Saturday 19 February 2022

लता मंगेशकर - भारत की आत्मा की आवाज

    नये साल ने आने की बड़ी कीमत ली है - लता मंगेशकर को ही मांग लिया है. हम खाली भी हो गए हैंहतप्रभ भी और किसी हद तक अवाक भी ! वे 92 साल की थीं और पिछले कुछ वर्षों से नहीं-सी थीं. 

   वे थीं क्या फिल्मों की पार्श्वगायिका ! फिर इतना शोक क्यों है कि कोई भी सहज नहीं रह  पा रहा है इतना शोर क्यों हइतना गहन क्या घटा है कि हम भी और पाकिस्तान भीऔर बांग्लादेश भीऔर जहां-जहां कानसेन हैं वहां-वहां अफसोस का सन्नाटा पसरा है ?  यह रहस्य कभी सुलझेगा नहींक्योंकि कला ऐसे ही सार्वजनिक रहस्य का नाम है. न पिकासो केगुएर्निका का रहस्य हम सुलझा सकेंगेन विंसी की मोनालीसा कान नंदलाल बोस के गांधी कान लता मंगेशकर का.  

   लता के बारे में हम जो कुछ भी कह-लिख रहे हैंवह पर्याप्त नहीं हो रहा है. लगता है कि कुछ ऐसा था जो हम कह-लिख-समझ कर भी न लिख पा रहे हैंन कह पा रहे हैं और न समझ पारहे हैं. दिनकर’ ने गांधी पर लिखी अपनी कविता में लिखा है : कितना कुछ कहूं/ मगर कहने को शेष बहुत रह जाता है. ऐसा ही आज लता के लिए भी सच में महसूस हो रहा है. 

   13 साल की उम्र से जिस लड़की ने हमारे मन को छूना शुरू किया थाउसने कब हमारा मन गढ़ना शुरू कर दियापता ही नहीं चला. सितार के हर तार को झंकृत करने से रविशंकर जैसीलहर पैदा करते थे लताजी ने वैसे ही हमारे मन-प्राणों के हर तार को झंकृत कर हमें संपूर्ण किया. हमारे राग-विरागहर्ष-शोकचंचलता-गांभीर्यभक्ति-समर्पणईर्ष्या-द्वेष सबको आवाज सेजैसा आकार दिया उन्होंने वैसा कोई दूसरा नहीं कर सका. इसमें जादू उनकी गायकी भर का नहीं था बल्कि उस पूरे वक्त का भी था जहां से उनके बनने का भी और आजाद भारत को बनाने कासफर भी शुरू हुआ था. वे स्वतंत्र देश की पहली स्वतंत्र आवाज थीं. 

   हमने जैसी रक्तरंजित आजादी पाईवह तो अकल्पनीय थी. हमें खून में लिथड़ाटूटा हुआ देश मिला. देश मिला लेकिन गांधी नहीं मिले. देश मिला लेकिन सहगलनूरजहां जैसे कितनों कासाथ छूटा. आसमान से जैसे धरती पर गिरे हमकि आसमान ही धरती पर गिरा ! बिखर जानेघुटनों के बल बैठ जाने का खतरा सामने था. लेकिन जवाहरलाल ने अपने राजनीतिक साथियोंकोदेश की हर प्रतिभा को समेट करउस तमाम तिमिर को काटते हुए भारत को गढ़ने की जो उमंग जगाईभारतीय मन को झकझोर कर नया बनाने की जैसी हवा बहाईआज उसको आंकनाहमारे लिए कठिन हैक्योंकि इतिहास हम पढ़ तो सकते हैंउसमें लौट नहीं सकते. वास्तविकता की कठोर जमीन पर पांव धर कर आसमान को छूने व उसे भारत की धरती पर उतारने का वह दौरथा और तभी लता ने अपनी आवाज खोली थी. कला स्वतंत्र तो होती है लेकिन देश-काल की गूंज उसे भी गढ़ती व संवारती है. इसलिए तो कहते हैं कि कला की अपनी आंख भी होती हैकान भी और हृदय भी. लता की आवाज ने इन तीनों को एक कर दिया.  

   वह खास तौर पर हिंदी फिल्मों की दुनिया का स्वर्णकाल था- 1940-60. यह आजाद भारत का भी स्वर्णकाल था. धर्म-जाति-प्रांत-भाषा जैसी सारी दीवारों को गिराता हुआ यह भारतसर उठा रहा था. जैसे प्रतिभा के सागर में सारी हस्तियां खुद को उड़ेल रही थीं. देश बन रहा था. वह दिलीप-राज-देव-मीना कुमारी-नर्गिस-मधुबाला-नूतन-वहीदा का काल थावह लता-रफी-मुकेश-तलत-मन्नाडे-हेमंत कुमार से चलता हुआ किशोर कुमार का काल थावह प्रदीप-साहिर-शैलेंद्र-शकील-कैफी का काल थावह नौशाद-सचिनदेव बर्मन-मदन मोहन-शंकर-जयकिशन-रवि-खैय्याम का काल थावह विमल राय-महबूब-के.आसिफ-राज कपूर का काल था. सभी आजाद देश में अपना आजाद मुकाम खोज रहे थे. इसलिए सब अपना सर्वोत्तम ले कर आ रहे थे. लता का जाना सर्वोत्तम की उस दीवानगी का जाना हैउसकी स्मृति का पुंछ जाना है.  

   साहिर की कलम से निकले फिल्मी मुहावरों से अनजान गीत की धुन बनानाउसे किसी दिलीप या मीना कुमारी के लिए गाना जितनी बड़ी चुनौती थीउतनी ही बड़ी चुनौती थी किसीनर्गिस या नूतन के लिए लता की आवाज को साकार करना. सभी जानते थे कि कहीं कम पड़े तो फजीहत होगी. लता की खास ताकत थी शास्त्रीय गायनजिसकी जमीन मराठी कला-संसार कीमशहूर हस्ती उनके संगीतकार पिता दीनानाथ मंगेशकर ने ही तैयार कर दी थी भले वह तैयारी कभी पूर्णता तक नहीं पहुंच सकी. 13 साल की लड़की जब परिवार के लिए रोटी जुटाने उतरी तो वहसाधना अधूरी ही रह गई जैसे शताब्दियों पुरानी गुलामी की मानसिकता से छूटने की कोशिश करता हुआ नवजात देश भी अधूरा ही छूटता गया. लेकिन लता ने जो पूंजी थी उनके पासउसे इतनामांजा कि वह अपनी जगह पर सौ टंच सोना बन गया. मैंने अमीर खान साहब के गायन मेंउनके करीब बैठी लता को देखा है जो जैसे सब कुछ घोल कर पी रही हों. मैंने देखा है उनकी हथेली कोअपनी आंखों से लगा कर लंबे समय तक सांस भरती लता को. यह वह खाद-पानी था जिससे लता ने खुद को सींचा था. इस कदर सींचा था कि बड़े गुलाम अली खान साहब ने नेह बरसातेहुए कहा था : “ जबसे इन लड़की का यमन कान में पड़ा हैमैं अपना वाला यमन भूल गया हूं !… कमबख्त कभी बेसुरी ही नहीं होती !!”  फिल्मी बाजार में ऐसी साधना कम ही की जाती है.

   एकाग्रतापवित्रतामाधुर्य और सादगी के मेल से लता की वह हस्ती बनी थी जो कुछ भी नकली या घटिया नहीं गाती थी. इसलिए संगीतकार हों कि अभिनेत्रियां सब दांत भींच कर लताके साथ काम करते थे. उस आवाज व उसकी नजाकत से बराबरी करने की चुनौती आसान नहीं होती थी. और इन तीनों के मेल से छन कर जो हमारे पास पहुंचता था वह कभी अल्ला तेरोनामईश्वर तेरो नाम बन जाता थाकभी दिल हूम हूम करेघबराएकभी फैली हुई हैं सपनों की बाहेंकभी प्यार किया तो डरना क्याकभी आज फिर जीने की तमन्ना है बन जाता था. यह गानोंकी चुनी हुई सूची नहीं है क्योंकि वैसी कोशिश का अर्थ नहीं है. मानव-मन की कोई भी भावनाउमंगविकलता और वेदना व आकांक्षा ऐसी नहीं है जिसे लता ने साकार न किया हो. आपअपने भीतर उन सबकी गूंज सुनेंगे जब लता को सुनेंगे. बलिदान की उन्मत्तता नहीं पवित्रतापछतावा नहीं विकलताऔर राष्ट्रभक्ति का उन्माद नहीं निखालिस राष्ट्रीयता का जैसा गान प्रदीपजीने ऐ मेरे वतन के लोगो में लिखालता ने उसे आंसुओं का हार पहना कर हमारे सामने धर दिया. वह पराजय का शोक नहींसंकल्प व एकता का गान बन गया. लता की गायकी का यहजादू उनके उन गीतों से भी छलकता है जो फिल्मों से बाहर के हैं. 18 भाषाओं में गाए हजारों गानों का उनका संसार हमें वैसे ही तप्रोत करता जाता है जैसे घनघोर बारिश में आप खुद जाकर आसमान के नीचे खड़े हो जाएं. 

   वे नहीं हैंऔर जैसा मैंने शुरू में लिखावे काफी वर्षों से नहीं थीं. लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि वे नहीं थींकभी ऐसा नहीं होगा कि वे नहीं होंगी ! वे भारत की आत्मा की आवाजथीं. भारत कभी गूंगा या बहरा नहीं होगा. ( 10.02.2022) 

 

दिया जलाओ !

