसे हैं ! अाप उसे विकृत कर सकते हैं, तोड़-मरोड़ सकते हैं अौर उसका बेजा इस्तेमाल भी कर सकते हैं लेकिन अाप उसे बदल नहीं सकते अौर न उसे रास्ते से हटा सकते हैं. वह मील का पत्थर भी है अौर अापके साथ निरंतर सफर पर भी है. इसलिए अाज का हिंदुस्तान देख कर मुझे अंदाजा होता है कि इतिहास के अंधों का देश कैसा होता होगा !  

इतिहास बताता है कि 1303 ई. में दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316)  ने लंबी लड़ाई अौर नाकाबंदी के बाद चित्तौड़गढ़ को जीता था. इस घटना के 237 साल बाद, 1540  ई. में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी में ‘पद्मावत’ लिखा जो चित्तौड़ फतह की पूरी कहानी का काव्यांतर है. उसी कहानी से रानी पद्मावती का जन्म होता है अौर इतिहास कहानी का रूप लेता है. फिर इसी को अाधार बना कर दूसरों ने भी पद्मिनी या पद्मावती पर कुछ-कुछ लिखा है अौर हम देखते हैं कि हर की पद्मिनी भिन्न-भिन्न है. अगर कोई एक बात समान है इन सबमें तो वह यह कि पद्मिनी बेहद खूबसूरत है. उसकी यही खूबसूरती किंवदंती बन कर सैकड़ों साल का सफर तै करती रही है अौर अाज भी करती है अौर संजयलीला भंसाली जैसे लोग अपनी कल्पना का घोड़ा दौड़ाते हैं. 

एक कथा ऐसी भी है कि मेवाड़ के राजा ने जिस एक व्यक्ति को किसी अपराध में राज से निकाल दिया था उसी ने खिलजी के दरबारियों में अपनी जगह बनाई अौर बदला निकालने के लिए उसने ही खिलजी के कानों में पद्मिनी के सौंदर्य की कथा ऐसी भरी कि खिलजी उसे देखने अौर पाने को बेचैन हो उठा. उसने धोखे से चित्तौगढ़ के राजा रतन सिंह को बंदी बना लिया अौर फिर उनकी जान का सौदा पद्मिनी से किया. राजपूती अान-बान-शान खौल उठा अौर राजपूतों ने अपने राजा को छुड़ाने की लड़ाई उनके किले में घुस कर छेड़ दी. खिलजी की फौज बहुत सधी अौर युद्धकुशल थी. राजपूतों को जान-माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा अौर अंतत: पराजय भी कबूल करनी पड़े. विजयी खिलजी जब किले में दाखिल हुअा तो उसने पाया कि रानी पद्मावती ने दूसरी महिलाअों के साथ जौहर कर लिया था. कथा यहीं पूरी हो जाती है. 

इतिहास में अाप खोजेंगे तो महारानी पद्मिनी का कोई ठोस जिक्र नहीं मिलता है. मतलब यह कहना इतिहाससंगत होगा कि पद्मिनी इतिहास नहीं, इतिहास की कहानी है. फिल्मी पर्दे पर पद्मिनी की कहानी को पकड़ने की कोशिश पहले भी कई बार हुई है जिसमें ‘चित्तौड़ की रानी’ नाम की तमिल फिल्म खूब पसंद की गई थी जिसमें वैजयंतीमाला पद्मिनी बनी थीं. श्याम बेनेगल ने जब अपना अपूर्व टीवी धारावाहिक ‘भारत : एक खोज’ बनाया तो उसका पूरा एक एपिसोड खिलजी-चित्तौड़ युद्द पर था जिसमें पद्मिनी का प्रसंग भी अाता है. हाल के वर्षों में पद्मिनी पर एक पूरा टीवी धारावाहिक भी बना है. मतलब यह कि पद्मिनी को लेकर इतिहास जितना ही चुप है, कलाकार-फिल्मकार उतने ही मुखर रहे हैं. हर फिल्मकार ने अपनी तरह की पद्मिनी बनाई है लेकिन सभी ने उसके सौंदर्य अौर उसकी नृत्य-प्रवीणता को केंद्र में रखा ही है. 
  