   1943 का साल था और कुंदनलाल सहगल ने अपनी फिल्म तानसेन’ में अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगा कर गाया था : दिया जलाओ… जगमग जगमग दिया जलाओ ! अंधकार को तोलती और प्रकाश का आह्वान करती ऐसी हूकऐसी वेदना और ऐसी ललकार थी उनकी आवाज में कि हम विवश हो जाते थे कि मन के किसी कोने मेंकहीं तो कोई दीप जले !! कला यही करती है. लेकिन राजनीति इसका उल्टा करती है.  नया साल आया नहीं कि राजनीति ने जलता दिया बुझा दिया. 

   अमर जवान ज्योति पिछले 70 से अधिक सालों तक उस इंडिया गेट पर जलती रही थी जिसे अब सेंट्रल विस्टा जैसा बेढब नाम दे कर धूलधुआं और धंधे की गर्द में इस तरह ढक दिया गया है कि देश की राजधानी की उस पहचान का दम ही टूट गया है. वह पूरा परिसर आज शोक व सन्नाटे में डूबा है. कोई नई रचना पुराने इतिहास को इस तरह नेस्तनाबूद कर सकती हैइसकी कल्पना भी इस हादसे से पहले करना मुमकिन नहीं था. लेकिन उनके लिए यह मुमकिन है जो देश के इतिहास से नहींअपने इतिहास से निस्बत रखते हैं. 

   जो अमर जवान ज्योति रातोरात बुझा दी गईवह तैयार भी रातोरात ही हुई थी- 1971 में भारत-पाक युद्ध की जीत के बाद ! लेकिन इसका इतिहास इससे भी पहले की कहानी बताता है. अंग्रेजों ने अपने सबसे बड़े व कमाऊ उपनिवेश की अपनी राजधानी को सत्ता व संपत्ति का भव्यतम प्रतीक बना कर खड़ा करने की सोची तो वास्तुकार एडविन लुटियंस को अपनी भव्यतम उड़ान को साकार करने का मौका मिला. उसने वह सब बनाया जो वह बनाना चाहता था. औपनिवेशिक शोषण में धन की कमी तो थी नहीं. हमारी सरकारी दिल्ली आज भी उनके स्थापत्य कला के तले दबी हुई है. 1914 से चलकर पहला विश्वयुद्ध 1919 में समाप्त हुआ तो अंग्रेज हुकूमत को अहसास हुआ कि साम्राज्य की नींव मजबूत रखने के लिए यह जरूरी है कि प्रजा यह देखे कि साहब बहादुर उसका कितना ख्याल रखते हैं. इस तरह महायुद्ध में मारे गए देशी फौजियों का एक युद्ध स्मारक बनाने का ख्याल आया और लुटियंस साहब ने1919 से शुरू कर 1931 में वह स्मारक तैयार किया जिसे हम इंडिया गेट कहते हैं- एक ऐसा गेट कि जिसकी एक तरफ खड़े हो कर आप अपने सामने अंग्रेजी हुकूमत का दंभ-दर्प और वैभव एक साथ देख सकते हैं. गुलामों को यह याद दिलाना कि गुलामी भी कितनी भव्य व सुनहरी हो सकती हैइसका मकसद था. 

   यह इतिहास इंडिया गेट पर ठहरापथराया ही रहता लेकिन इंदिरा गांधी ने 1973 में बड़ी खूबसूरती व तत्परता से इसे मिटा दिया और स्वतंत्र भारत के इतिहास में समाहित कर लिया. इंडिया गेट अमर जवान ज्योति में बदल गया. यह जिस तरह बना व खिला उसमें यह युद्ध स्मारक नहींबलिदान स्मारक बन गया. अंग्रेजों ने इसकी ऊपरी दीवार पर महायुद्ध में मारे गए कोई 3 हजार भारतीय फौजियों के नाम खुदवाए थे जो बताते हैं कि धर्म-जाति-भाषा-का भेद किए बिना सबने बलिदान दिया था. अमर जवान ज्योति ने इसे भूत-वर्तमान व भविष्य तीनों को जोड़ दिया. कल्पना यह रही कि पहले के भी और भविष्य के भी युद्धों में बलिदान होने वालों का यह प्रतीक स्मारक होगा जिसकी ज्योति सदा जलती रहेगी. वहां का पूरा वातावरण युद्धोन्माद नहींवीरता के लिए श्रद्धा जगाता था. उल्टी राइफल पर टंगा फौजी टोपसामने जलती अमर जवान ज्योति और चौबीस घंटे पहरे पर खड़ा मौनपाषाणवत् फौजी जवान - सब मिलकर सारे बलिदानों का ऐसा मुखर व शालीन प्रतीक बनाते थे कि उसके चारो ओर उत्सव मनाता भारत भी उसकी गरिमा संभाल कर चलता था. एक झटके में यह सारा कुछ मेट दिया गया. अमर जवान की ज्योति ही बुझा दी गई.    

   सवाल कई हैं जिनका जवाब कई स्तरों पर ढूंढा जाना चाहिए. युद्ध स्मारकों से पश्र्चिमी दुनिया पटी हैक्योंकि उनका सारा संसार बना ही युद्धों से है. उनके यहां युद्ध धार्मिक वीरता के भीप्रतिद्वंद्वी के विनाश के भीहथियारों का धंधा कर कमाई करने की भी युक्ति रहे हैं. दोनों विश्वयुद्धों में की गई अपनी अकूत कमाई के बल पर ही अमरीका ऐश्वर्य के शिखर पर विराजता रहा है. भय दिखा कर और भय बढ़ा कर आमने-सामने की स्थिति पैदा करना और फिर दोनों पक्षों को हथियार बेंचना पश्चिम की हर महाशक्ति का सम्माननीय धंधा रहा है. आज पश्चिम में छाई मंदी के पीछे एक कारण यह भी है कि पिछले दिनों में युद्ध तो कई हुए हैंहोते रहे हैं लेकिन महायुद्ध नहीं हो सके हैं. महायुद्ध नहीं तो महा कमाई नहीं. इसलिए उनके यहां युद्ध स्मारकों का एक मतलब युद्धों को जीवित रखना भी है. 

   हमारे यहां भी युद्ध हुए हैं लेकिन वे कमाई के साधन नहीं रहे हैं. हमारी वृत्ति कभी साम्राज्यवादी या औपनिवेशिक नहीं रही. हमारे युद्धों का उद्देश्य भी कुछ बड़ा और कुछ श्रेष्ठ रहा है - महाभारत भी न्याय के लिए हुआ तो अनेक युद्ध आती औपनिवेशिक गुलामी को रोकने के लिए हुए. इसलिए भारतीय परंपरा में युद्ध स्मारकों की नहींबलिदान या शहादत के प्रतीक स्मारकों की स्वाभाविक जगह बनती है. और यह भी कि प्रतीक परिपूर्णता दर्शाते हैंसंख्या नहीं. साम्राज्य के सारे प्रतीकों को आत्मसात करती हुई अमर जवान ज्योति उन सबका परिपूर्ण प्रतिनिधित्व करती थी जो सार्वभौमस्वतंत्र देश का गौरव संजोते हैं तथा एक उद्दात मन तैयार करते हैं. बाहर जलती ज्योति जब भीतर उजाला करती हो तभी उसकी सार्थकता है. अमर जवान ज्योति एक ऐसा ही प्रतीक बन कर भारतीय मन में अवस्थित हो चुका था. जरूरत नहीं थी उसे बुझाने की. जरूरत थी ही तो नवनिर्मित युद्ध स्मारक में एक ज्योति और जलाई जा सकती थी. अंधकार जितना घना और अभेद्य होता हैसमाज को उतने ही उजाले की जरूरत होती है. यह किसने कहा कि एक बुझा कर ही दूसरा जलाया जा सकता है लेकिन जब प्रतीकोंमहापुरुषों और  इतिहासों को हड़पने की पागल दौड़ चल रही हो और कोईकिसी की शह पा कर कह रहा हो कि आजादी 1947 में नहीं2014 में मिलीतब तो दीप बुझेंगे हीहर इतिहास हमसे ही शुरू होता हैयह निर्धारित किया ही जाएगा. यह अंधकार बाहरी ज्योति जलाने से दूर नहीं होगा. 

   क्या किसी को याद है कि राजधानी में ही एक ज्योति और भी जल रही है बापू की समाधि राजघाट पर जलती ज्योति क्या यह कह बुझाई जाएगी कि स्वतंत्रता के शहीदों का एक नया स्मारक हम बना रहे हैं जहां सबके नाम से एक ही ज्योति जलाई जाएगी तो बापू की हत्या तो स्वतंत्रता के बाद हुई थी. तो उस ज्योति का क्या करेंगे आप अब देखिएअब छत्तीसगढ़ में अमर जवान ज्योति बनाई गई. आगे हो सकता है कि राज्यों में वैकल्पिक ज्योति जलाई जाए. जब आम सहमति बनाने की आप कोई कोशिश नहीं करते हैं तो आम प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है. ऐसी ज्योतियां और अंधकार फैलाएंगी. ( 05.01.2022)

विदेश-नीति की कारीगरी

बीमार का हाल कैसा हैयह नब्ज बता देती हैकिसी देश का हाल कैसा हैयह उसकी विदेश-नीति बता देती है. ऐसा इसलिए है कि विदेश-नीति दरअसल में किसी भी देश की आंतरिक स्थिति का आईना होती है. इसे हम अपने देश के संदर्भ में अच्छी तरह समझ सकते हैं. 

   हमारी आंतरिक सच्चाई यह है कि हम एक चुनाव से दूसरा चुनाव जीतने की चालों-कुचालों से अलग हम न कुछ करकह और सोच रहे हैं. गले लगने-लगानेझूला झुलाने और गंगा आरती दिखाने को विदेश-नीति समझने का भ्रम जब से टूटा हैएक ऐसी दिशाहीनता ने हमें जकड़ लिया है जैसी दिशाहीनता पहले कभी न थी.   

   करीब-करीब सारी दुनिया में ऐसा ही आलम है. गुलिवर को तो पता नहीं कहां लिलिपुट और लिलिपुटियन मिले थेहमें हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर वैसे ही बौनों का दौर दिखाई देता है. ऐसा इसलिए है कि नई नीतियांनये सपनेनई उमंग तभी बनती-उभरती है जब कोई वैकल्पिक दर्शन आपको प्रेरित करता है. जब सत्ता ही एकमात्र दर्शन हो तब सत् और साहस के पांव रखने की जगह कहां बचती है अमरीका में आज कोई ट्रंप नहीं है. इसलिए हास्यास्पद मूर्खताओं व अंतरराष्ट्रीय शर्म का दौर थमा-सा लगता है. लेकिन क्या कोई अमरीकी अध्येता कह सकता है कि बाइडन ने अंतरराष्ट्रीय मामलों में एक भी ऐसी पहल की है कि जो अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमरीका की नई छवि गढ़ती हो अफगानिस्तान की उनकी अर्थहीन पहल चौतरफा पराजय की ऐसी कहानी है जिसे विफल राजनीतिक निर्णयों के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाना चाहिए. अमरीका की अंतरराष्ट्रीय हैसियत दरअसल उसकी आर्थिक शक्ति की प्रतिच्छाया थी. वह आर्थिक शक्ति चूकी तो अमरीका की हैसियत भी टूटी ! बाइडन के पास इन दोनों मोर्चों पर अमरीका को फिर से खड़ा कर सकने का न साहस हैन सपना. कभी महात्मा गांधी ने इसकी तरफ इशारा करते हुए कहा भी था कि जब तक पूंजी के पीछे की पागल दौड़ से अमरीका बाहर नहीं आता हैतब तक मेरे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं है.  

   ऐसा ही हाल है रूस और चीन का भी. रूस के 69 वर्षीय राष्ट्रपति व्लादामीर व्लादीमीरोविच पुतिन कभी भी रूस के सामाजिक या राजनेता नहीं रहे. वे रहे तो बस 16 लंबे सालों तक रूस की खुफिया सेवा की नौकरी में रहे. सोवियत संघ के बिखरने के बाद जो उथल-पुथल मचीउसके परिणामस्वरूप कई हाथों से गुजरती हुई रूस की सत्ता पुतिन के हाथ लगीऔर तब से ही हाथ लगी सत्ता को हाथ से न जाने देने की चालबाजियां ही पुतिन की राजनीति है. 2012 से अब तक रूस की तरफ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई भी ऐसा हस्तक्षेप नहीं हुआ है जिससे विचार व आचार का कोई नया दरवाजा खुलता हो. वे खुफियागिरी के अपने अनुभव का इस्तेमाल करअपनी राजनीतिक हैसियत इतनी पुख्ता बना लेने में लगे हैं कि वह अंतिम सांस तक उनका साथ दे. वे संसार के सबसे धनी राष्ट्रप्रमुखों में एक हैं उनके रूस में जातीय व भाषाई दमन का जैसा जोर हैवह साम्यवाद के हर मूल्य का दमन करता जाता है. 

   चीन के झिन जिनपिंग पुतिन के छोटे संस्करण हैं हालांकि उनके पांव में पुतिन से बड़ा जूता है. 68 वर्षीय जिनपिंग करीब-करीब तभी2012 में चीन की सत्ता में आए जब पुतिन रूस में आए. उनकी राजनीति का आधार भी पुतिन की तरह ही सत्ता आजीवन अपने हाथ में रखना है लेकिन जिनपिंग की हैसियत इसलिए पुतिन से बड़ी हो जाती है कि वे दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक व फौजी सत्ता के मालिक हैं. वे रूस को नहींअमरीका व भारत को चुनौती देते हैं. अमरीका को सामने कर भारत भी चीन को चुनौती देने की नादानी करता है जिसे जिनपिंग बच्चे की चुहल मान कर दरकिनार करते जाते हैं. लेकिन सभी जानते हैं कि बिल्ली चूहों की नादानी की अनदेखी कभी भले कर देती होचूहों की हरकतों को भूलती नहीं है. 

   इसलिए हमारी व्यापक विदेश-नीति की कसौटी चीन ही है. इसलिए स्वाभाविक ही है कि एशिया उपमहाद्वीप के तमाम छोटे मुल्क यही देखने व भांपने में रहते हैं कि भारत चीन से कबकहां और कैसे-कैसे निबटता है. यह हैरानी की बात नहीं है कि भारत के प्रधानमंत्री की तरह ही जिनपिंग भी लगातार विदेश-दौरों पर रहते हैं लेकिन दोनों के विदेश-दौरों में एक बड़ा फर्क है. कोविड की बंदिश की बात छोड़ दें तो 2012 से अब तक जिनपिंग अपने 42 विदेश-दौरों में जिन 69 देशों में गये हैंउनमें सबसे बड़ी संख्या एशिया-अफ्रीका आदि के छोटे देशों की है. 3 बार तो वे भारत ही आ चुके हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक 113 विदेशी दौरों में 62 देशों में गए हैं जिनमें 7 बार अमरीका तथा 5 बार चीनफ्रांसरूस का दौरा है. मोदीजी की यात्रा में जो छोटे देश आए हैं वे भारत-चीन के मामले में कोई खास वकत नहीं रखते हैं. 

   श्रीलंका में चीन का प्रवेश जिस तरह हो रहा हैवह भारत को सावधान करता है. राजधानी कोलंबो से लग कर ही चीन एक नया सिंगापुर या दुबई बसा रहा है. श्रीलंका इसे अपने लिए अपरिमित संभावनाओं का द्वार खोलने वाला प्रोजेक्ट मान रहा है. भारत को इसका जवाब आर्थिक स्तर पर नहींराजनीतिक स्तर पर देना चाहिए. लेकिन ऐसा कोई जवाब दिखाई या सुनाई तो नहीं दे रहा है. चीन के इशारे व खुले समर्थन से शू ची की लोकतांत्रिक सरकार की जैसी बिरयानी म्यांमार की फौजी सत्ता ने बनाई और वहां का सारा लोकतांत्रिक प्रतिरोध फौजी बूटों तले रौंद डालाउसका जवाब भारत कैसे देता हैयह देखने वाले एशियाई मुल्क हैरान व निराश ही हुए हैं. बांग्लादेश संघर्ष के समय जयप्रकाश नारायण ने भारत की विदेश-नीति में एक नैतिक हस्तक्षेप करते हुएउसे एक कालजयी आधार दिया था कि लोकतंत्र का दमन किसी देश का आंतरिक मामला नहीं है. इस आधार पर म्यांमार के मामले में भारत की घिघियाती चुप्पी उसे चीन के समक्ष घुटने टेकती दिखाती है. भारत की डिप्लोमैसी का कोई अध्येता जब आज से सालों बाद यह प्रकरण खोज निकालेगा तो वही नहींपूरा भारत शर्मिंदा होगा कि इस पूरे प्रकरण में भारत ने इतना साहस भी नहीं दिखाया कि अपराध को अपराध कहे और अंतरराष्ट्रीय दवाब खड़ा करने की मुखर कोशिश करे.                                 और जब सवाल हांगकांग का आएगा तब भी और जब ताइवान का आएगा तब भी भारत की भूमिका कहां और कैसे खोजी जाएगी चीन का विस्तारवादी रवैया हांगकांग को भी और ताइवान को भी अपना उपनिवेश बना कर रखना चाहता है. हांगकांग का मामला तो एक उपनिवेश से छूट कर दूसरे उपनिवेश का जुआ ढोने जैसा है. यदि इग्लैंड में थोड़ी भी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना होती तो वह 1842 की नानकिंग जैसी प्राचीन व अनैतिक संधि की आड़ में हांगकांग को चीन को सौंप नहीं देता बल्कि कोई ऐसा रास्ता निकालता ( जनमत संग्रह !) कि जिससे हांगकांग की लोकतांत्रिक चेतना को जागृत व संगठित होने का मौका मिलता. लेकिन खुद को लोकतंत्र की मां कहने का दावा करने वाले इंग्लैंड ने भारत विभाजन के वक्त 1946-47 में जितना गंदा खेल खेला थाउसने वैसा ही गंदा खेल 1997 में खेला और हांगकांग को चीन के भरोसे छोड़ दिया. भारत ने तब भी इस राजनीतिक अनैतिकता के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई और अब भी नहीं जब दमन-हत्या व कानूनी अनैतिकता के रास्ते चीन हांगकांग को निगल जाने में लगा है. 

   ताइवान के बारे में ऐसा माहौल बनाया गया है मानो वह तो चीन का ही हिस्सा था. यह सच नहीं है. ताइवान में जिस जनजाति के लोग रहते थे उनका चीन से कोई नाता नहीं था. लेकिन डच उपनिवेशवादियों ने ताइवान पर कब्जा किया और अपनी सुविधा के लिए वहां चीनी मजदूरों को बड़ी संख्या में ला बसाया. यह करीब-करीब वैसा ही था जैसा बाद में तिब्बत के साथ हुआ. ताइवान ने 1949 में चीन से खूनी गृहयुद्ध के बाद अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम किया और धीरे-धीरे एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में अपनी जगह बनाई. अब चीन उसे उसी तरह लील लेना चाहता है जिस तरह उसने तिब्बत को लील लिया है. साम्राज्यवाद की भूख दानवी होती है. हांगकांग और ताइवान दोनों ही सामराज्यवाद का दंश भुगत रहे हैं. फिर भारत चुप क्यों है क्या उसे ताइवान व हांगकांग के समर्थन में दुनिया भर में आवाज नहीं उठानी चाहिए ताकि इन देशों की मदद हो और चीन को कायर चुप्पी की आड़ में अपना खेल खेलने का मौका न मिले ?आज भारतीय विदेश-नीति का केंद्र-बिंदु चीन को हाशिये पर धकेलते जाने का होना चाहिए न कि चीन की तरफ पीठ करउसे हमारी सीमा पर सैन्य-निर्माण का अवसर देने का होना चाहिए. बाजार ही जिनकी राजनीति-अर्थनीति का निर्धारण करता है उन्हें भी यह कौन समझाएगा कि कुछ मूल्य ऐसे भी होते हैं जिनकी खरीद-बिक्री नहीं होती हैनहीं होनी चाहिए लेकिन ऐसा करने का नैतिक बल तभी आता है जब आप देश के भीतर भी ऐसे मूल्यों के प्रति जागरूक व प्रतिबद्ध हों.          