संजयलीला भंसाली न तो इतिहासकार हैं अौर न उनकी फिल्मों का कोई एेतिहासक संदर्भ है. वे हमारे वक्त के, सेल्यूलाइड के सिद्ध किस्सागो हैं. वे कभी इतिहास के पन्ने पलटते भी हैं तो सिर्फ इस खोज में कि कहां, क्या ऐसी कथा छुपी-दबी है कि जो बड़े पर्दे पर पंख फैला सकती है. वे बड़े दिल से कैमरे से कथा रचते हैं अौर पूरी तन्मयता के साथ उसे पर्दे पर उतारते हैं. वे कुछ कहने वाले फिल्मकार नहीं हैं कि अापको उनकी फिल्म का जवाब देना पड़े. उनकी फिल्म ‘रामलीला’ को ले कर शोर मचाने वालों ने यह समझा या नहीं पता नहीं लेकिन हमें समझना ही चाहिए कि ‘रामलीला’ का शोर उन्होंने इतना भर कर के शांत कर दिया कि नाम बदल दिया - गोलियों की रासलीला - राम  लीला ! न कहानी बदली, न कोई दृश्य काटा, बस नाम को थोड़ा बदल दिया. फिल्म बहुत अच्छी बनी थी, खूब कमाई की उसने ! ऐसा ही उन्होंने ‘बाजीराव मस्तानी’ के साथ भी किया अौर एक अच्छी फिल्म देखने का संतोष हमें मिला. एतराज उठाने वाले उनकी ‘देवदास’ पर भी एतराज उठाते रहे लेकिन शरत बाबू की कथा से अौर पहले से इसी कृति पर बनी फिल्मों से अलग ले जाकर उन्होंने अपनी ‘देवदास’ रची अौर अपनी तरह से सफल भी हुए. संजयलीला भंसाली बोलते कम हैं; जो कुछ भी बोलते हैं अपनी फिल्मों से ही बोलते हैं.  

लेकिन अब सभी बोल रहे हैं - वे सब जिन्होंने इतिहास नहीं पढ़ा है, जिन्होंने फिल्म नहीं देखी है. वे बोल रहे हैं इतना ही नहीं है, वे दूसरे किसी को बोलने देना नहीं चाहते हैं. वे किसी का सर,किसी की नाक, किसी का जौहर करने को दूसरों को ललकार रहे हैं. कायर इतने हैं ये सभी कि जातीय गौरव का यह काम खुद करने को अागे नहीं अा रहे, किराये पर यह काम करवाना चाहते हैं. उप-राष्ट्रपति ने इन्हीं लोगों को सावधान किया है कि लोकतंत्र में इसकी इजाजत नहीं है. लेकिन उप-राष्ट्रपति जो नहीं कह सके वह भी इसी के साथ कहने जैसी बात है कि हिंसा को उकसाने अौर उन्माद खड़ा करने की ऐसी कोशिेश यदि लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं है तो वैसी सरकारें कैसे स्वीकार्य हो सकती हैं जो इनकी पीठ थपथपा रही हैं ? सही-गलत फिल्मों का निर्धारण करने के लिए सेंसर बोर्ड नाम की एक संस्था बनी हुई है जिसकी अनुमति के बिना कोई भी फिल्म दर्शकों तक पहुंच नहीं सकती है. उसने अब तक ‘पद्मावती’ को प्रदर्शन की स्वीकृति नहीं दी है. उसकी स्वीकृति हो तब भी जिन्हें एतराज होगा वे अदालत जा सकते हैं. 

‘पद्मावती’ यदि इतिहास नहीं है तो उसकी परिकल्पना में इतिहास से छेड़छाड़ जैसी बात ही बेबुनियाद है. दूसरी बात रह जाती है जनमानस में बैठी छवि की, तो उसकी फिक्र भी की जानी चाहिए. लेकिन संजयलीला ने ऐसा कोई काम किया है कि नहीं, यह भी तो फिल्म देख कर ही तै होगा न !  फिर जिन मुख्यमंत्रियों ने बिना किसी अाधार के फिल्म का प्रदर्शन अपने राज्य में न होने देने की घोषणा की है, उनका क्या ? क्या हर राज्य का मुख्यमंत्री अब अपने राज्य का सेंसर बोर्ड अधिकारी भी बन गया है ? क्या ये सब अब मुख्यमंत्री नहीं, रियासतों के महाराजा बन गए हैं जो अपने फरमान अलग जारी करेंगे ? क्या लोकतंत्र में यह स्वीकार्य है ? संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. अगर भीड़ उसका हनन करती है तो उप-राष्ट्रपति उसे खारिज करते हैं. अगर सरकारें करती हैं तो क्या उसका निषेध नहीं करना चाहिए तथा इस असंवैधानिक कृत्य के लिए इन सबको बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए ? 

सारा देश भीड़ में बदल दिया जाए अौर फिर चतुर व अवांछित लोग अपनी दूकानें खोल लें, यह लोकतांत्रिक राजनीति का दर्शन नहीं है. संजयलीला भंसाली की ‘पद्मावती’ ने एक जौहर सजा दिया है जिसमें सरकारी व भीड़वादी सारे अलोकतांत्रिक रवैयों अौर मिजाजों का दहन कर देना चाहिए. उप-राष्ट्रपति की चेतावनी तभी सार्थक होगी. ( 28.11.2017)