   भारत के राजनीतिक हित का संरक्षण और चीन को हर उपलब्ध मौकों पर शह देने की रणनीति आज की मांग है. इस दृष्टि से महत्वपूर्ण देशों के साथ संपर्क-संवाद की खासी कमी दिखाई देती है. विदेश-नीति गूंगे के गुड़ चुहलाने जैसी कला नहीं होती है. यह सपने देखने और बुनने की बारीक कसीदाकारी होती है. ( 19.01.2022)  

एक योद्धा संत का अंत

   आज के इस बौने दौर में डेसमंड टूटू जैसे किसी आदमकद का जाना बहुत कुछ वैसे ही सालाता है जैसे तेज आंधी में उस आखिरी वृक्ष का उखड़ जाना जिससे अपनी झोंपड़ी पर साया हुआ करता था. जब तेज धूप में अट्टहास करती प्रेत छायाओं की चीख-पुकार की सर्वत्र गूंजती हो तब वे सब लोग खास अपने लगने लगते हैं जो संसार के किसी भी कोने में हों लेकिन मनुष्यता का मंदिर गढ़ने में लगे थेलगे रहे और मंदिर गढ़ते-गढ़ते ही विदा हो गए. यह वह मंदिर है जो मन-मंदिर में अवस्थित होता हैऔर एक बार पैठ गया तो फिर आपको चैन नहीं लेने देता है. गांधी ने अपने हिंद-स्वराज्य में लिखा ही है न : “ एक बार इस सत्य की प्रतीति हो जाए तो  इसे दूसरों तक पहुंचाए बिना हम रह ही कैसे सकते हैं !”   

   डेसमंड टूटू एंगलिकन ईसाई पादरी थे लेकिन ईसाइयों की तमाम दुनिया में उन जैसा पादरी गिनती का भी नहीं है;  डेसमंड टूटू अश्वेत थे लेकिन उन जैसा शुभ्र व्यक्तित्व खोजे भी न मिलेगाडेसमंड टूटू शांतिवादी थे लेकिन उन जैसा योद्धा उंगलियों पर गिना जा सकता है. थे तो वे दक्षिण अफ्रीका जैसे सुदूर देश के लेकिन हमें वे बेहद अपने लगते थे क्योंकि गांधी के भारत से और भारत के गांधी से उनका गर्भ-नाल वैसे ही जुड़ा था जैसे उनके समकालीन साथी व सिपाही नेल्सन मंडेला का. इस गांधी का यह कमाल ही है कि उसके अपने रक्त-परिवार का हमें पता हो कि न होउसका तत्व-परिवार सारे संसार में इस कदर फैला है कि वह हमेशा जीवंत चर्चा के बीच जिंदा रहता है. गांधी के हत्यारों की यही तो परेशानी है कि लंबे षड्यंत्र और कई असफल कोशिशों के बाद के30 जनवरी 1948 को जब वे उसे 3 गोलियों से मारने में सफल हुए तो पता चला कि यह आदमी उस रोज मरा ही नहीं. उस रोज हुआ इतना ही कि यह आदमी भारत की परिधि पार करसारे संसार में फैल गया. डेसमंड टूटू संसार भर में फैले इसी गांधी-परिवार के अनमोल सदस्यों में एक थे. खास बात यह भी थी कि वे उसी दक्षिण अफ्रीका के थे जिसने बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी को सत्याग्रही गांधी बना कर संसार को लौटाया था. गांधी की यह विरासत मंडेला व टूटू दोनों ने जिस तरह निभाई उसे देख कर महात्मा होते तो निहाल ही होते. 

    श्वेत आधिपत्य से छुटकारा पाने की दक्षिण अफ्रीका की लंबी खूनी लड़ाई के अधिकांश सिपाही या तो मौत के घाट उतार दिए गए या देश-बदर कर दिए गए या जेलों में सदा के लिए दफ्न कर दिए गए.  डेसमंड टूटू इन सभी के साक्षी भी रहे और सहभागी भी फिर भी वे इन सबसे बच सके तो शायद इसलिए कि उन पर चर्च का साया था. 1960 में वे पादरी बने   और चर्च के धार्मिक संगठन की सीढ़ियां चढ़ते हुए 1985 में जोहानिसबर्ग के बिशप बने. अगले ही वर्ष वे केप टाउन के पहले अश्वेत आर्चबिशप बने. दबा-ढका यह विवाद तो चल ही रहा था कि डेसमंड टूटू समाज व राजनीति के संदर्भ में जो कर व कह रहे हैं क्या वह चर्च की मान्य भूमिका से मेल खाता है सत्ता व धर्म का जैसा गठबंधन आज है उसमें ऐसे सवाल केवल सवाल नहीं रह जाते हैं बल्कि छिपी हुई धमकी में बदल जाते हैं. डेसमंड टूटू ऐसे सवाल सुन रहे थे और उस धमकी को पहचान रहे थे. इसलिए आर्चबिशप ने अपनी भूमिका स्पष्ट कर दी : मैं जो कर रहा हूं और जो कह रहा हूं वह आर्चबिशप की शुद्ध धार्मिक भूमिका है. धर्म यदि अन्याय व दमन के खिलाफ नहीं बोलेगा तो धर्म ही नहीं रह जाएगा.” वेटिकन के लिए भी आर्चबिशप की इस भूमिका में हस्तक्षेप करना मुश्किल हो गया. 

   रंगभेदी शासन के तमाम जुल्मों की उन्होंने मुखालफत की. वे नहीं होते तो उन जुल्मों का हमें पता भी नहीं चलता. वे चर्च से जुड़े संभवत: पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका की चुनी हुई श्वेत सरकार की तुलना जर्मनी के नाजियों से की और संसार की तमाम श्वेत सरकारों को लज्जित करलाचार किया कि वे दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार पर आर्थिक प्रतिबंध कड़ा भी करें तथा सच्चा भी करें. हम डेसमंड टूटू को पढ़ें या सुनें तो हम पाएंगे कि वे उग्रता से नहींदृढ़ता से अपनी बात रखते थे. उनकी मजाकिया शैली के पीछे एक मजबूत नैतिक मन था जिसे खुद पर पूरा भरोसा था. इसलिए सत्ता जानती थी कि उनकी बातों को काटना संभव नहीं हैकहने वाले को झुकाना संभव नहीं है. 

   नैतिक शक्ति कितनी धारदार हो सकती हैइसे पहचानने में हम गांधी के संदर्भ में अक्सर विफल हो जाते हैं क्योंकि उसे पहचाननेसुनने व समझने के लिए भी किसी दर्जे के नैतिक साहस की जरूरत होती है. डेसमंड टूटू में यह साहस था. वे श्वेत सरकार के क्षद्म का पर्दाफाश करने में लगे रहे तो वे ही आंदोलकारियों की शारीरिक देखभाल व आर्थिक मदद आदि में भी सक्रिय रहे. 

   नेल्सन मंडेला ने जब दक्षिण अफ्रीका की बागडोर संभाली तो रंगभेद की मानसिकता बदलने का वह अद्भुत प्रयोग किया जिसमें पराजित श्वेत राष्ट्रपति दिक्लार्क उनके उप-राष्ट्रपति बन कर साथ आए. फिर ट्रुथ एंड रिकौंसिलिएशन कमिटी’ का गठन किया गया जिसके पीछे मूल भावना यह थी कि अत्याचार व अनाचार श्वेत-अश्वेत नहीं होता है. सभी अपनी गलतियों को पहचानेंकबूल करेंडंड भुगतें तथा साथ चलने का रास्ता खोजें. सामाजिक जीवन का यह अपूर्व प्रयोग था. अश्वेत-श्वेत मंडेला-क्लार्क की जोड़ी ने डेसमंड टूटू को इस अनोखे प्रयोग का अध्यक्ष मनोनीत किया. दोनों ने पहचाना कि देश में उनके अलावा कोई है नहीं कि जो उद्विग्नता से ऊपर उठ करसमत्व की भूमिका से हर मामले पर विचार कर सके. 

   सत्य के प्रयोग हमेशा ही दोधारी तलवार होते हैं. ऐसा ही इस कमीशन के साथ भी हुआ. सत्य के निशाने पर मंडेला की सत्ता भी आई. अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की आलोचना भी डेसमंड टूटू ने उसकी साहस व बेबाकी से की जो हमेशा उनकी पहचान रही थी. सत्ता व सत्य का नाता कितना सतही होता हैयह आजादी के बाद गांधी के संदर्भ में हमने देखा ही थाअब डेसमंड टूटू ने भी वही देखा. लेकिन कमाल यह हुआ कि टूटू इस अनुभव के बाद भी न कटु हुएन निराश ! बिशप के अपने चोगे में लिपटे टूटू खिलखिलाहट के साथ अपनी बात कहते ही रहे.  

   अपने परम मित्र दलाई लामा के दक्षिण अफ्रीका आने के सवाल पर सत्ता से उनकी तनातनी बहुत तीखी हुई. सत्ता नहीं चाहती थी कि दलाई लामा वहां आएंटूटू किसी भी हाल में ‘ संसार के लिए आशा के इस सितारे’ को अपने देश में लाना चाहते थे. आखिरी सामना राष्ट्रीय पुलिस प्रमुख के दफ्तर पर हुआ जिसने बड़ी हिकारत से उनसे कहा :  मुंह बंद करो और अपने घर बैठो !” 

   डेसमंड टूटू ने शांत मन सेसंयत स्वर में कहा : “ लेकिन मैं तुमको बता दूं कि वे बनावटी क्राइस्ट नहीं हैं !” 

   डेसमंड टूटू ने अंतिम सांस तक न संयम छोड़ान सत्य ! गांधी की तरह वे भी यह कह गए कि यह मेरे सपनों का दक्षिण अफ्रीका नहीं है. 

   भले डेसमंड टूटू का सपना पूरा नहीं हुआ लेकिन वे हमारे लिए बहुत सारे सपने छोड़ गए हैं जिन्हें पूरा कर हम उन्हें भी और खुद को भी परिपूर्ण  बना सकते हैं. ( 27.12.2021)  

एक हादसा और अनेक सवाल

    आखिर वह खबर आ ही गई जिसकी आशंका से देश का मन भारी हुआ जा रहा था. 8 दिसंबर से 15 दिसंबर तकलगातार 8 दिनों तक मौत से मशक्कत करने के बाद ग्रुप कैप्टन वरुण सिंह ने विदाई मांग ली. यही होना था. 80 फीसदी जले इंसान के बचने की संभावना 20 फीसदी भर होती है. जांबाज वरुण इतने दिन संघर्ष जारी रख सके क्योंकि वे फौजी प्रशिक्षण से गुजरे जवान थेउम्र उनके साथ थी. लेकिन मौत भी तो विधाता की फौज में प्रशिक्षित हुई होगी न ! वरुण की मौत के साथ भारतीय वायुसेना के हैलिकॉप्टर हादसे का अंतिम जीवित व्यक्ति भी नहीं रहा. अब हमारे व वरुणजी के परिवार के लिए शून्यअसीम आकाश ही बचा है. 

  जब सारा देश 2021 को विदा देने की तैयारी में हैहमें शोक से भरी बहुत सारी स्मृतियों को विदाई देनी पड़ रही है. 700 से ज्यादा प्रतिबद्ध किसानों के बलिदान को हम न भी गिनेंक्योंकि उनकी मृत्यु एक दिनएक तारीख को नहीं हुई थी बल्कि वे तिल-तिल कर मारे गए थे तो भी नगालैंड के 14 निरीह लोगों की हत्या से हम कैसे मुंह फिरा सकते हैं इन 14 नागरिकों की मौत न कोरोना में हुई थीन किसी हैलिकॉप्टर हादसे में. हमारे ये सारे नागरिक कानून के हाथोंगैर-कानूनी तरीके से मारे गए. 

8 दिसंबर के हैलिकॉप्टर हादसे से इतना शोक छाया और इतना शोक रचा गया कि इस हादसे की समीक्षा हो ही नहीं सकी. जिस फौजी जांच की बात कही गई हैउसमें तकनीकी पहलू आएंगे और किसी फाइल में बंद कर दिए जाएंगे. लेकिन जिस दुर्भाग्यपूर्ण हादसे में भारतीय सेना के 13 बहादुरों का खात्मा हुआ जिनमें भारतीय सेना प्रमुख जेनरल विपिन रावत भी एक थेक्या उसकी खुली समीक्षा होनी नहीं चाहिए जो घटित हुआ वह तो हो गयाअब यह समीक्षा ही हमारे बस में बची है. इसलिए शोक से निकल कर हमें कई सवाल पूछने चाहिएकई जवाब मांगने चाहिए.       

सारा देश इस दुर्घटना से विचलित हुआ है. इतने सारे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी जब एक साथ मारे जाते हैं तो ऐसा लगता है जैसे अचानक ही आसमान खाली हो गया. इससे देश की सुरक्षा में सेंध लगती है. वैसे तो हर जान कीमती होती है लेकिन ऐसी विशेषज्ञता के धनीअनुभवसंपन्न फौजी अधिकारियों का इस तरह जाना ऐसा अहसास जगाता है जैसे किसी ने चौक-चौराहे पर लूट लिया हो. उनके परिवारों का निजी दुख राष्ट्रीय दुख में बदल जाता है. डॉक्टरोंइंजीनियरोंवैज्ञानिकों आदि को तैयार करने में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े ऐसे सैनिकपुलिस के जवान व विशेषज्ञ फौजी अधिकारियों को तैयार करने में भी राष्ट्र को बहुत निवेश करना पड़ता है. जब वे उस मुकाम पर पहुंचते हैं कि राष्ट्र भरोसे से उनकी तरफ देख सके तभी किसी चूक से हम उन्हें खो देते हैंतो निजी नुकसानराष्ट्रीय नुकसान में बदल जाता है. शोक की लहर का अपना मतलब होता ही है लेकिन विवेकसम्मत सवालों के जवाब से आगे की दिशा खुलती है. 

आज और अभी ही यह सवाल पूछना जरूरी हो जाता है कि एक साथएक ही जहाज से इतने सारे उच्चाधिकारियों का सफर करना कैसे संभव हुआ सामान्य निर्देश है कि दो से अधिक उच्चाधिकारी एक ही विमान से सफर नहीं करेंगे. फिर जनरल विपिन रावत के साथ इतने सारे फौजियों को सफर करने की इजाजत कैसे मिली और किसने दी ?  क्या जनरल रावत ने खुद दी ऐसे निर्देश की अवहेलना करने का निर्देश दिया था कहीं सेकिसी ने तो इस हैलिकॉप्टर उड़ान की योजना बनाई होगीकिसी ने तो इसे जांचा होगा और सफर की इजाजत दी होगी. वह कौन है वह पूरा दस्तावेज कहां है जिसमें यह पूरी प्रक्रिया दर्ज है यह पता तो चले कि अपने अनुशासन और आदेश के पालन के लिए जानी जाने वाली फौज में यह सब कैसे चलता है और कौन है जो यह सब चलने से रोक देता है क्या जेनरल रावत जैसे किसी उच्चाधिकारी को ऐसा अधिकार है वह सुरक्षा के सामान्य निर्देशों की अवहेलना का आदेश दे सके और सारी फौजी व्यवस्था चूं तक न कर सके ?  

भारतीय वायु सेना का हैलिकॉप्टर एमआई-17वी5 एक सुरक्षित व विश्वसनीय मशीन मानी जाती है. यह रूसी हैलिकॉप्टर हमारी सेना की शक्ति का प्रतीक भी माना जाता है. लेकिन यह पहली बार नहीं है कि यह मशीन खतरों में पड़ी है और इसने हमें खतरे में डाला है. इसलिए नहीं कि यह मशीन खराब है या कमजोर है बल्कि इसलिए कि यह मशीन ही तो है. मशीनों के साथ मानवीय सावधानी व कुशलता का मेल हो तभी वह अपनी सर्वोत्तम क्षमता से काम करती है. तब क्या यह सवाल नहीं उठता है कि इस उड़ने वाली मशीन पर कितना बोझ डालना इसे अत्यंत बोझिल बनाना नहीं हैयह बात सार्वजनिक की जाए  क्या यह सावधानी जरूरी नहीं है कि मशीन पर उसकी क्षमता से कुछ कम ही बोझ डाला जाए खास कर तब जब वह एक साथ अपने इतने बेशकीमती फौजी उच्चाधिकारियों को ले कर उड़ने वाली हो यदि इसका ध्यान नहीं रखा गया तो यह गैर-जिम्मेदारी का अक्षम्य नमूना है. 

यह भी माना जाता है कि फौजी उच्चाधिकारियों के ऐसे सफर मेंजो युद्ध के लिए नहीं हैसंरक्षक टुकड़ी भी साथ होती है. क्या ऐसी कोई व्यवस्था इस सफर के साथ थी होती तो दुर्घटना के बाद जले अधिकारियों को बचानेपानी पिलाने तथा इलाज तक ले जाने की व्यवस्था तुरंत बन ही सकती थी. यह न पूछे कोई कि उससे क्या होतायह बताए कि सावधानियां पूरी रखी गई थींइससे देश का भरोसा बनता है या नहीं वैसे देखें तो यह कोई फौजी अभियान नहीं था जिस पर जेनरल रावत जा रहे थे. यह सामान्य फौजी समारोह था. फिर इतने सारे उच्चाधिकारी वहां क्यों जा रहे थे मैं नहीं समझता हूं कि यह फौजी पिकनिक का सरकारी आयोजन होगा. तो क्या राजनेता का काफिला कितना बड़ा हैइससे उनकी राजनीतिक औकात नापने का पैमाना ही फौज में भी लागू होने लगा है हमारी फौज का जिस तरह का राजनीतिकरण पिछले दिनों में हुआ हैजनरल रावत जिस तरह के राजनीतिक बयान देते रहे हैंउससे किसी स्वस्थ्य लोकतंत्र की  खुशबू तो नहीं आती है. इसलिए यह हादसा हमें कई प्रकार से सावधान करता है. तमिलनाड का कुन्नूर लैंडिंग के लिए कभी भी आसान नहीं माना जाता है. यदि यह कोई नाजुक फौजी अभियान नहीं था तो कुन्नूर को टालने की कोशिश क्यों नहीं की गई फिर मधुलिका रावतजी को साथ क्यों लिया गया इस विषय में फौजी गाइडलाइन क्या कहती है ?  

अफसोस व पश्चाताप से भरे राष्ट्र के मन में सवाल-ही-सवाल हैं. इन्हें प्रायोजित शोक की चादर से ढकने की कोशिश आत्मघाती होगी. ( 17.12.2021)

घर वापस जाइए !

गुरु परब या प्रकाश पर्व पर केंद्र सरकार को इतना अंधरा क्यों दिखाई दिया कि उसने अपना रास्ता ही बदल लिया ऐसा क्या हुआ कि मुट्ठी भर गुंडेआतंकवादीखालिस्तानीदेशद्रोही किसानों के सामने2014 में देश को आजाद कराने वाली अजेय सरकार व दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल ने घुटने टेक दिए ऐसा क्या हुआ कि किसानों को इन स्वर्णिम कानूनों का असली स्वरूप समझाने की 11 दौर की खोखली बातचीत में सरकार जो सत्य खुद नहीं समझ पा रही थीवह अचानक उसकी समझ में आ गया क्यों ऐसा हुआ कि साल पूरा होते-न-होते किसानों का आंदोलन बिखर जाएगा जैसी बात का प्रचार करने वाली सरकार का संकल्पसाल पूरा होने से पहले ही दम तोड़ गया और एक सवाल यह भी कि  इतिहास बदल देने वाली हर महत्वपूर्ण घोषणा आधी रात को करने वाली सरकार ने यह घोषणा सुबह में क्यों की कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार खुद ही देख व समझ रही है कि रात के अंधेरे में की उसकी सारी घोषणाएं रात के अंधेरे में ही बिला कर रह गई हैं 

किसानों का यह पूरा मामला2014 से उठ रहे हर मामले की तरह हीप्रधानमंत्री की सीधी देख-रेख मेंउनकी रणनीति से चलाया व बढ़ाया जा रहा था. इसलिए कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने बड़ी चतुराई सेपतली गली से निकलने की कोशिश में यह कहा कि यह वक्त किसी को दोष देने का नहीं है बल्कि आंदोलनकारी किसान भाइयों के घर लौट जाने का है. दुष्यंत  कुमार के शब्द उधार लूं तो कहूंगा : चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए ! श्रीमानयह कैसा तर्क है जब सरकार खुले आम माफी मांग रही हो तो इससे ज्यादा मौजूं वक्त दूसरा क्या हो सकता है कि देश देखे-समझे कि कृषि कानूनों के संदर्भ में दोष किसका हैक्षद्म कहां हैअहंकार का जहर कहां-कहां नसों में उतर रहा है और कौन है कि जो अप्रतिम कहलाते हुए भी लगातार मिट्टी का माधो साबित हो रहा है सवाल 3 कृषि कानूनों का ही नहीं है. कृषि कानून जिस श्रृंखला में आते हैं उसकी प्रारंभिक कड़ियां नोटबंदीजीएसटीभूमि अधिग्रहण कानूनश्रम कानूननागरिकता कानूनबैंकिग प्रणाली का बंटाधारकोरोना का लॉकडाउनअमरीकी नागरिकों से ट्रंप की भोंडी पैरवीकश्मीर का विभाजनचीन से लगातार पिटती हमारी राजनयिक चालेंदेश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं के क्षुद्र राजनीतिकरण से भी जुड़ती हैं. ये सारे कानूनऐसी सारी पहलें एक ही अक्ल से पैदा हुई थीं और एक ही प्रक्रिया से देश पर थोपी गई थीं. इसलिए इनकी समीक्षा करने का यह सही वक्त है जब समय ने अपना आईना सामने कर दिया है.

जिन कृषि कानूनों के बारे में धमकी देते हुए कहा जाता रहा कि किसान और कुछ भी मांग लें लेकिन इन कानूनों की वापसी का सपना भी न देखेंवे ही कानून रद्दी की टोकरी में डाल दिए जाएं तो कोई पूछे भी नहीं कि या इलाही ये मांजरा क्या है अगर चुप ही रहना था तो फिर प्रधानमंत्री ने कैसे कहा कि दिये के प्रकाश की तरह साफ था कि इन कानूनों से किसानों का भला होने वाला है लेकिन कुछ जड़बुद्धि किसानों को यह समझ में ही नहीं आया. तो दोष निकालने का काम तो आपने शुरू कर दिया न !  फिर यह तो पूछा ही जाएगा कि इन कुछ किसानों’ के अलावा आपके सारे किसान कहां हैं अब ?  फिर आपने यह भी कहा कि हम एक कमिटी बनाएंगे जिसमें फलां-फलां तरह के लोग रहेंगे जो किसानों के सारे सवालों की समीक्षा करेंगे और अपनी सिफारिश देंगे. तो प्रकारांतर से आपने यह कबूल किया न कि आपकी पिछली प्रक्रिया दोषपूर्ण थी ! उसमें किसी स्तर पर भी विचार-विमर्श की बात की ही नहीं गई थी. न संसद मेंन सलेक्ट कमिटी मेंन सर्वदलीय बैठक में कहीं भी कृषि कानूनों पर विमर्श के लिए सरकार तैयार नहीं थी. कोरोना के लिए थाली बजाओ की तर्ज पर किसानों से कहा गया कि ताली बजाओ ! किसानों ने ताली नहीं बजाई बल्कि एक-दूसरे का हाथ थाम लिया. 

लोकतांत्रिक विमर्श का कोई भी सार्वजनिक मंच अस्तित्व में न रहने दिया जाए तो क्या आप एकतरफा भाषणों व सिर्फ अपने मन की बात से लोकतंत्र का ढांचा टिकाए रख सकते हैं यही क्षद्म था जिसका आज पर्दाफाश हुआ है.  सरकार भी समझे और किसान भी और विपक्ष भी कि बुनियादी सवाल लोकतंत्र को एक व्यक्ति की अक्ल व अहंकार का बंदी बनाने का है - फिर वह पार्टी हो कि परिवार कि आंदोलन कि संगठन! 

अंधभक्ति का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह धंधा ही अंधों का है. अंधों का अंधकार घना ही नहीं होता हैअभेद्य भी होता है. ऐसा ही इस सरकार के साथ हो रहा है - अहंकार में फूली सरकारचापलूसी में लगी  नौकरशाही और अंधभक्तों की जय जयकार ! इस तिकड़ी ने देखा ही नहीं कि 700 किसानों के बलिदान के बाद भी आंदोलन का दायरा बढ़ता जा रहा हैसंकल्प मजबूत होता जा रहा है और वह कई ऐसे सवालों को समेटने भी लगा है जिसे सामाजिक जीवन के विमर्श से बाहर ही कर दिया गया था. 

किसानों ने एमएसपी की आड़ में चलाए जा रहे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अन्न व्यापार को और उसके साथ खड़ी सरकार को पहचानना शुरू कर दिया. उसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बंदियों का सवाल भी उठायाजीप से किसानों को कुचलने की रणनीति बनाने वाले गृह राज्यमंत्री की औकात भी बताई. दिल्ली की सीमा पर किसानों को रोकने के लिए जिस तरह कीलें गाड़ी गईंदीवारें खड़ी की गईंसड़कें जाम की गईंपुलिस से किसानों की पिटाई करवाई गईवह सब किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को शर्मसार करने के लिए काफी था. लेकिन शर्म तो छोड़िएकभी एक मानवीय बोल भी प्रधानमंत्री के मुंह से नहीं फूटा. किसानों ने यह सारा कुछ जिस संयम व स्वाभिमान से झेला उस कारण इसका कुछ ऐसा स्वरूप बनता गया कि किसानों के नेतृत्व में चलने वाला एक जन आंदोलन उभरने लगा. यह बात किसानों की समझ में आने लगी कि तीनों कानूनों की वापसीएमएसपी की गारंटी आदि आंदोलन की मांगें भले हैं लेकिन असली बात तो यह है कि कारपोरेटी अर्थ-व्यवस्था का शिकंजा जब तक टूटता नहीं हैकिसानों के गले का फंदा खुलता नहीं है. सरकार ने इसे पहचाना होता और अंधभक्तों ने उसे यह देखने दिया होता तो सरकार अपना रुख बदल सकती थी. लेकिन भद्दीस्तरहीन भाषा का इस्तेमाल संसद में और संसद के बाहर शीर्ष से नीचे तक के महानुभावों ने जिस तरह कियाउसने हमारा सार्वजनिक विमर्श रसातल में पहुंचा दिया. 

प्रधानमंत्री को यह दांव  बहुत मंहगा पड़ सकता है क्योंकि उनकी इस घोषणा ने पूरे आंदोलन को चुनाव के मैदान में ला खड़ा किया है. अब फैसला यह नहीं होना है कि कौन-सी पार्टी जीतती हैफैसला यह होना है कि आंदोलन जीतता है कि हारता है. यह देश के किसानों की आन का सवाल बन गया है. चुनावी जीत का रसायन अब तक जिस तरह बनाया जाता रहा हैवह शायद इस बार काम न आए. 1977 में कांग्रेस के साथ ऐसा ही हुआ था2022 में भी ऐसा हो सकता है.  किसानों ने और विपक्ष ने यदि इस नजाकत को समझा और अपना खेल बदला तो लोकतंत्र को यह आंदोलन बहुत बड़ी देन दे जाएगा. प्रधानमंत्री ने किसानों से कहा है कि घर वापस जाइए. संभव है कि किसान प्रधानमंत्री से भी ऐसा ही कहें. 

( 19.11.2021)            

गीत गाने वाले एक सिपाही का अवसान

 सिपाही का अवसान शोक की नहींसंकल्प की घड़ी होती है. सलेम नानजुंदैया सुब्बाराव या मात्र सुब्बारावजी या देश भर के अनेकों के लिए सिर्फ भाईजी का अवसान एक ऐसे ही सिपाही का अवसान है जिससे हमारे मन भले शोक से भरे होंकामना है कि हमारे सबके दिल संकल्पपूरित हों. वे चुकी हुई मन:स्थिति मेंनिराश और लाचार मन से नहीं गएकाम करतेगाते-बजाते थक कर अनंत विश्राम में लीन हो गए. यह वह सत्य है जिसका सामान हर प्राणी को करना ही पड़ता है और आपकी उम्र जब 93 साल छू रही हो तब तो कोई भी क्षण इस सत्य का सामना करने का क्षण बन सकता है. 27 अक्तूबर 2021 की सुबह 6 बजे का समय सुब्बारावजी के लिए ऐसा ही क्षण साबित हुआ. दिल का एक दौरा पड़ा और दिल ने सांस लेना छोड़ दिया. गांधी की कहनी के एक और लेखक ने कलम धर  दी. 

सुब्बारावजी आजादी के सिपाही थे लेकिन वे उन सिपाहियों में नहीं थे जिनकी लड़ाई 15 अगस्त 1947 को पूरी हो गई. वे आजादी के उन सिपाहियों में थे कि जिनके लिए आजादी का मतलब लगातार बदलता हा और उसका फलक लगातार विस्तीर्ण होता गया. कभी अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति की लड़ाई थी तो कभी अंग्रेजियत की मानसिक गुलामी से मुक्ति की. फिर नया मानवीय व न्यायपूर्ण समाज बनाने की रचनात्मक लड़ाई विनोबा-जयप्रकाश ने छेड़ी तो वहां भी अपना हाफपैंट मजबूती से डाटे सुब्बाराव हाजिर मिले. 

यह कहानी 13 साल की उम्र में शुरू हुई थी जब 1942 में गांधीजी ने अंग्रेजी हुकूमत को ‘ भारत छोड़ो !’ का आदेश दिया था. किसी गुलाम देश की आजादी की लड़ाई का नायकगुलामकर्ता देश को ऐसा सख्त आदेश दे सकता हैयही बात कितनों को झकझोर गई और कितने सब कुछ भूल कर इस लड़ाई में कूद पड़े. कर्नाटक के बंगलारू के एक स्कूल में पढ़ रहे 13 साल की भींगती मसों वाले सुब्बाराव को दूसरा कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने स्कूल व नगर की दीवारों पर बड़े-बड़े हरफों में लिखना शुरू कर दिया : क्विट इंडिया ! नारा एक ही था तो सजा भी एक ही थी -जेल ! 13 साल के सुब्बाराव जेल भेजे गए. बाद में सरकार ने उम्र देख कर उन्हें रिहा कर दिया लेकिन हालात देख कर सुब्बाराव ने इस काम से रिहाई नहीं ली- कभी नहीं ! आजादी की आवाज लगाता वह किशोर जो जेल गया तो फिर जैसे लौटा ही नहींआवाज लगाता-लगाता अब जा कर महामौन में समा गया ! 

आजादी की लड़ाई लड़ने का तब एक ही मतलब हुआ करता था - कांग्रेस में शामिल हो जाना ! कांग्रेसिया है तो आजादी का सिपाही है- खादी की गांधी-टोपी और खादी का बाना तो समझोबगावत का पुतला तैयार हो गया ! ऐसा ही सुब्बाराव के साथ भी हुआ. कांग्रेस से वे कांग्रेस सेवा दल में पहुंचे और तब के सेवा दल के संचालक हार्डिकर साहब की आंखें उन पर टिकीं. हार्डिकर साहब ने सुब्बाराव को एक साल कांग्रेस सेवा दल को देने के लिए मना लिया. युवकों में काम करने का अजब ही इल्म था सुब्बाराव के पासऔर उसके अपने ही हथियार थे उनके पास. भजन व भक्ति-संगीत तो वे स्कूल के जमाने से गाते थेअब समाज परिवर्तन के गाने गाने लगे. आवाज उठी तो युवाओं में उसकी प्रतिध्वनि उठी. कर्नाटकी सुब्बाराव ने दूसरी बात यह पहचानी कि देश के युवाओं तक पहुंचना हो तो देश भर की भाषाएं जानना जरूरी है. इतनी सारी भाषाओं पर ऐसा एकाधिकार इधर तो कम ही मिलता है. ऐसे में कब कांग्रेस कासेवादल का चोला उतर गया और सुब्बाराव खालिस सर्वोदय कार्यकर्ता बन गएकिसी ने पहचाना ही नहीं.  

1969 का वर्ष गांधी-शताब्दी का वर्ष था. सुब्बाराव की कल्पना थी कि गांधी-विचार और गांधी का इतिहास देश के कोने-कोने तक पहुंचाया जाए. सवाल कैसे का था तो जवाब सुब्बाराव के पास तैयार था: सरकार छोटी-बड़ी दोनों लाइनों पर दो रेलगाड़ियां हमें दे तो मैं गांधी-दर्शन ट्रेन का आयोजन करना चाहता हूं. यह अनोखी ही कल्पना थी. पूरे साल भर ऐसी दो रेलगाड़ियां सुब्बाराव के निर्देश में भारत भर में घूमती रहींयथासंभव छोटे-छोटे स्टेशनों पर पहुंचती-रुकती रहीं और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थीनागरिकस्त्री-पुरुष इन गाड़ियों के डिब्बों में घूम-घूम कर गांधी को देखते-समझते रहे. यह एक महाभियान ही था. इसमें से एक दूसरी बात भी पैदा हुई : देश भर के युवाओं से सीधा व जीवंत संपर्क ! रचनात्मक कार्यकर्ता बनाने का कठिन सपना गांधीजी का थासुब्बाराव ने रचनात्मक मानस के युवाओं को जोड़ने का काम किया. 

मध्यप्रदेश के चंबल के इलाकों में घूमते हुए सुब्बाराव के मन में युवाओं की रचनात्मक वृत्ति को उभार देने की एक दूसरी पहल आकार लेने लगी और उसमें से लंबी अवधि केबड़ी संख्या वाले श्रम-शिविरों का सिलसिला शुरू हुआ. सैकड़ों-हजारों की संख्या में देश भर से युवाओं को संयोजित कर शिविरों में लाना और श्रम के गीत गाते हुए खेत-बांध-सड़क-छोटे घरबंजर को आबाद करना और भाषा के धागों से युवाओं की भिन्नता को बांधना उनका जीवन-व्रत बन गया! यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि देश-विदेश सभी जगहों पर उनके मुरीद बनते चले गए. वे चलते-फिरते प्रशिक्षण शिविर बन गए. ऐसे अनगिनत युवा शिविर चलाए सुब्बाराव ने. देश के कई अशांत क्षेत्रों को ध्यान में रख करवे चुनौतीपूर्ण स्थिति में शिविरों का आयोजन करने लगे.  

चंबल डाकुओं का अड्डा माना जाता था. एक-से-एक नामी डाकू-गैंग वहां से लूट-मार का अपना अभियान चलाते थे और फिर इन बेहड़ों में आ कर छिप जाते थे. सरकार करोड़ों रुपये खर्च करने और खासा बड़ा  पुलिस-बल लगाने के बाद भी कुछ खास परिणामकारी कर नहीं पाती थी.    फिर कुछ कहीं से कोई लहर उठी और डाकुओं की एक टोली ने संत विनोबा भावे के सम्मुख अपनी बंदूकें रख कर कहा : हम अपने किए का प्रायश्चित करते हैं और नागरिक जीवन में लौटना चाहते हैं ! यह डाकुओं का ऐसा समर्पण था जिसने देश-दुनिया के समाजशास्त्रियों को कुछ नया देखने-समझने पर मजबूर कर दिया. विनोबा का रोपा आत्मग्लानि का यह पौधा विकसित हो कर पहुंचा जयप्रकाश नारायण के पास और फिर तो कुछ ऐसा हुआ कि 4 सौ से ज्यादा डाकुओं ने जयप्रकाशजी के चरणों में अपनी बंदूकें डाल करडाकू-जीवन से मुंह मोड़ लिया. इनमें ऐसे डाकू भी थे जिन पर सरकार ने लाखों रुपयों के इनाम घोषित कर रखे थे. इस सार्वजनिक दस्यु-समर्पण से अपराध-शास्त्र का एक नया पन्ना ही लिखा गया. जयप्रकाशजी ने कहा : ये डाकू नहींहमारी अन्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था से बगावत करने वाले लेकिन भटक गए लोग हैं जिन्हें गले लगाएंगे हम तो ये रास्ते पर लौट सकेंगे. बागी-समर्पण के इस अद्भुत काम में सुब्बाराव की अहम भूमिका रही. चंबल के क्षेत्र में हीजौरा में सुब्बाराव का अपना आश्रम था जो इस दस्यु-समर्पण का एक केंद्र था. 

सुब्बाराव ने बहुत कुछ किया लेकिन अपनी धज कभी नहीं बदली ! हाफपैंट और शर्ट पहनेहंसमुख सुब्बाराव बहुत सर्दी होती तो पूरे बांह की गर्म शर्ट में मिलते थे. अपने विश्वासों में अटल लेकिन अपने व्यवहार में विनीत व सरल सुब्बाराव गांधी-विद्यालय के अप्रतिम छात्र थे. वे आज नहीं हैं क्योंकि कल उन्होंने विदा मांग ली. लेकिन उनका विद्यालय आज भी खुला है और नये सुब्बारावों को बुला रहा है. ( 27.10.2021)

एयर इंडिया में इंडिया कहां है

         बात कुछ ऐसी बनी है कि हमारे पास एक भरा-पूरा उड्डयन मंत्रालय हैएक वजनदार नागरिक उड्डयन कैबिनेट मंत्री है लेकिन हमारे पास कोई उड़ता हुआ जहाज नहीं है. कहूं तो ऐसे भी कह सकता हूं कि विस्तीर्ण आसमान तो है हमारे पास लेकिन उसमें उड़ती कोई चिड़िया नहीं है. टाटा ने 68 सालों बाद18,000 करोड़ रुपयों में दुनिया का सबसे महंगा रिटर्न टिकट’ खरीद कर अपने अपमान का बदला ले लिया है. उसने आसमान भी ले लिया है और सारे पंछी भी ले लिए हैं. विनिवेश का हर सौदा इस बात की खुली घोषणा है कि सरकार विफल हुई और उसका मंत्रालय निकम्मा साबित हुआ है. एक प्रश्न जो कोई पूछ नहीं रहा है वह यह है कि क्या विफल सरकार व निकम्मे मंत्रालय का विनिवेश कर के भी देख न लिया जाए शायद डगमगाते अर्थतंत्र को पटरी पर लाने का यह एक रास्ता हो ! 

टाटा से जब भारत सरकार ने एयर इंडिया छीना था तब 1952 में जेआरडी ने तब के संचारमंत्री जगजीवन राम से पूछा था : “ आप लोग जिस तरह अपने दूसरे विभागों को चलाते हैंक्या आप समझते हैं कि हवाई सेवा चलाना भी उतना ही आसान है अब आपको खुद ही आंटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा !” जगजीवन राम ने थूक गटकते हुए जवाब दिया था: “ भले अब यह सरकारी विभाग बन जाएगा लेकिन इसे चलाने में आपको हमारी मदद तो करनी ही होगी.” आज चेहरे बदल गए हैं लेकिन सवाल और जवाब नहीं बदले हैं. 

सवाल यह है कि खासी अच्छी कमाई करती और खासा अच्छा रुतबा रखने वाली एयर इंडिया सरकारी हाथों में आते ही ऐसी बुरी दशा को कैसे पहुंच गई कि उसे खरीदने वाले का अहसान मानना पड़ रहा है हमें और यह बात भी गहराई से समझने की है कि 1953 में एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण करने के बाद से आज तक भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं वे सब-की-सब एकाधिक बार एयर इंडिया की मालिक रह चुकी हैं लेकिन हवाई जहाज चलाना किसी को नहीं आया. यह भर सच होता तो भी हम सरकारों की अयोग्यता का रोना रो लेते लेकिन सच कुछ और ही हैऔर बेहद कड़वा है. सच यह है कि एयर इंडिया के हर मालिक ने निजी विमान कंपनियों के हित में काम किया और सार्वजनिक क्षेत्र की इस कंपनी को डुबाने में लोक-लाज का कोई ख्याल नहीं किया. इसकी भी एक खुली जांच होनी चाहिए कि नागरिक उड्डयन मंत्री व मंत्रालय के वरिष्ठतम अधिकारी इसकी मलाई कैसे खाते रहे और कैसे ऐसी नीतियां बनाते रहे कि एयर इंडिया हवा से उतर करजमीन में धंसती रही. किसी निजी कंपनी में ऐसा हुआ होता तो अब तक कितने सर जमींदोज हो गए होते और कितने जेल की सलाखों के पीछे होते. लेकिन यहां आलम यह रचा जा रहा है कि यह इस सरकार की कितनी बड़ी सफलता है कि उसने एक डूबी हुईदम तोड़ चुकी कंपनी एयर इंडिया को टाटा के मत्थे मढ़ दिया और देश को मालामाल कर दिया ! यह झूठ की पराकाष्ठा है. 

थोड़ी कहानी तो आंकड़े ही कह डालते हैं. 2009-10 से अब तक सरकार ने एयर इंडिया की फटी झोली मेंहमारी जेब से निकाल कर 54,584 करोड़ रुपये नकद और 55,692 करोड़ रुपये बाजार से उठाए गए कर्जों के एवज में जमानतस्वरूप डाले हैं. सरकार बता रही है कि एयर इंडिया में प्रति दिन का घाटा 20 करोड़ रुपयों का था. इसलिए इस बोझ को कंधे से उतारना जरूरी था. अगर यह सच है तो हम मान रहे हैं कि सबका साथ-सबका विश्वास ले करसबके प्रयास से देश का विकास करने की कोशिश में लगी इस सरकार ने टाटा कंपनी को मामू बनाया. अगर यह सच है तो इससे दो बातें स्वत: सिद्ध होती हैं: पहली यह कि सरकार सबका विकास’ के दायरे में टाटा कंपनी को शरीक नहीं करती है ( तभी तो उसे मामू बनाया न !) और दूसरी बात यह कि टाटा इतनी लल्लू कंपनी है कि उसने यह भंगार खरीद लिया. क्या ये दोनों बातें सरकार का काइयां चेहरा नहीं दिखाती है 

आंकड़े ही इस कहानी का दूसरा पक्ष हमारे सामने रखते हैं. टाटा ने 18,000 हजार करोड़ रुपयों में एयर इंडिया खरीदा है जिसमें से देश को मात्र 2,700 करोड़ रुपये नकद मिलेंगे. बाकी 15,300 करोड़ रुपये उस 60,000 करोड़ रुपयों के कर्ज में से बाद कर दिए जाएंगे जो 31 अगस्त 2021 की तारीख में एयर इंडिया पर थे. तो देश को इस विनिवेश से मिला क्या मात्र 2,700 करोड़ रुपये !! इसके एवज में टाटा को मिला क्या घरेलू हवाई अड्डों पर 1,800 अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के उतरने व ठहरने की सुविधाविदेश में 900 तथा देश में 4,400 सुरक्षित हवाई स्थानों की सुविधा30 लाख से अधिक निश्चित यात्री141 विमानों का जत्था13,500 प्रशिक्षित व अनुभवी कर्मचारी तथा घरेलू आसमान में 13.2% की हिस्सेदारी. मानिए कि एक बनी-बनाईजांची-परखी हवाई कंपनी भारत सरकार ने टाटा को उपहार में दे दी है. अब इस कंपनी को चाहिए तो बस एक कुशलईमानदार प्रबंध तथा व्यापार-बुद्धि जो दोनों टाटा के पास है. इसलिए तो सौदा पूरा होने के बाद रतन टाटा ने इतने विश्वास से कहा : “ हम एयर इंडिया की खोई प्रतिष्ठा फिर से लौटा लाएंगे !” हम सब एयर इंडिया को और रतन टाटा को इसकी शुभकामना दें. 

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हमारी गाढ़ी कमाई से बनाई गई वे राष्ट्रीय संपत्तियां हैं जिन्होंने लंबे औपनिवेशिक शोषण से बाहर निकले देश की आत्मनिर्भरता को मजबूत बनाया है. अंतरराष्ट्रीय मंदी के लंबे दौर से हम खुद को जिस हद तक बचा सकेउसके पीछे हमारी इन आत्मनिर्भर परियोजनाअों कीलघु उद्योगों के जाल की बड़ी भूमिका रही है. सार्वजनिक क्षेत्र की हमारी कंपनियां देश की उन जरूरतों को पूरा करती हैं जिनकी तरफ मात्र मुनाफा व सुरक्षा को देखने वाले निजी व्यापारी व कारपोरेट देखते भी नहीं हैं. 

सार्वजनिक क्षेत्र के पास दो सबसे बड़ी ताकत होती है : जनता से मिलने वाली बड़ी अकूत पूंजी और सत्ता से मिलने वाली सुविधाएं व संरक्षण. किसी भी व्यापारिक उपक्रम को सफल बनाने वाले ये दोनों तत्वकिसी कारपोरेट को नहीं मिलते हैं. उसे यह सब चोर दरवाजे से हासिल करना पड़ता है. फिर यह कैसे व क्यों होता जा रहा है कि विनिवेश के नाम पर हम सार्वजनिक क्षेत्रों को खोखला बनाते जा रहे हैं कारण दो हैं : सरकारों ने सार्वजनिक उपक्रमों कोलोक कल्याण की अपनी प्रतिबद्धता की नजर से नहीं देखा बल्कि इससे मनमाना कमाई का कारपोरेटी रास्ता बनाया है. उसने सार्वजनिक क्षेत्र  के नाम पर ऐसे उपक्रमों में हाथ डाला जो किसी भी तरह लोककल्याण के उपक्रम नहीं थे. दूसरी तरफ सरकारी होने के कारण उनके प्रति किसी की निजी प्रतिबद्धता नहीं रही. तो नजर भी गलत रही और प्रतिबद्धता भी खोखली रही. 

सार्वजनिक उपक्रमों की कठोर समीक्षा का सिलसिला न कभी बनाया गयान चलाया गया. इसलिए ये उपक्रम निकम्मे मंत्रियों और चालाक नौकरशाहों का आरामगाह बन गए. अब विनिवेश के नाम पर वे ही लोग अपनी नंगी विफलता व बेईमानी को छुपाने में लगे हैं. 

अत्यंत केंद्रित औद्योगिक क्रांति के साथ ही एक नया चलन सामने आया : पूंजी व सत्ता का गठजोड़ ! यह गठजोड़ हमेशा सार्वजनिक हित के खिलाफ काम करता रहा है. यहीं से उपनिवेशों का क्रूर शोषणकारी चलन बना. अब उसने नया रूप धरा है और विनिवेश व विकास के नाम पर पूंजी व प्राकृतिक संसाधन को कारपोरेटों के हवाले कर रहा है. इसलिए हमें सावधानीपूर्वक यह देखना चाहिए कि सार्वजनिक पूंजी और प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण न हो. इसमें से शोषण व गुलामी के सिवा दूसरा कुछ हमारे हाथ आएगा नहीं. ( 12.10.2021)